Question : समादेश क्षेत्र विकास (कमांड एरिया डेवलपमेंट) से क्या तात्पर्य है?
(1992)
Answer : कृषि उत्पादन बढ़ाने के लिए सिंचाई का विस्तार करना अत्यंत आवश्यक है। सिंचाई क्षमता का तेजी से बेहतर उपयोग सुनिश्चित करने या सिंचाई क्षमता और उसके उपयोग के बीच के अंतर को कम करने के उद्देश्य से पांचवीं पंचवर्षीय योजना के आरंभ (1974-75) में कमान एरिया डेवलपमेंट कार्यक्रम शुरू किया गया। यह केंद्र द्वारा प्रायोजित विकास कार्यक्रम था। इस कार्यक्रम में मुख्य रूप से खेत में विकास करने के कार्य, जैसे खेत में नालियों का निर्माण, भूमि का समतलीकरण, खेत से पानी की निकासी, बारी-बारी से पानी की पूर्ति के लिए बाड़ाबंदी प्रणाली, खेतों के लिए सड़कों बनाना, चकबंदी की व्यवस्था करना, जोतों की सीमा का पुनर्निर्धारण आदि शामिल है। इसके अंतर्गत निविष्टियों की पूर्ति और उधारों की व्यवस्था, कृषि विस्तार, बाजारों और गोदामों का निर्माण और संजोयक उपयोग के लिए भू-जल के विकास के लिए प्रबंध भी शामिल हैं। वर्तमान कार्यक्रम में 20 राज्यों और 2 संघ राज्य क्षेत्रों के लगभग 208 लाख हेक्टेयर खेती योग्य कुल कमान क्षेत्रों में 166 चुनी हुई सिंचाई परियोजनाएं शामिल हैं। 1990-91 में खेत की नालियों, बाड़ाबंदी और भू-समतलीकरण के अंतर्गत क्रमशः 55.2, 58.4 और 3.3 लाख हेक्टेयर की लक्ष्य पूर्ति हुई। मार्च 1992 तक इस कार्यक्रम पर 3,214 करोड़ रुपए की राशि व्यय की गई, जिसमें केंद्रीय सहायता 1,081 करोड़ रुपए की थी।
Question : भारतीय कृषि में अनेक रासायनिक उर्वरकों के प्रयोग को संक्षेप में समझाइये।
(1992)
Answer : भूमि पर ज्यों-ज्यों खेती की जाती है, उसकी उर्वरता में कमी आती जाती है। भूमि की उर्वरता बढ़ाने हेतु मृदा में मिलाए जाने वाले पोषक तत्व उर्वरक कहलाते हैं। वास्तव में, उवर्रक कारखानों में तैयार किए जाने वाले अकार्बनिक रासायनिक पदार्थ हैं, जिनमें कुछ विशेष तत्वों की मात्र निश्चित होती है। अन्य बातें सामन रहने पर जमीन में एक टन उर्वरक डालने से खाद्यान्न उत्पादन में 8 से 10 टन की वृद्धि होती है। एक अनुमान के अनुसार, कृषि उत्पादन में वृद्धि का लगभग 70 प्रतिशत उर्वरक के अधिक इस्तेमाल के फलस्वरूप होता है। कुछ समय से उवर्रक के क्षेत्र में प्रति यूनिट खपत की दृष्टि से विश्व के देशों में भारत के स्थान में काफी सुधार हुआ है। देश में उर्वरकों की खपत 1950-51 के 0.07 मि. टन पोषक तत्व के स्तर से बढ़ कर 1989-90 के दौरान 11.57 मि.टन पोषक तत्व हो गई है तथा 1990-91 के दौरान पूर्वानुमानित खपत लगभग 12.69 मि. टन पोषक तत्व है। भारत में मुख्य रूप से तीन प्रकार के रासायनिक उर्वरक होते हैं-
Question : भारत सरकार ने हाल ही में खाद्य संसाधन के लिए एक विभाग स्थापित किया है। उसके अधीन क्या-क्या कार्य होते हैं?
