Question : भारत के उच्चतम न्यायालय के सलाह- अधिकार क्षेत्र की परिधि को समझाइये।
(1992)
Answer : भारत का सर्वोच्च न्यायालय, परिसंघीय न्यायालय, अपीलीय न्यायालय व संविधान का संरक्षक न्यायालय है। संविधान ने उसे परामर्शी क्षेत्रधिकार की शक्ति भी प्रदान की है। संविधान के अनुच्छेद 143 के तहत यदि राष्ट्रपति को ऐसा प्रतीत होता है कि विधि का कोई प्रश्न ऐसी प्रकृति का है, जो सार्वजनिक महत्व से जुड़ा हुआ है तथा उस पर सर्वोच्च न्यायालय की सलाह प्राप्त करना समीचीन है, तो वह उक्त प्रश्न पर सर्वोच्च न्यायालय से सलाह मांग सकता है। सर्वोच्च न्यायालय द्वारा दिया गया परामर्श सरकार के लिए बाध्यकारी नहीं होगा। साथ ही, सर्वोच्च न्यायालय पर संवैधानिक दृष्टि से ऐसी बाध्यता नहीं है कि उसे परामर्श अवश्य ही देना है। इस क्षेत्रधिकार के अंतर्गत वे विवाद भी सर्वोच्च न्यायालय के समक्ष उसकी राय ज्ञात करने के लिए प्रस्तुत किए जा सकते हैं, जिनके दायरे में पूर्ववर्ती भारतीय रियासतों से हुई संधियों और समझौतों की व्याख्या आती है। अनुच्छेद 143 के खण्ड (2) के तहत राष्ट्रपति इस प्रकार के विवादों को सर्वोच्च न्यायालय के पास उसकी सलाह के लिए भेज सकता है। भारत सरकार और देशी रियासतों के बीच 1947 और 1950 के बीच हुए समझौते इसी के अंतर्गत आते हैं। इस प्रकार के विवादों में सर्वोच्च न्यायालय के लिए परामर्श देना संविधान के तहत अनिवार्य है तथा परामर्श को स्वीकृत या अस्वीकृत करना राष्ट्रपति के विवेक पर निर्भर करता है। गत चार दशकों में राष्ट्रपति ने सर्वोच्च न्यायालय से केवल 8 बार परामर्श मांगा है। हाल ही में अयोध्या में राम मंदिर विवाद के संबंध में राष्ट्रपति ने अनुच्छेद 143 के तहत सर्वोच्च न्यायालय से परामर्श मांगा था।
Question : राष्ट्रपति शासन की घोषणा से संबंधित उच्चतम न्यायालय के अप्रैल 1994 के फैसले का महत्व समझाइये।
(1994)
Answer : सर्वोच्च न्यायालय के 9 न्यायाधीशों की एक पीठ ने बाबरी मस्जिद गिरने के बाद उत्तर प्रदेश, राजस्थान, मध्य प्रदेश, तथा हिमाचल प्रदेश की विधानसभाओं को अनुच्छेद 356 के तहत भंग करके राष्ट्रपति शासन लागू करने के निर्णय को वैध माना। 1994 में इन न्यायाधीशों की पीठ ने राष्ट्रपति शासन से संबंधित अनुच्छेद 356(1) की व्याख्या करते हुए उपरोक्त राज्यों में विधानसभा भंग करने की कार्यवाही को जहां वैध ठहराया, वहीं 1988 में नागालैंड, 1989 में कर्नाटक एवं 1991 में मेघालय विधानसभा को भंग करने की कारवाही को अवैध ठहराया। अनुच्छेद 356 शुरू से ही केंद्र और राज्य की विपक्षी सरकारों के बीच विवाद का विषय बना हुआ है। उच्चतम न्यायालय के निर्णय के बाद ऐसी उम्मीद बंधी है कि अब आसानी से किसी भी राज्य की विधानसभाओं को भंग नहीं किया जा सकेगा।
