Question : भारत में नगरीय पर्यावरण के विभिन्न पक्षों की व्याख्या कीजिए तथा नगरीय पर्यावरण पर नगरीय विकास कार्यक्रमों के प्रभाव का मूल्यांकन कीजिए।
(2005)
Answer : भारत में नगरीय संरचना, ग्रामीण संरचना से पूर्णतः भिन्न होता है, फिर भी इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता है कि भारत में नगरीय पर्यावरण हाल के कुछ वर्षों में प्रवजन और औद्योगिकीकरण के कारण प्रभावित हुआ है। भारत में नगरीय पर्यावरण के विभिन्न पक्षों के अंतर्गत हम विभिन्न पर्यावरणीय समस्याओं का आकलन कर सकते हैं। ये हैं- मकान एवं गन्दी बस्तियां भीड़ और निर्वैयक्तिकरण, जल आपूर्ति और जल निकास परिवहन एवं यातायात सफाई तथा प्रदूषण की समस्याएं। इन पक्षों का विस्तृत वर्णन इस प्रकार हैः
(i) मकान और गन्दी बस्तियां: वर्तमान समय में शहर में मकान की समस्या गंभीर है। सरकार, उद्योगपति, पूंजीपति, उद्यमी, ठेकेदार और मकान मालिक, गरीब और मध्यम वर्ग के लोगों की मकान की जरूरतों से तालमेल करने में असमर्थ रहे हैं। 1988 की संयुक्त राष्ट्र की रिपोर्ट के अनुसार, भारत के बड़े से बड़े नगरों में रहने वाली शहरी जनसंख्या का एक चौथाई और आधे के बीच का भाग झोपड़ पट्टियों में रहता है। 1999 तक यह कमी शहरी क्षेत्रों में लगभग 1.5 करोड़ इकाइयों की थी। केवल दिल्ली में ही जहां एक दशक में (1991 से 1999 के बीच) 0.62 से 0.93 करोड़ जनसंख्या वृद्धि तथा हर वर्ष 65000 से 75000 लोगों की वृद्धि हो जाती है, उन्हें नये घर प्रदान करने की आवश्यकता होती है। दिल्ली की लगभग 70 प्रतिशत जनसंख्या यू.एन.आई. की रिपोर्ट के अनुसार, निम्नस्तरीय स्थितियों में रहती है। सरकारी प्रयत्नों के बावजूद भी, झोपड़ पट्टियों की जनसंख्या 2010 तक मकानों की समस्या और अभाव को भयावह बना देगी। गन्दी बस्तियों में जीवन दशाओं की विशेषताएं है अधिक भीड़, खराब वातावरण, स्वास्थ्य और परिवार कल्याण सेवाओं का अभाव, और मकानों की पूर्ण रूपेण कमी। परिणामतः इन बस्तियों में रहने वाले लोगों की दशाएं ग्रामीण क्षेत्रों में रहने वाले लोगों की अपेक्षा कहीं अधिक खराब और दयनीय हैं। कुछ राज्यों में हाउसिंग बोर्ड और नगर विकास प्राधिकरणों ने जीवन बीमा निगम, हुडको और ऐसी ही एजेंसियों की सहायता से मकानों की समस्या का समाधान का प्रयत्न किया है। वे मकान की कुल लागत मासिक किश्तों में भी वसूल करते हैं जो 9 प्रतिशत से 12 प्रतिशत के बीच ब्याज की दर पर होती है। इस प्रकार शहरों में आज भी रोटी और कपड़े के बाद यह सबसे बड़ी समस्या बनी हुई है।
(ii) भीड़ और निर्वैयक्तिकरणः भीड़ (जनसंख्या धनत्व) और अन्य लोगों की समस्याओं के प्रति लोगों की उदासीनता की समस्याएं (पड़ोसियों की समस्याओं सहित) एक और समस्या शहरी जीवन की उपज है। कुछ घर तो इतने अधिक भीड़-भाड़ वाले होते हैं कि उनमें एक कमरे में पांच से छः व्यक्ति तक रहते हैं। अधिक भीड़ के खराब प्रभाव होते हैं। यह विचलित व्यवहार को प्रोत्साहन देता है, बीमारियां फैलाता है और मानसिक रोगों, शराबखोरी और साम्प्रदायिक दंगों के लिए स्थितियां पैदा करता है।
(iii) जल आपूर्ति और जल निकासः पानी की समस्या भारत में अति गम्भीर होती जा रही है। ताज्जुब की बात यह है कि पृथ्वी के धरातल का एक तिहाई हिस्सा पानी से ढ़ंका हुआ है और फिर भी निवासी प्यासे हैं। यह संकट आदमियों द्वारा निर्मित है क्योंकि अधिकांश नदियां रासायनिक और औद्योगिक मलनिःस्राव से प्रदूषित हो गई हैं। फिर देश का दो-तिहाई शुद्ध पानी हर वर्ष वाष्पित होता है या समुद्रों में बह जाता है। हाल ही में यू.एन. आपत्ति स्थिति फण्ड ने जमीन के पानी प्रदूषण, पानी के साधनों का कुप्रबन्धन, अपर्याप्त कानून और वर्तमान कानूनों को दोषपूर्ण रूप से कार्यान्वित करने को समकालीन भारत में पानी की कमी का कारण माना है। भारत में वर्षा से काफी पानी मिलता है। फिर भी देश के 56 लाख गांवों में से आधे से अधिक को पर्याप्त और शुद्ध पानी की समस्या है। ग्रामीण विकास मंत्रालय के अनुसार देश में 70000 वासस्थानों (हर एक 50 परिवारों के साथ) को 1.6 किलोमीटर की परिधि में पानी के साधन की कमी है। सितम्बर, 1987 में दिल्ली में राज्यों के मुख्यमंत्रियों की सभा में पारित राष्ट्रीय जल नीति, जिसका उद्देश्य पीने के पानी की आवश्यकताओं को प्राथमिकता देना था, के बावजूद यह स्थिति अब भी बनी हुई है।