(1988)
Answer : भारत में कृषि उत्पाद का एक बड़ा भाग भंडारण व प्रसंस्करण के अभाव में बाजार में भेजे जाने से पहले ही खराब हो जाता है। ऐसे में फल, फूल, सब्जी आदि जैसे कृषि उत्पादों का प्रसंस्करण आवश्यक हो जाता है। उल्लेखनीय है कि भारत में कृषि व सम्बद्ध उत्पादों के कुल वार्षिक उत्पादन का सिर्फ एक प्रतिशत ही प्रसंस्कृत हो पाता है, जबकि अमेरिका और मलेशिया जैसे देशों में यह प्रतिशत क्रमशः 70 व 83% है। कृषि उत्पादों के बेहतर उपयोग, ग्रामीण उत्पादों के उचित मूल्य, ग्रामीण क्षेत्रों में बड़े पैमाने पर रोजगार उपलब्ध कराने, ग्रामीण उत्पादों में वृद्धि व खाद्य प्रसंस्करण में आधुनिक तकनीकी के उपयोग के उद्देश्य से किसानों व उद्योगों के बीच संबंधों को गतिशील व सहयोगी बनाने के लिए भारत सरकार ने खाद्य प्रसंस्करण विभाग की स्थापना की। खाद्य प्रसंस्करण विभाग फल और सब्जी उत्पादों के संबंध में निर्यात (क्वालिटी कंट्रोल एंड इन्सपेक्सन) अधिनियम, 1963 के अंतर्गत एक नियंत्रण संस्था के रूप में भी कार्य करता है। यह फल और सब्जी प्रसंस्करण इकाई स्थापित करने के लिए सलाहकारी सेवायें भी प्रदान करता है। उद्यान और सब्जी फसल क्षेत्र, डिब्बा बंद प्रसंस्कृत खाद्य वस्तुओं (जैसे- डिब्बा बंद नाश्ता) के उद्योग की ओर विशेष ध्यान आकर्षित कर रहा है तथा उस क्षेत्र में नये उद्योग लगाने को प्रेरित कर रहा है।
Question : खाद्य आपूर्ति बढ़ाने तथा रोजगार उत्पन्न करने में जल संस्कृति (Aquaculture) या अन्तर्देशीय मत्स्य पालन की भूमिका महत्वपूर्ण मानी जाती है। जल संस्कृति को प्रोत्साहित करने के लिए सरकार क्या-क्या कदम उठा रही है?
(1990)
Answer : जल संस्कृति या संवर्द्धन से तात्पर्य प्राकृतिक या कृत्रिम जलाशयों का मछली, समुद्री शैवाल व मोलस्का आदि के लिए उपयोग करने से है। देश में नदियां, झरने, झील, पोखर, तालाब व धान आदि के खेत मत्स्य पालन के काम आते हैं, लेकिन इन अन्तर्देशीय साधनों का अभी तक पूर्ण उपयोग नहीं हो पाया है। मत्स्य पालन के विकास हेतु कृषि और सहकारिता विभाग के मत्स्य विभाग ने राज्य सरकारों के सहयोग से विभिन्न उत्पादन प्रधान कार्यक्रम, आदान आपूर्ति कार्यक्रम तथा बुनियादी ढांचा विकसित करने के कार्यक्रम आरंभ किये हैं। सरकार के मत्स्य विकास कार्यक्रम के मुख्य उद्देश्य निम्नलिखित हैं-