उच्चतम न्यायालय के निर्णय में कहा गया है कि राष्ट्रपति शासन लागू करने के लिए राज्यपाल की लिखित रिपोर्ट आवश्यक है। यदि राज्य सरकार धर्मनिरपेक्षता के विरूद्ध कार्य कर रही है, तो राष्ट्रपति शासन लागू किया जा सकता है। न्यायालय के फैसले में विधानसभा को भंग नहीं करने पर जोर देते हुए कहा गया है कि विधानसभा को भंग करने की जगह निलंबित किया जाना चाहिए। आवश्यकता पड़ने पर केंद्र सरकार को राष्ट्रपति शासन लागू करने संबंधी सारे कागजात उच्च न्यायालय या उच्चतम न्यायालय को देने पड़ेंगे। न्यायालय द्वारा विधानसभा भंग करने की कारवाई को अवैध करार देने पर विधानसभा और सरकार को बहाल किया जा सकता है।
Question : भारत-फ्रांस मैत्री को बढ़ावा देने के भारत के राजनयिक प्रयासों पर हाल की फ्रांसीसी अनुक्रिया का विश्लेषण कीजिए।
(1999)
Answer : मई 1998 में भारत द्वारा परमाणु परीक्षण किये जाने के बाद अंतरराष्ट्रीय दबावों के चलते फ्रांस ने भी भारत के साथ अपने संबंधों को उदासीन बना लिया। किंतु, यह स्थिति अधिक दिनों तक बनी हुई नहीं रह सकी और शीघ्र ही उसने भारतीय राजनयिक प्रयासों के अनुरूप अपनी अनुक्रियाशीलता दिखलानी शुरू कर दी। इसी के तहत इंडो-फ्रेंच फोरम ने महत्वपूर्ण एवं अत्याधुनिक प्रौद्योगिकियों पर अनुसंधान करने के लिए मार्च’99 में संयुक्त प्रयोगशालाओं की स्थापना करने की सिफारिश की। इस सिफारिश से भारत एवं फ्रांस के बीच विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी के क्षेत्र में महत्वपूर्ण द्विपक्षीय संबंध स्थापित करने में मदद मिलेगी। इतना ही नहीं, फ्रांस भारत के साथ अन्य कई क्षेत्रों में भी सहयोग करने पर सहमत हो गया।
Question : सर्वोच्च न्यायालय ने किन मूल कारणों से (1) केशवानंद भारती बनाम केरल प्रदेश (1973) एवं (2) मिनर्वा मिल्स बनाम भारत सरकार (1980) के मुकदमों के दौरान ‘मूल ढांचों’ की पुष्टि की?
(1997)
Answer : 1950-72 की अवधि के दौरान तीन अलग-अलग मामलों में उच्चतम न्यायालय के सामने यह प्रश्न आया कि मूल अधिकारों का संशोधन किया जा सकता है या नहीं। अंततः यह निर्णय दिया गया कि अनुच्छेद 368 के अधीन पारित संविधान संशोधन अधिनियम द्वारा भी संसद न तो मूल अधिकारों को छीन सकती है और न ही उन्हें कम कर सकती है।
1973 में केशवानंद भारती बनाम केरल राज्य में उच्चतम न्यायालय ने निर्णय दिया कि अनुच्छेद 368 में संशोधन की शक्ति निहित है, लेकिन इसके तहत संविधान के मूल ढांचे को संशोधित नहीं किया जा सकता है। इस निर्णय के बाद 42 वें संशोधन से अनुच्छेद 368 में खंड 4 एवं 5 जोड़े गये और संसद की संशोधन करने की शक्तियों के ‘मूल लक्षणों’ के परिसीमन को कम कर दिया गया। लेकिन ‘मिनर्वा मिल्स बनाम भारत संघ’ (1980) में उच्चतम न्यायालय ने ‘मूल लक्षणों’ के सिद्धांत की पुनः पुष्टि की और निर्णय दिया कि खंड 4 एवं 5 शून्य हैं। लेकिन ‘मूल संरचना’ क्या है? इसे स्पष्ट नहीं किया जा सका। फिर भी, केशवानंद के मामले में न्यायमूर्ति सीकरी ने संविधान के मूल लक्षणों को इस प्रकार सारणीबद्ध करने का प्रयास किया-