जब हम जल समस्या के दूसरी तरफ देखते हैं, अर्थात जल निष्कासन की तरफ तो स्थिति समान रूप से खराब पाते हैं। भारत के विषय में कम जानकारी का तथ्य यह है कि यहां एक भी ऐसा शहर नहीं है जो पूर्णरूपेण विकसित मल प्रवाह प्रणाली रखता हो। यह सम्मान चण्डीगढ़ जैसे शहर को भी प्राप्त नहीं है, क्योंकि इसके अंदर और चारों अनाधिकृत निर्माण मुख्य प्रणाली के घेरे से बाहर है। जल निष्कासन प्रणाली के न होने के कारण गर्मी के महीनों में भी ठहरे हुए पानी के बड़े तालाब देखे जा सकते हैं। जिस प्रकार हमें राष्ट्रीय जलनीति की आवश्यकता है, उसी प्रकार हमें एक राष्ट्रीय व क्षेत्रीय गन्दे जल के निष्क्रमण नीति की भी आवश्यकता है।
(iv) परिवहन और यातायातः भारत के सभी शहरों में परिवहन और यातायात की तस्वीर अत्यन्त असन्तोषजनक है। स्कूटरों, मोटर साइकिलों, मोपेडों तथा कारों की बढ़ती संख्या ने यातायात की समस्या को और भी खराब कर दिया है। उदाहरणार्थ, मुम्बई में 1986 और 1996 के बीच स्वचालित वाहनों की संख्या तिगुनी (3.1 लाख से 8.73 लाख) हो गई। ये वाहन धुएं के साथ हवा को दूषित करते हैं। केवल मुम्बई में ही हवा में पहुंचने वाले दूषित तत्व लगभग 3000 टन हैं जिसका 52 प्रतिशत स्वचालित वाहनों से, 2 प्रतिशत घरेलू ईंधन से, और शेष 46 प्रतिशत उद्योगों से होता है।
(v)सफाईः भारतीय शहरों में नगरपालिकाएं और कारपोरेशन कुव्यवस्था से इतने घिरे हैं कि उन्हें अन्य सब कार्यों में रूचि है, परन्तु सफाई में विशेष रूप से कूड़ा हटाने, नालियों की सफाई और सीवरों में रूकावटों को साफ कराने में कोई रूचि नहीं है। शहरों की सफाई व्यवस्था का प्रबन्ध करने में प्रेरणा का पूर्ण अभाव है। भीड़-भाड़वाले शहरी क्षेत्रों में अवैध गन्दी बस्तियों का विस्तार और उनमें रहने वाले लोगों में नागरिक समझदारी की कमी गन्दगी के ढे़रों को तथा बीमारियों को और भी बढ़ाती हैं।
हमारे शहरों में विविध प्रकार के म्युनिसिपल कार्यों में विविध प्रकार के कूट-व्यापार विद्यमान हैं। उदाहरण के लिए-
(a)क्योंकि कचरा उठाने के लिए भुगतान, चक्करों के आधार पर किया जाता है, न कि वाहन की भार क्षमता के आधार पर, इसलिए आलेखों में बड़ी संख्या में चक्कर दर्शाए जाते हैं और धन ठेकेदारों और म्युनिसिपल कर्मचारियों के बीच बंट जाता है।
(b)कचरा इकाट्ठा करने वाले वाहनों की बड़ी संख्या वास्तव में बाहरी कार्यों में प्रयोग की जाती है।
(c)मलबा हटाकर निजी पार्टियों को बेच दिया जाता है जो भवनों के भराव के काम आता है, जबकि मलवा हटाने का भुगतान नगरपालिका से भी वसूल कर लिया जाता है और
(d)ट्रकों और डम्परों के चालक सफाई ट्रकों में प्रयोग किये जाने वाले डीजल को बेच देते हैं।
स्पष्ट है कि मूल समस्या अत्यधिक नगरीकरण और परिणामस्वरूप गन्दी बस्तियों का होना है। सच्चाई यह है कि यदि शहर सफाई और सीवर व्यवस्था की उपेक्षा करना जारी रखेंगे तो आगामी वर्षों में शहरों में स्वास्थ्य संकट पर विजय पाना असम्भव हो जायेगा। दीर्घ-कालिक उपाय के रूप में आवश्यकता इस बात की है कि कूड़ा-करकट एकत्र करने की नयी प्रविधि का प्रयोग किया जाये। नयी प्रविधि के प्रयोग के अलावा नगरपालिका की मूल संरचना और भूमि प्रयोग नियोजन में मूलभूत परिवर्तन भी जरूरी है।
(vi) प्रदूषणः हमारे शहर व कस्बे वातावरण के मुख्य प्रदूषक हैं। अनेक शहर अपने सम्पूर्ण मल निष्क्रमण का लगभग 40 से 60 प्रतिशत और औद्योगिक सड़े पदार्थों का बहाव बिना शुद्ध किए पास की नदियों में बहा देते हैं। शहरी उद्योग अपनी चिमनियों से धुआं और गन्दी गैसें छोड़ कर वातावरण को प्रदूषित करते हैं जो जिन क्षेत्रों में प्रदूषण का स्तर अधिक है वहां काफी बीमारियां होती हैं जो विशेष रूप से 5 वर्ष से कम आयु के बच्चों और 50 वर्ष आयु से अधिक के लोगों को प्रभावित करती हैं। सल्फर डाइऑक्साइड, नाइट्रोजन डाइऑक्साइड आदि का प्रभाव इन बीमारियों को जन्म देता है।
