Question : भारत के संविधान की संशोधन प्रक्रिया की सामान्य विशिष्टताएं क्या हैं?
(1992)
Answer : भारतीय संविधान में संशोधन प्रक्रिया अनुच्छेद 368 में वर्णित है। भारतीय संविधान में संशोधन हेतु निम्न तीन रीतियों का समावेश किया गया है-
1.सामान्य बहुमतः संसद के सामान्य बहुमत से पास होने व राष्ट्रपति की स्वीकृति मिल जाने के बाद किसी विधेयक द्वारा संविधान में संशोधन किया जा सकता है। नए राज्य का निर्माण, राज्य के क्षेत्र, सीमा व नाम में परिवर्तन, राज्य की व्यवस्थापिका के दूसरे सदन का उन्मूलन व पुनर्स्थापन, नागरिकता, अनुसूचित क्षेत्रों, अनुसूचित जनजातियों के प्रशासन व केंद्रशासित क्षेत्रों की प्रशासन संबंधी व्यवस्थाओं में संशोधन संसद द्वारा इसी रीति से किया जाता है।
2.विशेष बहुमतः राज्य व न्यायपालिका के अधिकारों व शक्तियों जैसे कुछ विशेष प्रावधानों के अलावा संविधान के अन्य सभी प्रावधानों में विशिष्ट बहुमत प्रक्रिया द्वारा ही संशोधन किया जा सकता है। यदि सदन की कुल सदस्य संख्या के बहुमत और उपस्थित व भाग लेने वाले सदस्यों के 2/3 मतों से संबंधित विधेयक पास हो जाए, तो वह दूसरे सदन में जाता है। वहां भी इसी तरह पास होने के पश्चात इसे राष्ट्रपति की स्वीकृति के लिए भेजा जाता है।
3.विशेष बहुमत व राज्य विधानमण्डलों की स्वीकृतिः कुछ मामलों में संसद में विशेष बहुमत प्रक्रिया द्वारा पास होने के पश्चात् विधेयक का राज्यों के विधानमंडल में कुल सदस्य संख्या के न्यूनतम आधे सदस्यों द्वारा अनुमोदन आवश्यक है। अनुच्छेद 54, 55, 73, 162, 241, 368 व संविधान के भाग 5 का अध्याय 4, भाग 6 का अध्याय 5, भाग 11 का अध्याय 1, सातवीं अनुसूची व संसद में राज्यों का प्रतिनिधित्व आदि से संबंधित मुद्दों में संशोधन इसी के अंतर्गत आता है।
Question : आंचलिक (क्षेत्रीय) परिषद क्या है? अंतरराज्यीय सौहार्द प्राप्त करने के संदर्भ में इनके संविधान, भूमिका तथा महत्व का विवेचन कीजिए।
(1992)
Answer : राज्य पुनर्गठन अधिनियम, 1956 द्वारा देश को 5 क्षेत्रों में बांटा गया है तथा प्रत्येक क्षेत्र की अपनी-अपनी परिषद है। पांच क्षेत्रीय परिषद निम्नवत् हैं-
I.उत्तरी क्षेत्रः इसमें हरियाणा, पंजाब, राजस्थान, जम्मू-कश्मीर, दिल्ली व हिमाचल प्रदेश हैं।
II.पूर्वी क्षेत्रः इसमें बिहार, पश्चिम बंगाल, उड़ीसा, असम, मणिपुर, त्रिपुरा, मेघालय, मिजोरम व अरुणाचल प्रदेश हैं।
III.मध्य क्षेत्रः इसमें उत्तर प्रदेश व मध्य प्रदेश हैं।
IV.पश्चिम क्षेत्रः इसमें गुजरात, महाराष्ट्र व कर्नाटक है।
V.दक्षिण क्षेत्रः इसमें आंध्र प्रदेश, तमिलनाडु व केरल है।
अंतरराज्यीय समझ-बूझ व राष्ट्रीय एकता को मजबूती प्रदान करना इन क्षेत्रीय परिषदों का मुख्य उद्देश्य है। इसके निमित्त इनके निम्न लक्ष्य हैं- (I) राष्ट्र में भावनात्मक एकता की स्थापना, (II) क्षेत्रीयता व भाषावाद पर नियंत्रण, (III) आर्थिक विकास, (IV) समाजवादी समाज की स्थापनार्थ पहल व (V) विकास परियोजनाओं की पूर्ति हेतु परस्पर सहयोग। ये क्षेत्रीय परिषदें राज्य की सलाहकार संस्थाओं के रूप में होती हैं तथा सामाजिक व आर्थिक योजनाओं, अंतरराज्यीय परिवहन, सीमा विवाद, अल्पसंख्यकों से संबंधित कोई भी समस्या आदि पर राज्य को अपनी संस्तुति प्रस्तुत कर सकती हैं। अंतरराज्यीय सौहार्द्र बढ़ाने में इनकी महत्वपूर्ण भूमिका होती है। उदाहरणार्थ, भाखड़ा परियोजना पंजाब व हिमाचल प्रदेश के लिए वरदान के समान है तथा राजस्थान नहर पंजाब व राजस्थान की संयुक्त परियोजना है।
प्रत्येक क्षेत्रीय परिषद में (a) राष्ट्रपति द्वारा नामांकित एक केंद्रीय मंत्री, (b) क्षेत्र में शामिल प्रत्येक राज्य का मुख्यमंत्री, (c) प्रत्येक राज्य से दो अन्य मंत्री व (d) प्रत्येक केंद्रशासित क्षेत्र से राष्ट्रपति द्वारा नामांकित एक प्रतिनिधि होते हैं। परिषद का अध्यक्ष केंद्रीय गृहमंत्री होता है। प्रत्येक क्षेत्रीय परिषद के सलाहकारों में योजना आयोग का एक प्रतिनिधि व राज्यों का मुख्य सचिव और विकास आयुक्त होते हैं।
Question : भाग IV में अन्तर्विष्ट निर्देशों के अतिरिक्त संविधान के अन्य भागों में कुछ और निर्देश हैं जो राज्यों के नाम हैं, वे क्या हैं?
(1992)
Answer : भारत के संविधान के भाग IV में अनुच्छेद 36 से 51 तक राज्य के नीति निर्देशक तत्वों का उल्लेख है। भाग IV में अन्तर्विष्ट निर्देशों के अतिरिक्त संविधान के अन्य भागों में कुछ अन्य निर्देश हैं, जो राज्यों से संबंधित हैं। उदाहरणार्थ, अनुच्छेद 335 संघ या राज्यों के क्रियाकलापों से संबंधित संवाओं और पदों के लिए की जाने वाले नियुक्तियों में अनुसूचित जातियों व जनजातियों के आरक्षण का प्रावधान करता है। अनुच्छेद 350(क) भाषायी आधार पर अल्पसंख्यक वर्गों के बच्चों को शिक्षा के प्राथमिक स्तर पर मातृभाषा में शिक्षा की पर्याप्त सुविधाएं सुनिश्चित करने के लिए है। संविधान के भाग XVII का अनुच्छेद 351 हिन्दी भाषा का विकास सुनिश्चित करने के लिए है, जिससे यह भारत की मिश्रित संस्कृति के सभी अंगों के लिए अभिव्यक्ति का माध्यम बने। संविधान के भाग XIII अनुच्छेद 256 के अनुसार, प्रत्येक राज्य की कार्यपालिका शक्ति का इस प्रकार प्रयोग किया जाएगा, जिससे संसद द्वारा बनायी गई विधियों का और ऐसी विद्यमान विधियों का, जो राज्य में लागू है, अनुपालन सुनिश्चित रहे। अनुच्छेद 265 में राज्य व संघ दोनों के लिए प्रावधान है कि विधि द्वारा अधिकृत किए बिना कोई भी कर नहीं लगाया जाएगा।
Question : अल्पसंख्यक आयोग की हैसियत, संगठन एवं कार्यों को समझाइये।
(1992)
Answer : अल्पसंख्यकों के हितों की सुरक्षा और संरक्षण के उद्देश्य से सरकार ने 1978 में अल्पसंख्यक आयोग की स्थापना की। अभी तक यह एक गैर-वैधानिक संगठन था, लेकिन वर्तमान सरकार ने इसके स्थान पर अल्पसंख्यकों के लिए एक राष्ट्रीय आयोग की स्थापना की है, जो कि पूरी तरह एक वैधानिक संगठन है। ऐसा इसलिए किया गया है, ताकि यह आयोग प्रभावी ढंग से कार्य करते हुए अपने निर्णयों का क्रियान्वयन करा सके। अल्पसंख्यक आयोग में अध्यक्ष सहित सात सदस्य होते हैं तथा ये सदस्य विभिन्न अल्पसंख्यक समुदायों का प्रतिनिधित्व करते हैं। यह आयोग अल्पसंख्यकों को संविधान में दी गई सुरक्षाओं के क्रियान्वयन का मूल्यांकन करता है तथा संघ व राज्य सरकारों की इस संबंध में नीतियों का विश्लेषण करके अल्पसंख्यकों के संरक्षण को प्रभावी बनाने के उपाय बताता है। अल्पसंख्यकों के अधिकारों का हनन या अतिक्रमण होने की स्थिति में आयोग संबंधित शिकायतों पर विचार करता है। यह अल्पसंख्यकों की स्थिति में सुधार हेतु अध्ययन, अनुसंधान व सर्वेक्षण आदि कार्य करता है। साथ ही, किसी अल्पसंख्यक समुदाय विशेष की स्थिति को देखते हुए उनको अतिरिक्त संरक्षण दिलाने के लिए कानूनी व कल्याणकारी कदम उठाने के लिए समय-समय पर सरकार को अपने सुझाव व प्रतिवेदन भी भेजता है।
Question : सरकारी उपक्रम समिति की संरचना एवं कार्यों को बताइये। (प्रत्येक प्रश्न का उत्तर लगभग 150 शब्दों में होना चाहिए)
(1992)
Answer : सरकारी उपक्रम समिति की स्थापना मई, 1964 में विभिन्न औद्योगिक उपक्रमों के क्रियाकलापों को अनुशासित व नियंत्रित करने के उद्देश्य से की गई थी। समिति में लोकसभा के 15 सदस्य होते हैं, जो कि सदन द्वारा आनुपातिक प्रतिनिधित्व के आधार एकलसंक्रमणीय रीति द्वारा चुने जाते हैं। समिति में राज्यसभा के सात सदस्य होते हैं, जिनका चुनाव लोकसभा से संबंधित सदस्यों के निर्वाचन के अनुरूप ही राज्यसभा द्वारा किया जाता है। समिति का अध्यक्ष समिति के सदस्यों में से ही बनाया जाता है तथा उसकी नियुक्ति लोकसभा अध्यक्ष करते हैं। समिति में किसी भी मंत्री का चुनाव नहीं हो सकता। समिति का कार्यकाल एक वर्ष का होता है। समिति के प्रमुख कार्य निम्नवत हैं-
Question : मंत्रिपरिषद एवं मंत्रिमंडल के बीच के अंतर को समझाइये।
(1992)
Answer : मंत्रिपरिषद: सामान्य रूप से कैबिनेट मंत्री, राज्य मंत्री, उपमंत्री तथा संसदीय सचिव - इन चार प्रकार के मंत्रियों व प्रधानमंत्री या मुख्यमंत्री से मिलकर बनी परिषद को सामूहिक रूप से मंत्रिपरिषद कहा जाता है।
मंत्रिमंडल (कैबिनेट): यह मंत्रिपरिषद के अंतर्गत प्रथम श्रेणी के मंत्रियों का एक समूह होता है। इसमें वे मंत्री होते हैं, जो अपने-अपने विभागों के प्रमुख होते हैं। ये सम्मिलित रूप से पूरी प्रशासनिक नीति का निर्धारण करते हैं। मंत्रिमंडल में केवल प्रधानमंत्री या मुख्यमंत्री और कैबिनेट स्तर के मंत्री होते हैं।
Question : परमादेश की रिट कुछ व्यक्तियों के विरूद्ध नहीं स्वीकृत होगी। वे कौन हैं?
(1992)
Answer : परमादेश न्यायालय का एक ऐसा आदेश है, जो सार्वजनिक अधिकारियों को उनके निर्दिष्ट कार्य संपादन के लिए कहता है। इसका आज्ञा-पत्र उस समय जारी किया जाता है, जब कोई पदाधिकारी अपने सार्वजनिक कर्त्तव्य का निर्वाह नहीं करता है। राष्ट्रपति, राज्य के राज्यपाल, उच्च न्यायालय एवं न्यायिक हैसियत से कार्यरत न्यायाधीश, उच्च न्यायालय के रजिस्ट्रार तथा राज्य के विधानमंडल के विरूद्ध परमादेश जारी नहीं किया जा सकता है।
Question : अखिल भारतीय सेवाओं तथा केंद्रीय सेवाओं के बीच अंतर समझाइये।
(1992)
Answer : अखिल भारतीय सेवाएं: ये सेवाएं संघ सरकार व राज्य सरकार दोनों के लिए होती हैं। इन सेवाओं के अधिकारी विशुद्ध रूप से संघ या फिर राज्य की सेवा में न होकर, दोनों ही सेवा में होते हैं। इस प्रकार की सेवाओं में भारतीय प्रशासनिक सेवा व भारतीय पुलिस सेवा आती है।
केंद्रीय सेवाएं: इन सेवाओं का संबंध संघीय सूची के विषयों के प्रशासन से है। ये सेवाएं संघ सरकार के अधिकार क्षेत्र में आती हैं।इस प्रकार की सेवाओं में विदेश मामले, प्रतिरक्षा, डाक व तार, आयकर तथा कस्टम आदि आते हैं।
Question : वार्षिक वित्तीय विवरण एवं वार्षिक वित्त विधेयक में अंतर बताइये।
(1992)
Answer : वार्षिक वित्तीय विवरण: सामान्यतः वार्षिक वित्तीय विवरण को बजट भी कहा जाता है। सरकार के आनुमानित आय-व्यय का विवरण, जिसको राष्ट्रपति प्रत्येक वित्तीय वर्ष संसद में प्रस्तुत करता है, वार्षिक वित्तीय विवरण कहा जाता है।
वार्षिक वित्त विधेयक: सरकार द्वारा तैयार किया जाने वाला वह विधेयक, जो कि आने वाले वित्तीय वर्ष के लिए सरकार के सभी कर प्रस्तावों को शामिल करता है, वार्षिक वित्त विधेयक कहलाता है।
Question : विधानमंडल का पंगु-सत्र क्या है?
(1992)
Answer : पंगु सत्र से तात्पर्य व्यवस्थापिका के उस सत्र से होता है, जिसमें पूर्व व्यवस्थापिका, नवनिर्वाचित व्यवस्थापिका के उद्घाटन सत्र के पूर्व तक राजनीतिक शक्तियों का प्रयोग करती रहती है। उदाहरणार्थ, अमेरिका में प्रतिनिधि सदन का निर्वाचन नवंबर में हो जाता है, लेकिन वह कार्यारम्भ आगामी जनवरी में करता है। इस प्रकार, नवंबर व जनवरी के बीच की अवधि में पूर्व का प्रतिनिधि सदन ही कार्यरत रहता है।
Question : ‘प्रोटेम स्पीकर’ कौन है? उसकी क्या जिम्मेदारियां हैं?
(1992)
Answer : प्रोटेम स्पीकर: आम चुनावों के बाद नये सदन में अध्यक्ष या उपाध्यक्ष का चुनाव होने से पूर्व सदन की बैठक चलाने के लिए राष्ट्रपति अस्थायी रूप से किसी वरिष्ठ सदस्य को अस्थायी अध्यक्ष (प्रोटेम स्पीकर) नामित कर देता है। इसी प्रकार, अध्यक्ष व उपाध्यक्ष दोनों की अनुपस्थिति में राष्ट्रपति, अध्यक्ष पैनल में से किसी भी सदस्य को अस्थायी अध्यक्ष नियुक्त कर देता है। अस्थायी अध्यक्ष नये सदस्यों को सदन में शपथ दिलाने व नये अध्यक्ष के चुनाव की कारवाई का संचालन करता है।
Question : भारत में राष्ट्रपति तथा प्रधानमंत्री के बीच संवैधानिक संबंधों की जांच कीजिए।
(1991)
Answer : भारत में राष्ट्रपति और प्रधानमंत्री के बीच संबंध सदैव बहुत ज्यादा स्नेहपूर्ण नहीं रहे हैं। भारत के प्रथम राष्ट्रपति डॉ. राजेन्द्र प्रसाद और भारत के प्रथम प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरू के मध्य विद्यमान मतभेद सर्वविदित हैं। राष्ट्रपति ज्ञानी जैल सिंह और भारत के पूर्व प्रधानमंत्री स्व. राजीव गांधी के बीच संबंधों में कड़वाहट भी किसी से छुपी नहीं है। 1987 में संसद द्वारा पारित पोस्टल बिल को जैल सिंह ने संसद के पुनर्विचार के लिए भेज दिया था। राष्ट्रपति की वास्तविक स्थिति संविधान के अनुच्छेद 74(1) में स्पष्ट कर दी गई है, जिसमें कहा गया है कि राष्ट्रपति अपनी शक्तियों का संचालन मंत्रिपरिषद एवं उसके प्रमुख प्रधानमंत्री के परामर्श से ही करेगा। राष्ट्रपति और प्रधानमंत्री के बीच संबंधों को प्रभावित करनेवाला एक प्रमुख कारण संविधान का 42वां संशोधन है, जिसके अनुसार राष्ट्रपति मंत्रिपरिषद एवं उसके प्रमुख प्रधानमंत्री की सलाह के अनुसार काम करेगा। 44 वें संशोधन के अंतर्गत राष्ट्रपति किसी परामर्श को मंत्रिपरिषद के पास पुनर्विचार के लिए एक बार भेज सकता है, पर दुबारा वही परामर्श आने पर वह उसे मानने के लिए बाध्य है। लेकिन संविधान ने राष्ट्रपति को कुछ ऐसे अधिकार भी प्रदान किये हैं, जिससे उसकी शक्तियों का विशेष परिस्थितियों में महत्व बढ़ जाता है। अनुच्छेद 78 के अंतर्गत यह प्रधानमंत्री का कर्त्तव्य होगा कि वह देश के प्रशासनिक व विधायी मामलों व मंत्रिपरिषद के निर्णय से संबंधित कोई सूचना राष्ट्रपति, यदि राष्ट्रपति इसे आवश्यक समझे। उसे संसद के किसी सदन या दोनों सदनों को संबोधित करने तथा संदेश भेजने का (अनुच्छेद 86) अधिकार प्राप्त है। कुछ मामलों में राष्ट्रपति को स्वविवेक की शक्ति का भी सहारा लेना होता है। 1979 में केंद्र में शासक दल (जनता पार्टी) में विभाजन हो जाने व प्रधानमंत्री मोरारजी देसाई द्वारा त्यागपत्र दे दिये जाने पर तत्कालीन राष्ट्रपति नीलम संजीव रेड्डी ने चौधरी चरण सिंह को लोकसभा में बहुमत प्राप्त करने की क्षमता से युक्त मानते हुए सरकार बनाने का मौका दिया। लेकिन उन्होंने एक महीने से कम समय में ही बिना बहुमत सिद्ध किये त्यागपत्र दे दिया। इसके बाद राष्ट्रपति ने जगजीवन राम द्वारा बहुमत प्राप्त करने के दावे को अस्वीकार करते हुए आम चुनावों के निर्देश दे दिए। इससे यह सिद्ध होता है कि भारत के राष्ट्रपति पद को सुशोभित करने वाला व्यक्ति भारतीय संसदीय प्रणाली की विशिष्टताओं की समझ रखता है तथा उसे प्रधानमंत्री व उनकी मंत्रिपरिषद की सलाह के अनुरूप कार्य करने का स्वविवेक है।
Question : क्या राज्यों को और ज्यादा स्वायत्तता प्रदान करना, विशेषकर हाल की हुई घटनाओं के संदर्भ में, देश की अखंडता को सुदृढ़ बनाने तथा आर्थिक विकास के संवर्द्धन के हित में होगा? परीक्षण कीजिए।
(1991)
Answer : नेहरू युग के बाद, विशेषकर हाल-फिलहाल की घटनाओं से ऐसा प्रतीत होता है कि देश के अधिकांश राज्य अधिक स्वायत्तता की मांग कर रहे हैं। इसका एक प्रमुख कारण छोटी-छोटी क्षेत्रीय पार्टियों का उदय तथा केंद्र सरकार के पास अधिक आर्थिक अधिकार होना है। राज्य सरकारें स्वयं इतने संसाधन नहीं जुटा पाती है कि वे संविधान में दिए गए दायित्वों को पूरा कर सके। इसलिए उन्हें केंद्र की आर्थिक सहायता पर अपने विकास कार्यों से निपटने के लिए निर्भर रहना पड़ता है। इससे केंद्र, राज्यों को अपने इशारों पर चलने के लिए मजबूर किये रहता है। इस प्रकार के कार्य देश के आर्थिक विकास में बाधक होते हैं। वास्तव में, संघीय व्यवस्था में व्यवस्था का संचालन इस प्रकार होना चाहिए, जिसमें राज्य भी देश के आर्थिक विकास में भागीदार बन सके। राज्यों की संसाधनों में निम्न हिस्सेदारी के कारण उनकी आर्थिक स्वायत्तता पर असर पड़ता है। उन्हें केंद्र द्वारा लादे गए कार्यक्रमों को भी चलाना पड़ता है। ये कार्यक्रम कभी-कभी उनकी क्षेत्रीय आवश्यकताओं के प्रतिकूल भी होते हैं। केंद्र से राज्यों को अधिक अनुदान मिलना चाहिए। इससे उनके वित्तीय संसाधनों में बढ़ोत्तरी होगी और उन कार्यक्रमों को विशेष बल मिलेगा, जो राज्यों के लिए आवश्यक हैं। उपरोक्त बातों को केंद्र को नजरअंदाज नहीं करना चाहिए। केंद्र सरकार को सरकारिया कमीशन के सुझावों को राज्यों की स्वायत्तता के हित में मान लेनी चाहिए। भारत अखण्ड तभी रह सकता है, जब राज्य सभी तरह से आत्मनिर्भर हो जायें। इससे राज्य, प्रशासनिक संरचना में प्रजातंत्रीय आधार पर शामिल हो सकेंगे और अपना काम भी सुचारू रूप से संपन्न कर सकेंगे।
Question : अनुसूचित क्षेत्र से संबंधित भारत के राष्ट्रपति के अधिकार का विवेचन कीजिए।
(1991)
Answer : संसद द्वारा बनाए गए विधान के अधीन रहते हुए राष्ट्रपति को यह शक्ति दी गई है कि वह किसी क्षेत्र को ‘अनुसूचित क्षेत्र’ घोषित कर दे (5वीं अनुसूची, पैरा (6, 7)। राष्ट्रपति ने इस शक्ति के अनुसरण में अनुसूचित क्षेत्र आदेश, 1950 निकाला। ये क्षेत्र विभिन्न राज्यों में ‘अनुसूचित जनजाति’ के रूप में विनिर्दिष्ट जनजातियों के निवास क्षेत्र हैं। संविधान की पांचवीं और छठी अनुसूची में उपबंधित प्रशासन के अनुसार संघ की कार्यपालिका शक्ति का विस्तार राज्य को उक्त क्षेत्रों के प्रशासन के बारे में निर्देश देने तक होगा तथा ऐसे राज्य का राज्यपाल, जिसमें अनुसूचित क्षेत्र है, प्रति वर्ष या जब भी राष्ट्रपति अपेक्षा करे, उस राज्य के अनुसूचित क्षेत्रों के प्रशासन के संबंध में राष्ट्रपति को प्रतिवेदन देगा (अनुसूची 5 पैरा 3)। राज्यपाल के निर्देश पर उस राज्य की अनुसूचित जनजातियों के कल्याण व उन्नति से संबंधित विषयों पर सलाह देने के लिए जनजाति सलाहकार परिषदों का गठन किया जाएगा (अनुसूची 5 पैरा 4)। संसद का या उस राज्य के विधानमंडल का कोई भी विशिष्ट अधिनियम उस राज्य के अनुसूचित क्षेत्र पर लागू नहीं होगा। साथ ही, राज्यपाल को यह प्राधिकार दिया गया है कि वह अनुसूचित जनजाति के सदस्यों द्वारा या उनमें भूमि के अंतरण का प्रतिषेध या निर्बन्धन कर सकेगा। वह भूमि के आवंटन का और साहूकार के रूप में कारोबार का विनियमन कर सकेगा। राज्यपाल द्वारा बनाये गए उपरोक्त सभी विनियमों को राष्ट्रपति की अनुमति प्राप्त करनी होगी (अनुसूची 5 पैरा 5)। संविधान में अनुसूचित क्षेत्रों के प्रशासन और राज्यों में अनुसूचित जनजातियों के कल्याण केबारे में प्रतिवेदन देने के लिए एक आयोग की नियुक्ति की व्यवस्था है। राष्ट्रपति ऐसे आयोग को कभी भी नियुक्त कर सकता है [अनुच्छेद 339(1)]।
Question : वे कौन-से संवैधानिक प्रावधान हैं, जो भारत में लोक सेवा आयोग की स्वतंत्रता को सुनिश्चित करते हैं?
