Question : शिक्षा में असमानता।
(2005)
Answer : यद्यपि यह एक तथ्य है कि सभी मनुष्य योग्यता और दक्षता में समान नहीं हैं और ऐसे समाज की कल्पना करना भी अविवेकपूर्ण और आदर्शहीन होगा जो अपने सभी सदस्यों को एक समान स्थिति और लाभ प्रदान कर सके। फिर भी उनके उद्देश्यों और आकांक्षाओं की प्राप्ति के लिए सभी लोगों को समान अवसर प्रदान करना आवश्यक है। अतः इस समाज का प्रयत्न, जो अवसरों की समानता के लिए कटिबद्ध है, अधिकतर सेवाएं प्रदान करने का रूप ले लेता है जो समाजीकृत सामुदायिक सेवाओं और शैक्षिक सुविधाएं प्रदान करके आर्थिक पृष्ठभूमि में असमानता की क्षतिपूर्ति करता है। वास्तव में, इस प्रकार की सुविधाएं पर्याप्त रूप से व सबको प्रदान करने के मार्ग में कठिनाइयां हैं। भारत जैसे समाज के लिए यह लगभग असम्भव है कि इन सभी को मुफ्रत शिक्षा प्रदान की जाये जो इससे लाभन्वित होना चाहते हैं। सिवाय चयनित अवस्थाओं के, या यों कहिए प्राथमिक स्तर तक या जरूरतमन्द और योग्य बच्चों को। इससे पुनः अवसरों की असमानता का उदय होता है। यहां केवल जरूरतमंद लोगों के बच्चे शिक्षा प्राप्त कर सकते हैं, यदि वे योग्य हों। वहीं सम्पन्न लोगों के बच्चे तभी तक स्कूल जा सकते हैं जब तक वे शुल्क देते रहे हैं।
शिक्षा में असमानता इस तथ्य से पता चलता है कि एक अध्ययन 1967 में आठ राज्यों में हुआ था, जो कि विभिन्न स्तरों पर हाईस्कूलों, कालेजों और व्यावसायिक संस्थाओं में अध्ययनरत छात्रों की सामाजिक पृष्ठभूमि (आयु, लिंग, जाति, पिता के व्यवसाय, पिता की शिक्षा आदि) पर आधारित था। इस अध्ययन ने सम्भावित विचारणीय तथ्य उजागर किए- (1) शिक्षा श्वेतवसन समूह में प्राथमिकता प्राप्त होती है और इस समूह के बालक शिक्षा सुविधाओं का प्रयोग अन्य समूहों के बालकों से अधिक करते हैं (2) उन लोगों को जो श्वेतवसन समूह के नहीं है, शिक्षा विभेदों से उपलब्ध है।
शिक्षा में असमानताओं के वर्णनों पर कुछ अध्ययन किए गए हैं, जैसा कि क्षेत्रीय, ग्रामीण-नगरीय, लिंग और जातिगत असमानताओं स्कूल और कॉलेजों में प्रवेश में असंतुलनों और असमानताओं के परिणामों से सिद्ध होता है। इन सभी अध्ययनों ने लाभों से वंचित लोगों के स्तर और पहचान पर शिक्षा के प्रभाव को इंगित किया है। अनुसूचित जातियों और जनजातियों पर किए गए अध्ययनों से संकेत मिलता है कि जब तक ये लोग शैक्षिक रूप से पिछड़े रहेंगे, तब तक उन्हें आर्थिक मदद या उच्च शिक्षण संस्थानों में आरक्षित प्रवेश के रूप में संरक्षणात्मक भेद-भाव प्रदान करता है। इस प्रकार का एक अध्ययन आई.