Question : आत्म-सम्मान आन्दोलन।
(2005)
Answer : पेरियार ई.वी. रामास्वामी ने 1925 में आत्मसम्मान आंदोलन की शुरूआत की थी। यह आंदोलन मूलतः सामाजिक सुधार आंदोलन के कोटि में रखा जाता है। यह आंदोलन गैर-ब्राह्मण तथा छुआछूत के विरूद्ध चलाये गये थे। इस आंदोलन की मूल बात यह थी कि इसमें ब्राह्मण की उच्चता की प्रवृत्ति को बहिष्कार कर गैर-ब्राह्मण को आत्मसम्मान दिलाना था।
इस आंदोलन का मुख्य उद्देश्य इस प्रकार हैं-
Question : निम्न जातियों में सामाजिक गतिशीलता की प्रक्रिया की व्याख्या कीजिए तथा इस प्रक्रिया को सुदृढ़ बनाने में पिछड़ी जाति आन्दोलन की भूमिका की विवेचना कीजिए।
(2005)
Answer : एम.एन. श्रीनिवास ने कहा है कि जब परम्परात्मक भारतीय समाज स्थिर लक्षण वाला था, फिर भी इसने स्थानीय श्रेणी क्रम में जातियों की उर्धवोन्मुखी और अधोन्मुखी गतिशीलता को नहीं रोका। सुरजीत सिन्हा ने भी संकेत किया है कि कई कबीले विजय तथा शक्ति प्राप्ति के बल पर श्रत्तियता का दावा करके शादी स्थिति तक पहुंच गए।
सिलवर वर्ग ने विराग के माध्यम से भारत में सामाजिक गतिशीलता की चर्चा की है। आश्रमों की योजना से संन्यास व विराग द्विजों के लिए निर्धारित था। व्यवहार में निम्न जाति के सदस्य भी सामाजिक श्रेणी में अपने स्थान की वंचनाओं से बचने के लिए संन्यासी हो जाया करते हैं।
हाल में ही एक प्रक्रिया के रूप में सामाजिक गतिशीलता अधिक सक्रिय हो गई है। एम.एन. श्रीनिवास ने संस्कृतिकरण, पश्चिमीकरण के माध्यम से इसकी व्याख्या की है। मैकिम मेरियट, ड्यूमान्ट और रजनी कोठारी ने भी सामाजिक गतिशीलता को विभिन्न स्तरों पर देखा। एक ओर तो निम्न जातियों के सदस्य जाति श्रेणीक्रम में अपनी सामाजिक प्रस्थिति को उठाने का प्रयत्न करते हैं, दूसरी ओर, जाति एक समूह के रूप में राजनैतिक शक्ति द्वारा या जातियों के राजनैतिकरण की प्रक्रिया के माध्यम से गतिशीलता प्राप्त करने का प्रयत्न करती है।
संस्कृतिकरण और पश्चिमीकरण की प्रक्रिया के माध्यम से जाति गतिशीलताः ब्राह्मण, मुस्लिम और ब्रिटिश काल में जाति प्रथा इतनी कठोर हो गई थी कि आनुवंशिक सदस्यता, अन्तर्विवाद, व्यावसायिक गतिशीलता से इनकार तथा और सामाजिक प्रतिबन्धों के माध्यम से सदस्यों को हमेशा एक निश्चित प्रस्थिति का लाभ मिलता रहा। परन्तु उन्नीसवीं शताब्दी के तीसरे दशक से आगे जाति प्रथा कठोर नहीं रह सकी, क्योंकि औद्योगीकरण, नगरीकरण, शिक्षा का प्रसार, कुछ वैधानिक उपायों का क्रियान्वयन और अनेक समाज सुधारकों के सामाजिक आन्दोलनों की प्रक्रियाएं प्रारंभ हो चुकी थीं। एम.एन. श्रीनिवास ने 1952 में संस्कृतिकरण और नगरीकरण प्रक्रिया के माध्यम से जातियों में प्रस्थिति गतिशीलता को समझाया है। उसका मानना था कि एक निम्न जाति शाकाहार बन कर और मद्यनिषेध अपना कर एक दो पीढ़ी में श्रेणीक्रम में उच्च स्थिति तक पहुंचने में समर्थ होती थी। ऐसी जातियां ब्राह्मणों के संस्कार, रीति-रिवाज और विश्वास अपना लेती थीं और अपने अशुद्ध समझे जाने वाले संस्कारों को त्याग देती थीं।
संस्कृतिकरण की प्रक्रिया में कुछ उल्लेखनीय तथ्य इस प्रकार हैं-
संस्कृतिकरण को सम्भव बनाने वाले कारक हैं- औद्योगीकरण, व्यावसायिक गतिशीलता, संचार के विकसित साधन, शिक्षा का प्रसार, पश्चिमी प्रौद्योगिकी और निम्न जातियों में मलिन पेशे त्यागने की जागृति स्वयं श्रीनिवास के अनुसार संस्कृतिकरण के विस्तार में प्रमुख सहायक कारक है। मंत्रेच्चारण के साथ से कर्मकाण्डी कार्यों का अलग होना, जिसने ब्राह्मण संस्कारों के प्रसार को सुविधाजनक बनाया।
संस्कृतिकरण के साथ ही, पश्चिमीकरण की प्रक्रिया ने भी सामाजिक गतिशीलता को सम्भव बनाया है। पश्चिमीकरण, गैर पश्चिमी समाज की विचारधारा, मूल्यों, संस्थाओं और प्रौद्योगिकी मे परिवर्तन की प्रक्रिया है जो लम्बे समय तक पश्चिमी समाज के साथ सांस्कृतिक सम्पर्कों का परिणाम है। पश्चिमीकरण की प्रमुख विशेषता यह है कि इसमें प्रौद्योगिकी और तर्कसंगतता पर जोर दिया है। डेनियल लारन, हैरोल्ड गूल्ड, मिलटन सिंगर और योगन्द्र सिंह जैसे विद्वान पश्चिमीकरण की अपेक्षा आधुनिकीकरण को वरीयता देते हैं। लेकिन श्रीनिवास इस शब्द ‘आधुनिकीकरण’ को ‘वस्तुपरक’ मानता है।
पिछड़ी जाति आन्दोलनः परम्परागत भारतीय समाज में उच्च जातियों का प्रभुत्व था। पिछड़े वर्गों ने राज्यों में राजनैतिक सत्ता और सामाजिक, आर्थिक प्रभुत्व प्राप्त करने का प्रयत्न किया। पिछड़ी जातियों के नेताओं ने ‘जाति’ को पिछड़ेपन के निर्धारण का आधार स्वीकार करने पर बल दिया। स्वतंत्रता पूर्व भारत में पिछड़े वर्गों के महत्वपूर्ण आंदोलन थे- (1) बंबई प्रदेश में ज्योति राव फुले का आंदोलन और (2) मद्रास में ब्राह्मण विरोधी नाडार आंदोलन।
ज्योति-राव फुले ने 1873 में सत्यशोधक समाज की स्थापना की। समाज का नेतृत्व माली, कुनबी और सती आदि पिछड़े वर्गों के हाथों में था। फुले स्वयं माली थे। उनके आंदोलन के मुख्य उद्देश्य समाज सेवा और महिलाओं तथा निम्न जाति के लोगों में शिक्षा का प्रसार करना था, क्योंकि इस तरह के आंदोलन से ब्राह्मणों की सर्वोच्च स्थिति को आंच पहुंची, इसलिए उन्होंने इस आंदोलन का विरोध किया। फुले ने सांस्कृतिक हिन्दुवाद के विरूद्ध थे। एक मत यह भी है कि फुले सांस्कृतिक और सजातीय कारकों पर बल दिया और आर्थिक एवं राजनैतिक कारकों की अपेक्षा की। वास्तव में यह ब्राह्मण विरोधी आंदोलन था। यह एक प्रकार की ‘सांस्कृतिक क्रांति’ थी।
