Question : जाति की उत्पत्ति के प्रजातीय सिद्धान्त।
(2005)
Answer : जाति-व्यवस्था की उत्पत्ति को स्पष्ट करने में प्रजातीय आधार को लगभग सभी विद्वानों ने किसी न किसी रूप में अवश्य स्वीकार किया है। एक ओर रिजले और मजूमदार जैसे विद्वान इस कारक को सबसे अधिक महत्व देते हैं, जबकि दूसरी ओर धुरिये, एन.के. दत्त और राय ने प्रजातीय आधार को एक सहयोगी आधार के रूप में ही स्वीकार किया है। विभिन्न विद्वानों के अनुसार जाति-व्यवस्था की उत्पत्ति में प्रजातीय कारकों के योगदान को इस प्रकार स्पष्ट किया जा सकता हैः
हरबर्ट रिजले के अनुसार जाति-प्रथा की उत्पत्ति में तीन कारक आधारभूत रहें हैः (क) प्रजातीय संपर्क, (ख) इस सम्पर्क से उत्पन्न वर्ण संकरता तथा (ग) वर्ग-भेद की भावना। इनके अनुसार भारत में जाति-व्यवस्था आरम्भ से ही विद्यमान नहीं थी, बल्कि इसका आरम्भ आर्यों की उस शाखा के द्वारा हुआ जिसने गिलगिट और चिवाल के रास्ते भारत में आकर यहां के मूल निवासी द्रविड़ों को परास्त किया था। रिजले का विश्वास है कि आर्यों में विशुद्धता के आधार पर सामाजिक विभाजन की व्यवस्था पहले से ही प्रचलित थी। जब आर्य भारत में आये तब उन्होंने प्रजातीय आधार पर स्वय को उच्च और द्रविड़ों को निम्न वर्ग का कहना आरम्भ कर दिया। कालान्तर में प्रजातीय संपर्क में वृद्धि होने से आर्य स्वयं की रक्त की विशुद्धता के आधार पर तीन प्रमुख वर्णों में विभाजित हो गये, जबकि द्रविड़ों को ‘दास’ अथवा ‘शूद्र’ कहा जाने लगा। इसके उपरान्त जब कभी भी अनुलोम के नियम की अवहेलना हुई अर्थात् उच्च वर्ण की स्त्रियों ने निम्न वर्ण के पुरूषों से विवाह सम्बन्ध स्थापित किये, तब ऐसे विवाहों से उत्पन्न सन्तानों को ‘वर्णसंकर’ मान लिया गया तथा इस वर्ण संकर समूह को एक नवीन जाति के रूप में देखा जाने लगा। इस आधार पर वैवाहिक नियमों काउल्लंघन होते रहने की स्थिति में जातियों की संख्या में निरन्तर वृद्धि होती रही और वर्ग-भेद की भावना के कारण कभी भी एक जाति दूसरी जाति से नहीं मिल सकी। इस प्रकार रिजले के अनुसार-
आदि जातियों की उत्पत्ति का वास्तविक क्रम रहा है। रिजले ने तो यहां तक निष्कर्ष दे दिया कि भारतवर्ष में व्यक्ति की नाक की बनावट (जो एक प्रजातीय लक्षण है) से ही उसकी सामाजिक अथवा जातिगत स्थिति को ज्ञात किया जा सकता है।
मजूमदार ने भी जाति व्यवस्था के विभाजन जातियों में ऊंच-नीच की व्यवस्था और उपजातियों के निर्माण की स्थिति को प्रजातीय अधिकार पर स्पष्ट किया है। रिजले के मत से मजूमदार भी सहमत थे कि भारत में आने से पहले ही आर्यों में सामाजिक विभाजन की एक स्पष्ट नीति प्रचलित थी। इन्होंने स्पष्ट किया कि सामाजिक संगठन का निर्माण एक ऐसे संस्तरण के रूप में हुआ, जिसमें ‘प्रत्येक जाति का पद उस समूह के रक्त की शुद्धता और अन्य समूहों से उसके पृथक्करण के आधार पर निर्धारित हो गया। ब्राह्मणों ने अपनी प्रजातीय विशुद्धता को सबसे अधिक बनाये रखा, जिसके फलस्वरूप सामाजिक व्यवस्था में उन्हें सर्वोच्च स्थिति प्राप्त हो गयी। भारत की मूल जनजातियों ने भी अपनी विशुद्धता को बनाये रखने के प्रयत्न किये, लेकिन अन्य समूहों से उनका अधिक सम्पर्क न होने के कारण उन्हें निम्नतम सामाजिक स्थिति प्राप्त हुई।’
धुरिये ने जाति व्यवस्था की उत्पत्ति को स्पष्ट करने के लिए किसी प्रजातीय सिद्धांत की रचना नहीं की है, बल्कि इसने रिजले के सिद्धांत के कुछ अंशों को ही स्वीकार किया है। धुरिये ने स्पष्ट किया कि आर्यों ने अपनी सांस्कृतिक और प्रजातीय विशुद्धता को बनाये रखने के लिए द्रविड़ों से पृथकता की नीति अपनायी। वास्तव में, जाति व्यवस्था की उत्पत्ति के इस सिद्धांत को केवल आंशिक मान्यता ही मिली है।
Question : कृषक समाजों के लक्षण।
(2005)
Answer : रॉबर्ट रेडफील्ड ने कृषक समाज अवधारणा के माध्यम से ग्रामीण समाज की आन्तरिक एवं बाह्य संरचना को समझाने का प्रयत्न किया है। कृषक समाजों में काफी जटिलता और स्तरीकरण देखने को मिलता है। ऐसे समाजों में कई प्रकार के समूह, वर्ग एवं श्रेणियां सम्मिलित हैं, जिनमें संबंधित लोगों को किसी भी स्वीकृत अर्थ में कृषक नहीं कहा जा सकता।
कृषक समाजों के लक्षण को स्पष्ट करने की दृष्टि से आन्द्रे बिताई ने कृषक शब्द के तीन अर्थों पर प्रकाश डाला है। प्रथम, कृषक भूमि से जुड़ा होता है। वह न केवल उस पर निर्भर रहता है बल्कि उसे अपने श्रम से फलदायक बनाता है। कानूनी दृष्टि से वह भूमि का स्वामी, उसे किराये पर जोतने वाला या बिना भूस्वामी अधिकार के एक श्रमिक हो सकता है। लेकिन इन सब स्थितियों में वह श्रम द्वारा अपनी आजीविका कमाता है। द्वितीय, ऐसा माना जाता है कि अधिकांश समाजों में कृषकों की निम्न स्थिति होती है। वे लोग जो कृषक के परिश्रमी, सरल तथा मितव्ययी होने की प्रशंसा करते हैं, स्वीकार करते हैं कि समाज में उनकी वास्तविक प्रतिष्ठा ऊंची नहीं होती। तृतीय, कृषकों को मजदूरों का प्रतिपक्ष या पूरक माना जाता है। कहने का तात्पर्य यह है कि कृषकों तथा श्रमिकों के लिए यह समझा जाता है कि ये एक ही श्रेणी के अन्तर्गत आते हैं। ऐसा मानने से यह स्पष्ट हो जाता है कि कृषकों का विभिन्न वर्गों के द्वारा शोषण होता है। एक ओर शोषित कृषक वर्ग आता है तो दूसरी ओर शोषणकर्त्ता। ‘कृषक’ शब्द के उपरोक्त तीन अर्थों को ध्यान में रखने पर स्पष्ट हो जाता है कि सम्पूर्ण भारतीय समाज के लिए ‘कृषक समाज’ शब्दावली का प्रयोग अनुपयुक्त है।
संक्षेप में, राबर्ट रेफील्ड ने कृषक समाज की पांच लक्षणों का वर्णन किया हैः
Question : पीढ़ी अन्तराल।
(2005)
Answer : पीढ़ी अंतराल निश्चित रूप से एक आधुनिक घटना है परन्तु यह प्राचीन काल में भी विद्यमान रहा है। एस.एन. एजेनटाड ने माना है कि अन्तर पीढ़ीय अन्तर्क्रिया अनौपचारिक मित्र समूहों में अधिक मुक्त वातावरण में फलती है। सार्वभौमिक शिक्षा की तरह यद्यपि कम सीमा में, उद्योग में काम और आफिस में नौकरी ने भी अनेक युवकों को अपनी पहचान बनाने और सामूहिक अनुभव प्राप्त करने का आधार प्रदान किया है। कभी-कभी युवक प्रभावी मानदण्डों के विरूद्ध खड़े हो जाते हैं और सांस्कृतिक दृष्टि से विचलित जीवन-शैली अपना लेते हैं। वह युवा समूह, जो अधिकतर शिक्षा के प्रसंग में पैदा हुआ है, वर्ग, लिंग और व्यक्तिवादिता का प्रभाव दर्शाता है। इस प्रकार 1950 के दशक के बाद युवा संस्कृति (और उपसंस्कृति) का उदय हुआ। राजनैतिक स्वतंत्रता और लोकतांत्रिक मूल्यों ने युवा वर्ग को अधिक अधिकारों को मांगने का अवसर प्रदान किया है। उन्होंने नये मूल्यों का विकास कर लिया है और इन लोगों का विरोध करना शुरू कर दिया है। जिन्हें वे अपने उद्देश्यों और आकांक्षाओं की प्राप्ति में बाधक समझते है। इन सब ने अन्तर पीढ़ीय संघर्ष पैदा कर दिये हैं, जैसे परिवार में बच्चों और माता-पिता के बीच संघर्ष, शिक्षा संस्थाओं में छात्रों और शिक्षकों के बीच संघर्ष, कार्यालयों में पुराने और नये कर्मचारियों के बीच संघर्ष, आदि। 1950 और 2005 के बीच मीडिया और आम जनता भी युवा वर्ग से ग्रस्त प्रतीत होती है।
युवा वर्ग को पुरानी पीढ़ी के साथ संघर्ष और उनके विरूद्ध खड़े होने के प्रेरक तत्वों में प्रमुख है- पश्चिमी संस्कृति का प्रभाव, मनोरंजन के वाणिज्यिक साधनों के लिए गए मूल्य, बढ़ता खाली समय तथा माता-पिता की अधिक समृद्धि और शक्ति। पश्चिमी संस्कृति ने व्यक्तिवाद और समानता के आधार पर आधारित मूल्यों को बदल दिया है। वाणिज्यिक मनोरंजन ने उन्हें यह अनुभव करा दिया है कि उनके लक्ष्यों की प्राप्ति में हिंसा और धमकी का क्या मतलब हो सकता है, अंशकालिक शिक्षा ने उन्हें इतना खाली समय दिया है कि जिन कार्यों को व्यस्त जीवन में पूरा नहीं कर सकते थे वे अब कर सकते हैं तथा पैतृक समृद्धि और शक्ति ने उन्हें प्रभाव डालने की शक्ति प्रदान कर दी है। इन सभी बातों में एक भिन्न संस्कृति को जन्म दिया है जिससे अशान्ति और अन्तर पीढ़ी संघर्ष पैदा हुए हैं।
Question : भारत में मध्यम वर्ग के उद्गम की प्रक्रिया की व्याख्या कीजिए। राष्ट्रीय विकास में मध्यम वर्ग ने क्या भूमिका निभाई है?
(2005)
Answer : आधुनिक भारत में सामाजिक वर्ग सामाजिक संरचना का एक महत्वपूर्ण भाग है सभी कालों में सामाजिक वर्ग सदैव विद्यमान रहा है परन्तु जैसा कि सामाजिक वर्ग हमें आज भारत में दिखता है, उसका प्रादुर्भाव अंग्रेजी शासन में हुआ था। आधुनिक शिक्षा के साथ राज्य एवं प्रशासनिक व्यवस्था का विकास वे अन्य सामाजिक शक्तियां थीं जिन्होंने भारत में नये वर्गों को स्वरूप प्रदान किया।
वास्तव में, अंग्रेजी शासन द्वारा लाई गई नई आर्थिक व राज्य व्यवस्थाओं को, आधुनिक कानून, प्रौद्योगिकी, चिकित्सा, अर्थशास्त्र, प्रशासनिक विज्ञान आदि में प्रशिक्षित भारतीयों की आवश्यकता हुई। वस्तुतः नये वाणिज्यिक एवं औद्योगिक उद्यमों तथा प्रशासन व्यवस्था की गंभीर आवश्यकता के कारण ही मुख्य रूप से, अंग्रेजी भारत से आधुनिक शिक्षा प्रारंभ करने को बाध्य हुए। उन्होंने आधुनिक शिक्षण संस्थाओं को विस्तृत पैमाने पर स्थापित किया। कानूनी वाणिज्यक तथा सामान्य शिक्षा देने वाले विद्यालय एवं महाविद्यालय राज्य एवं अर्थव्यवस्था की आवश्यकताएं पूरी करने के लिए प्रारंभ किये गये। इस प्रकार विस्तारशील मध्यम वर्ग अस्तित्व में आया। इस प्रकार की सामाजिक श्रेणियों को आधुनिक उद्योग, कृषि, वाणिज्य, वित्त, प्रशासन, प्रेस तथा सामाजिक जीवन के अन्य क्षेत्रों से जोड़ा गया। मध्यम वर्ग के अंतर्गत आधुनिक वकील, चिकित्सक, अध्यापक, आधुनिक वाणिज्यिक एवं अन्य उद्यमों में कार्यरत प्रबंधक व अन्य, सरकारी प्रशासन तंत्र में कार्यरत अधिकारी, इंजीनियर, तकनीशियन, कृषि वैज्ञानिक, पत्रकार आदि आते हैं। राष्ट्रीय आंदोलन में इस वर्ग की भूमिका निर्णायक थी। वस्तुतः ये लोग अगुआ तथा नये आयाम व गति स्थापित करने वाले थे। देश में प्रगतिशील सामाजिक एवं धार्मिक सुधार आंदोलनों के पीछे, इन्हीं लोगों की शक्ति थी।
अंग्रेजी शासन में, भारत में उत्पादन बाजार के लिए उत्पादन प्रारंभ हो गया। इसके परिणामस्वरूप आंतरिक बाजारों में विस्तार हुआ तथा आंतरिक व्यापार में कार्यरत व्यापारी वर्ग में वृद्धि हुई। इसी समय भारत विश्व व्यापार से भी जुड़ गया। इसके फलस्वरूप आयात-निर्यात के व्यापार में व्यस्त व्यापारी वर्ग का विकास हुआ। इस प्रकार, देश में व्यापारी मध्यम वर्ग अस्तित्व में आया। रेल की स्थापना के साथ, इस धनी व्यापारी मध्यम वर्ग की संचित बचत ने अन्य वृहत स्तरीय उत्पादित माल एवं आधुनिक उद्योगों में निवेशित होने वाली पूंजी का रूप ले लिया। अंग्रेजों की भांति, जिन्होंने भारत में उद्योगों की स्थापना में अगुवाई की, भारतीयों ने भी, आरंभ में बागानों सूती वस्त्र जूट खानों आदि में निवेश किया। इस प्रकार भारतीय समाज की संरचना में मिल मालिक, खान मालिक आदि जैसे नये समूह शामिल हुए। तदुपरांत, इन लोगों ने अपनी औद्योगिक गतिविधि के क्षेत्र का विविधिकरण किया। आर्थिक एवं सामाजिक रूप से यह वर्ग, भारत का सर्वाधिक सशक्त वर्ग बन गया।
तथापि इन गतिविधियों में, अंग्रेजी की तुलना में भारतीय बहुत पीछे रहे। औपनिवेशिक काल में, इनके धीमे विकास के लिए मुख्यतया सरकारी नीति उत्तरदायी थी। अंग्रेजों के साथ हितों के टकराव के परिणामस्वरूप भारतीय व्यापारी और औद्योगिक वर्गों ने स्वतंत्र संगठन बनाए। इन वर्ग ने उन व्यावसायिक वर्गों को समर्थन देकर स्वतंत्रता संग्राम में भाग लिया जो कि भारतीय राष्ट्रीय आंदोलन के आधार थे।
स्वतंत्रता के बाद भारत में, तीव्र औद्योगीकरण एवं शहरीकरण में उद्योगों, व्यापार एवं वाणिज्यिक, निर्माण, यातायात, नौकरियों तथा अन्य भिन्न-भिन्न आर्थिक गतिविधियों में वृहत् स्तरीय रोजगार अवसर खोल दिये हैं। इसी के साथ सरकार ने पूरे देश में जटिल प्रशासनिक ढांचे से बनी विशाल संस्थात्मक संरचना सृजित की है। इसने बहुत बड़े पैमाने पर रोजगार दिये हैं। इन निजी अथवा सरकारी क्षेत्रों में रोजगार के लिए शिक्षा, प्रशिक्षण, विशेष योग्यता आदि जैसी योग्यताएं पूर्वापेक्षित होती हैं। प्रशासनिक अधिकारी, प्रबंधकीय अधिकारी, तकनीकी प्रबंध, चिकित्सक, वकील, शिक्षक, पत्रकार इनमें से कुछ श्रेणियां हैं, जिनके पास ऐसी योग्यताएं हैं।
ये स्वतंत्रता के पश्चात् संख्या व आकार में उल्लेखनीय रूप से बढ़े हैं। तथापि, यह वर्ग बड़ी मुश्किल से समरूप श्रेणी कहलाया जा सकता है। निस्संदेह, इनके काम की स्थिति तथा वेतन मेहनतकश श्रमिक से अधिक अच्छी होती है परन्तु उच्च वर्ग से कम अच्छी होती है। तथापि, इस गैर मेहनतकश काम करने वाले स्वामित्व विहीन वर्ग में एक गहरा पदक्रम पाया जाता है। सर्वोच्च स्थानों पर कुछ अधिक वेतन प्राप्त अधिकारी हैं। दूसरी ओर, इनमें से अधिकांश का वेतन गैर मेहनतकश कामगारों से कुछ ही अधिक होता है। इसके काम की स्थिति तथा पदोन्नति के अवसरों में भी पर्याप्त अंतर होता है। ये लोग अपनी जीवन शैली में भी भिन्न होते हैं। इन सभी बातों से यह स्पष्ट होता है कि मध्यम वर्ग भारतीय समाज का सबसे महत्वपूर्ण वर्ग है।
Question : भारत में जनजातीय समुदायों के विशिष्ट लक्षणों की व्याख्या कीजिए। जनजातीय पहचान पर प्रभाव डालने वाले कारकों की विवेचना कीजिए।
(2005)
Answer : जनजातीय समुदाय मूल रूप में बहुत ही समान प्रकृति के होते हैं तथा जिनके पास सरल प्रविधि भी होती है। अधिकतर जनजातियां जीववाद में विश्वास करती हैं, जिसके अनुसार सभी वस्तुओं-चेतन और जड़ में स्थाई या अस्थाई रूप से आत्माएं रहती हैं।अक्सर कोई कार्य इन आत्माओं के कारण होता है। कुछ आत्माओं की पूजा की जाती है और कुछ का आदर किया जाता है। कुछ विद्वानों का मानना है कि जीववाद जनजातियों में धर्म का प्रारम्भिक स्वरूप था। अनेक जनजातियां पूर्वजों की पूजा में भी विश्वास करती है।
भारत में जनजातियों की कुछ विशेषताएं इस प्रकार हैं
जनजातीय पहचान पर प्रभाव डालने वाले कारकः
जनजातीय पहचान पर प्रभाव डालने वाले कारकों में परसंस्कृतिग्रहण, एकीकरण और आत्मसातकरण प्रमुख हैं। इन कारकों का आकलन निम्न रूप में किया जा सकता हैः
(क) परसंस्कृतिग्रहणः जनजाति, जाति-अन्तर्क्रिया तथा परसंस्कृतिग्रहण की प्रक्रिया विभिन्न जनजातियों में विभिन्न राज्यों में पाई जाती हैं। सम्पूर्ण प्रक्रिया को हम छः मुख्य बिन्दुओं के अंतर्गत वर्णन कर सकते हैं:
अतः यह स्पष्ट है कि जनजाति विभिन्न ताकतों के सम्पर्क में आने से सामाजिक, आर्थिक व सांस्कृतिक दृष्टि से काफी बदल गए हैं जिनसे उन्हें कई प्रकार के लाभ हुए हैं लेकिन उनके समुदायों में कई बुराइयों ने भी प्रवेश कर लिया है। अनेक आदिवासी भूमि व वनों पर अपना वर्चस्व खो चुके हैं। इसके अतिरिक्त एकीकरण और आत्मसात करण की प्रक्रिया ने जनजातीय पहचान को प्रभावित किया है।
(ख) एकीकरण और आत्मसातकरणः डाल्टन, रिजले तथा अन्य ब्रिटिश शासकों ने ‘हिन्दू हुए आदिवासी’ और ‘आदिवासियों के हिन्दू बने भाग’ की बात की है। उन्होंने कई सांस्कृतिक विशेषताओं को बताया जिन्हें जनजातियों ने हिन्दू पड़ोसियों से धारण किया है। इन लोगों का मानना है कि जनजातियों और गैर जनजातियों के बीच की दूरी आंशिक रूप से साम्राज्यवादी उप-निवेशी शक्तियों की राजनैतिक नीतियों के कारण बनी और कुछ अंश तक इस कारण, क्योंकि गैर जनजाति जनजातियों को शेष जनसंख्या से नैतिक व सांस्कृतिक रूप से अलग मानते थे। मजूमदार का कहना है कि अनेक जनजाति समूहों ने अपने अर्ध एकाकी निवासों से हटकर तथा मैदानों में प्रवेश करके हिन्दू जाति व्यवस्था के कई प्रतिमानों को स्वीकार कर लिया है। जनजातियों में बड़ी संख्या में सामाजिक सुधारों और धार्मिक आन्दोलनों से साक्ष्य मिलता है कि उनमें हिन्दू जाति व्यवस्था में मिल जाने की इच्छा है। कुछ जनजातियां जैसे मिजो, खासी, नागा, मुण्डा, भील, आदि पिछड़ी रह गई हैं। उनका प्रौद्योगिकी-आर्थिक पिछड़ापन और परम्परागत मूल्यों से उनका चिपका रहना हिन्दू समाज में उनके संलग्नता के मार्ग में अवरोधक रहे हैं।
