Question : वैश्वीकरण के सामाजिक परिणाम।
(2004)
Answer : सामाजिक-आर्थिक संबंधों का संपूर्ण विश्व तक विस्तार वैश्वीकरण है। वर्तमान समय में, मानव जीवन के अनेक पक्ष, जिन समाजों में हम रह रहे हैं, उनसे हजारों मील दूर स्थित संगठनों और सामाजिक ताने-बाने से प्रभावित होने लगे हैं। इस प्रकार, विश्व एक एकिक समाज व्यवस्था का रूप धारण करता जा रहा है। इस संबंध में सर्वाधिक महत्वपूर्ण बात यह है कि विश्ववाद के द्वारा एक ऐसी नवीन चेतना का उदय हो रहा है कि संपूर्ण विश्व के राष्ट्र-राज्य अब कई मामलों में एक जगह मिलजुल कर बैठ मानव जीवन को अधिकाधिक खुशहाल एवं बेहतर बनाने के लिए एक साथ निर्णय करने लगे हैं।
एक सिद्धांत के रूप में, वैश्वीकरण एक भूमंडली-सांस्कृतिक व्यवस्था के उद्भव की विवेचना है। वैश्वीकरण के अनुसार भूमंडली संस्कृति अनेक विभिन्न सामाजिक और सांस्कृतिक विधाओं का परिणाम है। एक उपग्रही सूचना व्यवस्था की स्थापना, उपभोग और उपभोक्तावादी एक समान वैश्विक स्वरूपों का उद्भव, एक विश्ववादी सामान्य जीवन शैली की स्वीकारोक्ति, ओलम्पिक खेलों, विश्व क्रिकेट और फुटबॉल या अंतर्राष्ट्रीय टेनिस जैसी विश्व स्तरीय प्रतियोगिताओं के आयोजनों की शुरुआत, संपूर्ण विश्व संबंधी पारिस्थितिकीय एवं पर्यावरण संबंधी संकटों एवं खतरों के बारे में चेतना, एड्स एवं अन्य बीमारियों एवं स्वास्थ्य संबंधी समस्याओं के बारे में संपूर्ण विश्व के देशों द्वारा एक साथ मिल-जुल कर रोकथाम के प्रयास, विश्व व्यापार संगठन, राष्ट्र संघ और संयुक्त राष्ट्र संघ जैसी संस्थाओं की स्थापना द्वारा वैश्विक-राजनीति और आर्थिक व्यवस्थाओं का उद्भव, मानवाधिकारों का सभी देशों तक प्रचार, प्रसार और विश्व के धर्मों में आदान-प्रदान का शुभारंभ जैसी अनेक घटनाएं भूमंडलीकरण की ओर बढ़ते हुए हमारे चरणों को इंगित करती हैं।
वैश्वीकरण के दूसरे पक्ष के अनुसार भारत और अन्य विकासशील देशों में नयी वैश्विक संचार व्यवस्थाओं, विशेषतः टेलीविजन एवं इंटरनेट के द्वारा फैलायी जा रही एक विशिष्ट प्रकार की संस्कृति का विपरित प्रभाव पड़ रहा है। इससे मुख्यतः मध्यम एवं निम्न वर्ग के लोगों के ऊपर गलत प्रभाव पड़ा है। फिर भी, वैश्वीकरण वर्तमान समय की एक सत्यता है जिसका बहिष्कार नहीं किया जा सकता है।
Question : ‘73वें और 74वें संवैधानिक संशोधनों ने ग्रामीण भारत में सामाजिक लामबंदी को अभिप्रेरित किया है’ इस पर चर्चा कीजिए।
(2004)
Answer : देश की पंचायती राज संस्थाओं को संवैधानिक रूप प्रदान करने के लिए और इनमें एक रूपता लाने के लिए संसद ने दिसंबर 1992 में संविधान (73वां संशोधन) अधिनियम 1992 स्वीकार किया। 173वें संविधान संशोधन अधिनियम 1992 में ग्राम सभा को और सक्रिय करने, ग्राम, खंड और जिला स्तरों पर पंचायतों की स्थापना करने, अनुसूचित जातियों और जनजातियों के लिए हर स्तर पर उनकी जनसंख्या के अनुपात में आरक्षण करने, सभी निर्वाचित संस्थाओं को निर्धारित कार्यकाल पूरा करने, पंचायतों को उचित स्थानीय कर लगाने और वसूल करने का अधिकार देने तथा पंचायतों को राज्यों के समेकित कोष से सहायतानुदान देने की व्यवस्था है।