(1991)
Answer : संविधान के वे उपबंध जो कि भारत में लोक सेवा आयोग की स्वतंत्रता को सुनिश्चित करते हैं, निम्नवत हैं-
सरकार के अधीन नियोजन के विरूद्ध संघ लोक सेवा आयोग के अध्यक्ष की दशा में भारी वर्जनायें हैं। जबकि राज्य लोक सेवा आयोग के अध्यक्ष या संघ अथवा राज्य आयोग के अन्य सदस्यों की दशा में लोक सेवा आयोग में उच्चतर पद पर नियोजन किया जा सकता है, किन्तु आयोग के बाहर नहीं।
Question : भारतीय राजव्यवस्था की धर्मनिरपेक्ष भावना तथा भारत में अल्पसंख्यकों की स्थिति का विवेचन कीजिए।
(1991)
Answer : भारतीय राजनीतिक व्यवस्था, संविधान के अंतर्गत प्रकृति से धर्मनिरपेक्ष है अर्थात भारत एक ऐसा राज्य है, जो सभी धर्मों के प्रति तटस्थता और निष्पक्षता का भाव रखता है। पंथनिरपेक्ष राज्य इस विचार पर आधारित होता है कि राज्य का विषय केवल व्यक्ति और व्यक्ति के संबंध से है, व्यक्ति और ईश्वर के बीच संबंध से नहीं। यह संबंध व्यक्ति के अंतःकरण का विषय है। संविधान के कई उपबंधों द्वारा सभी धर्मों के प्रति निष्पक्षता का दृष्टिकोण सुनिश्चित किया गया है, जो कि संविधान के अनुच्छेद 25-28 में उल्लिखित है। राज्य किसी नागरिक को किसी विशिष्ट धर्म या धार्मिक संस्था की अभिवृद्धि या पोषण के लिए करों को संदाय करने के लिए बाध्य नहीं कर सकता है (अनुच्छेद 27) तथा पूर्णतः राज्य द्वारा वित्त-पोषित किसी संस्था में कोई धार्मिक शिक्षा नहीं दी जा सकती है। राज्य से मान्यता प्राप्त या राज्य निधि से सहायता प्राप्त शिक्षा संस्था में उपस्थित होने वाले व्यक्ति को उस संस्था द्वारा दी जाने वाली धार्मिक शिक्षा में भाग लेने के लिए बाध्य नहीं किया जा सकता है (अनुच्छेद 28)। कुछ परिसीमाओं के अधीन रहते हुए भारत में प्रत्येक व्यक्ति को न केवल धार्मिक विश्वास का, बल्कि ऐसे विश्वास से जुड़े हुए आचरण करने का और अपने विचारों का दूसरों को उपदेश करने का अधिकार है (अनुच्छेद 25)। संविधान में प्रत्येक धार्मिक संप्रदाय या उसके विभाग को धार्मिक या मूर्त प्रयोजनों के लिए संस्थाओं की स्थापना या पोषण, धर्म विषयक कार्यों का प्रबंध करने, स्थावर संपत्ति के अर्जन व स्वामित्व तथा ऐसी संपत्ति का विधि अनुसार प्रशासन करने का अधिकार (अनुच्छेद 26) है। संविधान के उपरोक्त उपबंध अल्पसंख्यकों की राज्य में बराबरी की स्थिति को सुनिश्चित करते हैं। अल्पसंख्यक समुदाय के लोग राष्ट्रपति, उपराष्ट्रपति, मंत्री, राजदूत, राज्यपाल, सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीश आदि पदों पर बड़ी संख्या में नियुक्त किए जाते रहे हैं। यद्यपि संप्रदाय या जाति के आधार पर होने वाले पृथक निर्वाचन को समाप्त कर दिया गया है, लेकिन इससे अल्पसंख्यक समुदायों के विकास व हितों पर कोई प्रभाव नहीं पड़ा है।
Question : ‘भारत में योजना प्रचालन संघवाद को अपरदन की ओर ले गया है।’
(1991)
Answer : ‘आर्थिक और सामाजिक नियोजन’ भारतीय संविधान के सातवें परिशिष्ट की समवर्ती सूची का विषय है। समवर्ती सूची के विषयों के संबंध में संसद तथा राज्य के विधानमंडल दोनों ही विधि निर्माण कर सकते हैं। इसका लाभ उठा कर केंद्र ने 15 मार्च, 1950 को बिना विधान बनाए मात्र एक प्रस्ताव पारित करके संघ तथा राज्यों के समस्त प्रशासन पर अपनी नीतियों की व्यावहारिक एकरूपता स्थापित करने के लिए योजना आयोग की स्थापना कर दी। उल्लेखनीय है कि भारतीय संविधान में इस आयोग का उल्लेख नहीं किया गया है। योजना आयोग एक संवैधानिक निकाय न होकर एक परामर्शदात्री संस्था है। एक संघीय देश में केंद्र और राज्य सरकारों के बीच नियोजन को लेकर प्रायः मतभेद उत्पन्न होते रहते हैं, लेकिन योजना आयोग के प्रावधान द्वारा केंद्र ने राज्यों के ऊपर अपनी स्थिति को सुदृढ़ कर लिया है। योजना आयोग राज्यों पर प्रभावी नियंत्रण, राज्यों की योजनाओं व कार्यक्रमों की संस्तुति द्वारा रखता है। केंद्र सरकार द्वारा राज्यों को दी जाने वाली केंद्रीय सहायता की संस्तुति योजना आयोग द्वारा ही की जाती है। ये विवेकाधीन अनुदान होते हैं, जो कि संविधान की धारा 282 के तहत दिए जाते हैं। इसी प्रकार, राज्य सरकारों को ऋण भी योजना आयोग की संस्तुति पर ही जारी किये जाते हैं। ये सभी कारण केंद्र व राज्य संबंधों में दबाव और तनाव उत्पन्न करते रहते हैं। यद्यपि भारतीय संघात्मक गणराज्य में नियोजन को संवैधानिक आधार देने के लिए 1952 में राष्ट्रीय विकास परिषद का गठन किया गया, जो कि योजना आयोग द्वारा तैयार योजना के प्रारूप को स्वीकार करती है या उसमें परिवर्तन करती है। इस परिषद के सदस्य प्रधानमंत्री, योजना आयोग के सदस्य व राज्यों के मुख्यमंत्री होते हैं। राष्ट्रीय विकास परिषद का मुख्य प्रयोजन योजना आयोग, केंद्र सरकार व राज्य सरकार के बीच समन्वय स्थापित करना है। लेकिन वे परिषदें अभी तक आवश्यक परिणाम दे पाने में समर्थ नहीं हो पायी हैं।
Question : मूल्यों पर आधारित राजनीति एवं व्यक्तित्व पर आधारित राजनीति के बीच के अंतर को समझाइये।
(1991)
Answer : इस प्रकार की राजनीति में समाज के लिए हितकर मुद्दों के आलोचनात्मक विश्लेषण पर विशेष बल दिया जाता है। इसमें नीति संबंधी सिद्धांतों पर जोर रहता है। जबकि व्यक्ति आधारित राजनीति में किसी व्यक्ति विशेष की विचारधारा पूरी राजनीति को प्रभावित किए रहती है।
Question : कामचलाऊ सरकार तथा अल्पमत सरकार में अंतर समझाइये।
(1991)
Answer : कामचलाऊ सरकार (Care-taker Govt.): संसद में बहुमत खो चुकी वह सरकार, जो राष्ट्रपति के अनुरोध पर नए चुनाव हो जाने तक शक्ति में बनी रहे।
अल्पमत सरकार (Minority Government): अल्पमत सरकार का गठन तब होता है, जब सत्ताधारी दल को अपने बूते पर स्पष्ट बहुमत प्राप्त नहीं होता है, लेकिन वह अन्य दलों के समर्थन से सरकार बना लेता है।
Question : कब किसी राज्य का राज्यपाल किसी विधेयक (बिल) को भारत के राष्ट्रपति के विचारार्थ आरक्षित कर सकता है?
(1991)
Answer : राज्यपाल किसी भी विधेयक को कभी भी राष्ट्रपति के विचारार्थ आरक्षित कर सकता है (अनुच्छेद 200)। उच्च न्यायालय की शक्तियों में परिवर्तन करने वाले किसी अधिनियम को राष्ट्रपति के विचारार्थ भेजा जाना अनिवार्य है।
Question : शिक्षा को राज्य सूची से निकाल कर भारतीय संविधान की समवर्ती सूची में क्यों डाल दिया गया था?
(1991)
Answer : केंद्र व राज्य सरकार के बीच मतभेदों से बचने के लिए शिक्षा को राज्य सूची से हटाकर समवर्ती सूची में डाल दिया गया।
Question : मंत्रिमंडल के कार्यों को बताइये।
(1991)
Answer : कैबिनेट, मंत्रिपरिषद के अन्तर्गत महत्वपूर्ण मंत्रालयों के प्रमुख मंत्रियों का एक संगठन (body) है। कैबिनेट, सरकार की नीति निर्धारण करने वाली सर्वोच्च परिषद है। यह नीतियों को बनाने व लागू करवाने के लिए भी उत्तरदायी होती है।
Question : प्रशासन में संगठन एवं पद्धति (ओ. तथा एम.) का क्या महत्व है?
(1991)
Answer : ओ. तथा एम. (ऑर्गेनाइजेशन एंड मेथॉड) एक ऐसी संस्थानिक व्यवस्था है, जो सरकार के संगठन व प्रक्रिया को सुधारता है। यह सरकार की कार्यक्षमता में सुधार को भी सुनिश्चित करता है।
Question : भारत के नियंत्रक एवं महालेखा परीक्षक के कर्त्तव्यों तथा शक्तियों को लेखा परीक्षण के संदर्भ में परिभाषित करते हुए यह बताइए कि कार्यपालिका के नियंत्रण से उनको स्वतंत्र रखने के लिए संविधान में क्या व्यवस्था की गई है?
(1989)
Answer : भारत के संविधान के अनुच्छेद 148 से 151 में नियंत्रण एवं महालेखा परीक्षक के संबंध में प्रावधान हैं। अनुच्छेद 148 के अनुसार, उसकी नियुक्ति राष्ट्रपति द्वारा की जाती है। वह देश की समस्त वित्तीय प्रणाली का नियंत्रण करता है। अनुच्छेद 149 के अनुसार, वह संघ, राज्यों या संसद के किसी कानून के तहत किसी अन्य संस्था के लेखों के संबंध में उन कर्त्तव्यों का पालन और ऐसी शक्तियों का प्रयोग करेगा, जो संविधान लागू होने के पूर्व भारत के महालेखा परीक्षक को प्राप्त थे। भारत के नियंत्रक एवं महालेखा परीक्षक के लेखा परीक्षण के संबंध में कर्त्तव्य व शक्तियां निम्न प्रकार हैं-
संघ संबंधी लेखा रिपोर्ट राष्ट्रपति को तथा राज्य संबंधी लेखा रिपोर्ट राज्यपाल को प्रस्तुत की जाती है। नियंत्रक व महालेखा परीक्षक को कार्यपालिका के नियंत्रण से स्वतंत्र रखने के लिए प्रमुख संवैधानिक व्यवस्थाएं निम्न प्रकार हैं-
Question : भारतीय संसद की शक्तियों, विशेष अधिकारों तथा उन्मुक्तियों का विवेचन कीजिए।
(1989)
Answer : भारत के संविधान के अनुसार भारतीय संसद के कार्य एवं अधिकार निम्नवत हैं-
भारतीय संसद द्वारा सांसदों को प्रदत्त विशेषाधिकार व उन्मुक्तियां निम्नवत हैं-
Question : लोकसभा के अध्यक्ष की शक्तियों तथा कृत्यों का परीक्षण कीजिए।
(1989)
Answer : लोकसभा अपने सदस्यों में से बहुमत द्वारा अध्यक्ष व उपाध्यक्ष का चुनाव करती है (अनुच्छेद 93)। इनका कार्यकाल लोकसभा के भंग होने पर स्वतः समाप्त हो जाता है। अध्यक्ष अपनी सहायता के लिए कुछ सदस्यों का एक अध्यक्ष मंडल भी मनोनीत करता है तथा अध्यक्ष व उपाध्यक्ष की अनुपस्थिति में इस अध्यक्ष मंडल का कोई सदस्य लोकसभा की कारवाई का संचालन करता है। लोकसभा अध्यक्ष के प्रमुख कार्य व शक्तियां निम्नवत हैं-
Question : भारत की संसदीय पद्धति की परिसंघीय व्यवस्था के परिप्रेक्ष्य में द्वितीय सदन के रूप में राज्यसभा की प्रासंगिकता समझाइये।
(1989)
Answer : वित्त विधेयक को छोड़ कर अन्य समस्त विधेयकों के संबंध में लोकसभा व राज्यसभा को समान शक्तियां प्राप्त हैं। किसी विधेयक पर मतभेद की स्थिति में राष्ट्रपति दोनों सदनों का संयुक्त अधिवेशन बुलाता है तथा उसमें जो पारित होता है वही सदन द्वारा पारित माना जाता है। इस स्थिति में राज्यसभा की शक्ति कम हो जाती है, क्योंकि राज्यसभा सदस्यों की संख्या लोकसभा से कम होती है। राज्यसभा की यह स्थिति उसे एक कमजोर, निरर्थक व अनुपयोगी सदन भी बना देती है। राज्यसभा में सरकारी प्रस्ताव अस्वीकृत होने पर भी मंत्रिमंडल को त्यागपत्र नहीं देना पड़ता है। किसी वित्त विधेयक को राज्यसभा मात्र 14 दिन तक तथा साधारण विधेयक को 6 माह तक ही रोक सकती है। कुल मिलाकर राज्यसभा की शक्तियां लोकसभा से कम ही होती हैं।
इसके बावजूद भारत की संसदीय पद्धति की परिसंघीय व्यवस्था के दृष्टिगत राज्यसभा की महत्वपूर्ण भूमिका है, जिसे निम्नवत समझा जा सकता है-
भारत जैसे विश्व के सबसे बड़े लोकतांत्रिक व संघात्मक व्यवस्था वाले देश में संसद का द्विसदनात्मक होना, लोकतंत्र को निश्चित रूप से मजबूती प्रदान करता है।
Question : भारत के संदर्भ में कार्यपालिका तथा विधायिका के बीच के संबंध का विवेचन कीजिए।
(1989)
Answer : भारतीय संविधान द्वारा प्रदत्त व्यवस्थानुसार, विधायिका (संसद) तथा कार्यपालिका (मंत्रिमंडल) में गहन संबंध है। विधायिका का कार्य संघीय सूची के विषयों पर कानून निर्माण करना तथा कार्यपालिका का कार्य उन कानूनों का क्रियान्वयन करना है। भारत में कार्यपालिका के सदस्य संसद के भी सदस्य होते हैं तथा वे लोकसभा के प्रति उत्तरदायी अनुच्छेद 75(3), होते हैं। प्रधानमंत्री व मंत्रिपरिषद ही संसद को नेतृत्व प्रदान करते हैं तथा मंत्रिमंडल उसी समय तक अपने पद पर बना रहता है, जब तक उसे लोकसभा में बहुमत प्राप्त है। भारतीय संसद का एक प्रमुख कार्य कार्यपालिका पर नियंत्रण रखना भी है। इसके लिए कुछ प्रमुख व्यवस्थाएं निम्नवत हैं-
सिद्धांत रूप में देखा जाए तो विधायिका का कार्यपालिका पर पूर्ण नियंत्रण रहता है, लेकिन व्यावहारिकता इससे काफी हट कर है। प्रधानमंत्री, जो कि बहुमत दल का नेता होता है कि नीतियों का दल के सभी सदस्य प्रायः दलीय अनुशासन के कारण समर्थन करते हैं। दल की नीतियों का विरोध करने पर अनुशासनात्मक कारवाई का उन्हें भय रहता है। अतः विधायिका अप्रत्यक्ष रूप से कार्यपालिका से नियंत्रित रहती है। प्रायः मंत्रिमंडल ही कानूनों का निर्माण करके सांसदों की सहमति प्राप्त कर लेता है। इसी प्रकार बहुमत दल की सरकार द्वारा प्रस्तुत बजट को दल के सांसद बिना किसी कटौती के स्वीकार कर लेते हैं, क्योंकि कटौती की स्थिति में सरकार गिर भी सकती है। साथ ही, प्रधानमंत्री के पास लोकसभा भंग करने की शक्ति भी होती है, जो कि विधायिका की अपेक्षा कार्यपालिका की अधिक शक्ति को स्पष्ट करता है। कहा जा सकता है कि कार्यपालिका पर विधायिका का प्रभावी नियंत्रण होते हुए भी कार्यपालिका (मंत्रिमंडल) अप्रत्यक्ष रूप से विधायिका पर श्रेष्ठता व नियंत्रण बनाए रखती है।
Question : भारतीय संसद में समिति पद्धति के संगठन तथा कृत्यों का विवरण दीजिए।
(1989)
Answer : संसद के पास हर मामले के लिए समय, दक्षता व परीक्षण करने का अभाव होता है। अतः संसद अपने कार्यों को सुचारू रूप से चलाने के लिए विभिन्न समितियों का सहयोग लेती है। इसके लिए संसद सदस्य संसद में प्रस्ताव पेश करते हैं या ये सदनों के पीठासीन अधिकारियों द्वारा नाम निर्दिष्ट की जाती हैं। भारत में दो प्रकार की संसदीय समितियां होती हैं-
स्थायी समितियां प्रकृति की दृष्टि से निम्न प्रकार की होती हैं-
Question : संसद में कटौती प्रस्ताव से क्या तात्पर्य है? उसके विभिन्न प्रकार बताइये?
(1989)
Answer : संसद में किसी मंत्रालय की प्रस्तुत अनुदान मांगों पर विचार करने के उपरांत अनुदान मांगों पर संसद सदस्यों द्वारा कटौती करने का प्रस्ताव, कटौती प्रस्ताव कहलाता है। इससे संसद सदस्यों को उस मंत्रालय के कार्यकलापों का परीक्षण करने का एक सही अवसर मिल जाता है। कटौती प्रस्ताव तीन प्रकार के होते हैं-
Question : भारत सरकार के विभिन्न मंत्रालयों से सम्बद्ध परामर्शदात्री समितियों के महत्व का विवेचन कीजिए।
(1989)
Answer : विभिन्न मंत्रालयों से सम्बद्ध परामर्शदात्री समितियों के लिए संसद सदस्य अपनी प्राथमिकता संसदीय कार्य मंत्री को बताते हैं। संसदीय मंत्री उनमें से विविध समितियों में दलीय शक्ति के अनुसार सदस्यों की नियुक्ति करता है। समितियों की समय-समय पर होने वाली बैठकों में विभाग से संबंधित समस्याओं पर विचार किया जाता है। यह पूरी तरह औपचारिक व्यवस्था है तथा इसके कोई नियम व संविधान नहीं होते और इसके निर्णय भी बाध्यकारी नहीं होते। इसका मूल कार्य सरकारी नीतियों व सार्वजनिक प्रशासन के सिद्धांतों, समस्याओं व कार्यप्रणाली पर विचार करना तथा सांसदों और विभागों में सहज संबंध स्थापित करना है। इसे गवाहों को बुलाने या सरकारी रिकॉर्ड मंगा कर देखने का भी अधिकार नहीं होता।
Question : संसद में पूछे जाने वाले तारांकित तथा उप-तारांकित प्रश्नों का अंतर समझाइये।
(1989)
Answer : संसद में जिस प्रश्न का उत्तर सदस्य मौखिक रूप से चाहता है, उस प्रश्न के सामने तारा अंकित कर देता है तथा मंत्री द्वारा उत्तर दिए जाने के बाद पूरक प्रश्न पूछे जा सकते हैं। जबकि जिन प्रश्नों के आगे तारा अंकित नहीं रहता, उनके उत्तर मंत्री मौखिक रूप से नहीं देते, बल्कि उत्तर लिख कर प्रश्नकाल के बाद सदन की मेज पर रख देते हैं। इसमें पूरक प्रश्न नहीं पूछे जा सकते हैं।
Question : संसद के भंग विशेषाधिकार सदन की अवमानना से किस प्रकार भिन्न हैं?
(1989)
Answer : संविधान में संसद सदस्यों को सदन में भाषण देने की स्वतंत्रता व बंदी बनाए जाने से मुक्ति आदि जैसे कुछ विशेषाधिकारों का स्पष्ट उल्लेख है तथा इस विशेषाधिकार को भंग करना असंवैधानिक होता है। दूसरी ओर, संसद में किसी अन्य व्यक्ति के साथ जबर्दस्ती प्रवेश का प्रयत्न करना, पर्चे फेंकना या संसद के आदेशों का उल्लंघन करना आदि कृत्य संसद की अवमानना कहे जाते हैं।
Question : कुछ ऐसे क्षेत्र हैं, जहां पर केवल राज्यसभा का प्राधिकार चलता है। वे कौन-कौन हैं?
(1989)
Answer : अनुच्छेद 249 के अनुसार, राज्यसभा विशेष बहुमत द्वारा राज्य सूची के किसी भी विषय पर संसद को कानून बनाने के लिए अधिकृत कर सकती है, यदि वह इसे राष्ट्रहित में आवश्यक समझे। अनुच्छेद 312 के अनुसार, राज्यसभा विशेष बहुमत द्वारा नयी अखिल भारतीय सेवाओं की स्थापना की अनुशंसा भी कर सकती है।
Question : औचित्य-प्रश्न (प्वाईंट ऑफ आर्डर) क्या होता है और कब उठाया जाता है?
(1989)
Answer : व्यवस्थापिका के सदस्य द्वारा किसी विवादास्पद या संदेहास्पद विषय पर व्यवस्थापिका में उठाया गया प्रश्न औचित्य प्रश्न कहलाता है। इसके द्वारा सदस्य किसी कारवाई के नियमानुसार चलने या न चलने पर प्रश्न उठाते हैं। इसमें निर्णय का अधिकार अध्यक्ष के पास होता है।
Question : भारत में सार्वजनिक व्यय को संसद जिन विधियों से नियंत्रित करती है, उनकी विवेचना कीजिए।
(1988)
Answer : संसदीय लोकतंत्र की अपनी एक विशेषता है, जहां राजनीतिक कार्यपालिका को संसद के प्रति जवाबदेह रहना पड़ता है। संसद द्वारा कार्यपालिका के ऊपर रखा जाने वाला सबसे महत्वपूर्ण नियंत्रण है- उसके द्वारा बजट के ऊपर निगरानी रखना। कार्यपालिका संसद के अधिकृत किए बिना एक पैसा भी खर्च नहीं कर सकती है। खर्च से पहले का नियंत्रण बजट प्रावधानों द्वारा होता है, क्योंकि इसमें एक निश्चित राशि कार्यपालिका के खर्च के लिए निर्धारित होती है। बजट के बाद का खर्च लेखा परीक्षण द्वारा निर्धारित होता है। लेखा परीक्षण का काम महालेखा नियंत्रक एवं परीक्षक करते हैं। फिर लेखा परीक्षण रिपोर्ट को संसद के सामने राष्ट्रपति द्वारा रखा जाता है। लेकिन संसद के पास इतना समय नहीं होता है कि वह महालेखा नियंत्रक एवं परीक्षक की रिपोर्ट की तकनीकी गुत्थियों को देख सके। इसलिए लोक लेखा समिति इस रिपोर्ट की जांच पूरी तरह करती है। इसके बाद यह समिति अपनी रिपोर्ट व लेखा परीक्षण रिपोर्ट दोनों को सरकार और संसद को भेज देती है।
सरकारी उपक्रम संबंधी समिति लेखा नियंत्रक एवं परीक्षक के उन अंशों पर विचार करती है, जो सरकारी उपक्रमों से संबंधित रहती हैं। इन सभी समितियों की सिफारिशें और लेखा नियंत्रक एवं परीक्षक की रिपोर्ट संसद के हाथ में एक ऐसा अस्त्र है, जिससे वह लोक व्यय पर नियंत्रण रखती है। लोकसभा की प्राक्कलन समिति एक स्थायी मितव्ययता समिति के रूप में कार्य करती है। यह समिति सरकारी फिजूलखर्ची पर रोक लगाने का काम करती है।
Question : भारत के संविधान की प्रमुख प्रतिबद्धताएं क्या हैं, जैसा कि उसकी उद्देशिका में निबद्ध है?