जनजातियों को अपनी पहचान को कायम रखने के लिए मूलतः तीन विकलप होते हैं: (i) बहुसंख्यकों के साथ अस्तित्व बनाए रखना, (ii) अपने आपको प्रभुत्वशाली समूह के साथ मिला लेना, (iii) समानता के आधार पर राजनैतिक स्वतंत्रता प्राप्त करना। विभिन्न जनजातियों ने उपरोक्त वर्णित तीन प्रक्रियाओं में से भिन्न-भिन्न प्रक्रियाएं अपनायी हैं। उदाहरण के लिए भीलों और मीणाओं ने सह अस्तित्व की प्रथम प्रक्रिया अपनायी ओरांव और रोण्ड जनजातियों ने हिन्दू समाज में विलय की दूसरी प्रक्रिया को अपनाया, जबकि नागा और मिजो जनजातियों ने धर्म त्याग की तीसरी प्रक्रिया को अपनाया।
वृहत् समाज में जनजातीय संकलन का विश्लेषण करने में घूर्ये का जनजातियों को पिछड़े हिन्दू कहने का प्रतिरूप, या मजूमदार का जातिवादी हिन्दुओं के साथ सम्पर्क के द्वारा आदिवासियों का हिन्दू विचारों को अपनाये जाने का प्रतिरूप या एम.एन. श्रीनिवास का संस्कृतिकरण का मॉडल अर्थात जनजातियों का उच्च जातीय प्रथाओं का पालन करना या बेली का दो किनारों पर खड़े रहने का मॉडल जिसमें एक छोर पर जनजातियां और दूसरे पर जाति हों, को लेना उपयुक्त होगा। एल.पी. विद्यार्थी ने जनजातीय विचारों को स्वीकार किया जो कि उनमें परिवर्तन के लिए महत्वपूर्ण माना जाता है। निष्कर्ष के तौर पर यह कहा जा सकता है एक ओर तो जनजातियों ने अपनी सांस्कृतिक पहचान बनाए रखने की कोशिश भी है और दूसरी ओर उन्होंने अपने आप को देश की वृहत आर्थिक सामाजिक, राजनैतिक व धार्मिक व्यवस्थाओं में संकलित कर लिया है।
Question : उत्तर भारत में जाति लामबंदी।
(2004)
Answer : उत्तर भारत में जाति लामबंदी वर्तमान राजनीति का एक मुख्य हिस्सा सा बनता जा रहा है। जाति लामबंदी वास्तव में राजनीतिक क्षेत्र में प्रभुत्व स्थापित करने का एक जरिया है। जाति आधारित राजनैतिक दल का निर्माण हो रहा है। हाल के दशकों में उत्तर भारत में यह स्थिति अधिक देखने को मिलती है। विभिन्न राजनैतिक दल भी जाति आधारित समीकरण पर विश्वास करता है। इस प्रवृति ने क्षेत्रीय राजनीतिक पार्टियों को जन्म दिया है।
उत्तर भारत में जाति लामबंदी हमें मुख्यतः बिहार एवं उत्तर प्रदेश राज्यों में देखने को मिलती है। बिहार में राष्ट्रीय जनता दल ने जाति आधारित राजनीति को अंजाम अधिक दिया है। जाति लामबंदी का प्रायोगिक क्षेत्र के रूप में आज बिहार के यादवों में प्रत्यक्ष रूप में देखा जा सकता है। यादव जाति का प्रभुत्व बिहार में इसी जातिगत राजनीति का परिणाम है। उत्तर प्रदेश में जाति लामबंदी की बारंबारता अत्यधिक देखी जाती है। इस प्रदेश में पिछड़ी जाति के आधार पर बहुजन समाज पार्टी का गठन हुआ है। इस पार्टी में मुख्यतः निम्न जाति के लोगों को प्राधमिकता दी जाती है एवं इन जातियों के विभिन्न मुद्दों की बात करता है। इस प्रदेश में मुलायम सिंह की पार्टी भी जाति आधारित राजनीति से अछूते नहीं है फिर भी इस पार्टी में सभी जातियों का समुचित समीकरण बनाने की कोशिश की जाती है। साथ ही, बिहार में रामविलास पासवान की पार्टी ‘लोकजनशक्ति पार्टी’ भी जाति लामबंदी से अछूती नहीं ही है। वास्तव में, आज भी राजनीति इस मोड़ पर खड़ी है कि सभी राजनीतिक पार्टी चाहे वो कोई भी क्यों नहीं हो, सभी जाति आधारित राजनीति करने से पीछे नहीं है। यह स्थिति उत्तर भारत में कहीं ज्यादा ही देखने को मिलती है।
Question : भारतीय समाज पर मुसलमानों का प्रभाव।
(2004)
Answer : भारतीय समाज एवं संस्कृति पर मुसलमानों के प्रभाव का एक इतिहास रहा है। इतिहासकार ताराचंद ने अपनी पुस्तक, भारतीय संस्कृति पर इस्लाम का प्रभाव में लिखा है कि इस्लामिक संस्कृति के प्रभाव के कारण दक्षिण भारत में सामाजिक और सांस्कृतिक पुनर्जागरण आया। एच.पी. श्रीनिवास मूर्ति और एस.यू. कामथ ने भारतीय समाज पर इस्लाम के प्रभाव के नकारात्मक और सकारात्मक दोनों पहलुओं पर प्रकाश डाला है। उनके अनुसार- ‘हिंदू समाज को घोर-जातिवादी और अन्य बनाने में इस्लाम परोक्ष रूप से उत्तरदायी है। हिंदू स्त्रियों में पर्दा प्रथा लाई गई और सती प्रथा को अधिक कठोर बनाया गया। बाल-विवाह अधिक जनप्रिय हुआ।’
योगेंद्र सिंह ने इस्लामिक प्रभावों का वर्णन इस्लामीकरण के अंतर्गत किया है। उसने मुख्यतः तीन तरह की वास्तविकता को स्वीकार किया है-
ब्रिटिश शासन के आरंभ होने तक इस्लामीकरण एक प्रकार का संस्कृतिकरण था। प्रायः अद्योपतित प्रस्थिति वाले निम्न हिंदू जातियों के सदस्यों ने इस्लाम को या पिछले कुछ दशकों में ईसाई धर्म को प्रस्थिति की समानता और आर्थिक लाभों के लिए अपनाया। लेकिन नवधर्मियों को पुराने धर्मानुयायियों के समान स्थान नहीं दिया गया है और न ही उन्हें उच्च स्थान दिया गया है जिनको छोड़कर वे नये धर्म में शामिल हुए हैं। अंतर्विवाह और अनुलोम विवाह के संदर्भ में वे अपनी पुरानी जातियों/समुदायों के नियमों के अनुसार ही परिवर्तन के बाद भी कार्य करते हैं।
Question : सामंतवाद और अर्ध-सामंतवाद।
(2004)
Answer : सामान्यतः अंग्रेजी के ‘फ्रयुडलिज्म’ शब्द का प्रयोग एक ऐसी कुलीन तंत्रीय, सैनिक तथा धर्म प्रधान राजनीतिक, आर्थिक और सामाजिक व्यवस्था के लिए किया जाता है, जिसका मध्ययुगीन यूरोप में प्रभुत्व रहा है। किन्तु इससे मिलती-जुलती व्यवस्था के साक्ष्य जापान में भी पाये गये हैं। इस व्यवस्था के अंतर्गत भूमि का विभाजन छोटी अथवा बड़ी जागीरों के रूप में किया जाता है तो बड़े सामंतों द्वारा छोटे-छोटे जागीरदारों को इस शर्त पर दी जाती है कि वे सामंतों के प्रति निष्ठा रखेंगे और आवश्यकता के समय उन्हें सैनिक सहायता प्रदान करेंगे। भूमि पर खेती का काम कृषि-दासों द्वारा किया जाता है। संपूर्ण पैदावार के मालिक जमींदार होते हैं जिन्हें सामंतों द्वारा पट्टे पर जमीन मिली होती है। कृषक अथवा कृषि-दास को पैदावार का इतना-सा हिस्सा दिया जाता है ताकि इसका गुजारा मात्र चल सके। जमींदार जमीन के पट्टे के बदले में सामंतों को पैदावार का एक भाग मालगुजारी के रूप में देता है। बड़े-बड़े सामंत सीधे राजाओं से जुड़े होते हैं। भूस्वामित्व तथा जागीरदारी सामंती व्यवस्था की सार्वभौमिक विशेषताएं रही हैं, फिर भी इनके रूप एवं प्रतिमानों में सर्वत्र भिन्नता देखी गई है। सामंतशाही का रूप कुछ भी रहा हो, यह पारस्परिक संबंधों की एक ऐसी व्यवस्था है जिसमें नीचे से लेकर ऊपर तक (बिचौलियों की सेवाओं के द्वारा) सभी व्यक्ति-कृषक, जमींदार, जागीरदार, सामंत और राजा एक-दूसरे से निश्चित अधिकार एवं दायित्वों से बंधे होते हैं।
उन्नीसवीं शताब्दी के बाद इस अवधारणा के प्रयोग में काफी मतभेद पैदा हो गया। कुछ लोगों ने इसे एक राजनीतिक व्यवस्था के रूप में, कुछेक ने आर्थिक व्यवस्था अथवा एक वैधानिक व्यवस्था के रूप में परिभाषित किया है। मैक्स वेबर ने इसे एक राजनीतिक व्यवस्था के रूप में परिभाषित करते हुए लिखा है कि यह सरकार का एक रूप है जिसका गठन युद्ध एवं शासन-सेवा के प्रति समर्पित शासक वर्ग द्वारा बना होता है। इस शासक-वर्ग को इसके बदले भूमि, किराया तथा असैनिक जनसंख्या की श्रम-सेवाएं प्राप्त होती हैं। मार्क्सवादियों ने सामंतवाद को एक आर्थिक व्यवस्था मानते हुए इसकी व्याख्या उत्पादन की जागीरदारी व्यवस्था के रूप में की है। मार्क्सवाद इसे वर्ग-संघर्ष का कारण मानते हैं। कई लेखकों ने सामंतवाद को एक कानूनी आदर्शात्मक व्यवस्था के रूप में देखा है। एफ- गेनहॉफ ने अनुसार यह संस्थाओं का एक ढांचा है जो सेवा तथा आज्ञाकारिता के दायित्वों द्वारा निर्मित होता है तथा इसे नियंत्रित भी करता है। मूलतः यह सामाजिक संबंधों का केंद्र बिंदु हैं जिसकी रचना कृषि तथा भू-स्वामित्व के आधार पर होती है।
Question : सामाजिक न्याय के लिए एक साधन के रूप में, शिक्षा का समालोचनात्मक मूल्यांकन कीजिए।
(2004)
Answer : शिक्षा का एक माध्यम के रूप में तीन उद्देश्यों पर प्रकाश डाला जा सकता हैः
इन उद्देश्यों के अतिरिक्त शिक्षा के तीन और उद्देश्य भी माने जाते हैं। यह हैं-
a)व्यक्तिगत गुणों का समग्र विकास, जैसे बुद्धि, दक्षता, इच्छाशक्ति, चरित्र, अभिरुचियां, आदि_
b)मनुष्य की जीवन दशाओं के अर्थ में विकास, अर्थात समाज और व्यक्ति दोनों का विकास। समाज के विकास का अर्थ केवल आर्थिक विकास से ही नहीं हैं बल्कि सामाजिक, सांस्कृतिक और राजनैतिक विकास से भी है। व्यक्ति के विकास में शिक्षा एक विवेकशील और आदर्श मस्तिष्क बनाने में सहायक होती है; और
(c)शांति और समन्वय पैदा करना तथा उसे सुदृढ़ करना।
इसके अतिरिक्त शिक्षा एक माध्यम के रूप में सामाजिक न्याय के रूप में होनी चाहिए। सामाजिक न्याय से हमारा तात्पर्य यह है कि एक सावयविक रूप में संगठित समाज के निर्माण के लिए व्यक्तियों का तर्कसंगत सहयोग, ताकि प्रत्येक व्यक्ति को अपनी योग्यताओं के अनुसार फलने-फूलने तथा जीवन को सही ढंग से जीने की कला सीखने के समान तथा वास्तविक अवसर प्राप्त हो सकें। सामाजिक न्याय प्रजातंत्र की एक आवश्यक शर्त है। अतः इस अर्थ में शिक्षा निश्चित रूप से सामाजिक न्याय के लिए कार्य करने अवसरों की समानता लाने का प्रयास करती है परंतु यह पूर्णतः सफल रहा है यह मानने में संदेह प्रतीत होता है।
यद्यपि यह एक तथ्य है कि सभी मनुष्य योग्यता और दक्षता में समान नहीं है और ऐसे समाज की कल्पना करना भी अविवेकपूर्ण और आदर्शहीन होगा जो अपने सभी सदस्यों को एक समान स्थिति और लाभ प्रदान कर सके, फिर भी उनके उद्देश्यों और आकांक्षाओं की प्राप्ति के लिए सभी लोगों को समान अवसर प्रदान करना आवश्यक है।
अतः उस समाज का प्रयत्न, जो अवसरों की समानता के लिए कटिबद्ध है, अधिकतर सेवाएं प्रदान करने का रूप ले लेता है जो समाजीकृत सामुदायिक सेवाओं और शैक्षिक सुविधायें प्रदान करके आर्थिक पृष्ठभूमि में असमानता की क्षतिपूर्ति करता है। वास्तव में, इस प्रकार की सुविधायें पर्याप्त रूप में व सबको प्रदान करने के मार्ग में कठिनाइयां हैं। भारत जैसे समाज के लिए यह लगभग असंभव है कि उन सभी को मुफ्रत शिक्षा प्रदान की जाये जो इससे लाभांवित होना चाहते हैं, सिवाय चयनित अवस्थाओं के, या यों कहिए प्राथमिक स्तर तक या जरूरतमंद और योग्य बच्चों को। इससे पुनः अवसरों की असमानता का उदय होता है। जहां केवल जरूरत मंद लोगों के बच्चे शिक्षा प्राप्त कर सकते हैं, यदि वे योग्य हों, वहीं संपन्न लोगों के बच्चे तभी तक स्कूल जा सकते हैं जब तक वे शुल्क देते रहें।
सामाजिक स्थिति सुधारने के लिए अवसर की समानता अधुनातन विचार है जो कि व्यक्ति के जीवन में प्रदत्त स्थिति के महत्व को अस्वीकार करने के बाद अर्जित स्थिति के महत्व को मान्यता देना स्वीकार किया गया है। एम. एस. गोरे ने भी कहा है कि सामाजिक गतिशीलता तभी संभव हो पाई है जब से व्यक्ति की स्थिति आनुवांशिक बंधनों से मुक्त हुई है। परंतु वास्तविकता यह है कि भारतीय समाज जाति आधारित समाज है जहां प्रदत्त प्रस्थिति जन्म से आधारित होती है। इस प्रकार से जाति समाज में स्तरीकरण को पैदा कर सामाजिक असमानता को जन्म दे रही है। समाज विभिन्न जातियों में विभाजित है एवं यह शोषण एवं असमानता का आधार बना हुआ है। शिक्षा एक सशक्त माध्यम होने के बावजूद इस असमानता को पूर्णतः दूर करने में असमर्थ रहा है। इस कथन की पुष्टि हेतु हम निम्नांबित कारणों पर प्रकाश डाल सकते हैं-
अतः उपरोक्त तथ्यों से यह पता चलता है कि संविधान में प्रावधानों एवं आरक्षण के बावजूद सामाजिक न्याय भारतीय समाज के निम्न वर्गों में पूर्ण रूप से नहीं हो पाया है। इसकी न सिर्फ सैद्धांतिक समस्या है बल्कि प्रायोगिक स्तर पर भी सही तरह से कार्य रूप देने में स्पष्ट नहीं है। इसको दूर करने के लिए हम एम.एस. गोरे द्वारा वर्णित शिक्षा के अवसरों की समानता का वर्णन इस प्रकार कर सकते हैं जिससे सामाजिक न्याय में भूमिका अदा कर सकेः
Question : मुसलमानों में जाति।
(2003)
Answer : वास्तव में भारत के मुस्लिम समाज में भी जाति के समान समूह मौजूद हैं, अतः जाति व्यवस्था की सांस्कृतिक विशेषताओं की विवेचना मुस्लिम सामाजिक संगठन का रूप समझने के लिए भी की जा सकती है। अपने मूल की शुद्धता के लिए मुस्लिम लोग जात (जाति के समान) शब्द का प्रयोग करते हैं। प्रत्येक जाति, मुस्लिम समाज में अंतर्विवाह की इकाई है। एक गांव में प्रत्येक जाति के घर अपनी सामूहिक अस्मिता को पहचानते हैं और अपने को भाई-बंद या बिरादरी का हिस्सा समझते हैं। प्रत्येक घर, जो एक जाति का होता है, एक सामान्य पूर्वज के या किट रूप से संबंधित पूर्वजों के वंशज होते हैं। हर मुस्लिम जाति संपूर्ण सामाजिक संगठन में अपने निश्चित स्थान पर होती है। प्रत्येक जाति, अन्य जातियों की तुलना में ऊंची या नीची समझी जाती है। अशरफ जाति अन्य मुस्लिम जातियों की तुलना में सबसे उच्च स्थान पर है। चूंकि प्रत्येक मुस्लिम किसी निश्चित जाति का होता है इसलिए उसकी सामाजिक प्रस्थिति का निर्धारण उसकी जाति के आधार पर होता है।
हिन्दू जाति के समान ही सभी मुस्लिम जातियां पदक्रम में गठित होती हैं। सामान्यतः अशराफों को सबसे उच्च श्रेणी दी गयी है क्योंकि यह मान्यता है कि वे पैगंबर मुहम्मद के वंशज हैं। दूसरी ओर, भंगी और चमार को सबसे निम्न श्रेणी प्राप्त है। मुस्लिम राजपूतों की स्थिति अशराफ से निम्न परंतु अन्य अच्छी पेशायी जातियों से उच्च है। अन्य स्वच्छ पेशायी जातियां मुस्लिम अछूतों से तो उच्च हैं, परंतु मुस्लिम राजपूतों से निम्न हैं।
Question : जनजातियों में वर्गों का उद्गमन।
(2003)
Answer : एन.के. बोस एवं आंद्रे बेतेई ने जनजातियों का वर्गीकरण का मुख्य आधार भाषा, धर्म एवं पृथकता बतलाया है। बोस ने जनजातीय लोगों को तीन मुख्य श्रेणियों में वर्गीकृत किया हैः
(1) शिकारी, मछुआरे और संग्रहक (2) झूम कृषक और (3) स्थायी कृषक जो हल और हल खींचने वाले पशुओं को काम में लेते हैं। तीसरी श्रेणी में संथाल, गौंड, भील, उरांव और मुण्डा आदि जनजातियों के लोग हैं। इन जनजातियों के कृषक और गैर-जनजातियों के कृषकों में भिन्नता नहीं है। इन जनजातियों को कृषकों, कृषि मजदूरों और श्रमिकों में भी वर्गीकृत किया जाता है। दक्षिण बिहार, बंगाल, उड़ीसा और मध्य प्रदेश में आदिवासी कारखानों में काम करते हैं और असम, बंगाल और कुछ दक्षिणी राज्यों में वे बागानों में कार्य करते हैं। एस.सी. राय ने उरांव और मुण्डा ग्रामवासियों को कृषक कहा है। फ्रयूरर-हैमेनडॉर्फ ने आदिलाबाद के राजगौंड आदिवासियों की संस्कृति को कृषक संस्कृति की संज्ञा दी है। एफ.जी.बेली ने भी उड़ीसा के खोंड आदिवासियों को कृषक कहा है।
अनेक मानवशास्त्रियों ने एक विशिष्ट जनजाति के सदस्यों में सामाजिक स्तरीकरण को देखा है। काश्तकारी की अवधि के व्यावसायिक विभेदीकरण के संदर्भ में एस.सी. राय ने एक उरांव गांव में कई समूहों का उल्लेख किया है। भूधृति प्रस्थिति के आधार पर भी उरांव जनजाति को विभक्त किया गया है। राय ने कृषक मालिक व रैयतों की विभिन्न श्रेणियों का उल्लेख किया है। इसी आदिवासी समूह में महाली, घासीऔर लोहरा आदि अनेक अंत वैवाहिक समूह पाये जाते हैं। मुंडाओं में खूंटकट्टी भू-धारण पद्धति पायी जाती थी। खूंटकट्टी पद्धति के अंतर्गत(1) खूंट कट्टीदार, (2) प्रजा या रैयत, और (3) सहायक जातियां (सेवाकाटी समूह) पाये जाते थे। अतः इस प्रकार से जनजातियों में विभिन्न वर्ग पाये जाते हैं।
Question : प्रबल (प्रभु) जातियों के लक्षणों का वर्णन कीजिए। भारतीय ग्रामीण राजनीति में उनकी भूमिका की विवेचना कीजिए।
(2003)