दक्षिण भारत में पिछड़ी जातियों का आंदोलन ब्राह्मण विरोधी था। ई.वी. रामास्वामी नायकर ब्राह्मण विरोधी आंदोलन के नेता थे। ‘द्रविड़ कड़गम’ का अर्थ द्रविडों के संगठन से है। द्रविड़ मुनेत्र कड़गम 1949 में सी-एन- अन्नादूराई द्वारा स्थापित की गई थी। 1970 में एम-जी- रामचन्द्रन ने अखिल भारतीय द्रविड़ मुनेत्र कड़गम की स्थापना की। इन दलों ने राजनीति में ब्राह्मण-विरोधी स्थिति अपनाई। केरल में श्री नारायण धर्म परिपालन आंदोलन सुधारवादी अधिक था, क्योंकि इसमें गैर ब्राह्मण नायर जाति के उत्थान पर बल दिया गया था। अतः पिछड़ी जातियों के आंदोलन में या तो ब्राह्मणवाद का विरोध था या सुधारवाद पर बल। पर इस आंदोलनों के ये दोनों ही मुख्य उद्देश्य रहे।
ब्राह्मणों की अन्य जातियों के उपर न केवल उच्चता ही रही है, पश्चिमी शिक्षा के प्रसार के परिणामस्वरूप ब्राह्मणों ने अधिक शक्ति और विशेषाधिकार भी अर्जित कर लिए। इससे ब्राह्मण अन्य जातियों विशेषकर जाति सोपान में मध्यम जातियों की ईर्ष्या के पात्र बने। ब्राह्मण संख्यात्मक दृष्टि से अल्पसंख्यक थे और आज भी हैं, ब्रिटिश शासक उन पर भरोसा नहीं करते थे, क्योंकि उन्होंने राष्ट्रीय आंदोलन की अगुवाई की। इन दो पहलुओं में पिछड़े वर्गों ने ब्राह्मणों के सामाजिक और राजनैतिक आधिपत्य को कमजोर करना आवश्यक समझा। पिछड़ी जातियों में से पाश्चात्य शिक्षा प्राप्त अभिजात ने ब्राह्मण विरोधी आंदोलन का नेतृत्व संभाला। वास्तव में पिछड़ी जातियों के आंदोलन द्वारा मध्यम जातियों में से शिक्षित युवकों की आकांक्षाओं और कुंठाओं की अनुभुति होती है।
निष्कर्ष के तौर पर यह कहा जा सकता है कि पिछड़ी जातियों के आंदोलन को दक्षिण भारत जितनी सफलता उत्तर भारत में नहीं मिली है। दक्षिण भारत की अपेक्षा उच्च जातियों ने उत्तर भारत में पिछड़ी जातियों के आंदोलन के विरूद्ध बहुत तीखी प्रतिक्रिया प्रकट की है। फिर भी इस तथ्य से इन्कार नहीं किया जा सकता है। पिछड़ी जाति आंदोलन निम्न जाति के लोगों के लिए सामाजिक गतिशीलता में अभूतपूर्व योगदान दिया है।
Question : भारत में विवाह-आयु पर सामाजिक-सांस्कृतिक कारकों के प्रभाव पर चर्चा कीजिए।
(2004)
Answer : भारत में विवाह की आयु पर वर्तमान समय में बदलती परिस्थितियों के फलस्वरूप निश्चित रूप से प्रभाव पड़ा है और यह प्रभाव मुख्यतः परंपरागत विवाह की संरचना पर पड़ा है जो कुछ वर्ष पहले बाल-विवाह के रूप में समाज में देखने को मिलता था। परंतु आधुनिकीकरण की प्रक्रिया, शिक्षा, औद्योगिकीकरण, शहरीकरण एवं सामाजिक, सांस्कृतिक, राजनैतिक चेतना ने विवाह की आयु में परिवर्तन कर बाल-विवाह की प्रवृत्ति को समाप्त करने में तो नहीं परंतु बहुत कम करने की कोशिश अवश्य की है। भारतीय समाज मूल रूप से एक धार्मिक एवं बहु-सांस्कृतिक समाज है और यह समाज इस्लामीकरण, इसाईकरण, संस्कृतिकरण, पश्चिमीकरण, औद्योगीकरण, आधुनिकीकरण के संपर्क में विभिन्न समय पर आयी एवं इसके सामाजिक-सांस्कृतिक स्वरूपों में परिवर्तन हुआ है। यहां पर हम मुख्यतः उन कारकों पर चर्चा करेंगे जिसने भारतीय समाज में विवाह की आयु पर प्रमुख प्रभाव डाले हैं, जो निम्नांकित हैः
अतः इस प्रकार से हम देखते हैं कि भारत में विवाह एवं परिवार की संरचनात्मक एवं प्रकार्यात्मक अवयवों एवं कारकों में परिवर्तन हो रहा है। बाल-विवाह के जगह पर विवाह की आयु में वृद्धि होकर लोग युवावस्था को विवाह का आधार बना रहे हैं। शिक्षा ने इसमें सबसे अधिक योगदान किया है। उच्चतर शिक्षा में यहां तक देखा गया है कि छात्र-छात्राओं की विवाह की आयु में विकसित देशों जैसी ही वृद्धि हो रही है। कभी भारतीय समाज में 14-15 वर्ष की आयु को विवाह की अधिकतम आयु माना जाता था परंतु आज की स्थिति ऐसी नहीं है। आज लोग अपनी आवश्यकता के विभिन्न पहलुओं का अध्ययन करने के पश्चात ही विवाह के लिए तैयार होते हैं। अतः वर्तमान भारतीय समाज आर्थिक आधार को अपना विस्तृत प्रायोगिक विषय-वस्तु बना रहा है। परंपरागत सामाजिक- सांस्कृतिकमूल्यों का ह्रास हो रहा है फिर भी जैसा कि हम जानते हैं कि अभी भी ग्रामीण भारत के बहुत क्षेत्रों में बाल-विवाह एवं निम्नतर आयु स्तर पर प्रयोग जारी है। इसे समाप्त करने हेतु बहुत से क्रियाकलाप प्रायोगिक स्तर पर करने की आवश्यकता है जिससे व्यक्तियों के बीच चेतना का संचार हो सके।
Question : दलित चेतना का अविर्भाव।
(2002)
Answer : दलित के लिए साइमन कमीशन ने अनुसूचित जाति नामक शब्द 1927 में प्रयोग किया। औपनिवेशिक काल में, अनुसूचित जातियों के लिए सामान्यतया ‘दलित वर्ग’ ‘बाह्य’ जातियां व ‘अस्पृश्य’ जैसी अभिव्यक्तियां प्रयुक्त हुई। गांधी जी ने इन्हें ‘हरिजन’ (ईश्वर के जन) की संज्ञा दी। परंतु 1935 में भारत सरकार अधिनियम के पास होने के उपरांत प्रायः इन्हें अनुसूचित जातियां ही कहा गया है। वास्तविक रूप में, दलित एक सामाजिक प्रस्थिति का शब्द है जब अनुसूचित जाति एक राजनैतिक शब्द है।