74वें संविधान संशोधन के अंतर्गत मुख्यतः नगर पंचायत, नगरपालिका से संबंधित स्वशासन का विषय आता है। यह अधिनियम सभी राज्यों से यह अपेक्षा करता है कि वह अपने-अपने कानून बनाये एवं स्थानीय स्वशासन का प्रबंध एवं संचालन सही तरीके से करें।
73वें एवं 74वें संविधानिक संशोधनों के प्रभावों का मूल्यांकन करने की दृष्टि से अनेक विद्वानों के द्वारा समय-समय पर कई अनुसंधान किये गये। ऐसे अनुसंधान मुख्यतः ‘सामाजिक संरचना और पंचायती राज’ से संबंधित है। समाज वैज्ञानिकों ने सामाजिक संरचना के कुछ पहलुओंजैसे जाति, नातेदारी, परिवार गुट और वर्ग पर पंचायती राज के प्रभाव का अध्ययन किया है, जो निम्नांकित हैं-
(1)उत्तर प्रदेश के एक जिले के अध्ययन के आधार पर गोल्ड ने स्पष्ट किया है कि आधुनिक राजनीतिक व्यवस्था के प्रारंभ ने सामाजिक स्तरीकरण की पुरानी व्यवस्था को काफी बदल दिया है और इस प्रकार सामाजिक गतिशीलता के नवीन प्रतिमानों के लिए एक आधार प्रस्तुत किया है।
(2)एम.एन. श्रीनिवास ने अपने अवलोकन के आधार पर बतलाया है कि पंचायतीराज के प्रारंभ ने निम्न जातियों, हरिजनों को आत्मसम्मान तथा शक्ति की एक नवीन अनुभूति प्रदान की है। रेजलॉफ ने उत्तर-प्रदेश के एक गांव के अपने अध्ययन के आधार पर निष्कर्ष निकाला है कि पंचायतों के प्रारंभ तथा चुनावों के फलस्वरूप विभिन्न जातियों की शक्ति संरचना में परिवर्तन आया है।
(3)चटर्जी का कहना है कि ग्रामीण लोगों की कर्म शक्ति तथा उत्साह को काम में लेकर ही ग्रामीण विकास कार्यक्रम को सफल बनाया और प्रभावी ढंग से सामाजिक परिवर्तन को तेजी से लाने हेतु पंचायती राज में मानवीय कारक को महत्वपूर्ण भूमिका अदा करने का अवसर दिया जाना चाहिए। आपकी धारणा है कि ग्रामीण क्षेत्रों में सामाजिक परिवर्तन लाने में लोक-तांत्रिक विकेंद्रीकरण की प्रक्रिया काफी लाभदायक सिद्ध हो सकती है। डाक्टर के अनुसार पंचायती राज की स्थापना ने नवीन मूल्यों के विकास में योग दिया है। अब पहले की तुलना में सामाजिक दूरी में कमी आयी है और राजनीतिक जागरूकता बढ़ी है। यह कहा जा सकता है कि नेतृत्व ने देश में परिवर्तन लाने की दृष्टि से महत्वपूर्ण भूमिका निभायी है। राजनीतिक आकांक्षाओं ने जाति, नातेदारी तथा प्रस्थिति के परंपरागत आधार को कमजोर बनाने में योग दिया है। उपर्युक्त अध्ययनों से पंचायती राज संस्थाओं के संदर्भ में जाति-व्यवस्था की गतिशीलता का पता चलता है। जहां तक इन संस्थाओं के माध्यम से सामाजिक परिवर्तन लाने का प्रश्न है, यह कहा जा सकता है कि विद्वान इस दृष्टि से एकमत है कि पंचायती राज ने ग्रामीण पुनर्निर्माण के कार्य में महत्वपूर्ण भूमिका निभाने एवं ग्रामीण सामाजिक संरचना और उसके विभिन्न तत्वों में परिवर्तन लाने में योग दिया है।