विगत कुछ वर्षों से मत्स्य उत्पादन के क्षेत्र में उल्लेखनीय प्रगति हुई है। वर्ष 1950-51 में मत्स्य उत्पादन जहां 7.52 लाख मैट्रिक टन था, वर्ष 1986-87 और 1991-92 में बढ़कर यह क्रमशः 29.42 और 40 लाख मैट्रिक टन हो गया। पांचवीं-छठी योजना में मछली उत्पादक विकास एजेंसी तथा राष्ट्रीय मछली बीज विकास कार्यक्रम नामक दो महत्वपूर्ण मछली पालन कार्यक्रम आरंभ किये गये। 1986-87 में गंदे पानी में मत्स्य पालन का एक नया कार्यक्रम भी प्रारंभ किया गया। इन कार्यक्रमों के चलते मछली बीज उत्पादन 1983-84 में 500 करोड़ से बढ़कर 1989-90 में 1,200 करोड़ हो गया। छठी योजना के दौरान भारत का मत्स्य सर्वेक्षण (FSI) को मजबूत करने का निर्णय किया गया। पांच प्रमुख बंदरगाहों में मत्स्य नावों हेतु स्थानीय व्यवस्था के साथ ही चार मछली पत्तनों-रामचौक, कोचीन, मद्रास तथा विशाखापत्तनम को अधिकृत किया गया। एकीकृत मत्स्य परियोजना (IFP) और समुद्री तथा अभियांत्रिकी प्रशिक्षण का केंद्रीय मत्स्य संस्थान (FIFNET), कोचीन का पुनर्गठन किया गया। मछुआरों के लिए समूह बीमा योजना भी शुरू की गई। मत्स्य बीज विकास के राष्ट्रीय कार्यक्रम के तहत 1990-91 के दौरान तीन मत्स्य बीज हैचरियों की स्थापना की गई। विदेश में भारतीय तकनीशियनों को प्रशिक्षण देने के अलावा पांच पायलट प्रॉन फार्म तथा एक प्रॉन सीड हैचरी की स्थापना हेतु यू-एन- विकास कार्यक्रम द्वारा सहायता प्राप्त परियोजना शुरू की गई। 1990-91 के दौरान यंत्रीकृत मत्स्य नौकाओं द्वारा प्रयुक्त डीजल पर उत्पादन शुल्क की प्रतिपूर्ति नामक एक नयी योजना लागू की गई, जिससे लगभग 23,000 उपयोगकर्त्ता लाभान्वित हुए।
Question : शुष्क कृषि क्या है? भारत में खाद्य आपूर्ति के विस्तार में उसके महत्व की विवेचना कीजिए।
(1998)
Answer : ऐसे क्षेत्रों में जहां 40 से 120 सेंटीमीटर के बीच वर्षा होती है तथा जल संरक्षण की गंभीर समस्या बनी रहती है, उस क्षेत्र में उन्नत कृषि क्रियाओं द्वारा जल-संरक्षण करते हुए फसल उत्पादन करना शुष्क कृषि कहलाता है। भारत में संपूर्ण असिंचित क्षेत्र का लगभग 36 प्रतिशत भाग शुष्क क्षेत्र है। इस कृषि पद्धति द्वारा असिंचित क्षेत्रों में कृषि उत्पादन बढ़ सकता है तथा किसानों तथा मजदूरों की आय में वृद्धि हो सकती है। कृषि उत्पादों में वृद्धि के साथ-साथ इन क्षेत्रों में पशुपालन के स्तर में भी सुधार आ सकता है।
शुष्क क्षेत्र में पैदावार बढ़ाने के उद्देश्य से सर्वप्रथम 1923 में ‘पूना’ में (मंजरी क्षेत्र) कृषि अनुसंधान कार्य की शुरूआत की गई। 1970 में भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद (आई.सी.ए.आर.) द्वारा शुष्क क्षेत्र में कृषि की समन्वित परियोजना प्रारंभ की गई। इस परियोजना के अंतर्गत भारत के 24 केंद्रों में शुष्क कृषि अनुसंधान कार्य चल रहा है, जिसके तहत भारत में पैदावार बढ़ाने के उपायों की व्याख्या की जाती है।
Question : भारतीय कृषि विकास में नवीन तकनीकी निवेश की भूमिका की विवेचना कीजिये। यह किस प्रकार इक्कीसवीं शताब्दी में खाद्य सुरक्षा में सहायक होगा?