Answer : प्रभु जाति के समानांतर अनेक शब्दों का प्रयोग किया जाता है। इनमें प्रबल जाति, प्रभुता संपन्न जाति, प्रभावी जाति तथा संरक्षक जाति आदि प्रचलित शब्द हैं। यह सभी शब्द एक ग्रामीण समुदाय के अंतर्गत किसी ऐसे जाति समूह का बोध कराते हैं जिसके द्वारा गांव में पारस्परिक संबंधों तथा ग्रामीण एकता को एक बड़ी सीमा तक प्रभावित किया जाता है। प्रभु जाति की अवधारणा को स्पष्ट करते हुए प्रो. श्रीनिवास के अनुसार एक जाति को प्रभु जाति तब कहा जाता है जब वह संख्यात्मक आधार पर किसी गांव अथवा स्थानीय क्षेत्र में शक्तिशाली हो तथा आर्थिक एवं राजनीतिक रूप से अपने प्रभाव को प्रबल रूप से प्रयोग करती हो, यह आवश्यक नहीं है कि परंपरागत जाति संस्तरण में वह सर्वोच्च जाति के रूप में ही हों। इस संदर्भ में प्रो- श्रीनिवास ने भारतीय ग्रामों में पायी जाने वाली ऐसी अनेक विशेषताओं का उल्लेख किया है, जिनके आधार पर किसी जाति को प्रभु जाति कहा जा सकता है, ये विशेषताएं मुख्य रूप से तीन हैं:
प्रभु जाति के लक्षणों की व्याख्या हम मुख्यतः निम्न बिन्दुओं के तहत कर सकते हैं:
भारतीय ग्रामीण राजनीति में प्रभु जातियों की भूमिका
प्रो. श्रीनिवास ने रामपुरा गांव की ओक्कालिंगा जाति को प्रभु जाति माना है। यह जाति परंपरागत रूप से कृषि कार्य में लगी हुई थी। रामपुरा गांव में ओक्कालिंगा जाति के व्यक्ति ही सबसे बड़े भू-स्वामी हैं। ओक्कालिंगा जाति के कुछ लोग व्यापार में भी संलग्न पाये गये तथा अनेक युवक परिवर्तित राजनीतिक स्थिति के प्रति अत्यधिक जागरूक देखे गये। इस जाति में राजनीतिक शक्ति प्राप्त करने की महत्वाकांक्षा भी प्रबल थी।
वास्तव में, रामपुरा गांव की ओक्कालिंगा जाति के वयोवृद्ध व्यक्ति केवल अपनी ही जाति के व्यक्तियों के लिए न्याय नहीं करते बल्कि उन सभी जाति समूहों के लिए भी न्याय देते हैं जो उनका हस्तक्षेप चाहते हैं। आज भी किसी विवाद को निपटारे के लिए अन्य जातियां नगरों में स्थित न्यायालयों में जाने की अपेक्षा ओक्कालिंगा जाति के वयोवृद्ध व्यक्तियों के माध्यम से ही न्याय प्राप्त करना अधिक अच्छा समझती हैं। विभिन्न जाति-पंचायतों द्वारा भी दंड को कार्यान्वित करने के लिए इस प्रभु जाति का सहयोग लिया जाता है।
परंतु दूसरी ओर, डा. दूबे ने प्रभु जाति को संख्यात्मक शक्ति का आधार मानने के पक्ष में नहीं हैं। डा- डी-एन- मजूमदार ने मोहाना गांव का अध्ययन करते समय श्रीनिवास द्वारा प्रस्तुत प्रभु जाति की अवधारणा को अधिक उपयुक्त नहीं पाया। इनके अनुसार यदि किसी क्षेत्र विशेष में किसी जाति के सदस्यों की संख्या कम हो तो भी वह जाति प्रभु जाति बन सकती हैं। मजूमदार ने परंपरागत जमींदार वर्ग का उदाहरण देते हुए बताया है कि इस वर्ग की सदस्य संख्या सबसे कम है लेकिन अक्सर जमींदार की जाति ही प्रभु जाति के रूप में देखने को मिलती है। इसके अतिरिक्त, अनेक गांवों में निम्न और अनुसूचित जातियों की संख्या सर्वाधिक है परंतु उन गांवों में भी साधारणतया संपूर्ण नेतृत्व ऊंची जाति के अल्पसंख्यक सदस्यों द्वारा किया जाता है। मैकिम मैरिएट के अनुसार राजनीतिक आधार पर एक गांव के लोग दूसरे गांव के लोगों से प्रभु जाति के आधार पर ही जुड़ते हैं।
Question : भारत में कृषक समुदायों में अशांति के लिए उत्तरदायी कृषकों का विवरण दीजिए। इस प्रवृत्ति को रोकने के लिए आप क्या सुझाव देंगे?
(2003)
Answer : ग्रामीण-जीवन की सभी समस्याओं में कृषक असंतोष आज सर्वाधिक गंभीर समस्या है जो कम या अधिक मात्र में देश के सभी क्षेत्रों और अधिकांश ग्रामीण-जीवन से संबद्ध हो गयी है। यह सच है कि ग्रामीण-जीवन की अन्य समस्याएं कृषक असंतोष का आधार हैं लेकिन यह समस्या स्वयं में आज एक ऐसी स्वतंत्र समस्या के रूप में विकसित हुई है।
प्रो. आन्द्रे बिते का विचार है कि ‘कृषक असंतोष ग्रामीण-जीवन की यद्यपि सर्वप्रमुख समस्या है लेकिन अब तक इस समस्या का अध्ययन करने के लिए बहुत सीमित प्रयास हुए हैं।’ कृषक असंतोष के संदर्भ में कुछ विद्वानों का विचार है कि भारत में कृषक असंतोष जैसी कोई समस्या विद्यमान नहीं है, इसलिए इसका पृथक रूप से अध्ययन करना उपयोगी प्रतीत नहीं होता।वास्तव में यह विचार अत्यधिक भ्रमपूर्ण है। भारत में कृषक समुदायों में अशांति के लिए उत्तरदायी कारकों की व्याख्या हम निम्नांकित बिन्दुओं के तहत कर सकते हैं:
कृषक असंतोष को दूर करने के सुझाव
भारत में कृषक असंतोष मुख्यतः आर्थिक समस्याओं से जुड़ा है। इसलिए इसका निराकरण आर्थिक समस्याओं के समाधान से ही संभव है। स्वतंत्र भारत में कृषकों की आर्थिक स्थिति को सुधारने के लिए अनेक प्रयत्न किये गये लेकिन अब तक किये गये सभी अध्ययनों से इस तथ्य की पुष्टि होती है कि इन प्रयत्नों का लाभ गांव में केवल उन बड़े कृषकों को ही प्राप्त हुआ जो 3 से 4 प्रतिशत से अधिक नहीं है। इसके फलस्वरूप गांवों में आर्थिक असमानता पहले की अपेक्षा और अधिक बढ़ गयी है।
कृषक असंतोष को समाप्त करने के लिए आवश्यक है कि ग्रामों में रहने वाले कमजोर वर्गों के लिए विकास कार्यक्रम बनाये जायें तथा उन्हें प्रभावशाली ढंग से लागू किया जाय। अधिकतम कृषि भूमि-सीमा कानून बन जाने के बाद भी इसका कोई व्यावहारिक परिणाम नहीं मिल सका है। आवश्यकता इस बात की है कि भूमि के आधार पर व्याप्त असमानता को समाप्त करने के लिए अधिकतम कृषि भूमि-सीमा कानून को प्रभावपूर्ण ढंग से लागू किया जाय। ऐसा देखा गया है कि गांवों में छोटे और सीमांत कृषक, जो अपनी भूमि से आजीविका उपार्जित नहीं कर पाते, उन्हें बाध्य होकर विभिन्न अवसरों पर महाजनों से ऋण लेना पड़ता है और लंबे समय तक ऋण का भुगतान न कर पाने के कारण उन्हें अपनी थोड़ी सी भूमि को भी महाजनों के हाथ बेच देने के लिए बाध्य होना पड़ता है। इस स्थिति में आवश्यक है कि भूमिधर अधिकारों में इस प्रकार संशोधन किया जाय कि एक निश्चित सीमा के बाद किसी भी कृषक को अपनी भूमि को बेचने अथवा अन्य व्यक्तियों द्वारा इस भूमि को खरीदने का अधिकार न रहे। जी.पी. मिश्रा ने अपने अध्ययन के आधार पर भी यह तथ्य प्रस्तुत किया है कि गांव के छोटे और सीमांत कृषक धीरे-धीरे भूमिहीन श्रमिकों के रूप में परिवर्तित होते जा रहे हैं। इसके लिए आवश्यक है कि कृषकों को सहकारी संस्थानों के माध्यम से उदार शर्तों पर ऋण दिया जाय।
इसके अतिरिक्त कृषक असंतोष को दूर करने के लिए गांवों में कृषि के अतिरिक्त रोजगार के अन्य साधनों में वृद्धि की जाय जिससे छोटे किसानों और कृषि श्रमिकों को गांव में ही आजीविका उपार्जित करने के लिए पर्याप्त साधन उपलब्ध हो सके। एक संतुलित ग्रामीण विकास के लिए गांवों में उन लघु और कुटीर उद्योगों को भी प्रोत्साहन दिया जाना आवश्यक है जिनके लिए स्थानीय स्तर पर साधन उपलब्ध हों। ग्रामीण असंतोष को दूर करने के दिशा में ‘अन्त्योदय’ तथा ‘काम के बदले अनाज योजना’ महत्वपूर्ण अवश्य थी लेकिन सार्वजनिक भ्रष्टाचार के कारण ग्रामीणों को इनका वास्तविक लाभ प्राप्त नहीं हो सका। आवश्यकता इस बात की है कि सूखे, महामारी अथवा दूसरी प्राकृतिक आपदाओं विपत्तियों के समय ऐसे कार्यक्रमों का विस्तार किया जाये और सरकारी तंत्र की अपेक्षा सामाजिक कार्यकर्ताओं के माध्यम से उन्हें प्रभावपूर्ण बनाया जाय। हमें यह अवश्य ध्यान रखना होगा कि कृषक असंतोष का संबंध भारत की कुल जनसंख्या के 70 प्रतिशत भाग से है। ऐसी स्थिति में यदि शीघ्र ही व्यापारिक प्रयत्नों के द्वारा असंतोष का निवारण नहीं किया गया तो हमारी संपूर्ण आर्थिक एवं राजनीतिकव्यवस्था विघटित हो सकती है।
Question : जनजातियों का हिंदू संस्कृति में एकीकरण।
(2002)
Answer : विभिन्न जनजातीय समूहों के नृशास्त्रीय अध्ययनों से पता चलता है कि जनजाति के लोगों के अपने पड़ोसियों के साथ संपर्क के कारण या तो वे आंशिक रूप से अलग हो गए या पूर्णरूप से उनमें घुल-मिल गये। उत्तर भारत की केंद्रीय हिमालय की थारु और खासी जनजातियां पूर्ण रूप से हिन्दुओं के साथ मिल गयीं। इन जनजातियों के लोगों ने हिंदूओं के जाति उपनामों को अपना लिया और जनेऊ भी धारण कर लिया। इन लोगों ने स्थानीय राजपूतों और ब्राह्मणों के साथ सामाजिक संबंध स्थापित किये और हिंदू धर्म के उच्च वर्ग के लोगों के साथ अपनी पहचान खोकर उनका अंग बन गया है। इसी प्रकार मध्य भारत में बिहार की चेरो, खारवार पहाड़िया जनजातियों ने और मध्य प्रदेश की भूमिज जनजाति ने हिंदू धर्म की क्षत्रिय उपजाति को स्वीकार कर लिया। सन् 1935 में स्थापित भूमिज क्षत्रिय संगठन का जनजातियों के लोगों के हिंदूकरण में व्यापक योगदान दिया था। जनजातीय राजपूत निरंतरता की संकल्पना का विकास वीरभूमि के भूमिराज के ऐतिहासिक अध्ययन के दौरान प्राप्त हुआ। पूर्वी भारत में पश्चिम बंगाल की बाहरी जनजाति ने मृत्यु के बाद नियत अवधि तक शोक मनाना, जनेऊ पहनना, तीर्थयात्रा पर जाना और वैष्णव धर्म का अनुसरण करना शुरू कर दिया है और अब वे अपने को ब्राह्मण कहते हैं। पश्चिम बंगाल की महाली जनजाति ने हिंदू धर्म की कर्म, पाप-पुण्य आदि बातों को स्वीकार कर लिया। हिंदुओं के जीवन चक्र में निर्धारित संस्कारों को अपनाया और हिंदुओं के स्थानीय रीति रिवाजों की मुख्य बातों को आत्मसात कर लिया है। इसी तरह, छोटानागपुर के बहुत से उरांव गांवों में हिंदू देवी-देवताओं की पूजा की जाती है और वे हिंदू पुरोहितों से जीवन के विभिन्न संस्कार संपन्न करवाते हैं। जहां तक पश्चिमी भारत का सवाल है, यहां की जनजातियां भी हिंदू देवताओं की पूजा करते हैं। उदाहरण के तौर पर भील जनजाति का प्रमुख देवता महादेव हैं। शाह के अनुसार गुजरात में दुबला, नाइक, गमिल, धनक जनजातियां लगभग हिंदू हो गई हैं और वे ब्राह्मणों से अपने संस्कार कराती हैं। दक्षिण भारत में स्थिति यह है कि चेंचू, कादार, मुथरन जनजातियों ने अपने पड़ोसी हिंदू धर्मवालों के धार्मिक विश्वासों को स्वीकार कर लिया है।
इन एकीकरण के बावजूद यह तथ्य से इनकार नहीं किया जा सकता है कि जनजातियों के और उनके पड़ोसी हिंदुओं से संपर्क के कारण केवल हिंदू धर्म का ही जनजातियों के लोगों के धार्मिक रीति-रिवाजों पर प्रभाव नहीं पड़ा अपितु जनजातीय गांवों में रहने वाले कुछ हिंदू समूहों के रीति-रिवाजों पर जनजातीय धर्म का भी प्रभाव पड़ा। उदाहरण के रूप में मध्य प्रदेश के बस्तर जनजातीय क्षेत्र में जनजातीयकरण की प्रक्रिया दिखाई देती है जहां उच्च जाति के हिंदुओं ने जनजातीय आचार-व्यवहार, धार्मिक अनुष्ठान और धार्मिक विश्वासों को स्वीकार किया है।
Question : हिंदू सामाजिक संगठन के तत्वमीमांसीय और नैतिक आधारों की चर्चा कीजिए।
(2002)
Answer : हिंदू सामाजिक संगठन एक अत्यंत प्राचीन संगठन है। हिंदू सामाजिक संगठन के अंतर्गत बहुत सारी बातें आती है जिसमें हिंदू धार्मिक ग्रंथ, व्यक्ति, परिवार और समाज में अनुसरणीय नैतिक व्यवहारों की चर्चा आती है। जहां तक इस संगठन के तत्वमीमांसीय और नैतिक आधारों की बात है यह वस्तुतः धर्म के समझ से ही स्पष्ट किया जा सकता है। इसका कारण यह है कि तत्वमीमांसीय आधार का मतलब उच्च प्राकृतिक शक्तियों के विश्वास से होता है तथा नैतिक का संबंध इस धर्म के प्रमुख नैतिकता एवं आयामों से होता है। इन दोनों आयामों को हम यहां साथ-साथ प्रदर्शित करने जा रहे हैं।
वास्तविक रूप से हिंदू धर्म के अंतर्गत धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष की संकल्पना आती है। इस आधार पर एक हिंदू व्यक्ति को सदाचारी जीवन व्यतीत करने के लिए चार सिद्धांतों का अनुसरण करना अनिवार्य है। ये सिद्धांत हैं धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष।
(i)धर्म सबसे ईमानदार और नेक आचरण अथवा सदाचारी क्रिया है।
(ii)अर्थ का तात्पर्य सदाचार और ईमानदारी से आर्थिक प्रक्रिया का प्रयास है।
(iii)काम का अर्थ व्यक्ति की स्वाभाविक इच्छाओं की पूर्ति है।
(iv)मोक्ष का अर्थ है मुक्ति, अर्थात शाश्वत परमानंद की प्राप्ति।
इन चार संकल्पनाओं से संबंधित है कर्म और संसार की संकल्पनाएं। अपने कर्मों के अनुसार ही कोई व्यक्ति मोक्ष या मुक्ति की प्राप्ति कर सकता है। जन्म और पुनर्जन्म के क्रम की समाप्ति को मोक्ष कहते हैं। जन्म और पुनर्जन्म के इस क्रम को ही संसार कहते हैं। हिंदुओं का यह विश्वास है कि प्रत्येक मनुष्य की एक आत्मा होती है और आत्मा अमर होती है। मृत्यु के साथ ही इसका अंत नहीं होता। जन्म और पुनर्जन्म का यह चक्र तब तक समाप्त नहीं होता, जबतक कि मोक्ष की प्राप्ति नहीं होती। पुनर्जन्म के इस चक्र को संसार कहते हैं। यह संसार वह कार्य क्षेत्र है जहां जन्म और पुनर्जन्म का चक्र चलता रहता है। हिंदुओं के अनुसार किसी व्यक्ति के जन्म और पुनर्जन्म की स्थिति उसके कर्मों पर निर्भर करती है। हिंदुओं के लिए मोक्ष का विशेष महत्व है।
कर्म और संसार: धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष की संकल्पनाएं कर्म और संसार के सिद्धांतों से जुड़ी हुई हैं। कर्म शब्द का उपयोग सभी गतिविधियों और कार्यों के लिए होता है। संसार शब्द का उपयोग उस कार्य क्षेत्र के लिए होता है जहां जन्म और पुनर्जन्म का क्रम तब तक चलता रहता है, जब तक कि मुक्ति नहीं मिल जाती है। इसे पुनः शरीर ग्रहण करने और ‘पुनर्जन्म का सिद्धांत’ भी कहते हैं। अपने तात्विक मूल्यों के आधार पर कार्यों को अच्छा या बुरा कहा जाता है। अच्छे कार्यों से प्रशंसा और प्रसिद्धि मिलती है तथा स्वर्ग का मार्ग प्रशस्त होता है। बुरे कार्यों से अपयश मिलता है और मनुष्य नरक का भागी होता है। यह माना जाता है कि अगले जन्म में किसी व्यक्ति की स्थिति उसके इस जन्म के अच्छे बुरे कर्मों पर निर्भर करती है। यह विश्वास, जिसमें कार्यों के साथ सकारात्मक और नकारात्मक मूल्य जुड़े हैं। कर्म के सिद्धांत के रूप में विकसित हुआ और इसे कर्म का सिद्धांत कहा गया है। अतः इस सिद्धांत के अनुसार, कोई व्यक्ति कर्म का अनुसरण करके ही धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष के प्रशस्त मार्ग पर चलकर ही कोई व्यक्ति इस चक्र से मुक्ति पा सकता है।
अतः कर्म और धर्म में विश्वास का हिंदू सामाजिक संगठनों के साथ संबंध है, जिसमें जाति व्यवस्था का क्रम ऊपर से नीचे निश्चित किया गया है। जाति और वर्ण का यह श्रेणीबद्ध क्रम व्यक्ति के कार्यों पर आधारित है। यह कहा जाता है कि यदि किसी के कर्म अच्छे हैं तो अगले जन्म में उसका जन्म ऊंची जाति में होगा। हिंदू समाज इस प्रकार के जाति व्यवहार के कड़े नियमों द्वारा संचालित होता है। इसके अतिरिक्त कुछ ऐसे भी नियम हैं जो हर व्यक्ति पर चाहे वह किसी भी जाति का क्यों न हो, समान रूप से लागू होते हैं जातियों का सहवास कर्म के विभिन्न सिद्धांतों के साथ होता है और अपने पिछले जन्म के कर्मों के अनुसार व्यक्ति उससे जुड़ा होता है। किसी भी व्यक्ति का जन्म किसी भी प्रस्थिति में हुआ हो, उसे आसक्ति, घृणा और क्रोध से ऊपर उठकर कर्म करना चाहिए। किसी का धर्म चाहे कोई भी हो, कर्म के द्वारा उसका सही ढंग से पालन करने से ही वह ईश्वर की कृपा का पात्र बनता है।
जीवन में प्रत्येक व्यक्ति के जाति और अपने हैसियत के अनुसार उसके कुछ कर्त्तव्य (धर्म) होते हैं। वास्तव में धर्म के दो पहलू हैं-सैद्धांतिक और स्वाभाविक। हिंदुओं का विश्वास है कि इस नश्वर विश्व में जन्म और मृत्यु के चक्र से मुक्ति पाने के लिए प्रत्येक व्यक्ति को अपने धर्म का पालन करना चाहिए। प्रत्येक व्यक्ति किसी न किसी परिवार और जाति समूह से संबंधित होता है और उसी के अनुसार उसे अपने धर्म का निर्वाह करना पड़ता है। किसी व्यक्ति द्वारा धर्म पालन का मुख्य उद्देश्य मोक्ष या मुक्ति प्राप्त करना होता है। धर्म केवल व्यक्ति की जाति से ही संबंधित नहीं होता अपितु इसके साथ-साथ व्यक्ति के जीवन के विभिन्न चरणों से भी होता है अर्थात् विवाह, परिवार और जाति इत्यादि। अतः ये सभी विवरण हिंदू सामाजिक संगठन की एक विस्तृत सैद्धांतिक रूपरेखा तय करता है और वास्तव में इसकी विवेचना करना बहुत ही मुश्किल है।
Question : लुई डुमां की पवित्रता और अपवित्रता की संकल्पना की विवेचना कीजिए। ये संकल्पनाएं हिंदू जाति व्यवस्था की व्याख्या करने में कहां तक प्रासंगिक है?
