Question : भारत में राजनीतिक दलों के सामाजिक आधार की विवेचना कीजिए। भारतीय प्रजातंत्र पर इसका क्या प्रभाव रहा है?
(2005)
Answer : राजनीतिक दल के आधार के बारे में राजनैतिक समाजशास्त्रियों का विचार राजनैतिक वैज्ञानिकों से भिन्न है। राजनैतिक समाजशास्त्रियों ने राजनीतिक दल का आधार सामाजिक समूह माना है। मैक्स वेबर ने राजनीतिक दल को सामाजिक संबंध की एक सामूहिक प्रकार से माना है जो मूलतः भर्ती की निःशुल्क प्रविधि पर निर्भर करता है। राजनीतिक दल एक सामाजिक समूह है जो संबंध के अन्तः निर्भरता पर आधारित होती है। दूसरी बात यह है कि यह लक्ष्य प्राप्ति के तार्किक दिशा में इसके सदस्यों द्वारा एक सामूहिक कार्य किया जाता है।
राजनीतिक दल एक सामाजिक समूह है जो प्राथमिक रूप से सरकार द्वारा सामाजिक नियंत्रण के साधन के रूप में कार्यान्वित की जाती है। निश्चित रूप से सभी राजनीतिक दलों की एक पारिभाषित विचारधारा होती है जिसके द्वारा ये दल अपने क्रियाविधि को संचालित कर राजनैतिक लक्ष्य को पाना चाहते हैं जो एक सामाजिक समूह से भिन्नता को प्रदर्शित करता है। सामाजिक समूह के विपरीत राजनीतिक दल अपने सदस्यों तथा नेताओं के लिए हमेशा द्वार खुले रखते हैं। इस प्रकार से दल सामाजिक-आर्थिक तत्वों का विकल्प हमेशा खुले रखते हैं। अतःराजनीतिक दल विभिन्न उपसमूहों का एक योग को प्रदर्शित करता है जो गठबंधन के तहत अपने कार्य का समापन करती है। पुनः एक राजनैतिक दल एक संस्तरीय व्यवस्था के द्वारा काम करती है। इस प्रकार से राजनीतिक दल एक उच्च स्तरीय संस्करण व्यवस्था के माध्यम से कार्य करती है जो निश्चित रूप से केन्द्रीय नियंत्रण के तहत स्थापित होती है। वास्तव में, एक राजनीतिक दल विभिन्न हितों को एकसूत्र में बांधकर सामाजिक व्यवस्था को संचालित करने का प्रयत्न करते हैं। सामाजिक समूह के विपरीत एक राजनैतिक दल वाहक व्यवस्था के रूप में भी कार्य करती है। यद्यपि राजनीतिक दल प्रजातंत्र में सरकार की शक्ति पाने में निहित होती है फिर भी इस बात से इन्कार नहीं किया जा सकता है ये समाज तथा अपने सदस्यों के लिए कल्याण का काम करते हैं। किसी भी दल के अधिकांश सदस्य राजनैतिक शक्ति के अंग नहीं होते हैं परंतु ये सदस्य प्रजातंत्र के क्रियाविधि के समापन में अभूतपूर्व योगदान करता है।
उदाहरण के तौर पर, कम्युनिस्ट पार्टी का विचार इस बात पर निर्भर करता है कि उस वर्ग का हित क्या है। साथ ही ये निम्न वर्ग के लोगों के मदद के लिए कार्य करता है जिसमें व्यक्ति के रहन-सहन, अधिकार एवं शिक्षा के क्षेत्र में अधिकार दिलाना होता है। मार्क्स ने इसके लिए सर्वहारा वर्ग अर्थात् निम्न वर्ग केलोगों की वकालत की है जिसके हाथों में सत्ता की डोर होगी तथा वह निम्न वर्ग के लोगों के लिए ही कार्य करेगा।
परंतु वर्तमान समय में राजनीतिक दलों का सामाजिक आधार परिवर्तित होते दिखता है। आज यह जाति प्रथा, राष्ट्रीयता, धर्म, प्रजाति एवं क्षेत्र से काफी प्रभावित दिखता है एवं ये तत्व ही आज के राजनीतिक दल का आधार बन गये हैं। उदाहरण के तौर पर, भारतीय जनता पार्टी का गठन हिन्दू धर्म एवं राष्ट्रीयता के तत्व पर हुआ है जो हिन्दू राष्ट्रीयता की बात करता है। उसी प्रकार मुस्लिम लीग भी मुस्लिम अल्पसंख्यकों का प्रतिनिधित्व करती है। जाति प्रथा पर आधारित लोेक जनशक्ति पार्टी तथा बहुजन समाज पार्टी का निर्माण हुआ है। जो मूलतः निम्न जाति अर्थात् दलितों का प्रतिनिधित्व करता है। डी.एम.के., टी.डी.पी. असम गण परिषद एवं नेशनल क्रीफ्रेंस भी कुछ ऐसी राजनीतिक पार्टियां हैं जिसका सामाजिक आधार क्षेत्र रहा है।
इन सभी तत्वों के वर्णन से पता चलता है कि विभिन्न समय में राजनीतिक दलों का सामाजिक आधार में परिवर्तन होता रहा है। फिर भी इस तथ्य से इन्कार नहीं किया जाना चाहिए कि इसका प्रभाव प्रजातंत्र के संचालन में काफी पड़ता है।
भारतीय प्रजातंत्र में राजनीतिक दलों का प्रभावः आधुनिक प्रजातांत्रिक व्यवस्था के संचालन के लिए राजनीतिक दल का सहयोग एवं राजनीतिक सहभागिता आवश्यक ही नहीं अपितु नितांत जरूरी है। राजनीतिक दलों को इसलिए आधुनिक राजनीतिक में बहुत आवश्यक माना जाता है। आज किसी भी समाज के लिए राजनैतिक जनसहयोग के साथ-साथ संचारण भी अत्यंत जरूरी है। दूसरी ओर एक प्रजातांत्रिक समाज में राजनैतिक प्रशासन की अभूतपूर्व भूमिका होती है। यहां पर भारतीय प्रजातंत्र में राजनीतिक दलों के प्रभाव का आकलन हम इन बिन्दुओं के तहत कर सकते हैं-
अतः इस प्रकार से हम देखते हैं कि किसी भी प्रजातंत्र के लिए राजनीतिक दलों का पूर्णरूपेण सहभागिता होना अत्यंत आवश्यक है जो सरकार एवं जनता के बीच सामंजस्य को स्थापित करता है।
Question : बहुवाद तथा राष्ट्रीय एकता।
(2005)
Answer : बहुवाद समाज एक ऐसा समाज है जो धर्म, भाषा, जाति, प्रजाति, नस्ल आदि के आधार पर विभिन्न समूहों और समाजों में बंटे होते हैं। वास्तव में, बहुल समाज की ये विशेषताएं बहुधा सभी समाजों में देखने को मिलती हैं, अतः यह अवधारणा कभी-कभी ‘बहुल-सांस्कृतिक समाज’ के पर्यायवाची के रूप में प्रयोग की जाती है। भारत और अमेरिका इसके सर्वश्रेष्ठ उदाहरण हैं जहां अनेक जाति, प्रजाति, धर्म, नस्ल, संस्कृति, भाषा के लोग रहते हैं।
किसी भी राष्ट्र के निर्माण में बहुवाद अनेक बार बाधाएं उत्पन्न करती हैं। भारत जैसे देश में सांस्कृतिक बहुलता ने एकीकरण कम एवं बाधाओं के रूप में ज्यादा कार्य किया है। सांस्कृतिक बहुलता ने ही सम्राट अशोक और अंग्रेजों के काल को छोड़ कर शायद ही भारत के राष्ट्रीय निर्माण में योगदान दिया है। इसी सांस्कृतिक बहुलता को राष्ट्र निर्माण में एक बाधा के रूप में समझना अनिवार्य है। विभिन्न धर्मो, जातियों, प्रजातियों, भाषाओं, जनजातियों, जनसंख्यात्मक विविधताओं आदि ने भारतीय अखंडता को कायम रखने में बाधाएं उत्पन्न की हैं।
भारत में लगभग 3,000 जातीय समूह पाए जाते हैं। प्रत्येक जाति के अपने-अपने खान-पान, विवाह तथा सामाजिक सहवास के नियम हैं। सभी-जातियों का एक निश्चित व्यवसाय होता है और विभिन्न जातियों के बीच ऊंच-नीच का एक संस्तरण है। सम्पूर्ण भारतीय समाज विभिन्न जातीय खण्डों में विभाजित है किन्तु कई बार जातीय भावना के कारण जातिवाद की समस्या पैदा हो जातीहै जो राष्ट्रीय अखंडता के लिए हानिकारक है।
देश की अखण्डता एवं राष्ट्रीय एकता के लिए सबसे बड़ा खतरा क्षेत्रवाद की भावना है। क्षेत्रवाद की दृढ़ भावना एवं साम्प्रदायिकता ने ही देश का विभाजन हिन्दुस्तान व पाकिस्तान में किया और आजादी के बाद भी इसी भावना के कारण देश के विभिन्न भागों से पृथक्करण की आवाज उठी। क्षेत्रवाद की भावना ने राष्ट्रीय भावना एवं राजनीतिक एकता की छवि धूमिल कर दी और समय-समय पर देश को तनाव एवं संघर्षों से जूझना पड़ा।
भारत में धर्म ने विभिन्नता के बावजूद भी सामाजिक एकीकरण एवं राष्ट्रीय एकता में योग दिया है, किन्तु उसका दूसरा पक्ष भी है। धर्म को लेकर यहां देश के विभिन्न भार्गों में कई बार दंगे हुए हैं जिनमें विभिन्न धर्मावलम्बियों ने एक-दूसरे को अपार जन व धन की हानि पहुंचाई है।
इसके अतिरिक्त भाषावाद, जनजातीय बहुलता एवं प्रजातीय बहुलता ने भी राष्ट्रीय अखंडता को बल देने के साथ-साथ हानि भी पहुंचाई है। भाषाई भिन्नता पृथकतावाद के लिए उत्तरदायी है। भाषा के नाम पर यहां एक क्षेत्र व दूसरे क्षेत्र के लोगों में काफी तनाव पाए जाते हैं तथा इसने देश की एकता में बाधा पहुंचाई है। आज जनजातियां नवीन राजनीतिक व्यवस्था से परिचित हुई हैं और उनमें राजनीतिक चेतना आई है। किन्तु कई जनजातियों ने अपने अधिकारों की मांग करते हुए पृथक एवं स्वतंत्र राज्य की मांग की है। उदाहरण के रूप में उत्तर प्रदेश में उत्तरांचल, मध्य प्रदेश में छत्तीसगढ़ तथा बिहार में झारखण्ड राज्यों का विभाजन जनजातियों में क्षुद्र राजनीतिक जागरूकता का ही दुष्परिणाम है। प्रजातीय दृष्टि से भारत को विभिन्न प्रजातियों का अजायबघर अथवा द्रवण पात्र कहा गया है। यहां विश्व की प्रमुख तीन प्रजातियां श्वेत, पीत एवं काली तथा उनकी उपशाखाओं के लोग निवास करते हैं। उत्तरी भारत में आर्य प्रजाति का और दक्षिण भारत में द्रविड़ प्रजाति का बाहुल्य हैं। आर्यों में विजेता के भाव होने के कारण वे अपने आपको द्रविड़ों से उच्च मानते हैं। इनकी इस भावना के कारण राष्ट्रीय अखंडता में बाधा उत्पन्न हुई है। इस प्रकार से बहुलवाद एवं राष्ट्रीय अखंडता के विभिन्न आयाम अन्तर्सबंधित हैं।
Question : नागरिक समाज में धर्म की भूमिका।
(2004)
Answer : नागरिक समाज वास्तव में समाज के प्रत्येक नागरिक को स्वतंत्रता प्रदान करता है जिसके अंतर्गत व्यक्ति एक निश्चित सिद्धांत एवं नीति के अनुरूप बेहिचक कार्य सम्पन्न करता है। इसमें किसी समूह या व्यक्ति का प्रभुत्व से इन्कार किया जाता है। परंतु कार्ल मार्क्स ने नागरिक समाज के संबंध का प्रयोग एक ऐसे भ्रष्ठ पूंजीवादी समाज के लिए किया है जो चरम व्यक्तिवादिता तथा भौतिकवादी प्रतिस्पर्धा पर आधारित होता है। इस भ्रष्ट पूंजीवादी समाज के फलस्वरूप उत्पन्न संघर्ष और दुर्गति को रोकने एवं नियंत्रित करने के लिए ही आधुनिक राज्य की आवश्यकता हुई अतः इस प्रकार के समाज में किसी भी एक धर्म की भूमिका निश्चित रूप से महत्वपूर्ण नहीं होती है। इसमें व्यक्ति को अपने अनुसार कोई भी धर्म को मानने का अधिकार प्राप्त होता है इस प्रकार के धर्म को हम नागरिक धर्म भी कह सकते हैं।
एक नागरिक धर्म एक ऐसे लौकिक (सेक्युलर) प्रतीकों और अनुष्ठानों के समूह को कहा जाता है जिसमें कुछ मात्र में लगाव की भावना, सामाजिक एकता तथा विस्मय एवं भय, जो सामान्यतः किसी भी धर्म तथा पवित्र वस्तुओं के साथ जुड़े होते है, सम्मिलित होते हैं। कुछ समाजशास्त्रियों का मत है कि औद्योगिक समाजों में जैसे-जैसे सामाजिक जीवन में संस्थागत (पारंपरिक) धर्म शिथिल होता जाता है, धीरे-धीरे इसके स्थान पर एक नये धर्म के ताने बाने का उदय हो जाता है जो बहुत कुछ रूप में संस्थागत (परंपरागत) धर्म के प्रकार्यों को संपादित करता है।
Question : प्रवसन और जनजातीय समाप्त।
(2004)
Answer : प्रवसन एवं जनजातीय समाज की अवधारणा का सम्मिलित रूप को अलग नहीं किया जा सकता है। भारत में जनजातीय समाज के प्रवसन के मुख्य दो कारण रहे है- एक औद्योगिकरण एवं दूसरा विस्थापन। परंपरागत रूप से आदिवासी समाज जंगलों में एवं प्रकृति की गोद में निवास करने वाला माना जाता था परंतु वर्तमान समय में ये लोग अपने प्राकृतिक निवास से बाहर निकले हैं, जिसका प्रमुख कारण जंगलों पर राज्य का प्रभुत्व स्थापित होना है।
औद्योगीकरण के फलस्वरूप जनजातियों का प्रवसन शहरों या नगरों की ओर हुआ है। ये लोग मूल रूप से श्रमिक के रूप में उद्योगों में काम करते हैं एवं अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति करते है। इन आवश्यकताओं के अंतर्गत आर्थिक, सामाजिक एवं शैक्षिक पहलू सम्मिलित होते हैं। वास्तव में जब जंगलों पर राज्य का प्रभुत्व हो गया तो ये लोग अपनी जीवन की मूल आवश्यकताओं की पूर्ति करने में असमर्थ रहे जबकि दूसरी और अंग्रेजों के आगमन के फलस्वरूप विभिन्न उद्योगों की स्थापना हुई। ये दोनों ही कारण जनजातीय समाज को प्रवसन के लिए मजबूर करते हैं।