(1998)
Answer : भारत एक कृषि प्रधान देश है, जिसकी राष्ट्रीय आय का लगभग एक तिहाई हिस्सा कृषि से प्राप्त होता है और इसकी दो तिहाई जनसंख्या अपनी जीविका के लिए कृषि पर ही निर्भर है। स्पष्ट है कि भारत में कृषि में संलग्न जनसंख्या तथा उसके द्वारा उत्पादित खाद्यान्नों में सामंजस्य नहीं है। साथ ही, हमारे देश का प्रति हेक्टेयर उपज अन्य विकसित देशों की तुलना में काफी कम है, अतः जहां एक ओर कृषि क्षेत्र में संलग्न लोगों में अल्प रोजगार है, वहीं भारतीय कृषि में उपज बढ़ाने की प्रबल संभावनाएं हैं। लेकिन इसके लिए जरूरी है कि कृषि में आधुनिक तकनीक का अधिकाधिक प्रयोग किया जाये।
भारत में साठ के दशक के मध्य में ‘हरित क्रांति’ आयी थी। विभिन्न कारकों द्वारा कृषि उत्पादकता में व्यापक वृद्धि हुई। ये कारक थे- अधिक उर्वरक उत्पादन, बौनी किस्मों का प्रयोग, क्रमबद्ध सिंचाई, फसल नाशक जीवों एवं रोगों का नियंत्रण तथा शुल्क एवं सीमांत खेती के लिए विशिष्ट निर्देश। कृषि विश्वविद्यालयों तथा अनुसंधान संस्थानों में मिशन उन्मुखी उत्कृष्ट अनुसंधान तथा प्रयोगशाला से खेतों तक प्रौद्योगिकी को ले जाने के कारण काफी लाभ मिलता देखा गया और आज दूसरी हरित क्रांति के रूप में जैव प्रौद्योगिकी ने आशा की एक नयी किरण बिखेर दी है।
मानव के लिए उपयोगी वस्तुएं एवं सेवाएं प्रदान करने के लिए सूक्ष्म जीवों तथा जैविक प्रणाली का उपयोग करना ही जैव प्रौद्योगिकी कहलाता है। इसमें संयुक्त रूप से विभिन्न प्रकार की तकनीकें- जैव रसायन, आनुवंशिकी, पादप कार्यिकी, सूक्ष्म जीवविज्ञान तथा जैव-रासायनिक अभियांत्रिकी आदि सम्मिलित हैं। आधुनिक जीवविज्ञान का यह एक महत्वपूर्ण भाग है, जो ऊर्जा लागत की बढ़त, प्रदूषण, पुर्ननवीकरणीय संसाधनों आदि की समस्याओं के लिए कम खर्चीला तथा सक्षम समाधान प्रस्तुत करता है। संक्षेप में, यह सीधे तौर पर सूक्ष्मजीवी बायोमास, उपयोगी पदार्थ तथा विशेष रसायनों की बड़ी मात्रा में उत्पादन, सूक्ष्मजीवी कोशिकाओं से इच्छित एंटीजन, एंडीबॉडी आदि के रूपांतरण तथा उन्नत विभेद उपलब्ध कराने और मिट्टी सुधार हेतु उचित पदार्थों को प्राप्त करने जैसे कार्यों से संबंधित है। खाद्य उद्योग में इसके द्वारा आरंभिक पदार्थ तथा एंजाइम प्राप्त किये जाते हैं। इस नयी तकनीक के प्रयोग से विशिष्ट वसा तथा स्टेरॉल का उत्पादन संभव है। एंजाइम प्रौद्योगिकी की मदद से वसा की आण्विक संरचना भी बदली जा सकती है। कृषि अनुसंधान के क्षेत्र में पृथक्करण तथा आवश्यकतानुसार उनमें उत्परिवर्ती तैयार करने की क्षमता प्राप्त करना आसान हो गया है। फसल सुधार के लिए पुनर्योजी डी.एन.ए. (Recombiant D.N.A.) तकनीक असीमित जीन पूल प्रस्तुत करती है। एग्रो बैक्टीरियम ट्यूमेफेसिएंस नामक जीवाणु का प्रयोग पौध-कोशिकाओं में जीन प्रविष्ट कराने के लिए वाहक के रूप में किया गया है, जिससे पौधों के शाकरोधी या रोगरोधी विभेद प्राप्त हो सके। इस वाहक प्रणाली द्वारा काफी संख्या में जीन ले जाये जाने के कारण इसे प्रायः द्विबीजपत्री पौधों के लिए काम में लाया जाता है।