(4)विद्वानों ने ग्रामीण भारत में पंचायती राज के संदर्भ में नेतृत्व प्रतिमान का अध्ययन किया है। इस संबंध में अनेक अनुसंधान हुए हैं। उत्तर प्रदेश में किये गये अध्ययन के आधार पर रोबिंस ने गांवों में नेताओं की भर्ती के प्रश्न पर बताया है कि परंपरागत नेताओं और अपरंपरागत नेताओं के लिए आवश्यक पूर्वापेक्षाएं भिन्न-भिन्न हैं। एक परंपरागत नेता के लिए ऐसे कारक जैसे प्रस्थिति, हाई स्कूल से नीचे के स्तर की शिक्षा तथा अकृषिक व्यवसाय अनिवार्य है, जबकि उदीयमान नेताओं की भर्ती के लिए ऐसे कारकों जैसे आर्थिक प्रस्थिति तथा किसी राजनीतिक दल की सदस्यता का केवल सीमांत या न्यूनतम प्रभाव ही पाया जाता है।
आंध्र प्रदेश के पंचायती राज नेतृत्व की सामाजिक पृष्ठभूमि संबंधी अपने अध्ययन में जी. राम रेड्डी ने पाया कि ग्रामीण शक्ति संरचना में परिवर्तन नहीं आया है यद्यपि पंचायती राज संस्थाएं युवा पीढ़ी को अपनी ओर आकर्षित अवश्य कर रही है। जनमत के भारतीय संस्थान द्वारा किये गये एक सर्वेक्षण से पता चला कि पंचायती राज पुराने नेतृत्व के द्वारा धनी वर्गों में केंद्रित है। मैसूर के गांवों में पार्वथम्मा द्वारा परंपरागत नेतृत्व के अध्ययन से ज्ञात हुआ है कि चुनावों ने अंतर्जातीय राजनीतिक संबंधों को काफी प्रभावित किया है। जाति, नातेदारी तथा परिवार की प्रस्थिति पर आधारित परंपरागत नेतृत्व और लोकतांत्रिक आदर्शों पर आधारित नवीन नेतृत्व के बीच संघर्ष पाया जाता है। आंध्र प्रदेश में नेतृत्व की परिवर्तित बनावट संबंधी राव के अध्ययन से ज्ञात हुआ है कि यद्यपि परंपरागत अभिजात लोगों का सत्ता के स्रोत पर अब भी कुछ नियंत्रण बना हुआ है, परंतु अब उनका प्रभाव उदीयमान नेतृत्व के कारण कम होता जा रहा है। उपर्युक्त अध्ययनों से ज्ञात होता है कि नेतृत्व प्रतिमान में प्रवृत्ति परिवर्तन की ओर है। पंचायती राज संस्थाओं ने युवकों, शिक्षितों, मध्यम वर्ग और यहां तक की निम्न जातियों के लोगों को भी अपनी ओर आकर्षित और उन्हें नेता के रूप में प्रस्थिति प्राप्त करने के लिए प्रोत्साहित किया है। आन्द्रे बेते ने अपने अध्ययन के आधार पर बताया है कि आज राजनीतिक शक्ति चाहे गांव में या गांव के बाहर, भूमि के स्वामित्व के साथ उनकी निकट से संबंधित नहीं है जो कुछ सीमा तक जाति और वर्ग दोनों से स्वतंत्र है। संभवतः इनमें से सर्वाधिक महत्वपूर्ण आधार संख्या का समर्थन है।
