Question : भारत में सौर ऊर्जा के उपयोग की संभावनाओं का विवेचन कीजिए।
(1992)
Answer : सौर ऊर्जा से तात्पर्य सूर्य से सीधे, विकिरण द्वारा प्राप्त ऊर्जा से है। यह ऊर्जा विश्व के सभी देशों को बिना किसी लागत के उपलब्ध है। सूर्य का ताप प्रति घंटे 21 लाख टन कोयले से उत्पन्न ऊर्जा के बराबर ऊर्जा दे रहा है। वर्तमान समय में सौर ऊर्जा का उपयोग घरेलू कामों, वातानुकूलन, पानी निकालने, विद्युत ऊर्जा में बदलने, उपग्रहों, बायो-गैस उत्पादन आदि कार्यों में हो रहा है। गैर-परंपरागत ऊर्जा विभाग देश में ऊर्जा के विकास हेतु कार्य कर रहा है। भारत में 250 से 300 दिनों तक अधिकतर भागों में पर्याप्त धूप रहती है। मद्रास में 10 किलोवाट का सौर शक्ति केंद्र तत्कालीन पश्चिम जर्मनी के सहयोग से लगाया गया है। बड़ौदरा के निकट विकसित हो रहा खाडि़या गांव देश का ऐसा प्रथम गांव है, जिसकी ऊर्जा संबंधी सभी आवश्यकताएं सौर ऊर्जा साधनों से पूरी होंगी। सौर ताल, जो कि जल-लवण विलयन के गुणों पर आधारित है, सौर ऊर्जा एकत्र करने का एक अच्छा साधन है तथा भारत में कच्छ के रण क्षेत्र में भी इसका प्रयोग किया जा रहा है। देश में एक लाख से अधिक सोलर कुकर उपयोग में लाये जा रहे हैं तथा फोटोवोल्टेइक सेल के प्रयोग से सौर ऊर्जा को सीधे विद्युत ऊर्जा में बदला जा रहा है। देश में 35,000 रोड लाइटें, 1,000 जल पंप, 400 सामुदायिक प्रकाश व्यवस्था, टी.वी. व्यवस्था, 200 आवास प्रकाश इकाइयां तथा 50 विद्युत शक्ति केंद्र सौर ऊर्जा से संचालित हैं। 2,700 से अधिक गांवों में सड़कों की प्रकाश व्यवस्था सौर ऊर्जा पर आधारित है। सेंट्रल इलेक्ट्रॉनिक्स लिमिटेड द्वारा बनाये गये प्रकाश वोल्टीय सेल भी काफी लोकप्रिय हो रहे हैं। जोधपुर में मथाहनया गांव में 350 करोड़ रुपये की लागत से एशिया का प्रथम सौर तापीय संयंत्र स्थापित किया जा रहा है। अतः सौर ऊर्जा के विभिन्न लाभों के साथ-साथ पर्यावरण सुरक्षा की दृष्टि से भी इसके अधिक से अधिक उपयोग की भारत में पर्याप्त संभावनायें हैं। रेगिस्तानी क्षेत्रों, दूरदराज के पहाड़ी क्षेत्रों व पिछड़े क्षेत्रों में पेयजल, सिंचाई, विद्युत व ईंधन संबंधी कमी को दूर करने में सौर ऊर्जा की आदर्श भूमिका हो सकती है।
Question : जैव विविधता (बायो डायवर्सिटी) क्या है? इसको सुरक्षित क्यों रखा जाये।
(1992)
Answer : जैविक विविधता का तात्पर्य पृथ्वी पर पाये जाने वाले पादपों, जन्तुओं, सूक्ष्म जीवों आदि विभिन्न प्रकार के जैविक प्रारूपों से है। इसमें विभिन्न जातियों के साथ-साथ उनकी उपजातियां व उपइकाइयों को भी शामिल किया जाता है तथा विभिन्न जातियां व प्रजातियां अलग-अलग चारित्रिक विशेषतायें लिए हुए होती हैं। भारत में विभिन्न प्रकार के जीव-जंतु व वनस्पतियां विद्यमान हैं।