जी. देसाई के निर्देशन में 1974 में भारतीय सामाजिक विज्ञान अनुसंधान परिषद (ICSSR) द्वारा प्रायोजित किया गया था। इस अध्ययन में 14 राज्य शामिल थे औरइसका उद्देश्य था देश में अनुसूचित जातियों और जनजातियों के स्कूल और कालेज के छात्रों की स्थिति और उनकी समस्याओं का अध्ययन। इस अध्ययन में यह संकेत मिला कि दलित छात्र अध्ययन के प्रति उदासीन होते हैं और अशिक्षा असमानता में वृद्धि करती है तथा व्यावसायिक व सामाजिक गतिशीलता को रोकती है। सुमा चिटनिस ने भी बम्बई नगर में उच्च शिक्षा कालेज छात्रों के प्रवेश में असमानताओं तथा उनके द्वारा भोगी गई समस्याओं की जांच की थी। विक्टर डिसूजा ने भी पंजाब में दलितों और अन्य के बीच शिक्षा में भेद-भाव के स्वरूप और जातिप्रथा, जाति व्यवहार, आर्थिक कारक और कल्याण कार्यक्रमों का स्वरूप और कार्यविधि किस प्रकार इन स्वरूपों को प्रभावित करते हैं, का पता लगाया। एम.एल. झा ने भी आदिवासियों की शिक्षा और उसमें भेद-भाव का अध्ययन किया। वी.पी. साह ने गुजरात में शिक्षा और अस्पृश्यता के बीच सम्बन्ध को इंगित किया है।
Question : समकालीन भारतीय समाज में परिवर्तन की विरोधाभासी प्रकृति की विवेचना कीजिए। इसके लिए उत्तरदायी कारकों की व्याख्या कीजिए।
(2005)
Answer : बीसवीं शताब्दी के पूर्वार्द्ध तक भारतीय समाज को परम्परागत समाज समझा जाता था यद्यपि ब्रिटिश सरकार ने हमारे देश को औद्योगिक बनाने का प्रयत्न किया और अनेक सामाजिक व आर्थिक परिवर्तन लाने की भी कोशिश की, लेकिन लोगों के जीवन के गुणात्मक सुधार करने और जीवन स्तर उठाने में उनकी रूचि नहीं थी। योगेन्द्र सिंह तथा एस.सी. दुबे जैसे विद्वानों का मत है कि दोनों का सह-अस्तित्व हो सकता है। परम्परावाद को स्वीकारने का यह अर्थ यह नहीं है कि आधुनिकता को अस्वीकार कर दिया जाता है। इसका सरल सा अर्थ है आधुनिकता की शक्तियों पर नियंत्रण। इसी प्रकार आधुनिकता को स्वीकार करने का यह अर्थ नहीं है कि परम्परावाद को पूर्णरूपेण अस्वीकार कर दिया जाये। इसका अर्थ है कि परम्परावाद के केवल उन तत्वों को रखा जाये जिनको समाज द्वारा प्रकार्यात्मक माना जाये। इस दृष्टिकोण के आधार पर हमें यह पता लगाना है कि किस सीमा तक भारतीय समाज परम्परागत और किस सीमा तक यह आधुनिक हो गया है।
यह कहना गलत न होगा कि भारत में सामाजिक परिवर्तन की प्रकृति की ऐसी है कि इसमे आधुनिक व परम्परा का स्पष्ट समन्वय दिखाई देता है। एक ओर तो हमने उन विश्वासों, प्रथाओं और संस्थाओं की अपेक्षा की है जिसकी आवश्यकता अनुभव नहीं की गई, तो दूसरी ओर हमने उन मूल्यों को अपनाया है जिनको हमने अपने मौलिक उद्देश्यों की प्राप्ति में सहायक माना है। परंतु इस सच्चाई से इनकार नहीं किया जा सकता है कि हमारे समाज में आन्दोलन बढ़ गये हैं और सामाजिक असंतोष फैल गया है।
विद्यमान वृहद असंतोष हमारे समाज में अनेक बढ़ते हुए विरोधाभासों का परिणाम है। कुछ विरोधामास इस प्रकार हैं- हमारी भूमिकाएं तो आधुनिक हो गई हैं किन्तु हमारे मूल्य अभी भी परम्परागत हैं, हम समतावाद दर्शाते हैं किन्तु हम भेद-भाव का व्यवहार करते हैं। हमारी आकांक्षाएं बहुत ऊंची तो हो गई हैं किन्तु उनकी प्राप्ति के साधन या तो उपलब्ध नहीं है या पहुंच से बाहर हैं। हम राष्ट्रवाद की बात तो करते हैं लेकिन हम क्षेत्रवाद को प्रोत्साहन देते हैं। हम दावा करते हैं कि हमारा गणतंत्र