शहरी क्षेत्रों में वातावरण प्रदूषण का विषय इतना महत्वपूर्ण समझा जाता है कि उच्चतम न्यायालय ने भी जुलाई 1995 में वातावरण सम्बन्धी कानूनों को सख्ती से लागू करने के आदेश दिए जिसमें दिल्ली के लगभग 146 संकटमय उद्योगों को नवम्बर-दिसम्बर, 1996 तक या तो बन्द दिया जाना था। यह कहीं अन्यत्र लगाया जाना था। इस आदेश का दिसम्बर, 1996 में प्रभावित श्रमिकों ने विरोध भी किया लेकिन शिखस्थ न्यायालय ने राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र के अन्दर उन उद्योगों के न स्थापन पर अपने निर्णय को नहीं बदला बल्कि उन्हें किसी पड़ोसी राज्य में लगाने के आदेश पर अडिग रहा। वाहनोत्सर्जित वायु प्रदूषक भार दिल्ली में 64 प्रतिशत, उर्जा चालित उद्योगों से 16 प्रतिशत तथा उद्योगों से 16 प्रतिशत माना गया है
निष्कर्षतः निश्चित रूप से नगरीय वातावरण के विभिन्न पक्षों के जिम्मेदार कुछ कारण होते हैं। इनमें से प्रमुख हैं: (i) शहर में और शहर से प्रव्रजन (ii) औद्योगिक विकास, (iii) सरकार की असहानुभूति (iv) दोषमुक्त नगरीय नियोजन और (v) स्वार्थी ताकतें।
Question : भारत में आधुनिकीकरण की प्रक्रिया का वर्णन कीजिए। उन कारकों की विवेचना कीजिए, जिन्होंने इसे अवरोधित किया है।
(2003)
Answer : आधुनिकीकरण एक ऐसी स्थिति है जिसमें प्रत्येक व्यक्ति उत्पादन या आय में वृद्धि करने के लिए प्राकृतिक साधनों पर नियंत्रण तथा नवीन प्रौद्योगिकी के उपभोग को विशेष महत्व देता है। संरचनात्मक विशेषताएं एवं सामाजिक- सांस्कृतिक विशेषताओं का अनुकरण सामाजिक विशेषताओं में आर्थिक विशेषीकरण, नगरीकरण, गतिशीलता में वृद्धि, शिक्षा का विस्तार राजनीतिक सत्ता का विकेंद्रीकरण जीवन के सभी पाठकों में राजनीति का प्रवेश परंपरागत अभिजात वर्ग की शक्ति में कमी, जनसामान्य की राजनीतिक सहभागिता में वृद्धि, सांस्कृतिक और मूल्य व्यवस्था में विभेदीकरण एवं संचार के साधनों में वृद्धि आदि विशेषताएं प्रमुख हैं।
आधुनिकीकरण की अवधारणा स्वयं इतनी जटिल है कि न तो उसे किसी एक परिभाषा के द्वारा स्पष्ट किया जा सकता है और न ही विभिन्न समाजशास्त्री उसके बारे में कोई सामान्य विचार प्रस्तुत कर सके हैं।
डॉ. योगेन्द्र सिंह ने आधुनिकीकरण की व्याख्या भारतीय संदर्भ में की है इनके अनुसार साधारणतया आधुनिक होने का अर्थ है ‘फैशनेबुल’ बनने से समझ लिया जाता है। जो अत्यधिक परिपूर्ण है। वास्तव में आधुनिकीकरण की तत्वों की ग्राह्यता परंपरा में होती है। उसका तात्पर्य है कि जब परंपराओं के अंतर्गत परिवर्तन समविकास के रूप में न होकर विषम विकास के रूप में होता है तो इस स्थिति को कम आधुनिकीकरण कहते हैं। डा. योगेंद्र सिंह के अनुसार मानव में कम समय में पश्चिमीकरण के फलस्वरूप जिस राष्ट्रीयता की भावना को बल मिला उससे भी आधुनिकीकरण की प्रक्रिया में तेजी से वृद्धि हुई। उसी का परिणाम था कि बीसवीं शताब्दी के प्रारंभिक समय से गांवों में भी समाज सुधार की प्रक्रिया को प्रोत्साहन मिला जिसके अंतर्गत सती प्रथा, मानवबलि, अस्पृश्यता, विधवाओं का शोषण, तथा दासप्रथा का कुछ सीमा तक सामाजिक कुरीतियों का विरोध किया जाने लगा।
आन्द्रे बिले का कथन है कि घर में स्त्रियां का जीवन भी परंपरागत है लेकिन घर के बाहर उनके जीवन में आधुनिकता के कारण स्पष्ट होने लगे हैं। घर के अंदर भी अब गैस का चूल्हा, स्टोव, विजली का पंखा, प्रेशर कूकर और सौन्दर्य प्रशाधन आदि आधुनिक वस्तुएं उपभोग में लाई जाने लगी हैं। गांव में अब विवाह के अवसर पर आधुनिक ढंग से कई साज-सज्जा को महत्व दिया जाता है तथा आधुनिक ढंग के साज-सज्जा एवं खाद्य एवं पेय पदार्थों का उपभोग किया जाने लगा है।
परन्तु आधुनिकीकरण की अवधारणों को भारतीय समाज में विभिन्न अवरोधी कारक आज भी मौजूद हैं जो उसे पूर्ण रूप में इसे रोक रहे हैं। इसके विभिन्न एवं मुख्य कारक इस प्रकार हैं।