मानव स्वभाव से ही स्वार्थी रहा है और अपनी इसी प्रवृत्ति के कारण वह विभिन्न प्राकृतिक संसाधनों को समाप्त किये जा रहा है। इस प्रकार, जैविक पूंजी की क्षति निरंतर जारी है। जैव विविधता के कारण ही हमारी विभिन्न आवश्यकताओं की पूर्ति होती है। प्राकृतिक संसाधन अर्थव्यवस्था के विभिन्न क्षेत्रों, जैसे- कृषि, चिकित्सा, उद्योग आदि के लिए महत्वपूर्ण हैं। भारत में विभिन्न प्रकार के जीव-जंतु व वनस्पतियां विद्यमान हैं। भारतीय प्रायद्वीप का पश्चिमी घाट, जो कि दक्षिण राज्यों तक फैला है, विभिन्न प्रजातियों का भण्डार है। एक अनुमान के अनुसार, पश्चिमी घाट में केवल केरल ही भारत में पायी जाने वाली एक-तिहाई जन्तु नस्लों का प्रश्रय स्थल है। उष्ण कटिबंधी वन भी विविधता की दृष्टि से धनी हैं। जैव विविधता की रक्षा निम्न उपायों द्वारा की जा सकती है-
जीवमंडल रक्षित क्षेत्र बनाने के लिए देश में 14 क्षेत्रों को चुना गया है, जिसमें निम्न 7 स्थापित हो चुके हैं- नीलगिरि, नंदादेवी, नेकर्क, ग्रेट निकोबार, मन्नार की खाड़ी, मानस व सुन्दरवन।
Question : जैव उर्वरक क्या है? रासायनिक उर्वरकों से वह किस प्रकार अधिक लाभप्रद है?
(1992)
Answer : जैव उर्वरक सूक्ष्म जीवों यथा राइजोबियम, एजोबैक्टर, क्लॉस्ट्रीडियम एवं नाइट्रोजन, स्थिरक के रूप में नीला व हरा शैवाल- बेसिलस सबटाइलिस तथा कवक एजोला आदि का संवर्द्धन है। इसके उपयोग से पौधों को सभी आवश्यक पोषक तत्व प्राप्त हो जाते हैं। वर्तमान में रासायनिक व जैव उर्वरक के उपयोग की जगह ऐसी तकनीक विकसित की जा रही है, ताकि पौधे स्वयं वायुमंडल से नाइट्रोजन ग्रहण कर उसका स्थिरीकरण कर सकने में सक्षम हो सकें।
आज रासायनिक उर्वरक की अपेक्षा जैव उर्वरक का उपयोग अधिक किया जाना अत्यावश्यक हो गया है। एक तरफ रासायनिक उर्वरक के निर्माण में जहां अधिक ऊर्जा व्यय होती है, वहीं यह काफी महंगा भी है। साथ ही, इसका उपयोग दोबारा नहीं किया जा सकता है। इसके विपरीत, जैव उर्वरक का निर्माण आसानी से व कम लागत पर किया जा सकता है। जैव उर्वरक का उपयोग दोबारा भी किया जा सकता है। इस प्रकार, रासायनिक उर्वरक के एक पूरक के रूप में जैव उर्वरक प्रभावशाली, सस्ते एवं पुनः प्रयोग में लाये जा सकने वाले स्रोत हैं। दालों एवं सोयाबीन तथा मूंगफली जैसे फलीदार तिलहनों के लिए राइजोबियम संचारण एवं नीला व हरित शैवाल को निचले इलाकों में उगाये जाने वाले धान के लिए काफी लाभदायक पाया गया है। रासायनिक उर्वरक भूमि के दीर्घकालीन उपजाऊपन को हानि पहुंचाता है। साथ ही, यह जल एवं मृदा प्रदूषण का एक महत्वपूर्ण कारण है, जबकि जैव उर्वरक के उपयोग से ऐसे हानिप्रद प्रभावों से बचा जा सकता है। इसके अलावा जैव उर्वरक भूमि की उर्वरा शक्ति को चिरकाल तक बनाये रखने में भी सहायक होता है।
Question : ओजोन प्रदूषण क्या है?
(1988)
Answer : ओजोन के अणुओं में कमी आने से इस परत की क्षमता सूर्य की पराबैगनी किरणों (अल्ट्रावायलेट किरणें) को रोकने में धीरे-धीरे कम हो जाती है। सी.एफ.सी. (क्लोरोफ्रलोरो कार्बन) औद्योगिक ठिकानों से निकलकर ओजोन रिक्तिकरण को बढ़ावा देते हैं, जिससे ओजोन के अणु घट जाते हैं। यही ओजोन प्रदूषण कहलाता है।
Question : कुछ विशेषज्ञों की राय है कि देश के विभिन्न भागों में जो बांध और जलाशय हैं, उनके अप्रिय परिणाम हो सकते हैं। ये शंकाएं कहां तक सही हैं?