चतुर्वेदी ने राजस्थान के एक जिले में अधिकारियों और अराजकीय लोगों के बीच तनाव के कारणों संबंधी अध्ययन के आधार पर निष्कर्ष निकाला है कि पंचायती राज की स्थापना ने नवीन संस्तरणों को उत्पन्न किया है जिसके परिणाम स्वरूप दोनों के बीच तनाव पाये जाते हैं। यह तनाव पंचायती राज संस्थाओं के सफल कार्य-संचालन में बाधक है। गायकवाड ने अपने अध्ययन के आधार पर बताया है कि अधिकारियों एवं अराजकीय लोगों के बीच संबंध संतोषजनक नहीं है। कई संघर्षपूर्ण परिस्थितियां पायी गयीं और इसका आधार निवार्यतः सामाजिक मनोविज्ञान था।
पंचायती राज के लाभदायक पक्ष पर प्रकाश डालते हुए सिंह एवं सिंह ने बताया है कि ग्राम-पंचायतों की स्थापना ने ग्रामीण में उत्तरदायित्व की भावना जगाने की दृष्टि से महत्वपूर्ण भूमिका निभायी है। होफसोमर तथा दुबे ने राजस्थान के कुछ गांवों के अध्ययन में पाया कि पंचायती राज की स्थापना ने नवीन सामाजिक शक्तियों को प्रकट किया है जो अभी तक अप्रकट अवस्था में थी और ग्रामों की सामाजिक संरचना में बहुत से परिवर्तन लाने में योग दिया है। दूसरी ओर, सादिक अली दल ने बताया कि पंचायती राज से ग्रामीण क्षेत्रों में गुट बढ़े हैं; अभी भी जन-सहयोग का अभाव है और पंचायती राज तथा सहकारी संस्थाओं में सहयोग की कमी है।
उपर्युक्त अध्ययनों से स्पष्ट होता है कि 73वें एवं 74वें संविधान संशोधन अर्थात् पंचायती राज ने ग्रामीण सामाजिक संरचना के विभिन्न पहलुओं को प्रभावित किया है एवं परिवर्तन में सहयोग किया है। कुछ अध्ययनों से यह पता चलता है कि पंचायती राज संस्थाओं ने ग्रामीणों में उत्तरदायित्व की भावना जाग्रत करने में योग दिया है। साथ ही यह भी पाया है कि ग्रामीण शक्ति-सरंचना में परिवर्तन आया है। अब राजनीतिक दल ग्रामीण क्षेत्रों में प्रवेश कर रहे हैं और वहां अपने कार्य का विस्तार करने के इच्छुक हैं।
Question : ग्रामीण विकास की रणनीतियां।
(2004)
Answer : भारत सरकार ग्रामीण क्षेत्रों में द्रूतगामी तथा निरंतर विकास के लिए पूर्णतः प्रयत्नशील है। ग्रामीण विकास मंत्रालय अनेक योजनाओं के क्रियान्वयन में लगा हुआ है जिनका उद्देश्य ग्रामीण जनता को योग्य बनाकर उनके जीवन-स्तर को सुधारना है। गरीबी उन्मूलन तथा त्वरित सामाजिक आर्थिक विकास के उद्देश्य के साथ विकास कार्यक्रमों को समाज के सर्वाधिक उपेक्षित वर्ग तक पहुंचाने के लिए क्रियान्वित की जा रही है। स्वच्छ पेयजल, ग्रामीण आवास तथा सड़क संपर्क को उच्च प्राथमिकता दी जा रही है। निराश्रितों और गरीब परिवारों को सहायता प्रदान करने के लिए सामाजिक सुरक्षा कार्यक्रमों को भी काफी महत्व दिया जा रहा है।