दूसरी और, जनजातीय क्षेत्रों में विभिन्न नदियों के ऊपर बांध बन जाने के कारण इसके, घर एवं जमीन सरकार द्वारा ले लिये गये एवं बदले में इन लोगों को बहुत कम राशि दी गई और न ही रहने का ही कोई दूसरा प्रावधान किया गया। यहां पर कहने का तात्पर्य यह है कि इन परिस्थितियों तत्वों ने भी इन लोगों को प्रवसन के लिए विभिन्न क्षेत्रों में मजबूर किया। उदाहरण के तौर पर हम विभिन्न सामाजिक आंदोलनों को इस रूप में पाते हैं। जैसे-नर्मदा बचाओ आंदोलन एवं तावा बांध आंदोलन, दोनों का ही मूल है आदिवासी लोगों के अधिकार एवं आवश्यकताओं की पूर्ति कराना।
Question : भ्रष्टाचार के सामाजिक- सांस्कृतिकपरिणामों का विश्लेषण कीजिए और उसकी रोकथाम करने के लिए उपचारक उपाय सुझाइये।
(2004)
Answer : भ्रष्टाचार बहुत व्यापक शब्द है। इसे रिश्वत के रूप में समझा जा सकता है। इसे निजी लाभ के लिए सार्वजनिक शक्ति का इस प्रकार प्रयोग करना, जिसमें कानून तोड़ना शामिल हो या जिससे समाज के मानदंडों का विचलन हुआ हो, भी कहा जाता है।
वर्तमान समय में भारतीय समाज में भ्रष्टाचार अपने विकराल रूप में इस तरह फैल चुका है कि अब यह मात्र व्यवहार न होकर एक स्वीकृति मनोवृति बन चुका है। भले ही इसका मुख्य असर लगातार विकसित होते मध्य वर्ग पर अधिक दिखता हो, पर उच्च वर्ग से लेकर निम्न वर्ग तक कोई भी इससे अछूता नहीं रहा। हालांकि इसका मतलब यह नहीं है कि सारा भारतीय समाज ही भ्रष्ट हो चुका है। दक्षिण अमेरिका, अफ्रीका और अन्य एशियाई देशों के मुकाबले हमारे यहां भ्रष्टाचार अधिक दिखने का कारण यह है कि इसे रोकने का व्यवस्थागतऔर बाध्य नियमन तंत्र असफल और निष्प्रभावी हो गया है। भ्रष्टाचार के सामाजिक-सांस्कृतिक परिणामों का विश्लेषण निम्नांकित बिंदुओं के अंतर्गत किया जा सकता हैः
भ्रष्टाचार को रोकने के उपायःदेश में भ्रष्टाचार पर अंकुश लगाने के लिए अनेक आयोग बने परंतु प्रायोगिक स्तर यह शायद ही सफल हो सका है। भ्रष्टाचार के रोकथाम के लिए कुछप्रमुख व्यवहारिक उपाय बताये जा सकते हैं, जो निम्नलिखित हैं:
भ्रष्टाचार को कम करने में सूचना के अधिकार का भी विशेष महत्व है, यदि विभिन्न दस्तावेजों की जांच एवं उनकी फोटोकापी प्राप्त करने का अधिकार नागरिकों को मिल जाता है, तो अपने आप पूरे भ्रष्ट तंत्र पर एक अंकुश लग जाता है। जैसे ही यह जानकारी भ्रष्टाचार में लिप्त अधिकारियों, राजनीतिज्ञों, ठेकेदारों एवं दलालों को मिलती है कि विभिन्न सौदों एवं ठेकों संबंधी दस्तावेजों की जांच किसी भी नागरिक द्वारा की जा सकती है तथा वह उनकी फोटोकापी भी प्राप्त कर सकता है, तो भ्रष्टाचार करनेवालों के लिए यह संभावना पहले की अपेक्षा कहीं अधिक बढ़ जाती है कि वे आज नहीं तो कल कभी न कभी जरूर पकड़े जायेंगे। इस कारण, जिनका भ्रष्टाचार में हाथ था, उसमें स्वतः कमी आ सकती है और कई लोग जो भ्रष्टाचार की ओर ललायित हो सकते है, वे इस अधिकार की मौजूदगी के कारण अपने इस लालच पर नियंत्रण लगाने के लिए मजबूर हो सकते हैं।
अंत में, आम जनता को भी भ्रष्टाचार के खिलाफ लड़ना होगा। उन्हें घबराना नहीं चाहिए कि अब कुछ नहीं हो सकता। भ्रष्टाचार के खिलाफ आम आदमी को समूह बनाकर लड़ना चाहिए। भ्रष्टाचार से लड़ने के लिए स्वयंसेवी संस्थाओं को आगे आना चाहिए।
Question : भ्रष्टाचार के सामाजिक आयाम।
(2003)
Answer : भ्रष्टाचार के बारे में यह कहा जा सकता है कि यह एक ऐसा तरीका है जो सार्वजनिक साधन या शक्ति का उपयोग व्यक्ति निजी लाभ के लिए करता है एवं कानून का उल्लंघन करता है। समाज में भ्रष्टाचार अनेक स्वरूपों में फैला हुआ है। इनमें से प्रमुख इस प्रकार हैं- रिश्वत, भाई-भतीजावाद, दर्विनियोग, संरक्षण, और पक्षपात। सामाजिक विश्लेषण बताता है कि सामाजिक बंधन और नातेदारी भ्रष्टाचार में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। आधुनिक प्रशासक का सबसे प्रथम दायित्व अपने परिवार के सदस्यों के प्रति होता है और इसके बाद निकट नातेदार एवं वंश या फिर नृजातीय समूह के प्रति।
भ्रष्टाचार के सामाजिक आयाम के अंतर्गत हम व्यावसायिों में ईमानदारी की कमी, जीवन के प्रति भौतिकवादी दृष्टिकोण, समाजिक मूल्यों में गिरावट, अशिक्षा, अर्जनशील सांस्कृतिक गुण, सामंतवादी स्मृतियां, जनता की सहनशीलता व उदासीनता, तथा शोषणवादी सामाजिक संरचना हैं। वर्तमान समय में यह भी देखा जाता है कि सरकार के अंतर्गत करने वाले सेवा ‘सरकारी नौकरी’ भ्रष्टाचार की प्रक्रिया का एक महत्वपूर्ण उदाहरण है। वास्तव में यह सारी प्रक्रिया का मूल तथ्य यह है कि लोग कम समय एवं परिश्रम में अपनी सामाजिक प्रस्थिति को बढ़ाना चाहते हैं। उपभोगतावाद की प्रवृत्ति आज के नगरीय समाज में इतना बढ़ गया है कि हर एक व्यक्ति विभिन्न स्रोतों से अपनी आय में वृद्धि करना चाहता है।
इसके अतिरिक्त, सामाजिक प्रस्थिति में वृद्धि करने के लिए दहेज की प्रथा का प्रचलन मध्यम एवं उच्च वर्गों में बढ़ता जा रहा है। विभिन्न कानूनी प्रावधानों के बावजूद दहेज प्रथा पर शिकंजा कसने में सरकार असफल रही है। अतः भ्रष्टाचार वर्तमान समाज में एक सामाजिक प्रस्थिति के रूप में देखने को मिलता है।
Question : भारत में सांप्रदायिक तनाओं के लिए उत्तरदायी सामाजिक-आर्थिक कारकों का वर्णन कीजिए। इनको नियंत्रित करने के लिए आप क्या सुझाव देंगे?
(2003)
Answer : एक समुदाय के सदस्य जो दूसरे समुदाय के सदस्यों और धर्मों के विरुद्ध प्रतिरोध करते हैं। उन्हें सांप्रदायिक कहा जा सकता है। यह विरोध किसी विशेष समुदाय पर झूठे आरोप लगाना, क्षति पहुंचाना, और जानबूझकर कर अपमानित करने का रूप है। उससे भी अधिक यह विरोध लूटना, असहाय और निर्वल व्यक्तियों के घरों और दुकानदारों को आग लगाना, उनकी स्त्रियों को अपमानित करना और औरतों को जान से मार देने तक का वीभत्स रूप भी धारण कर लेता है।
सांप्रदायिक व्यक्ति वे हैं जो राजनीति को धर्म के माध्यम से चलाते हैं। नेताओं में वे धार्मिक नेता सांप्रदायिक हैं जो अपने धार्मिक समुदायों को व्यापारिक उद्यम और संस्थाएं मानते हैं। जैसे ही उन्हें लगता है उनके नेतृत्व को चुनौती मिलने लगी है या उनकी विचारधारा पर संदेह प्रकट किया जाने लगा है या ईसाई धर्म खतरे में है, के नारे लगवाते है। इस प्रकार सांप्रदायिक व्यक्ति एक धार्मिक व्यक्ति नहीं होता अपितु वह सरल व्यक्ति होता है जो राजनीति खेलता है, राजनीति को धर्म से जोड़कर।
हिंदू-मुस्लिम सांप्रदायिकताः अंग्रेजों ने ‘फूट डालो’ और राज करो, की नीति अपनायी। जिसके फलस्वरूप सांप्रदायिक झगड़ों को प्रोत्साहन मिला और उनका आधिपत्य कायम रहा।
हिन्दुओं और मुसलमानों के बीच पारस्परिक विरोध एक पुराना मामला है। परंतु भारत में हिन्दू-मुस्लिम सांप्रदायिकता स्वतंत्रता संग्राम के दौरान अंग्रेजी शासन की विरासत है। सांप्रदायिकता आज महत्वपूर्ण तरीके से परिवर्तित सामाजिक और राजनीतिक वातावरण में चलती है।
हिंदू-सिख सांप्रदायिकताः सिख, भारत की जनसंख्या के 2 प्रतिशत से भी कम हैं। ये पूरे देश में दूर-दूर तक फैले हुए हैं। उनका सबसे केंद्रीयकरण पंजाब में है। जहां वे वहुमत में हैं। हिन्दू-सिख सांप्रदायिकता ने काफी समाज को प्रभावित किया है।
सांप्रदायिक हिंसा की समयाएं और विशेषताएं विद्यार्थी आंदोलन, श्रमिकों की हड़तालों, और किसानों के आंदोलनों में हिंसा की समस्याओं और विशेषताओं से भिन्न है। अवधारणा के स्तर पर हमें सांप्रदायिक हिंसा, आंदोलन, आतंकवाद, राज्य प्रतिरोध और विद्रोह में अंतर करना चाहिए। यह अन्तर छः स्तरों पर देखा गया है। जन संग्रहण और हिंसा की गाथा संबद्धता की गाथा आक्रमण का लक्ष्य, दंगों का यकायक भड़क उठना, नेतृत्व और दंगों से पीडि़त व्यक्ति और उसके परिणामों के अनुभव।
आंदोलन में जनसंग्रह, जुलूसों, प्रदर्शनों और घेरावों के रूप में विरोध प्रकट करने और शिकायतों एवं मांगों को प्रस्तुत करने के लिए किया जाता है। सांप्रायिक हिंसा में व्यक्तियों का संग्रहण दूसरे समुदाय के विरुद्ध किया जाता है। हिंसा की गाथा और हिंसा करने के तरीके भी आंदोलन और सांप्रदायिक दंगों में भिन्न होते हैं। आतंकवाद में जनसमर्थन निष्क्रिय, अप्रकट औरगुप्त होता है। राज्य विद्रोह में प्रशिक्षित गुट भाग लेते हैं जबकि सांप्रदायिक दंगों में अप्रक्षित लोग लिप्त होते हैं। राज्य-विद्रोह में जनता में प्रचार शासन के विरुद्ध होता है जबकि सांप्रदायिक दंगों में वह सामाजिक उपेक्षा, सामाजिक एवं धार्मिक शोषण के विरुद्ध होता है। सांप्रदायिक दंगों का यकायक भड़क उठना विशेष सामाजिक ढांचे तक सीमित रहता है जबकि राज्य विद्रोह और आतंकवाद में यह अभिमत होता है।
सांप्रदायिक हिंसा के परिणाम होते हैं तीव्र शत्रुता, पूर्वाग्रह और एक समुदाय के दूसरे के बीच पारस्परिक शक। आंदोलनों में मानव हानि तुलनात्मक दृष्टि से कम होती है। यद्यपि संपत्ति की कभी-कभी हानि हो जाती है जब आंदोलनों में समझौता हो जाता है तो सरकारी एजेंसियों के विरुद्ध वैरभाव भी समाप्त हो जाता है और बदले की भावना भी कुछ समय पश्चात चली जाती है। पीड़ित व्यक्तियों में प्रतिशोध की भावना नहीं हो सकती क्योंकि उग्रवादी गुमनाम होते हैं और संगठित रूप से परिष्कृत शस्त्रें से लैस होते हैं। राज्य-विद्रोह में पीड़ित व्यक्तियों में अधिकांश सुरक्षा बलों के सदस्य या सरकारी कर्मचारी होते हैं।
सांप्रदायिक झगड़ों का असर सारे भारत में व्याप्त है कई शहर विगत कई वर्षों से सांप्रदायिकता की बारूद पर खड़े हैं। एक बड़ी संख्या में ऐसे राज्य हैं जहां सांप्रदायिकता ने अपनी जड़ें मजबूत कर ली हैं तथा सांप्रदायिक राजनीति भी चरम सीमा पर है।
यदि सांप्रदायिकता के इस जहर से बचा नहीं गया तो सारा देश इसकी लपेट में आ जायेगा जिससे हमारी धर्मनिरपेक्षता खतरे में पड़ जायेगी।इसके कुल दोशों में राजनीतिक मनोवैज्ञानिक और प्रशासनिक-आर्थिक है। स्वतंत्रता से पहले यह दलील देना सरल थी कि सांप्रदायिक हिंसा अंग्रेजों की फूट डालो और राज करो की नीति का परिणाम था। अब वास्तविकता अधिक जटिल हो गयी है। धर्म का राजनीतिकरण हो गया है राजनीति का अपराधीकरण।
इस प्रकार देश में सांप्रदायिक तनावों को रोकने के लिए और सांप्रदायिक सामंजस्य लाने के लिए बहुरूपीय उपायों की आवश्यकता है। हमें न केवल धार्मिक संप्रदायवाद को परंतु राजनीतिक संप्रदायवाद को भी रोकना है। जो अधिक भ्रष्ट करने वाला खतरनाक है। भारत में मुसलमानों और सिखों में से अधिकांश में सांप्रदायिक हिंसा की प्रवृत्ति नहीं है और अधिकांश हिन्दू ऐसे नहीं हैं। मुस्लिम और सिख समुदायों के सदस्य भी मिश्रित रूप से मानते हैं कि बढ़ते हुए तनाव को रोका जा सकता है। यदि किसी प्रकार राजनीतिज्ञों को अपने संकीर्ण स्वार्थों के लिए व्यक्त्यिों से अनुचित लाभ उठाने से रोक दिया जाय। आम मुसलमान भी धीरे-धीरे राजनीतिज्ञों की शोषण की नियत को समझ रहा है। धार्मिक नारेबाजी अब इस पर ज्यादा असर नहीं डालती है। सामाजिक वैज्ञानिकों और बुद्धिजीवियों को गंभीरता से विचार करना होगा कि सांप्रदायिकता के राष्ट्रीय व्याधि को इससे जुड़े हुए विषयों जैसे धार्मिक हिंसा अलगाववाद को किस प्रकार नियंत्रण में रखें?