(2002)
Answer : लुई डुमोंट की पवित्रता और अपवित्रता की अवधारणा उनकी प्रसिद्ध रचना ‘होमो हाइअररकिकस’ में स्पष्ट हुई है। इस पुस्तक के माध्यम से लुई डुमॉ ने भारतविद्या, मानवशास्त्र और उच्च समाजशास्त्रीय सिद्धांतों का बड़ी कुशलता एवं पांडित्यपूर्ण ढंग से समन्वय कर भारतीय जाति व्यवस्था और उसके प्रभावों का सारगर्भित विश्लेषण किया है। वास्तव में डुमॉ ने भारतीय जाति व्यवस्था को संस्तरण के रूप में देखा है। डुमॉ के अनुसार, भारत एक ऐसा धार्मिक समाज है जो जाति व्यवस्था की शुद्ध संस्तरण व्यवस्था से परिचालित है।
डुमॉ ने जाति की पृष्ठभूमि को लेकर सामाजिक संस्तरण, वर्णव्यवस्था, अंतःर्जातीय विवाह, अस्पृश्यता, खान-पान संबंधी निषेध, जातीय पंचायत इत्यादि को प्रकट किया है। वास्तव में डुमॉ ने भारत की जातीय व्यवस्था को एक सामाजिक वैचारिक संरचना माना है। इसके अनुसार, भारत में जाति व्यवस्था का संचालन संस्तरण, holism एवं पवित्र-अपवित्र के द्वारा होता है। भारतीय सामाजिक संस्तरण मुख्यतः वर्णव्यवस्था पर आधारित हैं जो ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य एवं शूद्र के रूप में विभाजित है। इन्होंने श्री निवास की इस बात से इनकार किया है कि सामाजिक संस्तरण में व्यक्तियों के उसके स्थान सामाजिक -राजनैतिक आर्थिक उच्चता-निम्नता के आधार पर निर्धारित होते हैं। इसके लिए डुमॉ ने कहा कि अगर ब्राह्मण आर्थिक एवं राजनैतिक दृष्टि से पिछड़ा हुआ है तो भी उसे सामाजिक संस्तरण में उच्च स्थान प्राप्त है, इसका प्रमुख कारण परंपरा एवं विश्वास व्यवस्था है जो पवित्रता और अपवित्रता के द्वारा निर्धारित होता है। ब्राह्मण को पारंपरिक दृष्टि से उच्च माना जाता है अतः वो पवित्र हैं एवं वे सभी पवित्र कार्यों को संपन्न करा सकता है परंतु दूसरी ओर, क्षुद्र अपवित्र होते हैं चाहे वो आर्थिक राजनैतिक दृष्टि से कितना ही उच्च स्थान ग्रहण किया हुआ है। अतः इन सभी के मूल कारण राजा-पुरोहित संबंध है जो ब्राह्मण एवं क्षत्रिय के पौराणिक परंपरा से चला आ रहा है। इस प्रकार से डुमॉ ने इस पवित्र-अपवित्र संकल्पना के द्वारा जाति व्यवस्था के विभिन्न आयामों को स्पष्ट किया है। साथ ही, उन्होंने ये बातें भी स्वीकार की कि ये सभी क्रियाएं जन्मजात होती हैं, यह अर्जित प्रकार की नहीं होती है। डुमॉ ने जाति को एक भारतीयों के मन में मनोवैज्ञानिक अवधारणा के रूप में परिभाषित करने की कोशिश की है और इन सारी बातों का एक ही कारण है-भारतीय पौराणिक ग्रंथ जो ब्रह्मवाद को बढ़ावा देकर समाज में संस्तरण पैदा करता है।
इसके अतिरिक्त, भारतीय समाज में हो रहे परिवर्तन पर टिप्पणी करते हुए डुमॉ ने लिखा है ‘कि समाज में परिवर्तन हो रहा है, किंतु समाज का परिवर्तन नहीं हो रहा है।’ इसका तात्पर्य है कि जाति के अंदर विभिन्न क्रियाकलापों एवं रहन-सहन एवं गतिशीलता में परिवर्तन आ रहा हैं परंतु जाति के स्वरूपों में कोई परिवर्तन नहीं हो रहा है। दूसरे शब्दों में, भारतीय समाज का प्रकार्यात्मक आयामों में परिवर्तन आ रहा है, परंतु संरचनात्मक अवयव में कोई परिवर्तन नहीं आया है। उनका जाति के दृष्टि से गांव और सभ्यतापरक दृष्टि से जाति संबंधी दृष्टिकोण अन्य लोगों के जाति अध्ययनों के परिप्रेक्षणों से भिन्न हैं। उन्होंने जाति व्यवस्था और भारत के गांवों की सामाजिक संरचना के अध्ययन के लिए भारत विद्याशास्त्रीय दृष्टि और संरचनात्मक उपागम दोनों के लिए प्रयोग की बात कही है। उन्होंने कहा है कि जाति व्यवस्था को समझने के लिए भारतीय पौराणिक ग्रंथों में इस बारे में निहित विचारधारा को समझना आवश्यक है।
वास्तविक रूप में डुमॉ ने यहां एक बाहरी पर्यवेक्षक के रूप में अध्ययन किया था और ये जाति व्यवस्था के विभिन्न पहलुओं को उन्होंने ग्रंथों से अध्ययन कर प्राप्त किया था। इन्होंने अपनी यह अवधारणा किसी साक्ष्य के आधार पर नहीं दी थी। फिर भी, जहां तक भारतीय समाज को इसकी अवधारणा को समझने की बात है तो अपवित्र एवं पवित्र की संकल्पना हमारे देश में पौराणिक काल से चला आ रहा है। देश के विभिन्न भागों में अभी ब्राह्मण एवं शूद्र को एक साथ बैठने, खेलने एवं पढ़ने की अनुमति प्राप्त नहीं है। इसके पीछे एक ही तर्क परंपराओं में उच्चता एवं निम्नता का प्रदर्शन है। ये सारी घटनाएं अभी भी गांव में दिखायी पड़ती हैं। परंतु वर्तमान समय में शिक्षा, आधुनिकता, पश्चिमीकरण के फलस्वरूप भारतीय सामाजिक संरचना के क्रियाकलापों में काफी परिवर्तन आया है। आज शिक्षित परिवारों में ऐसी परिस्थिति देखने को नहीं मिलती है। आज शिक्षा के प्रसार के फलस्वरूप अंतः जातिय विवाह, अंतःधार्मिक विवाह हो चला है। जहां तक खान-पान की बात है वो भी कोई खास मायने नहीं रखता। पहले उच्च जाति के लोग नीची जाति के घर में बैठना क्या छाया तक पसंद नहीं करते थे। परंतु आज लोग इन सब चीजों से ऊपर उठ चुके हैं। श्रीनिवास ने इस गतिशीलता को संस्कृतिकरण के द्वारा स्पष्ट की है परंतु एल.पी. विद्यार्थी ने इसके विपरीत असंस्कृतिकरण की अवधारणा प्रस्तुत की है। इससे यह स्पष्ट हो जाता है कि भारतीय समाज में उच्च से निम्न एवं निम्न में उच्च दोनों प्रकार के व्यवहारों, क्रियाकलापों का धड़ल्ले से प्रयोग हो रहा है। इसके अतिरिक्त वर्तमान समय में अपनी समस्या के अनुसार लोग धर्म परिवर्तन भी कर रहे हैं जिससे उसे समाज में उचित प्रतिनिधित्व मिले। जैसे-दलित लोग वृहत स्तर पर बौद्ध धर्म को ग्रहण कर रहे हैं। इन सब बातों पर डुमॉ ने कोई प्रकाश नहीं डाला है। साथ ही, भारतीय समाज में अन्य dominant संरचना पर प्रकाश नहीं डाला है। साथ ही, भारतीय समाज में वर्ग की अवधारणा काफी देखने को मिल रही है परंतु डुमॉ ने इस पर किसी प्रकार से बातचीत नहीं की है। फिर भी डुमॉ के इस जाति व्यवस्था के सिद्धांत को नकारा नहीं जा सकता है।
Question : उन तरीकों का परीक्षण कीजिए जिनके द्वारा भारतीय समाज को बहु-सांस्कृतिक समाज के रूप में सुदृढ़ किया जा सकता है। क्या एकल संस्कृति की प्रभाविता भारत में बहु-सांस्कृतिकता के लिए बाधक है?
(2002)
Answer : प्रत्येक संस्कृति में एक एकीकरण सिद्धांत और एक जीवन दर्शन होता है, जो संस्कृति के प्रत्येक पहलू में व्याप्त होता है। किसी संस्कृति विशेष के सांस्कृतिक आदर्श में सामान्य रूप से दो अथवा उससे अधिक इकाइयां होती हैं जहां तक बहु-संस्कृति की बात है, यह वास्तव में कई संस्कृतियों का समूह होता है। इस प्रकार के समाज में सभी समूहों को अपनी-अपनी संस्कृति का संचालन करने का पूर्ण अधिकार होता हैं। ये एक-दूसरे की सांस्कृतिक तत्वों में कदापि हस्तक्षेप नहीं करते हैं। वास्तव में कोई संस्कृति उच्च या निम्न की भावना से ग्रसित नहीं होती है। सभी संस्कृति का अपना अस्तित्व एवं महत्व होता है। संस्कृति भाषा, धर्म एवं लिंग से निर्मित होता है। इसके अतिरिक्त संस्कृति के प्रमुख घटकों में प्रौद्योगिकी, आर्थिक संगठन, सामाजिक संगठन, राजनीतिक संगठन, विचारधारा, कला एवं भाषा सम्मिलित होते हैं।
भारतीय समाज को बहु-सांस्कृतिक समाज के रूप में सुदृढ़ किया जा सकता है, जिसके निम्नांकित तरीके हो सकते हैं-
(i)भिन्न-भिन्न संस्कृतियों के मानने वाले लोगों को पूर्ण स्वतंत्रता प्राप्त होनी चाहिए एवं किसी भी संस्कृति से संबंधित व्यक्ति को दूसरे की संस्कृति का आदर करना चाहिए।
(ii)जैसा कि हम जानते हैं भारत एक बहु-सांस्कृतिक देश है अतः यहां बहुत से धर्म के लोग निवास करते हैं, जैसे हिंदू, मुस्लिम, सिख, ईसाई एवं अन्य। इसलिए अपनी एकता को बनाये रखने के लिए सभी को एक-दूसरे धर्म के प्रति सम्मान व आदर की दृष्टि अपनानी चाहिए। वर्तमान समय में हम देखते हैं कि हिंदू व ईसाई लोग मुस्लिम के इफ्रतार में बड़े खुशी से शामिल होते हैं, उसी प्रकार हिंदू एवं मुस्लिम भी ईसाई के क्रिसमस के त्यौहार में शामिल होते हैं एवं मुस्लिम और ईसाई भी हिंदू के त्यौहार जैसे दिवाली एवं होली में शामिल होते हैं। अतः इस प्रकार की भावना का विकास वृहत स्तर पर करना होगा।
(iii)भाषा के आधार पर भी भारतीय समाज कई इकाईयों में बंटा हुआ है। फिर भी, यहां पर एक-दूसरे की भाषा का सम्मान किया जाता है क्योंकि भाषा किसी क्षेत्र विशेष से बंधी नहीं रहती है। भारतीय संविधान में भी भाषा की अनेकता को समाप्त करने के लिए त्रिभाषा सूत्र दिया है। जवाहरलाल नेहरू ने कहा था कि प्रत्येक उत्तर भारत के व्यक्ति को एक दक्षिण भारतीय भाषा को सीखना चाहिए एवं दक्षिण भारत के लोग भी हिंदी का ज्ञान अवश्य हासिल करें। अतः भाषा हमारे संस्कृति के लिए बेरियर नहीं होना चाहिए बल्कि संपर्क की एक प्रक्रिया होनी चाहिए।
(iv)इसके अतिरिक्त संस्कृति के अंतर्गत लिंग भी आते हैं जो एक प्रमुख घटक के रूप में कार्य करता है। लिंग वास्तव में भारतीय संस्कृति के समायोजन में काफी योगदान करता है। इसके दो पहलू होते हैं-नारी एवं पुरुष। भारतीय समाज के विभिन्न क्षेत्रों में संबंध भिन्न-भिन्न प्रकृति के हैं। परंतु इस तथ्य से आज भी इनकार नहीं किया जा सकता है कि भारतीय समाज पितृसत्तात्मक है। परंतु आज वर्तमान समाज में संविधान के प्रावधान के अंतर्गत हमें समानता की शिक्षा का प्रसार कर सहयोग की भावना का विकास करना होगा।
(v)कला भी संस्कृति में एक महत्वपूर्ण भूमिकाएं अदा करती हैं। कला के कारण एक-दूसरे की संस्कृति समीप आते हैं एवं अंतःक्रिया के फलस्वरूप बहु-संस्कृति की प्रकृति को समझने का अवसर मिलता है।
(vi)इसके अतिरिक्त भी प्रौद्योगिकी, आर्थिक संगठन, सामाजिक संगठन, राजनीतिक संगठन विभिन्न संस्कृतियों को एक प्लेटफार्म देने में बहुत ही महत्वपूर्ण भूमिका का निर्वाह कर रहा है। जैसा कि हम जानते हैं ये सभी संगठन समाज में उपस्थित सभी घटकों के द्वारा निर्मित होते हैं और इसका उद्देश्य समाज के व्यक्तियों की आवश्यकताओं की पूर्ति करना होता है जिसके फलस्वरूप सभी संस्कृति के लोग बिना भेदभाव किये विकास के लिए सम्मिलित प्रयास करते हैं।
(vii)अतः उपरोक्त सभी तथ्य/घटक बहु-संस्कृति को कायम रखने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। परंतु विचारधारा, जो एक बहुत ही महत्वपूर्ण घटक है, ये लोगों के बीच विशेष धरातल तैयार करता है। उदाहरण के तौर पर, यदि एक व्यक्ति मार्क्सवादी विचारधारा से प्रभावित है एवं दूसरे संस्कृति के एक व्यक्ति भी इसी विचारधारा से प्रभावित है तो अवश्य ही किसी संगठन के तहत ये लोग जुड़ेंगे एवं एक विविधता में एकता का निर्माण करेंगे।
साथ ही इस बात से भी इनकार नहीं किया जा सकता है कि कभी-कभी एकल संस्कृति का सामंजस्य बहु-संस्कृति के साथ नहीं हो पाता है। परंतु इसका तात्पर्य कदापि यह नहीं है कि कौन इनमें उच्च है और कौन निम्न। वस्तुतः यह संकट की स्थिति में उत्पन्न होती है। वास्तविकता यह है कि एकल संस्कृति में व्यक्तियों के बीच का बंधन बहुत मजबूत होता है परंतु जब उसका अंतःक्रिया किसी दूसरे संस्कृति के व्यक्तियों से होता है तो एक संस्कृति दूसरे को dominate करना चाहती है जिसकेफलस्वरूप सांस्कृतिक मतभेद हो जाता है। जहां तक भारत का सवाल है यहां पर कभी-कभी देखने को मिलता है और ये वस्तुतः धर्म एवं भाषा के क्षेत्र में होता है। फिर भी, हमारा संविधान एक धर्म निरपेक्ष राज्य की घोषणा करता है। अतः इन तत्वों के मतभेद उत्पन्न होने का कोई मतलब ही नहीं है। कभी-कभी राजनीतिक संगठन के द्वारा सरकारी शक्ति को पाने के लिए सकारात्मक एवं नकारात्मक दोनों प्रकार के प्रयास किये जाते हैं। परंतु अधिक संभावना नकारात्मक पहलू का होता है जो सांप्रदायिक रूप ग्रहण कर लेता है। अतः इन सारी विवेचना से यह स्पष्ट होता है कि भारतीय समाज बहु-सांस्कृतिक अवधारणाओं पर टिका हुआ है एवं अनेकता में एकता का दृष्टिकोण भारत के लिए बिल्कुल सही एवं सटीक है।
Question : ब्राह्मणों के बीच असमानता।
(2002)
Answer : भारतीय समाज विभिन्न जातियों एवं उपजातियों, धर्मों एवं संप्रदायों में विभक्त है। वैसे तो भारतीय सामाजिक संरचना मुख्यतः चार वर्णों में विभक्त है जिसमें ब्राह्मण पहले दूसरे क्षत्रिय, तीसरे वेश्य एवं शूद्र का स्थान चौथे पायदान (क्रम) पर आता है लेकिन इन चारों वर्ण व्यवस्था के अतिरिक्त इनमें भी विभिन्न संस्तरण जिसके आधार पर इनमें नये संबंध बनते हैं और ये एक-दूसरे से अंतर्संबंधित होते हैं।
ब्राह्मण समुदाय के बीच भी विभिन्न प्रकार की जातियां पायी जाती हैं जो गोत्र, कुल एवं संस्तरण पर आधारित होती हैं। इन विभिन्न जातियों के मध्य विवाह या किसी भी प्रकार का संबंध कुल, गोत्र, संस्तरण एवं खून के आधार पर बनाया जाता है। जैसे ब्राह्मण समुदाय ये मिश्रा का स्थान पहले, शुक्ला का दूसरे पांडेय एवं तिवारी का क्रमशः तीसरे एवं चौथे, दूबे का पांचवें एवं शेष अन्य जातियां होती हैं।
कोई भी उच्च गोत्र, कुल एवं खून जाति का अपने से ज्यादा नीचे गोत्र एवं कुल में लड़की की शादी नहीं करता है। लेकिन संस्तरण में नीचे वाली जाति अपने से उच्च गोत्र एवं कुल में अपनी लड़की का विवाह कर सकता है। लेकिन लड़के का विवाह नहीं। इसके अतिरिक्त इस बात का भी ध्यान रखा जाता है कि अपने समान गोत्र एवं कुल में लड़की की शादी न किया जाये।
खान-पान के मामले में भी जैसे पकवान एवं पक्के खाने में भी गोत्र एवं कुल का महत्व है। जो अपने समान ही गोत्र एवं कुल के मध्य स्थापित होता है। वैसे कुछ प्रमुख गोत्र निम्न हैं-शांडिल्य एवं भारद्वाज गोत्र आदि।
इस प्रकार हम कह सकते हैं कि असमानता भारतीय समाज में पूरी तरह रचा-बसा है, जिससे ब्राह्मण समुदाय भी अछूता नहीं है। शायद यही विभिन्न एवं असमानता भारतीय समाज में अनेकता में एकता का बोध कराता है। इन असमानताओं को हम अपने विभिन्न प्रकार के संबंधों एवं क्रियाकलापों के द्वारा कम करने का प्रयत्न करते हैं तथा एक-दूसरे से अंतर्संबंधित होते हैं।
Question : कश्मीर में हिंदू अल्पसंख्यकों की समस्याएं।
(2002)