कृषि में वैज्ञानिक प्रविधियों के प्रयोग के रूप में उर्वरकों का आजकल बहुधा इस्तेमाल किया जा रहा है। कुछ प्रकाश संश्लेषण सुधारक पदार्थों के प्रयोग द्वारा प्रकाश संश्लेषण क्रिया को बढ़ाया जा सकता है, ताकि पौधों की उचित वृद्धि को संभव बनाया जा सके। पौधों को आनुवांशिकी रूप से शाकधानियों तथा नाशक जीवों के प्रति सहनशील बनाया जा सकता है, ताकि अधिक उपज प्राप्त हो सके। आर्थिक महत्व की फसलों में ऐसे जीनों को डालने की संभावनाएं भी जांची गई हैं, जिनमें सारभूत एमिनो अम्लों से भरपूर प्रोटीनों के निर्माण की सूचना निहित होती है।
खाद्य पदार्थों की बढ़ती हुई मांग को पूरा करने के लिए न सिर्फ उनके उत्पादन में वृद्धि करने की जरूरत है, बल्कि संरक्षित रूप से समस्त उत्पादन को विनष्ट हुए बिना उसका पूर्ण उपयोग भी आवश्यक है। 21वीं सदी में कोबाल्ट-60 तथा सीजियम-137 नामक समस्थानिकों का खाद्य परिरक्षण के तौर पर उपयोग कर इससे बचा जा सकता है। साथ ही, अधिक उपज प्राप्त करने तथा सक्षम बीजों की प्राप्ति के लिए जैव कृषि को अपनाये जाने से भविष्य में खाद्य सुरक्षा के प्रति सचेष्ट हुआ जा सकता है। जैव कृषि के तहत रासायनिक उर्वरकों की जगह प्राकृतिक रूप से प्राप्त उर्वरकों का ही प्रयोग किया जाता है, जो कि वातावरणीय प्रदूषण को भी घटाते हैं। कुल मिलाकर जीन परिरक्षण, उन्नत आनुवांशिकी, जैव प्रौद्योगिकी तथा जैव कृषि एवं जैव उर्वरकों के प्रयोग से 21वीं सदी में खाद्य सुरक्षा के प्रति निश्चिंत हुआ जा सकता है।
Question : झूम कृषि क्या होती है? भारत के संदर्भ में इसकी विशेषताएं समझाइये।
(1996)
Answer : भारतीय जनजातियों में अस्थायी खेती की जाती है, जिसे नागालैंड में झूम खेती कहा जाता है। झूम खेती का तात्पर्य यह है कि कुछ समय तक एक भूमि पर खेती करना तथा फिर उसे खाली छोड़ देना। इसके अंतर्गत जंगली ढलानों की सफाई, गिरे हुए पेड़ों तथा पहाड़ियों को जलाना तथा फिर राख से ढकी हुई भूमि पर बीज को छितराने जैसे कार्य होते हैं। इसके बाद सारा कुछ प्रकृति पर निर्भर होता है। यह कार्य अधिकतर ग्रीष्म ऋतु से पूर्व प्रारंभ होता है, जब पेड़ तथा पहाडि़यां काटे जाते हैं। गर्मी के मौसम में ये पेड़ व झाडि़यां सूख जाते हैं। इनमें आग लगा कर इन्हें जला दिया जाता है तथा इसी राख के ऊपर पहली बरसात के समय बीज बोए जाते हैं। इसके पश्चात इसे प्रकृति की दया पर छोड़ दिया जाता है। एक या दो फसलों के बाद इस भूमि की उपजाऊ शक्ति नष्ट हो जाती है और इसे ऐसे ही छोड़ दिया जाता है तथा खेती के लिए दूसरा स्थान ढूंढ लिया जाता है।