Question : दबाव समूहों तथा हित समूहों में अंतर बताइए। समकालीन भारतीय राजनीति में कुछ प्रमुख दबाव समूहों की भूमिका का वर्णन कीजिए।
(2003)
Answer : राजनीतिक प्रक्रिया में दबाव समूहों का विशिष्ट महत्व है। ऐसा भी समय था जब दबाव तथा हित समूहों को अनैतिक माना जाता एवं हेय-दृष्टि से देखा जाता था। किन्तु आधुनिक काल में दबाव तथा हित समूहों को लोकतंत्र का पक्षपोषक एवं सहयोगी माना जाने लगा है। विभिन्न देशों की राजनीतिक व्यवस्था में इन समूहों का महत्व और योगदान इतना अधिक बढ़ गया है कि इन्हें न केवल एक आवश्यक बुराई माना जाता है अपितु राजनीतिक क्रियाशीलता एवं सार्वजनिक नीतियों के प्रभावशाली क्रियान्वयन के लिए स्वास्थ्यजनक तत्व भी स्वीकार किया जाता है।
‘दबाव समूह’ को विभिन्न नामों से संबोधित किया गया है। हित समूह गैर-सरकारी संगठन लॉबीज अनौपचारिक संगठन, गुट इत्यादि शब्दों का प्रयोग दबाव गुटों के लिए किया जाता रहा है। सभी संगठन दबाव समूह नहीं होते और न हित समूह और दबाव समूह समान ही हैं। प्रत्येक देश और समाज में सैकड़ों हित समूह होते हैं, किन्तु जब वे सत्ता को प्रभावित करने के इरादे से राजनीतिक दृष्टि से सक्रिय हो जाते हैं तो दबाव समूह बन जाते हैं। व्यक्तियों के ऐसे समूहों को दबाव समूह कहा जाता है जो किसी कार्यक्रम के आधार पर निर्वाचकों को प्रभावित नहीं करते, लेकिन जिनका संबंध विशेष मामलों से होता है। ये राजनीतिक संगठन नहीं होते न ही चुनावों में अपने प्रत्याशी खड़ा करते हैं। ओडिगार्ड के अनुसार ‘दबाव समूह ऐसे लोगों का औपचारिक संगठन है जिनके एक अथवा अधिक सामान्य उद्देश्य या स्वार्थ होते हैं और जो घटनाओं के क्रम को विशेष रूप से सार्वजनिक नीति के निर्माण और शासन को इसलिए प्रभावित करने का प्रयत्न करते हैं कि वे अपने हितों की रक्षा एवं वृद्धि कर सकें।’
वस्तुतः दबाव समूह ऐसा माध्यम है जिनके द्वारा सामान्य हित वाले व्यक्ति सार्वजनिक मामलों को प्रभावित करने का प्रयत्न करते हैं। इस अर्थ में ऐसा कोई भी सामाजिक समूह जो प्रशासनिक और संसदीय दोनों ही प्रकार के पदाधिकारियों को सरकार पर नियंत्रण प्राप्त करने हेतु कोई प्रयत्न किये बिना ही प्रभावित करना चाहते हैं तो दबाव गुट की श्रेणी में आयेंगे। दबाव समूहों की तुलना ‘अज्ञात साम्राज्य’ से की जाती है। जब इनके हित संकट में होते हैं अथवा जब इन्हें कतिपय स्वार्थों की प्राप्ति करनी होती है तो वे सक्रिय बन जाते हैं। अन्यथा वे हित समूहों के रूप में निष्क्रिय ही बने रहते हैं।
भारतीय राजनीति में दबाव समूह की भूमिका एक सर्वप्रमुख स्थान रखती है। भारत में कई प्रकार के दबाव समूह हैं। ये समूह देश की सामाजिक संरचना का प्रतिनिधित्व करते हैं। प्रो. मोरिस जोन्स के शब्दों में, ‘यदि भारतीय शासन व्यवस्था को सांगोपांग समझना है तो गैर-सरकारी एवं अज्ञात संगठनों की गतिविधियों का अध्ययन करना उपयोगी एवं अपरिहार्य है।’ भारत में क्रियाशील दबाव समूह को आल्मोंड तथा पॉवेल ‘मॉडल’ के आधार पर चार समूहों में विभाजित किया जा सकता हैः
(i) संस्थानात्मक दबाव समूह (ii) समुदायात्मक दबाव समूह (iii) असमुदायात्मक दबाव समूह एवं (iv) प्रदर्शनात्मक दबाव समूह।
संस्थानात्मक दबाव समूह राजनीतिक दलों, विधानमंडलों, सेना, नौकरशाही, इत्यादि में सक्रिय रहते हैं। इनके औपचारिक संगठन होते हैं, ये स्वायत्त रूप से क्रियाशील रहते हैं अथवा विभिन्न संस्थाओं की छत्रछाया में पोषित होते हैं। ये अपने हितों की अभिव्यक्ति करने के साथ-साथ अन्य सामाजिक समुदायों के हितों का भी प्रतिनिधित्व करते हैं। भारत जैसे विकासोन्मुख देश में कई कारणों से संस्थात्मक दबाव समूह अत्यधिक प्रभावशाली शक्ति के रूप में कार्यरत हैं। भारतीय राजनीति में इस स्वरूप के संस्थात्मक चुनाव समूहों में कांग्रेस कार्य समिति, नौकरशाही तथा सेना को लिया जा सकता है। परंतु 1996 में लोकसभा चुनावों के बाद निर्मित युनाइटेड फ्रन्ट का सर्वोच्च नीति निर्माता निकाय ‘स्टीयरिंग कमेटी’ था जिसमें चन्द्रबाबू नायडू, एम. करुणानिधि, प्रफुल्ल कुमार महन्त, जैसे क्षेत्रीय दलों के मुख्यमंत्री सदस्य थे।
समुदायात्मक दबाव समूह हितों की अभिव्यक्ति के विशेषीकृत संघ होते हैं। इसकी मुख्य विशेषता विशिष्ट हितों की पूर्ति करना होता है। ये अपने आधुनिक परिवेश में भारतीय राजनीति में सक्रिय हैं। इनमें प्रमुख हैं-व्यावसायिक संगठन, कृषक संगठन इत्यादि। श्रमिक संगठन श्रमिकों के संघ हैं जो सामूहिक कार्यों द्वारा अपने हितों की रक्षा करते हैं। वर्तमान में मजदूर संघों का संबंध राजनीतिक दलों से जुड़ा हुआ है। भाजपा के नेतृत्व में भारतीय मजदूर संघ, मार्क्सवादी साम्यवादी दल के नेतृत्व में युनाइटेड ट्रेड कांग्रेस, कांग्रेस के नेतृत्व में इंडियन नेशनल ट्रेड यूनियन कांग्रेस और साम्यवादी पार्टी के नेतृत्व में ऑल इंडिया ट्रेड यूनियन कांग्रेस शामिल हैं। वास्तव में मजदूर संघों ने सरकारी नीतियों को आंशिक रूप से ही प्रभावित किया है, वे तो राजनीतिक दलों की भुजाएं मात्र हैं और उनका नेतृत्व भी राजनीतिज्ञों के हाथों में है न कि श्रमिक नेताओं के हाथों में। व्यापारियों के हित समूहों में आधुनिक दबाव समूह के रूप में कार्य करने की सामर्थ्य सबसे अधिक है। व्यापारियों के संघ कई प्रकार के हैं-जैसे उद्योग समूह, साम्प्रदायिक समूह, क्षेत्रीय समूह, अखिल भारतीय समुदाय तथा बड़े व्यावसायिक घरानें। हमारी राजनीतिक प्रक्रिया में व्यावसायिक दबाव समूहों के प्रभाव का अनुमान डालमिया उद्योग समूह पर विवीन बोस की जांच रिपोर्ट के आधार पर सहज ही में लगाया जा सकता है। यह जांच रिपोर्ट डालमिया जैन उद्योग समूह की अनियमितताओं का विस्तृत प्रतिवेदन है। व्यापारियों के संगठनों में आजकल ‘फेडरेशन ऑफ इंडिया चैंबर्स ऑफ कॉमर्स एंड इंडस्ट्री’(FICCI) अत्यंत आधुनिक और प्रभावशाली दबाव समूह माना जाता है। इसके अतिरिक्त विभिन्न विद्यार्थी संगठनों का संबंध विभिन्न राजनीतिक दलों से है जो भारतीय राजनीति में प्रमुख भूमिका निभा रहे हैं। उदाहरण के लिए ‘विद्यार्थी परिषद’ का संबंध भाजपा से है तो स्टुडेंट फेडरेशन का संबंध साम्यवादी दल से। कांग्रेस पार्टी का अपना ‘नेशनल यूनियन ऑफ सटूडेंट्स संगठन’ है। कई प्रकार के सांप्रदायिक संगठन की अपने संघों के माध्यम से विशिष्ट हितों की अभिवृद्धि में लगे रहते हैं। इन संघों में हिन्दू सभा कायस्थ सभा भारतीय ईसाइयों की अखिल भारतीय परिषद, पारसी एशोसिएशन आदि प्रमुख हैं।
असमुदायात्मक दबाव समूह अनौपचारिक रूप से अपने हितों की अभिव्यक्ति करते हैं, इनके संगठित संघ नहीं होते और इन परंपरावादी दबाव समूहों में सांप्रदायिक और धार्मिक समुदाय, जातीय समुदाय, गांधीवादी समुदाय, भाषागत समुदाय, सिंडीगेट और युवा वर्ग प्रमुख हैं। सांप्रदायिक आधार पर गठित समुदायों में मजलिस, विश्व हिन्दू परिषद, बाबरी मस्जिद एक्शन कमेटी, जमायत-ए-इस्लाम-ए हिन्द, जमाइत-ए-इस्लाम इत्यादि प्रमुख हैं। जातिगत दबाव समूहों ने प्रारंभ से ही भारतीय राजनीति को प्रभावित किया है। स्वाधीनता के बाद की राजनीति में जाति का महत्व बढ़ा है। तमिलनाडु में नाडार जाति संघ, आंध्र प्रदेश में काम्मा और रेड्डी जातीय समुदाय, कर्नाटक में लिंगायत व ओक्कालिंगा, राजस्थान में जाट और राजपूत गुट तथा गुजरात में क्षत्रिय महासभा सभा सक्रिय है। जाट महासभा के बढ़ते दबाव एवं 13वीं लोकसभा चुनावों में जाट समर्थन जुटाने की मंशा से ही अगस्त 1999 में जाटों के लिए आरक्षण की घोषणा की गयी। आज की राजनीति में जाति को देखकर चुनाव में विभिन्न दल प्रत्याशी खड़ा करते हैं। मंत्रिमंडल के निर्माण में जातीय तत्व को दृष्टि में रखा जाता है और मतदाता के दृष्टिकोण को भी जाति प्रभावित करती है। इस प्रकार असमुदायातमक दबाव समूह भारतीय राजनीति में काफी प्रभावशाली रहे हैं। बड़े-बड़े मसलों पर सरकारी नीतियों और निर्णयों को न केवल प्रभावित किया है अपितु कभी-कभी सरकार को इनके दबाव के कारण अपनी नीतियों में आमूल-चूल परिवर्तन करना पड़ा है।
प्रदर्शनकारी दबाव समूह अनेक विकासोन्मुख राष्ट्रों की राजव्यवस्था की विशेषता है और भारतीय राजनीति में इनको एकदम नवागत तथ्य नहीं कहा जा सकता। प्रदर्शनकारी गुट वे हैं जो अपनी मांगों को लेकर अवैधानिक उपायों का प्रयोग करते हुए हिंसा, रजनीतिक हत्या, दंगे और अन्य आक्रामक रवैया अपना लेते हैं। भारतीय राजनीति में प्रदर्शनकारी दबाव गुटों के उदय का कारण यह माना जाता है कि सरकार लोगों की न्यायोचित मांगों की ओर ध्यान नहीं देती और राजनीतक दल सभी प्रकार के लोगों की मांगों का समुचित प्रतिनिधित्व नहीं करते। जब शान्तिपूर्ण मांगों की तरफ ध्यान नहीं दिया जाता तो दबाव गुट वैधानिक ढांचे से हटकर कार्य करना प्रारंभ कर देते हैं। प्रदर्शनकारी दबाव गुटों में आजकल जम्मू-एंड कश्मीर लिबरेशन फ्रंट (कश्मीर), खालिस्तान कमांडो फोर्स, बब्बर खालसा, सिख स्टुडेंटस फेडरेशन (पंजाब) उल्फा (असम), रणवीर सेना (बिहार) के नाम उल्लेखनीय हैं।
निष्कर्ष के तौर पर दबाव एवं हित समूहों से अपेक्षा करते हैं कि वे सार्वजनिक हित की अवधारणा को स्वीकार करते हुए सार्वजनिक जीवन की अभिवृद्धि तथा उन्नति के लिए अपने आपको प्रस्तुत करें। विदेशी दबाव का सामना करने के लिए राष्ट्रीय इच्छा शक्ति एवं राष्ट्रीय भावना विकसित करना अपरिहार्य है। अभी तक हित समूह एवं सार्वजनिक हित के मध्य संतुलन स्थापित करना एक समस्या बनी हुई है।Question : आरक्षण और पंचायती राज संस्थाएं।