(1988)
Answer : यद्यपि भारतीय संविधान में प्रस्तावना को कोई विधिक महत्व नहीं दिया गया है, फिर भी यह काफी महत्वपूर्ण है। क्योंकि यह संविधान स्रोत, उद्देश्य एवं प्रवर्तन विधि को जानने में सहायता पहुंचाती है। वास्तव में भारतीय संविधान की प्रस्तावना संविधान के मूल उद्देश्यों को दर्शाती है। इसमें एक प्रमुख वचनबद्धता यह है कि भारत जैसे गणतंत्रत्मक राज्य में सत्ता लोगों के हाथ में निहित है। इसमें लोगों को सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक न्याय देने की बात कही गई है। सबको बराबरी का दर्जा और अवसर प्राप्त है। प्रस्तावना बंधुत्व और आपसी भाईचारा बढ़ाने तथा देश की एकता और अखंडता बढ़ाने की बात भी करती है। 12वें संविधान संशोधन, 1976 के बाद प्रस्तावना में अखण्डता, समाजवाद और भारत के धर्मनिरपेक्ष राष्ट्र होने की बात जोड़ दी गई। इसमें कमजोर वर्गों और अल्पसंख्यकों के हितों की रक्षा के वचन पर भी जोर दिया गया है।
उत्तर (b): संविधान में अल्पसंख्यक उन्हें कहा गया है, जो यहां के बहुसंख्यक निवासियों के बाद धार्मिक आधार पर गिने जाते हैं, जैसे- मुस्लिम, सिख, जैन और बौद्ध। अल्पसंख्यक की बात संविधान में एक विचार के रूप में निहित है, ताकि बंधुत्व और अखंडता का उद्देश्य प्राप्त किया जा सके। संविधान में सांप्रदायिक प्रतिनिधित्व की व्यवस्था को खत्म कर दिया गया है, लेकिन उनके हितों की रक्षा की बात कही गई है। उनके हितों की रक्षा के लिए कुछ संवैधानिक रक्षा कवच या अभय-पत्र इस प्रकार हैं-
(क)भारत एक धर्मनिरपेक्ष राष्ट्र है। यहां सभी अल्पसंख्यकों को भाषाई और सांस्कृतिक पहचान बनाए रखने का अधिकार है।
(ख)भाषाई अल्पसंख्यकों को प्राथमिक शिक्षा उन्हीं की मातृभाषा में देने का काम राज्य करेगा। इसके लिए एक अधिकारी की नियुक्ति होती है।
(ग)शिक्षा संस्थाओं से धर्म, जाति, भाषा और वर्ण के आधार पर प्रवेश/नामांकन नहीं रोका जा सकता।
(घ)अल्पसंख्यक अपनी पसंद का अध्ययन संस्थान खोल कर उसे चला सकते हैं।
(ड़)सार्वजनिक रोजगार के अवसर पर कोई भेदभाव उनके साथ नहीं बरता जाएगा।
Question : भारत के संविधान में राज्यों की भूमिका तथा उनके कृत्यों का जो प्रतिपादन हुआ है, उसके आधार पर उनका परीक्षण कीजिए।
(1988)
Answer : राज्य की शासन प्रणाली का सांविधानिक प्रधान राज्यपाल होता है। वह राष्ट्रपति के प्रसादपर्यन्त अपने पर पर रहता है। राज्य सरकार की समस्त कार्यपालिका शक्तियां औपचारिक रूप से राज्यपाल में ही निहित होती हैं। परंतु, वह इनका प्रयोग राज्य की मंत्रिपरिषद के परामर्श पर ही करता है। व्यवहार में राज्यपाल केंद्र का प्रतिनिधि होता है। उसे यह भी अधिकार है कि यदि उसे विश्वास हो जाए कि राज्य की सरकार संविधान के अनुसार संचालित नहीं हो पा रही है तो वह राष्ट्रपति को इस बारे में अपनी रिपोर्ट भेज सकता है। ऐसी स्थिति में, राष्ट्रपति उस राज्य में सांविधानिक आपातकाल की घोषणा कर देता है और अनुच्छेद 356 के अंतर्गत राष्ट्रपति शासन लागू हो जाता है। राज्यपाल के प्रमुख कार्य निम्नवत हैं-
Question : भारत के निर्वाचन आयोग के सांविधानिक दायित्वों को समझाइये।
(1988)
Answer : संविधान के अनुच्छेद 324 के अंतर्गत संपूर्ण चुनाव प्रक्रिया का पर्यवेक्षण करने, चुनाव न्यायाधिकरणों की स्थापना करने एवं चुनाव संबंधी अन्य मामलों की देखभल करने के लिए एक स्वतंत्र निकाय के रूप में एकसदस्यीय या बहुसदस्यीय चुनाव आयोग को अपनाया गया है। इसका अध्यक्ष मुख्य निर्वाचन आयुक्त होता है। उसे उसके पद से उसी रीति और उन्हीं आधारों पर हटाया जा सकेगा, जिस रीति और आधारों पर उच्चतम न्यायालय के न्यायाधीश को हटाया जा सकता है। इस प्रकार चुनाव आयोग को भारत की लोकतांत्रिक प्रक्रिया का मुख्य अभिरक्षक कहा जा सकता है। चुनाव आयोग के प्रमुख कार्य निम्नलिखित हैं-
Question : संसद में कार्य संचालन के संदर्भ में ‘शून्यकाल’ (Zero Hour) से आप क्या समझते हैं?
(1988)
Answer : संसद के दोनों सदनों में ‘प्रश्न काल’ के तुरन्त बाद का समय ‘शून्य काल’ कहलाता है। इस समय की कार्य-प्रकृति अनियमित होती है, क्योंकि इस दौरान बिना किसी अनुमति या पूर्व सूचना के मुद्दे उठाए जाते हैं।
Question : संसद सदस्यों को विशेषाधिकार क्या-क्या हैं?
(1988)
Answer : प्रत्येक संसद सदस्य द्वारा व्यक्तिशः उपभोग किए जाने वाले विशेषाधिकार निम्नलिखित हैं-
(क)सदस्य को सदन या उसकी किसी समिति, जिसका वह सदस्य है, का अधिवेशन चलते रहने के दौरान या सदनों या समितियों की संयुक्त बैठक के दौरान तथा अधिवेशन या बैठक के पूर्व या पश्चात् गिरफ्रतार नहीं किया जा सकता।
(ख)जब संसद सत्र में हो, तो सदन की अनुमति के बिना किसी सदस्य को साक्ष्य देने हेतु सम्मन नहीं दिया जा सकता है।
(ग)सदस्य को प्रत्येक सदन में वाक् स्वातंत्र्य प्रदान किया गया है।
Question : भारत के संविधान में अनुच्छेद 370 के महत्व को समझाइये।
(1988)
Answer : भारतीय संविधान का अनुच्छेद 370 जम्मू-कश्मीर राज्य को विशेष स्तर प्रदान करता है। संविधान की प्रथम अनुसूची में दिए गए राज्यों पर जो उपबन्ध लागू होते हैं, वे सभी इस राज्य पर लागू नहीं होते। अनुच्छेद 238 के उपबंध भी इस राज्य पर लागू नहीं होते। उक्त राज्य के लिए विधि बनाने की संसद की शक्ति संघ और समवर्ती सूची के उन विषयों तक ही सीमित होगी, जो राष्ट्रपति उस राज्य की सरकार की सहमति से आदेश द्वारा निर्दिष्ट करे।
Question : जांच आयोग (संशोधन) विधेयक, 1986 का उद्देश्य क्या है?
(1988)
Answer : इसका उद्देश्य किसी भी जांच आयोग की ऐसी रिपोर्ट को सरकार द्वारा संसद में पेश करने पर प्रतिबंध लगाना है, जिससे देश की एकता व सुरक्षा को खतरा हो। विधेयक का मानना है कि कुछ रिपोर्ट की गोपनीयता के लिए ऐसा जरूरी है, क्योंकि कुछ मुद्दे बहुत संवेदनशील होते हैं।
Question : संसदीय लोकतंत्र में सामूहिक उत्तरदायित्व का क्या तात्पर्य है?
(1988)
Answer : सामूहिक उत्तरदायित्व संसदीय शासन प्रणाली की महत्वपूर्ण विशेषता है। मंत्रिमंडल के सभी सदस्य सरकार के प्रत्येक निर्णय और कार्य के लिए सामूहिक रूप से उत्तरदायी होते हैं। यदि उनकी नीतियों को संसद का समर्थन प्राप्त नहीं हो पाता, तो संपूर्ण मंत्रिपरिषद को ही त्यागपत्र देना पड़ता है।
Question : भारत को गणतंत्र क्यों कहा जाता है?
(1988)
Answer : भारत को गणतंत्र इसलिए कहा गया है, क्योंकि देश का राज्याध्यक्ष (राष्ट्रपति) जनता द्वारा निर्वाचित होता है, हालांकि इसका निर्वाचन अप्रत्यक्ष रूप से होता है।
Question : आधुनिक परिसंघों को विभाजन और वियोजन पर बल देकर सहयोगिता और सहभागिता पर बल देना चाहिए। भारतीय राज्य व्यवस्था के संदर्भ में इस कथन का विवेचन कीजिए।
(1990)
Answer : यद्यपि भारतीय संविधान में फेडरेशन या संघ की चर्चा नहीं है, तथापि भारत एक संघ है। संघ की कुछ विशेषताएं होती हैं, जो निम्नलिखित हैं-
भारतीय संविधान में उपरोक्त विशेषताओं को शामिल किया गया है। विश्व में प्रथम संघ राज्य संयुक्त राज्य अमेरिका है। एक प्रकार से यू.एस.ए. की संघ संबंधी विशेषताएं ही बाद में विश्व में जहां कहीं भी संघीय राज्य की स्थापना हुई, वहां अपनायी गई। संघीय संरचना की उत्पत्ति एक विशिष्ट सामाजिक-आर्थिक स्थिति में हुई थी। सामाजिक न्याय की भावना से एकात्मक संविधान की उत्पत्ति हुई, केंद्र की शक्तियों में परिवर्तन हुआ तथा राज्य की सीमाएं निर्धारित हुईं। भारत में राजनीतिक एकता कभी भी स्थायी नहीं रही। अतः संघ राज्य का निर्माण करते समय केंद्र को अधिक शक्तियां प्रदान की गयीं। एक ओर जहां केंद्र सत्ता का केंद्रीकरण कर रहा है, वहीं दूसरी ओर राज्यों में अलगाववाद की प्रवृत्तियां पनप रहीहैं। बंगाल, असम, उड़ीसा, पंजाब, तमिलनाडु आदि राज्य स्वायत्तता की मांग कर रहे हैं। केंद्र लगातार राज्यों में धारा 356 का प्रयोग कर रहा है। केंद्र के प्रतिनिधि के रूप में गवर्नर विवाद के मामलों में अवशिष्ट शक्तियों का प्रयोग कर रहे हैं। लेकिन भारत जैसे बहुधर्म, जाति, संस्कृति व भाषा वाले देश में केंद्र द्वारा केंद्रीकरण की योजना का सफल होना संदिग्ध ही है। यदि केंद्र सरकार राज्यों की स्वतंत्रता में हस्तक्षेपकारी नीति का परित्याग करके उनके साथ सहयोग व सहकारिता के संबंधों का विकास करे तो राज्यों में देशभक्ति की भावनाओं का प्रसार होगा और वे केंद्र को मजबूती प्रदान करेंगे।
Question : भारत की वर्तमान निर्वाचन पद्धति की समीक्षा करते हुए सुझाइये कि बेहतर और अधिक स्वास्थ्यकर राज्य व्यवस्था को सुनिश्चित करने के लिए इसमें क्या संशोधन किए जा सकते हैं?
(1990)
Answer : हमारी चुनावी व्यवस्था में वयस्क मताधिकार एक निर्वाचन क्षेत्र में एक सदस्य, गुप्त मतदान, सीधी चुनाव प्रक्रिया तथा सामान्य बहुमत प्रक्रिया द्वारा चुनाव होते हैं। न्यूनतम 18 वर्ष की उम्र वालों को मत देने का अधिकार प्रदान किया गया है तथा उसे किसी निश्चित आधार के अभाव में (जैसे- आपराधिक आरोप, भ्रष्ट आचरण आदि) मत से वंचित नहीं किया जा सकता है। ऐसे निर्वाचन क्षेत्रों में, जहां अनुसूचित जाति एवं अनुसूचित जनजाति के लोगों की जनसंख्या अन्य जातियों की अपेक्षा अधिक है, उनकी सीटें सुरक्षित की गई हैं। संसद ने जनप्रतिनिधि अधिनियम 1950 एवं 1951 तथा सीमांकन आयोग अधिनियम, 1962 एवं 1972 पारित किए, जिसमें चुनाव के कुछ महत्वपूर्ण तथ्य वर्णित हैं। चुनाव को स्वतंत्र एवं निष्पक्ष बनाने के लिए संविधान में एक निर्वाचन आयोग की व्यवस्था की गई है, जिसमें एक मुख्य चुनाव आयुक्त होता है तथा इसमें आवश्यकतानुसार एक से अधिक आयुक्त हो सकते हैं। यह आयोग चुनाव के संचालन, निर्देशन, नियंत्रण आदि के लिए उत्तरदायी होता है। उसे चुनावी आचार संहिता का निर्धारण करने का दायित्व भी सौंपा गया है। वहीं विभिन्न पार्टियों के पहचान एवं चुनाव चिह्न को निर्धारित करता है। चुनाव आयोग राष्ट्रपति चुनाव की प्रक्रिया भी पूरी कराता है। चुनाव आयोग एक स्वायत्तशासी संस्था है तथा यह प्रशासनिक नियंत्रण से मुक्त होता है। हमारी चुनावी व्यवस्था निश्चित रूप से हमारी राजनीतिक व्यवस्था को स्थिरता प्रदान करती है। चुनाव आयोग को ऐसी कोई पार्टी मान्य नहीं होती, जो अपने खर्चों को नियमित नहीं करती है। अपराध साबित होने पर व्यक्ति को चुनाव से बहिष्कृत किया जा सकता है। सरकारी मशीनरी के दुरुपयोग पर कड़े प्रावधान किए गए हैं।
मतदान का कम प्रतिशत, फर्जी मतदान, जातिवाद व सांप्रदायिक आधार पर चुनाव लड़ने वाले प्रत्याशियों के साथ ही सत्ता का दुरुपयोग भी सभी चुनावों में देखने में आता है। ये सभी कारक हमारी चुनाव प्रक्रिया को कमजोर बनाते हैं। अतः चुनावों की निष्पक्षता व लोकतंत्र को मजबूत करने के लिए निम्न कदम उठाए जाने आवश्यक हैं-
Question : महिला राष्ट्रीय परिप्रेक्ष्य योजना, 1988 की प्रमुख अनुशंसाएं क्या हैं? सांविधानिक संशोधन विधेयक (64वां संशोधन) में परिकल्पित प्रासंगिक अनुशंसाएं क्या हैं?
(1990)
Answer : महिलाओं की सामाजिक, आर्थिक व राजनीतिक दशाओं में सुधार एवं उनको संरक्षण प्रदान करने हेतु सरकार ने राष्ट्रीयपरिप्रेक्ष्य में नारी उत्थान की योजना निर्मित की, जिसे महिला राष्ट्रीय परिप्रेक्ष्य योजना (नेशनल पर्सपेक्टिव प्लान) के नाम से जाना जाता है। इसके तहत बाल विकास एवं महिला विकास विभाग के केंद्रीय दल ने एक रूपरेखा प्रस्तुत की, जिसे ‘अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस’ के अवसर 8 मार्च, 1988 को जारी किया गया। रिपोर्ट में महिलाओं के संपत्ति संबंधी अधिकार को संस्तुति प्रदान की गई। इसके अतिरिक्त विधानसभा व संसदीय चुनावों में महिलाओं के लिए आरक्षण को भी स्वीकार किया गया। इसके लिए एकीकृत नागरिक कोड (Uniform Civil Code) की आवश्यकता पर बल दिया। कार्यकारी महिलाओं, बालिकाओं व किशोर बालिकाओं के लिए आवश्यक सुविधाएं तथा महिलाओं के अधिकारों को दिलाने हेतु एक कमिश्नर की नियुक्ति की गई। एक राष्ट्रीय संसाधन केंद्र की स्थापना सूचनाओं के प्रसार हेतु हुई। राष्ट्रीय परिप्रेक्ष्य योजना का मानना है कि विभिनन कारणों से महिलाएं प्रायः सभी क्षेत्रों में उपेक्षित रही हैं। महिलाओं को मतदान अधिकार व मतदान प्रक्रिया में भाग लेने के बहुत कम अवसर मिले हैं। अतः लोकतंत्र को मजबूत करने के लिए महिलाओं की सभी क्षेत्रों में सहभागिता आवश्यह है। इसके लिए जाति, वर्ग, धर्म व पारिवारिक स्तर पर प्रतिबंध लगाने वाले पारंपरिक कारकों को तोड़ना होगा। पंचायती राज संस्था संबंधी 64वें संविधान संशोधन विधेयक में महिलाओं के लिए 30 प्रतिशत आरक्षण का प्रावधान किया गया। इसके लिए विधेयक में संविधान में एक नए भाग 9 के तहत अनुच्छेद 243 जोड़ा गया। इसमें पंचायतों की परिभाषा, उनकी संरचना, स्थान, आरक्षण, शक्तियां, कार्यकाल व उत्तरदायित्व आदि का उल्लेख है। विधेयक द्वारा संविधान में 11 वीं अनुसूची जोड़ी गई। इसमें पंचायतों के कार्यक्षेत्र के अंतर्गत दिए गए 29 विषयों में शैक्षिक प्रशासन, स्वास्थ्य व संस्कृति के साथ ही महिला एवं बाल कल्याण पर काफी बल दिया गया।
Question : भारतीय संविधान में राज्यपाल को प्राप्त वैवेकिक शक्तियों तथा विशेष दायित्वों का स्वरूप और विस्तार समझाइये।
(1990)
Answer : राज्यपाल राज्य का संवैधानिक प्रमुख होता है, जो कि मंत्रिपरिषद की सलाह से कार्य करता है। लेकिन राज्यपाल सदैव मंत्रिपरिषद की सलाह पर कार्य करने को विवश नहीं है। वह अनेक अवसरों पर स्वविवेक से भी कार्य करता है। संविधान में राज्यपाल से विवेकानुसार निम्नलिखित कृत्य करने की विशेष रूप से अपेक्षा है-
(क) छठीं अनुसूची के पैरा 9(2) में यह कहा गया है असम का राज्यपाल अपने विवेकानुसार वह रकम अवधारित करेगा, जो असम राज्य खनिजों की अनुकूलता से उद्भूत होने वाले स्वामित्व के रूप में जिला परिषद को देगा।
(ख) अनुच्छेद 239(2) राष्ट्रपति को यह प्राधिकार देता है कि वह किसी राज्य के राज्यपाल को किसी निकटवर्ती संघ राज्यक्षेत्र के प्रशासक के रूप में नियुक्त कर सकेगा और वह राज्यपाल ऐसे प्रशासक के रूप में अपने कृत्यों का प्रयोग अपनी मंत्रिपरिषद से स्वतंत्र रूप से करेगा।
इसके अलावा संविधान में राज्यपाल के कुछ विशेष उत्तरदायित्व हैं, जिनका प्रयोग वह ‘विवेकानुसार’ ही करता है। यद्यपि इसमें राज्यपाल को मंत्रिपरिषद से परामर्श करना होता है, लेकिन अंतिम विनिश्चय राज्यपाल का ही होता है। ये कृत्य हैं-
साथ ही, राज्यपाल को परिस्थितियों के अनुसार कुछ ऐसे विवेकाधीन कृत्य भी करने होते हैं, जिनका उल्लेख संविधान में नहीं है। ये निम्न प्रकार के हो सकते हैं-
Question : भारत में सिविल सेवाओं की सांविधानिक स्थिति का विवरण दीजिए। इन सेवाओं की तटस्थता और स्वतंत्रता को सुनिश्चित करने का प्रयास किस प्रकार किया जाता है?
(1990)
Answer : संसदीय व्यवस्था में राज्यप्रशासन के विस्तृत कार्यक्षेत्र का सफलतापूर्वक संचालन सिविल (प्रशासनिक) सेवा के योग्य व व्यावहारिक ज्ञानयुक्त सदस्यों पर निर्भर करता है। प्रशासनिक सेवा के ये सदस्य, राजनीतिक पदाधिकारियों (राज्य कार्यपालिका) से भिन्न होते हैं अर्थात ये स्थायी कार्यपालिका का निर्माण करते हैं। इनका कार्य राज्य कार्यपालिका द्वारा निर्धारित नीति का क्रियान्वयन करना होता है। सिविल सेवा के लिए योग्य अधिकारियों का चुनाव निष्पक्ष रूप से लोक सेवा आयोग द्वारा किया जाता है तथा ये राजनीतिक रूप से उदासीन होते हैं। नीतिगत मामलों में इनका हस्तक्षेप सलाह तक ही होता है तथा अंतिम निर्णय मंत्रिमंडल द्वारा ही लिया जाता है। किसी भी दल की सरकार होने पर इनके कार्य व्यवहार में कोई परिवर्तन नहीं होता है तथा आचार संहिता के अनुसार सिविल सेवा पद पर रहते हुए ये राजनीति में भाग नहीं ले सकते हैं। इनके तीन स्तर हैं- अखिल भारतीय सेवा, जो केंद्र व राज्य दोनों के लिए होती है (अनुच्छेद 312)। केंद्रीय सेवाएं, जो संघीय सूची के प्रशासन से संबंधित हैं और राज्य सेवाएं। अनुच्छेद 312 के अनुसार, राज्यसभा राष्ट्रीय हित में आवश्यक समझने पर संघ या राज्य या दोनों के लिए सम्मिलित अखिल भारतीय सेवाओं का सृजन कर सकती है, लेकिन इसके लिए राज्यसभा को विशेष बहुमत की आवश्यकता होगी। ये राष्ट्रपति या राज्यपाल के प्रसादपर्यन्त अपने पद पर बने रहते हैं तथा इनके कार्य स्पष्ट होते हैं। कोई भी सरकारी कर्मचारी किसी समय किसी आधार पर निलंबित किया जा सकता है, परंतु सिविल सेवा का कोई भी सदस्य उसके अधीन अधिकारी द्वारा दण्डित नहीं किया जा सकता है। उसके पास धारा 14, 15, 16, 19, 20 के अंतर्गत कुछ मूल अधिकार हैं, जो उनके अधिकारों का सीमांकन करते हैं। राज्य अधिनियम की धारा 309 के अनुसार सिविल सेवकों की भर्ती व सेवा शर्तों को समुचित विधानमंडल द्वारा अधिनियमों के तहत विनियमित किए जाने के लिए छोड़ दिया गया है। प्रशासनिक ट्रिव्युनल ऐक्ट-1986 द्वारा केंद्रीय प्रशासनिक ट्रिब्यूनल की स्थापना की गई है, जो इनसे संबंधित विवादों का निपटारा करती है। इस प्रकार, सिविल सेवाओं के लिए राजनीतिक तटस्थता व स्वतंत्रता की पर्याप्त व्यवस्था की गई है।
Question : भारतीय संविधान में मूल अधिकारों के साथ-साथ जो ‘युक्ति-युक्त निर्वर्धन’ उल्लिखित हैं, वे क्या हैं?