स्वतंत्रता प्राप्ति के पश्चात सरकार ने ग्रामीण विकास हेतु योजनाबद्ध प्रयास किये और इस दृष्टि से समय-समय पर विभिन्न पंचवर्षीय योजनाओं के अंतर्गत अनेक कार्यक्रम आरंभ किए गए। प्रारंभिक प्रयासों में सन् 1952 में प्रारंभ सामुदायिक विकास योजना एवं राष्ट्रीय विस्तार सेवा के द्वारा ग्रामों के उत्थान के प्रयत्न किये गये। इन योजनाओं की कुछ कमियों को ध्यान में रखकर 2 अक्टूबर, 1980 को देश के सभी 5,200 सामुदायिक विकास खंडों को समन्वित कर एक नया कार्यक्रम ‘समन्वित ग्रामीण विकास कार्यक्रम’ प्रारंभ किया गया। इस कार्यक्रम का भी 1 अप्रैल, 1999 से ‘स्वर्ण जयंती ग्राम स्वराज्य योजना’ में विलय कर दिया गया। भागीदारी आधारित लोकतंत्र को सार्थक तथा प्रभावशाली बनाने के लिए गैर-सरकारी-संगठन, स्वयंसेवी संघों और पंचायती राज-संस्थाओं को उचित भूमि प्रदान की गई। ग्रामीण विकास की दृष्टि से संचालित योजनाओं को हम मुख्य रूप से दो भागों में बांट सकते हैंः-
(i)स्वतंत्रता प्राप्ति से 1 अप्रैल, 1999 से पूर्व तक संचालित योजनाएं, तथा
(ii)1 अप्रैल, 1999 से प्रारंभ की गई योजनाएं
Question : हरितक्रांति के सामाजिक परिणाम।
(2003)
Answer : 1960 के दशक के मध्य से कृषि के क्षेत्र में महत्वपूर्ण जैविक तथा मशीनी नवीनताओं की प्रक्रिया शुरू हुई जिनका परिणाम हरित क्रांति है। हरित क्रांति का अभिप्राय कृषि के क्षेत्र में उन जैविक तथा मशीनी नवीनताओं से है जिनका प्रयोग उच्च पैदावार वाले बीजों, रासायनिक खादों, ट्रैक्टरों, नलकूपों आदि में पाया जाता है। सबसे पहले हरित क्रांति पंजाब, हरियाणा और पश्चिमी उत्तर प्रदेश में आयी तथा धीरे-धीरे अन्य प्रदेशों के विशेष क्षेत्रों में भी फैल गयी। इससे कृषि के उत्पादन और फसल सघनता में महत्वपूर्ण वृद्धि हुई। इसके बावजूद हरित क्रांति के समााजिक परिणाम निम्नलिखित हैं-
हरित क्रांति से कृषक वर्ग में विभिन्नता आयी है जो कृषि में पूंजीवाद के फैलाव का प्रतीक है। उत्सा पटनायक ने हरियाणा के 15 एकड़ या उससे कम भूमि पर खेती करने वाले कृषक परिवारों के अध्ययन से यह पता लगाया है कि उनमें दो कृषक वर्ग हैं। एक ओर धनी और मध्यम किसानों का वर्ग है जो भाड़े के मजदूरों से खेती करवाते हैं। दूसरी ओर ग्रामीण गरीब वर्ग हैं जिसमें सभी अतिरिक्त छोटे और गरीब किसान हैं। इसमें, नयी तकनीक बड़े भू-स्वामियों के लिए लाभप्रद होती है और छोटे किसानों को इसका लाभ पूरी तरह नहीं मिल पाता। वास्तव में, हरित क्रांति के फलस्वरूप छोटे किसान तथा कृषक मजदूरों को केवल गरीबी और बेरोजगारी ही मिली। ग्रामीण क्षेत्रों में रहने वाले धनिकों तथा गरीबों के बीच की खाईं वास्तव में कम होने की जगह बढ़ी है।
गिल ने पंजाब के अध्ययन में दिखाया है कि भूमि संबंधों, पूंजी संचय और वेतन मजदूरों का अस्तित्व और उनमें वृद्धि के संदर्भ में वहां पर पूंजीवाद का फैलाव हुआ है। इसने यह भी स्पष्ट किया कि 1961 से 1971 के दशक में मजदूरों की संख्या 17.3 प्रतिशत से बढ़कर 32.1 हो गयी है।
Question : विवेचना कीजिए कि किस प्रकार व्यावसायिक विविधता ने भारत में सामाजिक स्तरीकरण के प्रारूप को प्रभावित किया है?