अशिक्षाः भारतीय समाज में आधुनिकीकारण की प्रक्रिया को अवरोधित करने में अशिक्षा महत्वपूर्ण कारक है। भारतीय समाज में जो अशिक्षा का स्वरूप है वो आधुनिकीकरण को पूर्णतः समझने में असक्षम है। वो परंपरागत व्यवस्था में अधिक विश्वास करते हैं और आधुनिक स्वरूप को पसंद भी नहीं करते हैं।
जनसंख्याः भारतीय समाज में आधुनिकीकरण की प्रक्रिया को फलने-फूलने में भी महत्वपूर्ण कारक हैं। भारत की जनसंख्या उस तीब्र गति से बढ़ रही है और जिससे बेरोजगारी एवं अनेक तरह की समस्या से जूझ रहे हैं।
परंपरागत मानसिकताः भारत के लोग आज भी पुरानी परंपराओं को छोड़ना नहीं चाहते हैं जिनका कोई महत्व नहीं है। उनके लिए फिर भी वो उस बुरी लत को नहीं छोड़ना चाहते हैं। छूआछूत, अंतरजातीय विवाह को समाज में आज भी बुरी नजर से देखा जाता है अतः इस मानसिकता को बदलना बहुत जरूरी है जिससे आधुनिकता के महत्व को तभी समझ पायेंगे।
महिलाओं की स्थितिः भारतीय समाज में महिलाओं की स्थिति में सुधार तो हुआ लेकिन बहुत सी बुराइयां आज भी मौजूद हैं जैसे- लड़कियों की साक्षरता दर आज भी बहुत कम है। जबकि किसी समाज की उन्नति में महिलाओं की अहम भूमिका होती है। आज भी उन्हें शिक्षा से दूर रखा जाता है और बहुत सी बुराइयां मौजूद हैं जो आधुनिकीकरण की प्रक्रिया में बाधक हैं।
इस बात को नजरअंदाज नहीं किया जा सकता है कि भारतीय समाज को आधुनिकीकरण ने व्यापक रूप से प्रभावित किया है। परंतु भारतीय समाज में आधुनिकीकरण की प्रक्रिया को पूर्ण स्वरूप में आने के लिए कुछ पहलुओं को मजबूत करना अत्यंत आवश्यक है। अगर इन कारकों पर सार्वजनिक रूप से ध्यान दिया जाये तो भारत में आधुनिकीकरण की प्रक्रिया पूर्णतः फल-फूल सकती।
Question : भारतीय समाज पर जन-संचार माध्यमों के प्रभाव का परीक्षण कीजिए। क्या जन-संचार माध्यमों में से मंथर गति से प्रवेश करता हुआ पश्चिमी उपभोक्तावाद और भौतिकवादी संस्कृति पर विपरीत प्रभाव डाल रहे हैं?
(2002)
Answer : किसी समाज पर जनसंचार के साधनों से जैसे पुस्तकें, रेडियो, समाचारपत्र, फिल्म या सिनेमा, रिकार्ड और वीडियो का गहरा प्रभाव पड़ता है जनसंचार के ये साधन विशेष रूप से फिल्म, रेडियो टी.वी. एक साथ राष्ट्रव्यापी श्रोताओं को संदेश पहुंचाते हैं। इन साधनों ने सभी सीमाओं को समाप्त कर दिया है, जैसे-भारतीय नेशनल नेटवर्क पर प्रसारित होने वाले धारावाहिक जैसे-महाभारत, रामायण एवं वर्तमान में प्रसारित हो रहा धारावाहिक ‘शक्तिमान’ एवं ‘क्योंकि सास भी कभी बहू थी, का भारतीय जनमानस पर गहरा प्रभाव पड़ा है। धारावाहिक महाभारत के समय बोले गये संवादों में ‘श्री’ का भी प्रयोग विशेष कर शकुनी एवं दुर्योधन के मध्य होने वाले संवादों में जिसमें दुर्योधन, मामा शकुनी को मामाश्री कहकर संबोधित करता था, इसी प्रकार रामायण में हनुमान द्वारा कोई भी कार्य करने से पहले बोला जाने वाला वाक्य ‘जय श्री राम’ भारतीय युवाओं में काफी लोकप्रिय हुआ था, तथा युवाओं द्वारा इन शब्दों ‘श्री’ एवं ‘जय श्री राम’ का प्रयोग धड़ल्ले से अपने वाक्यों में किया जा रहा है। इसी प्रकार शक्तिमान द्वारा दिखाये जा रहे वीरतापूर्ण कारनामों विशेषकर बहुमंजली इमारतों से एक गोले में चक्कर काटते हुए शक्तिमान का नीचे कूदना, का बच्चों ने काफी अनुकरण किया तथा अपने आपको शक्तिमान बनाने के लिए नीचे कूदकर अपनी जान गंवाई। इसी प्रकार क्योंकि सास भी कभी बहू थी का भारतीय महिलाओं पर गहरा प्रभाव पड़ रहा है विशेषकर सास-बहू के रिश्ते में तथा इन रिश्तों में व्यापक बदलाव भी देखने को मिल रहे हैं। इसलिए भारतीय समाज पर इसका प्रभाव अत्यंत महत्वपूर्ण है। एक अन्य रोचक सवाल यह है कि सबसे अधिक महत्वपूर्ण माध्यम कौन है? उदाहरण के लिए भारत में टी.वी. सभी के लिए महत्वपूर्ण है। टी.वी. देखना, विश्वभर में खाली समय बिताने का प्रमुख काम हो गया है।