(1990)
Answer : भारतीय संविधान में अनेक मूल अधिकारों को शामिल किया गया है। ये मूल अधिकार संविधान के भाग-3 में उचित प्रतिबंधों (Reasonable Restrictions) के के साथ वर्णित हैं। संविधान के अनुच्छेद 14 से 18 तक में समानता के अधिकार का उल्लेख है। इसके अनुसार कानून के समक्ष सभी नागरिक समान हैं (अनुच्छेद 14)। समानता के अधिकार में निहित है कि जाति, लिंग, जन्मस्थान, वर्ण आदि के आधार पर राज्य नागरिकों से कोई भेदभाव नहीं करेगा (अनुच्छेद 15)। लेकिन समानता के अधिकार के अंतर्गत यह प्रतिबंध किया गया है कि राज्य महिलाओं तथा बच्चों, अनुसूचित जातियों, जनजातियों व पिछड़े वर्गों के लिए विशेष प्रावधान कर सकेगा। सभी नागरिकों को सरकारी पदों पर नियुक्ति के समान अवसर होंगे (अनुच्छेद 16)। यहां भी अनुसूचित जातियों व जनजातियों के लिए कुछ स्थान सुरक्षित रखे जाने का विशेष प्रावधान है।
संविधान में अनुच्छेद 19 से 22 तक में स्वतंत्रता के अधिकार का विवेचन है, जिसमें प्रथम स्वतंत्रता भाषण व अभिव्यक्ति की है। राज्य की सुरक्षा, सार्वजनिक व्यवस्था, कदाचार, न्यायालय का अपमान, मानहानि या अपराध के लिए प्रेरित करना, अलगाववादी ताकतों से निकटता आदि आधारों पर राज्य अभिव्यक्ति व भाषण की स्वतंत्रता पर युक्तियुक्त प्रतिबंध लगा सकता है। अनुच्छेद 352 के अंतर्गत आपातकाल की अवधि के दौरान अनुच्छेद 19 के प्रावधानों को निलंबित किया जा सकता है। सार्वजनिक सुरक्षा के हित में अस्त्र-शस्त्र रहित व शांतिपूर्ण सम्मेलन की स्वतंत्रता को भी सीमित किया जा सकता है। राज्य नागरिकों के संपूर्ण भारत क्षेत्र में घूमने व अस्थायी या स्थायी रूप से बसने की स्वतंत्रता पर सामान्य जनता या अनुसूचित जातियों के हित की दृष्टि से प्रतिबंध लगा सकता है। राज्य जनसाधारण के हित में संपत्ति के अर्जन, धारण तथा नागरिकों की वृत्ति, उपजीविका, व्यवसाय या व्यापार की स्वतंत्रता को प्रतिबंधित कर सकता है या आवश्यक योग्यता निश्चित कर सकता है। राज्य किसी उद्योग या व्यवसाय को अपने पूर्ण या आंशिक नियंत्रण में ले सकता है।
संविधान के अनुच्छेद 23 और 24 शोषण के विरूद्ध अधिकार से संबंधित हैं। ‘जबरन मेहनत’ या ‘बेगार’ को अवैध घोषित कर दिया गया है (अनुच्छेद 23)। लेकिन राज्य सार्वजनिक उद्देश्य से अनिवार्य श्रम की योजना लागू कर सकता है। संविधान के अनुच्छेद 26 से 28 तक धार्मिक स्वतंत्रता के अधिकार उल्लिखित हैं। लेकिन मानवीय व सामाजिक आधार पर यह राज्य के निर्बन्धनों के अधीन हैं। साथ ही, राज्य की प्रभुसत्ता को प्रभावित करने वाले कृत्यों को प्रतिबंधित किया जा सकता है। संविधान में सांविधानिक उपचारों के अधिकार का भी उल्लेख है। यह संविधान द्वारा प्राप्त मूल अधिकारों के लिए प्रभावी कार्यविधियां प्रतिपादित करता है। अनुच्छेद 32 मूल अधिकारों के संदर्भ में राज्य क्रियाओं से प्रकट किसी भी प्रकार के अतिक्रमण अथवा उल्लंघन की स्थिति में नागरिकों को सर्वोच्च न्यायालय की शरण लेने का अधिकार दिलाता है। लेकिन युद्ध, बाहरी आक्रमण या आंतरिक अव्यवस्था व अशांति की स्थिति में, जबकि राष्ट्रपति संकटकाल घोषित कर दे, मौलिक अधिकारों की रक्षा हेतु कोई भी नागरिक न्यायालय में अपील नहीं कर सकेगा। किन्तु, जीवन रक्षा के संबंध में यह प्रतिबंध लागू नहीं होता है।
Question : आधुनिक जनसंचार माध्यमों के परिप्रेक्ष्य में प्रसार भारती निगम के महत्व को समझाइये।
(1990)
Answer : भारत में संचार माध्यमों (आकाशवाणी व दूरदर्शन) का दुरुपयोग सत्तारूढ़ दलों द्वारा स्वहित साधन में किया जाना आम बात है। इस प्रवृत्ति पर रोक लगाने हेतु एक स्वायत्तशासी प्रसार भारती निगम की स्थापना के उद्देश्य से राष्ट्रीय मोर्चा की सरकार ने आकाशवाणी और दूरदर्शन को स्वायत्तता देने संबंधी एक विधेयक लोकसभा में प्रेस्तुत किया। विधेयक में किए गए उपबंधों के अनुसार, प्रसार भारती निगम संसद के प्रति उत्तरदायी होगा तथा देश की एकता, अखण्डता व सांस्कृतिक मूल्यों को सर्वोपरि स्थान देते हुए कार्य करेगा। निगम द्वारा आकाशवाणी तथा दूरदर्शन को पृथक बनाने का प्रावधान है। इससे दोनों संचार माध्यम स्वायत्तता, निष्पक्षता व स्वतंत्रता से कार्य कर सकेंगे। साथ ही यह निगम दोनों संचार माध्यमों की सेवाओं को देश व समाज के लिए उपयोगी बनाने में भी सफल हो सकेगा।
Question : संसद अवमान क्या होता है? उसके विभिन्न प्रकार बताइये।
(1990)
Answer : किसी भी रूप में संसद के विशेषाधिकारों का हनन, उसके आदेशों की अवहेलना, उसकी सत्ता व गरिमा पर चोट और उसकी निंदा जैसे कार्य संसद की अवमानना कहे जाते हैं।
संसद सदस्य या बाह्य व्यक्ति द्वारा सदन के प्रति निरादर, संसद सदस्य पर आक्रमण, संसद सदस्य के चरित्र पर लांछन या उसके प्रति अशिष्टता, संसद सदस्य के कार्य में रुकावट डालना, संसद की कारवाई में बाधा डालना और संसदीय समितियों के कार्य में हस्तक्षेप या उसके आदेश की अवहेलना करना आदि संसद की अवमानना के विभिन्न प्रकार हैं। संसद को विशेषाधिकार हनन या अवमानना से सम्बद्ध व्यक्ति को दण्डित करने का अधिकार है।
Question : हमारे संविधान के अनुच्छेद 370 का महत्व समझाइये।
(1990)
Answer : मूल संविधान के अधीन (अनुच्छेद 370) जम्मू-कश्मीर राज्य की जो विशेष सांविधानिक स्थिति बनी हुई थी, वह अभी भी बनी हुई है। इससे भारत के संविधान के सभी उपबंध, जो पहली अनुसूची के राज्यों से संबंधित हैं, जम्मू-कश्मीर पर लागू नहीं होते हैं। यद्यपि वह उस अनुसूची में निर्दिष्ट राज्यों में से एक है। संविधान के अनुच्छेद 1 व अनुच्छेद 370 स्वमेव जम्मू-कश्मीर राज्य पर लागू होते हैं, जबकि अन्य अनुच्छेदों का लागू होना राज्य सरकार के परामर्श से राष्ट्रपति द्वारा ही अवधारित होता है। जम्मू-कश्मीर के संबंध में संसद की अधिकारिता संघ सूची और समवर्ती सूची में प्रमाणित विषयों तक ही इस उपान्तर के अधीन रहते हुए सीमित होगी कि उसे समवर्ती सूची में प्रमाणित विषयों के विषय में कोई अधिकारिता नहीं होगी। जन्मू-कश्मीर के संबंध में विधान बनाने की अवशिष्ट शक्ति संसद को न होकर, राज्य विधानमंडल को है। साथ ही भारत के संविधान का संशोधन जम्मू-कश्मीर पर तभी विस्तारित होता है, जब वह अनुच्छेद 370(a) के अधीन राष्ट्रपति के आदेश द्वारा विस्तारित हो।
Question : राज्य विधानमंडल का द्वितीय सदन बनाने की प्रक्रिया का वर्णन कीजिए।
(1990)
Answer : किसी राज्य की व्यवस्थापिका का द्वितीय सदन विधानपरिषद कहलाता है। संविधान में यह उपबंध है कि जिन राज्यों में विधानपरिषद विद्यमान है, वहां उसका समापन किया जा सकता है और जहां वह विद्यमान नहीं है, उस राज्य में उसका सृजन किया जा सकता है। इस कार्य के लिए संबंधित राज्य की विधानसभा एक विशेष बहुमत द्वारा एक संकल्प पारित करती है, जिसके अनुसरण में संसद अधिनियम बनाएगी। संकल्प कुल सदस्य संख्या के बहुमत द्वारा तथा उपस्थित और मत देने वाले सदस्यों की संख्या के कम से कम दो तिहाई बहुमत द्वारा पारित किया जाएगा (अनुच्छेद 169)। विधानपरिषद की सदस्य संख्या विधानसभा की सदस्य संख्या के एक-तिहाई से अधिक नहीं होगी, किन्तु इसमें कम से कम 40 सदस्य होंगे। यह उपबंध इसलिए किया गया है, ताकि विधानपरिषद को प्रमुखता नहीं प्राप्त हो।
Question : मेंडेमस (परमादेश) रिट की परिभाषा बताइये और उसका महत्व समझाइये।
(1990)
Answer : परमादेश का शाब्दिक अर्थ है ‘हम आदेश देते हैं’। यह सर्वोच्च न्यायालय का वह आदेश है, जिससे किसी व्यक्ति या सार्वजनिक प्राधिकारी (सरकार व निगम संहिता) को विधिक या सार्वजनिक कर्त्तव्य अथवा किसी संविधि के अधीन आरोपित कर्त्तव्यों को करने का आदेश दिया जाता है या उन कर्त्तव्यों को अनधिकृत रूप से नहीं करने का आदेश दिया जाता है।
परमादेश मौलिक अधिकारों की रक्षा हेतु पांच प्रकार के आज्ञा-पत्रों में से एक है। इसकी अनुपस्थिति में संवैधानिक उपचारों के मौलिक अधिकार का कोई अर्थ नहीं रह जाएगा।
Question : संसद की कारोबार सलाहकार समिति (Business Advisory Committee) के कर्त्तव्य कृत्य क्या हैं?
(1990)
Answer : संसद की ‘कारोबार सलाहकार समिति’ में लोकसभा अध्यक्ष व 14 अन्य सदस्य होते हैं। लोकसभा अध्यक्ष समिति का पदेन अध्यक्ष होता है तथा वहीं अन्य सदस्यों की नियुक्ति भी करता है। सदन के लिए समय-सारणी तैयार करना तथा सदन का कार्य सुचारू रूप से संचालित करना इस समिति के मुख्य कार्य हैं। कभी-कभी समिति अपने विवेक से विशेष सार्वजनिक महत्व के विषय पर सदन में चर्चा कराने हेतु सरकार को परामर्श भी देती है।
Question : ‘यद्यपि भारत में राज्यपाल राज्य का संवैधानिक प्रमुख होता है, जैसे राष्ट्रपति देश का होता है, फिर भी हो सकता है कि राज्यपाल के अधिक अधिकार हों।’ क्या आप इस कथन से सहमत हैं? कारण बतलाइये।
(1994)
Answer : राष्ट्रपति और राज्यपाल में किसे अधिक अधिकार है, इसे समझने के लिए दोनों के अधिकारों का तुलनात्मक अध्ययन करना उपयुक्त होगा। जिस प्रकार, केंद्र का संवैधानिक प्रमुख राष्ट्रपति होता है, उसी प्रकार राज्यपाल भी राज्य का संवैधानिक प्रमुख ही होता है। केंद्र और राज्य की कार्यपालिका शक्ति क्रमशः राष्ट्रपति और राज्यपाल में निहित होती है। कुछ विशेष परिस्थितियों को छोड़कर राष्ट्रपति और राज्यपाल मंत्रिपरिषद के निर्णय को मानने के लिए बाध्य होते हैं। संविधान के अनुच्छेद 74(1) के अनुसार, राष्ट्रपति, मंत्रिपरिषद की सलाह मानने को बाध्य है, जबकि राज्यपाल इस प्रकार की परिस्थितियों में स्वविवेक से निर्णय लेने को स्वतंत्र है। लोकसभा या राज्यसभा जिस विधेयक को पारित करके राष्ट्रपति को भेजते हैं, राष्ट्रपति उस विधेयक को मंजूरी देने के लिए बाध्य होता है। यदि वह विधेयक के प्रावधानों से असंतुष्ट है, तो वह इसे लोकसभा को पुनर्विचार के लिए वापस भेज सकता है। यदि लोकसभा पुनः विधेयक को पारित कर राष्ट्रपति के पास भेजती है, तो वह मंजूरी देने को बाध्य हो जाता है। इस प्रकार की बाध्यता राज्यपाल के साथ नहीं होती है। यदि वह विधानसभा एवं विधानपरिषद से पारित विधेयकों से असंतुष्ट है, तो वह उसे राज्य विधानमंडल को वापस न लौटाकर राष्ट्रपति के विचार के लिए आरक्षित कर सकता है। यहां पर स्पष्ट रूप से ऐसा प्रतीत होता है कि राज्यपाल को राष्ट्रपति से अधिक अधिकार हैं, क्योंकि वह स्वविवेक से निर्णय लेने को स्वतंत्र है।
राज्य में विधि व्यवस्था की स्थिति खराब होने पर राज्यपाल बिना मुख्यमंत्री के परामर्श के ही राष्ट्रपति से अनुच्छेद 356 के तहत राज्य में विधानमंडल भंग कर राष्ट्रपति शासन लागू करने की अनुशंसा कर सकता है। दूसरी ओर देश में विधि व्यवस्था खराब होने पर भी बिना प्रधानमंत्री के परामर्श के आपातकाल लागू नहीं हो सकता। राष्ट्रपति पर महाभियोग लगाकर उसे पदच्यूत किया जा सकता है, लेकिन राज्यपाल पर महाभियोग नहीं लगाया जा सकता है।
उपर्युक्त तथ्यों से यह स्पष्ट होता है कि कुछ मामलों में राज्यपाल के अधिकार, राष्ट्रपति के अधिकार से अधिक प्रतीत होते हैं।
Question : भारतीय संविधान में बुनियादी ढांचे की धारणा उभरने का वर्णन कीजिए।
(1994)
Answer : संविधान के बुनियादी ढांचे को बदलने से संबंधित विषय हमेशा से विवादित रहे हैं। लेकिन सर्वोच्च न्यायालय ने इस विवाद का निपटारा 1973 में केशवानंद भारती बनाम केरल राज्य एवं 1980 में मिनर्वा मिल्स बनाम भारत संघ मामले में किया। इनमें यह निर्णय दिया गया कि संसद, व्यक्ति को प्रदत्त मौलिक अधिकारों को तो आवश्यकता पड़ने पर संशोधित कर सकती है, लेकिन वह संविधान के बुनियादी ढांचे में परिवर्तन नहीं कर सकती है। उच्चतम न्यायालय के न्यायाधीशों के अनुसार, संविधान की सर्वोच्चता, सरकार का लोकतंत्रत्मक-गणतंत्रत्मक स्वरूप, सरकार की धर्मनिरपेक्ष विचारधारा, संघात्मक व्यवस्था, विधायिका, कार्यपालिका एवं न्यायपालिका के बीच शक्ति का स्पष्ट विभाजन, व्यक्ति की स्वतंत्रता तथा व्यक्ति को प्रदत्त मौलिक अधिकार एवं राज्य के नीति निर्देशक तत्वों के बीच संतुलन ही संविधान के बुनियादी ढांचे के मूल तत्व हैं।
44 वें संविधान संशोधन द्वारा निष्पक्ष चुनाव, वयस्क मताधिकार एवं न्यायालय की स्वतंत्रता को भी बुनियादी घटक माना गया। लेकिन अभी इस पर सभी का विचार एक नहीं है और आज भी संविधान के बुनियादी ढांचे की स्पष्टता के विषय में बहस जारी ही है।
Question : राज्यों के परिषद के सदस्यों की आवास संबंधी अर्हता पर चुनाव आयोग की स्थिति समझाइये। आप इसके बारे में क्या सोचते हैं?
(1994)
Answer : राज्यों की परिषद या संसद का ऊपरी सदन राज्यसभा कहलाता है। इस सदन में आनुपातिक प्रतिनिधित्व प्रणाली के तहत प्रत्येक राज्य की विधानसभाओं से सदस्यों को निर्वाचित कर भेजने का प्रावधान है। इसके लिए यह आवश्यक है कि जिस विधानसभा से सदस्यों का चुनाव हो रहा है, वे उसी राज्य के निवासी हों। ऐसा करने के पीछे सामान्यतया यही अवधारणा रही होगी कि राज्यसभा के सदस्य अपने राज्यों से संबंधित मुद्दों को सदन में उठाकर सरकार का ध्यान समस्या के समाधान की ओर आकृष्ट करते रहेंगे। ऐसा करके सदन के सदस्य अपने-अपने राज्यों के हितों का संरक्षण करते रहेंगे। लेकिन व्यावहारिक रूप में ऐसा नहीं हो पा रहा है। विभिन्न राजनीतिक दलों के खास राजनेता अगर किसी कारणवश लोकसभा में चुनकर नहीं आ पाते हैं, तो संसद में स्थान दिलाने या मंत्रिपद बचाने के लिए इन राजनेताओं को किसी भी राज्य की विधानसभा से राज्यसभा की सदस्यता दिला दी जाती है, जिससे वे संसद के सदस्य बन जाते हैं और उनका मंत्रिपद बच जाता है। राज्य में जिस दल की सरकार रहती है, उसी दल के सदस्यों के राज्यसभा चुनाव में निर्वाचित होने की संभावना अधिक रहती है। औपचारिकता के तौर पर राज्य के किसी भी मतदाता क्षेत्र की मतदाता सूची में इन पसंदीदा लोगों के नाम अंकित करवा कर उस राज्य का मतदाता बनवा दिया जाता है।
चुनाव सुधारों के लिए विख्यात मुख्य चुनाव आयुक्त टी.एन. शेषन को इस प्रकार का अव्यावहारिक हथकंडा अपनाकर संसद सदस्य बनने की प्रक्रिया पर घोर आपत्ति है। शेषन के विचार से राज्यसभा के चुनाव को केवल संबंधित राज्य के निवासी ही लड़ें। अगर ऐसा नहीं होता है, तो राज्य सभा जिस उद्देश्य की प्राप्ति के लिए गठित की गई थी, उसका कोई अर्थ ही नहीं रह जायेगा।
Question : ‘यथोचित विधि-प्रक्रिया’ तथा ‘विधि’ द्वारा सुस्थापित ‘प्रक्रिया’ में अंतर समझाइये।
(1994)
Answer : ‘यथोचित विधि प्रक्रिया’ से तात्पर्य ऐसी प्रक्रिया से है, जिसमें ‘नैसर्गिक न्याय’ को सम्मिलित किया जाता है। इस ‘नैसर्गिक न्याय’ के अंतर्गत सरकार मनमाने ढंग से नागरिकों की स्वतंत्रता, संपत्ति या जीवन को क्षति नहीं पहुंचा सकती है। ‘विधि द्वारा सुस्थापित प्रक्रिया’ से तात्पर्य ऐसी प्रक्रिया से है, जो राज्य द्वारा विधियुक्त बनायी गई प्रक्रिया होती है। इस प्रक्रिया में नैसर्गिक न्याय के बदले विधि के मूर्त रूप को ही महत्व दिया जाता है।
Question : घटनोत्तर विधि व्यवस्था का अर्थ समझाइये।
(1994)
Answer : ऐसी विधि व्यवस्था, जिसके अंतर्गत किसी घटना या तथ्यों के विनिश्चय के पश्चात विधानमंडल द्वारा कानून बनाकर किसी पूर्व की तिथि से लागू किया जाए, घटनोत्तर विधि व्यवस्था कहलाती है।
Question : आई.पी.सी. की धारा 309 किससे संबंधित है? हाल में यह चर्चा में क्यों थी?
(1994)
Answer : आई.पी.सी. की धारा 309 आत्महत्या से संबंधित है। 27 अप्रैल, 1994 को सर्वोच्च न्यायालय ने एक निर्णय में आत्महत्या को अपराध की प्रक्रिया से मुक्त कर दिया।
Question : हमारे देश का उच्चतम असैनिक पुरस्कार क्या है? वे कौन से दो विदेशी नागरिक हैं, जिन्हें यह पुरस्कार दिया गया?
(1994)
Answer : भारत का सर्वोच्च असैनिक पुरस्कार ‘भारत रत्न’ है। ‘भारत रत्न’ पाने वाले दो विदेशी नागरिक पाकिस्तान के खान अब्दुल गफ्रफार खान (सीमांत गांधी) तथा दक्षिण अफ्रीका के अश्वेत राष्ट्रपति नेल्सन मंडेला हैं।
Question : धर्मनिरपेक्षता से संबंधित भारतीय संविधान के प्रावधान क्या हैं? उन्हें बतलाइये।
(1994)
Answer : भारतीय संविधान का अनुच्छेद 15 एवं 16 धर्मनिरपेक्षता से संबंधित है, जो यह बतलाता है कि राज्य द्वारा किसी भी नागरिक के विरूद्ध धर्म के आधार पर कोई भी भेदभाव नहीं किया जाएगा एवं सरकारी नौकरियों में सभी धर्म के लोग समान रूप से सम्मिलित होने के हकदार होंगे। अनुच्छेद 25 यह बताता है कि भारत के नागरिक को अपने अन्तःकरण और धर्म को अबाध रूप से मानने, आचरण करने और प्रचार करने की स्वतंत्रता है। अनुच्छेद 26 प्रत्येक व्यक्ति को धार्मिक कार्यों के प्रबंध का अधिकार देता है। अनुच्छेद 27 किसी राज्य सरकार द्वारा स्थापित शिक्षण संस्थाओं में धार्मिक शिक्षा की मनाही करता है।
Question : दो संशोधनों के जरिये संविधान की आठवीं सूची में चार और भाषाएं जोड़ी गयीं। इन भाषाओं के नाम तथा संशोधनों की क्रम संख्या बतलाइये।
(1994)
Answer : इक्कीसवें संविधान संशोधन से सिन्धी और इकहत्तरवें संविधान से नेपाली, मणिपुरी और कोंकणी भाषाएं आठवीं अनुसूची में जोड़ी गयीं।
Question : ‘विधि के शासन’ से आप क्या समझते हैं? भारत का संविधान किस प्रकार इसकी स्थापना सुनिश्चित करता है?