(2002)
Answer : अनुच्छेद 40 के अंतर्गत संविधान गांव में स्व सरकार को संगठित करने के लिए ग्राम पंचायत की व्यवस्था करता है। पंचायती राज व्यवस्था को सबसे पहले राजस्थान में 1959 में लागू किया गया है परंतु पंचायती राज को अंतिम रूप से 73वें संविधान संशोधन अधिनियम अप्रैल 1993 में लागू किया गया। जहां तक पंचायती राज व्यवस्था में आरक्षण का प्रश्न है इसके अंतर्गत सभी वर्ग के लोगों को वहां से स्थिति के आधार पर प्राप्त है।
अनुच्छेद 243 (घ) जनसंख्या के अनुपातिक आधार पर हर एक स्तर पर अनुसूचित जाति एवं अनुसूचित जनजाति के लिए आरक्षण का प्रावधान है। इसके अतिरिक्त, अनुसूचित जाति एवं अनुसूचित जनजाति की महिलाओं के लिए आरक्षण किसी भी स्थिति में एक-तिहाई से कम नहीं होना चाहिए।
इसके अतिरिक्त, महिलाओं के लिए प्रत्यक्ष निर्वाचन में कुछ सीटों में एक-तिहाई से कम कभी नहीं होनी चाहिए। यद्यपि ये सीट पंचायत के रोटेशन पर निर्भर करेगी। एक राज्य द्वारा कानून के अंतर्गत कार्यालय के लिए चेयरमैन (अध्यक्ष) का चुनाव भी इसी प्रकार किया जायेगा। राज्य द्वारा पुनः कानून के तहत पिछड़े वर्गों के लिए भी कार्यालय के अध्यक्ष के लिए सीट आरक्षित करने का प्रावधान है। यह आरक्षण प्रणाली वास्तव में 60 साल तक के लिए लागू किया गया है जो अनुच्छेद 334 के अंतर्गत अनुसूचित जाति एवं अनुसूचित जनजाति के लोगों के लिए है।
उपरोक्त वर्णन से यह स्पष्ट होता है कि पंचायती राज व्यवस्था में बहुत ही वैज्ञानिक रूप से समाज के सभी वर्गों का प्रतिनिधित्व किया गया है जिससे कि भारतीय समाज विभिन्न दिशाओं एवं दशाओं में प्रगति के पथ पर बढ़ सके। इन आरक्षणों के बावजूद भी आज की स्थिति यह है कि उच्च वर्गों का प्रतिनिधित्व हमेशा से बना रहा है। अगर हम महिलाओं के बारे में बात करें तो उसके ऊपर पुरुष का हाथ होता है जिसके कारण महिलाएं खुलकर काम करने में असमर्थ हैं। फिर भी, निश्चित तौर पर आरक्षण पद्धति पंचायती राज व्यवस्था में एक महत्वपूर्ण भूमिका का निर्वाह कर रहा है। इसमें कई आशंका की बात नहीं होनी चाहिए।
Question : क्या धर्मनिरपेक्षता एक कमजोर विचारधारा है? भारत में धर्मनिरपेक्षता विरोधी रुखों का समालोचनात्मक विश्लेषण कीजिए।
(2002)
Answer : धर्मनिरपेक्षता शब्द सबसे पहले 1851 में जार्ज जैकब होलीओक ने प्रयोग किया था। पश्चिम में धर्मनिरपेक्षता के उदय के साथ ही सांसारिक जीवन के क्रियाकलापों में धर्म का हस्तक्षेप कम होता गया। इस संदर्भ में ‘धर्मनिरपेक्षता’ को ‘धर्महीनता’ माना गया है। पिटर बर्जर ने धर्मनिरपेक्षता को धर्म का निजीकरण माना है। परंतु भारत में धर्मनिरपेक्षता की विचारधारा पश्चिम के शब्दों का प्रयोग केवल राज्य के संदर्भ में किया गया है। भारतीय धर्म-निरपेक्षता मुख्यतः सांप्रदायिकता विरोधी विचारधारा मानी गयी है। भारत में धर्म-निरपेक्षता शब्द का प्रयोग इस अर्थ में किया जाता है कि राज्य किसी एक धर्म के साथ नहीं होगा, वरन् सभी धर्मों के प्रति उसका एक जैसी मैत्रीभाव या दूरी होगी। वास्तव में, भारत और पश्चिम की धर्म निरपेक्षता के अर्थ में यह अंतर उन भिन्न ऐतिहासिक, राजनीतिक और सामाजिक परिस्थितियों के कारण है, जिनमें भारत में धर्म-निरपेक्षता का उदय हुआ। अतः धर्म-निरपेक्षता सभी धर्मों के प्रति समान रूप से सम्मान रखता है। कुछ समाज वैज्ञानिकों ने धर्मनिरपेक्षता को धर्म से दूरी रखने को कहा है। परंतु यह तथ्य तो स्पष्ट है कि धर्म-निरपेक्षता एक कमजोर विचारधारा कदापि नहीं है। प्रश्न यह है कि इसे विभिन्न परिस्थितियों में किस प्रकार समझा जा रहा है। अतः यह historical नहीं होकर contextual होता है।
भारत में धर्मनिरपेक्षता का एक जीता-जागता इतिहास रहा है। प्राचीनकाल से लेकर आज तक वर्तमान समय में हमारे देश में सभी धर्मों के प्रति एक समान भाव रहा है। उदाहारण के तौर पर मुस्लिम शासन के दौरान भी इस्लाम को राज धर्म घोषित नहीं किया गया था एवं मुसलमान शासकों ने ‘जियो और जीने दो’ की नीति का अनुसरण किया। अंग्रेजों ने भी सभी धर्मों के लोगों के साथ एक जैसा व्यवहार किया एवं स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद भारतीय संविधान के मूल प्रस्तावना में धर्मनिरपेक्षता का प्रावधान रखा। परंतु धर्मनिरपेक्षता के बारे में विचार व्यक्त करते हुए जवाहरलाल नेहरू ने कहा था ‘हमारे संविधान में कहा गया है कि भारत एक धर्मनिरपेक्ष राज्य है, लेकिन यह मानना होगा कि हम इसे अपने जीवन और विचारों में पूरी तरह से अपना नहीं पाए हैं।’ वास्तव में नेहरूजी ने इसके प्रयोग पर प्रश्न उठाते हुए ऐसा कहा था।
अतः भारत में धर्मनिरपेक्षता विरोधी बहुत सी तथ्यों का अवलोकन करना होगा। जो इस प्रकार हैं-
(i)हमारे जीवन में धर्म के गहरे प्रभाव वाले अधिकांश क्षेत्रों में धर्मनिरपेक्षता के हस्तक्षेप की न तो धारणा ही है और न ऐसी अपेक्षा ही की गई है। इस नीति के परिणामस्वरूप यह हुआ है कि स्वतंत्रता प्राप्ति के समय की संभावनाओं के प्रतिकूल धर्म और धार्मिकता का अधिकांश भारतीयों के दैनिक जीवन पर आज भी गहरा असर है।
(ii)भारत को धर्मनिरपेक्ष समाज बनाने में सबसे बड़ी बाधा समान नागरिक संहिता है। यह महसूस किया गया था कि समान नागरिक संहिता समान राष्ट्रीय पहचान बनाने के लिए अनिवार्य है और इससे सभी धार्मिक समुदायों के सदस्य एक नागरिकता के सूत्र में बंध जायेंगे। परंतु स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद भी इस संहिता में कोई प्रगति नहीं हुई।
(iii)भारत में धर्मनिरपेक्षता के विरोधी शक्तियों में राजनीति एवं धर्म का गठजोड़ है। भारत के विभाजन और उससे संबद्ध घटनाओं के अनुभव के बाद, यह आशा की गई थी कि भारत में राजनीति धर्म से अलग रहेगी। किंतु यह संभावना पूरी तरह से समाप्त हो गई, क्योंकि हमारी राजनीतिक गतिविधियां सांप्रदायिकता, जातिवाद या अन्य संकीर्ण विचारों से पूरी तरह लिप्त है। राजनीतिक लाभ के लिए धार्मिक या जातिगत भेदभाव से अनुचित लाभ उठाया जाता रहा है, जिससे परिस्थितियां ओर भी बदतर होती जा रही है। ऐसे प्रमाण मौजूद हैं कि राजनीतिक उद्देश्य को ध्यान में रखकर सांप्रदायिक दंगे कराये जाते हैं। उदाहरण के तौर पर यह गोधरा कांड एवं गुजरात में हुए सांप्रदायिक दंगे के पीछे राजनीति थी।
(iv)इसके अतिरिक्त, हमारी राजनीतिक नीतियों को सांप्रदायिक रूप दिये जाने पर कोई नियंत्रण न होने के कारण विभिन्न धार्मिक समुदायों की ओर से अनेक क्रियाओं और प्रतिक्रियाओं का ऐसा सिलसिला चल पड़ा है कि राजनीतिक व्यवस्था को धार्मिक-राजनीतिक शक्तियों के दबाव के आगे झुकने के लिए बाध्य होना पड़ा है। इस प्रकार एक सच्चा धर्मनिरपेक्ष राज्य नहीं बन सकता।
उपरोक्त सारी बातों के प्रकाश में हम यह तथ्य का उद्घाटन कर सकते हैं कि भारत में धर्मनिरपेक्षता के महत्व को कम करने के लिए नेहरू के बाद युग के नेतागण जिम्मेदार हैं, उनमें से अनेक तो अपनी पारंपरिक पृष्ठभूमि के कारण बौद्धिक रूप से इतने उदार नहीं हो सके हैं कि वास्तविक धर्मनिरपेक्षता को समझ सकें और उसे स्वीकार कर सकें। परंपराओं के प्रति फिर उभरी अपनी प्रवृत्ति के कारण भी इन नेताओं में भारतीय समाज के धर्मनिरपेक्ष स्वरूप, गैर धार्मिक दृष्टिकोण और तर्क संगत तथा वैज्ञानिक प्रवृत्ति के विकास के प्रति सच्ची प्रतिबद्धता का अभाव है। नेतृत्व की इस विफलता ने भारत में धर्म और राजनीति को अलग करने में बाधा खड़ी है।
अतः इस सारी विवेचना से यह अर्थ बिल्कुल नहीं लगाया जाना चाहिए कि भारत में धर्मनिरपेक्षता की प्रकृति सफल नहीं रही है। भारत में हमेश से भाई-चारे की प्रवृति रही है। अगर हम इतिहास के विभिन्न पन्नों को उल्टाकर देखें तो जब-जब धर्मनिरपेक्षतापर संकट उपस्थित हुआ है तो समाज के विभिन्न वर्ग ने मिलकर इसका सामना किया है। उदाहरण के लिए, अभी हाल में गुजरात में हुए सांप्रदायिक दंगे के फलस्वरूप बहुत जान-मान की हानि हुई परंतु इस दंगे को समाप्त करने या रोकने के भी उसी संप्रदाय के लोग आगे आये। वास्तव में अल्पसंख्यकों पर प्रहार किया जा रहा था और ये संप्रदाय फैलाने वाले कुछ हिंदूवादी संगठन जैसे विश्व हिंदू परिषद थे परंतु दूसरी ओर हिंदू धर्म के लोगों ने ही अल्पसंख्यकों कसे सभी दृष्टि से मदद पहुंचायी। अगर हम हिंदू-मुस्लिम दंगा, भागलपुर (बिहार) की घटना को याद करें तो वहां भी एक समुदाय के लोगों द्वारा दूसरे समुदायों को मदद की थी। अतः हमारे देश में हमेशा से यह प्रवृत्ति रही है कि सभी धर्मों के प्रति सद्भाव एवं सम्मान करते रहे हैं। भारत में धर्मनिरपेक्षता का प्रसार करने की आवश्यकता है जो मुख्यतः शिक्षा एवं स्वैच्छिक संगठनों की मदद से ही संभव है। शिक्षा के अंतर्गत हमें वस्तुतः सभी धर्मों का दर्शन समझना होगा एवं सभी धर्मों का सम्मान करते हुए एक धर्मनिरपेक्ष राज्य की नींव डालनी होगी। भारतीय शिक्षा पद्धति के अंतर्गत तर्कसंगत एवं वैज्ञानिक दृष्टिकोण का प्रसार करना होगा जिसमें जीवन के सार्वभौम मूल्यों का समावेश अवश्य किया जाना चाहिए। नई शिक्षा नीति-1986 के अंतर्गत इन सारी बातों का ध्यान रखा गया था।
दूसरी ओर, इस क्षेत्र में स्वैच्छिक संस्थाओं को आगे आना पड़ेगा जो समाज में प्रचलित रूढि़वादी, अंधविश्वास धारणाओं को प्रायोगिक स्तर पर हल करने में मदद करे। साथ ही इसके लिए समाज सुधार आंदोलन करना होगा एवं जनचेतना जगानी होगी। अल्पसंख्यकों को राष्ट्रीय जीवन में योगदान, जनता के सभी वर्गों में सामाजिक न्याय और बराबरी की भावना फैलानी होगी। स्वैच्छिक संगठनों ने हाल के वर्षों में इस तरह के बहुत से कार्य भी किये हैं। इस दिशा में और प्रयास करना होगा।