Answer : नेहरूजी ने कहा था कि भारतीय धर्मनिरपेक्षता का परीक्षण इस बात से नहीं होना चाहिए कि बहुसंख्यक वर्ग क्या सोचता है बल्कि इस बात से आंका जाना चाहिए कि अल्पसंख्यक वर्ग कैसा महसूस करता है। वास्तव में कश्मीर मुस्लिम बहुल राज्य हैं जहां पर मुख्यतः हिंदू व सिख अल्पसंख्यक है। कश्मीर में आज नहीं बल्कि भारतीय स्वतंत्रता के प्रति के बाद से लोगों पर अत्याचार एवं हत्याएं आम बात सी हो गयी है। आये दिन अल्पसंख्यकों पर आतंकवादी हमले होते हैं कश्मीर के आजादी के नाम पर। वास्तविकता यह है कि पाकिस्तान के द्वारा फैलाये जा रहे आतंक की अत्यधिक घटना अल्पसंख्यकों पर ही देखने को मिलती है।
अतः इन कारणों से हिंदू अल्पसंख्यक वर्ग वहां से बहुत अधिक जनसंख्या में पलायन कर चुके हैं और कर रहे हैं। कश्मीर में अत्याचार, बंदूक, खून एवं धार्मिक संकीर्णता के तर्ज पर किये जा रहे हैं जिसके फलस्वरूप करीब 15 लाख कश्मीरी पंडित कश्मीर से पलायन कर चुके हैं किंतु 3000 परिवार पुनः कश्मीर घाटी में लौट आये हैं ताकि वो लड़कर अपने अधिकार को प्राप्त कर सके। वास्तव में इन लोगों के बेटियों के लिए वर नहीं है, परिवार से विभिन्न अवसरों पर सुख-दुख बांटने के लिए संबंधी नहीं है एवं अपनी पुरानी संपति को प्राप्त करने की कोई लालसा नहीं है। ये सभी लोग 1990 के कश्मीर के जनसंहार के बाद देश के विभिन्न क्षेत्रों में पलायन कर गये हैं ये लोग अभी जम्मू, दिल्ली, अमृतसर, चंढ़ीगढ़, मुंबई, चेन्नई एवं अन्य जगहों पर कैंप में निवास कर रहे हैं। कभी इन घाटियों में मंदिर की घंटियां सुनाई देती थी, भजन गाया जाता था, सब समाप्त हो गया।
उपरोक्त सारे तथ्य यह स्पष्ट करने के लिए काफी है कि कश्मीर में हिंदू अल्पसंख्यकों की समस्याएं किस पैमाने तक हैं और इन समस्याओं के समाधान का अभी वर्तमान समय में कोई नजर नहीं आता। यद्यपि सरकार इसके लिए प्रयासरत है एवं इस समस्या के समाधान के लिए बहुत कदम उठाये हैं।
Question : जाति और भारतीय राजव्यवस्था
(2001)
Answer : जाति एवं भारतीय राजव्यवस्था के बीच वर्तमान समय में अत्यंत घनिष्ठ संबंध है। रजनी कोठारी ने जाति एवं भारतीय राजव्यवस्था के बीच संबंधों के इस विषय का विश्लेषण करके परीक्षण किया कि जातियों के वोटों के कारण राजनीति व्यवस्था पर क्या प्रभाव पड़ता है। उन्होंने पाया कि तीन कारक शिक्षा, सरकारी संरक्षण और धीरे-धीरे विस्तृत मताधिकार प्रमुख हैं। जाति के राजनीति में संलग्न होने के दो परिणाम हुए-जाति व्यवस्था ने राजनैतिक गतिशीलता के लिए नेतृत्व को संरचनात्मक और वैचारिक आधार उपलब्ध कराया और दूसरा नेतृत्व स्थानीय राय को छूट देने और आर्थिक तथा राजनैतिक उद्देश्यों के लिए जातियों को संगठित करने के लिए बाध्य हो गया।
राजनीति में जाति के प्रयोग का विश्लेषण रजनी कोठारी ने दो अवस्थाओं में किया। प्रथम अवस्था में बुद्धिजीवी और उच्चताबद्ध जातियों (जैसे, आंध्र प्रदेश में रेड्डी, गुजरात में पट्टीदार, कर्नाटक में लिंगायत, बिहार में भूमिहार और राजस्थान में राजपूत) और ऊंची आरोही जातियों (जैसे- बिहार में कायस्थ, राजस्थान में जाट) के बीच वैर भाव और क्रोध या विरोध सम्मिलित है। दूसरी अवस्था में स्पर्धारत जातियों (उच्चाबद्ध व आरोही) के भीतर ही गुटबाजी और विखण्डीकरण तथा बहुजातीय और बहु-गुटीय गठजोड़ का विकास सम्मिलित है। निम्न जातियों को भी उच्च जाति के नेताओं का समर्थन करने और एक गुट को मजबूत करने के लिए लाया जाता है।
जाति एवं भारतीय राजव्यवस्था के बीच वर्तमान संबंधों से कोठारी चार निष्कर्ष निकालता हैः
Question : भारत में कृषकवर्ग संरचना।
(2001)
Answer : यदि हम स्वतंत्रता पश्चात् के भारतीय ग्रामीण वर्ग की संरचना का विश्लेषण करें तो हमें चार वर्ग मिलते हैं: कृषि क्षेत्र में तीन वर्ग हैं, भू-स्वामी, आसामी और मजदूर, जबकि चौथा वर्ग है गैर-कृषि वालों का। ए.आर.देसाई के अनुसार भू-स्वामी लगभग 22 प्रतिशत, आसामी लगभग 27 प्रतिशत तथा श्रमिक वर्ग के 31 प्रतिशत लोग, और 20 प्रतिशत गैर-कृषक हैं। कृषकों का एक बड़ा भाग (60%) सीमान्त किसान होते हैं जिनके पास 2 हेक्टेयर से भी कम भूमि होती है। उनके बाद छोटे किसान (16%) 2 से 5 हेक्टेयर भूमि के स्वामी, मध्यम किसान (6%) 5 से 10 हेक्टेयर भूमि वाले, और बड़े किसान (18%) 10 हेक्टेयर से अधिक भूमिवाले। डेनियल थारनर तथा दीपान्कर गुप्ता ने ग्रामीण क्षेत्रों में तीन वर्गों में वर्णित-भू-स्वामी, आसामी और मजदूर कृषकों-वर्गीकरण को अस्वीकार किया है। उनके तर्क का आधार था कि तीनों वर्गों में एक समय में एक ही व्यक्ति हो सकता है। उसने कृषि संबंधों का विश्लेषण तीन शब्दों में प्रयोग किया है- कृषि जमींदारों के लिए मालिक, कृषि काम करने वालों के लिए किसान (आसामी सहित) और खेती श्रमिकों के लिए मजदूर।
डेनियल थारनर ने तीन आधारों पर कृषि सामाजिक संरचना के तीन वर्गों का विश्लेषण किया है- (a) भूमि से प्राप्त आय (अर्थात् किराया, स्वयं की खेती से आय या पारिश्रमिक से), (b) अधिकारों की प्रकृति (जैसे स्वामित्व, आसामी, बटाई और बिना किसी अधिकार के) और (c) किए गए वास्तविक कार्य की सीमा (अर्थात् कार्य न करना, थोड़ा कार्य पूर्ण करना और दूसरे के लिए काम करना)। डी.एन. धनाग्रे ने बिल्कुल भिन्न प्रकार के कृषक वर्ग का प्रारूप दिया है। उन्होंने पांच प्रकार बताए हैं- (i) जमींदार अर्थात् वे लोग जो मुख्य रूप से भू-स्वामियों के आधार पर आसामियों से वसूली करके, उप-आसामियों तथा बटाइदारों से आमदनी प्राप्त करते हैं, (ii) धनी कृषक, अर्थात् छोटे भू-स्वामी जिनके पास अपने परिवार के निर्वाह के लिए काफी भूमि होती है और जो स्वयं अपनी भूमि जोतते हैं, और अपने जमींदारों को थोड़ा सा किराया देना पड़ता है, (iii) मध्यम कृषक, अर्थात् मध्यम आकार की भूमि के स्वामी और अच्छी खासी भूमि पर काम करने वाले उच्च (किराया) लगान देने वाले (iv) गरीब कृषक अर्थात् (अ) वे भू-स्वामी जिनके पास अपने परिवार के निर्वाह के लिए पर्याप्त भूमि नहीं होती और इसलिए वे दूसरों की भूमि किराये पर लेने को बाध्य होते हैं, (ब) छोटी भूमि के आसामी (स) बटाई वाले और (v) भूमिहीन मजदूर। धनी कृषक और व्यापारी ऋणदाता आसामियों और भूमिहीन मजदूरों का इतना शोषण करते हैं कि उनके बीच के संबंध सदैव कटु रहते है। उनके पास काफी आर्थिक, सामाजिक और राजनैतिक शक्ति होती है। गांवों में सहकारी और ऋण समितियों के उदय ने निःसन्देह मालिकों की शक्ति पर प्रभाव डाला है फिर भी वे मजबूत बने हुए है।
Question : भारतीय परिवार की अस्थिरता के लिए उत्तरदायी कारक कौन से हैं? क्या परिवार आधुनिक समाज में स्थित संकट से उत्तरजीवित रह पायेगा?
(2001)
Answer : भारतीय परिवार का मतलब मुख्य तौर पर संयुक्त परिवार व्यवस्था से लगाया जाता है। भारतीय परिवार को अस्थिर करने में औद्योगीकरण, नगरीकरण, जनसंख्या में वृद्धि, पश्चिम का प्रभाव एवं वर्तमान कानूनों का योगदान मुख्य रूप से रहा है। इस संबंध में बोटोमोर का कहना है कि ‘संयुक्त परिवार का विघटन केवल औद्योगीकरण से संबंधित दशाओं का ही परिणाम नहीं है बल्कि इसका प्रमुख कारण यह है कि संयुक्त परिवार आर्थिक विकास की आवश्यकताओंको पूरा करने में असफल सिद्ध हो चुके हैं’। श्री पणिक्कर का विचार है कि ‘संयुक्त परिवारों का विघटन का आधारभूत कारण इसके द्वारा अपने सदस्यों पर आवश्यकता से अधिक नियंत्रण लगाना और इस प्रकार उनके सामाजिक संबंधों का क्षेत्र अत्यधिक संकुचित बना देना है’ इसके अतिरिक्त कपाडि़या ने नवीन न्याय-व्यवस्था, शिक्षा का प्रसार तथा परिवर्तित मनोवृत्तियों के संयुक्त परिवारों को अस्थिर करने वाला प्रमुख कारक माना है। इस प्रकार विभिन्न विद्वानों ने संयुक्त परिवारों को विघटित करने वाले जिन प्रमुख कारकों का उल्लेख किया है उन्हें संक्षेप में इस प्रकार स्पष्ट किया जा सकता हैः
1. औद्योगीकरण तथा नगरीकरणः भारतीय परिवार को अस्थिर करने में औद्योगीकरण एवं नगरीकरण का योगदान महत्वपूर्ण है। औद्योगीकरण के फलस्वरूप रोजगार के अवसरों में वृद्धि हुई और श्रम की मांग बढ़ गई जिससे गांव के संयुक्त परिवार के लोग अपने परम्परागत व्यवसाय को छोड़कर नये पेशे के द्वारा जीविका उपार्जित करने लगे। औद्योगिकीकरण ने व्यक्ति की सामाजिक प्रतिष्ठा को जन्म के बंधन से मुक्त करके इसे उसके नीजी प्रयत्नों से संबद्ध कर दिया, और साथ ही साथ धन के संचय को व्यक्ति की योग्यता का आधार बनाकर व्यक्तिवादी विचारों को प्रोत्साहन दिया। इसके फलस्वरूप संयुक्त परिवार के अधिक कुशल और परिश्रमी सदस्य अपने श्रम का लाभ स्वयं ही उठाने के लिए एकाकी परिवारों की स्थापना करने लगे। औद्योगीकरण के विकास के परिणामस्वरूप कुटीर उद्योग-धंधों का ह्रास हो गया जिन पर अधिकांश संयुक्त परिवारों की आर्थिक संरचना आधारित थीं। इन उद्योगों में लगे करोड़ों व्यक्तियों को जीविका के नये साधन खोजने पड़े और ऐसे व्यक्तियों का एक बहुत बड़ा भाग जीविका की खोज में नगरों में आकर रहने लगा। इससे ग्रामीण संयुक्त परिवारों की स्थिरता पर काफी आघात पहुंचा।
नगरीकरण की प्रक्रिया ने सामाजिक परिवर्तन को तीव्र बनाकर पुरानी सामाजिक व्यवस्थाओं को विघटित किया है। वर्तमान समय में नगरों का आकर्षण, द्वैतीयक संबंध में वृद्धि, नवीन प्रकार के आर्थिक संगठनों का निर्माण, जीवन के प्रति भौतिकवादी दृष्टिकोण और मनोरंजन के आधुनिक साधन आदि वे महत्वपूर्ण कारक है जो संयुक्त परिवारों के आदर्शों के बिल्कुल विपरीत हैं। इन सभी दशाओं के सम्मिलित प्रभाव के कारण संयुक्त परिवार की संरचना और कार्यों के विघटन की प्रवृत्ति उत्पन्न हो गयी।
2. जनसंख्या मे वृद्धिः भारत में जनसंख्या की वृद्धि भी संयुक्त परिवारों के विघटन का एक महत्वपूर्ण कारक है। जनसंख्या की वृद्धि के फलस्वरूप गांवों में भूमि पर दबाव निरन्तर बढ़ने लगा और इस प्रकार यह संभव नहीं रह गया कि संयुक्त परिवार के सभी सदस्य भूमि के परम्परागत टुकड़े पर ही खेती करके बढ़ीहुई आवश्यकताओं को पूरा कर सकें। इसके फलस्वरूप बहुत से व्यक्तियों को संयुक्त परिवार की सदस्यता छोड़ कर अन्य स्थानों पर व्यवसाय करने के लिए जाना आवश्यक हो गया और इस प्रकार संयुक्त परिवारों का मौलिक रूप नष्ट होने लगा।
3. पाश्चात्य विचारों का प्रभावः श्री कपाड़िया का कथन है कि व्यक्तिगत, पारिवारिक, सामाजिक तथा राजनीतिक स्वतंत्रता की भावना ब्रिटिश-काल का सबसे प्रमुख लक्षण रही है। इसी समय उदार विचारों को प्रोत्साहन मिला तथा सामाजिक व राजनीतिक क्षेत्र में व्यक्ति समानता का सिद्धांत को महत्व देने लगे। ये सभी परिस्थियां संयुक्त परिवार की स्थिरता के लिए घातक सिद्ध हुईं। अंग्रेजी शासन काल में एक नयी विधि प्रणाली का विकास हुआ जिसके अंतर्गत सामूहिकता के स्थान पर वैयक्तिक अधिकारों की प्रधानता दी जाने लगी। इससे एक ओर तो संयुक्त परिवार में सम्पत्ति का विभाजन प्रारंभ हुआ और दूसरी ओर स्थान परिवर्तन को बहुत अधिक प्रोत्साहन मिला। इसी के फलस्वरूप एकाकी विचारों की संख्या में निरंतर वृद्धि होती गयी।
4. वर्तमान कानूनों का प्रभावः बीसवीं सदी के आरंभ से ही अनेक ऐसे कानून बनना आरंभ हो गये थे जो संयुक्त परिवार के आदर्शों के विपरीत थे। परंपरागत रूप से संयुक्त परिवारों की सम्पत्ति में किसी सदस्य के अधिकार वैयक्तित्व न होने के कारण इसकी स्थिरता बनी हुई थी लेकिन उत्तराधिकार अधिनियम, 1929 के द्वारा पहली बार उन व्यक्तियों को भी सम्पत्ति के अधिकार प्रदान किये गये जो संयुक्त परिवार से अलग होकर पृथक् रूप से रहना चाहते थे। इससे संयुक्त परिवार में ह्रास होने लगा। 1929 में ‘शारदा एक्ट’ पास हो जाने से बाल-विवाह पर रोक लगा दी गयी जिससे संयुक्त परिवार की स्थिरता पर प्रभाव पड़ा। सन् 1954 में किसी भी जाति और धर्म के स्त्री-पुरुष को आपस में विवाह करने की सुविधा देने के लिए ‘विशेष विवाह अधिनियम’ को संशोधितकिया गया। इसके फलस्वरूप अंतर्रजातीय विवाहों को प्रोत्साहन मिला, जो संयुक्त परिवार के आदर्शों के बिल्कुल प्रतिकूल था। 1955 में, ‘हिंदू विवाह और विवाह विच्छेद अधिनियम- पास हुआ जिसके द्वारा विवाह से संबंधित सभी धार्मिक निर्योग्यताओं को ही समाप्त नहीं कर दिया गया बल्कि स्त्रियों को विवाह-विच्छेद के व्यापक अधिकार भी दे दिये गये। इस अधिनियम का संयुक्त परिवार की स्थिरता पर सबसे व्यापक प्रभाव पड़ा। सन् 1956 के ‘हिंदू उत्तराधिकार अधिनियम’ के द्वारा संयुक्त परिवारों के मिताक्षरा व दायभाग संबंधी भेद को दूर करके स्त्रियों को सम्पत्ति में पुरुषों के बराबर ही अधिकार प्रदान किये गये। इसके फलस्वरूप स्त्रियों को पहले की तरह दबाकर रखना संभव नहीं रह गया। इसी वर्ष ‘अवयस्क बच्चों की संरक्षरता अधिनियम’ के द्वारा परिवार के नबालिग बच्चों के आर्थिक हितों को भी सुरक्षित कर दिया गया। 1961 में ‘दहेज निरोधक अधिनियम’ पास होने के कारण संयुक्त परिवार के कर्त्ता की तानाशाही को काफी धक्का पहुंचा। इस समस्त वैधानिक प्रयत्नों के कारण संयुक्त परिवारों का तेजी से विघटन होने लगा।
यद्यपि वर्तमान सामाजिक जीवन में संयुक्त परिवारों का रूप इतना बदल चुका है कि हमारी सामाजिक संरचना में उनका कोई विशेष स्थान नहीं रह गया है लेकिन जैसा कि कपाडि़या का मत है कि ‘हिंदू मनोवृतियां आज भी संयुक्त परिवारों के पक्ष में हैं कुछ दूसरे विद्वानों का मत है कि अधिकांश व्यक्ति आज भी संयुक्त परिवार में रुचि लेते हैं। इस आधार पर संयुक्त परिवारों के रूढि़गत और अंध-विश्वासों से युक्त वातावरण को देखकर ही इनसे दूर भागना हमारी दुर्बलता का प्रतीक है। भारतीय सामाजिक संरचना की हवा में संयुक्तता की लहर है। हमारी वर्तमान आवश्यकता यह है कि संयुक्त परिवारों के अवगुणों और रूढि़गत संरचना को समाप्त करके इसके मौलिक रूप को पुनः अपनाया जाये जिससे समाजवादी आधार पर व्यक्तियों को व्यापक सुरक्षाएं प्राप्त हो सकें। समाज का हित संगठित इकाइयों में अधिक सुरक्षित है, छोटी-छोटी व्यक्तिवादी इकाइयों में नहीं।
परंतु इस बात से इन्कार नहीं किया जा सकता है कि नगरों में आज जिन द्वैतीयक कृत्रिम और अवैयक्तिक संबंधों में दिन-प्रतिदिन वृद्धि हो रही है, उनमें संयुक्त परिवारों का बने रहना किसी भी तरह संभव नहीं है।
Question : भारतीय ईसाइयों में जाति प्रथा।
(2000)