(1994)
Answer : ‘विधि का शासन’ शासन प्रणाली की उस विशेषता से संबद्ध है, जिसके तहत कार्यपालिका केवल उन्हीं शक्तियों का प्रयोग कर सकती है, जो व्यवस्थापिका द्वारा पारित कानूनों के तहत उसे दी जाती है। इसी के आधार पर कार्यपालिका के कार्य का न्यायिक पुनर्विलोकन किया जा सकता है। इसी अवधारणा के तहत कार्यपालिका को किसी व्यक्ति के ऊपर मनमानी करने की शक्ति प्राप्त नहीं होता। ‘विधि के शासन’ के अनुसार किसी भी व्यक्ति को उसके जीवन, स्वतंत्रता, संपत्ति आदि से वंचित नहीं किया जा सकता तथा किसी को भी बिना कारण बताये गिरफ्रतार करके जेल में नहीं रखा जा सकता, सिवाय उस स्थिति के जबकि विधि द्वारा स्थापित न्यायालय ने कानून का उल्लंघन करने के दोष में व्यक्ति विशेष के लिए ऐसा कहा हो।
भारतीय संविधान भारत में ‘विधि के शासन’ को सुस्थापित करता है। भारतीय संविधान में वर्णित समता का मूल अधिकार विधि के शासन को सुनिश्चित करने में सहायक है। समता के मूल अधिकारों के तहत अनुच्छेद 14, 15 एवं 16 में विधि के शासन को सुनिश्चित करने वाले प्रावधान हैं। स्वतंत्रता के मौलिक अधिकारों के तहत अनुच्छेद 19, 20 एवं 21 के तहत वर्णित प्रावधान भी विधि के शासन को ही सुनिश्चित करते हैं। संविधान के अनुच्छेद 32, 32 क तथा 33 के अंतर्गत सर्वोच्च न्यायालय को संसद द्वारा पारित कानूनों की समीक्षा करने का भी अधिकार प्राप्त है। सर्वोच्च न्यायालय मूलाधिकारों में से किसी को भी क्षतिग्रस्त होने से बचाने के लिए बंदी प्रत्यक्षीकरण, परमादेश, उत्प्रेषण, प्रतिषेध एवं अधिकार पृच्छा की रिट जारी कर सकती है। विधि के शासन को सुनिश्चित करने के लिए न्यायालय न्यायिक पुनर्विलोकन का सहारा लेती है। विधायिका एवं कार्यपालिका को जिम्मेवार बनाये रखने में यह न्यायिक पुनर्विलोकन मदद पहुंचाती है।
Question : वास्तविक संघ के मूलभूत तत्व क्या हैं? भारतीय संघ के स्वरूप का विश्लेषण कीजिए।
(1993)
Answer : संघात्मक शासन के निम्नलिखित मुख्य तत्व हैं-
1. दो स्तरों पर शासन संचालन: संघ शासन में दो स्तरों पर शासन संचालन होता है अर्थात इसमें दो स्तर की सरकारें होती हैं। एक राष्ट्रीय सरकार व दूसरी, प्रत्येक संघटक राज्य की सरकार। संघ राज्य की यह विशेषता होती है कि इसमें विभिन्न इकाई राज्यों के मिलन से एक राज्य बनता है। संघात्मक शासन व्यवस्था में संघ राज्य की अधिकारिता समान हित के मामलों पर होती है तथा ऐसे मामलों का निर्धारण संघ राज्य का संविधान करता है। संघटक इकाई राज्य अन्य मामलों के बारे में स्वायत्तता रखते हैं। संघ व इकाई राज्यों के कार्यक्षेत्र का निर्धारण भी अक्सर देखने में आता है।
2. लिखित, दुष्परिवर्तनशील व सर्वोच्च संविधान: संघात्मक राज्य या शासन का गठन संविधान से होता है। संघ या संघटक राज्यों की कार्यपालिका या न्यायपालिका की शक्तियां संविधान में ही निहित होती हैं तथा वे संविधान द्वारा सुनिश्चित शक्तियों का किसी भी स्तर पर अतिक्रमण नहीं कर सकते। अतः संघ शासन में लिखित संविधान ही सर्वोच्च होता है। इसी प्रकार, संविधान के दुष्परिवर्तनशीलता से यह आशय है कि संविधान में संशोधन करने के लिए एक विशिष्ट प्रणाली अपनायी जाती है, जो कि नागरिकों के मौलिक अधिकारों की रक्षा करती है व राजनीतिक भावुकता से मुक्त रहती है।
3. संघ व इकाइयों के बीच शक्तियों का विभाजनः संघात्मक शासन व्यवस्था में संघीय राज्य व संघटक इकाई राज्यों के बीच शक्तियों का स्पष्ट वितरण होता है। संघ या संघटक राज्य इन शक्तियों का अतिक्रमण नहीं कर सकते।
4. स्वतंत्र एवं शक्तिशाली न्यायपालिका: संघात्मक शासन में संघ राज्य व संघटक राज्यों के बीच शक्तियों के विभाजन को सुनिश्चित करने और संविधान की विधिक सर्वोच्चता बनाये रखे जाने की व्यवस्था की जाती है। इसके लिए न्यायालय में संविधान की व्याख्या की सर्वोच्च शक्ति निहित होती है।
उपरोक्त सभी लक्षण व तत्व भारतीय संघ में भी उपस्थित हैं। अतः इस दृष्टि से भारतीय राज्य एक संघात्मक राज्य है, लेकिन अनेक समीक्षकों ने भारत की संघात्मकता के संबंध में शंका व्यक्त की है। इनके अनुसार भारतीय शासन अर्द्धसंघ या एकात्मक है। इस मान्यता के पीछे निम्न तर्क दिये जाते हैं-
अतः उपरोक्त विश्लेषण के आधार पर यह कहा जा सकता है कि संविधान निर्माताओं ने संघात्मक व्यवस्था के साथ-साथ एक मजबूत केंद्र की भी व्यवस्था की। इसलिए कहा जाता है कि भारतीय शासन का आकार संघात्मक है, लेकिन उसमें एकात्मक विशेषताएं भी निहित हैं।
Question : राज्यसभा के कार्यों तथा शक्तियों का वर्णन कीजिए। इसकी शक्तियों की लोकसभा की शक्तियों से तुलना कीजिए।
(1993)
Answer : राज्यसभा संसद का एक स्थायी सदन है। इसका विघटन नहीं होता है, लेकिन हर दूसरे वर्ष इसके एक तिहाई सदस्य अवकाश ग्रहण करते हैं। हर एक सदस्य 6 वर्ष तक राज्यसभा का सदस्य बना रहता है। यह संसद का द्वितीय या उच्च सदन कहलाता है। राज्यसभा का गठन राज्यों की विधानसभा द्वारा चुने गए सदस्यों से राज्य की जनसंख्या के आधार पर होता है। इसकी अधिकतम सदस्य संख्या 250 होती है, जिसमें 12 सदस्य राष्ट्रपति द्वारा साहित्य, विज्ञान, कला, समाज सेवा आदि क्षेत्रों से मनोनीत किये जाते हैं। सैद्धांतिक, रूप से राज्यसभा और लोकसभा समान सदन हैं तथा दोनों को समान अधिकार प्राप्त हैं, लेकिन व्यवहार में राज्यसभा एक गौण सदन के रूप में उभरती है। ज्यादातर शक्तियां व कार्य ऐसे हैं, जो लोकसभा व राज्यसभा दोनों सदनों द्वारा किये जाते हैं। ऐसे कार्य निम्नवत् हैं-
इसके अलावा राज्यसभा को कुछ ऐसी शक्तियां प्राप्त हैं, जो लोकसभा को प्राप्त नहीं हैं। ये निम्नवत् हैं-
(a)अनुच्छेद 249 के अनुसार, आपात स्थिति में जब राष्ट्रीय हित को देखते हुए संसद के लिए राज्य सूची में शामिल किसी विषय पर कानून बनाना जरूरी हो जाए, तो ऐसा उसी स्थिति में संभव है, जब राज्यसभा 2/3 बहुमत द्वारा प्रस्ताव स्वीकृत करके संसद को इसका प्राधिकार दे।
(b)अनुच्छेद 312 के अनुसार, संसद केंद्र और राज्य दोनों के लिए साझा अखिल भारतीय सेवा आयोग स्थापित करने के लिए कानून बना सकती है। परंतु, इसके लिए ऐसा प्रस्ताव राज्यसभा द्वारा 2/3 बहुमत से पारित होना आवश्यक है।
(c)राज्यसभा, लोकसभा द्वारा पारित किसी भी संशोधन विधेयक को अस्वीकृत, लंबित या रद्दोबदल कर सकती है।
राज्यसभा की शक्तियों की कुछ सीमाएं भी हैं, जो निम्न प्रकार हैं-
Question : मौलिक कर्त्तव्य और उनके आशय क्या हैं?
(1993)
Answer : नागरिकों के मौलिक कर्त्तव्य 42वें संवैधानिक संशोधन द्वारा संविधान में समाहित किये गये और उन्हें अध्याय IV में अनुच्छेद 51(क) के रूप में जोड़ा गया। संविधान में मौलिक कर्त्तव्यों का समावेश मुख्यतः इस उद्देश्य से किया गया था कि नागरिकों में देशभक्ति की भावना सुदृढ़ हो तथा एक ऐसी आचरण संहिता का पालन करने में मदद मिल सके, जो राष्ट्र को सुदृढ़ बनाये और उसकी संप्रभुता व अखंडता की सुरक्षा करे। मौलिक कर्त्तव्यों का यह भी उद्देश्य है कि राज्य को विविध कार्यों के संपादन और सामंजस्य, एकता, भाईचारे और धार्मिक सहिष्णुता के आदर्शों को बढ़ावा देने में सहायता मिले। ये आदर्श भारतीय संविधान के आधार हैं। इन मौलिक कर्त्तव्यों ने राज्य की कार्यप्रणाली में नागरिकों के महत्व को दर्शाया है और उनसे यह अपेक्षा की है कि वे अपने कर्त्तव्यों का पूरी सामर्थ्य से पालन करें। इस प्रावधान के अनुसार, भारत के प्रत्येक नागरिक का यह कर्त्तव्य होगा कि वह,
राज्य के नीति निर्देशक सिद्धांतों की भांति ये कर्त्तव्य भी अप्रवर्तनीय हैं। इन्हें न्यायालय द्वारा लागू नहीं कराया जा सकता। इसके बावजूद ये कर्त्तव्य हमें सदा इस बात की याद दिलाते रहते हैं कि हमारे राष्ट्रीय उद्देश्य क्या हैं और हमारी राजनीतिक व्यवस्था किन बुनियादी गुणों पर आधारित है। ये कर्त्तव्य हमें अपने अंदर सामाजिक उत्तरदायित्व की भावना विकसित करने की सही प्रेरणा देते हैं।
Question : आभासी विधि निर्माण के सिद्धांत की व्याख्या कीजिए।
(1993)
Answer : जब कभी व्यवस्थापिका द्वारा किसी कानून को बनाते समय बाह्य रूप से यह प्रतीत हो कि वह अपनी शक्तियों की सीमा में रह कर ऐसा कर रही है, लेकिन वास्तविकता में वह संविधान या दूसरी व्यवस्थापिका की शक्तियों पर अतिक्रमण करती है, तो ऐसी स्थिति को आभासी विधि कहा जाता है। इस प्रकार के मामले में बाह्य आकृति की अपेक्षा विधि के सार का महत्व सर्वोपरि हो जाता है। भारतीय संविधान इस प्रकार से कानून बनाने या विधायन की अनुमति प्रदान नहीं करता है तथा उच्चतम न्यायालय या उच्च न्यायालय इन्हें निरस्त कर सकता है। इस प्रकार के उदाहरण में कामेश्वर सिंह बनाम बिहार राज्य केस को लिया जा सकता है। कामेश्वर सिंह बनाम बिहार राज्य विवाद में बिहार भूमि सुधार अधिनियम, 1950 की वैधता को आभासी विधि के आधार पर ही चुनौती दी गई थी। इस केस में उच्चतम न्यायालय ने इस अधिनियम को आभासी विधि के आधार पर ही अवैध करार दिया था।
Question : निवारक निरोध और दण्डात्मक निरोध में अंतर स्पष्ट कीजिए।
(1993)
Answer : निवारक निरोध: इसके अंतर्गत राज्य की सुरक्षा, शांति व्यवस्था व आवश्यक वस्तुओं की आपूर्त्ति को बनाये रखने से संबंधित मामलों में किसी भी व्यक्ति को बिना मुकदमा चलाये गिरफ्रतार किया जा सकता है व जेल में रखा जा सकता है।
दण्डात्मक निरोध: इसके अंतर्गत किसी अपराध के साबित हो जाने पर दोषी व्यक्ति को न्यायालय द्वारा दिए गये दण्ड के अनुसार जेल में रखा जाता है।
Question : भारत के नागरिकों को उपलब्ध विभिन्न रिट क्या हैं?
(1993)
Answer : भारतीय नागरिकों को उपलब्ध रिट: बंदी प्रत्यक्षीकरण, परमादेश, प्रतिषेध, अधिकार पृच्छा व उत्प्रेषण लेख।
Question : ‘समान विधि संरक्षण’ का क्या अर्थ है?
(1993)
Answer : समान विधि संरक्षण: इससे तात्पर्य है कि कानून सभी के साथ न्याय करेगा या सबकी समान रूप से रक्षा करेगा। दूसरे शब्दों में कहा जाए, तो समान परिस्थितियों में सभी के साथ समान व्यवहार किया जाएगा।
Question : भारतीय संविधान की दसवीं अनुसूची की विषयवस्तु क्या है?
(1993)
Answer : दसवीं अनुसूची की विषयवस्तु: इसमें दल परिवर्तन के निरर्हता के संबंध में उपबंध हैं अर्थात इसके अंतर्गत 52वां संविधान संशोधन अधिनियम शामिल किया गया है।
Question : भारतीय संविधान के 24वें अनुच्छेद का उद्देश्य क्या है?
(1993)
Answer : संविधान के 24वें अनुच्छेद का उद्देश्य: 14 वर्ष से कम आयु के बच्चों को किसी कारखाने, खान या अन्य संकटमय नियोजन में लगाये जाने पर रोक लगाना।
Question : आज के बदलते हुए राजनीतिक परिप्रेक्ष्य में राज्यसभा से कौन-सी विशेष भूमिका अपेक्षित है?
(1999)
Answer : राज्यसभा, जो कि उच्च सदन माना गया है, के सदस्यों की अधिकतम संख्या 250 होती है। इसके तहत प्रत्येक राज्य के प्रतिनिधियों का निर्वाचन उस राज्य विशेष की विधानसभा के निर्वाचित सदस्यों द्वारा आनुपातिक प्रतिनिधित्व पद्धति के अनुसार एकल संक्रमणीय मत द्वारा किया जाता है। इनमें से 12 सदस्यों को राष्ट्रपति द्वारा नामित किया जाता है, जो समाज में अपने उल्लेखनीय कार्यों के लिए जाने जाते हैं। इस प्रकार, राज्यसभा में परिसंघ की इकाइयों के प्रतिनिधि होते हैं, जिससे इसका परिसंघीय लक्षण प्रकट होता है साथ ही इससे अल्पसंख्यक समुदायों तथा दलों का प्रतिनिधित्व भी सुनिश्चित हो पाता है।
यूं तो राज्यसभा की शक्तियां लोकसभा की शक्तियों की तुलना में कमतर ही मानी गई हैं, खासकर वित्तीय मामलों में, किंतु आज की राजनीतिक अस्थिरता के दौर में निःसंदेह राज्यसभा की भूमिका कापफ़ी प्रभावी बन गई है। क्षेत्रीय दलों के बढ़ते वर्चस्व तथा रो-रोज की राजनीतिक तोड़-जोड़ ने लोकसभा की कार्यावधि को सीमित कर दिया है, जिससे सरकारी प्रयासों एवं नीतियों को जबर्दस्त क्षति पहुंची है। गठबंधन के इस दौर ने लोकसभा को (खासकर 1989 के बाद से) असमय ही काल-कवलित किया है। इससे हमारी संसदीय परंपरा के प्रति लोगों में निराशा के भाव जाग्रत होने लगे हैं। शायद इसी संशय के समाधान हेतु हमारे संविधान निर्माताओं ने राज्यसभा को एक स्थायी निकाय के रूप में परिभाषित किया था। ध्यातव्य है कि राज्यसभा का विघटन नहीं होता है, यद्यपि उसके एक-तिहाई सदस्य प्रत्येक दूसरे वर्ष सेवानिवृत्त होते रहते हैं। दूसरे शब्दों में प्रत्येक दूसरे वर्ष राज्यसभा के एक-तिहाई सदस्यों का निर्वाचन होता है, परंतु कभी भी इसका विघटन नहीं होता है। इस प्रावधान के चलते लोकसभा के विघटन की स्थिति में भी सरकारी नीतियों एवं प्रावधानों पर चर्चा करने तथा उचित मत लाने में राज्यसभा की प्रभावी भूमिका नजर आती है।
इतना ही नहीं, राज्यसभा को कुछ ऐसे अधिकार भी प्रदान किये गये हैं, जो कि लोकसभा की परिधि से बाहर हैं। इसके तहत अनुच्छेद-249 यह उपबंध करता है कि यदि राष्ट्रीय हित में यह आवश्यक है, तो राज्य सूची के किसी विषय की बाबत संघ अस्थायी विधान बना सकता है। इस विषय में संविधान ने राज्यसभा को विशेष भूमिका प्रदान की है। इसी प्रकार संविधान के अनुच्छेद-312 में संसद को यह शक्ति दी गई है कि वह संघ तथा राज्यों के लिए सम्मिलित, एक या अधिक, अखिल भारतीय सेवाओं के सृजन के लिए उपबंध कर सकेगी, यदि राज्यसभा उपस्थित तथा मत देने वाले सदस्यों में से कम से कम दो-तिहाई सदस्यों द्वारा यह घोषित कर देता है कि राष्ट्रीय हित में ऐसा करना समीचीन है। इन दोनों विषयों में संविधान ने राज्यसभा को विशेष स्थान दिया है, क्योंकि उसकी प्रकृति परिसंघीय है। साथ ही इससे यह भी आभास होता है कि दो-तिहाई सदस्यों द्वारा पारित संकल्प से राज्यों की सम्मति प्रकट होती है।
एक अन्य कारण से भी आज के परिप्रेक्ष्य में राज्यसभा की महत्वपूर्ण भूमिका नजर आती है। राजनीति के अपराधीकरण ने जहां लोकतंत्र को कमजोर बनाया है, वहीं इसने लोकतंत्रत्मक हिस्सेदारी को भी सीमित कर दिया है। सच्चरित्र एवं विद्वान व्यक्ति राजनीतिक क्षेत्र में कदम रखने से हिच-किचा रहा है, क्योंकि वह अपने लिए राजनीतिक दाव-पेंच तथा जोड़-तोड़ अनुकूल नहीं मानता। ऐसे में राष्ट्रपति द्वारा समाज के सम्मानित एवं कार्यकुशल व्यक्तियों को नामित करने से इस वर्ग के दृष्टिकोण को समझने में मदद मिलती है।
Question : भारतीय संविधान के अनुच्छेद 15 द्वारा किन आधारों पर भेदभाव वर्जित है? इंगित कीजिए कि किस प्रकार से विशेष संरक्षण के प्रत्यय ने इस वर्जित भेदभाव को मर्यादित किया है तथा सामाजिक परिवर्तन को बढ़ावा दिया है।
(1999)
Answer : अनुच्छेद-14 द्वारा प्रत्याभूत समता का एक विशिष्ट पहलू ही संविधान के अनुच्छेद-15 में विभेद के विरूद्ध प्रतिषेध के रूप में अंतर्विष्ट है। अनुच्छेद-15 का लाभ केवल नागरिकों को ही प्राप्त है और यह किसी भी नागरिक के विरूद्ध केवल धर्म, मूलवंश, जाति, लिंग अथवा जन्मस्थान या इनमें से किसी के आधार पर विभेद करने का प्रतिषेध करता है। इस अनुच्छेद का प्रविषय काफी विस्तृत है, क्योंकि एक ओर इसका प्रतिषेध जहां राज्य की कार्यवाही के विरूद्ध है, वहीं यह व्यक्तियों के विरूद्ध भी है। इस प्रतिषेध का सीधा अर्थ यह है कि किसी विशेष धर्म या जाति आदि के किसी व्यक्ति के साथ राज्य अन्य धर्म या जातियों के व्यक्तियों की तुलना में केवल इस आधार पर पक्षपात नहीं करेगा कि वह किसी विशेष धर्म या जाति का है। यहां केवल शब्द का यह महत्व है कि यदि विभेदनकारी व्यवहार के लिए इस अनुच्छेद द्वारा प्रतिषिद्ध आधार के अतिरिक्त कोई अन्य आधार या कारण है, तो विभेद असंवैधानिक नहीं माना जाएगा।
लेकिन संरक्षण के कुछ विशेष प्रत्यय ने इस वर्जित भेदभाव को मर्यादित करने तथा सामाजिक परिवर्तन को बढ़ावा देने का प्रयास किया है। विभेद के विरूद्ध उपर्युक्त प्रतिषेध राज्य को (i) स्त्रियों एवं बालकों के लिए विशेष उपबंध करने से निवारित नहीं करेगा तथा (ii) सामाजिक एवं शैक्षिक दृष्टि से पिछड़े हुए नागरिकों के किन्हीं वर्गों की उन्नति के लिए या अनुसूचित जातियों और अनुसूचित जनजातियों के लिए विशेष उपबंध करने से निवारित नहीं करेगा।
दरअसल, इन आपवादिक वर्गों के व्यक्तियों को विशेष संरक्षण की आवश्यकता है, इसलिए कोई विधान, जो इस वर्ग के व्यक्तियों के लिए विशेष उपबंध करने के लिए आवश्यक है, असंवैधानिक नहीं माना जाएगा। इसी प्रकार इस अनुच्छेद के तहत केवल जाति के आधार पर विभेद प्रतिषिद्ध है, किंतु राज्य यदि चाहे तो पिछड़े वर्गों के सदस्यों के लिए या अनुसूचित जातियों/जनजातियों के लिए सार्वजनिक संस्थानों में स्थानों का आरक्षण कर सकता है अथवा उन्हें शुल्क में रियायत दे सकता है।
अनुच्छेद 15 का खंड 4 एक अपवाद प्रदान करता है, जिसके तहत राज्य को सामाजिक तथा शैक्षणिक रूप से पिछड़े वर्ग के नागरिकों अथवा अनुसूचित जातियों व अनुसूचित जनजातियों के विकास के लिए कोई विशेष प्रावधान करने का अधिकार प्राप्त है। यह प्रावधान अनुच्छेद-46 में उल्लिखित नीति के अनुसार है, जिसके तहत कहा गया है कि राज्य सरकार को विशेष ध्यान देकर पिछड़े वर्ग के लोगों के शैक्षणिक व आर्थिक हितों का विकास करना चाहिए तथा सामाजिक अन्याय से उनकी रक्षा करनी चाहिए। इस खंड का उद्देश्य (जिसे सन् 1951 में संविधान के एक संशोधन के रूप में जोड़ा गया था) अनुच्छेद 15 व 29 को अनुच्छेद 16(4), 46 तथा 340 के समरूप लाना तथा पिछड़े वर्गों, अनुसूचित जातियों एवं अनुसूचित जनजातियों से सम्बद्ध नागरिकों के लिए शासकीय शैक्षणिक संस्थानों में राज्य द्वारा सीटों के आरक्षण को तथा इनकी प्रगति के लिए अन्य आवश्यक प्रावधानों को संवैधानिकता प्रदान करना है।
आरक्षण की मात्र के संबंध में, जिसे न्यायालय न्यायसंगत मान सकता है तथा जो अनुच्छेद-15(1) के अनुकूल है, यह कहा गया है कि अनुच्छेद 15(4) के तहत किसी भी शिक्षण संस्थान में प्रवेश के लिए उपलब्ध कुल सीटों के 50 प्रतिशत से कम सीटों का आरक्षण न्यायसंगत होगा तथा इससे अधिक के आरक्षण को अवैध माना जायेगा (बालाजी बनाम मैसूर इस्टेट, 1963, उच्चतम न्यायालय)।
इस प्रकार का आरक्षण प्रत्याशियों को किसी भी सामान्य अथवा गैर-आरक्षित सीटों के लिए प्रतिस्पर्द्धा करने से वंचित नहीं करता है। इसी प्रकार यदि अनुसूचित जाति अथवा अनुसूचित जनजाति के अभ्यर्थी अपनी योग्यता के आधार पर सामान्य वर्ग से कुछ सीटें प्राप्त कर लेते हैं, तो इनके द्वारा प्राप्त इस प्रकार की सभी सीटों की संख्या को अनुच्छेद-15(3) अथवा अनुच्छेद-15(4) के तहत दिये गये आरक्षण के कोटे के अंतर्गत मान कर अतर्कसंगत नहीं समझा जा सकता है। इसके विपरीत, राज्य द्वारा इन वर्गों सदस्यों हेतु अधिकतम कोटा निर्धारित करना भी न्यायसंगत नहीं होगा, क्योंकि इस प्रकार उन्हें अपनी कुशाग्रता के आधार पर प्राप्त सीटों से भी वंचित होना पड़ सकता है।
Question : राज्य के नीति निर्देशक तत्वों का क्या महत्व है? बतायें कि राज्य की नीति के किन निर्देशक तत्वों को मूल अधिकारों की अपेक्षा प्रमुखता प्राप्त है।
(1999)
Answer : नीति निर्देशक सिद्धांत एक कल्याणकारी एवं समाजवादी प्रकार के समाज को प्राप्त करने के लिए राज्य के समक्ष उपस्थित किये गये आदर्श रूप सिद्धांत हैं। राज्यों का यह कर्त्तव्य है कि वे प्रशासन में तथा विधि के निर्माण के दौरान इन सिद्धांतों का अनुसरण करें। ये सिद्धांत प्रजातांत्रिक संविधान के अधीन राज्य के उद्देश्य को समेटे हुए हैं। वस्तुतः अधिकांश निर्देशक सिद्धांतों का उद्देश्य आर्थिक एवं सामाजिक लोकतंत्र स्थापित करना ही है, जिसका संकल्प संविधान की प्रस्तावना में लिया गया है। ये सिद्धांत समाजवादी, गांधीवादी एवं उदारवादी-सिद्धांतों के सम्मिश्रण हैं। किंतु इनको न्यायालय में प्रवर्तनीय नहीं बनाकर इन्हें संविधान में नैतिक शक्ति एवं राष्ट्रीय अंतःकरण के स्तर पर पहुंचा दिया गया है। इन सिद्धांतों का क्षेत्र काफी व्यापक है, जिसके तहत राष्ट्रीय जीवन के प्रत्येक क्षेत्र के साथ-साथ अंतरराष्ट्रीय शांति एवं सुरक्षा का भी उल्लेख किया गया है। इनका उद्देश्य न्याय की स्थापना करना है। इतना ही नहीं, यह विपक्ष के हाथों में एक अस्त्र का कार्य करता है, जिससे वह सरकार की आलोचना इस आधार पर कर सकता है कि उसका अमुक कार्यपालक या विधायी कार्य, निर्देशक सिद्धांतों के विरूद्ध है। ये दरअसल सरकार के लिए एक लक्ष्य के रूप में हैं, जहां तक पहुंचने का गंभीर प्रयास किया जाना चाहिए। कुल मिलाकर, ये सिद्धांत सैद्धांतिक एवं व्यावहारिक दोनों रूपों में काफी महत्वपूर्ण हैं।