भारतीय जनसंचार माध्यमों में मंथर गति से प्रवेश करता हुआ पश्चिमी उपभोक्तावादी संस्कृति का भारतीय समाज पर बुरा ज्यादा एवं अच्छा कम प्रभाव पड़ रहा है। विशेषकर युवा वर्ग महिलाओं एवं पारिवारिक संरचना पर। टेलीविजन पर केबल के जरिए दिखाये जाने वाले विभिन्न पश्चिमी देशों के कार्यक्रम जिनका रहन-सहन, वेश-भूषा, संस्कृति सामाजिक एवं परिवारिक संरचना भारतीय है। समाज के रहन-सहन, वेश-भूषा, सामाजिक एवं पारिवारिक संरचना से भिन्न होता है। चूंकि टी.वी. अपने संदेश के जरिए दर्शकों के साथ सीधा संपर्क करता है। यह संपर्क एकतरफा होता है और इसमें सामाजिक एवं व्यक्तिगत संपर्क शामिल नहीं है। साथ ही यह अभिकरण परिवार के अभिकरण के भीतर की व्यवस्था है, क्योंकि लोग अपने घर के भीतर ही टी.वी. देखते हैं। इसमें सामाजिक एवं लोगों की पारस्परिक क्रिया शामिल नहीं होती। यह किसी समाज विशेष से जुड़ी मान्यताओं के विरुद्ध अन्य मान्यताओं का प्रचार कर सकता है। इसलिए इसका संदेश कहीं सार्थक तो कहीं निरर्थक भी हो सकता है। चूंकि भारतीय समाज में अशिक्षितों की जनसंख्या ज्यादा है जो ग्रामीण क्षेत्रों में रहते है, जबकि इन कार्यक्रमों को शहरी क्षेत्रों को ध्यान में रखकर बनाया जाता है। इसलिए इसका नकारात्मक प्रभाव ज्यादा पड़ रहा है।
इन विदेशी कार्यक्रमों में जैसेW.W.F. में दिखाये जा रहे हिंसात्मक कार्यक्रम भारतीय बच्चों को हिंसात्मक बना रहे हैं। विभिन्न विदेशी चैनलों पर दिखाए जा रही विभिन्न विदेशी फिल्में जो अश्लीलता, असभ्य संवादों, इनके पात्रों द्वारा पहने जा रहे है अंग दिखाऊ वस्त्रों तथा इन फिल्मों एवं कार्यक्रमों की कहानी जो मुख्यतः प्रणय संबंधों तथा विवाहपूर्ण या विवाह के बाद शारीरिक संबंधों पर आधारित होते हैं तथा जिनमें पारिवारिक संरचना नामक अवरधारणा का सर्वथा अभाव होता है, का भारतीय महिला एवं भारतीय समाज एवं परिवार पर नकारात्मक प्रभाव डाल रहा है। भारतीय महिलाओं द्वारा फैशन के नाम पर इन पात्रों द्वारा पहने गये कपड़ों से उनके साथ छेड़खानी एवं बलात्कार की घटनाओं को प्रोत्साहन मिल रहा है। विवाह पूर्ण एवं विवाह बाद होने वाली शारीरिक संबंधों से पारिवारिक संचरना में विघटन हो रहा है जिसके फलस्वरूप व्यक्तित्व का विघटन एवं तलाक की दरों में वृद्धि हो रही है। इन कार्यक्रमों द्वारा भैतिकवादी प्रवृत्ति को बढ़ावा मिलने के कारण लोगों के बीच सामंजस्य, प्रेम एवं सहयोग की भावना का ह्रास होता जा रहा है।
दूसरी तरफ इन कार्यक्रमों से भारतीय बच्चों एवं महिलाओं को अपने अधिकारों के प्रति होने में मदद मिल रही है। इनके जीवन-स्तर में सुधार आ रहा है इसके साथ ही साथ उन्हें अपने मनपसंद कार्यक्रमों को देखकर बोरियत दूर करने का मौका भी मिल रहा है।
टेलीविजन के माध्यम से दुनिया के विभिन्न देशों में होने वाले विभिन्न घटनाओं, सांस्कृतिक गतिविधियों, राजनीतिक उठा-पठकों एवं खेलकूदों के विषय में तत्काल एवं सटीक जानकारी मिलती है जो मनोरंजक होने के साथ-साथ ज्ञानवर्द्धक भी होते हैं जो लोगों के ज्ञान में वृद्धि करते हैं। इस प्रकार उपरोक्त विवेचन के आधार पर हम कह सकते हैं जनसंचार का किसी भी समाज पर गहरा प्रभाव पड़ता है। इन जनसंचार के माध्यमों से पश्चिमी उपभोक्तावाद एवं भौतिकवादी संस्कृतियों का नकारात्मक एवं सकारात्मक दोनों प्रकार के प्रभाव पड़ रहे हैं। चूंकि ये पश्चिमी समाज भारतीय समाज से ज्यादा शिक्षित, खुले विचारों एवं पारिवारिक एवं ग्रामीण समाज संरचना में भारतीय समाज से भिन्न होता है इसलिए यह कार्यक्रम भारतीय समाज के लिये उपयुक्त नहीं है इसी कारण इनका भारतीय समाज पर नकारात्मक प्रभाव ज्यादा पड़ रहा है। लेकिन इस बात से भी इंकार नहीं किया जा सकता कि यह भारतीय जनसामान्य में नये संचार, उत्साह एवं जीवन के प्रति महत्वाकांक्षा एवं लोगों के ज्ञान में वृद्धि भी कर रहे हैं। वैसे हर देश एवं समाज की अपनी-अपनी संस्कृति एवं सभ्यता होती है जो उस देश के विषय में ज्ञान कराती है। वैसे कोई भी सभ्यता एवं संस्कृति बुरी नहीं होती है केवल सोचने का ढंग उसे अच्छा एवं बुरा बना देता है इसलिए हम कह सकते हैं किः
"Nothing is good or bad
But thinking make it so."