भारत में इसका प्रचलन असम के सुदूरवर्ती पहाड़ों, उड़ीसा, मध्य प्रदेश व बिहार में है। कुछ अन्य भागों में भी इसका सीमित प्रचलन है। यद्यपि अधिकतर क्षेत्रों में इस खेती को गैर-कानूनी घोषित कर दिया गया है, फिर भी इसका प्रचलन सीमित स्तर पर अब भी देखा जा सकता है। भारत में इस प्रकार की खेती के विभिन्न क्षेत्रीय नाम हैं।
Question : भारत में गरान वनस्पति कहां पायी जाती है? इनकी प्रमुख विशेषताओं का उल्लेख कीजिए।
(1996)
Answer : गरान वनस्पतियां विश्व के ऐसे कटिबंधीय प्रदेश की विशिष्ट वानिकी पारिस्थितिकीय व्यवस्था है, जो आच्छादित तटा और नदी मुहानों के साथ लगते हैं। गरान वनस्पतियां भारतीय तट रेखा के साथ-साथ परिरक्षित मुहानों, ज्वारीय खाड़ियों, लवणीय दलदली क्षेत्रों और दलदली मैदानों में पायी जाती हैं। गरान वनस्पतियों के महत्व को देखते हुए सरकार ने गरान वनस्पतियों के संरक्षण व प्रबंधन के लिए एक योजना तैयार की है। एक राष्ट्रीय गरान वनस्पति समिति गठित की गई, जिसे गरान वनस्पतियों के संरक्षण संबंधी कार्यक्रम की नीतियां तैयार करने व इनके क्रियान्वयन के लिए सरकार को परामर्श देने का कार्य सौंपा गया। समिति की सिफारिशों के आधार पर 15 वनस्पति क्षेत्र चुने गए हैं, जिनके नाम हैं- उत्तरी अंडमान और निकोबार, सुन्दरवन, भीतर कनिका, कोकींगा, गोदावरी डेल्टा और कृष्णा नदी का मुहाना, महानदी का डेल्टा, विचरवरम और बलीमेट, बिन्दु, गोवा, कच्छ की खाड़ी, कुंडापुर, अचर-रत्नगिरि और बेंबानद।
Question : ‘वर्षा की सघनता’ क्या होती है? भारतीय कृषक के लिए उसके महत्व का विवेचन कीजिए।
(1995)
Answer : ‘वर्षा की सघनता’, बरसात होने की वह दर है, जो किसी विशिष्ट समयावधि में हुई वर्षा की मात्र के रूप में व्यक्त की जाती है। सबसे अधिक इस्तेमाल की जाने वाली ‘वर्षा की सघनता’ की माप वर्षा की प्रतिघण्टा सघनता है, जिसे निम्नलिखित सूत्र से ज्ञात किया जा सकता है-
वर्षा की सघनता =
इस आधार पर वर्षा की सघनता को भारी वर्षा (4 मि.मी. वर्षा प्रति घण्टा से अधिक), साधारण वर्षा (0.5 मि.मी.-4 कि.मी. वर्षा प्रतिघण्टा) तथा हल्की वर्षा (0.5 मि.मी. वर्षा प्रति घण्टा से कम) के रूप में वर्गीकृत किया जाता है।
भारतीय कृषक के लिए ‘वर्षा की सघनता’ का महत्व कुछ अधिक ही है, क्योंकि भारतीय कृषि बहुत हद तक मानसून पर ही निर्भर करती है। जब कभी कहीं भारी वर्षा होती है, तो उसका अधिकांश जल बह जाता है तथा उससे भूमि का क्षरण भी अधिक होता है। इससे भूमि की ऊपरी सतह, जो अधिक उर्वरक होती है, पानी के साथ बह जाती है। इसके ठीक विपरीत, यदि हल्की या कम वर्षा होती है तो खेतों को पर्याप्त पानी नहीं मिल पाता है और फसल हल्की होती है। इस तरह यह देखा गया है कि भारतीय कृषक के लिए सर्वाधिक उपर्युक्त साधारण वर्षा ही है।
Question : ‘टपक सिंचाई’क्या होती है? इसे सिंचाई की सर्वाधिक सफल विधि क्यों माना जाता है?