यह सही है कि पौराणिक काल से दलितों को उच्च जाति के लोगों द्वारा दबाया जाता है परंतु स्वतंत्रता के बाद दलित लोगों में आरक्षण नीति, शिक्षा एवं जागरूकता के फलस्वरूप इन लोगों में चेतना का अविर्भाव हुआ है। जैसा कि हम जानते हैं दलित सामाजिक, आर्थिक एवं राजनैतिक रूप से पिछड़ रहा है और इस पिछड़ेपन के पीछे सबसे प्रमुख कारण उच्च जातियों का आधिपत्य रहा है। स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद विभिन्न आंदोलनों का सूत्रपात हुआ जिसके फलस्वरूप दलित वर्ग में एक संगठित प्रयास किया। अगर हम सामाजिक तौर पर देखें तो श्री निवास की अवधारणा ‘संस्कृतिकरण ही नहीं’ सफल रही है बल्कि एल.मी. विद्यार्थी की अवधारणा ‘असंस्कृतिकरण’ भी समाज में देखने को मिला है और इन सबका कारण दलित चेतना का अविर्भाव होना है। सामाजिक तौर पर आज ऐसी स्थिति है कि कोई भी उच्च जाति के लोग दलित के साथ दुर्व्यवहार नहीं कर सकता है। आर्थिक क्षेत्र में भी दलितों का काफी विकास हुआ है। आरक्षण की नीति के फलस्वरूप इनकी प्रतिस्थितियों में काफी परिवर्तन आया है एवं वे सामाजिक-आर्थिक धरातल पर काफी उच्च स्थिति रखते हैं। जहां राजनैतिक चेतना का सवाल है, तो यह किसी से छुपा नहीं है कि दलित वर्ग के नेता राम विलास पासवान एक राष्ट्रीय नेता है। परंतु आज भी बहुत से अमानवीय घटनाएं दलित वर्ग के बीच घटित होती हैं। उदाहरण के तौर पर हाल ही में हरियाणा में एक गाय के लिए पांच दलितों की हत्या कहां तक जायज है परंतु इसके प्रतिक्रिया में एक आंदोलन चल पड़ा है।
उपरोक्त तथ्यों के बावजूद आज दलित वर्ग के कुछ हिस्सा ही जागरूक हो पाये हैं। इसका कारण यह है कि सरकार द्वारा दिए गये सभी प्रावधान, आवरक्षा व सुरक्षा सिर्फ दलित उच्च वर्गों तक ही सीमित भर रह गया है। अभी भी गांव में दलितों की स्थिति उसी प्रकार बनी हुई है जैसा बहुत वर्षों पहले था। अतः आज दलित के सभी वर्गों के बीच चेतना फैलाने की आवश्यकता है जिससे एक मजबूत भारत का निर्माण हो सके।
Question : नक्सलबाड़ी आंदोलन के वैचारिक और रणनीतिक अभिलक्षणों का विश्लेषण कीजिए।
(2002)
Answer : उत्तर बंगाल के दार्जलिंग जिले के नक्सलबाड़ी क्षेत्र में पचासवीं दशक से कम्युनिस्टों ने संथाल, उरांव एवं राजवंशी जनजाति लोग जो प्रकृति से sharecroppers एवं चायइस्टेट में लेबर के बीच एक सामाजिक आंदोलन शुरू किया। इस आंदोलन में किसान तथा कृषक मजदूरों ने उन लोगों के विरुद्ध हिंसात्मक संघर्ष किया, जिन्हें वे अपना शोषक मानते थे। यह आंदोलन 1965 में सर्वप्रथम इस क्षेत्र के चारु मजूमदार के नेतृत्व में शुरू किया गया जो पूर्णतः कृषक क्रांतिकारी एवं शस्त्र संघर्ष पर आधारित था। यह आंदोलन वास्तव मेंमाओ जे डांग के विचार पर आधारित थे, जो CPM स्थिति से भिन्न थे। यह विचारधारा अधिक बलपूर्वक आंदोलन में विश्वास करता था। इसकी मान्यता थी कि भूपति निर्धनों के शत्रु हैं। अतः निर्धनों की सहायता का एक मात्र तरीका, उनके शत्रुओं को समाप्त करना था। दूसरी ओर, उसी प्रकार का भूदान आंदोलन, उद्देश्य दोनों का समान परंतु प्राप्त करने का ढंग बिल्कुल अलग-अलग। भूदान आंदोलन ने एक शान्तिपूर्ण अहिंसक पद्धति को अपनाया। माओ जे डांग कानूनी तरीके से भूमि प्राप्त करने में विश्वास नहीं रखते हैं वे इसे क्रांतिकारी के आंदोलन के द्वारा छीन लेना चाहते थे।
इस विचारधारा के आधार पर दो जनजाति नेता कानू संयाल एवं गंगल संयाल ने संयुक्त मोर्चा सरकार के बनने के 16 दिन बाद ही दार्जिंलिंग जिले के सिलीगुड़ी सब-डिवीजन में एक कृषक कनफेरेंस का आयोजन किया एवं यह पारित किया कि जमींदारों का भूमि पर आधिपत्य को समाप्त कर कृषक समिति द्वारा भूमि का बंटवारा किया जायेगा जिसमें जमींदार राज्य सरकार एवं केंद्र सरकार की कोई भूमिका नहीं होगी। इन गतिविधियों के फलस्वरूप अप्रैल एवं मई 1967 के बीच सभी गांवों से लगभग 15,000 से 20,000 कृषक पूर्ण रूप से कार्यकर्ता बन गये। साथ ही यह भी कहा जाता है कि ये कृषक कमेटी भूमि प्राप्त किये, भूमि रिकॉर्ड को जला दिया, कर्ज को समाप्त कर दिया गया, घृणित जमींदारों को मार डाला गया एवं अंत में सरकार के समांतर एक सरकार की स्थापना की गई। ये लोगों का हथियार तीर-धनुष एवं गड़ांसे के अतिरिक्त जमींदारों द्वारा जब्त किया गया हथियार था। हटिघीसा, बुरागंज एवं चोपुकुरिया, जो मुख्यतः नक्सलबाड़ी, कारीबारी एवं फान्सीदेवी थाना के अंतर्गत आते थे, विद्रोही घोषित किये गये।
कम्युनिस्ट पार्टी (मार्क्स) के नेता नक्सलबाड़ी कृषक की सरकार के प्रति आत्महत्यात्मक रवैया को भलीभांति दे रहे थे। CPM उस समय सरकार में नहीं रह सका एवं नक्सलबाड़ी कॉमरेड के साथ मिल गया। जिसके फलस्वरूप हरेकृष्ण कोनार सिलीगुडी गये एवं सभी नेताओं को पुलिस के समक्ष आत्मसमर्पण के लिए राजी कर लिया। इन सारी बातों के पीछे एक ही तथ्य था कि लोकल कृषक संगठन के सहयोग से कानूनी रूप से भूमि का बंटवारा किया गया, परंतु लोकल नेता ने इसे अस्वीकार कर पुलिस के विपरीत प्रतिक्रिया करना शुरू कर दिया। इसके बाद पुलिस एवं कृषक में काफी झड़प हुई और अंततोगत्वा सरकार ने बहुत से नेताओं को बर्खास्त कर दिया। उसके बाद ये नेता extreme left forces का निर्माण कर लिया जो नक्सलबाड़ी के कृषक कमेटी को मदद करता था और अंत में ये कम्युनिस्ट पार्टी (माले) CP (ML) के रूप में परिवर्तित/स्थापित हो गयी।
इन सभी घटनाओं के प्रभाव से इसके नेता गंगल संयाल एवं सभी कार्यकर्ता को जेल में डाल दिया गया एवं यह आंदोलन समाप्त हो गया। वर्तमान समय में यह नक्सलबाड़ी आंदोलन सिर्फ शहर के छात्रों के बीच रह गया है। अतः इस प्रकार से एक क्रांतिकारी आंदोलन की समाप्ति हो गयी। वास्तव में यह तथ्य से अस्वीकार नहीं किया जा सकता है कि कोई भी कार्य को सही अंजाम देने के लिए बहुत ही वस्तुनिस्ट, तर्कसंगत एवं वैज्ञानिक होना अति आवश्यक है, तभी कोई आंदोलन सफल हो सकता है।
Question : भारत में सुधार आंदोलनों के रूप में आर्य समाज एवं रामकृष्ण मिशन की भूमिका का परीक्षण कीजिए।