संविधान के भाग 4 के अंतर्गत अनुच्छेद-39 (ख) तथा 39 (ग) के निर्देशक तत्वों को मूल अधिकारों की अपेक्षा प्रमुखता प्रदान की गई है_ अर्थात ऐसी विधि को किसी न्यायालय में इस आधार पर चुनौती नहीं दी जा सकती है कि वह मौलिक अधिकारों के विरूद्ध है।
Question : राष्ट्रीय सुरक्षा परिषद के गठन तथा कार्यों की विवेचना कीजिए।
(1999)
Answer : केंद्र सरकार ने नवंबर 1998 में राष्ट्रीय सुरक्षा परिषद (National Security Council) के गठन की घोषणा की। तीन स्तरों वाली इस परिषद में प्रधानमंत्री सहित कुल छह सदस्य हैं। इस परिषद की सहायता के लिए एक राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार बोर्ड का भी गठन किया गया। प्रधानमंत्री इस परिषद के अध्यक्ष होंगे, जबकि रक्षा मंत्री, गृहमंत्री, विदेश मंत्री, वित्त मंत्री तथा योजना आयोग के उपाध्यक्ष इस परिषद के सदस्य होंगे। राष्ट्रीय सामरिक नीति दल, संयुक्त गुप्तचर समिति तथा राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार बोर्ड में देश के ऐसे व्यक्तियों को लिया जाएगा, जो देश की आंतरिक एवं बाह्य सुरक्षा, सामरिक मामलों, वैदेशिक घटनाओं, सुरक्षा बलों से संबंधित मामलों तथा सशस्त्र सेनाओं, अर्थव्यवस्था, विज्ञान एवं तकनीक आदि मामलों के विशेषज्ञ होंगे।
राष्ट्रीय सुरक्षा परिषद की मदद तथा महत्वपूर्ण मामलों में अपने सुझाव देने के लिए राष्ट्रीय सामरिक नीति दल को भी मजबूत बनाया जायेगा। यह दल सुरक्षा परिषद की मदद करने के अलावा केंद्र में विभिन्न मंत्रालयों के बीच समन्वय का काम भी करेगा। राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार बोर्ड का मुख्य कार्य सरकार को राष्ट्रीय सुरक्षा संबंधी समस्याओं के समाधान सुझाना तथा उन सुझावों पर अमल के लिए नीति संबंधी विकल्पों की सलाह देना होगा। राष्ट्रीय सुरक्षा परिषद इस बोर्ड को किन्हीं विशेष मुद्दों पर विचार करने के लिए भी कह सकती है।
Question : भारतीय संविधान के चौबीसवें संशोधन की महत्ता पर प्रकाश डालिए।
(1999)
Answer : भारतीय संविधान के अनुच्छेद-13 में यह सुस्पष्ट किया गया है कि संसद द्वारा ऐसा कोई भी कानून नहीं बनाया जाएगा, जिससे संविधान के भाग-3 में उल्लिखित मूल अधिकारों का हनन हो। लेकिन 17वें संविधान संशोधन में तथा बिहार राज्य बनाम शंकरी प्रसाद के विवाद में निर्णय देते हुए उच्चतम न्यायालय ने यह स्वीकार किया था कि संसद मूल अधिकारों में भी संविधान के अन्य उपबंधों की भांति संशोधन कर सकती है। परंतु बाद में उच्चतम न्यायालय ने गोलकनाथ बनाम पंजाब सरकार के विवाद में यह अवधारित किया कि संसद का भाग-3 के प्रावधानों में संशोधन करने तथा मौलिक अधिकारों को समाप्त या सीमित करने का अधिकार नहीं है। संविधान के 24वें संशोधन (1971) के अंतर्गत संसद द्वारा यह निर्धारित किया गया कि मूल अधिकारों को भी संशोधित किया जा सकता है। बाद में उच्चतम न्यायालय ने केशवानंद भारती बनाम केरल राज्य (1973) के विवाद में 24वें संविधान संशोधन के अधिकार पर निर्बंधन लगाया, जिसके अनुसार संसद मूल अधिकारों में संशोधन तो कर सकती है, लेकिन संविधान के मूल ढांचे को परिवर्तित नहीं कर सकती।
Question : जन लेखा समिति की भूमिका के महत्व का आकलन कीजिए।
(1999)
Answer : जन लेखा समिति (Public Accounts Committee) सार्वजनिक धन के खर्चों का निरीक्षण करती है, जिसमें कुल 22 सदस्य होते हैं। इनमें से 15 सदस्य लोकसभा से तथा शेष 7 सदस्य राज्यसभा से संबंधित होते हैं। इस समिति का उद्देश्य सरकारी विभागों के खर्च संबंधी हिसाब की जांच करना है। यह समिति संसद द्वारा स्वीकृत धन तथा ऑडिटर जनरल (Auditor General) की रिपोर्ट का सूक्ष्म परीक्षण करती है। समिति यह विश्चिय करती है कि जो धन किसी विभाग द्वारा खर्च किया गया, उतना खर्च करने की उसको कानूनी दृष्टि से स्वीकृति प्राप्त भी है अथवा नहीं। समिति यह भी विचार करती है कि धन उसी अधिकारी द्वारा खर्च हुआ है, जो उस धन पर नियंत्रण रखता है। साथ ही वह यह भी देखती है कि एक मद से दूसरे मद में धन स्थानांतरित करने के दौरान प्रचलित नियमों के अनुसार उचित अधिकारी द्वारा नियमों का पालन किया गया है अथवा नहीं। इसके अलावा, यह समिति विभिन्न सरकारी नियमों से आये हुए आमदनी तथा खर्च संबंधी हिसाब की जांच भी करती है। इस प्रकार, यह समिति सरकार पर वित्तीय अनुशासन बनाये रखने तथा उचित वित्तीय निष्पादन का सार्थक प्रयास करती है।
Question : गैर-वित्तीय विधेयकों के बारे में, भारतीय संसद के दोनों सदनों की अध्यक्षता कौन करता है?
(1999)
Answer : गैर-वित्तीय विधेयकों के बारे में भारतीय संसद के दोनों सदनों की अध्यक्षता लोकसभाध्यक्ष करता है।
Question : किसी राज्य के राज्यपाल पर क्या महाभियोग लगाया जा सकता है?
(1999)
Answer : किसी राज्य के राज्यपाल पर महाभियोग लगाने का संविधान में कोई प्रावधान नहीं है।
Question : यदि किसी विधेयक के बारे में यह मतभेद हो कि वह धन विधेयक है अथवा नहीं तो किसका निर्णय अंतिम होता है?
(1999)
Answer : किसी विधेयक को धन विधेयक मानने या न मानने का एकमात्र अधिकार लोकसभाध्यक्ष को होता है।
Question : भारत के उप-राष्ट्रपति का निर्वाचन कैसे होता है?
(1999)
Answer : भारत के उपराष्ट्रपति का निर्वाचन राज्यसभा एवं लोकसभा के सदस्यों द्वारा एकल संक्रमणीय मत द्वारा आनुपातिक प्रतिनिधित्व प्रणाली के तहत किया जाता है।
Question : भारतीय संविधान के अंतर्गत संपत्ति के अधिकार की क्या स्थिति है?
(1999)
Answer : भारतीय संविधान के तहत संपत्ति का अधिकार अब मात्र एक विधिक अधिकार (Legal Right) है, यद्यपि यह पहले एक मूल अधिकार था।
Question : भारतीय संसद के दो अधिवेशनों के बीच में अधिकतम अन्तराल कितना हो सकता है?
(1999)
Answer : भारतीय संसद के दो अधिवेशनों के बीच में अधिकतम अंतराल छह महीने का हो सकता है।
Question : आज के बदलते हुए राजनीतिक परिप्रेक्ष्य में राज्यसभा से कौन-सी विशेष भूमिका अपेक्षित है?
(1999)
Answer : राज्यसभा, जो कि उच्च सदन माना गया है, के सदस्यों की अधिकतम संख्या 250 होती है। इसके तहत प्रत्येक राज्य के प्रतिनिधियों का निर्वाचन उस राज्य विशेष की विधानसभा के निर्वाचित सदस्यों द्वारा आनुपातिक प्रतिनिधित्व पद्धति के अनुसार एकल संक्रमणीय मत द्वारा किया जाता है। इनमें से 12 सदस्यों को राष्ट्रपति द्वारा नामित किया जाता है, जो समाज में अपने उल्लेखनीय कार्यों के लिए जाने जाते हैं। इस प्रकार, राज्यसभा में परिसंघ की इकाइयों के प्रतिनिधि होते हैं, जिससे इसका परिसंघीय लक्षण प्रकट होता है। साथ ही, इससे अल्पसंख्यक समुदायों तथा दलों का प्रतिनिधित्व भी सुनिश्चित हो पाता है।
यूं तो राज्यसभा की शक्तियां लोकसभा की शक्तियों की तुलना में कमतर ही मानी गई हैं, खासकर वित्तीय मामलों में, किंतु आज की राजनीतिक अस्थिरता के दौर में निःसंदेह राज्यसभा की भूमिका काफी प्रभावी बन गई है। क्षेत्रीय दलों के बढ़ते वर्चस्व तथा रोज-रोज की राजनीतिक तोड़-जोड़ ने लोकसभा की कार्यावधि को सीमित कर दिया है, जिससे सरकारी प्रयासों एवं नीतियों को जबर्दस्त क्षति पहुंची है। गठबंधन के इस दौर ने लोकसभा को (खासकर 1989 के बाद से) असमय ही काल-कवलित किया है। इससे हमारी संसदीय परंपरा के प्रति लोगों में निराशा के भाव जाग्रत होने लगे हैं। शायद इसी संशय के समाधान हेतु हमारे संविधान निर्माताओं ने राज्यसभा को एक स्थायी निकाय के रूप में परिभाषित किया था। ध्यातव्य है कि राज्यसभा का विघटन नहीं होता है, यद्यपि उसके एक-तिहाई सदस्य प्रत्येक दूसरे वर्ष सेवानिवृत्त होते रहते हैं। दूसरे शब्दों में, प्रत्येक दूसरे वर्ष राज्यसभा के एक-तिहाई सदस्यों का निर्वाचन होता है, परंतु कभी भी इसका विघटन नहीं होता है। इस प्रावधान के चलते लोकसभा के विघटन की स्थिति में भी सरकारी नीतियों एवं प्रावधानों पर चर्चा करने तथा उचित मत लाने में राज्यसभा की प्रभावी भूमिका नजर आती है।
इतना ही नहीं, राज्यसभा को कुछ ऐसे अधिकार भी प्रदान किये गये हैं, जो कि लोकसभा की परिधि से बाहर हैं। इसके तहत अनुच्छेद-249 यह उपबंध करता है कि यदि राष्ट्रीय हित में यह आवश्यक है, तो राज्य सूची के किसी विषय की बाबत संघ अस्थायी विधान बना सकता है। इस विषय में संविधान ने राज्यसभा को विशेष भूमिका प्रदान की है। इसी प्रकार, संविधान के अनुच्छेद-312 में संसद को यह शक्ति दी गई है कि वह संघ तथा राज्यों के लिए सम्मिलित, एक या अधिक, अखिल भारतीय सेवाओं के सृजन के लिए उपबंध कर सकेगी, यदि राज्यसभा उपस्थित तथा मत देने वाले सदस्यों में से कम से कम दो-तिहाई सदस्यों द्वारा यह घोषित कर देता है कि राष्ट्रीय हित में ऐसा करना समीचीन है। इन दोनों विषयों में संविधान ने राज्यसभा को विशेष स्थान दिया है, क्योंकि उसकी प्रकृति परिसंघीय है। साथ ही, इससे यह भी आभास होता है कि दो-तिहाई सदस्यों द्वारा पारित संकल्प से राज्यों की सम्मति प्रकट होती है।
एक अन्य कारण से भी आज के परिप्रेक्ष्य में राज्यसभा की महत्वपूर्ण भूमिका नजर आती है। राजनीति के अपराधीकरण ने जहां लोकतंत्र को कमजोर बनाया है, वहीं इसने लोकतंत्रत्मक हिस्सेदारी को भी सीमित कर दिया है। सच्चरित्र एवं विद्वान व्यक्ति राजनीतिक क्षेत्र में कदम रखने से हिच-किचा रहा है, क्योंकि वह अपने लिए राजनीतिक दाव-पेंच तथा जोड़-तोड़ अनुकूल नहीं मानता। ऐसे में, राष्ट्रपति द्वारा समाज के सम्मानित एवं कार्यकुशल व्यक्तियों को नामित करने से इस वर्ग के दृष्टिकोण को समझने में मदद मिलती है।
Question : भारतीय संविधान के अनुच्छेद 15 द्वारा किन आधारों पर भेदभाव वर्जित है? इंगित कीजिए कि किस प्रकार से विशेष संरक्षण के प्रत्यय ने इस वर्जित भेदभाव को मर्यादित किया है तथा सामाजिक परिवर्तन केा बढ़ावा दिया है।
(1999)
Answer : अनुच्छेद-14 द्वारा प्रत्याभूत समता का एक विशिष्ट पहलू ही संविधान के अनुच्छेद-15 में विभेद के विरूद्ध प्रतिषेध के रूप में अंतर्विष्ट है। अनुच्छेद-15 का लाभ केवल नागरिकों को ही प्राप्त है और यह किसी भी नागरिक के विरूद्ध केवल धर्म, मूलवंश, जाति, लिंग अथवा जन्मस्थान या इनमें से किसी के आधार पर विभेद करने का प्रतिषेध करता है। इस अनुच्छेद का प्रविषय काफी विस्तृत है, क्योंकि एक ओर इसका प्रतिषेध जहां राज्य की कार्यवाही के विरूद्ध है, वहीं यह व्यक्तियों के विरूद्ध भी है। इस प्रतिषेध का सीधा अर्थ यह है कि किसी विशेष धर्म या जाति आदि के किसी व्यक्ति के साथ राज्य अन्य धर्म या जातियों के व्यक्तियों की तुलना में केवल इस आधार पर पक्षपात नहीं करेगा कि वह किसी विशेष धर्म या जाति का है। यहां केवल शब्द का यह महत्व है कि यदि विभेदनकारी व्यवहार के लिए इस अनुच्छेद द्वारा प्रतिषिद्ध आधार के अतिरिक्त कोई अन्य आधार या कारण है, तो विभेद असंवैधानिक नहीं माना जायेगा।
लेकिन संरक्षण के कुछ विशेष प्रत्यय ने इस वर्जित भेदभाव को मर्यादित करने तथा सामाजिक परिवर्तन को बढ़ावा देने का प्रयास किया है। विभेद के विरूद्ध उपर्युक्त प्रतिषेध राज्य को (i) स्त्रियों एवं बालकों के लिए विशेष उपबंध करने से निवारित नहीं करेगा, तथा (ii) सामाजिक एवं शैक्षिक दृष्टि से पिछड़े हुए नागरिकों के किन्हीं वर्गों की उन्नति के लिए या अनुसूचित जातियों और अनुसूचित जनजातियों के लिए विशेष उपबंध करने से निवारित नहीं करेगा।
दरअसल, इन आपवादिक वर्गों के व्यक्तियों को विशेष संरक्षण की आवश्यकता है, इसलिए कोई विधान, जो इस वर्ग के व्यक्तियों के लिए विशेष उपबंध करने के लिए आवश्यक है, असंवैधानिक नहीं माना जायेगा। इसी प्रकार इस अनुच्छेद के तहत केवल जाति के आधार पर विभेद प्रतिषिद्ध है, किंतु राज्य यदि चाहे तो पिछड़े वर्गों के सदस्यों के लिए या अनुसूचित जातियों/जनजातियों के लिए सार्वजनिक संस्थानों में स्थानों का आरक्षण कर सकता है अथवा उन्हें शुल्क में रियायत दे सकता है।
अनुच्छेद 15 का खंड 4 एक अपवाद प्रदान करता है, जिसके तहत राज्य को सामाजिक तथा शैक्षणिक रूप से पिछड़े वर्ग के नागरिकों अथवा अनुसूचित जातियों व अनुसूचित जनजातियों के विकास के लिए कोई विशेष प्रावधान करने का अधिकार प्राप्त है। यह प्रावधान अनुच्छेद-46 में उल्लिखित नीति के अनुसार है, जिसके तहत कहा गया है कि राज्य सरकार को विशेष ध्यान देकर पिछड़े वर्ग के लोगों के शैक्षणिक व आर्थिक हितों का विकास करना चाहिए तथा सामाजिक अन्याय से उनकी रक्षा करनी चाहिए। इस खंड का उद्देश्य (जिसे सन् 1951 में संविधान के एक संशोधन के रूप में जोड़ा गया था) अनुच्छेद 15 व 29 को अनुच्छेद 16(4), 46 तथा 340 के समरूप लाना तथा पिछड़े वर्गों, अनुसूचित जातियों एवं अनुसूचित जनजातियों से सम्बद्ध नागरिकों के लिए शासकीय शैक्षणिक संस्थानों में राज्य द्वारा सीटों के आरक्षण को तथा इनकी प्रगति के लिए अन्य आवश्यक प्रावधानों को संवैधानिकता प्रदान करना है।
आरक्षण की मात्र के संबंध में, जिसे न्यायालय न्यायसंगत मान सकता है तथा जो अनुच्छेद-15(1) के अनुकूल है, यह कहा गया है कि अनुच्छेद 15(4) के तहत किसी भी शिक्षण संस्थान में प्रवेश के लिए उपलब्ध कुल सीटों के 50 प्रतिशत से कम सीटों का आरक्षण न्यायसंगत होगा तथा इससे अधिक के आरक्षण को अवैध माना जायेगा (बालाजी बनाम मैसूर इस्टेट, 1963, उच्चतम न्यायालय)।
इस प्रकार का आरक्षण प्रत्याशियों को किसी भी सामान्य अथवा गैर-आरक्षित सीटों के लिए प्रतिस्पर्द्धा करने से वंचित नहीं करता है। इसी प्रकार, यदि अनुसूचित जाति अथवा अनुसूचित जनजाति के अभ्यर्थी अपनी योग्यता के आधार पर सामान्य वर्ग से कुछ सीटें प्राप्त कर लेते हैं, तो इनके द्वारा प्राप्त इस प्रकार की सभी सीटों की संख्या को अनुच्छेद-15(3) अथवा अनुच्छेद-15(4) के तहत दिये गये आरक्षण के कोटे के अंतर्गत मान कर अतर्कसंगत नहीं समझा जा सकता है। इसके विपरीत, राज्य द्वारा इन वर्गों के सदस्यों हेतु अधिकतम कोटा निर्धारित करना भी न्यायसंगत नहीं होगा, क्योंकि इस प्रकार उन्हें अपनी कुशाग्रता के आधार पर प्राप्त सीटों से भी वंचित होना पड़ सकता है।
Question : मौलिक अधिकारों के साथ नीति निर्देशक तत्वों की वर्तमान स्थिति जिन अवस्थाओं से उभरी है, उसे संक्षेप में स्पष्ट कीजिए।
(1998)
Answer : राज्य के नीति निर्देशक तत्व व मूल अधिकारों में मूल अंतर यह है कि जहां मूल अधिकार न्यायालय द्वारा प्रवर्तनीय हैं, वहीं नीति निर्देशक तत्व न्यायालय द्वारा अप्रवर्तनीय हैं। इसका मतलब यह है कि जहां न्यायालय को यह अधिकार दिया गया कि वह मूल अधिकारों से असंगत विधि को शून्य घोषित करे, वहीं न्यायालय किसी विधि को इस आधार पर शून्य घोषित नहीं कर सकता है कि वह नीति निर्देशक तत्वों का उल्लंघन करती है।
‘मद्रास राज्य बनाम चम्पकम दोरायजन’ नामक मुकदमे में सर्वोच्च न्यायालय ने ऐसा ही फैसला दिया था। परंतु सरकार व न्यायालय में इस बात को लेकर बार-बार मतभेद होता रहा कि दोनों में से किसको प्राथमिकता प्रदान की जाये। सरकार का यह मानना था कि मौलिक अधिकार एक कल्याणकारी राज्य की स्थापना में अड़चन पैदा कर रहे हैं।
1967 में सर्वोच्च न्यायालय ने ‘गोलकनाथ बनाम स्टेट ऑफ पंजाब’ नामक मामले में यह स्पष्ट किया कि संसद मौलिक अधिकारों में संशोधन नहीं ला सकती है। 1971 के 24 वें संशोधन में सरकार ने यह स्पष्ट किया कि मौलिक अधिकार भी संशोधन योग्य हैं। इसे 1973 में ‘केशवानंद भारती केस’ में सर्वोच्च न्यायालय ने अपनी सम्मति प्रदान की, परंतु यह भी कहा कि सरकार संविधान की आधारभूत संरचना को संशोधित नहीं कर सकती है। सरकार ने 42वें संवैधानिक संशोधन द्वारा यह तय किया कि यदि नीति निर्देशक तत्वों को लागू करने के दौरान किसी मूल अधिकार का उल्लंघन होता भी है, तो उसे इस दृष्टि से अवैध घोषित नहीं किया जा सकता। इस प्रकार, उसने नीति निर्देशक तत्वों को मूल अधिकारों की तुलना में प्राथमिकता प्रदान की। 1980 में ‘मिनर्वा मिल केस’ में सर्वोच्च न्यायालय ने 42वें संशोधन के कुछ प्रावधानों को रद्द करते हुए यह स्पष्ट किया कि संसद का संशोधन करने का असीमित अधिकार संविधान की आधारभूत संरचना के विरूद्ध है तथा उसने नीति निर्देशक तत्वों को प्राथमिकता दिये जाने वाले प्रावधान को भी रद्द कर दिया। सम्प्रति सर्वोच्च न्यायालय के निर्णयानुसार मूल अधिकारों व नीति निर्देशक तत्वों के बीच सामन्जस्य व संतुलन बनाने की कोशिश की गई है तथा किसी एक को दूसरे पर प्राथमिकता देना संविधान के मूल ढांचे को ही नष्ट करना होगा।
Question : ‘प्रधानमंत्रीय शासन’ की संकल्पना समझाइये एवं हाल के समय में भारत में उसके पतन के कारण स्पष्ट कीजिए।
(1998)
Answer : आमतौर पर हम दो तरह की शासन प्रणालियां जानते हैं- राष्ट्रपति शासन प्रणाली व संसदीय प्रणाली। संसदीय प्रणाली के परिवर्तित रूप को ही ‘प्रधानमंत्रीय प्रणाली’ कहा जाता है। पाकिस्तान का संविधान ‘संसदीय’ व ‘प्रधानमंत्रीय प्रणाली’ पर आधारित है। इस प्रणाली में प्रधानमंत्री के पास ही वास्तविक शक्तियां केंद्रित होती हैं, न कि मंत्रिमण्डल में। राष्ट्रपति महज एक रबर स्टाम्प होता है, जो केंद्रीय मंत्रिमण्डल या वस्तुतः प्रधानमंत्री की सलाह पर ही अपने दायित्वों तथा शक्तियों का उपयोग करता है। पाकिस्तान में राष्ट्रपति की शक्तियों में जिया उल हक ने काफी वृद्धि की थी और वहां ‘प्रणनमंत्री प्रणाली’ खतरे में पड़ गयी थी। परंतु भारत में ‘प्रधानमंत्री प्रणाली’ का अस्तित्व बना रहा। इसके कई कारण थे। सर्वप्रथम आजादी के बाद एकदलीय सरकारों का दौर रहा था, जिसमें स्थायित्व कारक प्रबल था। दूसरा कारण यह था कि हमारे देश में महान व्यक्तित्व वाले जन नेता जैसे- जवाहरलाल नेहरू, लालबहादुर शास्त्री, इंदिरा गांधी व राजीव गांधी प्रधानमंत्री बने। इन नेताओं ने सैद्धांतिक प्रधानमंत्री के तौर पर कम तथा एक सर्वशक्तिमान महानायक के रूप में अधिक कार्य किया।इस प्रकार संसदीय व्यवस्था के विपरीत उन्होंने प्रधानमंत्री के पद को वास्तविक शक्ति का केंद्र बनाया।
हाल के वर्षों में चुनावों में खण्डित जनादेश तथा तदोपरान्त बनी साझा सरकारों ने ‘प्रधानमंत्रीय प्रणाली’ को कमजोर कर दिया है। सरकारों की अस्थिरता ने प्रधानमंत्री की शक्तियों को भी सीमित कर दिया है। अब दूसरे दलों का समर्थन उसके अस्तित्व के लिए अपरिहार्य हो गया है। पहले कहा जाता था कि प्रधानमंत्री केंद्रीय मंत्रिमण्डलीय मेहराव की नींव है, परंतु हाल के वर्षों के अनुभव ने उसकी हालत दयनीय कर दी है। चाहे मंत्रियों के चयन का मामला हो या इस्तीफा देने का, वह स्वतंत्र नहीं है। इन सब के विपरीत प्रधानमंत्री की तुलना में राष्ट्रपति की शकित में वृद्धि हुई है। अब त्रिशंकु लोकसभा में वह किसे प्रधानमंत्री नियुक्त करे, यह उसके विवेक पर निर्भर करता है। हाल में राष्ट्रपति ने मंत्रिपरिषद की सिफारिशों को वापस भेज दिया। यह उसकी मजबूत स्थिति का ही द्योतक है तथा प्रधानमंत्री की विवशता का परिचायक है। इस प्रकार आज के परिवर्तित राजनीतिक माहौल में ‘प्रधानमंत्रीय प्रणाली’ कमजोर पड़ गई है और कुछ लोग इसके स्थान पर ‘राष्ट्रपति शासन प्रणाली’ की मांग करने लगे हैं।
Question : विधानपरिषदों का समर्थन किन मुद्दों पर किया जाता है? राज्य में उसकी स्थापना या विनाश किस प्रकार होता है?