Question : प्रजातांत्रिक विकेंद्रीकरण का क्या अर्थ है? भारत में पंचायती राज की कार्यप्रणाली का मूल्यांकन कीजिए।
(2001)
Answer : स्वतंत्रता प्राप्ति के पश्चात नेताओं का ध्यान ग्रामीण पुनर्निर्माण और पंचायतों की पुनः स्थापना की ओर गया। संविधान की धारा 40 में यह व्यवस्था की गई है कि ‘राज्य ग्राम पंचायतों का संगठन करेगा और उनको समस्त अधिकार प्रदान करेगा जिससे वे स्वायत्त शासन की इकाइयों के रूप में कार्य करने योग्य हो जाएं। ‘देश के स्वतंत्र होने के पश्चात् यहां शासन की लोकतांत्रिक प्रणाली को अपनाया गया और जनता को स्वयं अपने प्रतिनिधियों को चुनने का अवसर मिला। शासन का विकेंद्रीकरण करने हेतु विभिन्न राज्यों में ग्राम पंचायतें स्थापित की गयीं।
सामुदायिक विकास कार्यक्रम पर काफी खर्च हो चुकने ओर इसकी सफलता के लम्बे-चौड़े दावों के बाद इसकी जांच के लिए एक अध्ययन दल 1957 में नियुक्त किया गया। इस अध्ययन दल के अध्यक्ष श्री बलवंत राय मेहता थे। ‘मेहता अध्ययन दल’ ने 1957 के अंत में अपनी रिपोर्ट में यह सिफारिश की कि लोकतांत्रिक विकेंद्रीकरण और सामुदायिक विकास कार्यक्रमों को सफल बनाने हेतु पंचायत राज संस्थाओं की तुरंत शुरुआत की जानी चाहिए। अध्ययन दल ने इसे ‘लोकतांत्रिक विकेंद्रीकरण’ का नाम दिया।
इस प्रकार लोकतांत्रिक विकेंद्रीकरण और विकास कार्यक्रमों में जनता का सहयोग लेने के उद्देश्य से ‘पंचायत राज की शुरुआत की गई ‘पंचायत राज’ व्यवस्था की तीन सीढि़या रही हैं ग्राम स्तर पर ग्राम पंचायत, खण्ड स्तर पर पंचायत समिति या जनपद पंचायत और जिला स्तर पर जिला परिषद् या जिला पंचायत।
पंचायत राज का सर्वप्रथम उद्घाटन 2 अक्टूबर, 1959 को भूतपूर्व प्रधानमंत्री पंडित नेहरू द्वारा राजस्थान राज्य के नागौर जिले में किया गया। इसके तुरंत बाद इसे आंध्र प्रदेश में तथा क्रमशः अन्य राज्यों में अपनाया गया। 1963 तक भारतीय संघ के सभी राज्यों में ‘पंचायत राज’ की स्थापना हो गयी।
केंद्रीय सरकार के स्तर पर यह सोचा गया कि पंचायत राज की व्यवस्था को संवैधानिक दर्जा दिया जाना चाहिए ताकि पंचायती राज की व्यवस्था उचित रूप में कार्य कर सके और राज्य सरकार इन संस्थाओं के चुनाव नियमित रूप से करवाने के लिए बाध्य हो जाएं। दसवीं लोकसभा के चुनाव के बाद स्थापित केंद्रीय सरकार द्वारा इस दिशा में प्रयत्न किये गये तथा 1993 ई. में पंचायत राज या ग्रामीण क्षेत्रों में स्थानीय स्वशासन के संबंध में 73वां संवैधानिक संशोधन अधिनियम पारित किया गया।
73वां संविधान संशोधन अधिनियम, 1993: इस संशोधन द्वारा संविधान में एक नया भाग, भाग 9 तथा एक नयी अनुसूची ग्यारहवीं अनुसूची जोड़ी गई है और ‘पंचायत राज व्यवस्था’ को संवैधानिक दर्जा प्रदान किया गया है। इस संवैधानिक संशोधन के आधार पर पंचायत राज के संबंध में प्रमुख रूप से निम्न व्यवस्थाएं की गई हैं-
संरचनाः गांव सभा- इस अधिनियम में प्राथमिक स्तर पर गांव सभा की व्यवस्था की गई है। प्रत्येक गांव के सभी वयस्क नागरिकों से मिलकर बनने वाली सभा को गांव सभा का नाम दिया गया। इस प्रकार यह ग्रामीण क्षेत्र में स्थानीय स्वशासन की प्रत्यक्ष लोकतंत्रीय संस्था है। यह गांव सभा गांव के स्तर पर ऐसी शक्तियों का प्रयोग करेगी और ऐसे कार्यों को करेगी जो राज्य विधानमंडल विधि बनाकर निश्चित करें।
ग्राम पंचायत की कार्यप्रणालीः ग्राम पंचायत के कार्यों को दो भागों में बांटा जा सकता है-प्रथम, अनिवार्य कार्य एवं द्वितीय, ऐच्छिक कार्य।
ग्राम पंचायत के अनिवार्य कार्य
ग्राम पंचायत के ऐच्छिक कार्य- ऐच्छिक कार्यों के अंतर्गत वे कार्य आते हैं जिनको करना पंचायतों की इच्छा, सुविधा और साधनों पर निर्भर करता है। इस प्रकार के कुछ कार्यों को नीचे दिया जा रहा हैः
पंचायती राज संस्थाओं की असफलता के कारण
अनेक ऐसी समस्याएं हैं जो पंचायती राज संस्थाओं के सफलतापूर्वक कार्य-संचालन में बाधक रही है। उनमें से प्रमुख इस प्रकार हैः
Question : धर्मनिरपेक्ष राज्य के प्रत्यय की व्याख्या कीजिए और धर्मनिरपेक्ष राज्य के रूप में भारत की समस्याओं की विवेचना कीजिए।
(2001)
Answer : धर्मनिरपेक्षवाद ऐसी विचारधारा/विश्वास है जिसके आधार पर धर्म और धर्म संबंधी विचारों को इहलोक संबंधी मामलों में जानबूझकर दूर रखा जाना चाहिए। यह तटस्थता की बात है। पीटर बर्गर के अनुसार, धर्मनिरपेक्षीकरण वह प्रक्रिया है, जिसके द्वारा समाज व संस्कृति के विभागों को धार्मिक एवं प्रतीकों पर प्रभाव से दूर रखा जाता है।
वेबर धर्मनिरपेक्षीकरण को तर्क-संगतिकरण की एक प्रक्रिया मानते हैं। प्रदत्त लक्ष्यों को प्राप्त करने के लिए प्रयुक्त सिद्धांत हैं जो वैज्ञानिक विचारों पर आधारित है, अर्थात् जो तर्कसंगत हैं। इस विचार ने धर्म का महत्व कम कर दिया है। डार्विन, फ्रायड और मार्क्स भी मानव व्यवहार की धार्मिक व्याख्या के स्थान पर वैज्ञानिक व्याख्या में योगदाता रहे हैं।
भारतीय संदर्भ मे धर्मनिरपेक्षवाद ने धार्मिक समुदायों के रक्षक के रूप मे व उनके संघर्षों में मध्यस्थ की भूमिका निभाने के संदर्भ में राज्य शक्ति को बढ़ा दिया है। यह राज्य द्वारा किसी विशेष धर्म को संरक्षण प्रदान करने को रोकता है। वास्तव में, ‘धर्मनिरपेक्ष’ धारणा का प्रयोग सर्वप्रथम यूरोप में किया गया था जहां हर प्रकार की संपत्ति पर चर्च का ही नियंत्रण था और चर्च की सहमति के बिना कोई भी प्रयोग नहीं कर सकता था। कुछ बुद्धिजीवियों ने इस प्रथा के विरुद्ध आवाज उठाई। इन व्यक्तियों को धर्मनिरपेक्ष कहा जाने लगा जिसका अर्थ था ‘चर्च से पृथक’ या ‘चर्च के विरुद्ध’। भारत में यह शब्द आजादी के बाद अनेक संदर्भों में प्रयोग किया जाने लगा। देश के विभाजन के बाद राजनीति अल्पसंख्यक समुदायों को विशेष रूप से मुसलमानों को, आश्वासन दिलाना चाहते थे कि उनके साथ किसी प्रकार का भेदभाव नहीं किया जाएगा। अतः नये संविधान में प्रावधान किया गया कि भारत धर्मनिरपेक्ष बना रहेगा, जिसका अर्थ थाः (a) प्रत्येक नागरिक को अपने धर्म का उपदेश देने और पालन करने की पूर्ण स्वतंत्रता होगी, (b) राज्य का कोई धर्म नहीं होगा, और (c) सभी नागरिक अपने धार्मिक विश्वास के भेदभाव के बिना समान होंगे। इस प्रकार विरोधियों को भी वही अधिकार दिये गये जो अनुयायियोंको थे यह दर्शाता है कि एक धर्मनिरपेक्ष समाज या राज्य-अधार्मिक समाज नहीं है। धर्म मौजूद रहते हैं, उनके अनुयायी अपनी धर्म पुस्तकों में प्रतिष्ठा सिद्धांतों और प्रथाओं को मानतें हैं और भी बा“य एजेंसी, राज्य सहित, वैधानिक धार्मिक कृत्यों में हस्तक्षेप नहीं करती। दूसरे शब्दों में धर्मनिरपेक्ष समाज के दो अभिन्न तत्व हैं: (a) धर्म और राज्य की संपूर्ण रूप से पृथकता, और (b) सभी धर्मों के अनुयायियों को पूर्ण स्वतंत्रता और साथ ही नास्तिक और अनीश्वरवादियों का भी अपने-अपने को मानने की स्वतंत्रता।
यदि भारत में धर्मनिरपेक्षीकरण का विश्लेषण किया जायेतो यह कहा जा सकता है कि भारतीय समाज अधिक धर्मनिरपेक्ष हो गया है लेकिन दर्शाने में जटिल है। मौटे तौर पर धर्मनिरपेक्षीकरण की धारणा बताती है कि अनेक धार्मिक मूल्य बदल गए हैं, कई प्रथाएं समाप्त हो गई हैं, और विज्ञान तथा तर्क संगतता की महत्ता बढ़ गई है। यह सही है कि समाज के सांस्कृतिक और संस्थात्मक नींव में परिवर्तन मौलिक और तीव्र होना चाहिए। विवाह, परिवार, जाति और कई संस्थाओं पर धर्म का प्रभाव कम होता दिखाई दे रहा है, लेकिन यह भी सत्य है कि धर्म की ताकत जारी है। धर्म स्थलों पर जाने में, तीर्थ यात्र पर जाने में, धार्मिक उपवास करने में और धार्मिक त्यौहार मनाने में लोगों की अभिरुचि में परिवर्तन हो सकता है, सिविल विवाह में वृद्धि हो सकती है, यहां तक कि सक्रिय धार्मिक लोगों की संख्या में कमी हो सकती है, लेकिन धार्मिक प्रथाओं में कमी हिंदुओं में धर्मनिपेक्षता की प्रक्रिया की ओर आवश्यक रूप से संकेत नहीं करती। सिख अभी भी धार्मिक प्रतिबंधों को जारी रखे हुए हैं। संस्थात्मक धर्म की अपेक्षा व्यक्तिगत अर्थ और पूर्ति के माध्यम के रूप में धर्म पूरे उत्साह और शक्ति के साथ जीवित हैं। अतः धर्मनिरपेक्षीकरण की धारणा औपचारिक धर्म की अपेक्षा व्यक्तिगत धर्म पर लागू होती है।