(2001)
Answer : भारत में सामाजिक आंदोलन केवल विरोध और असहमति प्रकट करने वाले आंदोलन ही नहीं रहे हैं, बल्कि सुधारात्मक, प्रतिक्रियात्मक के साथ-साथ सामाजिक-धार्मिक और स्वतंत्रता आंदोलन भी रहे हैं। ये आंदोलन जिन्हें ‘परिवर्तन को प्रोत्साहित/विरोध करने के सामूहिक प्रयत्न’ कहा गया है, बौद्धिक विकास, सामाजिक संरचना, वैचारिक वरीयताओं और सत्य के ज्ञान आदि से अस्तित्व में आये। यह सर्वविदित सत्य है कि समाज की विशेषताएं ही आंदोलनों के प्रारूप तैयार करती है। अतः सामाजिक संरचना के तत्व और समाज के भविष्य की छवि ही सामाजिक आंदोलनों के विश्लेषण को केंद्र बिंदु प्रदान करते हैं।
आर्य समाजः आर्य समाज आंदोलन का प्रसार प्रायः पाश्चात्य प्रभावों की प्रतिक्रिया के रूप में हुआ। इस आंदोलन के प्रणेता स्वामी दयानन्द वैदिक परम्परा में विश्वास करते थे और उन्होंने ‘पुनः वेद की ओर चलो’ का नारा लगाया। आर्य समाज मुख्यतः धार्मिक क्षेत्र एवं सामाजिक क्षेत्र के लिए प्रसिद्ध है।
धार्मिक क्षेत्र में वह मूर्ति पूजा, बहुदेववाद, अवतारवाद, पशुबलि, श्राद्ध, जंत्र-मंत्र तथा तंत्र तथा झूठे कर्मकाण्ड को स्वीकार नहीं करते थे। वह वेद को ईश्वरीय ज्ञान मानते थे और उपनिषद् काल तक के साहित्य को स्वीकार करते थे। शेष को विशेष कर पुराणों को, जिनमें ऊपर लिखे विश्वासों का विवरण मिलता है वह मनघड़ंत कथाओं का समुच्चय मानते थे। परंतु वेद के विषय में भी उनका तर्क यह था कि वेद की भाषा अत्यंत प्राचीन है। दयानन्द ने ब्राह्मण पुरोहित वर्ग के धार्मिक तथा सामाजिक पक्ष में सर्वोच्चता के दावे को भी चुनौती दी। उनके अनुसार प्रत्येक व्यक्ति को वेद के पढ़ने तथा उसे अपने तर्क के अनुसार निर्वचन करने का अधिकार है।
सामाजिक क्षेत्र में उन्होंने छुआछूत, जन्मजात जाति, बाल विवाह, तथा अन्य बुराइयों पर कुठाराघात किया। भारत के सामाजिक इतिहास में वह पहले सुधारक थे जिन्होंने शुद्र तथा स्त्री को वेद पढ़ने तथा ऊंची शिक्षा प्राप्त करने, यज्ञोपवीत धारण करने तथा अन्य सभी पक्षों से ऊंची जाति तथा पुरुषों के बराबर के अधिकार प्राप्त करने के लिए आंदोलन किया। परंतु संभवतः सबसे अधिक कार्य उन्होंने स्त्रियों की स्थिति सुधारने के लिए किया। उनके अनुसार पुत्र तथा पुत्रियां समान है। इसी प्रकार बाल-विवाह, शाश्वत वैधव्य, विधवा को हेय मानना, परदा, दहेज, बहु-विवाह, वेश्यागमन, देव दासियां इत्यादि ऐसी कोई भी सामाजिक बुराई नहीं थी जिसे उन्होंने स्वीकार किया हो। वे वर्ण व्यवस्था जन्म से नहीं कर्म से मानते थे, अर्थात् केवल व्यवसाय के अनुसार ही कोई व्यक्ति, ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य तथा शूद्र हो सकता है, परंतु ये चारों वर्ण समान हैं और इनमें कोई अस्पृश्य नहीं। इस प्रकार स्वामी दयानन्द ने हिंदू समाज में समानता की उस भावना को जागृत किया जो आज हमें अपने संविधान में देखने को मिलता है।
आर्य समाज के कार्य का सबसे अधिक प्रभाव विद्या तथा सामाजिक सुधार तथा सेवा के क्षेत्र में देखने को मिला। आर्य समाज के सामाजिक विचारों में अन्य बातों के अतिरिक्त जिन पर बल दिया गया, वे थीं, एक ईश्वर का पितृत्व तथा सभी मुनष्यों का भ्रातृत्ववाद, स्त्री-पुरुष की समानता, मनुष्यों तथा जातियों के बीच पूर्ण न्याय तथा निष्पक्षता तथा प्रेम तथा दान की भावना। आर्य समाज ने शिक्षा तथा ज्ञान के प्रसार पर बल दिया। उनके अनुयायियों ने विद्या के प्रसार तथा अन्धकार को समाप्त करने में विशेष कार्य किया। उनकी मृत्यु के पश्चात 1886 में आरंभ की गई दयानन्द एंग्लो-वैदिक (DAV) संस्थाएं शीघ्र ही देश के कोने-कोने में फैल गयी। इन शिक्षा संस्थाओं को भी आर्य समाज ने रूढि़वाद तथा झूठे विश्वासों से निकलने के एक साधन के रूप में प्रयोग किया।
इतना ही नहीं आर्य समाज ने शुद्धि आंदोलन भी आरंभ किया जिसके अंतर्गत लोगों को अन्य धर्मों से हिंदू धर्म में लाने का प्रयत्न किया गया। राजनीतिक क्षेत्र में वह कहते थे कि बुरे से बुरा देशी राज्य अच्छे से अच्छे विदेशी राज्य से अच्छा है अर्थात् उनकी शिक्षा के फलस्वरूप उनके अनुयायियों में स्वदेशी और देशभक्ति की भावना कूट-कूट कर भरी थी और भारतीय राष्ट्रीय आंदोलन में ये लोग अग्रगामी रहे। वेलेन्टाइन शिरोल ने आर्य समाज को सत्य ही ‘भारतीय अशांति का जन्मदाता’ कहा है।
रामकृष्ण मिशनः रामकृष्ण परमहंस के शिक्षाओं को साकार करने का श्रेय स्वामी विवेकानंद को जाता है जिसनें रामकृष्ण मिशन की स्थापना कर हिंदू धर्म को एक नया आयाम दिया। विवेकानंद ने 1893 में शिकागो में हुई धर्मों की संसद में भाग लिया और अपनी विद्वतापूर्ण विवेचना द्वारा लोगों को प्रभावित किया। उनके भाषण का तत्व यह था कि हमें भौतिकवाद तथा अध्यात्मवाद में बीच एक स्वस्थ संतुलन स्थापित करना है। वह समस्त संसार के लिए एक ऐसी संस्कृति की परिकल्पना करते थे जिसमें पश्चिम का भौतिकवाद तथा पूर्व का अध्यात्मवाद का ऐसा सामंजस्यपूर्ण सम्मिश्रण हो जाएगा जो समस्त संसार को प्रसन्नता दे सकेगा।