(1988)
Answer : देश के विभिन्न भागों में स्थित बांध और जलाशय पर्यावरण पर व्यापक प्रभाव डालते हैं। इनमें से कुछ प्रमुख प्रभाव हैं- जलग्रहण क्षेत्रों की उर्वरता पर असर, बांध के कारण गृह विहीन लोगों के पुनर्वास की समस्या, प्रदूषित पानी से उत्पन्न रोगों में वृद्धि, जलाशयों के निर्माण से भूकंप आने की आशंका व बांधों को बनाने के लिए जंगलों को काटने से पौधे और पशु की प्रजातियों का नुकसान। नियंत्रित क्षेत्र विकास (Command Area Development) मुख्यतः कृषकों के लिए काम कर रहा है, लेकिन आर्थिक परेशानी की वजह से जल निकासी, जमीन का उपज के आधार पर वर्गीकरण और उन्हें समतल बनाने का काम नहीं हो सका है। पानी जमाव से मलेरियाऔर फलेरिया जैसे रोग पनपते हैं। बांधों से गांव, जंगल और जमीन पानी में डूब जाते हैं। इसलिए इनके निर्माण से पहले पर्यावरण संतुलन की तरफ ध्यान देना आवश्यक है।
Question : ओजोन की रक्षा के लिए मांट्रियल प्रोटोकॉल की प्रमुख अनुशंसाएं क्या हैं? लंदन में हाल ही में आयोजित कन्वेंशन से भारत किस रूप में प्रभावित है?
(1990)
Answer : ओजोन स्तर का क्षय एक व्यापक रूप ग्रहण कर चुका है। ओजोन स्तर में क्षय का प्रमुख कारण क्लोरीन गैस की उपस्थिति है, जो ओजोन अणुओं को ऑक्सीजन अणु में बदल देती है। क्लोरीन का मुख्य स्रोत सी.एफ.सी. (CFC) है, जो ग्रीन हाऊस प्रभाव पैदा करने में सक्षम होता है। इसके अलावा सी.एफ.सी. संश्लेषित रसायन होते हैं, जिनका उपयोग प्रशीतन हेतु किया जाता है। इन्हीं कारणों से ओजोन स्तर में क्षय की समस्या जन्म ले रही है। उल्लेखनीय है कि पृथ्वी के ऊपरी वायुमंडल में विद्यमान ओजोन की परत सूर्य से आने वाली पराबैंगनी किरणों का 99 प्रतिशत भाग अवशोषित कर लेती है। पराबैंगनी किरणें जीवन के लिए काफी घातक होती है। 1987 में संयुक्त राष्ट्र इस बात पर सहमत हुआ कि सी.एफ.सी. उत्पादन पर नियंत्रण रखा जाये। मांट्रियल सम्मेलन में 24 दिसंबर, 1987 को एक अंतरराष्ट्रीय समझौता संपन्न हुआ। समझौते में यह निर्णय लिया गया कि क्लोरोनित सी.एफ.सी. रसायनों का प्रयोग सन् 2000 तक के लिए प्रतिबंधित किया जाये। इसमें 48 औद्योगिक देशों और 11 विकासशील देशों ने भाग लिया। भारत और चीन ने इसमें हिस्सा नहीं लिया, क्योंकि वे इसे भेदमूलक मान रहे थे। भारत व चीन के अनुसार, विकसित देश ही ओजोन स्तर के क्षय के लिए जिम्मेदार हैं। अतः उन्हें तीसरे विश्व के लिए आवश्यक तकनीक हेतु जरूरी धन का अधिकतम भाग वहन करना चाहिए। मार्च 1989 में लंदन के ‘ओजोन बचाओ’ सम्मेलन में 118 देशों ने भाग लिया। सम्मेलन में मांट्रियल समझौते को अमल में लाने व ओजोन स्तर के क्षय के निवारण के उपायों पर चर्चा हुई। इसी विषय पर जुलाई 1990 के लंदन सम्मेलन में एक अंतरराष्ट्रीय वायुमंडलीय कोष, जिसमें 160 मिलियन डॉलर की सहायता विकसित देशों द्वारा की गई थी, की स्थापना की गई। परंतु भारत व चीन के शामिल होने पर यह राशि 80 मिलियन डॉलर बढ़ गई। भारत भी इस संधि पर हस्ताक्षर पर राजी हो गया तथा वायुमण्डलीय नियंत्रण पर अपनी योजना पर धीरे-धीरे कार्य करने लगा।
Question : सार्वत्रिक चेतावनी (Global Warning) से क्या आशय है? उसके क्या प्रभाव होते हैं?