Answer : भारत में अधिकतर ईसाई मूल निवासियों के धर्म परिवर्तन द्वारा बने हुए हैं सन् 1952 में जिन हिंदुओं ने हिंदू धर्म को छोड़कर ईसाई धर्म अपनाया था उन्हें अपनी मूल जाति समूह से अलग होने पर भी विवश होना पड़ा था। लेकिन उन्होंने अपनी जाति की अवस्थिति कायम रखी। उन्होंने उच्च और निम्न जाति के बीच परंपरागत मर्यादाओं का उल्लंघन नहीं किया जबकि वे ईसाई जीवन के नैतिक नियमों के प्रतिकूल थे। केवल इसी तरीके से वे अपने आप को बनाये रख सके और दो हजार वर्षों तक अपना अस्तित्व बनाये रखने में सफल रहे। परिस्थितियों के अनुसार अपने को बदलने और समझौतों के नियमों के द्वारा ईसाई समुदाय शताब्दियों तक अपना अस्तित्व कायम रख सके हैं। आज भी आधुनिकीकरण के द्वारा लाये गये परिवर्तनों के बावजूद भी वे पारंपरिक रीति-रिवाजों को अपने दैनिक जीवन में निभाते रहने में सफल हो पाये हैं।
हिंदुओं की तरह ईसाई भी जन्मपत्रियों में विश्वास रखते हैं। हिंदुओं की तरह वे भी ताली या विवाह के लॉकेट बांधते हैं। वे भी मृत्यु से संबंधित सूत्तक को मानते हैं जिसकी अवधि दस से पन्द्रह दिन की होती है तथा इसे दूर करने के लिए स्नान किया जाता है। इस धर्मानुष्ठान को पुला-कुली कहते हैं। हिंदुओं की तरह वे ओनम तथा विशु (फसल तथा नये साल के समारोह) त्यौहार मनाते हैं। वे अन्न प्रसन्नम (बच्चे को पहली बार चावल खिलाने) के समारोह को भी मानते हैं।
Question : परंपरागत जाति-व्यवस्था में सामाजिक गतिशीलता के कौन-से साधन उपलब्ध थे? समकालीन भारतीय समाज में सामाजिक गतिशीलता के स्वरूप का वर्णन कीजिए।
(2000)
Answer : जब भी जाति एवं सामाजिक गतिशीलता की चर्चा की जाती है तो अनिवार्यतः भारतीय समाज में परिवर्तन की प्रक्रियाओं का जिक्र होता है। समाजशास्त्रियों का मानना है कि जाति व्यवस्था की बंद प्रकृति के बावजूद जातिगत पदक्रम तथा इसके प्रतिमानों में समय-समय पर परिवर्तन आते रहे हैं। उदाहरण के लिए, वैदिक काल में हिंदू धर्म की सांस्कृतिक रीतियां कालांतर में निषिद्ध हो गयीं। इनमें कुछ रीतियों के अनुसार वैदिक हिंदू धर्म जाति-जैववादी था, वैदिक ब्राह्मण-सोमरस (मद्य) पीते थे, पशुबलि देते थे व गौमांस खाते थे। ये रीतियां बाद में निषिद्ध हो गयीं, परंतु निम्न जातियों में ये चलती रहीं।
श्री निवास ने अपने संस्कृतिकरण की अवधारणा में जाति गतिशीलता को सामाजिक एवं सांस्कृतिक परिवर्तन की प्रक्रिया के रूप में समझाया है। संस्कृतिकरण नामक सामाजिक व सांस्कृतिक प्रक्रिया वह प्रक्रिया है, जिसमें निम्न हिंदू जाति उच्च जातियों और बहुधा द्विज जातियों का अनुसरण करते हुए अपनी प्रथाएं अनुष्ठान, विचारधाराएं, रीतियां एवं जीने का तरीका बदल लेती है। इसने जाति व्यवस्था के अंतर्गत गतिशीलता को घटित होने के लिए मार्ग प्रशस्त कर दिया है। अंग्रेजों के आगमन के बाद सड़क, रेल तथा आर्थिक अवसर उपलब्ध हुए, जो कि जातियों के बंधनों से परे थे। इन सबके कारण जाति गतिशीलता बढ़ी।
संस्कृतिकरण के अतिरिक्त सामाजिक परिवर्तन की अन्य प्रमुख अभिकारक पश्चिमीकरण थी। पश्चिमीकरण के अंतर्गत वे सभी प्रभाव आते हैं, जिन्होंने अंग्रेजी राज्य के दौरान सम्पूर्ण भारत को प्रभावित किया। अंग्रेजी शासन धर्मनिरपेक्षवाद, समानतावाद व प्रजातंत्र की विचारधारा लाया। शिक्षा, अर्थव्यवस्था व राजनैतिक व्यवस्था के नये अवसर सैद्धातिंक रूप से जाति मुक्त थे व सभी के खुले हुए थे। इन अवसरों की प्राप्ति से, कोई भी किसी को किसी जाति, संप्रदाय या धर्म में जन्म लेने के आधार पर रोक नहीं सकता था।
इसके अलावा, आधुनिकीकरण की शक्तियों के परिणामस्वरूप, व्यक्ति के दैनिक जीवन में जाति की विचारधारा की व्यापकता कम हुई है। जीवन की परिवर्तित परिस्थितियों, औद्योगिकरण की शक्तियों तथा शहरीकरण के कारण जातिगत रीतियां सार्वजनिक गतिविधि होने के स्थान पर अधिकाधिक व्यक्तिगत गतिविधि बनती जा रही है। उदाहरण के लिए, कोई भी व्यक्ति, जो जाति से ब्राह्मण हो या कोई भी अन्य जाति का हो वह जूते के कारखानों में काम कर सकता है।
समकालीन भारतीय समाज में सामाजिक गतिशीलताः समकालीन भारतीय समाज में हम सामाजिक गतिशीलताजाति के परिप्रेक्ष्य में राजनैतिक प्रक्रिया के रूप में देख सकते हैं। जैसा कि हम जानते हैं कि वर्तमान समय में जाति कर्मकाण्डों पर आधारित न होकर राजनीतिक तंत्र के रूप में परिवर्तित हो गया है। जाति का प्रयोग विभिन्न संगठन के माध्यम से शक्ति पाने के रूप में हो रहा है। लोगों में जातीय-चेतना में वृद्धि हुई है जिसके फलस्वरूप लोग विभिन्न क्षेत्रों में आरक्षण की बात करने लगे हैं। यद्यपि निम्न जाति के लोगों को आरक्षण मिला हुआ है फिर भी वे सभी सेक्टर में इसको लागू कराना चाहते हैं। दूसरी ओर, जाति आधारित बहुत से राजनीतिक पार्टियों का निर्माण हो चुका है, जिसका मुख्य कार्य अपने जाति की समस्याओं को देखना होता है। अतः इस प्रकार के कार्यकलापों के फलस्वरूप निश्चित रूप से जातीय प्रस्थिति में सामाजिक गतिशीलता की प्रक्रिया होना स्वाभाविक है।
दूसरी ओर, संगठित दल की राजनीति के लिए जातियों ने तैयार शुदा खंडों की व्यवस्था प्रदान की, जिसे समर्थन जुटाने के लिए प्रयुक्त किया जा सकता था। उदारवादी शिक्षा, सरकारी सरंक्षण तथा बढ़ता हुआ मताधिकार वे प्रमुख कारक हैं, जिन्होंने जाति व्यवस्था में प्रवेश किया है। जाति समूह में विद्यमान असंतोष व शोषण ने, जातिगत गुटों व गठबंधनों को संगठित करने के लिए आधार प्रदान किया है। इस प्रकार, आधुनिक राजनीति की जाति का प्रचलित अनुलंब जाल का लाभ मिला तथा उसने जाति संरचना को राजनीति का उपकरण बना लिया।
के.एल. शर्मा ने सामाजिक गतिशीलता के तीन दृष्टिकोणोंकी ओर संकेत किया है- संरचनात्मक-ऐतिहासिक, मार्क्सवादी, और संस्कृतिवादी अथवा भारत शास्त्रीय। ए.आर. कामत ने प्रथम दृष्टिकोण का उपयोग करते हुए महाराष्ट्र में जाति गतिशीलता की व्याख्या की है जिसमें उसने कहा है कि पुराने शहरी वर्चस्व वाले राजनैतिक नेतृत्व के स्थान पर नेताओं की नयी व्यवस्था आ गई है जो उन्नत ग्रामीण तत्वों, विस्तृत राजनैतिक चेतना, और राजनैतिक लोकतंत्र में विश्वास रखते हैं। मार्क्सवादी दृष्टिकोण का प्रयोग अरविन्द दास और प्रधान एच. प्रसाद ने बिहार में अंतर्जातीय व वर्ग संघर्षों के विश्लेषण करने में किया है। सामाजिक गतिशीलता की व्याख्या यजमानी प्रथा के पतन और आधुनिक व्यवसायों के उदय, अस्पृश्यता और अशुद्धता-शुद्धता सिद्धांत के पतन और शिक्षा, संरक्षणात्मक भेदभाव की राज्य की नीति और सामाजिक आंदोलनों के संदर्भ में भी की जा सकती है।
राबर्ट हार्डग्रेव ने तमिलनाडु में नादरों के बीच एकता और सामंजस्य और इसकी एकीकृत राजनैतिक संस्कृति का परीक्षण किया। अन्य जातियों पर आर्थिक निर्भरता की समाप्ति तथा विस्तृत भौगोलिक क्षेत्र पर जाति बन्धनों के विस्तार ने इस जाति (नादरों) को एक नयी दृढ़ता प्रदान की जिसने उन्हें सामाजिक, आर्थिक और राजनैतिक दृष्टि से उठा दिया। आर्थिक रूप से अपनी प्रस्थिति में सुधार करने के बाद उन्होंने क्षत्रिय पद का दावा किया। 1921 की जनगणना में सभी नादरों ने स्वयं को नादर क्षत्रिय घोषित कर दिया। आज नादर दक्षिण में आर्थिक व राजनैतिक दृष्टि से सबसे सफल समुदायों में से एक है। ये सभी प्रक्रिया 1910 में गठित नाडार महाजन संगम नामक जाति सभा के प्रयासों से संभव हो सका।
सामान्य तौर पर जाति सभाओं तथा इस जाति सभा के उपरोक्त कई अन्य उदाहरणों से यह पता चलता है कि इन संगठनों ने अपने समुदायों के लिए कितना महत्वपूर्ण योगदान दिया है। उपसमुदाय या जाति सभाएं भारतीय समाज में मूलभूत संरचनात्मक व सांस्कृतिक परिवर्तनों में एक ऐसी अनुकूली संस्था के रूप में योगदान देती हैं, जिसमें समाज की पारंपरिक व आधुनिक दोनों विशेषताएं मिल सकती हैं और विलय हो सकती है। साथ ही यह भी देखा गया है कि जाति अपने पूर्ववर्ती प्रकार्य, प्रतिमान व संरचनाएं खो रही है तथा लोगों की नई आवश्यकताओं व स्थितियों के अनुकूलनये प्रकार्य, प्रतिमान व संरचनाएं प्राप्त कर रही है। आज यह पारंपरिक समाज के अनुष्ठानिक व व्यावसायिक उद्देश्यों को कम और आधुनिक समाज की गतिशीलता व भागीदारी के उद्देश्यों को अधिक निभा रही है। इस प्रकार यह भारतीय समाज को एक जन्मजात पद क्रमित व बंद व्यवस्था से अर्जितोन्मुख अपेक्षाकृत समानतावादी व खुली व्यवस्था में परिवर्तित करने में सहायता दे रही है।
Question : भारत के सुविधावंचित समूहों के लिए संरक्षात्मक भेदभाव नीति की आलोचनात्मक परीक्षा कीजिए। क्या आप इस नीति से किसी परिवर्तन का सुझाव देंगे?
(2000)
Answer : सरंक्षात्मक भेदभाव उन तरीकों में से एक है जिनके आधार पर सरकार सुविधावंचित समूहों के समस्याओं के समाधान हेतु प्रयास करती है। प्रथम, अनेक ऐसे संवैधानिक और अन्य कानूनी प्रावधान हैं जो अस्पृश्यों के प्रति भेदभाव समाप्त करते हैं और उन्हें अन्य नागरिकों के समान ही अधिकार प्रदान करते हैं। द्वितीय, कुछ लाभ केवल अनुसूचित जाति के लोगों को ही उनके योग्य बनाते हैं तथा अन्य लोगों को नहीं, जैसे- छात्रवृत्तियां, ऋण एवं अनुदान आदि। कुछ प्रमाण पत्रों को उन्हें प्रदान करना, जो उन्हें अनुसूचित श्रेणी का बताते हैं, उन्हें लाभों को प्राप्त करने योग्य तो बनाते हैं लेकिन गैर-सदस्य उन लाभों के लिए योग्य नहीं रहते। इस संरक्षात्मक विशेषता के कारण इस व्यवस्था को ‘रक्षात्मक भेदभाव’ कहा जाता है।
हरिजनों के कल्याण एवं उत्थान से संबंध कुछ संवैधानिक प्रावधान थेः जैसे- सार्वजनिक स्थानों (दुकानों, रेस्ट्रां, कुओं, स्नान घाटों, सड़कों आदि पर जाने से संबंधित निर्योग्यताओं की समाप्ति, शैक्षिक संस्थाओं में प्रवेश की अस्वीकृति का निषेध, उनके लिए हिंदू धार्मिक स्थलों में प्रवेश की अनुमति दिया जाना, उनके कल्याण के लिए सलाहकार समितियों का गठन, संसद व राज्य विधायिकाओं में विशेष प्रतिनिधित्व तथा सार्वजनिक सेवाओं में आरक्षण आदि। 1955 के अस्पृश्यता अधिनियम में इन संवैधानिक प्रावधानों के उल्लंघन पर दंड का प्रावधान किया गया।
दलितों के कल्याण के लिए चलाई गई केंद्र द्वारा प्रायोजित कुछ महत्वपूर्ण योजनाएं इस प्रकार हैं: विभिन्न प्रतियोगितात्मक परीक्षाओं आदि के लिए कोचिंग एवं प्रशिक्षण देना, उच्च शिक्षा के लिए वित्तीय सहायता, दलितों की समस्याओं पर अनुसंधान के लिए संस्थाओं को वित्तीय सहायता प्रदान करना, पंचवर्षीय योजनाओं में विकास के विशेष कार्यक्रम सम्मिलित करना, और सेवाओं तथा शैक्षिक संस्थाओं में आरक्षण प्रदान करना। अस्पृश्यता मूल्यांकन के लिए 1965 में भारत सरकार द्वारा एक समिति नियुक्त की गई। अनेक समाजशास्त्रियों द्वारा किये गये अध्ययन अस्पृश्यों के पक्ष में कुछ परिवर्तन दर्शाते हैं। अस्पृश्यों के शोषण की आर्थिक व सामाजिक विशेषता के कारण सामाजिक असमानता की स्थिति यद्यपि अब उस सीमा तक नहीं रही जितनी आजादी से पूर्व थी, फिर भी अस्पृश्यता समाप्त नहीं हो सकी है। 1971-72 में बिहार में हरिजन अभिजात वर्ग का सच्चिदानन्द द्वारा किया गया अध्ययन भी दर्शाता है कि यद्यपि आर्थिक क्षेत्र में उनकी स्थिति में सुधार आया है उनके संस्कारों, सामाजिक व राजनैतिक क्षेत्र में नहीं।
जैसा कि हम जानते हैं कि सुरक्षात्मक भेदभाव की नीति के अंतर्गत सुविधावंचित समूहों को संवैधानिक प्रावधान के अनुसार अनुसूचित जाति के लोगों को लोक सभा, राज्य सभा, विधान सभा (राज्यों के) से लेकर पंचायत स्तर पर आरक्षण की व्यवस्था है। अनुसूचित जनजाति एवं महिलाओं के लिए भी इसी प्रकार का प्रावधान है। साथ ही विभिन्न प्रकार के केंद्रीय एवं राज्यस्तरीय सेवा के चयन में भी पर्याप्त प्रावधान है। केंद्रीय सेवा के चयन प्रक्रिया में अनुसूचित जाति एवं जनजाति के लिए क्रमशः 15.5 एवं 7.5 प्रतिशत के आरक्षण का प्रावधान है। इसके अतिरिक्त अन्य पिछड़ा वर्ग के लिए भी विभिन्न केंद्रीय एवं राज्य स्तरीय सेवा में पर्याप्त प्रावधान है। जैसा कि हम वर्णन कर चुके हैं कि इन वर्ग के लोगों के लिए बहुत सी सरकारी सहायता प्रदान की गई है।
सुरक्षात्मक भेदभाव की नीति वास्तव में जाति व्यवस्था पर आधारित है न कि आर्थिक स्थिति पर। किसी भी व्यक्ति निश्चित रूप से सामाजिक प्रस्थिति उसके जाति व्यवस्था पर आधारित होता है परंतु यह आवश्यक नहीं है। उदाहरण के तौर पर क्या एक ब्राह्मण व्यक्ति आर्थिक रूप से पिछड़ा नहीं हो सकता है, अवश्य हो सकता है। इस स्थिति में यह नीति उन लोगों के लिए जो आर्थिक रूप से पिछड़ा हुआ है, सहायता करने में असमर्थ है। परंतु हाल ही में राजस्थान राज्य में आर्थिक रूप से पिछड़े लोगों के लिए आरक्षण की व्यवस्था की गई है जो एक सही कदम प्रतीत होता है। दूसरी ओर, अनुसूचित जाति एवं जनजाति के लोगों के कोई आर्थिक मापदंड की व्यवस्था नहीं की गई है जिसके फलस्वरूप इस वर्ग के कुछ निश्चित समूह ही इस नीति से लाभान्वित हो रहा है। अर्थात् इस समूह के उच्च एवं उच्च मध्यम वर्ग के लोग ही सभी प्रकार के प्रावधानों का उपयोग कर रहा है। इसका मतलब यह नहीं है कि निम्न वर्ग के लोग इससे लाभान्वित नहीं हो रहा है, परंतु इसकाप्रतिनिधित्व का प्रतिशत बहुत ही कम है। यह तथ्य सुरक्षात्मक भेदभाव की नीति पर एक प्रश्न चिन्ह लगाता है।
अतः हमारा सुझाव इस नीति के लिये यह है कि भारतीय समाज के सभी निम्न वर्ग के लिए होना चाहिए। यह नीति का आधार जाति के साथ-साथ आर्थिक भी होना अत्यंत आवश्यक है। जैसा कि हम जानते है सभी जाति के लोगों के बीच गरीबी विद्यमान है परंतु अंतर इतना है कि उच्च जाति के बीच इसका प्रतिशत कम है वहीं निम्न जाति के बीच ज्यादा। परंतु निम्न जाति के वे लोग जो सही रूप से इसके हकदार है वो भी लाभ नहीं ले पा रहे हैं। अतः अन्य पिछड़े वर्गों के समान ही निम्न जाति के उच्च एवं मध्यम वर्ग के लोगों के लिए ‘क्रीमी लेयर’ का प्रावधान होना चाहिए। अतः इस प्रकार से सुरक्षात्मक भेदभाव की नीति का लाभ समाज के लगभग सब तबके को मिल सकेगा एवं सामाजिक असमानता को दूर करने में मदद मिल पायेगी।
Question : विभिन्न जनजातीय नीतियों का आलोचनात्मक परीक्षण कीजिए। भारत में जनजातीय विकास के लिए आप कौन-सी जनजातीय नीति का समर्थन करेंगे और क्यों?