धर्मनिरपेक्ष समाज मे विभिन्न धार्मिक समुदायों के नेताओं और अनुयायियों से अपेक्षा की जाती है कि वे राजनैतिक लाभ के लिए धर्म का प्रयोग न करें। परंतु व्यवहार में हिंदू, मुस्लिम, सिक्ख और ईसाई और अन्य धर्मावलम्बी, राजनैतिक उद्देश्यों के लिए राजनीति का प्रयोग करते हैं। कई राजनैतिक पार्टियों को गैर-धर्मनिरपेक्ष कहा जाता है। दिसंबर 1992 में अयोध्या में बाबरी मस्जिद संरचना के ढाहे जाने के बाद (एस.आर. बोम्मई के नाम से ज्ञात) एक मामला भाजपा सरकार को अपदस्थ करने के लिए अदालत में दर्ज कराया गया था। नौ न्यायाधीशों की खण्डपीठ ने ‘ऐवन्यु-लरिज्म’ शब्द पर विचार किया और निष्कर्ष निकाला कि यद्यपि यह शब्द संविधान में वर्णित हैं, लेकिन इसे बड़ी चतुराई से अपरिभाषित छोड़ दिया गया था क्योंकि इसमें सूक्ष्म परिभाषा करने की क्षमता नहीं थी। संविधान में ‘धर्मनिरपेक्षता’ शब्द सभी धर्मों को समानता की गारन्टी देता है और राज्य द्वारा इस कानून का क्रियान्वयन किया जाना था। इस प्रकार कानूनी विचार से भाजपाको अपदस्थ करने का तर्क स्वीकार नहीं किया गया। इसमें आश्चर्य नहीं कि लोग कहते हैं कि एस.आर. बोम्मई मामले में उच्चतम न्यायालय की मान्यता थी कि जन प्रतिनिधित्व अधिनियम के अंतर्गत ‘हिंदूत्व’ की अपील स्वीकृत हो गई। अन्य दलों के लिए धर्मनिरपेक्षता का अर्थ मुस्लिम, पिछड़ी जातियों तथा अनुसूचित जातियों व जनजातियों को वोट बैंक बनाना था। मई 1996 में लोकसभा चुनावों तथा अक्टूबर 1996 में उत्तर प्रदेश की विधान सभा चुनावों में और फिर फरवरी 1998 तथा सितंबर 1999 में संसदीय चुनावों में जब केंद्र में भाजपा को सबसे बड़ी पार्टी कहा। सांप्रदायिकता के विरुद्ध यह शोर केवल वोट तथा राजनैतिक शक्ति प्राप्त करने के लिए था। अप्रैल 1999 में 13 पार्टियों का केंद्र में गठबंधन तथा भाजपा नीत सरकार को पराजित करने के लिए अनेक राजनैतिक दलों का एक साथ मिलना किसी आम सहमति वाले न्यूनतम साझा कार्यक्रम पर आधारित नहीं था बल्कि केवल एक ही तथाकथित ‘हिंदू पार्टी’ को सरकार बनाने से रोकना मात्र था और यह पार्टी अक्टूबर 1999 में फिर शक्ति में आ गयी।
इस प्रकार सांप्रदायिकता न तो राजनैतिक दर्शन ही है न विचारधारा और न ही सिद्धांत। यह तो भारतीय समाज पर राजनैतिक उद्देश्यों के लिए थोप दिया गया है।
निर्भय सिंह ने माना है कि भारत में दबाव का संकट कट्टरपंथियों और राजनीतिज्ञों द्वारा धर्म के राजनीति करण और धर्मनिरपेक्षीकरण के कारण है। इस प्रवृत्ति ने अल्पसंख्यकों को भारतीय समाज की मुख्य धारा से अलग कर दिया है। इस अर्थ में धर्मनिरपेक्षवाद की प्रक्रिया ही भारत के बहुधर्मी चरित्र के लिए चुनौती है। इसने धार्मिक मूल्यों के अवमूल्यन की प्रक्रिया प्रारंभ कर दी है। आज आवश्यकता इस बात की है कि अन्य धर्मों और विश्वासों के प्रति अंतर्दृष्टि और खुलेपन की आवश्यकता है। अन्य विश्वासों की प्रशंसा का अर्थ है उनको स्वतंत्रता की गारंटी देना। इस अर्थ में धार्मिक विश्वास की आजादी धर्म के बहुरूप को मानना है।
Question : राजनैतिक अभिजात वर्ग के प्रत्यय को विस्तार से समझाइए। राजनैतिक अभिजात वर्गों के सामाजिक संरचनात्मक स्रोत किस प्रकार उनके राजनैतिक पूर्वाभिमुखीकरण को प्रभावित करते हैं? व्याख्या कीजिए।
(2001)
Answer : अभिजन समाज में सर्वाधिक प्रभावशाली और प्रतिष्ठावान स्तर है। ‘अभिजन’ में वे लोग आते हैं जो किसी क्षेत्र में श्रेष्ठ नेता माने जाते हैं। इस प्रकार राजनैतिक, धार्मिक, वैज्ञानिक, व्यापारिक, कला आदि क्षेत्रों में अभिजन होते हैं। अनेक समाजशास्त्रियों ने इनकी अलग-अलग व्याख्या की है। पेरी गेरियन्ट के अनुसार, ‘कुछ अल्पसंख्यक जो विशिष्ट क्षेत्रों में समाज के मामले में अद्वितीय प्रभावशाली भूमिका निभाते हैं।’ बैंक ने अभिजन को ‘निर्णय करने वाले व्यक्ति जिनकी शक्ति समाज की अन्य किसी भी संख्या के नियंत्रण से परे है’ कहा है। नैडेल का मानना है कि अभिजन वे लोग हैं ‘जिनका उनकी श्रेष्ठता के कारण समाज के भाग्य पर प्रभाव रहता है।’ अभिजन समाज के मूल्यों एवं अभिवृत्तियों को बनाने में महत्वपूर्ण प्रभाव रखते हैं। सी. राइट मिल्स ने कहा है कि, ‘वे लोग जो प्रमुख परिणामों वाले निर्णय करते हैं, जो अपनी इच्छाओं को साकार करने में समर्थ हैं और जिनके पास वह सब कुछ है जो रखने योग्य है- धन, शक्ति और प्रतिष्ठा। अतः एक समूह को अभिजन समूह के रूप में एक विशेष क्षेत्र में चिंहित किया जाता है। जिसमें वह ‘प्रभावशाली हो’ या ‘शक्ति दर्शाने वाला’ हो या ‘श्रेष्ठता’ पर प्रभुत्व रखता हो। लेकिन अन्य समूहों में ये अभिजन ‘सामान्य’ सदस्य माने जा सकते हैं।
इस आधार पर ‘राजनैतिक अभिजन’ शब्द की परिभाषा इस प्रकार की जा सकती है- ‘राजनैतिक संस्कृति या ठोस राजनैतिक संरचना में निर्णय करने वालों के ऊपरी सतह का एक समूह जिसका राजनैतिक शक्ति पर अधिकार हो, जो प्रमुख राजनैतिक नीतियों को प्रभावित करता हो और राजनैतिक सत्ता के सभी महत्वपूर्ण पदों पर अधिकार रखता हो।’ यदि हम इस शब्द को विश्लेषण करें तो कहा जा सकता है कि राजनैतिक अभिजन में वे सभी व्यक्ति सम्मिलित हैं (a) जो केंद्रीय या राज्य विधान सभाओं में चुन/नामांकित किये गये हों, (b) जो राष्ट्रीय या राज्य स्तरीय राजनैतिक दलों मे महत्वपूर्ण स्थान रखते हैं, और (c) जो न तो सरकार और न ही राजनैतिक दलों में कोई औपचारिक पद रखते हों, लेकिन फिर भी राजनीति में महान प्रतिष्ठा या शक्ति वाले व्यक्ति समझे जाते हो क्योंकि वे सत्ताधारियों पर नियंत्रण रखते हैं, जैसे-गांधी जी, जयप्रकाश नारायण।
सी- राइट मिल्स ने राजनीतिक अभिजन शब्द का प्रयोग किया है, जो सत्ता पर एकाधिकार रखते हों और देश पर शासन करते हों। पैरेटो ने उन्हें ‘शासक अभिजन’ कहा है। मार्क्स ने उन्हें ‘शासक वर्ग’ कहा, रीजमैन ने उन्हें ‘वीटो समूह’ कहा है, और हन्टर ने उन्हें ‘शीर्षस्थ नेता’ कहा है। राम आहूजा ने बिहार में राजनैतिक अभिजन के लिए ‘अल्पतंत्रीय अभिजन’ कहा है।
भारत में राजनैतिक अभिजन के सामाजिक संरचनात्मक पहलुओं पर हम विचार निम्नांकित प्रावस्था में कर सकते हैं। प्रथम प्रावस्था में ये वे लोग थे जिनकी आर्थिक पृष्ठभूमि सुदृढ़ थी, जो उच्च शिक्षा प्राप्त थे, अधिकतर उच्च जाति वाले थे और सामाजिक हितों के लिए प्रतिबद्ध थे। उनकी सामाजिक राजनैतिक विचारधारा राष्ट्रवाद, उदारवाद एवं धार्मिक-सांस्कृतिक सुधारों पर आधारित थी। स्वतंत्र भारत में सत्ताधारियों की इस प्रथम पीढ़ी ने अपने साहस, दृष्टि और काम से नाम कमाया था और राजनैतिक सत्ता के उत्तराधिकारी के रूप में पद ग्रहण करने से चमत्कार अर्जित किया और पद पर बने रहकर इसे और अधिक चमत्कारी बनाया। दूसरी प्रावस्था में विशेष रूप से जो लोग 1952 के चुनाव में चुने गये, राजनीति में केवल अंशकालिक रुचि रखते थे। वे लोग आजादी के संघर्ष में भाग लेने के कारण कुछ राजनैतिक पद के रूप में अपना पुरस्कार चाहते थे। शुरू में इस अभिजन ने अपने दलीय ढांचे में असंतुलन पैदा किया, लेकिन राजनीति में सक्रिय सहभागिता के लिए उनका दबाव इतना मन्द गति का था कि वे जल्दी ही अपने दल की व्यवस्था में समाहित हो गये।
तत्पश्चात 1957 का चुनाव आया जब तथाकथित राजनैतिक पीडि़तों का लंब प्रतिस्थापित प्रभुत्व टूट गया और राजनैतिक शक्ति अभिजन की नयी पीढ़ी के हाथों में आ गयी। ये संभ्रांत व्यक्ति (एलीट) या तो थोड़ी भूमि के स्वामी थे या व्यापारी- व्यावसायिक व्यक्ति, छोटे उद्योगपित या सामाजिक कार्यकर्ता थे। ये इतने अधिक राजनीतिकृत नहीं हुए थे जितने कि इनके पुराने प्रतिभूर्ति थे। 1962 के बाद उन नये संभ्रांत व्यक्तियों ने राजनैतिक निर्णय करने की प्रक्रिया में प्रवेश किया जो सामाजिक पैमाने में नीचे के स्तर के थे, तथा जो मध्यम वर्गीय व्यावसायिक, छोटे किसानों, औद्योगिक श्रमिकों और यहां तक कि गुमनाम धार्मिक और व्यावसायिकों और सामाजिक पन्थों के प्रतिनिधि थे। यद्यपि ये नये संभ्रांत व्यक्ति नीति निर्धारण में अधिक भूमिका निर्वाह करना चाहते थे, परंतु पुराने अभिजनों ने अपने प्रभाव को जारी रखा। इस प्रकार नव अभिजन सहिष्णु रहे एवं पुराने अभिजन उनके साथ समायोजन करने में ही लगे रहे। नये और पुराने दोनों अभिजनों ने स्थितियों में समायोजन के लिए तथा नये संबंध स्थापित करने के लिए अपने-अपने मूल्यों का संशोधन किया। इस प्रकार हम कह सकते हैं कि 1967 तक अभिजन के ढांचे में परिवर्तन ‘शांतपूर्ण’ और मंद गति से हुआ, तथा मार्क्स के शब्दों में कोई ‘संघर्ष’ नहीं हुआ।
1967-71, 1971-89 और 1989-2000 की प्रावस्थाओंमें चार प्रकार के अभिजन कार्य कर रहे थेः परम्परावादी, तर्कबुद्धिवादी, अनुदारवादी और संश्लेषनात्मक व समन्वयक। दूसरे और तीसरे प्रकार में उपश्रेणी भी थीः (a) वे जो धर्मनिरपेक्ष किंतु स्वार्थी राष्ट्रीय विचारधारा प्रदर्शित करते थे और (b) वे जो नव-धर्म-निरपेक्ष और स्वार्थी संकीर्ण विचारधारा प्रदर्शित करते थे। क्योंकि विभिन्न विचारधाराओं वाले ये अभिजन पार्टी में ही काम करते थे, उनकी वैचारिक भिन्नता ने पार्टी में विखंडन पैदा किया जिसने पार्टी और अभिजन दोनों को ही विभिन्न स्तरों पर प्रभावित किया।
भारत में बदलते अभिजन के संदर्भ में योगेन्द्र सिंह ने कहा हैः राजनैतिक अभिजनों में आजादी से पहले उच्च कोटि की सांस्कृतिक और स्थितीय समरसता विद्यमान थी। वे सभी उच्च जातियों के थे और उनकी अंग्रेजी शिक्षा की नगरीय व मध्यम वर्गीय पृष्ठभूमि थी। शिखरस्थ समूह विदेशी संस्कृति में रंगे हुए थे और विदेशों में ही शिक्षित हुए थे इसलिए उनकी आत्मछवि वांछित भूमिकाओं के अर्थों में विशेषता की अपेक्षा सामान्यज्ञ ही थी। स्वतंत्रता के दो दशकों के बाद अभिजन संरचना का स्वरूप काफी बदल गया है।
वर्तमान राजनीतिक नेतृत्व में परिवर्तन के स्वरूप के संदर्भ में योगेन्द्र सिंह ने का हैः (i) ग्रामीण आधार के राजनैतिक नेताओं का प्रभाव बढ़ रहा है, (ii) विभिन्न व्यवसायों से आये नेताओं के प्रभाव में थोड़ी कमी हो रही है, (iii) मध्यमवर्ग से संबद्ध व्यक्तियों की संख्या में महत्वपूर्ण वृद्धि हो रही है, (iv) राजनैतिक सामाजिक विचारधाराओं में क्षेत्रीय और स्वार्थपरक लक्ष्यों की अभिव्यक्ति अधिक हो रही है, (v) उच्च जातियों के अभिजन के वर्चस्व में थोड़ी कमी आई है।Question : भारत में प्रजातंत्र के कौन-से प्रकार्य रहे हैं? क्याप्रजातंत्र कुछ एक परंपरागत सामाजिक असमानताओं को हटाने में सफल रहा है?