(2003)
Answer : व्यावसायिक विविधता ने भारत में सामाजिक स्तरीकरण के विभिन्न पक्षों को भिन्न-भिन्न रूप में प्रभावित किया है। परंपरावादी भारत की सामाजिक संरचना मुख्य रूप से जाति व्यवस्था से जुड़ी हुई थी जो भारत में सामाजिक स्तरीकरण का एक प्रमुख पक्ष है। उदाहरण के लिए, ब्राह्मण जाति के लोग मुख्यतः पूजा-पाठ से जुड़े रहे हैं दूसरी ओर चमार जाति के लोग जूता वगैरह का व्यवसाय करते रहे हैं। परंतु आधुनिकीकरण, शिक्षा का प्रसार एवं नगरीकरण के फलस्वरूप आज के सामाजिक स्तरीकरण में काफी परिवर्तन आया है एवं व्यावसायिक विविधता का स्वरूप देखने को मिल रहा है।
परंपरावादी भारत में व्यक्ति की प्रस्थिति प्रदत्त होती थी जबकि आज के समय में यह अर्जित हो गयी है। साथ ही, आर्थिक विकास में व्यावसायिक विविधता, कृषि का व्यापारीकरण और प्राथमिकता से द्वितीयक और तृतीयक व्यवसायों में परिवर्तन शामिल है। व्यावसायिक स्तर पर भारत के लोगों को तीन समूहों में विभाजित किया जा सकता है- प्राथमिक व्यवसाय (जैसे कृषि, खनन), द्वितीयक व्यवसाय-(जैसे, व्यापार, निर्माण और यातायात), और तृतीयक व्यवसाय (जैसे, सेवा)। इंडिया, मैन पावर प्रोफाइल, इंडिया, 1998 के अनुसार, आयुवार 15 से 59 वर्ष आयु समूह के लोग ‘कार्यकारी’ आयु समूह में आते हैं। भारत में लगभग-38प्रतिशत लोग 0-14 आयु समूह में आते हैं, 55 प्रतिशत, 15-59 वर्ष आयु समूह में और 7 प्रतिशत, 60 वर्ष के हैं। ‘कार्यकारी’ आयु समूह के कुल लोगों (लगभग 46 करोड़) में से 62 प्रतिशत प्राथमिक व्यवसायों में 14.9 प्रतिशत द्वितीयक और 22.4 प्रतिशत तृतीयक व्यवसायों में लगे हैं। (Manpower Profile, India, 1998)
1991 की कुल ग्रामीण जनसंख्या का (अर्थात लगभग 62.8 करोड़ में से 79 प्रतिशत प्राथमिक, 10.3 प्रतिशत द्वितीयक और 13.6 प्रतिशत तृतीयक व्यवसायों में लगे हैं। कुल शहरी जनसंख्या (लगभग 21.7 करोड़) का 14.2 प्रतिशत प्राथमिक, 32.3 प्रतिशत द्वितीयक और 54.5 प्रतिशत तृतीयक व्यवसायों में लगे हैं। वृहत रूप से लगभग 44 प्रतिशत ग्रामीण और 34 प्रतिशत शहरी लोग ‘कार्यशक्ति’ में हैं। पुरुष कार्य करने वालों की भागीदारी की दर शहरी क्षेत्रों में ग्रामीण क्षेत्रों की अपेक्षा कम है, जबकि महिला कार्यकारी शक्ति की दर ग्रामीण क्षेत्रों में 32 प्रतिशत है। लेकिन शहरी क्षेत्रों में केवल 15 प्रतिशत है 1950-51 की अवधि में रोजगार का क्षेत्रवार विवरण बतया है कि प्राथमिक क्षेत्र में 8 प्रतिशत की गिरावट आई, और लाभ द्वितीयक और तृतीयक क्षेत्रों को बराबर का हुआ। ग्रामीण क्षेत्रों में पुरुषों के मामले में अधिक विविधीकरण हुआ और महिलाओं के मामले में शहरी क्षेत्रों में।