(1990)
Answer : विश्वभर में तेजी से होते औद्योगीकरण के फलस्वरूप कारखानों व मोटर गाडि़यों से निकलने वाले धुएं, घरेलू उपयोग हेतु जलायी जाने वाली लकड़ी व कोयले से निकलने वाले धुएं तथा वनों की अंधाधुंध कटाई के कारण वायुमण्डल में कार्बन डाई ऑक्साइड की मात्रा में वृद्धि होती जा रही है। कार्बन डाई ऑक्साइड गैस के कारण सूर्य के विकिरण को परावर्तित होकर वापस जाने में रुकावटें आ रही हैं, जिससे वायुमण्डल के तापमान में वृद्धि हो रही है। इसी कारण 1950 से अभी तक वायुमण्डल का ताप 1ºC बढ़ चुका है। इसे ही ग्लोबल वार्मिंग (सार्वत्रिक तापमान में वृद्धि) कहते हैं। सार्वत्रिक तापवृद्धि के कारण मौसम में अनियमितता आती है, जिससे कृषि क्षेत्र पर विपरीत प्रभाव पड़ता है। इससे ध्रूव प्रदेशों की बर्फ पिघलने से समुद्री जल स्तर बढ़ जायेगा, जिससे तटीय इलाके डूब जाने की आशंका है।
Question : ‘प्रोजेक्ट टाइगर’ के प्रमुख लक्षण बतलाइये। इससे चीते के परिसमाप्ति को बचाने में कहां तक सहायता मिली है?
(1994)
Answer : बाघ (पैंथरा टाइग्रिस लिन्नायस) भारत का राष्ट्रीय पशु है। बहुपयोगी खाल और औषधीय गुण युक्त हड्डी के चलते मनुष्य द्वारा इसका शिकार बड़े पैमाने पर किये जाने के कारण इसकी संख्या में तेजी से गिरावट आयी है। साथ ही, जंगलों के कटने के कारण भी इसकी संख्या में तेजी से गिरावट आयी है। बाघों की गिरती संख्या को बचाने के लिए सरकार ने उनके शिकार पर रोक लगाने के लिए वन्य जीव रक्षा अधिनियम, 1992 लागू किया। इस अधिनियम के लागू होने के बावजूद पूर्वोत्तर राज्यों, मध्य प्रदेश एवं रणथम्भौर के अभयारण्यों में बाघों का अवैध शिकार जारी है। सन् 1972 में बाघों की गिनती से ज्ञात हुआ कि उनकी संख्या केवल 1827 रह गई है। अतः बाघों की संख्या बढ़ाने के उद्देश्य से अप्रैल 1973 में ‘प्रोजेक्ट टाइगर’ नामक परियोजना प्रारंभ की गई। इस परियोजना के अन्तर्गत देश के 21 वन्य जीव अभयारण्यों को सुरक्षित क्षेत्र घोषित कर दिया गया। इस परियोजना के अन्तर्गत कुल 30,497 वर्ग कि.मी. क्षेत्र आता है। 1987 में बाघों की गिनती करने पर उनकी जनसंख्या में आशानुकुल वृद्धि के संकेत मिले तथा उनकी संख्या बढ़कर 4334 हो गई। अतः एक हद तक यह कहा जा सकता है कि ‘प्रोजेक्ट टाइगर’ परियोजना अपने उद्देश्य में सफल रही हैं।
Question : ओजोन होल क्या है? यह किस कारण होता है और पृथ्वी में इसका जीवन पर क्या प्रभाव पड़ता है?