(2000)
Answer : अनुसूचित जनजातियों के विकास पर और अधिक ध्यान केंद्रित करने के उद्देश्य से अक्टूबर 1999 के एक अलग जनजातीय कार्य मंत्रालय का गठन किया गया। सामाजिक न्याय एवं अधिकारिता मंत्रालय से पृथक किया गया यह मंत्रालय अनुसूचित जनजातियों के बारे में नीति निर्धारित करने,योजनाओं में समन्वय स्थापित करने वाला शीर्ष मंत्रालय है।
देश में 194 समन्वित जनजातीय विकास परियोजनाएं चलायी जा रही है, जहां पर प्रखंडों अथवा प्रखंड समूहों की कुछ जनसंख्या में जनजातीय आबादी 50 प्रतिशत से अधिक है।
आदिम जनजाति समूहों के लिए योजना: 75, ऐसी अनुसूचित जनजातियां हैं, जिनकी पहचान करके उन्हें आदिम जनजाति समूहों की सूची में रखा गया है। इन जनजातियों की 15 राज्यों/केंद्रशासित प्रदेशों में पहचान इस आधार पर की गई है, जैसे जनसंख्या में वृद्धि न होना या घट जाना, न्यूनतम शिक्षा दर यानि दो प्रतिशत से भी कम और झूम-खेती तथा छोटे-छोटे वन उत्पादों को इकट्ठा करना आदि। नौवीं पंचवर्षीय योजना में आदिम जनजातीयों के लिए एक अलग-योजना बनाई गई है और वर्ष 1998-99 के लिए तीन करोड़ रुपये दिये गये हैं।
बालक/बालिकाओं के छात्रवासः बालिकाओं के लिए छात्रवास कार्यक्रम तीसरी पंचवर्षीय योजना में शुरू किया गया था। इसके अंतर्गत राज्यों को छात्रवासों की निर्माण लागत पर 50 प्रतिशत और केंद्र शासित प्रदेशों को शत-प्रतिशत राशि के रूप में केंद्रीय सहायता राशि दी जाती है। लड़कों के लिए छात्रवास योजना वर्ष 1989-90 में शुरू की गई।
आश्रम विद्यालयः केंद्र द्वारा प्रायोजित उप-योजना क्षेत्र में आश्रम विद्यालय कार्यक्रम वर्ष 1990-91 में शुरू किया गया। इसके अंतर्गत आश्रम पद्धति के विद्यालय खोलने के लिए राज्यों को 50 प्रतिशत और केंद्रशासित प्रदेशों को शत प्रतिशत सहायता दी जाती है।
व्यावसायिक प्रशिक्षणः केंद्रीय सहायता प्राप्त यह योजना 1992-93 में शुरू किया गया। इसका उद्देश्य बेरोजगार जनजातीय चुनाओं की कुशलता बढ़ाकर उन्हें रोजगार/स्वरोजगार के अवसर उपलब्ध कराना है।
भारतीय जनजातीय सहकारी विपणन विकास परिसंघ (ट्राईफेड): जनजातीय लोगों को व्यापारियों के शोषण से बचाने तथा उन्हें छिटपुट वनोत्पादों और अपनी जरूरत से अधिक कृषि उपज के लाभप्रद मूल्य दिलाने के लिए सरकार ने 1987 में ट्राइफेड का गठन किया था। यह परिसंघ राष्ट्रीय स्तर की एक सहकारी संस्था है, जो बहुराज्यीय सहकारी समिति अधिनियम (1984) के तहत कार्य करती है।
ग्रामीण अनाज बैंक योजनाः वर्ष 1996-97 में केंद्रीय क्षेत्र की जनजातीय ग्रामीण अनाज बैंक योजना शुरू की गई। दूर दराज के ग्रामीण इलाकों में रहने वाली अनुसूचित जनजातीयों में पोषण स्तर को गिरने से बचाने के लिए इन अनाज बैंकों का प्रावधान किया गया। मंत्रालय इसके लिए धनराशि ट्राइफेड के जरिये जारी करता है।
राष्ट्रीय अनुसूचित जनजाति वित्तीय विकास निगमः अप्रैल 2001 में भारत सरकार में राष्ट्रीय अनुसूचित जनजाति वित्तीय विकास निगम का गठन किया। इसे राष्ट्रीय अनुसूचित जाति एवं जनजाति वित्तीय विकास निगम से अलग करके एक सरकारी कंपनी की तरह बनाया गया है। यह पूर्णतया भारत सरकार के स्वामित्व वाली कंपनी है।
कम साक्षरता वाले इलाकों में जनजातीय बालिकाओं की शिक्षा: कम साक्षरता वाले इलाकों में जनजातीय बालिकाओं की शिक्षा में दो प्रतिशत से कम महिला साक्षरता वाले आठ राज्यों के 48 चुने हुए जनजातीय जिलों में महिलाओं की शिक्षा के स्तर में सुधार के लिए 1993-94 में यह कार्यक्रम प्रारंभ किया गया। इसके अंतर्गत पांचवीं कक्षा तक की बालिकाओं के लिए आवासीय विद्यालयों की स्थापना की जाती है। यह कार्यक्रम स्वयंसेवी संगठनों द्वारा लागू किया जाता है। 1997-98 के बजट में चार करोड़ रुपए जारी किये गये, इसका उपयोग 20 नए शिक्षा परिसरों और 54 अनुवर्ती शिक्षा परिसरों की स्थापना में किया गया।
जनजातीय अनुसंधान संस्थानः आंध्र प्रदेश, असम, बिहार, गुजरात, केरल, मध्य प्रदेश, महाराष्ट्र, उड़ीसा, राजस्थान, तमिलनाडु, पश्चिम बंगाल, उत्तर प्रदेश, मणिपुर और त्रिपुरा ने 14 जनजातीय अनुसंधान संस्थान स्थापित किये गये हैं। मणिपुर और उत्तर प्रदेश को छोड़कर बाकी सभी संस्थानों में संग्रहालय हैं, जिनमें विभिन्न जनजातीय वस्तुओं को प्रदर्शित किया गया है। इन संस्थानों में केंद्र और राज्य सरकारों द्वारा अनुसंधान, शिक्षा, आंकड़ों के संग्रह, प्रशिक्षण-उप-योजनाओं के लिए व्यावसायिक निवेश जुटाने, जनजातीय साहित्य के प्रकाशन, जनजातीय परंपरागत कानून को संहिताबद्ध करने आदि का कार्य किया जाता है। 1997-98 में संस्थानों के लिए बजट में 2.36 करोड़ रुपये का प्रावधान था जबकि 2.71 करोड़ रुपये जारी किये गये।
छिट-पुट वन उत्पादों के लिए सहायता अनुदान कार्यक्रमः यह केंद्रीय क्षेत्र योजना है। इसके अंतर्गत राज्य आदिवासी विकास सहकारी निगमों, वन विकास निगमों और छिट-पुट वन उत्पाद (व्यापार और विकास) परिसंघों को छिट-पुट वन उत्पाद कार्यक्रम शुरू करने के लिए शत-प्रतिशत अनुदान दिया जाता है। इस योजना के अंतर्गत राज्य अनुदान राशि का उपयोग इन कार्यक्रमों में कर सकते हैं: (क) आदिवासी विकास सहकारी निगमों, वन विकास निगमों और छिट-पुट वन उत्पाद परिसंघों का शेयर पूंजी आधार मजबूत करने, (ख) वैज्ञानिक तरीके के भंडारण गृहों का निर्माण करने, (ग) छिट-पुट वन उत्पादों की उपयोगिता बढ़ाने के लिए प्रसंस्करण उद्योग लगाने, और (घ) निगमों द्वारा संचालित अनुसंधान और विकास कार्यक्रमों में 1996-97 में चार करोड़ की बजट राशि को पांच राज्य निगमों में बांटा गया। वर्ष 1997-98 में 8 राज्य निगमों को 8.23 करोड़ रुपए का संशोधित बजट प्रावधान किया गया था।
अनुसूचित जनजातीयों के लिए कार्यरत-स्वैच्छिक संगठनों को सहायता: मंत्रालय, अनुसूचित जनजातियों के कल्याण हेतु कार्यरत उन स्वैच्छिक संगठनों की आर्थिक सहायता प्रदान करता है जो आवासीय विद्यालयों, छात्रवासों, चिकित्सा इकाइयों, कंप्यूटर प्रशिक्षण यूनिटों,आशुलिपि और टंकण प्रशिक्षण इकाइयों, बालवाड़ी/शिशुसदन (आई.सी.डी.एस. कार्यक्रमों के अंतर्गत न आने वाले क्षेत्र), पुस्तकालयों और श्रव्य-दृश्य इकाइयों जैसी परियोजनाओं के लिए काम करते हैं। यह अनुदान सामान्यता परियोजना की कुल अनुमोदित लागत का 90 प्रतिशत तक होता है और शेष 10 प्रतिशत राशि का वहन आर्थिक सहायता लेने वाले संगठनों द्वारा किया जाता है। 1997-98 के दौरान, 113 गैर-सरकारी संगठनों को लगभग 7.00 करोड़ रुपए की राशि आवंटित की गई थी।
वर्ष 2002-03 से आदिवासी महिला सशक्तिकरण योजना शुरू की गई है, इसमें अनुसूचित जनजाति की अत्यंत गरीब महिलाओं को काम-धंधा शुरू करने के लिए चार प्रतिशत सलाना ब्याज पर 50 हजार रुपये तक का ऋण उपलब्ध कराया जाता है।
जहां तक विभिन्न जनजाति नीतियों का सवाल है, इसका क्रियान्वयन प्रायोगिक स्तर पर कम ही देखने को मिलता है। इसका सर्वप्रमुख कारण है कि सरकार एवं जनता के बीच की कड़ी के द्वारा किये गये भ्रष्टाचार जिससे कोई भी नीति धरातल स्तर पर सफल क्रियान्वयन में हमेशा संदेह रहा है। इसके बीच के कड़ी के रूप में नौकरशाहों द्वारा भ्रष्टाचार के साथ-साथ राजनीतिक नेताओं द्वारा भी भ्रष्टाचार शामिल है। यहां तक की मंत्रियों के द्वारा भी विभिन्न प्रकार के भ्रष्टाचार कराये जाते हैं जिसके फलस्वरूप दिये गये राशि की अधिकतम मात्र इन लोगों द्वारा हजम कर ली जाती हैं। फिर भी इस बात से भी अस्वीकार नहीं किया जा सकता है कि इन योजनाओं के कारण जनजातीय समस्याओं का हल हुआ है।
भारत में जनजाति के विकास के लिए सरकार द्वारा स्वैच्छिक संगठनों को वित्तीय सहायता की योजना सबसे अधिक सफल हो सकता है। इसका कारण है कि ये स्वैछिक संगठन अधिकतम स्तर पर सहायता प्रदान करने में समर्थ होता है क्योंकि इसके अंतर्गत संगठन के कार्यकर्त्ता समस्या के प्रति स्वयं संवेदनशील होते हैं। इन स्वैच्छिक संगठनों के द्वारा विभिन्न स्तर पर कार्य संपन्न करते हैं, जैसे- शिक्षा प्रदान करना, चिकित्सा के क्षेत्र में तथा जनजातियों के बीच-चेतना जाग्रत करने से संबंधित कार्य करते हैं। जैसे हमने ऊपर में वर्णन कम साक्षरता वाले इलाकों में जनजातीय बालिकाओं की शिक्षा की योजना जो सरकार स्वैच्छिक संगठनों के माध्यम से ही संपन्न कराती है। वर्तमान समय में बहुत से स्वैच्छिक संगठन जनजातियों के कल्याण के लिए कार्य कर रहे हैं। फिर भी सरकार के द्वारा क्रियाविंत सभी योजनाओं को भी सफलता पूर्वक सम्पन्न कराया जा सकता है अगर लोगों के बीच सेवा-भावना की प्रवृति जाग्रत हो।
Question : कृषक समाज।
(1999)
Answer : कृषकों का वह समूह जिसके लिए कृषि आजीविका का मात्र साधन ही नहीं, वरन् उनकी जीवन-शैली का आधार भी होता है, कृषक समाज कहलाता है। कृषकों के लिए कृषि-वृत्ति का उद्देश्य लाभ कमाना नहीं होता। वे व्यापार के लिए नहीं, वरन्, उपभोग के लिए खेती करते है। रेडफिल्ड के शब्दों में, ‘वे ग्रामीण व्यक्ति जो पारम्परिक जीवन-शैली के अंग के रूप में जीवनयापन के लिए अपनी भूमि को खुद जोतते हैं एवं जिसका नियंत्रण भी उनके हाथ में होता है तथा जो ऐसे संभ्रांत अथवा नगर के व्यक्तियों से प्रभावित होते हैं जिनकी जीवन-शैली उन्हीं के समान होते हुए भी थोड़ी अधिक परिष्कृत है, कृषक समुदाय की रचना करते हैं।
आन्द्रे बेते ने यह स्पष्ट किया है कि यदि हम भारत के सभी गांवों के लिए कृषक समाज शब्द का प्रयोग करते हैं तो उसमें अनेक कठिनाइयां आ सकती है। वास्तव में हमारी सम्पूर्ण कृषि-संरचना अनेक प्रकार के समूहों तथा उनके बीच पाये जाने वाले विभिन्न प्रकार के संबंधों से निर्मित हुई है। इस दृष्टिकोण से विभिन्न समाजशास्त्रियों तथा मानव-शास्त्रियों की यह धारणा है कि ग्रामीण भारत कृषक समाज के केवल भौतिक केंद्र है। ऐसा विचार केवल भारतीय ग्रामीण अध्ययनकर्त्ताओं का ही नहीं है बल्कि रेडफील्ड और संसार में उनके अनुयायियों ने भी इसी प्रकार के विचार व्यक्त किये हैं आन्द्रे बेते ने स्पष्ट किया है कि यद्यपि कुछ ग्रामीण समाजों को कृषक कहना लाभप्रद हो सकता है लेकिन भारत में जिस परम्परागत आधार पर एक ओर जातीय संस्तरण है और दूसरी ओर जटिल कृषि संबंधी संस्तरण पाया जाता है, उसके आधार पर सम्पूर्ण ग्रामीण समाज को कृषक समाज कहना उचित प्रतीत नहीं होता।
आन्द्रे बेते ने यह स्पष्ट किया है कि भारतीय ग्रामीण संरचना में कृषक समुदाय का निर्धारण करने के लिए जाति के स्थान पर परिवार को आधार मानना चाहिए। आन्द्रे बेते के शब्दों में, ‘सही अर्थों में कृषक परिवार उसी परिवार को कहा जा सकता है जिसके सभी सक्रिय सदस्य, चाहे वे स्त्री हों या पुरुष, खेत पर काम करते हों।’ इस मान्यता के आधार पर गांवों में भूमिहीन श्रमिक जो मजदूरी लेकर कृषि का कार्य करते हैं वे कृषक हो सकते हैं लेकिन वह व्यक्ति जो मजदूरी देकर हल चलवाता है और खेत में कार्य न करने के बाद भी कृषि से प्राप्त आय द्वारा आजीविका का निर्वाह करता है, उसे कृषक नहीं कहा जा सकता है।
Question : धार्मिक अल्पसंख्यक वर्ग की परिभाषा दीजिए। भारत में धार्मिक अल्पसंख्यक वर्गों की समस्याओं की विवेचना कीजिए।
(1999)
Answer : अल्पसंख्यक की कोई सर्वस्वीकृत परिभाषा नहीं है। अलग-अलग समाज में इसे अलग-अलग परिप्रेक्ष्य में परिभाषित किया गया है। यहां तक कि संयुक्त राष्ट्र संघ भी इसे परिभाषित करने में विफल रहा है। राष्ट्र संघ घोषणा पत्र में धार्मिक, भाषाई, जातीय अल्पसंख्यकों को अधिकारों का जिक्र है। फिर भी अल्पसंख्यक वर्ग को इस प्रकार समझा जा सकता है- किसी समुदाय में सरलता से पहचाने जाने वाला ऐसा कोई भी प्रजातिक, धार्मिक अथवा नृजातीय समूह जो पूर्वाग्रहों तथा भेदभाव के कारण कुछ अयोग्यताओं, उत्पीड़न और असुविधाओं का शिकार बनता है, अल्पसंख्यक समूह कहलाता है। किसी समूह का अल्पसंख्यक होना अथवा न होना मात्र संख्या या मात्र पर निर्भर नहीं करता, अपितु शारीरिक अथवा सांस्कृतिक विशेषताओं के कारण उनके साथ सामूहिक रूप में किया गया भेदभाव तथा असमानतापूर्ण व्यवहार उन्हें अल्पसंख्यक समूह का दर्जा प्रदान करता है। यही कारण है कि दक्षिणी अफ्रीका में काले लोग अधिसंख्य होते हुए भी अल्पसंख्यक समूह की श्रेणी में आते हैं।
नेहरू जी ने कहा था कि भारतीय धर्मनिरपेक्षता का परीक्षण इस बात से नहीं होना चाहिए कि बहुसंख्यक वर्ग क्या सोचता है बल्कि इस बात से आंका जाना चाहिए कि अल्पसंख्यक वर्ग कैसा महसूस करता है। सन् 1957 में सर्वोच्च न्यायालय के केरल के शिक्षा विधेयक के संदर्भ में अल्पसंख्यक समूह उस समूह को माना जिसकी संख्या राज्य में 50 प्रतिशत से कम हो। भारत में मुसलमान, ईसाई, सिख, बौद्ध, जैन, आदि धर्मावलम्बियों एवं जनजातियों को अल्पसंख्यकों की श्रेणी में गिना जाता है।
भारत में अनेक धर्मों से संबंधित लोग निवास करते हैं। इनमें हिंदू, मुसलमान, सिख, बौद्ध, जैन, पारसी आदि धर्मों को मानने वाले लोग प्रमुख है। भिन्न-भिन्न धार्मिक अल्पसंख्यकों को भिन्न-भिन्न प्रकार की समस्याएं रही है जिसका वर्णन हम एक-एक कर करने जा रहे हैं।
(1) मुस्लिम अल्पसंख्यक की समस्याएं
(क)विधानमंडलों एवं प्रशासनिक के प्रतिनिधित्व से असंतुष्टिः विधानमंडलों एवं प्रशासनिक सेवाओं को लेकर मुसलमानों में यह असंतोष रहा है कि इनमें उनका उचित प्रतिनिधित्व नहीं हुआ है। देश की कुल जनसंख्या का लगभग 12 प्रतिशत भाग मुस्लिम जनसंख्या का है। कतिपय मुस्लिम संगठनों के अनुसार 545 सदस्यों की लोकसभा में 62 स्थान पर मुस्लिम प्रतिनिधि होने चाहिए। किंतु 1952 में 36, 1957 में 24, 1962 में 32, 1979 में 48, 1984 में 45 सदस्य थे।
इसी प्रकार से कुल आई.ए.एस. अधिकारियों की संख्या वर्तमान में 3,368 में है इनमें से 105 अधिकारी मुसलमान हैं। इन तथ्यों से स्पष्ट है कि लोकसभा व प्रशासनिक सेवाओं में मुसलमानों का प्रतिनिधित्व कम है।
(ख)सांप्रदायिक दंगेः स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद देश में अनेक बार सांप्रदायिक दंगे हुए हैं। मेरठ, अहमदाबाद, बिहार शरीफ, रांची, जबलपुर, इंदौर, भिवानी, मुरादाबाद, ब्यावर एवं अलीगढ़, भागलपुर आदि अनेक स्थानों पर सांप्रदायिकता की आग भड़कती रही है। इन दंगों के कारण मुसलमानों में बहुमत सम्प्रदाय के विरुद्ध असुरक्षा की भावना विकसित हुई।
(ग)उर्दू भाषा का प्रश्नः मुसलमानों ने समय-समय पर उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश, और बिहार में उर्दू को राजभाषा का दर्जा दिलाने की मांग की है। कुछ राजनीतिक दलों ने यह प्रचार किया कि उर्दू केवल मुसलमानों की भाषा है। अतः उर्दू भाषा का प्रश्न एक साम्प्रदायिक प्रश्न बन गया।
(घ)अलीगढ़ विश्वविद्यालय का मामलाः अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय के संगठन और कार्य-प्रणाली में सुधार लाने की दृष्टि से सन् 1965 में भारत सरकार ने एक अध्यादेश जारी किया। चूंकि मुसलमान लोग इस विश्वविद्यालय के अल्पसंख्यक स्वरूप को बनाये रखना चाहते हैं, अतः उन्होंने इस अध्यादेश का विरोध किया।