(2000)
Answer : टी.बी. बोटोमोर के अनुसार, ‘प्रजातंत्र का अर्थ है कि लोगों में पर्याप्त मात्र में समानता होनी चाहिए इसका अर्थ यह है कि धन, सामाजिक स्तर या शिक्षा और ज्ञान प्राप्त करने में असमानता इतनी अधिक न हो कि सामाजिक जीवन के विभिन्न क्षेत्रों में लोगों का एक वर्ग स्थायी रूप से दूसरे वर्ग के अधीन हो जाये या राजनीतिक अधिकारों का वास्तविक रूप से उपयोग करने में उनमें असमानता उत्पन्न हो जाये। असमानता दो प्रकार की होती है- एक प्राकृतिक और दूसरी मानव-कृत सामाजिक असमानता। समान अवसर के अधिकार का अर्थ है कि प्रत्येक व्यक्ति को अपना विकास करने और प्रत्येक व्यक्ति को अपनी क्षमताओं का अच्छे से अच्छा उपयोग करने का समान अवसर प्राप्त हो।
विस्तृत अर्थ में, लोकतंत्र न केवल राजनैतिक अवधारणा दर्शाता है बल्कि समाज की एक जीवन-शैली भी दर्शाता है जिसमें प्रत्येक व्यक्ति को समाज की संरचनाओं और संस्थाओं में उसकी स्वतंत्र भागीदारी के संदर्भ में समानता का अधिकार होता है। लोकतंत्र के विविध प्रकार हैं- राजनैतिक, सामाजिक, आर्थिक और नैतिक। राजनैतिक लोकतंत्र वयस्क मताधिकार तथा अपनी पसंद के नेतृत्व के चुनाव तक ही सीमित है। सामाजिक लोकतंत्र का उद्देश्य वर्गहीन और जातिहीन समाज की रचना करना है तथा सामाजिक स्तरीकरण तथा पूर्वाग्रहों को तोड़ना है। आर्थिक लोकतंत्र कल्याणकारी राज्य पर बल देता है और धन के केंद्रीयकरण और आर्थिक विषमताओं के विरुद्ध विद्रोह करता है। नैतिक लोकतंत्र का झुकाव प्रचलित अभिवृत्तियों के अनुस्थापन तथा सही और गलत व्यवहार की अवधारणा के साथ विचार करने की ओर हैं। लोकतंत्र के पीछे मित्रभावना, म्रातृत्व, और सद्व्यवहार का दर्शन काम करता है।
आधुनिक भारत में लोकतंत्र कुछ सिद्धांतों पर आधारित है- (1) कि प्रत्येक व्यक्ति की अपनी सामर्थ्य, योग्यता और प्रतिष्ठा होती है, (2) कि प्रत्येक व्यक्ति में दूसरों के साथ अपने जीवन को चलाने और सीखने की क्षमता है, (3) कि हर व्यक्ति को बहुसंख्यकों के निर्णय को मानना चाहिए, (4) कि प्रत्येक व्यक्ति का निर्णय-निर्धारण में हिस्सा होना चाहिए, (5) कि लोकतांत्रिक कार्यवाही का नियंत्रण और निर्देशन स्थिति में निहित है, न कि इसके बाहर, (6) कि जीवन की प्रक्रिया अंतर्क्रियात्मक है और सभी व्यक्ति सामान्य रूप से मान्यता प्राप्त उद्देश्यों के लिए कार्य करते हैं, (7) कि प्रजातंत्र व्यक्तिगत अवसरों और व्यक्तिगत उत्तरदायित्वों पर टिका होता है।
भारतीय लोकतंत्र व्यवस्था की मुख्यतः तीन विशेषताएं हैं- प्रथम, इसमें उच्च कोटि की स्वायत्तता होती है, द्वितीय, आर्थिक कार्यकर्त्ता और धार्मिक संगठन राजनैतिक हस्तक्षेप से मुक्त रहते हैं, तृतीय, विभिन्न व्यवस्थाओं की प्रतिस्पर्धा अखण्डता के लिए खतरा नहीं होती बल्कि सहायक होती है। कुछ लोग मानते हैं कि इन्दिरा गांधी का शासन काल-फरवरी 1966 और अक्टूबर 1984 (मोरारजी देसाई और चरण सिंह के तीन साल छोड़कर) लोकतंत्र नहीं था बल्कि अधिकारिक शासन काल रहा जिसकी तीन विशेषताएं थी (1) इसमें प्रमुख सत्ताधीशों के प्रति आज्ञाकारी होना आवश्यक था, (2) इसमें सार्वजनिक आलोचना और संगठित विरोध को दबाया जाता था (दो वर्ष के लिए आपातकाल की घोषणा से), (3) स्वायत्तशासी संगठनों पर इसकी अधिक पकड़ थी।
परंपरागत भारतीय समाज वास्तव में सामाजिक असमानताओं से भरा पड़ा है। भारत के स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद यह सामाजिक असमानता का प्रजातंत्र, शासन लागू होने के कारण ह्रास हुआ है। हमारे देश में मुख्यत जाति पर आधारित असमानता, लिंग आधारित असमानता एवं वर्ग आधारित असमानता देखने को मिलता है। परंतु भारतीय संविधान में बहुत से संवैधानिक प्रावधान के कारण यह असमानता की प्रवृत्ति का पिछले पचास वर्षों में कम हुआ है। भारतीय संविधान के अंतर्गत ‘समानता’ शब्द की व्याख्या प्रियम्बल (Preamble of Constitution) में किया गया है। अतः भारतीय प्रजातंत्र का मूल उद्देश्य देश के सभी वर्ग-जाति के बीच के लोगों के बीच समानता स्थापित करना है। संविधान के अंतर्गत पिछड़े वर्गों, यथा, अनुसूचित जाति, जनजाति एवं महिलाओं के लिए सभी क्षेत्रों में विशेष प्रावधान किया गया है। यह प्रावधान सरकार में प्रतिनिधित्व से लेकर विभिन्न रोजगार में आरक्षण तक लागू किया गया है। आज हमें देखते हैं कि राजनीतिक पार्टियां जाति का उचित प्रतिनिधित्व चाहता है जिससे सभी वर्गों तक लाभ पहुंच सके। जाति के आधार पर कई राजनीतिक पार्टियों का निर्माण हुआ है। उदाहरण के लिए, बहुजन समाज पार्टी एवं लोक जनशक्ति पार्टी जिसका मुख्य उद्देश्य निम्न जाति के लोगों को विभिन्न समस्याओं का समाधान है। प्रजातंत्र के फलस्वरूप ही वर्तमान समय में जाति एक सामाजिक तथ्य नहीं रहकर एक राजनीतिक पहलू बन गया है। एम.एन. श्रीनिवास ने सही ही स्पष्ट किया है कि वर्तमान भारतीय समाज में जाति का सामाजिक कारक मुख्यतः ऊंच-नीच, कर्मकांड एवं शुद्ध-अशुद्ध की धारणा का ह्रास हुआ है एवं जाति चेतना राजनीतिक एवं सामाजिक शक्ति पाने के लिए वृद्धि हुआ है। जहां तक लिंग समानता की बात है, ये भी कुछ हद तक प्रजातंत्र के फलस्वरूप बहुत प्रगति पर है। परंतु अफसोस की बात यह है कि अभी तक ‘महिला प्रतिनिधित्व बिल’ राजनीतिक कारणों से पास नहीं किया जा सका हे जो प्रजातंत्र के लिए एक प्रश्न चिन्ह लगाता है।
दूसरी ओर, 73वें संशोधन अधिनियम के तहत ग्रामीण पंचायत के निर्माण के लिए विभिन्न वर्गों की उचित प्रतिनिधित्व की व्यवस्था की गई है। इसके अंतर्गत न सिर्फ अनुसूचित जाति एवं जनजाति के लोगों के लिए उचित आरक्षण की व्यवस्था है बल्कि महिला के लिए तैंतीस प्रतिशत की आरक्षण की व्यवस्था की गई है जो सामाजिक समानता के लिए एक वरदान के समान है। इस पंचायती राज के फलस्वरूप ग्रामीण क्षेत्रों में बहुत हद तक सामाजिक समानता के अवसर को बढ़ाया है।
वर्तमान समय में शिक्षा का भी विकास काफी हुआ है जिसके फलस्वरूप जनता के बीच प्रजातांत्रिक मूल्यों को समझने का मौका मिला है ये मूल्य मूलतः समानता स्वतंत्रता एवं बंधुत्व पर आधारित है। साथ ही विभिन्न प्रकार के आंदोलन ने भी सभी वर्ग के व्यक्तियों के बीच चेतना का प्रसार किया है। अतः इस प्रकार से हम कह सकते हैं कि प्रजातंत्र के मूलभूत तत्वों के क्रियान्वयन के फलस्वरूप भारत में सामाजिक असमानता की प्रवृत्ति एवं क्रियाकलापों में कमी आयी है।
Question : धार्मिक कट्टरता।
(2000)
Answer : धार्मिक कट्टरता धार्मिक उन्माद असहिष्णुता और संकीर्णता के रूप में देखा जाता है। इस प्रवृत्ति के फलस्वरूप ‘राम राज्य’ की कल्पना करना असंभव सा प्रतीत होता है। इस धार्मिक कट्टरता का अंतिम प्रतिफल सांप्रदायिकता के रूप में देखने को मिलता है। यह कट्टरवाद विभिन्न धर्म के अनुयायियों के बीच पाया जाता है और शायद आज के परिप्रेक्ष्य में यह कहना उचित होगा कि यह सामाजिक स्तर पर न रहकर राजनीतिक तंत्र के रूप में विकसित हो गया है। यह हमेशा किसी संगठन के माध्यम से अपना कार्य करवाती है। उदाहरण के तौर पर अगर हम कहें कि भारतीय जनता पार्टी के एक अनुभाग विश्व हिंदू परिषद द्वारा अपनाये गये विभिन्न क्रियाओं में कट्टरवाद की संज्ञा दी जा सकती है। उसी प्रकार 1984 के दंगे एवं भागलपुर में साम्प्रदायिकता की घटना धार्मिक कट्टरवाद का एक उदाहरण प्रस्तुत करता है। साथ ही, अयोध्या का बाबरी मस्जिद का विध्वंस भी धार्मिक कट्टरता का एक नमूना पेश करता है। परंतु यह भी सही है कि धार्मिक कट्टरता सिर्फ हमें भारत में ही देखने को नहीं मिलती है बल्कि विश्व के अन्य देशों में भी यह प्रक्रिया सक्रिय है। अफगानिस्तान मे हाल ही में बाउमन बुद्धा की विशाल प्रतिमा का ढाहना इस बात को उजागर करता है कि धार्मिक कट्टरता अपने चरम स्थिति में हैं।
Question : राष्ट्रीय एकता।
(1999)
Answer : समाजशास्त्री श्री निवास के अनुसार, ‘एकता की अवधारणा हिंदू धर्म के अन्तर्निहित है। भारत के कौन-कौन से हिंदुओं के पवित्र तीर्थ स्थान हैं। पूरे देश के हर भाग में शास्त्रीय संस्कृति के कुछ विशिष्ट पहलू दृष्टि-गोचर होते हैं। भारत न केवल हिंदुओं के लिए ही पवित्र भूमि हैं, यह सिख, जैन और बौद्ध-धर्म के अनुयायियों के लिए भी पवित्र स्थल है। मुसलमानों और ईसाइयों के भी भारत में अनेक तीर्थ स्थान हैं। विभिन्न धार्मिक समूहों में जाति प्रथा पाई जाती है और इससे इन सबमें एक समान सामाजिक युक्ति दिखाई देती है।’
श्री निवास ने यह भी कहा है कि भारत एक धर्मनिरपेक्ष राज्य होने के कारण विभिन्नता का हामी है। पंचवर्षीय योजनाएं और समतावादी आदर्श, पूरे देश के लिए एक सरकार और एक नागरिक एवं फौजदारी कानून संहिता भारत की एकता और बहुसामुदायिक समाज होने के पर्याप्त प्रमाण हैं। हिंदू धर्म और विशेषकर जाति व्यवस्था के बारे में श्री निवास के उपरोक्त मत से सहमत होना आवश्यक नहीं है। इन दोनों की कट्टरपंथिता के कारण कभी-कभी भारत की एकता खतरे में पड़ जाती है, और इसके अलावा समाज के कमजोर वर्गों (जिसमें महिलाएं भी शामिल हैं) के दमन और शोषण करने के लिए इन व्यवस्थाओं का दुरुपयोग किया गया है।
स्वतंत्र भारत के संविधान में पूरे देश के लिए ‘विधि के शासन’ का प्रावधान किया गया है। सब नागरिक समान हैं और एक ही सत्ता के अधीन हैं। वंशानुगत विशेषाधिकारों का उन्मूलन कर दिया है। धर्म, भाषा, क्षेत्र, जाति या समुदाय अब विशेष सुविधाओं और विशेषाधिकारों का आधार नहीं हैं। उच्च जातियों और वर्गों एवं निम्न जातियों और दुर्बल वर्गों के बीच अंतर को पाटने के लिए अनुसूचित जातियों, अनुसूचित जनजातियों और अन्य पिछड़े वर्गों को विशेष सुविधाएं दी गई हैं। आज कोई भी जाति या सामाजिक समूह किसी भी प्रकार सामाजिक अयोग्यता से ग्रसित नहीं है। हर क्षेत्र में स्त्रियों को पुरुषों के बराबर अधिकार प्राप्त है। ब्रिटिश शासन द्वारा निर्मित ‘फूट डालो और राज करो’ की नीति अब समाप्त हो चुकी है। उपनिवेशीय शोषण का स्थान विकास प्रक्रियाओं और समतावादी विचारधारा ने ले लिया है।