(1999)
Answer : पर्यावरण की जिन समस्याओं ने मानव जीवन के अस्तित्व के लिए संकट पैदा कर दिया है, उनमें ऊपरी वायुमंडल यानी समतापमंडल (Stratosphere) की ओजोन गैस का क्षरण प्रमुख है। समतापमंडल में स्थित ओजोन गैस (O3) का 20 कि.मी. मोटाई वाला सघन घेरा संपूर्ण मंडल को पृथ्वी की सतह से 40 कि.मी. की ऊंचाई पर घेरे रहता है, जिसके कारण वायुमंडल में प्रवेश करने वाली पराबैंगनी किरणों के इसी घेरे में अवशोषित होने के कारण मात्र 1 प्रतिशत की मात्रा ही पृथ्वी पर आ पाती है। लेकिन क्लोरोफ्रलोकार्बन (CFCs), हैलोन गैसें तथा कार्बन की अन्य हैलोजनीकृत गैसें मुक्तमूलकश्रृंखलाबद्ध अभिक्रिया (Chain Reaction) द्वारा ओजोन का अनवरत क्षय करती रहती हैं, जिससे ओजोन परत में छिद्र (Ozone Hole) पैदा हो जाता है। मनुष्य के क्रिया-कलापों के फलस्वरूप निकलने वाले ओजोन-क्षरण पदार्थ (O.D.S.) ही ओजोन परत को लगातार क्षीण कर रहे हैं।
ओजोन परत के विनाश से पराबैंगनी विकिरणें पृथ्वी पर सीधे आ जाती हैं। ये किरणें शरीर की प्रतिरोधक क्षमता को घटा देती हैं, जिससे कई रोगों-मीजल्स, चिकन पॉक्स, लेप्रोसी, फंगस बीमारियां, आंखों की बीमारियां तथा कैंसर आदि का प्रसार होने लगता है। इससे डी.एन.ए. (जेनेटिक पदार्थ) संवेदनशील बनकर कोशिकाओं को नष्ट कर देती हैं। इससे सार्वत्रिक ऊष्णता, हिमखंडों का पिघलना, रासायनिक कोहरे की उत्पत्ति, पारिस्थितिकी असंतुलन आदि जैसी समस्याएं भी सामने आयेंगी।
Question : सी.एन.जी. क्या है? वह किस प्रकार वायु प्रदूषण को कम करता है?
(1999)
Answer : एन.जी. अर्थात दाबित प्राकृतिक गैस (Compressed Natural Gas) एक प्रकार का ईंधन है। इससे सल्फर डाइऑक्साइड, कार्बन मोनोऑक्साइड, नाइट्रोजन ऑक्साइड आदि जैसी हरित गृह गैसों के अलावा प्रदूषित कणों का निस्सरण नहीं होता है और इस तरह यह प्रदूषण से बचाता है।
Question : ओजोन छिद्र क्या है? यह कैसे बनता और इसका पृथ्वी पर क्या प्रभाव पड़ता है।
(1996)
Answer : ओजोनमंडल वस्तुतः ओजोन गैस की एक 25 से 28 किलोमीटर मोटी परत है, जो वायुमंडल में धरातल से लगभग 22 से 25 किलोमीटर ऊपर स्थित है। ओजोनमंडल में क्षय के ज्ञात कारणों में सर्वाधिक उत्तरदायी है- क्लोरो फ्रलोरो कार्बन वर्ग के रसायनों का उत्पादन, जिसका उपयोग आए दिन रेफ्रिजरेटरों, वातानुकूलन यंत्रें, प्लास्टिक, फोम, रंग-रोगन, एरोसॉल आदि उद्योगों में होता है। ये गैसें ऊपर जाकर ओजोन से प्रतिक्रिया कर उसे साधारण ऑक्सीजन में परिवर्तित कर देती हैं।
ओजोन परत के विनाश से पराबैंगनी विकिरणें पृथ्वी पर सीधे ही आती हैं। पराबैंगनी विकिरण शरीर की प्रतिरोधक क्षमता को घटा देती हैं और शरीर कई प्रकार के संक्रमणों के प्रति संवेदनशील हो जाता है, जिससे कई प्रकार की बीमारियां पनपती हैं, जैसे मीजल्स, चिकन पॉक्स, लेप्रोसी तथा फंगस बीमारियां। पराबैंगनी प्रकाश का एक्सपोजर आंख में मोतियाबिंद पैदा करता है। कोशिकाओं में बंद जेनेटिक पदार्थ (डी.एन.ए.) पराबैंगनी प्रकाश के लिए बहुत ही संवेदनशील होता है। डी.एन.ए. की क्षति से या तो कोशिका नष्ट हो जाती है या फिर कैंसर कोशिका में बदल जाती है। ओजोन में एक प्रतिशत की कमी से त्वचा कैंसर के तीन प्रतिशत रोगी बढ़ते हैं।
Question : ‘हरित गृह प्रभाव’क्या है? इसका पृथ्वी के पर्यावरण पर क्या प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है? इसे रोकने के लिए क्या उपाय किये जा रहे हैं?