(1998)
Answer : भारत में विधायिका के दो सदन होते हैं। केंद्र में राज्यसभा (उच्च सदन) व लोकसभा (निम्न सदन) तथा राज्यों में विधानपरिषद (उच्च सदन) व विधानसभा (निम्न सदन)। राज्यों में केवल पांच राज्य ही ऐसे हैं, जिनमें विधानपरिषदें हैं। इससे केंद्र व राज्यों में उच्च सदन के औचित्य पर अनेक सवाल उठ खड़े होते हैं। उच्च सदन या विधानपरिषदों के समर्थन में निम्न तर्क प्रस्तुत किये जाते हैं- 1. यह एक स्थायी सदन है तथा इसका विघटन नहीं किया जा सकता। मौजूदा परिस्थिति में यह स्थिरता काफी लाभदायक है। 2. निचले सदन में अस्थिरता तथा व्यस्तता के कारण विधेयक के विभिन्न पहलुओं पर उचित बहस नहीं हो पाती है। यह कार्य उच्च सदन में कारगर ढंग से होता है। 3. राज्यसभा राज्यों का प्रतिनिधित्व करती है। 4. उच्च सदन के सदस्य दलीय राजनीति से परे होते हैं तथा राष्ट्र के व्यापक हित की रक्षा करते हैं। 5. इन सदनों को सामान्य विधेयक पर निम्न सदन जैसे अधिकार प्राप्त हैं। 6. राज्यसभा को अनुच्छेद 249 और 312 के अंतर्गत विशेष अधिकार प्राप्त हैं। 7. इन परिषदों में विभिन्न योग्यता धारण करने वाले व्यक्ति चयनित किये जाते हैं। ऐसे व्यक्ति टेक्नोक्रैट की भूमिका निभा सकते हैं।
किसी भी राज्य में विधान परिषद की रचना या उसकी समाप्ति राज्य विधानसभा की अनुशंसा पर संसद के एक अधिनियम द्वारा की जा सकती है। यह अनुच्छेद 169 के अंतर्गत होता है।
Question : ‘अस्थायी स्पीकर’ से क्या तात्पर्य है?
(1998)
Answer : प्रत्येक सार्वत्रिक निर्वाचन के बाद लोक सभा का गठन होता है। जब तक कि एक नये स्पीकर का चुनाव नहीं हो जाता है, राष्ट्रपति लोकसभा के किसी वरिष्ठ सदस्य को ‘अस्थायी स्पीकर’ नियुक्त करता है। वह सदस्यों को शपथ दिलाता है तथा नये स्पीकर के चयन से पूर्व सदन का सभापतित्व करता है।
Question : केंद्रीय सतर्कता आयोग की रचना व कार्यों को स्पष्ट कीजिए।
(1998)
Answer : केंद्रीय सतर्कता आयोग एक बहुसदस्यीय सतर्कता आयोग है, जिसका प्रधान एक केंद्रीय सतर्कता आयुक्त होता है तथा इनमें अधिकतम तीन अन्य आयुक्त होते हैं। यह भ्रष्टाचार से संबंधित मामलों में सी.बी.आई. द्वारा की गई जांच का निरीक्षण करती है। संयुक्त सचिव स्तर के अधिकारियों में भ्रष्टाचार के मामले की जांच करने से पहले सी.बी.आई. को केंद्रीय सतर्कता आयोग से अनुमति लेनी होती है।
Question : संविधान की धारा 21 का विस्तार बताइये।
(1998)
Answer : संविधान की धारा 21 के अंतर्गत किसी को भी जीने या व्यक्तिगत स्वतंत्रता से वंचित नहीं किया जा सकता है। यह अधिकार विदेशी नागरिकों को भी प्रदान किया गया है। अब इसका विस्तार कर इसके अन्तर्गत विधायी क्रिया से संरक्षण, जीवनयापन का अधिकार, बंधुआ मजदूरी द्वारा शोषण के खिलाफ अधिकार निजी जीवन का अधिकार, शिक्षा का अधिकार आदि को भी शामिल किया गया है।
Question : संसद के किसी भी सदन की सदस्यता की अपात्रता के बारे में किस प्रकार के मामलों में राष्ट्रपति द्वारा निर्णय लिया जाता है।
(1998)
Answer : धारा 102 (1) के अन्तर्गत यदि संसद का कोई सदस्य भारत का नागरिक नहीं है, दिवालिया है, न्यायालय द्वारा पागल घोषित है, सरकार के अधीन किसी कार्यालय में मुनाफा का पद ग्रहण कर रहा है या सदन के कानून के तहत अयोग्य करार दिया गया है, तो राष्ट्रपति निर्वाचन आयोग से सलाह कर उसे अयोग्य घोषित कर सकता है।
Question : संसदीय सचिव एवं लोकसभा सचिव के मध्य भेद कीजिए।
(1998)
Answer : संसदीय सचिव का पद एक मंत्री के तुल्य होता है, जो मंत्रियों को उनके संसदीय व विभागीय कार्य में सहायता देता है। लोकसभा सचिव, लोकसभा के कार्यों तथा विधि प्रशासन के लिए जिम्मेवार होते हैं तथा स्पीकर को इस संबंध में सहायता प्रदान करते हैं। संसदीय सचिव की तरह वे सामूहिक उत्तरदायित्व के सिद्धांत से बंधे नहीं होते हैं।
Question : विशेषाधिकार प्रस्ताव क्या है?
(1998)
Answer : विशेषाधिकार प्रस्ताव कोई भी सदस्य पेश कर सकता है, यदि उसे आभास हो कि किसी मंत्री ने सदन के विशेषाधिकार का हनन किया है या उसने गलत तथ्यों द्वारा सदन को गुमराह किया है।
Question : आमुख (प्रीएम्बल) संविधान के उन आधारभूत सिद्धान्तों और दर्शन का प्रतिरूप है, जिसके आधार पर संविधान की संरचना की गई है। स्पष्ट कीजिए।
(1997)
Answer : प्रस्तावना को संविधान की आत्मा कहा गया है। प्रस्तावना द्वारा संविधान निर्माताओं ने भारतीय राजव्यवस्था की आस्थाओं एवं प्रेरणाओं और मूलभूत आदर्शों को निर्धारित किया है। प्रस्तावना द्वारा संविधान को गणतंत्र घोषित किया गया है, जिसका स्पष्ट अर्थ है कि संविधान के अधीन समस्त प्राधिकार भारतीय जनता में ही निहित है। इसके अतिरिक्त प्रस्तावना लोकतांत्रिक तत्वों को भी समविष्ट किए हुए है। प्रस्तावना द्वारा विविध स्वतंत्रताएं, सामाजिक समानता, समाजवाद, पंथनिरपेक्षता का आदर्श अपनाया गया है। संविधान के नीति निर्देशक तत्व एवं मूलाधिकार इस विचारधारा को मूर्त रूप प्रदान करते हैं।
Question : भाषाई अल्पसंख्यकों के संरक्षण के लिए संविधान में क्या प्रावधान हैं?
(1997)
Answer : भाषाई अल्पसंख्यकों के संरक्षण के लिए संविधान में भाग-3 के अंतर्गत मौलिक अधिकार प्रदान किए गए हैं। भारतीय संविधान द्वारा अल्पसंख्यकों की संस्कृति एवं शिक्षा संबंधी संस्थानों को ध्यान में रख कर प्रत्येक व्यक्ति को सुरक्षित रखने का पूर्ण अधिकार प्राप्त है। (अनुच्छेद 29) इसी तरह धर्म या भाषा पर आधारित सभी अल्पसंख्यक वर्गों को अपनी रुचि की शिक्षण संस्थाओं की स्थापना एवं चलाने का अधिकार है। अनुच्छेद 350 के तहत भाषायी अल्पसंख्यक वर्गों के लिए राष्ट्रपति एक विशेष अधिकारी को नियुक्त करेगा, जो उन वर्गों के सभी विषयों से संबंधित रक्षा के उपाय करेगा और अपनी रिपोर्ट समय-समय पर राज्यपाल और राष्ट्रपति को देगा, जिस पर संसद विचार करेगी।
Question : भारत के राष्ट्रपति एवं उपराष्ट्रपति का चुनाव किस प्रकार होता है? इनके चुनाव में कौन से संवैधानिक वाद अंतर्निहित हैं?
(1997)
Answer : ‘राष्ट्रपति और उपराष्ट्रपति निर्वाचन अधिनियम-1952’ तथा उसके अधीन बनाये गये नियम भारत के राष्ट्रपति एवं उपराष्ट्रपति पद के निर्वाचन से संबंधित सभी मामलों का विनियमन करते हैं। हालांकि उपरोक्त अधिनियम में 1974 एवं 1997 में थोड़े संशोधन किये गये, जिनका आधार पूर्ववर्ती चुनावों में प्राप्त अनुभव था।
राष्ट्रपति का निर्वाचन आनुपातिक प्रतिनिधित्व प्रणाली के अनुसार एकलसंक्रमणीय मत पद्धति द्वारा गुप्त मतदान के माध्यम से होता है। निर्वाचन एक ऐसे निर्वाचन मंडल द्वारा किया जाता है, जो संसद के दोनों सदनों के निर्वाचित सदस्यों तथा राज्य विधानसभाओं के निर्वाचित सदस्यों द्वारा गठित होता है। संविधान के अनुच्छेद 58 में यह व्यवस्था है कि कोई व्यक्ति राष्ट्रपति के रूप में चुने जाने का पात्र तभी होगा, जब वह (क) भारत का नागरिक हो, (ख) 35 वर्ष की आयु पूरी कर चुका हो और (ग) लोकसभा का सदस्य बनने की योग्यता रखता हो।
किसी विधानसभा के सदस्यों का मत मूल्य ज्ञात करने के लिए राज्य की जनसंख्या में निर्वाचित विधायकों से भाग दिया जाता है। इस भागफल में 1000 से भाग देकर एक विधायक का मत मूल्य निकाला जाता है। सांसदों का मत मूल्य जानने के लिए समस्त राज्य विधानसभाओं के सदस्यों का मत मूल्य जोड़ कर इसे दोनों सदनों के निर्वाचित सदस्यों से भाग दिया जाता है। इसे किसी एक सांसद का मत मूल्य कहा जाता है। मतगणना की प्रक्रिया में सर्वप्रथम वैध मतों के आधे में एक जोड़ कर कोटा निकाल लिया जाता है। यदि पहली गिनती में ही किसी प्रत्याशी को यह कोटा मिल जाता है। तो वह राष्ट्रपति के रूप में निर्वाचित हो जाता है। अन्यथा दूसरी, तीसरी, चौथी वरीयता के आधार पर मतगणना का क्रम तब तक चलता रहता है, जब तक कि दो ही उम्मीदवार शेष नहीं रह जाते हैं। ऐसी स्थिति में सर्वाधिक मत पाने वाला प्रत्याशी राष्ट्रपति पद पर निर्वाचित हो जाता है।
उपराष्ट्रपति का निर्वाचन संसद के दोनों सदनों के सदस्यों द्वारा आनुपातिक पद्धति के आधार पर एकलसंक्रमणीय मत पद्धति द्वारा गुप्त मतदान से होता है। अनुच्छेद 66(3) के अनुसार, कोई व्यक्ति उपराष्ट्रपति के रूप में चुने जाने का पात्र तभी होगा, जब वह (a) भारत का नागरिक हो, (b) 35 वर्ष की आयु पार कर चुका हो, (c) किसी लाभ के पद पर न हो तथा(d) राज्यसभा का सदस्य निर्वाचित होने की योग्यता रखता हो।
संविधान के अनुच्छेद 71 में यह उपबंध है कि राष्ट्रपति या उपराष्ट्रपति के निर्वाचन से उत्पन्न या संबद्ध सभी शंकाओं और विवादों की जांच तथा निपटारा उच्चतम न्यायालय करेगा और उसका निर्णय अंतिम होगा।
राष्ट्रपति अथवा उपराष्ट्रपति के निर्वाचन में केवल इस आधार पर आपत्ति नहीं की जा सकती है कि निर्वाचन नामावली के सदस्यों में कोई रिक्ति हो गयी है। जो व्यक्ति न तो उम्मीदवार है और न ही निर्वाचक है, वह राष्ट्रपति के निर्वाचन की वैधता को चुनौती देने के लिए याचिका दायर नहीं कर सकता (एन-बी- खरे बनाम भारतीय निर्वाचन आयोग ए.आई.आर. 1958 एस. सी. 139)।
राष्ट्रपति के निर्वाचन के मामले में (ए.आई.आर. 1974 एस.सी. 1682 में) उच्चतम न्यायालय ने निर्णय दिया कि राष्ट्रपति पद के लिए निर्वाचन को इस आधार पर न तो स्थगित किया जा सकता है और न ही अवैध ठहराया जा सकता है कि किसी राज्य विधानसभा को भंग कर दिये जाने के कारण निर्वाचक नामावली अधूरी थी या पूरी तरह गठित नहीं हुई थी।
Question : अखिल भारतीय न्यायिक सेवा के सृजन के पक्ष एवं विपक्ष में अपने विचार प्रस्तुत कीजिए।
(1997)
Answer : एक संघात्मक राज्य होने के बावजूद भारत में एकीकृत न्यायपालिका है, जिसके शीर्ष पर उच्चतम न्यायालय एवं राज्यों में उच्च न्यायालय और उसके अधीनस्थ न्यायालय होते हैं। हाल के वर्षों में अखिल भारतीय न्यायिक सेवा के सृजन की मांग उठ खड़ी हुई है, ताकि इसके अधीन अधीनस्थ न्यायालयों में न्यायाधीशों की नियुक्ति राष्ट्रपति करें और पदस्थापन एवं सेवा संबंधी अन्य शर्तें संबंधित राज्य के राज्यपाल द्वारा नियोजित हों। लेकिन अखिल भारतीय न्यायिक सेवा के सृजन पर विचार-विमर्श के उपरांत इसके पक्ष एवं विपक्ष में कई तर्क दिये जाते हैं।
पक्ष में: अखिल भारतीय न्यायिक सेवा के गठन से प्रतिवर्ष नियुक्त होने वाले न्यायाधीशों का प्रत्येक राज्य से संबंधित एक कैडर होगा और वे अपनी जन्मभूमि, राज्य जैसे क्षेत्रीय-भावनात्मक मुद्दों से ऊपर उठकर न्यायिक कार्यों के प्रति सचेत रहेंगे। उनकी नियुक्ति की एक समान प्रणाली विकसित होगी और यह सारे देश में एक समान कार्यप्रणाली एवं न्यायिक प्रक्रिया को बढ़ावा देगी। किसी भी राज्य को संपूर्ण राष्ट्र के प्रतिभाशाली लोगों की सेवाएं उपलब्ध हो सकेंगी और इससे त्वरित न्याय एवं विभिन्न न्यायालयों में लंबित पड़े मामलों का शीघ्र निपटारा करने में मदद मिल सकेगी। इस सेवा के गठन से स्थानीय स्तर पर अधीनस्थ न्यायालयों में चुस्ती आ सकेगी और न्यायिक विलंब को दूर किया जा सकेगा।
विपक्ष में: अखिल भारतीय सेवा के माध्यम से जो विभिन्न राज्यों का संवर्ग (कैडर) बनेगा, उसके सदस्य स्थानीय क्षेत्रों की परंपरा, संस्कृति एवं रीति-रिवाजों के जानकार नहीं होंगे और इससे न्यायिक प्रक्रिया एवं सामाजिक समन्वय के मध्य संतुलन बिगड़ने का खतरा बना रहेगा। इस सेवा के गठन से संविधान के नीति-निर्देशक तत्वों में वर्णित शक्ति के पृथक्करण के सिद्धांत पर प्रहार होने की संभावना रहेगी और केंद्र तथा राज्यों के अनावश्यक हस्तक्षेप से न्यायिक सक्रियता अथवा स्वच्छ न्यायिक व्यवस्था की राह में कुछ बाधाएं आने की संभावना बनी रहेंगी।
Question : भारत में क्षेत्रीयतावाद के उदय होने के कारणों की परिचर्चा कीजिए। यह किस प्रकार राजनीतिक प्रणाली को प्रभावित करती है?
(1997)
Answer : क्षेत्रीयता क्षेत्र विशेष में निवास करने वाले लोगों का अपने क्षेत्र के प्रति वह विशेष लगाव व अपनापन की भावना है, जिसे कुछ सामान्य आदर्श, व्यवहार, विचार तथा निवास के रूप में अभिव्यक्त किया जाता है। इसके विकास के लिए कई तत्व जिम्मेदार हैं, जैसे-
भौगोलिक कारक: देश के भौगोलिक रूप से विभाजित होने के कारण किसी भी क्षेत्र का दूसरे क्षेत्रों से सामाजिक-धार्मिक, रीति-रिवाज, भाषा, परंपराएं, पोशाक, आभूषण, खान-पान, रहन-सहन आदि भिन्न-भिन्न होते हैं।
राजनीतिक कारक: राजनीतिक स्वार्थवश अनेक राजनीतिक दलों का जन्म होता है और वे अपने हितों की पूर्ति के लिए क्षेत्रीयता का प्रसार करते हैं।
सांस्कृतिक कारक: भाषा, संप्रदाय, जाति जैसे तत्वों ने भी क्षेत्रीयता के उदय में महत्वपूर्ण भूमिका निभायी है।
आर्थिक कारक: देश के आर्थिक विकास की गतिविधियां सभी क्षेत्रों में एक समान नहीं रही हैं। जो क्षेत्र पिछड़े रह गये, वहां असंतोष पैदा हुआ और वहां क्षेत्रीयता का प्रचार हुआ।
क्षेत्रीयता राजनीतिक प्रणाली को अत्यधिक प्रभावित करती है। इससे केंद्र एवं विभिन्न राज्यों के बीच का संबंध उलझ जाता है। नये-नये क्षेत्रीय दलों का उदय होने से केंद्र में किसी एक दल को बहुमत नहीं मिल पाता है और केंद्र सरकार साझेदारी अथवा जोड़-तोड़ के आधार पर बनने-बिगड़ने लगती है। इससे देश की स्वस्थ लोकतांत्रिक परंपराएं ध्वस्त होने लगती हैं। अंततः विभिन्न क्षेत्रों के बीच आपसी संघर्ष शुरू हो जाते हैं और कभी-कभी अलगाववाद का स्वर भी गूंजने लगता है।
Question : भारत में संसद किस प्रकार वित्तीय प्रणाली को नियंत्रित करती है?
(1997)
Answer : वित्तीय मामलों में संवैधानिक उपबंध ऐसा है कि संसद के प्राधिकार से ही कोई कर लगाया जाएगा या एकत्रित किया जायेगा अन्यथा नहीं और राष्ट्रपति प्रत्येक वित्तीय वर्ष के संबंध में संसद के दोनों सदनों के समक्ष एक ‘वार्षिक वित्तीय विवरण’ (बजट) रखवायेगा।
जब सदन में बजट रखा जाता है, तो संसद ही इसे मंजूरी देती है। राज्यसभा बजट पर सामान्य चर्चा में भाग लेती है, लेकिन आगे अनुदान मांगों पर चर्चा एवं मतदान की प्रक्रिया में लोकसभा ही विचार-विमर्श करती है। संसद में वित्तीय प्रणालियों की अनियमितताओं को दूर करने के लिए ‘कटौती प्रस्ताव’ का प्रावधान है। ये प्रस्ताव तीन प्रकार के होते हैं-
विनियोग विधेयक, लेखानुदान, अनुपूरक अनुदान तथा अतिरिक्त अनुदान एवं प्रत्ययानुदान तथा अपवादानुदान जैसी वित्तीय प्रक्रियाओं का नियंत्रण संसद ही करती है।
वित्तीय प्रणाली के विभिन्न कार्यों की जांच के लिए जो ‘लोक लेखा समिति’ या ‘प्राक्कलन समिति’ तथा ‘सार्वजनिक उपक्रम समिति’ बनायी जाती है, उसमें संसद सदस्यों की ही भागीदारी होती है। ‘नियंत्रक एवं महालेखा परीक्षक’ के प्रतिवेदन की जांच सांसदों से बनने वाली समितियां ही करती हैं। वस्तुतः भारत की संपूर्ण वित्तीय प्रणाली का नियंत्रक संसद ही है।
Question : संसदीय कार्य प्रणाली में नियम 184 तथा 193 क्या संकेत देते हैं?
(1997)
Answer : संसदीय कार्यप्रणाली में नियम 184 संकेत करते हैं कि निंदा प्रस्ताव, अविश्वास प्रस्ताव से भिन्न होते हैं तथा नियम 193 यह संकेत देते हैं कि अध्यक्ष या सभापति किसी मामले के महत्व को देखते हुए उस पर ‘अल्पकालीन चर्चा’ करा सकते हैं।
Question : भारत के संविधान में दिये गये किन्हीं चार मौलिक कर्त्तव्यों को लिखिये।
(1997)
Answer : भारत के संविधान में उल्लिखित चार मूल कर्त्तव्य इस प्रकार हैं-
Question : भारत के संविधान में बाल श्रमिक के लिए क्या विशेष प्रावधान हैं?
(1997)
Answer : संविधान के अनुच्छेद 24 में बाल श्रमिक से संबंधित प्रावधान हैं, जिसके अनुसार 14 वर्ष से कम आयु के किसी भी बालक को किसी कारखाने या खान में काम करने के लिए नियोजित नहीं किया जाएगा या किसी अन्य परिसंकटमय स्थिति में नियोजित नहीं किया जाएगा।
Question : भारतीय संविधान में अनुच्छेद 356 क्या है? टिप्पणी कीजिए?