(1995)
Answer : टपक सिंचाई, जिसके अंतर्गत जल को पाइपों द्वारा सीधे पौधों की जड़ों तक ले जाया जाता है और इस प्रकार पानी की उस मात्र की बर्बादी को रोक लिया जाता है, जो पानी के स्रोत से पौधे की जड़ तक पहुंचने के रास्ते (नाली) में वाष्पीकरण तथा भूमि द्वारा सोख लिए जाने या नाली के कट जाने, रिसने आदि के कारण बर्बाद हो जाता है। यह सिंचाई की एक आधुनिकतम सूक्ष्म सिंचाई विधि है। टपक सिंचाई की विधि भूमिगत जल तथा भूतलीय जल दोनों ही प्रकार से प्रयुक्त की जा सकती है। पानी को डीजल चालित या विद्युत चालित पम्प सेटों अथवा नलकूपों की सहायता से निकाल कर खेतों में बिछे पाइपों के माध्यम से पौधों की जड़ों तक पहुंचाया जाता है। यदि संभव होता है, तो पहले भूमिगत या भूतलीय जल को पम्प द्वारा ओवर हेड टैंक में एकत्रित कर लेते हैं और वहां से सुविधानुसार पाइपों द्वारा सिंचाई करते हैं।
टपक सिंचाई विधि नारियल,फलदार वृक्षों, सब्जियों, फूलों, कपास, गन्ना, मिर्च की फसलों तथा बागानी फसलों, जैसे चाय, कॉफी, इलायची, रबर, काली मिर्च आदि के लिए अत्यधिक उपयोगी है। मैदानी इलाकों में टपक सिंचाई अंगूर, केला, आम, खट्टे फलों, अमरूद आदि की खेती के लिए उपयोगी है। इस विधि द्वारा असमतल भूमि पर लगाए गए पौधों की सिंचाई पानी को बरबाद किए बिना ही की जा सकती है। ढालू भूमि, पर्वतीय भूमि, पठारी भूमि पर, जहां परम्परागत विधि से सिंचाई कर पाना सम्यक नहीं है, वहां टपक सिंचाई ही अधिक उपयोगी है। चूंकि ऐसे ही क्षेत्रों में अधिक लाभ प्रदान करने वाली व्यावसायिक फसलों की खेती अधिक की जाती है, इसलिए टपक सिंचाई से ऐसे क्षेत्रों में फसलों की उत्पादकता में वृद्धि की जा सकती है। भूमिगत जल संसाधनों में जिस सीमा से कमी हो रही है, उसे देखते हुए टपक सिंचाई ही एकमात्र ऐसी विधि हो सकती है, जिसमें कम से कम पानी का प्रयोग करके अधिक से अधिक उत्पादन लिया जा सकता है। इजरायल में टपक सिंचाई विधि का बहुत ही उपयोगी इस्तेमाल किया जा रहा है।