(1995)
Answer : ‘हरित प्रभाव’ का अर्थ है- गैसों के जमाव के कारण अथवा ऊर्जा का अन्तरिक्ष में विलय न हो पाने के कारण, पृथ्वी के तापमान में वृद्धि होना। सामान्य तौर पर ‘हरित गृह’ (ग्रीन हाउस) शीशे का बना एक ऐसा घर होता है, जिसमें पौधों को अधिक गर्मी से बचाने के लिए शीशे (कांच) का प्रयोग किया जाता है। ठीक इसी प्रकार, पृथ्वी के लिए उसका वायुमण्डल ‘ग्रीन हाउस’ के कांच के रूप में कार्य करता है। वायुमण्डल सूर्य के विकिरण की कम तरंग दैर्ध्य वाली किरणों को तो पृथ्वी पर आने देता है, परंतु लम्बी तरंग दैर्ध्य वाली किरणों को अवशोशित करके रोक लेता है। अवशोशित विकिरण वायुमण्डल से बाहर नहीं जाता है, बल्कि ऊष्मा के रूप में मौजूद रहता है। वायुमण्डल में मौजूद जलवाष्प तथा कार्बन डाइऑक्साइड पृथ्वी से पुनः विकिरित होने वाली ऊर्जा को अवशोषित करने की अच्छी शक्ति रखते हैं और हरित प्रभाव को बढ़ा देते हैं। मरुस्थल के ऊपर स्वच्छ और सूखी हवा में हरित प्रभाव कम तथा अधिक आर्द्रता वाले क्षेत्रों में हरित प्रभाव अधिक होता है। इसी प्रकार, जिन क्षेत्रों में कोयला तथा पेट्रोलियम पदार्थों को जलाने से कार्बन डाइऑक्साइड अधिक निकलती है वहां हरित प्रभाव अधिक होता है तथा जहां इस प्रकार के पदार्थ कम जलाये जाते हैं, वहां हरित प्रभाव कम होता है।
वैज्ञानिकों का मानना है कि वायुमण्डल में औद्योगिक गैसों-क्लोरो फ्रलोरो कार्बन, नाइट्रस ऑक्साइड आदि की अधिक मात्रा में एकत्रित होने से पृथ्वी पर हरित प्रभाव बढ़ रहा है, क्योंकि इन गैसों में ऊष्मा को अवशोषित करने की क्षमता जलवाष्प तथा कार्बन डाइऑक्साइड की तुलना में अधिक है। क्लोरो फ्रलोरो कार्बन का एक अणु उतनी ऊष्मा अवशोषित कर सकता है, जितनी ऊष्मा कार्बन डाइऑक्साइड के 10,000 अणु अवशोषित कर पाते हैं। वैज्ञानिकों का मानना है कि यदि वायुमण्डल में पैदा हो रहे इस असंतुलन को नहीं रोका गया, तो पृथ्वी एक न एक दिन एक भट्टी के रूप में परिवर्तित हो जायेगी। हरित प्रभाव को रोकना वर्तमान समय में वैज्ञानिकों तथा राजनीतिज्ञों की पहली प्राथमिकता हो गई है। वैज्ञानिकों ने इस समस्या के समाधान के लिए वायुमण्डल में कार्बन डाइऑक्साइड तथा अन्य औद्योगिक गैसों की बढ़ती मात्रा को कम करने का सुझाव दिया है, जिसके लिए निम्न उपाय किये जा रहे हैं-
(i)क्लोरो फ्रलोरो कार्बन के प्रयोग को पूरी तरह से समाप्त करने के लिए 1987 में कांट्रियल प्रोटोकोल पर हस्ताक्षर किये गये। इस प्रोटोकोल के अनुसार, 1995 तक सभी देश सी.एफ.सी. के प्रयोग में 50 प्रतिशत तक; 1997 तक 85 प्रतिशत तक तथा 2000 तक 100 प्रतिशत की कमी लाकर इसके प्रयोग को पूरी तरह से बन्द कर देंगे।