समानता लाने के लिए समर्पित है। किन्तु यह जाति व्यवस्था के शिकंजे में जकड़ा हुआ है, हम तर्कशील होने का दावा करते हैं, किन्तु हम अन्याय व पक्षपात को भी भाग्यवादी भावना से स्वीकार करते हैं। हम उदारीकरण की नीति की घोषणा करते हैं, फिर भी अनेक नियंत्रण लागू करते हैं, हम व्यक्तिवाद का समर्थन करते हैं लेकिन हम समूहवाद को लागू करते हैं। हम आदर्शवादी संस्कृति का उद्देश्य बनाते हैं लेकिन हम भौतिक संस्कृति के पक्षधर हैं। हम आदर्शवादी संस्कृति का उद्देश्य बनाते हैं लेकिन हम भौतिक संस्कृति के पक्षधर हैं। अनेक नये कानून लागू किए जाते रहे हैं, लेकिन ये कानून किसी को लाभ नहीं पहुंचाते, केवल वकील ही उससे लाभान्वित होते हैं। विधान अनेक हैं किन्तु न्याय बहुत कम, कार्यक्रम व सरकारी कर्मचारी अनेक हैं किन्तु जन सेवा कम, अनेक योजनाएं हैं किन्तु कल्याण कम, सरकारी क्षेत्र कम, सरकारी तंत्र अधिक हैं तथा प्रशासन कम है।
इन सभी विरोधामासों का परिणाम यह है कि हमारे समाज में असंतोष बढ़ता जा रहा है। भ्रष्टतंत्र तथा अप्रतिबद्ध राजनैतिक अभिजात वर्ग तथा उप अभिजन जो अपने निजी स्वार्थों में रूचि लेते हैं जिन्हें देश के भविष्य की कोई चिन्ता नहीं होती, उन्होंने विकास का विरोध किया, निहित स्वार्थों, समूहों, आर्थिक एकाधिकारियों और धर्मान्ध धार्मिक नेताओं तथा निष्क्रिय अधिकारियों आदि ने भी जमकर विरोध किया, क्योंकि वे अपनी अपार शक्ति को कम होते नहीं देख सकते थे।
समकालीन भारतीय समाज में परिवर्तन की विरोधामासी प्रकृति एवं उसके उत्तरदायी कारकों का विश्लेषण निम्नलिखित बिन्दुओं के अंतर्गत किया जा सकता हैः
निष्कर्ष रूप में कहा जा सकता है कि जहां तक भारत में सामाजिक परिवर्तन की दिशा का प्रश्न है, सांस्कृतिक निरुत्तरता प्रचुर मात्र में रही है। साथ ही आधुनिक मूल्यों, प्रथाओं तथा संस्थाओं में परिवर्तन भी आया है। परम्परात्मक स्वरूप स्थिर नहीं रहा है तथा आधुनिक व्यवहार सामान्यतः लम्बी अवधि तक चलते रहने के कारण कार्य प्रणाली में ही समाविष्ट हो गया है।
Question : शिक्षा एवं सामाजिक गतिशीलता।
(2001)
Answer : शिक्षा एवं सामाजिक गतिशीलता में सीधा संबंध है। शिक्षा ही एक ऐसा सशक्त माध्यम है जिसके द्वारा सामाजिक गतिशीलता की गति को त्वरित किया जा सकता है। शिक्षा के फलस्वरूप व्यक्तियों में स्वयं की चेतना के साथ-साथ ज्ञान एवं समाज में अर्जित प्रस्थिति प्राप्त करता है जो वास्तव में सामाजिक गतिशीलता का द्योतक है।
सामाजिक गतिशीलता दोनों प्रकार की हो सकती है- सामाजिक एवं व्यावसायिक। सामाजिक गतिशीलता के अंतर्गत हम उदग्र एवं समस्तरीय दोनों प्रकार की गतिशीलता हो सकती है। साथ ही यह गतिशीलता अंतःपीढ़ीय एवं अन्तरा पीढ़ीय दोनों हो सकती है। परंतु शिक्षा के फलस्वरूप हम देखते हैं कि इससे अंतःपीढ़ीय गतिशीलता के साथ-साथ व्यावसायिक गतिशीलता आयी है।