स्वामी जी ने हिंदू धर्म के इस पक्ष ‘कि मुझे मत छेड़ो’ की बहुत भर्त्सना की। उनके अनुसार हिंदू धर्म अब केवल खान-पान तक ही सीमित रह गया था। वह निर्धनों के धनियों द्वारा शोषण पर धर्म की चुप्पी से बहुत अप्रसन्न थे। उसके अनुसार भूखे व्यक्ति को धर्म की बात कहना ईश्वर तथा मानवता का अपमान है। एक बार उन्होंने कहा था कि मैं उस व्यक्ति को ही महात्मा मानता हूं जो निर्धनों के लिए रो देता है, नहीं तो वह दुरात्मा है। जब तक लाखों लोग भूख तथा अज्ञान का जीवन व्यतीत करते हैं, मैं उस प्रत्येक व्यक्ति को देशद्रोही मानता हूं जिसने विद्या तथा ज्ञान तो उनके व्यय पर प्राप्त किया है और अब उनकी रत्ती भर भी परवाह नहीं करता। इसलिए उनके अनुसार ईश्वर की पूजा मानवत्ता की सेवा द्वारा ही की जा सकती है। इसलिए उन्होंने हिंदू धर्म को एक नवीन सामाजिक उद्देश्य प्रदान किया।
विवेकानन्द द्वारा स्थापित रामकृष्ण मिशन, लोक सेवा तथा समाज सुधार का कार्य कर रहा है। मिशन इस समय देश के सभी क्षेत्रों में बहुत से धर्मार्थ औषधालय, अस्पताल, विद्यालय इत्यादि चला रहे हैं और राष्ट्रीय विपत्तियों में लोक सेवा के क्षेत्र में बहुत कार्य करते हैं।
Question : सत्य शोधक समाज।
(2001)
Answer : यह समाज पश्चिमी भारत में ज्योतिराव गोविन्दराव फूले ने 1873 में निम्न जातियों के विभिन्न क्षेत्रों में न्याय के लिए स्थापना किया। इस समाज का मुख्य उद्देश्य समाज के कमजोर वर्गांे को सामाजिक न्याय दिलाने से था।
ज्योतिराव फूले यह समझते थे कि ब्राह्मण लोग धर्म की आड़ लेकर अन्य वर्णों पर अत्याचार करते हैं तथा उन्हें अपना दास बना लेते हैं। ज्योतिबा ने भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के नेताओं की कमजोर वर्गों के लोगों के हितों की अनदेखी करने के लिए आलोचना की है। उनका कहना था कि कांग्रेस उस समय तक वास्तविक रूप में राष्ट्रीय कहलाने के अधिकारी नहीं है, जब तक वह निम्न तथा पिछड़ी जातियों के हितों की ओर ध्यान नहीं देती।
फूले ने सभी वर्णों के अनाथों तथा स्त्रियों के लिए अनेक पाठशालाएं और अनाथालय खोले। इस समाज के माध्यम से फूले ने निम्न जाति के लोगों के लिए बहुत संघर्ष किया। फूले यह मानते थे कि भारत से जाति प्रथा को एकदम समाप्त नहीं किया जा सकता है। परंतु वो निम्न जाति के लोगों के लिए हर एक क्षेत्र में सुधार चाहते थे। फूले के लिए सभी वर्ण के पिछड़े लोगों के लिए अपार श्रद्धा थी जिसके कारण उन्होंने अनाथों के लिए अनाथालय बनवाये एवं स्त्रियों की स्थिति में सुधार के लिए हर संभव प्रयत्न किया।
Question : भारत में स्त्रियों के लिए विद्यमान कल्याणकारी कार्यक्रमों का आलोचनात्मक मूल्यांकन कीजिए। क्या इनसे भारत में स्त्रियों के सभी वर्ग लाभान्वित हुए है?
(2001)
Answer : मानव संसाधन विकास मंत्रालय में 1985 में महिला और बाल विकास विभाग का गठन किया गया। इसका उद्देश्य महिलाओं और बच्चों के लिए आवश्यक सर्वांगीण विकास की जरूरत को पूरा करना है। यह विभाग देश में महिलाओं और बच्चों की स्थिति में सुधार के लिए कार्य कर रहे सरकारी तथा गैर-सरकारी दोनों तरह के संगठनों के प्रयासों में तालमेल कायम करने के साथ-साथ इस संबंध में योजनाएं, नीतियां और कार्यक्रम तैयार करने तथा कानूनों के निर्माण और उनमें संशोधन करने के लिए केंद्रीय एजेंसी के रूप में कार्य करता है। राष्ट्रीय महिला आयोग का गठन राष्ट्र के एक शीर्ष वैधानिक निकाय के रूप में 1992 में किया गया था, जिसका कार्य महिलाओं के संवैधानिक और कानूनी रक्षा-उपायों की जांच करना और उनका प्रभावशाली कार्यान्वयन है।
भारत में स्त्रियों के लिए विद्यमान कल्याणकारी कार्यक्रमों का विवरण निम्नलिखित है-
ऊपर वर्णित सभी कल्याणकारी कार्यक्रम निश्चित रूप से भारतीय महिलाओं को विभिन्न क्षेत्रों में मददगार साबित हुई है परंतु इस बात से भी इन्कार नहीं किया जा सकता है कि यह भारत के जन-जन तक के पहुंच के बाहर हैं। सर्वप्रथम यह सही है कि भारत शैक्षिक रूप से पिछड़ा देश है एवं ग्रामीण क्षेत्रों का मूल रूप से प्रतिनिधित्व करता है। सरकार की जितनी भी योजनाएं एवं कार्यक्रम हैं वह अशिक्षा के कारण जनता के बीच पहुंचने में सफल नहीं रहा है। अशिक्षित जनता को कार्यक्रमों के बारे में पता नहीं होता है। अतः इससे स्पष्ट है कि इन कार्यक्रमों का लाभ मुख्य रूप से शिक्षित एवं मध्यम वर्ग के महिलाओं तक सीमित हैं ये महिलाएं जागरूकहोने के कारण कार्यक्रमों का सही लाभ उठा लेते हैं। फिर भी राजनीतिक जागरूकता के फलस्वरूप महिलाएं अंशतः इन कार्यक्रमों से निश्चित रूप से लाभान्वित हुई हैं।
दूसरी बात यह है कि भारत गांवों का देश है। अतः यहां की अधिकांश जनसंख्या गांवों में निवास करती हैं। गांव की महिलाएं निश्चित रूप से शैक्षिक, सामाजिक, राजनीतिक एवं आर्थिक रूप से पिछड़ी हुई हैं जिसके फलस्वरूप इन कार्यक्रमों का लाभ इन लोगों को अंशतः रूप से ही मिला है। साथ ही भारतीय प्रशासनिक व्यवस्था में उपस्थित भ्रष्टाचार की नीति ने भी इन कार्यक्रमों को सफल बनाने में रुकावट पैदा की है। अतः किसी भी कार्यक्रम को सफल बनाने के लिए यह आवश्यक है कि महिलाओं के बीच शिक्षा का प्रसार एवं सभी क्षेत्रों में जागरूकता का संचार होना अत्यंत आवश्यक है।
Question : आत्मसम्मान आंदोलन।
(2000)
Answer : आत्मसम्मान आंदोलन मूल रूप में व्यक्ति वर्ग अपनी बुरी आदतों और हीनता की भावना का त्याग कर आत्मसम्मानपूर्ण जीवन जीने से संबंधित आंदोलन है। यह आंदोलन दलितों से जुड़ा हुआ है। इस आंदोलन का नेतृत्व करने का श्रेय डा. भीमराव अंबेडकर को जाता है जिन्होंने महार आंदोलन के द्वारा दलितों को विभिन्न क्रियाकलापों में भाग लेने का अवसर प्रदान करवाया था। डा. अंबेडकर ने जाति प्रथा में व्याप्त कुरीतियों का जमकर विरोध किया एवं उच्च जाति के द्वारा आरोपित भेदभाव को समाप्त करने की कोशिश की।