(ii)सी.एफ.सी. तथा अन्य हानिकारक रसायनों के उत्पादन और प्रयोग को समाप्त कर देने के लिए 240 मिलियन डॉलर के प्रारंभिक अंशदान से एक अन्तरिम निधि स्थापित की गई है।
(iii)सी.एफ.सी. का विकल्प खोज लिया गया है।
(iv)ऐसे वाहन विकसित किये जा रहे हैं, जो विद्युत ऊर्जा, सौर ऊर्जा आदि से चलेंगे।
(v)औद्योगिक क्षेत्रों में बड़े पैमाने पर वृक्षारोपण किया जा रहा है। जितनी अधिक वनस्पतियां होंगी, वायुमण्डल भी उतनी ही अधिक कार्बन डाइऑक्साइड अवशोशित करके कार्बनिक पदार्थों तथा ऑक्सीजन का उत्पादन करेगी। इस प्रयोजन के लिए संपूर्ण विश्व में वर्ल्ड वाइल्डलाइफ फण्ड (W.W.F.) द्वारा पौधा संरक्षण कार्यक्रम तीव्रता से चलाया जा रहा है।
Question : एड्स (AIDS) क्या है? इसके प्रमुख लक्षणों का वर्णन कीजिए।
(1995)
Answer : बीसवीं शताब्दी की सर्वाधिक खतरनाक बीमारी के रूप में चर्चित हुए एड्स रोग को एक्वायर्ड इम्यूनो डिफीसिएंसी सिण्ड्रोम (Acquired Immuno Deficiency Syndrome) के नाम से जाना जाता है। यह रोग एच.आई.वी. (Human Immuno Virus) नामक विषाणु के मानव रक्त में प्रवेश कर जाने से फैलता है। HIV 1/1000 मि.मी. व्यास का एक गोलाकार विषाणु है, जो दो लिपिड झिल्लियों का बना होता है। इसमें दो प्रकार के गलाइको प्रोटीन तथा दो प्रकार के प्रोटीन स्तर होते हैं। विषाणु का D.N.A. तथा रिवर्स ट्रास्क्रिप्टेज मध्य में होता है।
वैज्ञानिकों ने यह पता किया है कि स्वस्थ व्यक्ति के शरीर में निम्नलिखित चार माध्यमों से एच.आइ्र.वी. विषाणु प्रवेश कर जाता है-
(i)एच.आई.वी. विषाणु धारक व्यक्ति (महिला अथवा पुरुष) के साथ संभोग करने से।
(ii)एच.आई.वी. विषाणु धारक व्यक्ति के शरीर से निकाले गये रक्त को स्वस्थ व्यक्ति के शरीर में चढ़ाने से।
(iii)एच.आई.वी. विषाणु धारक व्यक्ति के शरीर में त्वचा के भीतर प्रवेश कराये गये नोकदार अथवा धारदार औजारों जैसे चाकू, ब्लेड, कैंची, उस्तरा, इंजेक्शन की सुई आदि को स्वस्थ व्यक्ति के शरीर की त्वचा में प्रनः प्रवेश कराने से।
(iv)एच.आई.वी. विषाणु धारक गर्भवती महिला के शिशु में नाभि नालिका (Umbilical Cord) द्वारा।
एच.आई.वी. विषाणु स्वस्थ व्यक्ति के शरीर में प्रवेश करके श्वेत रुधिर कणिकाओं, जो व्यक्ति में रोगों से लड़ने की क्षमता पैदा करते हैं, को नष्ट करने लगता है और इस प्रकार एच.आई.वी. संक्रमण से ग्रसित व्यक्ति में विभिन्न प्रकार के रोगाणुओं-जीवाणु, विषाणु, प्रोटोजोआ, परजीवी आदि से लड़ने की क्षमता समाप्त हो जाती है तथा व्यक्ति को विभिन्न प्रकार की बीमारियां पैदा हो जाती हैं। हाल ही में कुछ वैज्ञानिकों ने यह दावा किया है कि इस रोग का इलाज उन्होंने तलाश लिया है। मगर अब भी इसका कोई विश्वस्त इलाज नहीं ईजाद हो पाया है।
Question : सीसा रहित पेट्रोल क्या होता है? इसके क्या गुण-दोष हैं?