वास्तव में, व्यावसायिक विविधता परिवार, जाति, नातेदारी, आदि संस्थाओं को प्रभावित करती है। बेली का मानना है कि संयुक्त परिवार अपने सदस्यों के विविध हितों को और आय की समानता को जीवित नहीं रख सकता। परंतु एपस्टीन इस दृष्टिकोण से सहमत नहीं है। उनके अनुसार अर्थव्यवस्था के विविधिकरण की अपेक्षा स्थायी अर्थव्यवथा से नकद अर्थव्यवस्था में परिवर्तन संयुक्त परिवार के लिए अधिक उत्तरदायी हैं परंतु जहां तक व्यावसायिक विविधता एवं सामाजिक स्तरीकरण का सवाल है, इसे निम्नांकित बिंदुओं की सहायता से व्याख्या की जा सकती हैः
Question : नव-धनाढ्य कृषिक वर्ग के अभिलक्षण।
(2002)
Answer : नव-धनाढ्य कृषक वर्ग वास्तव में भारतीय जमींदारी पद्धति से विकसित एक व्यवस्था है। इस वर्ग में व्यक्ति बहुत तरीकों से अपनी प्रस्थिति को कायम रखने का प्रयास करता है। यह कृषक वर्ग न सिर्फ कृषि पर ही आधारित होते हैं बल्कि औद्योगिक व्यवस्थाओं पर भी नियंत्रण रखते हैं। हम संक्षेप में इसके कुछ प्रमुख अभिलक्षण पर प्रकाश डाल सकते हैं-
अतः इन सारी बातों से यह स्पष्ट है कि ये कृषिक वर्ग सामाजिक, आर्थिक, शैक्षणिक एवं राजनैतिक सभी रूप से विकसित होते हैं।
Question : निर्धनता उपशमन कार्यक्रम
(2001)
Answer : 1997-98 में गरीब से संबंधित अनेक कार्यक्रम को एक व्यवस्थित रूप दिया गया। नौंवी योजना सरकार की नीति के चार महत्वपूर्ण आयामों के संदर्भ में विकसित की गई, ये हैं जीवन-स्तर सुधारना, उत्पादक रोजगार जुटाना, क्षेत्रीय संतुलन रखना और आत्मनिर्भरता लाना। योजना का मुख्य केंद्र है- ‘सामाजिक विकास और समानता के साथ विकास’। ग्रामीण क्षेत्र में गरीबी उन्मूलन के लिए निम्नांकित कार्यक्रम चलाये गये हैं:
Question : भारतीय समाज पर पश्चिम का प्रभाव।
(2001)
Answer : भारतीय समाज पर पश्चिम का प्रभाव का आकलन हम मूलतः पश्चिमीकरण की प्रक्रिया के अंतर्गत करते हैं। श्रीनिवास के अनुसार विभिन्न जातियों खासतौर पर उच्च जातियों ने ब्रिटिश लोगों की विभिन्न सांस्कृतिक प्रणालियों को अपना लिया है। सांस्कृतिक अनुकरण के अतिरिक्त विज्ञान, प्रोद्योगिकी, शिक्षा, वैचारिकी और मूल्यों के क्षेत्रों में बहुत सी बातें स्वीकार की गई हैं। पश्चिमीकरण की अवधारणा में मानवतावाद और तर्कबुद्धिवाद के मूल्य आधारित है। श्रीनिवास के अनुसार ये दोनों मूल्य ‘आधुनिकीकरण’ की अवधारणा में नहीं पाये जाते हैं, और इसी कारण से श्रीनिवास ने पश्चिमीकरण की अवधारणा को प्राथमिकता प्रदान की है। परंतु यह कथन कि ब्रिटिश शासन के 150 वर्षों के परिणामस्वरूप भारत में मानवतावाद और औचित्यवाद के मूल्यों की उत्पत्ति हुई है, ऐतिहासिक आधार पर पुष्टि नहीं होती है। वास्तव में, ब्रिटिश ने भारत में अपना शासन बनाए रखने के लिए हर प्रकार के कदम उठाए। इन कदमों में सांप्रदायिक अधिनिर्णय, साम्प्रदायिक निर्वाचक समूह, भारत की अर्थव्यवस्था का अधोपतन, और ‘फूट डालो और राज करो’ की नीति द्वारा एक जाति समूह को अन्य जाति या समूह के विरुद्ध भिड़ाना आदि शामिल है।