डा. अंबेडकर जाति-व्यवस्था के मूल पर प्रहार करना चाहते थे। अतः उन्होंने सुझाव दिया कि मन्दिरों में पुजारी पद पर किसी एक जाति का एकाधिकार नहीं होना चाहिए, वरन् पुजारी पद को प्रजातांत्रिक बनाया जाना चाहिए। वस्तुतः वे जाति-व्यवस्था के समूह नष्ट करना चाहते थे।
डा. अंबेडकर जानते थे कि अछूतों की वर्तमान स्थिति के लिए स्वयं अछूत वर्ग भी उत्तरदायी है। अतः उन्होंने इस बात पर बल दिया कि अछूतों द्वारा अपनी बुरी आदतों और हीनता की भावना को त्याग कर आत्मसम्मानपूर्ण जीवन की ओर प्रवृत्त होना चाहिए। उन्होंने अपने पत्रों में लेख लिखकर और अपने भाषण में इस बात पर बल दिया कि अछूतों को मांगना छोड़ देना चाहिए, झूठ बोलना बंद कर देना चाहिए, मुर्दा जानवर खाना छोड़ देना चाहिए तथा इन सबके अतिरिक्त हीनता की भावना का त्याग कर श्रेष्ठ जीवन की ओर प्रवृत होना चाहिए। अछूतों में स्वतंत्रता, समानता एवं स्वाभिमान से जीवन बिताने की इच्छा होनी चाहिए और इसके लिए उनके सुझाव थे- (1) अछूत संगठित हो, (2) शिक्षित हों, और (3) अत्याचार के विरुद्ध संघर्ष करें। उन्होंने अछूतों को सरकारी नौकरियों में जाने, जंगल और खेती की भूमि प्राप्त करने की शिक्षा दी। उन्होंने उपसंहार में कहा, ‘यदि महार अपने बच्चों को स्वयं के मुकाबले में अच्छी दिशा में देखने की इच्छा नहीं रखते तो, एक मनुष्य व एक जानवर में कोई अंतर नहीं होगा।’
Question : दलित चेतना की अभिव्यक्ति की प्रणाली और विषय वस्तु।
(1998)
Answer : भारत में अस्पृश्यता का बहुत पुराना इतिहास है, यद्यपि इसका जन्म और प्रचलन अस्पष्ट और अज्ञात है। 1930 के दशक के प्रारंभ तक अवपीड़ित वर्ग की अधिकांशतः परिभाषा अशुद्धता की धार्मिक अवधारणा के अर्थ में थी। प्रश्न उठता है कि क्या दलित समाज की मुख्य धारा में समाहित हो सकेंगे? युगों की दासता बेडि़यों को तभी समाप्त किया जा सकता है जब दलित स्वयं को शिक्षित और कुशल बना लें और आधुनिक समाज में प्रभावी ढंग से स्पर्धा करें। मात्र कानून बनाने से उनकी नियोग्यताएं समाप्त नहीं होंगी। संसाधनों को प्राप्त करने के लिए उनके स्वयं के प्रयासों के साथ ही हिंदुओं की अभिवृत्तियों में परिवर्तन भी अस्पृश्यता उन्मूलन के लिए आवश्यक है। हम सच्चिदानंद से सहमत है जिसकी मान्यता है कि सरकार के सुधारात्मक प्रयत्नों, दलितों की बढ़ती चेतना, और हिंदुओं के उदार दृष्टिकोण जैसे कारकों के सामंजस्य से समय के साथ-साथ उनकी निर्याेग्यताएं एवं भेदभाव समाप्त हो जायेंगे।
राजनैतिक दृष्टि से दलित इस तथ्य को समझने लगे है कि राजनैतिक संदर्भ में उन्हें अपनी अधिक संख्या का लाभ उठाना है। हो सकता है कि वे राजनैतिक दल के रूप में एक न हो सकें, लेकिन प्रभुत्व वाली राजनैतिक पार्टियों, जैसे- कांग्रेस, जनता दल या भाजपा, आदि का समर्थन करके वे अपने समर्थन का मूल्य वसूल कर सकते है। लेकिन समस्या यह है कि यद्यपि शिक्षित दलित तो राजनीतिकरण का सबूत दर्शाते हैं लेकिन सामान्य दलित उनकी प्रक्रिया से अभी भी अछूते है। अभिजात वर्ग तो अनुसरण और सहमति की राजनीति से दबाव और विरोध की राजनीति तक आ गये हैं। लेकिन अभी-भी वे न तो सामान्य मंच ही बना सके हैं और न ही परिवर्तनशील छवि विकसित कर सके हैं।
Question : भारत में पुनरुद्धारवादी सामाजिक आंदोलन।
(1998)
Answer : एम.एस.ए. राव ने तीन प्रकार के आंदोलनों की बात की है- सुधारवादी, परिवर्तनवादी और क्रांतिकारी। सुधारवादी आंदोलन मूल्य व्यवस्था में आंशिक परिवर्तन लाते हैं, वे संरचनात्मक परिवर्तनों को प्रभावित नहीं करते। इस प्रकार के आंदोलन हमें मुख्यतः कृषक आंदोलन, जनजातीय आंदोलन, दलित आंदोलन, पिछड़ी जाति/वर्ग आंदोलन और महिला आंदोलन के रूप में देखने को मिलता है। इन सभी आंदोलनों में ये पांच तत्व हैं- (i) सामूहिक लक्ष्य, (ii) वृहद स्वीकृति वाले कार्यक्रमों की समान विचारधारा, (iii) सामूहिक क्रियान्वयन, (iv) कम से कम संगठन स्तर, (v) नेतृत्व।
ए.आर. देसाई, गफ, और गुहा जैसे विद्वानों ने स्वतंत्रता के बाद के जनजातीय आंदोलनों को कृषक आंदोलन माना हैं आदिवासियों की सामुदायिक चेतना बड़ी मजबूत है। जनजातीय आंदोलन न केवल कृषक संबंधी थे बल्कि वनों पर भी आधारित थे। कुछ विद्रोह तो नृजातीय प्रकार के थे क्योंकि वे जमींदारों, साहूकारों और छोटे-मोटे सरकारी अधिकारियों के खिलाफ थे जो न केवल उनके शोषक थे बल्कि विदेशी भी थे।
मूर जूनियर ने भारत में कृषक आंदोलनों पर लिखते हुए भारतीय कृषकों की क्रांतिकारी क्षमता को स्वीकार नहीं किया है। विभिन्न क्षेत्रों में प्रमुख कृषक आंदोलन इस प्रकार थे- तेभागा, तेलंगाना और नक्सलवादी। भूदान और सर्वोदय आंदोलन में कृषकों के हितों को भी उजागर किया गया था, लेकिन उनका संचालन कृषकों द्वारा न होकर विनोबा भावे और जय प्रकाश नारायण द्वारा हो रहा था।
ओमन ने धार्मिक आंदोलनों को तीन श्रेणियों में बांटा हैः (क) ये आंदोलन जो आवश्यक रूप से हिंदुत्व के विरोध में चलाये गये थे और अलग धर्म के रूप में स्थापित हुए, जैसे-जैन, बौद्ध एवं सिख धर्म। (ख) भक्ति आंदोलन जो हिंदुत्व की बुराइयों के शुद्धिकरण का प्रयत्न था तथा जाति प्रथा पर अत्याचारों के विरुद्ध संघर्ष था लेकिन फलतः पन्थों में बंट गया, जैसे आर्य समाज (ग) वे आंदोलन जो हिंदुवाद से अलग होने तथा अन्य धर्मों में परिवर्तित होने के लिए किए जा रहे थे। भारत में धर्म के विरोध में प्रथम आंदोलन छठी शताब्दी में जैनवाद और बुद्धवाद थे। जैनवाद वेद के प्रभुत्व को अस्वीकार करता था और बलि के विरुद्ध विद्रोह। बुद्धवाद भी वैदिक बलि प्रथा तथा ब्राह्मणों के प्रभुत्व का विरोध करता था।