Question : सत्ता के विकेंद्रीकरण के संदर्भ में 73वें और 74वें संवैधानिक संशोधनों की विवेचना कीजिए।
(1999)
Answer : देश की पंचायती राज संस्थाओं को संवैधानिक रूप प्रदान करने के लिए और इनमें एकरूपता लाने के लिए संसद ने दिसंबर 1992 में संविधान (73वां संशोधन) अधिनियम 1992 स्वीकार किया। इस संविधान संशोधन अधिनियम में नागालैंड, मेघालय और मिजोरम राज्यों तथा कुछ अन्य निर्दिष्ट क्षेत्रों को छोड़ सभी राज्यों और केन्द्रशासित प्रदेशों में स्वायत्त शासन व्यवस्था की इकाइयों के रूप में पंचायतें स्थापित करने का प्रावधान हैं। आर्थिक-विकास और सामाजिक न्याय की योजनाएं बनाने तथा इन पर अमल करने के लिए इन संस्थाओं को उचित स्तरों पर पर्याप्त अधिकार और उत्तरदायित्व दिए जाएंगे। संविधान की ग्यारवीं अनुसूची में उल्लिखित विषयों में से जो विषय इन संस्थाओं को सौपें जाएंगे उन पर ये अमल कराएंगी।
24 अप्रैल, 1993 से 73वां संविधान संशोधन अधिनियम, 1992 को लागू हो जाने से पंचायती राज संस्थाओं को संवैधानिक दर्जा मिल गया है और जवाहर रोजगार योजना, समन्वित ग्रामीण विकास कार्यक्रम, राष्ट्रीय सामाजिक सहायता कार्यक्रम, इंदिरा आवास योजना और लाख कुएं योजना जैसे कार्यक्रम लागू होने से इनका महत्व बहुत ज्यादा बढ़ गया है।
73वें संविधान संशोधन अधिनियम, 1992 में ग्राम सभा को और सक्रिय करने, ग्राम, खंड और जिला स्तरों पर पंचायतों की स्थापना करने, अनुसूचित जातियों और जनजातियों के लिए हर स्तर पर उनकी जनसंख्या के अनुपात में आरक्षण रखने, सभी निर्वाचित संस्थाओं को निर्धारित कार्यकाल पूरा करने, पंचायतों को उचित स्थानीय कर लगाने और वसूल करने का अधिकार देने, तथा पंचायतों को राज्यों के समेकित कोष से सहायतानुदान देने की व्यवस्था है। संविधान की 11वीं अनुसूची के तहत पंचायतों को अपने आर्थिक विकास से संबद्ध 29 विषयों की योजनाएं और कार्यक्रम तैयार करके उन्हें लागू करने का अधिकार है, पर उन्हें सामाजिक न्याय की धारणा का पूरा ध्यान रखना चाहिए। सभी राज्यों/केंद्रशासित प्रदेशों ने अपने कानून लागू कर दिए हैं। बिहार, पांडिचेरी और गोवा (जिला परिषद) को छोड़कर अन्य सभी राज्यों/केंद्रशासित प्रदेशों में पंचायत चुनाव हो चुके हैं। इसी के परिणाम स्वरूप देश में ग्राम स्तर की 2,26,108 पंचायतें, खंड स्तर की 5,736 पंचायतें और जिला स्तर की 457 पंचायतें गठित की जा चुकी हैं। इन पंचायतों के प्रबंधन के लिए खंड स्तर पर पंचायतों के करीब 34 लाख निर्वाचित प्रतिनिधि और जिला स्तर पर 15,935 व्यक्ति लगे हुए हैं। पंचायतों के बारे में संविधान के भाग-9 के प्रावधानों को अनुसूची-5 के क्षेत्रों में भी लागू करने के उद्देश्य से सरकार ने ‘पंचायतों के प्रावधान (अनुसूचित क्षेत्रों में विस्तार) अधिनियम, 1996’ पारित किया। यह अधिनियम 23 दिसंबर, 1977 से आंध्र प्रदेश, बिहार, गुजरात, हिमाचल प्रदेश, महाराष्ट्र, मध्य प्रदेश, उड़ीसा और राजस्थान की पांचवीं अनुसूची वाले क्षेत्रों में लागू हो गया है।
अनुसूचित जातियों के लिए आरक्षण की व्यवस्था से अरुणाचल प्रदेश को मुक्त कराने के उद्देश्य से सरकार संविधान के अनुच्छेद 243 एम में संशोधन के लिए विधेयक लाना चाहती है। इससे अरुणाचल प्रदेश में राज्य की सामाजिक राजनीतिक मान्यताओं के अनुरूप पंचायतीराज संस्थाओं को कानूनी और संवैधानिक आधार प्राप्त हो जाएगा।
संविधान के अंतर्गत केंद्रीय वित्त आयोग को ऐसे उपायों की सिफारिश करनी चाहिए। जिनमें राज्य में वित्त आयोग द्वारा की गई सिफारिशों के आधार पर राज्य में पंचायतों/पालिकाओं के आर्थिक साधनों में सहयोग के वास्ते राज्य के राजकोष को बढ़ाया जा सके। राज्यों के वित्त आयोग की रिपोर्ट नहीं मिल पाने के कारण दसवें वित्त आयोग ने 1996-2000 की अवधि के लिए 4,381 करोड़ रुपये की तदर्थ व्यवस्था की थी। पंचायतों के तीन स्तरों के लिए आवंटन के वास्ते सभी राज्यों को 1996-97 के दौरान, 1,095 करोड़ रुपये की राशि जारी की गई थी। बिहार में पंचायती राज्य संस्थाओं के चुनाव नहीं हुए थे इसलिए राज्य को 1997-98 के वास्ते कोई राशि नहीं दी गई। ग्यारहवां वित्त आयोग 1 अप्रैल, 2000 से पांच वर्षों के लिए दी जाने वाली राशि के बारे में सिफारिशें देगा।
इस कार्यक्रम को लागू करने वाली एजेंसियों को लाभार्थियों के नामों की स्पष्ट सूची, काम पर लगाए गए कर्मचारियों की संख्या, किए गए कार्यों में प्राप्त की गई कुल राशि, इस्तेमाल की गई सामग्री और उसकी लागत संबंधी विवरण कार्यस्थल पर तथा पंचायत कार्यालय में रखना होता है। ग्राम पंचायतों के बहीखाते ग्रामसभा के सदस्यों को लेखा-जोखा के लिए हर वक्त उपलब्ध होना चाहिए।
पंचायती राजसंस्थाओं द्वारा चलायी जाने वाली विभिन्न प्रशिक्षण गतिविधियों के लिए पंचायत विकास और प्रशिक्षण योजना के तहत 1998-99 के लिए 3 करोड़ रुपये रखे गए हैं। 1997-2000 की नौवीं पंचवर्षीय योजना अवधि के लिए 100 करोड़ रुपयेका प्रावधान किया गया है।
74वे संवैधानिक संशोधन: इस संविधान संशोधन के अंतर्गत मुख्यतः नगर पंचायत, नगरपालिका से संबंधित स्वशासन का विषय आता है। यह अधिनियम सभी राज्यों से यह अपेक्षा करता है कि वह अपने-अपने कानून बनाए। नगरपालिका नगरों में स्थानीय स्वशासन की महत्वपूर्ण संस्था है। यह राज्य सूची के विषय के अंतर्गत आती है एवं इस कारण किसी नगर में नगरपालिका के स्थापना संबंधी निर्णय भी राज्य सरकार द्वारा ही लिए जाते हैं। सामान्यतः नगरपालिका को 20,000 से अधिक जनसंख्या वाले नगर में ही स्थापित किया जाता है।
नगरपालिका के आवश्यक कार्यों के अंतर्गत अपने शहर में सफाई का प्रबंध करना, सार्वजनिक स्वास्थ्य की रक्षा तथा संक्रामत बीमारियों की रोकथाम के लिए टीके लगाने की व्यवस्था करना, सड़कों तथा पुलों का निर्माण, शिक्षा का प्रसार, पानी एवं बिजली की आपूर्ति, अग्नि-शमन का प्रबंध आदि आते हैं। इसके ऐच्छिक कार्यों के क्षेत्रों का खाका तैयार करना, कर्मचारियों के कल्याण में वृद्धि करना, अपने क्षेत्र में यातायात की सुविधा का प्रबंधन व वहां स्थानीय बसों की व्यवस्था करना, गरीबों के लिए गृह निर्माण करना, पार्क व व्यायामशालाओं की व्यवस्था करना, मकानों के नक्शों की स्वीकृति देना तथा पुराने एवं खतरनाक मकानों को गिराने का प्रबंध करना, लोगों के मनोरंजन के लिए मेलों, प्रदर्शनियों एवं खेलों के आयोजन का प्रबंध करना, सड़क के किनारे वृक्ष लगाना आदि है।
74वें संविधान संशोधन विधेयक द्वारा महापालिका, नगरपालिका, टाउन एरिया तथा नोटोफाइड एरिया आदि स्थानीय निकायों में महिलाओं, पिछड़े वर्गों, अनुसूचित जातियों एवं जनजातियों के लिए आरक्षण की व्यवस्था की गयी है। विधेयक द्वारा राज्य विधान सभाओं को यह अधिकार दिया गया है कि वह नगर निकायों को आर्थिक विकास योजना बनाने तथा कर एवं शुल्क की वसूली एवं उपयोग हेतु प्राधिकृत कर सकती है।
Question : धर्मनिरपेक्षता।
(1999)
Answer : ‘धर्म-निरपेक्षता’ शब्द सबसे पहले 1851 में जार्ज जैकब होली ओक ने गढ़ा था। अंग्रेजी में ‘सेक्युलर’ शब्द लैटिन के ‘सेकुलम’ शब्द से बना है, जिसका शाब्दिक अर्थ है- ‘यह वर्तमान युग’। यह विश्व के लिए प्रयुक्त शब्दों में से भी एक है और काफी लम्बे समय तक सेक्युलर शब्द का अर्थ ‘सांसारिकता’ माना जाता था, जो ‘धर्म’ या ‘पवित्रता’ के प्रतिकूल था। लेकिन होली ओक द्वारा औपचारिक रूप से शब्द गढ़े जाने से बहुत पहले, पश्चिम के समाज मे धर्म-निरपेक्षता की प्रक्रिया, बल्कि इसके लिए संघर्ष भी शुरू हो चुका था।
भारत में, धर्म-निरपेक्ष और धर्म-निरपेक्षता शब्दों का प्रयोग केवल राज्य के संदर्भ में ही किया गया है। इसलिए, हमारे देश में धर्म-निरपेक्ष राज्य शब्द तो कहा जाता है, धर्म-निरपेक्ष समाज कभी नहीं। इसका आंशिक कारण यह है कि भारत में धर्म-निरपेक्षता की विचारधारा पश्चिम से बिल्कुल भिन्न है। भारतीय धर्म-निरपेक्षता शब्द का प्रयोग इस अर्थ में किया जाता है कि राज्य किसी एक धर्म के साथ नहीं होगा, वरन् सभी धर्मों के प्रति उसका एक जैसा मैत्री भाव या दूरी होगी। निरपेक्षता के इस सिद्धांत पर कार्य करते हुए भारतीय राज्य से यह अपेक्षा की जाती है कि वह अंतर-वर्गीय संघर्ष को रोके और उसके साथ-साथ विविधता भरे प्रतियोगी और कभी-कभी एक-दूसरे से संघर्षरत बहुःधर्मीय समाज को एक राष्ट्र के रूप में जोड़े रखे। वर्गों की आपसी होड़ और संघर्ष तो हमारी सामाजिक विशिष्टता है। यह आशा की जाती है कि इस प्रकार की धर्म-निरपेक्ष नीति सभी नागरिकों में राष्ट्रीय भावना पैदा करेगी, जो उनकी विविध प्रकार की धार्मिक पहचान से ऊपर होगी लेकिन धार्मिक पहचान को अस्वीकार नहीं करेगी। इसका वास्तविक अर्थ यह है कि सभी नागरिक और विशेष रूप से राजकीय अधिकारी अपने-अपने सार्वजनिक जीवन में एक ओर तो अपने अधिकारों और कर्त्तव्योंतथा दूसरी ओर अपने विश्वास और व्यवहार के बीच अंतर बनाए रखेंगे। भारत और पश्चिम की धर्म-निरपेक्षता के अर्थ में यह अंतर उन भिन्न ऐतिहासिक, राजनीतिक और सामाजिक परिस्थितियों के कारण है, जिनमें भारत में धर्म-निरपेक्षता का उदय हुआ है।
Question : क्षेत्रीय राजनीतिक-दलों के उद्भव परिणाम।
(1998)
Answer : वर्तमान भारतीय राजनीतिक परिप्रेक्ष्य में विभिन्न क्षेत्रीय राजनीतिक दलों का उद्भव हो रहा है जो विशेष रूप से क्षेत्रीय हित के संबंधों पर आधारित है। कुछ प्रमुख क्षेत्रीय दल-बिहार में राष्ट्रीय जनता दल, लोक जनशक्ति पार्टी; झारखंड में झारखंड मुक्ति मोर्चा, बंगाल में तृणमूल कांग्रेस; आंध्र प्रदेश में तेलुगु देशम पार्टी; तमिलनाडु में डी. एम. के.; पी. एम. के. इत्यादि है। क्षेत्रीय राजनीतिक दलों के उद्भव के परिणाम निम्नलिखित हो सकते हैं-