(1995)
Answer : वैज्ञानिक खोजों से यह पता चला है कि पेट्रोल से चलने वाली कारों से निकलने वाले धुएं में कार्बन मोनोऑक्साइड, हाइड्रोकार्बन तथा सल्फर और नाइट्रोजन के ऑक्साइड होते हैं। ईधन की क्षमता में वृद्धि करने तथा एन्टी नॉकिंग गुण को बढ़ाने के लिए भारत में पेट्रोल में सीसा मिलाया जाता है। यही सीसा कार के धुएं के साथ छोटे-छोटे कणों के रूप में बाहर निकलता है और वायुमण्डल में समा जाता है। बाद में यही सीसा हवा के साथ व्यक्ति के शरीर में सांस द्वारा प्रवेश करता है और उसे रोगी बना देता है। सीसा रहित पेट्रोल में टेट्रा इथाइल लेड (TEL) मिलाये जाने से ऑक्टेन का स्तर तो बढ़ जाता है, लेकिन जब यही सीसा लेड ऑक्साइड के रूप में बाहर निकलता है, तो वायु को प्रदूषित कर देता है, जो अन्ततः मानव जीवन के लिए खतरनाक बन जाती है।
मानव जीवन के लिए पैदा हुई इस समस्या के निदान के लिए भारत में 1 अप्रैल, 1995 से देश के चुने हुए 154 पेट्रोल पम्पों से सीसा रहित पेट्रोल की बिक्री की व्यवस्था की गई है। इसके पीछे यह सोच है कि सीसा रहित पेट्रोल के प्रयोग से वाहन जनित वायु प्रदूषण को 50 प्रतिशत तक कम किया जा सकेगा। कैटालिटिक कनवर्टर लगी किसी कार में जब सीसा रहित पेट्रोल का प्रयोग ईंधन के रूप में किया जाता है, तो कैटालिटिक कनवर्टर कार्बन मोनोऑक्साइड तथा अन्य हाइड्रोकार्बन्स को कार्बन डाइऑक्साइड तथा पानी में परिवर्तित कर देता है, जो अपेक्षाकृत कम हानिकारक होता है। लेकिन यदि कैटालिटिक कनवर्टर पूरी तरह से सक्षम नहीं है, तो वह धुएं के साथ बेंजीन को छोड़ेगा, जिसके प्रभाव लेड ऑक्साइड से भी घातक होते हैं। इसमें एक समस्या यह भी है कि कार या पेट्रोल चालित अन्य वाहनों में कैटालिटिक कनवर्टर लगाने की लागत 10,000-15,000 रुपये तक आती है। ऐसी स्थिति में, यदि इसे दुपहिये तथा तिपहिये वाहनों में लगाया जाता है, तो उनकी लागत बढ़ जाती है।
Question : अल निनो (EL Nino) क्या है? इसकी भारत में क्या प्रासंगिकता है?
(1995)
Answer : अल निनो एक गर्म सामुद्रिक धारा है, जो पूर्वी प्रशान्त महासागर में पेरु के किनारे कभी-कभी प्रवाहित होती है। यह भूमध्यरेखीय धारा का विस्तार मात्र है, जो धरातलीय जल के तापमान को बढ़ा कर 10º से. तक पहुंचा देती है। यह 7 या 14 वर्ष बाद प्रवाहित होती है। इससे प्रशान्त महासागर में द. पूर्व व्यापारिक हवाएं कमजोर पड़ जाती हैं। इसके कारण भारत के आसपास भी इसका बुरा प्रभाव पड़ सकता है।
Question : जैव उपचार (Bioremediation) क्या है?
(1995)
Answer : जैव प्रौद्योगिकी (Bio-technology) द्वारा प्राप्त साधनों से प्रयुक्त उपचार विधि को जैव उपचार कहते हैं। सस्ती व अच्छे किस्म की दवाएं, संक्रामक रोगों को रोकने के लिए अच्छी प्रतिरोधी दवाएं, उत्तम जनन विरोधी साधन, हार्मोन्स, प्रतिरोधी क्षमता वाले टीके तथा आनुवांशिक रोगों की रोकथाम में जैव उपचार का व्यापक प्रयोग हो रहा है। जैव प्रौद्योगिकी द्वारा विकसित मोनोक्लोनल ऐन्टीबॉडीज का प्रयोग एड्स एवं कैंसर की पहचान तथा उपचार में किया जा रहा है।