Question : क्या आप इस विचार से सहमत हैं कि गंदी बस्तियां अंधकार और निराशा के क्षेत्र होते हैं? अपने उत्तर के समर्थन में कारण बताइए।
(2000)
Answer : वर्तमान में औद्योगिक केंद्रों में जनसंख्या की तीव्र वृद्धि हुई है एवं उसी के अनुपात में मकानों का निर्माण नहीं हो पाने के कारण वहां अनेक गंदी बस्तियां बन गयी है। विश्व के प्रत्येक प्रमुख नगर के पांचवें भाग से लेकर आधे भाग तक की जनसंख्या गन्दी बस्तियां अथवा उसी के समान दशाओं वाले मकानों में रहती हैं। नगरों की कैन्सर के समान इस वृद्धि को विद्वानों ने ‘पत्थर का रेगिस्तान’ व्याधिकी नगर, ‘नरक की संक्षिप्त-रूपरेखा’, आदि कहकर पुकारा है। गन्दी बस्तियों में मकान अंधेरे व सीलनयुक्त होते हैं। इनमें शौचालय, स्नानघर, पानी बिजली, हवा एवं रोशनी की पर्याप्त सुविधाओं का अभाव पाया जाता है। साथ ही इनमें मच्छर, खटमल, जुंओं, छिपकलियों, चूहों और बीमारी के कीटाणुओं की बहुलता पायी जाती है। निवास की यह अर्द्ध-मानवीय दशा है। यह मानव जाति की शारीरिक एवं मानसिक दृष्टि से कमजोर पीढ़ी को जन्म दे रही है।
केंद्रीय सरकार द्वारा 1956 में बनाये गये गन्दी बस्ती क्षेत्र अधिनियम में गन्दी बस्ती को इस प्रकार से परिभाषित किया गया है, ‘गन्दी बस्ती प्रमुख रूप से एक ऐसा निवासीय क्षेत्र हैं जहां के निवास-स्थान नष्ट हो गए हों एवं अत्याधिक भीड़-भाड़ युक्त हों, जिसकी डिजाइन त्रुटिपुर्ण हो, जहां रोशनदान, प्रकाश एवं सफाई का अभाव हो या इनमें से कुछ कारकों के सम्मिलित प्रभाव के कारण सुरक्षा, स्वास्थ्य एवं नैतिकता के लिए हानिप्रद हों।’
संयुक्त राष्ट्र संघ के अनुसार, ‘गन्दी बस्ती एक मकान, मकानों का एक समूह या क्षेत्र है जिसकी विशेषता भीड़-भाड़युक्त, पत्तनोन्मुख, अस्वास्थ्यकर दशा तथा सुविधाओं का अभाव है। इन दशाओं अथवा इनमें से किसी एक के कारण इसके निवासियों अथवा समुदाय के स्वास्थ्य, सुरक्षा एवं नैतिकता को खतरा उत्पन्न हो जाता है।’
निश्चित तौर यह कहा जा सकता है कि गन्दी बस्तियां अंधकार एवं निराशा के क्षेत्र होते हैं। इस तथ्य के निम्नांकित कारण हो सकते हैं-
भारतीय नगरों में गन्दी बस्तियों की भीषण समस्या है। भारत में नगरीय जनसंख्या का पांचवां भाग गन्दी बस्तियों में निवास करती है। सन् 1991 में भारत में गन्दी बस्तियों में रहने वाली जनसंख्या लगभग 4.88 करोड़ थी जो वर्तमान में बढ़कर लगभग 6.13 करोड़ हो गयी है। नगरीय जनसंख्या में वृद्धि के साथ-साथ गन्दी बस्तियों की जनसंख्या में भी वृद्धि हुई है।
Question : गंदी बस्तियां सामाजिक पटल पर क्षत्चिन्ह हैं। इन क्षत्चिह्नों को किस प्रकार दूर किया जा सकता है?