अगर हम भारतीय समाज की बात करें तो आज के मध्यम वर्ग इसी शिक्षा के सामाजिक गतिशीलता का परिणाम है। शिक्षा के फलस्वरूप ही ‘नयी मध्यम वर्ग’ की भी उत्पत्ति हुई है। नन्दू राम ने यह स्पष्ट किया है कि अनुसूचित जाति के एक निश्चित समूह जो शिक्षा के कारण उच्च प्रस्थिति को प्राप्त कर लेते हैं, वो फिर अपने जाति को पुनः पीछे मुड़कर भी नहीं देखते हैं और इसी को उन्होंने ‘नयी मध्यम वर्ग’ कहा है। जनजातियों के बारे में भी बहुत अध्ययन हो चुका है जिसमें सर्वप्रमुख बात निकलकर यह सामने आती है कि शिक्षा आदिवासीय क्षेत्रों में अभूतपूर्व योगदान दिया है जिसके कारण भारत के सभी क्षेत्र में जनजातीय चाहे वो झारखंडका हो या उत्तर-पूर्व के, सभी लोगों के बीच व्यावसायिक गतिशीलता का एक अभूतपूर्व उदाहरण प्रस्तुत करता है।
साथ ही इस बात से भी इन्कार नहीं किया जा सकता है कि अनुसूचित जातियों एवं जनजातियों को शिक्षा के सभी क्षेत्रों में आरक्षण मिलने के फलस्वरूप इन लोगों के बीच एक सामाजिक चेतना का संचार हुआ एवं जिसके कारण इससे प्रस्थिति में काफी सुधार हुआ है। यहां तक कि शिक्षा ने इन लोगों के बीच राजनैतिक चेतना का भी संचार किया है, जिसके फलस्वरूप ये लोग राजनीतिक स्तर पर कई संगठनों का निर्माण कर सभी क्षेत्र मे एक दबदबा सा बनाये हुए है।
Question : सामाजिक न्याय।
(1999)
Answer : एक सावयवी रूप में संगठित समाज के निर्माण के लिए व्यक्तियों का तर्क संगत सहयोग, ताकि प्रत्येक व्यक्ति को अपनी योग्यताओं के अनुसार फलने-फूलने तथा जीवन को सही ढंग से जीने की कला सीखने के समान तथा वास्तविक अवसर प्राप्त हो सके, सामाजिक न्याय कहलाती है। सामाजिक न्याय प्रजातंत्र की एक आवश्यक शर्त है।
सामाजिक न्याय का अर्थ सामान्यतः यह लगाया जाता है कि समाज के सामाजिक तथा आर्थिक दृष्टि से वंचित खण्डों या वर्गों को न्याय मिले। इसका तात्पर्य यह है कि वंचित लोगों को सामाजिक और आर्थिक अधिकार प्राप्त हों। इस लक्ष्य को भारतीय संविधान में संरक्षी विभेदीकरण संबंधी प्रावधानों के रूप में समाहित किया गया है मंडल आयोग के 27 प्रतिशत पदों के अन्य पिछड़े वर्गों के लिए आरक्षण संबंधी सिफारिश के परिणामस्वरूप अनुसूचित जातियों, जनजातियों आदि के आरक्षण के प्रतिशत को मिलाकर यह 50 प्रतिशत पहुंच गया है। अब ऐसा माना जाने लगा है कि अन्य पिछड़े वर्गों, अनुसूचित जातियों एवं अनुसूचित जनजातियों के हाथों में आर्थिक और राजनीतिक शक्ति आती जा रही हैं।
संविधान के अनुच्छेद 15 के अनुसार यह गारन्टी दी गई है कि राज्य केवल धर्म, प्रजाति, जाति, लिंग या जन्म-स्थान के आधार पर कोई भेद-भाव नहीं बरतेगा तथा सार्वजनिक नौकरियों के मामले में अवसर की समानता रहेगी। अनुच्छेद 16 में कहा गया है कि (क) राज्य के अंतर्गत नौकरी या किसी पद पर नियुक्ति के मामले में सभी नागरिकों के लिए अवसर की समानता रहेगी। (ख) कोई भी नागरिक धर्म, प्रजाति, जाति, लिंग, वंश, जन्म-स्थान या इनमें से किसी एक के आधार पर राज्य के अंतर्गत किसी पद के लिए अयोग्य नहीं माना जाएगा।