पिछड़ी जाति/वर्ग आंदोलनों का वर्णन इस प्रकार किया जा सकता हैः (a) विविध प्रकार के भेदभावों के विरुद्ध विरोध (b) आत्म-सम्मान और प्रस्थिति प्राप्त करने के लिए आंदोलन (c) प्रस्थिति गतिशीलता आंदोलन (d) जाति एकता आंदोलन और (e) जाति कल्याण आंदोलन। आजादी से पूर्व और पश्चात् अनेक सुधार आंदोलनों की चिंता का प्रमुख बिंदु स्त्रियों की प्रस्थिति थी। ब्रह्म समाज तथा आर्य समाज के नेताओं के प्रयास से सती, पुनर्विवाह, तलाक, स्त्री शिक्षा, पर्दा प्रथा, बहु-विवाह और दहेज के सुधार में बहुत से कार्य किए गये।
Question : जातिवादी संगठनों की भूमिका।
(1998)
Answer : भारतीय समाज में वर्तमान समय में जाति आधारित अनेको संगठनों का निर्माण हो रहा है। ये संगठन मूल रूप से सामाजिक, आर्थिक एवं राजनीतिक प्रक्रियाओं में भाग लेते हैं। ग्रामीण एवं शहरी दोनों क्षेत्रों में ये संगठन महत्वपूर्ण भूमिका निभा रहे है। रुडोल्फ का विचार है कि जाति संघों ने जाति को एक नयी स्फूर्ति प्रदान की है और लोकतंत्र ने भारत में जाति को नयी महत्वपूर्ण भूमिका के योग्य बनाया है। एम.एन. श्रीनिवास ने यह बात स्वीकार की है कि आज जाति कर्मकांडों पर आधारित न होकर राजनैतिक हो गयी है। राजनीतिक दलों के निर्माण जातीय आधार पर हो रहे हैं जिसमें मूलत जाति चेतना का तत्व पाया जाता है।
गांवों में जाति के आधार पर बहुत सारे संगठनों का निर्माण हुआ है एवं इसके बीच हित को लेकर गुटबाजी की प्रवृत्ति का विकास हुआ है। गांवों में भी जाति ने शक्ति संरचना के रूप में उभरने में महत्वपूर्ण स्थान ले लिया है। कार्यालयों, विश्वविद्यालयों, सचिवालयों आदि में जैन संघ, राजपूत संघ, ब्राह्मण संघ, यादव संघ, कायस्थ संघ एवं वैश्य संघ देखने को मिलता है। शहरी क्षेत्रों में भी जाति आधारित बहुत से संघों का निर्माण हो रहा है, जो जाति हितों के लिए कार्य करता है। ये संगठन अपनी जाति से संबंधित विभिन्न समस्याओं को उजागर कर राजनीतिक, आर्थिक एवं सामाजिक तौर पर गतिशीलता लाने की कोशिश करता है। ये संगठन कभी-कभी राजनीति में दबाव समूह के रूप में भी कार्य करते हैं एवं अपनी मांगों को मनवाते हैं। हैराल्ड गुल्ड, डोनाल्ड रोजन्थाल, आन्द्रे बेते, रिचर्ड सीमन एवं रामाशिरे राय ने अपने अध्ययन में पाया कि राजनैतिक दल अपनी कार्यशीलता के लिए जातियों को गतिशील बनाते हैं और चुनाव जीतने में उनका समर्थन होता है। इतना ही नहीं जाति संगठन मतदान व्यवहार को भी काफी प्रभावित करता है।
Question : ‘महिलाओं को राजनीतिक और आर्थिक शक्ति प्रदान करना जरूरी है लेकिन भारत में महिलाओं की सामाजिक स्थिति में सुधार लाने के लिए यह विधान पर्याप्त नहीं है।’ टिप्पणी कीजिए।
(1998)
Answer : भारत में स्वतंत्रता के पश्चात् स्त्रियों की स्थिति में क्रांतिकारी परिवर्तन हुए हैं। यद्यपि पिछली एक शताब्दी में ही स्त्रियों की स्थिति में सुधार करने के लिए महत्वपूर्ण प्रयत्न होते रहे हैं लेकिन स्वतंत्रता के पश्चात् स्त्रियों की सामाजिक आर्थिक स्थिति में जो परिवर्तन हुआ है, उसे एम.एन. श्री निवास ने पश्चिमीकरण, लौकिकीकरण और जातीय गतिशीलता को इन परिवर्तनों का प्रमुख कारण माना है। इसके अतिरिक्त स्त्रियों में शिक्षा का प्रसार होने तथा औद्योगिकरण के फलस्वरूप उन्हें आर्थिक जीवन में प्रवेश करने के अवसर प्राप्त हुए। इससे स्त्रियों की पुरुषों पर आर्थिक निर्भरता कम होने लगी और उन्हें स्वतंत्र रूप से अपने व्यक्तित्व का विकास करने के अवसर मिले। संचार के साधनों, समाचार-पत्रों और पत्रिकाओं में वृद्धि होने से स्त्रियों ने अपने विचारों को अभिव्यक्त करना आरंभ किया। संयुक्त परिवारों का विघटन होने से स्त्रियों के पारिवारिक अधिकारों में वृद्धि हुई और सामाजिक अधिनियमों के प्रभाव से एक ऐसे सामाजिक वातावरण का निर्माण हुआ जिसमें बाल-विवाह, दहेज-प्रथा और अंतर्जातीय विवाह की समस्याओं से छुटकारा पाना सरल हो गया। इन सभी कारकों के संयुक्त प्रभाव से स्त्रियों की स्थिति में जो परिवर्तन हुए है, उनमें हम यहा आर्थिक, राजनीतिक एवं सामाजिक क्षेत्रों में परिवर्तन का उल्लेख करेंगे।
आर्थिक जीवन में बढ़ती हुई स्वतंत्रता
स्वतंत्रता के पश्चात शिक्षा, औद्योगिकरण और नवीन विचाराधारा के कारण स्त्रियों की पुरुषों पर आर्थिक निर्भरता लगातार कम होती जा रही है। स्वतंत्रता से पहले यद्यपि निम्न वर्ग की बहुत सी स्त्रियां उद्योगों और घरेलू कार्यों के द्वारा जीविका उपार्जित करती थीं। लेकिन मध्यम और उच्च वर्ग की स्त्रियों द्वारा कोई आर्थिक क्रिया करना अनैतिकता के रूप में देखा जाता था। स्वतंत्रता के पश्चात् एक बड़ी संख्या में मध्यम वर्ग की स्त्रियों ने शिक्षा प्राप्त करके आर्थिक क्षेत्र की ओर बढ़ना आरंभ कर दिया। आज शिक्षा, स्वास्थ्य, चिकित्सा, समाज कल्याण, मनोरंजन उद्योगों और कार्यालयों में स्त्री कर्मचारियों की संख्या निरंतर बढ़ती जा रही है। स्वतंत्र रूप से जीविका उपार्जित करने वाली स्त्रियां आज अन्य स्त्रियों के लिए एक आकर्षण हैं और आर्थिक स्वतंत्रता के कारण परिवार में उनके महत्व को देखकर अन्य स्त्रियों को भी आर्थिक जीवन में प्रवेश करने का प्रोत्साहन मिला है। वास्तविकता तो यह है कि स्त्रियों को आर्थिक स्वतंत्रता मिल जाने के कारण उनके आत्मविश्वास, कार्य क्षमता और मानसिक स्तर में इतनी प्रगति हुई है कि उनके व्यक्तित्व की तुलना उस स्त्री से किसी प्रकार नहीं की जा सकती जो आज से कुछ ही वर्ष पहले तक संसार की सम्पूर्ण लज्जा को अपने घूंघट में समेटे हुए और पुरुष के शोषण को सहन करती हुई अपना जीवन व्यतीत करने के लिए बाध्य थी।