(1999)
Answer : वर्तमान में औद्योगिक केंद्रों में जनसंख्या की तीव्र वृद्धि हुई है। एवं उसी के अनुपात मे मकानों का निर्माण नहीं हो पाने के कारण वहां अनेक गंदी बस्तियां बन गयी हैं। विश्व के प्रत्येक नगर में पांचवें भाग से लेकर आधे भाग तक की जनसंख्या गन्दी बस्तियों अथवा उसी के समान दशाओं वाले मकानों में रहती है। नगरों की फैन्सर के समान इस वृद्धि को विद्वानों ने ‘पत्थर का रेगिस्तान’व्याधिकी नगर, ‘नरक की संक्षिप्त रूप रेखा’, आदि कहकर पुकारा है। गन्दी बस्तियों में मकान अंधेरे व सीलनयुक्त होते हैं। इनमें शौचालय, स्नानघर, पानी, बिजली, हवा एवं रोशनी की पर्याप्त सुविधाओं का अभाव पाया जाता है। साथ ही इनमें मच्छर, खटमल, जुंओं, छिपकलियों, चूहों और बीमारी के कीटाणुओं की बहुलता पायी जाती है। निवास की यह अर्द्ध-मानवीय दशा है। यह मानव जाति की शारीरिक एव मानसिक दृष्टि से कमजोर पीढ़ी को जन्म दे रही है।
भारतीय नगरों में गन्दी बस्तियों की भीषण समस्या है। भारत में नगरीय जनसंख्या का पांचवां भाग गन्दी बस्तियों में निवास करता है। 1981 में भारत की जनसंख्या 68.51 करोड़ थी जिसमें से 21.81 प्रतिशत जनसंख्या नगरों में निवास करती थी। 2001 में देश की जनसंख्या बढ़कर 102.7 करोड़ हो गयी। इनमें से 27.78 प्रतिशत लोग नगरीय क्षेत्र में रह रहे थे। सन् 1991 में भारत में गन्दी बस्तियों में रहने वाली जनसंख्या लगभग 4.88 करोड़ थी जो वर्तमान में बढ़कर लगभग 6.13 करोड़ हो गयी है। नगरीय जनसंख्या में वृद्धि के साथ-साथ गन्दी बस्तियों की जनसंख्या में भी वृद्धि हुई। नगरों में भूमि की कीमत, इमारती सामान व श्रम की कीमत में वृद्धि हुई। अतः नए मकानों का निर्माण काफी कठिन हो गया है और कई मंजिलें मकान बनाने पड़े हैं, जिनमें हवा, रोशनी, जल व बिजली का पूरा प्रबंध नहीं हो पाया है। उनमें स्वास्थ्य एवं सफाई की सुविधाओं का पूर्ण अभाव है। 2 अक्टूबर, 1952, को कानपुर की श्रमिक बस्तियों का निरीक्षण करते हुए नेहरू ने इन्हे ‘नरक कुंड’की संज्ञा दी थी। मसानी कहते है कि ‘विश्व की रचना ईश्वर ने की है, नगरों की मानव ने और बस्तियों की शैतानों ने।’ गन्दी बस्तियों को भारत के विभिन्न भागों में विभिन्न नामों से पुकारा जाता हैं मुंबई में इन्हें ‘चाल’ कानुपर में ‘अहाते’ कोलकाता में ‘बस्ती’, चेन्नई में ‘चेरी’, दिल्ली में ‘कटरा’, खान क्षेत्रों में ‘घोवरा’ तथा बगान क्षेत्रों में ‘बैरेक्स’ कहते हैं।
मुंबई में गंदी बस्तियां बनने का कारण इस नगर का राजनीतिक व आर्थिक गतिविधियों का केंद्र होना है। यही कारण है कि कई गांवों के लोग आकर्षित होकर मुंबई आते हैं। पिछले पचास वर्षों में इनकी जनसंख्या तीव्र गति से बढ़ी है और स्थानीय प्रशासन द्वारा लोगों के आवास पर उचित ध्यान नहीं दिया गया है। लाभ कमाने की दृष्टि से कई लोगों ने व्यक्तिगत भवन बनाए हैं जिन्हें ‘चाल’ कहते हैं। रामचन्द्रन ने अपने अध्ययन में यह पाया कि ग्रेट मुंबई की बस्ती में 78 प्रतिशत लोग कम आय वाले थे। कई मकानों में रसोईघर, स्नानघर व शौचालयों का अभाव था। शाही श्रम आयोग ने लिखा है कि अधिकांश तौर पर ये ‘चालें’ सुधार योग्य नहीं है, अतः इन्हें गिरा देना चाहिए।
कानपुर में गंदी बस्तियों को ‘अहाता’ के नाम से पुकारते हैं। कानुपर के अधिकांश श्रमिक अहातों में रहते हैं। कानपुर की गन्दी बस्तियों को देखकर एक बार पंडित नेहरू इतने उत्तेजित हो गये थे कि उन्होंने कहा, ‘ये गंदी बस्तियां मानवीय पतन की चरम सीमा का प्रतिनिधित्व करती है। इनके लिए उत्तरदायी व्यक्तियों को शूली पर लटका देना चाहिए।’
गंदी बस्तियों में उपस्थित विभिन्न परिस्थितियों को दूर करने के लिए हम निम्नांकित उपाय कर सकते हैंः
राष्ट्रीय श्रम आयोग ने भी इस संदर्भ में कुछ सुझाव दिए हैं:
Question : आधुनिकीकरण किस प्रकार परिवर्तन का कारण है? इसके सकारात्मक एवं नकारात्मक पक्षों की विवेचना करें।
(1999)