(1997)
Answer : जब किसी राज्य में संवैधानिक संकट उठ खड़ा होता है, तो राष्ट्रपति, राज्यपाल के प्रतिवेदन से या स्वयं भी आश्वस्त होने पर अनुच्छेद 356 का सहारा लेकर उस राज्य में राष्ट्रपति शासन लागू कर देते हैं। यह अनुच्छेद केंद्र-राज्य संबंधों को बिगाड़ने में एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है।
Question : भारत के संविधान में राष्ट्रपति, मंत्री, संसद तथा न्यायपालिका के सदस्यों के लिए भिन्न-भिन्न प्रकार के ‘शपथ-पत्रों का प्रावधान क्यों है? इसका महत्व विवेचित कीजिए?
(1996)
Answer : भारत के संविधान में राष्ट्रपति, मंत्री, संसद तथा न्यायपालिका के सदस्यों के लिए भिन्न-भिन्न प्रकार के ‘शपथ-पत्रों’ का प्रावधान है। राष्ट्रपति भारत का राष्ट्राध्यक्ष होता है। वह भारतीय संसद का भी अंग है तथा केंद्र का समस्त शासन उसी के नाम पर चलाया जाता है। ऐसे में राष्ट्रपति के पद पर बैठने वाले व्यक्ति पर संविधान और विधि के परिरक्षण, संरक्षण और प्रतिरक्षण करने तथा भारत की जनता की सेवा करने और जनकल्याण में सचेष्ट रहने का गुरुतर दायित्व है। इसलिए राष्ट्रपति को पदासीन होने से पूर्व इसकी शपथ लेनी पड़ती है। लोकतांत्रिक प्रक्रिया में कोई भी व्यक्ति उसी समय तक मंत्री पद पर बना रह सकता है, जब तक कि उसे सदन का विश्वास प्राप्त होता है और इसके लिए दलेगत राजनीति एवं उठापटक चलती रहती है। उससे अपेक्षा की जाती है कि देश की एकता, अखण्डता और सुरक्षा से संबंधित कोई भी जानकारी किसी भी रूप में किसी अन्य को नहीं दे। इसलिए मंत्रियों के निर्धारित किये गये शपथ प्रावधानों में इन दो बातों का उल्लेख किया गया है।
देश के विभिन्न भागों एवं विभिन्न समुदायों से निर्वाचित होकर संसद सदस्य बनने वाले सदस्यों से यह अपेक्षा की जाती है कि वे भारत की प्रभुता और अखंडता को अक्षुण्ण बनाये रखें तथा संविधान के प्रति निष्ठावान रहें। इसलिए उन्हें इसकी शपथ लेनी होती है। न्यायपालिका के सदस्यों से अपेक्षा की जाती है कि वे संविधान के प्रति निष्ठावान रहें तथा ऐसा कोई कार्य नहीं करें, जो भारत की प्रभुताऔर अखंडता को अक्षुण्ण रखने में बाधा बने। इसके साथ-साथ न्यायाधीशों के लिए यह भी आवश्यक है कि वे सम्यक प्रकार से और श्रद्धापूर्वक तथा अपनी पूरी योग्यता, ज्ञान और विवेक से अपने पद के कर्त्तव्यों का भय या पक्षपात, अनुराग या द्वेष के बिना पालन करते रहें तथा संविधान और विधियों की मर्यादा को बनाये रखें। इसलिए न्यायाधीशों को पदासीन होने से पूर्व ऐसी ही शपथ लेनी पड़ती है।
वस्तुतः राष्ट्रपति, मंत्री, सांसद तथा न्यायाधीशों के कार्य और उत्तरदायित्व पृथक-पृथक हैं, इसलिए उन्हें अपने पद के उत्तरदायित्वों के अनुसार शपथ लेनी पड़ती है। ईश्वर के नाम पर शपथ लेने अथवा सत्यनिष्ठा से प्रतिज्ञा करने पर पदासीन होने वाला व्यक्ति नैतिक एवं विधिक रूप से अपने उत्तरदायित्वों से बंध जाता है। साथ ही, वह इस बात की भी पूरी सावधानी बरतता है कि पद पर रहते हुए अथवा पदच्युत होने के बाद भी वह कोई ऐसा कार्य नहीं करे, जो देश की एकता एवं अखंडता के विरूद्ध हो अथवा जिससे विधि द्वारा स्थापित संविधान की मर्यादा का उल्लंघन हो।
Question : कटौती प्रस्ताव क्या होता है? इसका महत्व समझाइये।
(1996)
Answer : बजट सत्र के दौरान प्रत्येक मंत्रालय के लिए अनुदान मांगें प्रस्तावित की जाती हैं। संसद सदस्य मंत्रालय की नीतियों का निरानुमोदन कर सकते हैं या प्रशासन में मितव्ययता लाने के लिए उपाय सुझा सकते हैं या विशिष्ट स्थानीय शिकायतों की ओर मंत्रालय को ध्यान दिला सकते हैं। अनुदान मांगों के मूल प्रस्ताव के बदले सहायक प्रस्ताव पेश करके सदस्य ऐसा कर सकते हैं। इन सहायक प्रस्तावों को संसदीय भाषा में ‘कटौती प्रस्ताव’ कहा जाता है। कटौती प्रस्ताव तीन प्रकार के होते हैं। सबसे प्रभावी कटौती प्रस्ताव ‘नीति निरनुमोदनकटौती’ प्रस्ताव होता है, जिसमें मांग की राशि घटा कर एक रुपया कर दी जाती है। इसके अलावा ‘मितव्ययता कटौती’ प्रस्ताव होता है, जिसका उद्देश्य व्यय में मितव्ययता लाने की दृष्टि से मांग की राशि में उल्लिखित राशि कम करना होता है। अंतिम कटौती प्रस्ताव ‘सांकेतिक कटौती’ प्रस्ताव होता है, जिसमें कहा जाता है कि मांग की राशि में 100 रुपये की कमी की जाये। वस्तुतः कटौती प्रस्ताव अनुदान की मांगों पर चर्चा आरंभ करने का एक उपाय है। कटौती प्रस्ताव का महत्व प्रतीकात्मक है, क्योंकि जब तक सदन में सरकार बहुमत नहीं खो दे, तब तक उनके स्वीकृत होने का प्रश्न ही नहीं होता।
Question : प्रत्यायोजित विधायन क्या होता है? इसके बढ़ने के लिए कौन-कौन से कारक उत्तरदायी हैं?
(1996)
Answer : लोगों की सामान्य इच्छा का प्रतिनिधित्व करने के नाते विधि निर्माण संसद का एक प्रमुख कृत्य है। समय और तकनीकी विशेषज्ञता की कमी तथा अधिकाधिक जटिल प्रक्रिया के कारण विधानमंडल विधान बनाने की अपनी शक्तियां किसी अधीनस्थ एजेंसी को प्रत्यायोजित कर सकता है। विधानमंडल के प्रत्यायोजित प्राधिकार के अधिकार क्षेत्र में रह कर किसी अधीनस्थ एजेंसी द्वारा बनाए गये नियमों एवं विनियमों को प्रत्यायोजित विधान कहा जाता है। अधीनस्थ एजेंसी के रूप में प्रायः सरकार ही कार्य करती है।
इसके अंतर्गत विधायिका द्वारा पहले से ही पारित कानूनों के अंतर्गत नियम, उपनियम, विनियमन आदि बनाने का अधिकार कार्यपालिका को प्रत्यायोजित कर दिया जाता है। ये कार्य सरकार के अधिकारियों द्वारा किये जाते हैं, परंतु व्यवस्था यह रहती है कि इस प्रकार से बनाये गये प्रत्येक नियम, उपनियम तथा विनियमन अनिवार्य रूप से सदन के पटल पर रखे जायें, जहां सदस्य इन पर विस्तार से चर्चा कर सकें। सामान्य तौर पर प्रत्यायोजित विधान छोटे-छोटे विधायी मामलों से संबंधित होते हैं। लेकिन हाल के वर्षों में भारत में ही नहीं, विश्व के अनुक देशों में इस विधायन का प्रयोग विधायिका की महत्वपूर्ण शक्तियों जैसे- करारोपण, संसद के कानूनों में संशोधन, नये दंड लगाने जैसे मामलों में भी किया जाने लगा है।
Question : भारत की संचित निधि और आकस्मिकता निधि क्या है? इसका संचालन किस प्रकार किया जाता है?
(1996)
Answer : भारतीय संविधान के अनुच्छेद 266 में भारत की संचित निधि का वर्णन किया गया है। कुछ करों एवं शुल्कों को राज्यों को सौंपे जाने के बाद भारत सरकार को प्राप्त सभी राजस्व, सरकार द्वारा जारी हुंडियों से प्राप्त धन तथा उधार या अर्थोपार्जन द्वारा प्राप्त धन एक निधि में जमा करा दिया जाता है। इसी निधि को संचित निधि कहते हैं। इस संचित निधि में से कोई भी धनराशि विधि के अनुसार तथा भारत के संविधान में उपबंधित प्रयोजनों के लिए निर्दिष्ट रीति से ही विनियोजित की जा सकती है, अन्यथा नहीं। संचित निधि के परे वाले व्यय को संसद में मतदान हेतु नहीं रखा जाता है।
संविधान के अनुच्छेद 267 में आकस्मिकता निधि का वर्णन है। इसके अनुसार, संसद विधि द्वारा अग्रदाय के स्वरूप की एक आकस्मिकता निधि की स्थापना करती है, जो ‘भारत की आकस्मिक निधि’ कहलाती है। यह निधि राष्ट्रपति के व्ययनाधीन रखी गई है। इस निधि में से धन उस समय और उन मदों के लिए ही निकालाजा सकता है, जिसका विवरण सरकार द्वारा प्रतिवर्ष संसद के समक्ष प्रस्तुत किये जाने वाले वार्षिक आय-व्यय विवरण में शामिल नहीं हो और जिसे संसद द्वारा स्वीकृत नहीं किया गया हो।
Question : अंतर-राज्य जल विवादों को सुलझाने में संघ सरकार क्या भूमिका निभा सकती है?
(1996)
Answer : संविधान का अनुच्छेद 262 विवादों के न्यायिकेतर समाधान पर जोर डालता है। इसके तहत संघ सरकार की पहल पर संसद विधि द्वारा किसी अंतरराज्यिक नदी जल के प्रयोग, वितरण या नियंत्रण के संबंध में किसी विवाद या परिवाद के निर्णय के लिए उपबंध कर सकती है।
Question : कुछ अधिकारियों के विरूद्ध ‘परमादेश’ जारी नहीं किया जा सकता। ये पदाधिकारी कौन हैं?
(1996)
Answer : जिन व्यक्तियों के विरूद्ध परमादेश जारी नहीं किया जा सकता, वे हैं- प्राइवेट व्यक्ति या निकाय, चाहे वे नियमित हों या नहीं, उच्च न्यायालय के न्यायाधीश या अन्य न्यायाधीश, जो न्यायिक हैसियत से कार्य कर रहे हों, राज्यों के राज्यपाल तथा भारत के राष्ट्रपति।
Question : एक वित्त विधेयक एवं धन विधेयक में आप किस प्रकार अंतर करते हैं
(1996)
Answer : धन विधेयक वह विधेयक है, जो केवल अनुच्छेद 110(1) में उल्लिखित विषयों में किसी अन्य रूप से संबंधित होता है। वित्त विधेयक अनुच्छेद 110 में उल्लिखित किसी विषय के साथ-साथ अन्य विषयों से भी संबंधित होता है। प्रत्येक धन विधेयक वित्त विधेयक होता है, परंतु प्रत्येक वित्त विधेयक, धन विधेयक नहीं होता।
Question : भारत के मानव अधिकार आयोग के कार्य क्या हैं?
(1996)
Answer : मानव अधिकार आयोग मानवाधिकारों से संबंधित कानूनों और संधियों को प्रभावी ढंग से लागू करने के लिए सिफारिशें करता है। आयोग सभ्य समाज के सभी वर्गों में मानवाधिकारों के प्रति जागरूकता बढ़ाने का प्रयास करता है। किसी भी प्रकार के मानवाधिकारों के उल्लंघन पर आयोग जांच भी करता है।
Question : संसदीय और राष्ट्रपतिमूलक शासन प्रणालियों का भेद स्पष्ट कीजिए। क्या आपके विचार से शासन को राष्ट्रपतिमूलक प्रणाली में बदलने से बेहतर शासन प्राप्त हो सकेगा? अपने उत्तर की पुष्टि कीजिए।
(1995)
Answer : संसदीय मूलकसंसदीय मूलक शासन प्रणाली में दो प्रकार की प्रभुसत्ता होती है- नाममात्र की प्रभुसत्ता और वास्तविक प्रभुसत्ता। संसदीय मूलक शासन प्रणाली में सैद्धान्तिक रूप से समस्त कार्यपालिका शक्ति नाममात्र के राज्याध्यक्ष (राष्ट्रपति) में निहित रहती है, किन्तु यथार्थ में कार्यपालिका की समस्त सत्ता मंत्रिपरिषद में ही निहित होती है और वास्तविक रूप से शासन की समस्त शक्तियों का प्रयोग वही करती है। मंत्रिमण्डल सामूहिक रूप से संसद के प्रति उत्तरदायी होता है। प्रधानमंत्री तथा उनके मंत्री उसी समय तक अपने पद पर कार्य करते हैं, जब तक कि उन्हें सदन में बहुमत का विश्वास प्राप्त हो।
दूसरी तरफ, राष्ट्रपतिमूलक शासन प्रणाली में समस्त कार्यपालिका शक्ति सैद्धान्तिक और वास्तविक रूप से राष्ट्रपति में निहित होती है। राष्ट्रपति का चुनाव जनता द्वारा प्रत्यक्ष अथवा अप्रत्यक्ष रूप से एक निश्चित अवधि के लिए किया जाता है। इसलिए वह और उसका मंत्रिमंडल विधायिका के प्रति उत्तरदायी नहीं होता है। मंत्रिमण्डल पूर्णरूपेण राष्ट्रपति के प्रति उत्तरदायी होता है। इस शासन प्रणाली में कार्यपालिका तथा विधायिका के बीच शक्तियों का स्पष्ट विभाजन होता है।
विगत वर्षों में भारत में बहुदलीय प्रणाली के अंतर्गत किसी भी एक दल को सदन में स्पष्ट बहुमत प्राप्त नहीं हो पाने के कारण मिली-जुली सरकारों का गठन हुआ, जो अपना कार्यकाल कभी भी पूरा नहीं कर पायी हैं। दलबदल एवं सांसदों तथा विधायकों की खरीद-फरोख्त के वातावरण में अपनी सरकार को बचाये रखने के लिए सत्तासीन राजनीतिक दलों ने जो हथकण्डे अपनाये, उससे देश में राजनीतिक अस्थिरता बढ़ी तथा देश का विकास अवरूद्ध हुआ। ऐसी स्थिति में, अगर यहां संसदीय प्रणाली की जगह पर राष्ट्रपतिमूलक शासन प्रणाली अपना ली जाए, तो उपर्युक्त दोषों को दूर किया जा सकता है, क्योंकि राष्ट्रपतिमूलक शासन प्रणाली में निम्नलिखित विशेषताएं होती हैं-
अध्यक्षात्मक या राष्ट्रपतिमूलक शासन प्रणाली सफलतापूर्वक संयुक्त राज्य अमेरिका में कार्य कर रही है। वहां की कार्यपालिका की कार्य करने की पद्धति को देख कर उपर्युक्त सुझावों का मूल्यांकन किया जा सकता है। वैसे यह भी एक तथ्य है कि किसी भी पद्धति के शासन प्रणाली के क्रियान्वयन के लिए वह शासन प्रणाली नहीं, बल्कि उन व्यक्तियों के कार्य करने के तरीके अधिक महत्वपूर्ण होते हैं, जो इस प्रणाली के तहत कार्य करते हैं।
Question : प्राक्कलन समिति के कृत्यों को स्पष्ट कीजिए।
(1995)
Answer : लोकसभा द्वारा प्रतिवर्ष आनुपातिक प्रतिनिधित्व की एकल संक्रमणीय पद्धति द्वारा निर्वाचित 30 सदस्यों वाली प्राक्कलन समिति के प्रमुख कृत्य निम्नलिखित हैं-
साथ ही, प्राक्कलन समिति उन सभी प्राक्कलनों का परीक्षण करती है, जिन्हें वह ऐसा करना आवश्यक समझती है या जो उसे विशेष तौर पर सदन अथवा लोकसभा के अध्यक्ष (स्पीकर) द्वारा परीक्षण करने के लिए सौंपे जाते हैं। लोकसभा के नियमों के अन्तर्गत अथवा स्पीकर द्वारा सार्वजनिक उपक्रम समिति को आवंटित सार्वजनिक उपक्रम प्राक्कलन समिति के क्षेत्रधिकार में नहीं आते हैं। सामान्य तौर पर प्राक्कलन समिति संसद की नीतियों के विरूद्ध नहीं जाती, लेकिन जहां साक्ष्यों के आधार पर यह प्रमाणित हो जाए कि कोई नीति वांछित परिणाम प्राप्त नहीं कर पा रही है या जिस पर किया जाने वाला व्यय व्यर्थ है, तो यह समिति ऐसी नीतियों को बदलने के लिए नयी नीतियों को सदन की जानकारी में ला सकती है। इस तरह यह कहा जा सकता है कि प्राक्कलन समिति के कृत्य संसदीय व्यवस्था के लिए काफी महत्वपूर्ण हैं।
Question : राज्यपरिषद (राज्यसभा) के गैर-परिसंघीय लक्षणों का वर्णन कीजिए।
(1995)
Answer : सामान्य तौर पर संघात्मक शासन व्यवस्था में द्वितीय सदन का गठन संघात्मक अर्थात राज्यों की समानता के सिद्धान्त के आधार पर किया जाता है। लेकिन भारत में राज्यपरिषद का गठन अमेरिका की सीनेट या आस्ट्रेलियाई संघ के द्वितीय सदन के समान संघात्मक सिद्धांत के आधार पर नहीं किया गया है। भारत के राज्यपरिषद (राज्यसभा) में सभी राज्यों को समान प्रतिनिधत्व प्राप्त नहीं है, बल्कि प्रत्येक राज्य से जनसंख्या के अनुपात में सदस्य चुन कर राज्यसभा में आते हैं। राज्यसभा का गठन दलगत आधार पर होता है तथा इसके सदस्य दलगत आधार पर ही कार्य करते हैं। सैद्धांतिक आधार पर यह माना जाता है कि राज्यसभा में जो सदस्य जिस राज्य से चुन कर आये हैं, वे उसी राज्य के निवासी हों, लेकिन व्यावहारिक रूप में ऐसा नहीं हो पाता है। विभिन्न राजनीतिक दलों ने अपने प्रभावशाली नेताओं को उन राज्यों से निर्वाचित कराकर राज्यसभा में भेजा है, जहां के वे निवासी नहीं हैं।
Question : दल परिवर्तन विरोधी विधि के प्रमुख लक्षणों का वर्णन कीजिए।
(1995)
Answer : भारत के संविधान के 52वें संशोधन द्वारा 1 मार्च, 1985 से अनुच्छेद 102(2) तथा अनुच्छेद 191(2) के अधीन दसवीं अनुसूची में दल परिवर्तन निरोधी विधि को जोड़ा गया। इसके प्रमुख प्रावधान निम्नलिखित हैं-
दलबदल जैसी समस्या को रोकने के लिए यह विधेयक पारित किया गया था। इस विधेयक ने बड़े दलों को तो दलबदल की आशंका से मुक्त कर दिया है, परंतु छोटे-छोटे दलों के विभाजन प्रक्रिया को और अधिक तीव्र कर दिया है। इस विधेयक का लाभ छोटे दलों को तो नहीं ही मिला है, लेकिन उन पर इसका प्रतिकूल असर जरूर पड़ा है।
Question : वित्तीय आपात की परिभाषा दीजिए। अब तक इसकी उद्घोषणा कितनी बार हो चुकी है?
(1995)
Answer : यदि कभी राष्ट्रपति को यह समाधान हो जाये कि भारत या राज्य क्षेत्र के किसी भाग का वित्तीय स्थायित्व संकट में है, तो वह वित्तीय आपात की उद्घोषणा कर सकता है। इस दौरान अनुच्छेद 20 तथा अनुच्छेद 21 को छोड़ कर शेष सभी मौलिक अधिकार निलंबित रहते हैं। वित्तीय आपात के दौरान राष्ट्रपति को केंद्र एवं राज्यों के बीच संसाधनों के बंटवारे से संबंधित संवैधानिक प्रावधानों को संशोधित करने का अधिकार है। इनके वेतन आदि में कमी करने का अधिकार भी राष्ट्रपति को है। इस दौरान सर्वोच्च न्यायालय व उच्च न्यायालयों के न्यायाधीशों के वेतन भी कम किये जा सकते हैं। भारत में वित्तीय आपात की घोषणा अभी तक नहीं हुई है।
Question : मौलिक अधिकार के रूप में संपत्ति के अधिकार की वर्तमान स्थिति क्या है?
(1995)
Answer : संविधान के 44वें संशोधन द्वारा संपत्ति के मौलिक अधिकार को सामान्य विधिक अधिकार बना दिया गया। पहले अनुच्छेद 19(1)च तथा 31 के अंतर्गत यह मौलिक अधिकार था। अब अध्याय-4 में अनुच्छेद 300 क के अंतर्गत यह मात्र एक विधिक अधिकार है।
Question : अनुच्छेद 32 को संविधान का आधार स्तंभ क्यों माना जाता है?
(1995)
Answer : संविधान के अनुच्छेद 32 को संविधान का आधारस्तम्भ माना जाता है, क्योंकि इसमें संविधान प्रदत्त मौलिक अधिकारों के उपचार की गारंटी दी गई है। साथ ही, यह मौलिक अधिकार भी है। इसलिए न्यायालय इन अधिकारों के उल्लंघन के विरूद्ध संरक्षण प्राप्त करने के लिए दिये गये आवेदनों को ग्रहण करने से इनकार नहीं कर सकता है।
Question : द्विसदनी विधानमण्डल क्या होता है? हमारे देश के उन राज्यों का उल्लेख कीजिए, जिनमें द्विसदनीय विधानमण्डल हैं।
(1995)
Answer : जब किसी राज्य की विधायिका के दो सदन-विधानसभा तथा विधानपरिषद होते हैं, तो ऐसी विधानमण्डल को द्विसदनीय विधानमण्डल कहा जाता है। इस व्यवस्था में विधानसभा के सदस्यों का चुनाव जनता द्वारा सीधे निर्वाचन करके किया जाता है, जबकि विधानपरिषद के कुछ सदस्य अप्रत्यक्ष रूप से आनुपातिक प्रतिनिधित्व की एकल संक्रमणीय मत प्रणाली द्वारा तथा कुछ सदस्य राज्यपाल द्वारा मनोनीत होते हैं। भारत के बिहार, जम्मू-कश्मीर, कर्नाटक, उत्तर प्रदेश तथा महाराष्ट्र में द्विसदनीय विधानमण्डल हैं। संसद किसी राज्य की विधानसभा द्वारा पारित प्रस्ताव के अंतर्गत किसी राज्य में विधानपरिषद को समाप्त या उसके निर्माण की अनुमति प्रदान कर सकती है।
Question : अनुच्छेद 331 का विषय क्षेत्र स्पष्ट कीजिए।
(1995)
Answer : अनुच्छेद 331 के अंतर्गत लोकसभा में एंग्लो इंडियन समुदाय के सदस्य के निर्वाचित नहीं हो पाने की दशा में राष्ट्रपति इस समुदाय के दो व्यक्तियों को लोकसभा के लिए मनोनीत कर सकते हैं।
Question : ‘राज्य मंत्री’ कहे जाने वाले मंत्रियों का स्तर स्पष्ट कीजिए।
(1995)
Answer : राज्य राज्य मंत्री मंत्रिमण्डल स्तर से नीचे के स्तर का मंत्री होता है। इसे स्वतंत्र प्रभाव भी दिया जा सकता है। यह मंत्रिमण्डल की बैठकों में तभी उपस्थित होता है, जब उसे आमंत्रित किया जाता है। स्वतंत्र प्रभार के राज्य मंत्री के विभाग से संबंधित विषय परजब मंत्रिमण्डल विचार करता है, तभी उसे निमंत्रण दिया जाता है।