(ड़)मुस्लिम पर्सनल कानूनः भारतीय संविधान में यह स्पष्ट उल्लेख किया गया है कि देश के सभी नागरिकों के लिए एक ही सिविल कोड होगा। भारत सरकार समाज सुधार की दृष्टि से मुसलमानों के पर्सनल कानून में कुछ परिवर्तन करना चाहती है जिससे कि इस समुदाय का आधुनिकीकरण हो सके। इस दृष्टि से सरकार ने मुसलमानों की बहुविवाह पद्धति एवं तलाक के नियमों में हस्तक्षेप किया। इस बात से अनेक रूढि़वादी मुसलमान रूष्ट हो गये। उनका कहना है कि विवाह संबंधी मुस्लिम कानून शरीयत पर आधारित है जिसमें हस्तक्षेप करना धर्मविरुद्ध हैं।
इसाई अल्पसंख्यक की समस्याएं: ईसाइयों के प्रति शंका का एक कारण यह रहा है कि ईसाई धर्म स्वीकार करने वाली जनजातियों ने पृथकतावादी आंदोलन को जन्म दिया, साथ ही हिंदू एवं अन्य लोगों में धर्म परिवर्तन की शंका एवं भय को गहरा किया, इस प्रकार ईसाइयों ने भी भारतीय समाज में एकीकरण की समस्या पैदा की। इसके प्रतिक्रिया में कुछ हिंदू संगठनों जैसे- बजरंग दल, शिव सेना ने ईसाइयों के प्रति भयंकर प्रतिक्रियाएं की है। यहां तक कि ईसाई पादरियों की हत्या की गई है। इस प्रतिक्रिया से ईसाइयों के बीच गहरा असंतोष व्याप्त है।
सिक्ख अल्पसंख्यक की समस्याएं: सन् 1967 में सिक्खों की भाषा एवं संस्कृति के आधार पर पंजाब अलग राज्य का गठन किया गया, फिर भी सिक्खों ने एक पृथक राज्य खालिस्तान की मांग कर डाली। खालिस्तान मांग के दौरान इन लोगों ने आतंकवादी गतिविधियां शुरू कर दी एवं अंततोगत्वा प्रधानमंत्री श्रीमती इंदिरा गांधी की हत्या कर दी जिससे सारे देश में सांप्रदायिक दंगा फैल गया। इन आतंकवादी गतिविधियों का नियंत्रण के लिए स्वर्ण मंदिर पर दो बार सैनिक कार्यवाही करनी पड़ी। जुलाई, 1985 मे केंद्र सरकार तथा अकाली दल के मध्य पंजाब समस्या के समाधान के लिए तथा सिक्खों के घावों को भरने एवं टूटने को जोड़ने के लिए एक समझौता हुआ, किंतु यह समझौता भी समस्या का समाधान नहीं कर सका है।
जैन, बौद्ध और पारसी भी भारत में अल्पसंख्यक समुदाय है, किंतु इसके अंतर्गत कोई भी गंभीर समस्या नहीं है।
Question : शहरी मध्यम वर्ग के बढ़ते विस्तार के कारणों और परिणामों का परीक्षण कीजिए।
(1998)
Answer : किसी समाज का आर्थिक तथा सामाजिक स्तरीकरण की व्यवस्था का वह भाग जिसका स्तर न हो अत्यधिक निम्न होता है और न ही अत्यधिक ऊंचा। यह सामाजिक वर्ग, कुलीन वर्ग तथा सर्वहारा द्वारा बने सामाजिक माप के दो छोर बिंदुओं के मध्य में स्थित होता है। इस वर्ग में मुख्यतः सफेदपोश तथा निम्न प्रबंधकीय व्यवसायों में कार्यरत व्यक्तियों को सम्मिलित किया जाता है।
ब्रिटिश शासनकाल में भारत में जिन सामाजिक वर्गों का उदय हुआ वे इस प्रकार है- कृषि के क्षेत्र में प्रमुखतः ये वर्ग थे- (i) ब्रिटिश सरकार द्वारा बनाया गया जमींदारी वर्ग, (ii) अन्यत्रवासी भू-स्वामी, (iii) जमींदार व अन्यत्रवासी
भू-स्वामियों के मातहत पट्टेदार, (iv) काश्तकार मालिकों का वर्ग जिसकी उच्चतम मध्यम और निम्न तीन श्रेणियां थी, (v) खेतीहर मजदूर, (vi)) व्यापरियोंका नया वर्ग, (vii) सूदखोर महाजनों का नया वर्ग। नगरों में ये वर्ग मुख्यतः निम्नलिखित थेः (i) वाणिज्यिक और वित्तीय पूंजीपतियों और उद्योगपतियों का वर्ग, (ii) औद्योगिक, आवागमन के साधन संबंधी, खनिज विषयक और ऐसे अन्य कार्यों में लगे हुए आधुनिक मजदूर वर्ग, (iii) आधुनिक पूंजीवादी अर्थव्यवस्था में बंधा छोटे व्यापारियों व दुकानदारों का वर्ग, (iv)) पेशेवर वर्ग- टेकनीशियन, डॉक्टर, वकील, प्रोफेसर, पत्रकार, मैनेजर, किरानी और अन्य लोगों का पेशेवर वर्ग जिसमें बुद्धिवादी व शिक्षित वर्ग के लोग हैं।
आधुनिक वकील, डॉक्टर, नई शिक्षण संस्थाओं से संबंधित शिक्षक व प्रोफेसर आधुनिक वाणिज्यिक और औद्योगिक प्रतिष्ठानों में काम करने वाले मैनेजर और किरानी राज्य के प्रशासन तंत्र में काम करने वाले पदाधिकारी, इंजीनियर रसायनविद, टेकनोलॉजिस्ट, कृषि अर्थविद पत्रकार और अन्य लोगों के नए पेशेवर वर्ग भी ब्रिटिशकाल के भारत में उदित हुए। नए आर्थिक सामाजिक और राजनीतिक संगठनों के लिए आधुनिक कानून, टेक्नोलॉजी, औषधि विज्ञान, अर्थशास्त्री, प्रशासन विज्ञान और अन्य विषयों में प्रवीण शिक्षित भारतीयों की आवश्यकता थी। व्यापारिक प्रतिष्ठानों तथा प्रशासनिक व्यवस्था की आवश्यकताओं को ध्यान में रखते हुए ब्रिटिश सरकार को भारत में तेजी के साथ नये शिक्षण संस्थाओं को खोलना पड़ा। नए राज्य और समाज की आवश्यकताओं को ध्यान में रखते हुए कानून, वाणिज्य और अन्य विषयों के स्कूल तथा कॉलेज खोले गये। इस प्रकार जैसे-जैसे नए समाज का विकास होता गया, वैसे-वैसे आधुनिक पेशेवर वर्गों का जन्म व विकास भी हुआ। ये वर्ग आधुनिक उद्योग, कृषि, वाणिज्य, वित्त, प्रशासन, प्रेस एवं नए सामाजिक जीवन के अन्य अंगों-उपअंगों से जुड़े हुए थे। पूर्व ब्रिटिशकाल में इनका अस्तित्व नहीं था क्योंकि उस समय इस प्रकार की सामाजिक, आर्थिक और वर्गीय व्यवस्था नहीं थी।
आधुनिक पेशेवर वर्ग ब्रिटिश शासनकाल में आधुनिक पश्चिमी शिक्षा और संस्कृति के प्रसार और नए समाज की आवश्यकताओं के आधार पर विकसित हुए थे। आर्थिक दृष्टि से ये नए वर्ग नव विकसित पूंजीवादी समाज के विभिन्न अंग थे। इनके पास आधुनिक पश्चिमी विज्ञान और कला का ज्ञान था। वकीलों ने ब्रिटिश सरकार द्वारा बनाए एवं लागू किए गये कानूनों का अध्ययन किया। डॉक्टरों ने आधुनिक औषधि विज्ञान का चिन्तन मनन किया तथा इंजीनियर आधुनिक टेक्नोलॉजीकल विज्ञान की शिक्षा प्राप्त करने लगे। शिक्षकों ने आधुनिक, सामाजिक, राजनीतिक, आर्थिक, प्राकृतिक आदि विषयों का ज्ञान अर्जित किया। पत्रकारों एवं लेखकों ने पुस्तकों की रचना की और अखबारों का सम्पादन किया। मैनेजरों और अफसरों ने राजनीतिक एवं आर्थिक दृष्टि से एकीकृत भारत के आर्थिक और प्रशासनिक राजतंत्र को संचालित किया और सम्पूर्ण राष्ट्र की समस्याओं को सुलझाने में योग दिया। यहां हमने जिन वर्गों का उल्लेख किया उनके अतिरिक्त नागरिक क्षेत्रों में प्रत्येक नगर और महानगर में छोटे दुकानदारों और व्यापारियों का भी एक बहुत बड़ा वर्ग था जो आधुनिक नगरों और महानगरों के विकास का परिणाम था।
19वीं सदी के प्रथम कुछ दशकों में शिक्षित भारतीयों की संख्या बहुत ही कम थी। जब अंग्रेजों ने काफी मात्र में स्कूल और कॉलेज खोले और ईसाई मिशनरियों ने भी इस कार्य में योगदान दिया तभी 19वीं सदी के उत्तरार्द्ध में शिक्षित भारतीयों के बहुत बड़े वर्ग का जन्म हुआ जिसके परिणामस्वरूप बुद्धिजीवियों का काफी बड़ा वर्ग निर्मित हुआ, प्रगतिशील बुद्धिवादी वर्ग ने आधुनिक पश्चिमी प्रजातांत्रिक संस्कृति को अपने में आत्मसात् किया और भारतीय राष्ट्र की जटिल समस्याओं को समझा।
वास्तव में अंग्रेजी शासन द्वारा प्रारंभ की गई शिक्षा पद्धति के परिणामस्वरूप भारत में इस शिक्षित मध्यम वर्ग का जन्म हुआ था। वकील, डॉक्टर, टेक्नीशियन, प्रोफेसर, पत्रकार, सरकारी नौकर, किरानी, विद्यार्थी इत्यादि इस वर्ग के सदस्य थे। 19वीं सदी के उत्तरार्द्ध में और उसके बाद आधुनिक शिक्षण संस्थाओं की संख्या में तेजी के साथ वृद्धि हुई जिसने शिक्षित मध्यम वर्ग की संख्या को लगातार बढ़ाने में योग दिया।
निश्चित रूप से मध्यम वर्ग वर्तमान समय में सामाजिक, आर्थिक, राजनैतिक एवं सांस्कृतिक प्रक्रियाओं में अपना महत्वपूर्ण योगदान देता है। शहरी मध्यम वर्ग के बढ़ते विस्तार के परिणामों का उल्लेख हम निम्नलिखित बिंदुओं के अंतर्गत कर सकते हैं:
अतः इस प्रकार से हम कह सकते हैं कि मध्यम वर्ग समाज के प्रत्येक क्षेत्र में अभूतपूर्व योगदान किया है। शिक्षा मूलरूप से इसकी उत्पत्ति के कारण रहे हैं। मध्यम वर्ग आज भारतीय शहरी समाज के विभिन्न व्यवस्थाओं एवं क्रियाकलापों के केंद्र बिंदु है।
Question : धार्मिक अल्पसंख्यक वर्गों के संवैधानिक रक्षा-उपायों का विवेचन कीजिए और भारत में बढ़ते धार्मिक रूढि़वाद के कारणों का विश्लेषण कीजिए।
(1998)
Answer : भारत में अल्पसंख्यकों को मोटे तौर पर तीन श्रेणियों में बांटा गया है- (क) धार्मिक अल्पसंख्यक, (ख) भाषाई अल्पसंख्यक एवं (ग) जनजातीय अल्पसंख्यक। लगभग सभी देशों में धर्म एवं भाषा के आधार पर अल्पसंख्यक समूहों को मान्यता प्रदान की गई है। धार्मिक अल्पसंख्यक वर्गों के संवैधानिक रक्षा उपायों हेतु अनेक प्रयास किये गए हैं। भारतीय संविधान में अल्पसंख्यकों के हितों की रक्षा के लिए अनेक प्रावधान किये गये हैं। संविधान के अनुच्छेद 14, 15 व 16 में कानून के समक्ष समानता और विधि के समान संरक्षण का आश्वासन दिया गया है। किसी भी व्यक्ति के साथ धर्म, जाति, गति, मूलवंश आदि के आधार पर भेद-भाव नहीं किया जाएगा। अनुच्छेद 16 में सार्वजनिक सेवाओं में समान अवसर देने का प्रावधान है। अनुच्छेद 25 में प्रत्येक व्यक्ति को किसी भी धर्म को स्वीकार करने, उसका प्रचार करने की छूट दी गई है। अनुच्छेद 26 धार्मिक मामलों का प्रबंध करने, अनुच्छेद 27 धर्म के प्रचार-प्रसार हेतु कर वसूल करने तथा अनुच्छेद 28 में सरकारी शिक्षण संस्थाओं में धार्मिक उपासना में भाग न लेने की छूट दी गई है।
अनुच्छेद 29 में नागरिकों को अपनी विशेष भाषा, लिपि एवं संस्कृति को बनाये रखने, सरकारी शिक्षण संस्थाओं में प्रवेश पर धर्म, मूलवंश, जाति एवं भाषा के आधार पर भेदभाव न बरतने का प्रावधान किया गया है।
अनुच्छेद 30 में भाषा और धर्म पर आधारित सभी अल्पसंख्यकों को शिक्षण संस्थाएं स्थापित करने एवं उनको प्रशासन करने का अधिकार देता है।
संवैधानिक प्रावधानों को लागू करने, उनका पुनरावलोकन करने के लिए सरकार ने कई विशिष्ट अधिकारियों एवं आयोगों की नियुक्ति की है। सन् 1978 में ‘अल्पसंख्यक आयोग’ की स्थापना हुई, जिसका एक अध्यक्ष एवं सदस्य अल्पसंख्यक समुदायों में से होते हैं। यह कमीशन अन्य कार्यों के अतिरिक्त संविधान में किये गये संरक्षण प्रावधानों का मूल्यांकन करने, उन्हें प्रभावी रूप से लागू करने के लिए सुझाव देने, केंद्र एवं राज्य सरकारों की नीतियों को लागू करने, शिकायतें सुनने, सर्वेक्षण एवं अनुसंधान करने तथा अल्पसंख्यकों के कल्याण हेतु समय-समय पर रिपोर्ट देने का कार्य करता है।
सन् 1983 में केंद्रीय सरकार ने पृथक से एक ‘अल्पसंख्यक प्रकोष्ठ’ की स्थापना की, जो प्रधानमंत्री के 15 सूची कार्यक्रम का एक भाग है। यह प्रकोष्ठ अल्पसंख्यकों के द्वारा राष्ट्रीय जीवन में पूरी तरह भाग लेने, अल्पसंख्यकों की शिकायतों को दूर करने एवं उनके कल्याण कार्यों की देख-रेख करता है। कुछ राज्यों ने भी ऐसे प्रकोष्ठों की स्थापना की है। प्रधानमंत्री के 15 सूत्री कार्यक्रम का मुख्य उद्देश्य साम्प्रदायिक हिंसा को रोकना एवं साम्प्रदायिक सद्भाव को बढ़ावा देना, अल्पसंख्यकों की शिक्षा की आवश्यकता पर गौर देना, सेवाओं में उनकी भर्ती के लिए प्रयत्न करना तथा 20 सूत्री कार्यक्रमों सहित अन्य विकास कार्यक्रमों के लाभों में उन्हें अपना हिस्सा दिलाना आदि है।
सन् 1987 में न्यायमूर्ति एम. एच. बेग की अध्यक्षता में गठित अल्पसंख्यक आयोग ने अपनी रिपोर्ट में राष्ट्रपति को अनेक सुझाव दिये हैं। उनमें से एक सुझाव धर्म को राजनीति से पृथक रखने का है। आयोग का मत है कि सब प्रकार की आर्थिक एवं राजनीतिक मांगों को धर्मनिरपेक्ष दलों द्वारा ही सही ढंग से उठाया जा सकता है। अल्पसंख्यकों को राष्ट्र की मुख्यधारा से जोड़ने के संबंध में वे सभी उपाय अपनाए जाने चाहिए जो राष्ट्रीय एकीकरण समिति ने समय-समय पर लिये हैं।
भारत में बढ़ते धार्मिक रूढि़वाद के कारणों का विश्लेषण
भारत में अनेक धर्मों से संबंधित लोग निवास करते हैं। इनमें हिंदू, मुसलमान, बौद्ध, सिक्ख, ईसाई, जैन एवं पारसी प्रमुख है। हिंदू धर्म को मानने वाले लोग यहां सर्वाधिक संख्या में है। धार्मिक रूढि़वाद की यह प्रक्रिया वास्तव में जब कुछ ईसाई धर्म प्रचारकों ने कुछ लोगों को विशेष रूप से जनजातियों और निम्न जातीय हिंदुओं को ईसाई धर्म में परिवर्तित कराया तो इसकी शुरुआत हुई। आज कुछ हिंदू कट्टरपंथियों ने विशेष रूप से विश्व हिंदू परिषद तथा बजरंग दल के सदस्यों ने ईसाइयों और मुसलमानों को हिंदुत्व में पुनर्परिवर्तित करना चाहा है। हाल ही में ईसाइयों पर हमले, दिसंबर 1998 में गुजरात व जनवरी 1999 में उड़ीसा में, परिवर्तित हिंदुओं को हिंदुत्व पुनर्परिवर्तित करने के प्रयास के साक्ष्य हैं।
आज हम जिस धार्मिक रूढि़वादी परंपरा की समस्या को झेल रहे हैं उसके कारण है- अलगाववादी भावनाएं, सांप्रदायिकता व संकीर्ण हठ धार्मितापूर्ण दृष्टिकोण की शक्तियां। यह कहना गलत न होगा कि धर्मान्धता का पुनउर्दय 1970 के दशक से हुआ है। कतिपय हिंदू व मुसलमान धर्मान्ध लोग जिनको अधर्मी क्रर्मों के लिये धर्म धुएं का पर्दा प्रदान करता है, समाज को दांव पर लगाये हुए है। यह भी एक रोचक स्थिति है कि भिन्न धर्मों के लोग सांप्रदायिक दंगों एवं तनावों के लिए एक-दूसरे को दोष देते हैं। हिंदू-मुसलमान भारत और पाकिस्तान विभाजन के समय विभिन्न धर्मों के हजारों लोगों की हत्या के लिए एक-दूसरे पर दोषारोपण करते हैं। 1960, 1970 व 1980 के दशकों में हिंदू और मुसलमानों ने सांप्रदायिक दंगों के लिए एक-दूसरे को उत्तरदायी ठहराया था। 1993 में मुसलमानों ने अयोध्या में एक ‘विवादास्पद निर्माण’ को गिराने व महाराष्ट्र दंगों में मुसलमानों की हत्या के लिए हिंदुओं को दोषी ठहराया। 1984 में इन्दिरा गांधी की हत्या के बाद सिखों ने दिल्ली, उत्तर प्रदेश व कई अन्य राज्यों में सिखों की हत्या के लिए हिंदुओं को दोषी माना। 1998-99 में ईसाइयों ने गुजरात व उड़ीसा में ईसाइयों पर हुए हमलों के लिए हिंदुओं को दोषी ठहराया। स्थिति का फायदा उठाने के लिए धर्म को एक हथियार के रूप में प्रयोग किया गया। पंजाब में भिण्डरावाला आंदोलन और कश्मीर में कुछ मुसलमानों का पाकिस्तान के पक्ष का रुझान, धार्मिक अल्पसंख्यकों की अतिवादिता के दो उदाहरण हैं। भारतीय जनता पार्टी के एक अनुभाग (VHP) द्वारा ‘हिंदुत्व’ के नारे ने मुस्लिमों और ईसाइयों में हिंदू विरोधी भावनाएं भड़का दी।
अतः उपरोक्त वर्णन से यह स्पष्ट होता है कि अलगाव की भावना, सांप्रदायिक प्रवृत्ति एवं संकीर्ण हठधर्मितापूर्ण दृष्टिकोण की शक्तियों ने ही धार्मिक रूढि़वादी की स्थिति को जन्म दिया है। परंतु वर्तमान राजनैतिक परिप्रेक्ष्य में इस बात से भी इन्कार नहीं किया जा सकता है कि धार्मिक रूढि़वादिता को बढ़ाने में राजनीतिक पार्टियों ने भी भूमिका निभायी हैं वस्तुतः ये राजनीतिक दल सत्ता को प्राप्त करने के लिए इस प्रकार की संकीर्ण विचारधारा को प्रोत्साहित कर रहे हैं जो भारतीय सामाजिक सद्भावना के लिए एक चिंताजनक विषय है।