Answer : वर्तमान समय में आधुनिकीकरण सामाजिक परिवर्तन का एक सशक्त कारण है। इस तथ्य की पुष्टि डब्ल्यु- मूर, मैकलीलैंड एवं आधुनिकीकरण सिद्धांत के आलोचकों ने की है। विलबर्ट मूर ने अनुसार सामाजिक परिवर्तन परम्परागत और पूर्व आधुनिक समाज का प्रोद्योगिकी पर आधारित सामाजिक संगठनों जैसे कि आर्थिक रूप से विकसित एवं तुलनात्मक रूप से राजनीतिक स्थायित्व वाले पश्चिमी विश्व के राष्ट्रों में पूर्ण रूपांतरण है। उसने औद्योगीकरण जिसके अंतर्गत मूल्यों, संस्थाओं, संगठनों एवं प्रेरणाओं में परिवर्तन होते हैं। आधुनिकीकरण के सिद्धांत के अनुसार विकास समाज के अंतर्गत ही आरंभ होता है एवं सभी समाजों में मुख्यतः इसका विन्यास एक जैसा रहता है। आधुनिकीकरण के सिद्धांतवादियों के अनुसार विकास का अन्तिम परिणाम समृद्धि एवं आपेक्षिक राजनीतिक स्थिरता है।
मैक्स वेबर की तरह डेविस मैक्लीलैंड ने भी व्यक्तियों के मूल्यों एवं प्रेरणाओं जैसे आंतरिक कारकों को महत्व दिया है जो कि व्यक्तियों के भाग्य निर्माण में अवसर प्रदान करते हैं। इस प्रकार सामाजिक पिछड़ापन, गरीबी, कुपोषण इत्यादि की समस्याएं मुख्यतः पांरपरिक एवं गैरपांरपरिक चिंतन से जुड़ी हैं। इसलिए पिछड़े क्षेत्रों की व्यक्तियों की समस्याओं के समाधान के लिए शैक्षिक कार्यक्रम एवं तकनीकी सहायता उनकी उपलब्धियों के लिए प्रदान की जाती हैं। मैक्लीलैंड का उपलब्धि की आवश्यकता का विचार सामाजिक परिवर्तन की प्रेरणा शक्ति या सामान्य रूप से एवं औद्योगिकरण की प्रक्रिया विशेष रूप से महत्ता के दृष्टिकोण को स्पष्ट करता है। उसने यह निष्कर्ष निकाला कि आधुनिकीकरण एवं विकास संस्कृति, विचारों एवं प्रोद्योगिकी के विसरण की प्रक्रिया द्वारा प्राप्त किया जा सकता है।
सैमुअल पी. हटिंगटन ने ‘द चेंज टु चेंज: मॉडर्नाईजेशन, डेवलपमेंट एंड पॉलिटिक्स’ नामक एक लेख के माध्यम से आधुनिकता के निम्नांकित सकारात्मक पक्षों को उजागर किया हैः
आधुनिकीकरण की प्रक्रिया के मूल में तीन स्थापनाएं है-
आधुनिकीकरण की प्रक्रिया के नकारात्मक पक्ष
Question : ग्रामीण और शहरी आबादी के बीच बढ़ती आर्थिक असमानताएं
(1998)
Answer : नगरीय एवं ग्रामीण आर्थिक जीवन में बहुत अंतर है। सिम्स लिखते हैं, जीविकोपार्जन की दो मौलिक रूप से भिन्न रीतियों ने ग्रामीण और नगरीय संसार को अलग कर दिया है। गांव मुख्य रूप से कृषि पर निर्भर हैं तो नगर व्यवसायों पर। गांववासियों का जीवन-स्तर नगर वासियों की तुलना में निम्न होता है। नगर के लोग गांव वालों की अपेक्षा अधिक खर्चीले होते हैं। रॉस ने सही कहा है कि ‘ग्रामीण जीवन सुझाव देता है ‘बचाओं’ नागरिक जीवन सुझाता है ‘खर्च करो’। नगर में ग्राम की अपेक्षा खर्च के अवसर भी अधिक हैं। आराम और विलासिता पर नगर वाले अधिक खर्च करते हैं तो ग्राम वालों की खर्च की सीमा आवश्यकताओं तक ही होती है। गांव की अपेक्षा नगरों में श्रम-विभाजन एवं विशेषीकरण अधिक पाया जाता है।
उपरोक्त तथ्यों से स्पष्ट है कि ग्रामीण एवं शहरी पृष्ठभूमि में अनेक अंतर है जिसके कारण इसके बीच की आर्थिक असमानताएं पायी जाती है। परंतु हाल के वर्षों में शहरी क्षेत्रों में रोजगार के अवसर बढ़े हैं जबकि दूसरी और ग्रामीण क्षेत्रों में सालों भर रोजगार उपलब्ध नहीं हो पाते हैं। शहरी क्षेत्र में मजदूरी की राशि भी अधिक होती है जबकि ग्रामीण क्षेत्रों में परंपरागत रूप से मजदूरी दी जाती है जो वाक्य चिंताजनक है। ग्रामीण अर्थ व्यवस्था मुख्यतः कृषि आधारित होती है जिसमें जनसंख्या अधिक है एवं भूमि कम। अतः इस स्थिति में बेरोजगारी का बढ़ना स्वाभाविक है, जबकि शहरों में उद्योग की स्थापना के अतिरिक्त अन्य बहुत-सी निजी कंपनियों की भरमार है। इन कारणों के फलस्वरूप नगरीकरण की प्रक्रिया तेजी से हो रही है। अतः इस प्रकार से हम कह सकते हैं कि वर्तमान समय में ग्रामीण एवं शहरी आबादी के बीच आर्थिक असमानताएं बढ़ती जा रही है।
Question : अनियोजित शहरी वृद्धि के सामाजिक परिणाम।
(1998)
Answer : अनियोजित शहरी वृद्धि के फलस्वरूप निम्नांकित सामाजिक परिणाम हुए हैं-