इसी मामले में न्यायमूर्ति हेगड़े तथा न्यायमूर्ति मुखर्जी ने मूल लक्षणों में भारत की संप्रभुता तथा एकता का तथा व्यक्तिगत स्वातंत्र्य का समावेश भी किया।
Question : भारत के संविधान के अधीन उच्चतम न्यायालय को क्या स्थान है? संविधान के संरक्षक के रूप में उसकी भूमिका का विवेचन कीजिए
(1995)
Answer : भारतीय संविधान द्वारा स्थापित न्यायिक प्रणाली में सर्वोच्च स्थान पर उच्चतम न्यायालय की स्थापना की गई है। फौजदारी एवं दीवानी मामलों में यह देश का सर्वोच्च अपीलीय न्यायालय है, जिसका क्षेत्रधिकार अत्यधिक व्यापक है। इसमें प्रारंभिक, अपीलीय और परामर्शीय सभी प्रकार के मामले आते हैं। उच्चतम न्यायालय, जो एक अभिलेख न्यायालय भी है, के ऊपर लोकतंत्र और संविधान दोनों की ही रक्षा का दायित्व है। संविधान द्वारा उच्चतम न्यायालय को व्यक्ति के संवैधानिक अधिकारों तथा स्वाधीनता का प्रहरी बनाया गया है। उच्चतम न्यायालय संघीय शासन प्रणाली का अनिवार्य अंग है। यह संविधान की व्याख्या करने वाला उच्चतम प्राधिकारी है। साथ ही यह संघ तथा राज्यों के मध्य उत्पन्न होने वाले विवादों का निर्णय करने वाला अन्तिम अभिकरण भी है।
संविधान के संरक्षक के रूप में उच्चतम न्यायालय की भूमिका एक संरक्षक की है, क्योंकि इसे न्यायिक पुनरावलोकन का अधिकार प्राप्त है। इसका प्रयोग करते हुए यह कार्यपालिका तथा विधायिका के कार्यों की वैधता की जांच करके ऐसे सभी कानूनों एवं प्रशासकीय नीतियों को असंवैधानिक घोषित कर सकता है, जो संविधान के किसी भाग या अनुच्छेद का किसी भी रूप में अतिक्रमण करती है। वैसे यह तथ्य भी उल्लेखनीय है कि भारतीय संविधान में न्यायिक पुनरीक्षण के सिद्धान्त का उल्लेख संविधान के उपबंधों में कहीं भी नहीं मिलता है तथापि लिखित एवं कठोर संविधान, केंद्र एवं राज्यों के बीच शक्ति विभाजन तथा मौलिक अधिकारों की व्यवस्था होने के कारण इसे व्यावहारिक रूप से अपनाया गया है। इसके साथ निम्नलिखित उपबन्ध भी यह सिद्ध करते हैं कि उच्चतम न्यायालय संविधान का संरक्षक है-
हाल ही में सर्वोच्च न्यायालय में जनहित याचिका के सिद्धान्त को मान्यता देकर इसके कार्यक्षेत्र को और भी विस्तृत कर दिया गया है और कार्यपालिका जिन कार्यों के प्रति उदासीन रहती है, उन कार्यों को करने का आदेश भी अब सर्वोच्च न्यायालय देने लगी है। वैसे न्यायालय की इस सक्रियता को कुछ लोगों ने कार्यपालिका क्षेत्र में हस्तक्षेप की भी संज्ञा दी है, मगर यह भी एक तथ्य है कि न्यायालय की इसी सक्रियता ने हाल के कई घोटालों की जांच करने के लिए सरकार को बाध्य किया है और जनता को जागरूक बनाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभायी है।
Question : भारत के नागरिकों के संवैधानिक अधिकार क्या हैं? अनिवासी भारतीयों द्वारा दोहरी नागरिकता की मांग के विषय में आपके क्या विचार हैं?