राजनीतिक चेतना में वृद्धि
राजनीतिक क्षेत्र में स्त्रियों की स्थिति जिस गति से ऊंचा उठ रही है वह वास्तव में एक आश्चर्य का विषय है। सन् 1937 के चुनाव में स्त्रियों के लिए 41 सीटें सुरक्षित होने के बावजूद भी केवल 10 स्त्रियां ही चुनाव के लिए सामने आयी थीं जबकि आज इसकी संख्या सात से दस गुनी तक हो गयी है। अभी भारत के अनेक राज्यों में स्त्रियों का मुख्यमंत्री बनना सही मायने में गर्व की बात है। सन् 1984 में इंदिरा गांधी ने जिस तरह के साहसपूर्ण निर्णय लेकर विदेशी चुनौतियों का सामना किया, उससे तथाकथित सभ्य समाजों की स्त्रियां जैसे हतप्रभ रह गयीं। उन्हें पहली बार यह महसूस हुआ कि उनकी राजनीतिक जागरूकता अभी बहुत पीछे है। के.एम. पणिक्कर का कथन है कि ‘जब स्वतंत्रता ने पहली अंगड़ाई ली तब भारत के राजनीतिक जीवन में स्त्रियों को जो पद प्राप्त हुआ उसे देखकर बाहरी दुनिया चौंक पड़ी क्योंकि वह तो हिंदू स्त्रियों को पिछड़ी हुई, अशिक्षित और प्रतिक्रियावादी सामाजिक व्यवस्था में जकड़ी हुई समझने को अभ्यस्त थी।’ स्त्रियों ने अपनी राजनीतिक शक्ति का पूर्ण सदुपयोग करके मध्यकाल की रूढि़यों को समाप्त करने तथा प्रत्येक क्षेत्र में आगे बढ़ने के लिए प्रशंसनीय कार्य किये हैं।
सामाजिक प्रस्थिति में परिवर्तन
हिंदू स्त्रियों का सामाजिक जीवन आज स्वतंत्रता प्राप्ति से पहले के समय से बिलकुल भिन्न है जिन परिवारों में कुछ ही वर्ष पहले तक स्त्रियों के लिए पर्दें में रहना अनिवार्य था, उन्हीं परिवारों की स्त्रियां आज खुली हवा में सांस ले रही हैं। जिन रूढि़यों को स्त्रियों ने अपनी अज्ञानता के कारण अपने जीवन का आदर्श बना रखा था, उन रूढि़यों के प्रति स्त्रियों की उदासीनता बराबर बढ़ती जा रही है। हिंदू स्त्रियां आज अनेक प्रगतिशील संघों की स्थापना कर रही हैं और ऐसे संगठनों की सदस्यता दिन-प्रतिदिन बढ़ती जा रही है। पणिक्कर के अनुसार, ‘कुछ मेधावी स्त्रियों ने जो उल्लेखनीय सफलता प्राप्त की है वह भारत के लिए उतने महत्व की बात नहीं है जितनी कि यह बात कि कट्टरपंथी और पिछड़े समझे जाने वाले ग्रामीण व्यक्तियों के विचार भी करवट लेने लगे हैं। यहां स्त्रियां उन सामाजिक बंधनों से बहुत कुछ मुक्त हो चुकी है जिन्होंने उन्हें रूढि़यों और ‘बाबावाक्य प्रमाण’ की विचारधारा के द्वारा जकड़ रखा था।
फिर भी वास्तविकता यह है कि ‘वर्तमान समय में स्त्रियों द्वारा हिंदू जीवन में सिद्धांतों का पुनर्रीक्षण हिंदू समाज के लिए सबसे बड़ी चुनौती है। समाज की बदलती हुई आवश्यकताओं के प्रति उनकी जागरूकता, धर्म की आड़ में उन्हें समस्त अधिकारों से वंचित कर देने वाले असन्तोष जनक आदर्शों के प्रति क्षोभ, शिक्षा से उत्पन्न होने वाली महत्वाकांक्षाएं और राष्ट्रीय संघर्ष के समय विकसित होने वाले अनुभवों ने उन्हें हिंदू जीवन के आदर्शों का पुनर्विवेचन करने की प्रेरणा दी है।
उपरोक्त वर्णित तथ्यों के बावजूद हमें इस बात से इन्कार नहीं करना चाहिए कि भारत एक पुरुष प्रधान समाज है, जिसमें परिवार के पुरुष सदस्यों को अनेक अधिकार एवं सुविधा प्राप्त है एवं स्त्रियों को उनसे वंचित रखा गया है। उन्हें आज भी घर की चहार दिवारी तक सीमित रखा गया है। बहुत से संवैधानिक अधिनियम के रहते हुए भी आज बाल-विवाह, विधवा-पुनर्विवाह का अभाव, दहेज, तलाक, बेमेल-विवाह, अन्तर्जातीय विवाह का अभाव, बहुपत्नि विवाह, परदा-प्रथा एवं वेश्यावृत्ति जैसी सामाजिक समस्याओं से समाज जूझ रहा है। साथ ही स्त्रियों में कुपोषण, मृत्यु दर की अधिकता इत्यादि स्वास्थ्य संबंधी समस्याएं व्याप्त है। 2001 की जनगणना के अनुसार देश में 26-89 करोड़ स्त्रियां निरक्षत है।
भारतीय स्त्रियां आज भी आर्थिक, सामाजिक एवं राजनीतिक समस्याओं से अछूती नहीं हैं। आज भी अधिकांश स्त्रियां गरीबी, आर्थिक पारश्रितता एवं शोषण की शिकार हैं। भारत मे पुरुषों की तुलना में स्त्रियों को कम वेतन एवं परिश्रमिक दिया जाता है। अतः सच्चाई यह है कि निम्न आर्थिक स्थिति होने के कारण परिवार एवं समाज में भी उनकी प्रतिष्ठा उच्च नहीं हो पाती और उन्हें इसके कई दुष्परिणाम भुगतने पड़ते हैं। सामाजिक समस्याओं के अंतर्गत सबसे प्रमुख है स्त्री-पुरुषों की भूमिका में विभेद करना। स्त्रियों को प्रमुख रूप में घर से संबंधित माना गया है और उन्हें गृहकार्य की देखभाल का कार्य करना होता है। पत्नी एवं मां की भूमिकाएं ही उनकी प्रमुख भूमिकाएं मानी गयी है। राजनीतिक क्षेत्र में स्त्रियों की चेतना के विकास के बावजूद स्त्रियों का राजनीतिक भागीदारी का प्रतिशत बहुत कम है एवं यह सिर्फ कुछ वर्गों तक ही सीमित है।
उपर्युक्त विवेचन से स्पष्ट है कि भारतीय स्त्रियां आज भी विभिन्न पारिवारिक, वैवाहिक, सामाजिक, शैक्षणिक, स्वास्थ्य संबंधी, आर्थिक और राजनीतिक समस्याओं से ग्रस्त है। इन समस्याओं से मुक्ति के बिना समानता के इस युग में स्त्रियों को उनकी सच्ची प्रतिष्ठा प्राप्त नहीं हो सकती। स्त्रियों की स्थिति को सुधारने एवं उन्हें सामाजिक न्याय दिलाने हेतु यहां सुधार आंदोलन हुए हैं और सरकारी व गैर-सरकारी स्तर पर कल्याण कार्य भी किए गए हैं।