(1995)
Answer : भारतीय संविधान द्वारा प्रदत्त ऐसे अधिकार जिनका उपयोग भारत के नागरिक करते हैं, संवैधानिक अधिकार कहे जाते हैं। वैसे संविधान में इस बात की भी व्यवस्था है कि भारत के नागरिकों को विशिष्ट प्रावधानों के अंतर्गत ही इन अधिकारों से वंचित किया जा सकता है। यदि केंद्र या राज्य सरकार कोई ऐसा कानून या प्रशासनिक नीति बनाती और लागू करती है, जो संविधान के किसी भी अनुच्छेद का अतिक्रमण करती है, तो उच्चतम न्यायालय को यह अधिकार प्राप्त है कि वह ऐसे कानून को असंवैधानिक घोषित कर दे और इसे निरस्त करने के लिए कहे।
भारतीय संविधान द्वारा प्रदत्त कुछ अधिकार ऐसे हैं, जिनका उपयोग केवल भारतीय नागरिक ही कर सकते हैं अर्थात भारत में निवास करने वाले अन्य व्यक्ति इन अधिकारों का प्रयोग नहीं कर सकते। जैसे- सार्वजनिक रोजगार में अवसरों की समानता, किसी भी आधार पर भेदभाव नहीं किये जाने के प्रति संरक्षण, बोलने, एकत्रित होने, विचार व्यक्त करने, संगठन बनाने, विचरण करने, रहने तथा व्यवसाय करने की स्वतंत्रता तथा अल्पसंख्यकों के धार्मिक एवं शैक्षणिक अधिकार आदि। दूसरी ओर, कुछ ऐसे अधिकार भी हैं जिनका प्रयोग भारत के नागरिक तो करते ही हैं, साथ ही भारत में रहने वाले अन्य व्यक्तियों को भी वे अधिकार प्राप्त हैं, जैसे- कानून के आगे समानता एवं संरक्षण, दोहरी सजा तथा स्वयं के विरूद्ध गवाही देने की बाध्यता, जीवन की सुरक्षा तथा कानून के अधिकार के बिना कारवाई न किये जाने का संरक्षण, शोषण के विरूद्ध सुरक्षा, धर्म की स्वतंत्रता तथा बलात श्रम से संरक्षण आदि का अधिकार।
विगत कुछ वर्षों से बराबर अनिवासी भारतीयों द्वारा दोहरी नागरिकता प्रदान किये जाने की मांग की जा रही है अर्थात विश्व के अन्य देशों की नागरिकता ग्रहण कर लेने वाले भारतीय, जो विद्यमान कानूनों के अंतर्गत भारत के नागरिक नहीं रहे हैं, किसी अन्य देश का नागरिक रहते हुए भी भारत का नागरिक बनकर उन मौलिक तथा संवैधानिक अधिकारों का उपयोग करना चाहते हैं, जिनका उपयोग अन्य भारतीय करते हैं। इस मांग को अहमियत देते हुए भारत सरकार ऐसे लोगों को नागरिकता प्रदान करने के प्रश्न पर विचार कर रही है। सरकार यह समझती है कि अनिवासी भारतीय भारत में पूंजी निवेश करेंगे और इससे भारत की आर्थिक स्थिति में सुधार होगा। यह प्रश्न जटिल है, क्योंकि यह कहना कठिन है कि अनिवासी भारतीय जिस देश के नागरिक हैं, क्या वह देश उन्हें दूसरे देश की नागरिकता ग्रहण करने पर अपना नागरिक मानेंगे? साथ ही, अनिवासी भारतीयों की निष्ठा क्या विभाजित नहीं होगी? संपन्न वर्ग के होने के कारण क्या उनका प्रभाव सामान्य भारतवासी पर नहीं पड़ेगा? इन प्रश्नों का उत्तर अभी किसी के पास नहीं है। वास्तव में, सुविधा प्रदान करना और नागरिकता प्रदान करना दो अलग-अलग बातें हैं। इसलिए सरकार को इस मांग के सभी पहलुओं के बारे में सोच-समझकर ही कोई निर्णय लेना चाहिए।