श्रीनिवास ने पश्चिमीकरण के तीन स्तरों की चर्चा की है- (1) प्राथमिक, (2) द्वितीयक और (3) तृतीयक। प्राथमिक स्तर का अभिप्राय उन लोगों से है जो ब्रिटिश के साथ प्रत्यक्ष रूप में सम्पर्क में आए। द्वितीयक स्तर का अर्थ उन लोगों से हैं जो लोग प्राथमिक स्तर पर आए लोगों से प्रत्यक्ष रूप में लाभान्वित हुए। पश्चिमीकरण की प्रक्रिया से परोक्ष रूप से लाभान्वित होने वाले लोग तृतीयक स्तर के जाने जाते हैं।
पश्चिमीकरण के परिणामस्वरूप, प्रस्थितियों की नई दरारें और विभेद उत्पन्न हुए हैं और वर्तमान दरारें व विभेद समाप्त नहीं हुए हैं।
Question : निजीकरण एवं विश्वव्यापीकरण (भूमंडलीकरण)
(2001)
Answer : निजीकरण एवं विश्वव्यापीकरण एक-दूसरे से अंतःसंबंधित हैं। वास्तव में निजीकरण भूमंडलीकरण का ही परिणाम है। भूमंडलीकरण के फलस्वरूप सभी क्षेत्रों को व्यापार के लिए स्वतंत्र कर स्वतंत्र बाजार प्रणाली की शुरुआत हुई। भूमंडलीकरण मूलतः तकनीकी, प्रोद्योगिकी एवं संचार के आदान-प्रदान के लिए प्रकाश में लाया गया था। इस नीति के तहत विभिन्न देशों के आयात-निर्यात के प्रतिबंध ढीले कर दिये गये जिसके कारण बहु-राष्ट्रीय कंपनियों की संख्या बढ़ने लगी जिससे देश के आंतरिक उत्पादित वस्तुओं की उसके साथ प्रतिस्पर्धा बढ़ने लगी और अंततोगत्वा ये एक प्रतिस्पर्धा बाजार मे परिणत हो गयी।
भारत जैसा कि हम जानते हैं एक विकासशील देश है। यहां की प्रोद्योगिकी, तकनीकी एवं ज्ञान का स्तर विकसित देशों की अपेक्षा कम विकसित है। अतः भारत का इस प्रतिस्पर्द्धात्मक बाजार में टिकना थोड़ा मुश्किल लगता है। भूमंडलीकरण के फलस्वरूप जब बाहर की कंपनियां भारत में प्रवेश कर गईं तो भारतीय उत्पाद की डिमांड में कमी हो गयी जिसके फलस्वरूप बहुत सारी सार्वजनिक कंपनियां घाटे में चलने लगीं। इस तथ्य के कारण बहुत से घाटे की कंपनियों का निजीकरण का फैसला लिया गया जिसका दूरगामी प्रभाव भारतीय सामाजिक व्यवस्था पर पड़ा। इन कंपनियों के निजीकरण के फलस्वरूप श्रमिकों की स्थिति पर प्रतिकूल असर पड़ा एवं साथ ही भारत में ये बहुराष्ट्रीय कंपनियों का एकाधिकार की प्रवृत्ति का विकास हुआ।
इस भूमंडलीकरण एवं निजीकरण की नीति को फलस्वरूप विभिन्न क्षेत्र की कंपनियों में निवेश की प्रवृति बढ़ती जा रही है। आज भारत अधिकांश सार्वजनिक क्षेत्रों में निवेश की राशि 50 प्रतिशत तक हो गयी है। ऐसे भी कंपनियां हैं जिसमें विनिवेश का प्रतिशत 100 तक है। अतः आज भूमंडलीकरण के इस दौर में शोषण की प्रवृत्ति का बढ़ना स्वाभाविक है। इसमें मूलरूप से विकसित देशों द्वारा विकासशील देशों का शोषण किया जाता है और यह शोषण न सिर्फ आर्थिक स्तर तक सीमित है बल्कि सांस्कृतिक, राजनैतिक, सामाजिक एवं अन्य क्षेत्रों में भी देखने को मिलता है।
Question : भारत के लिए वैश्वीकरण के परिणाम
(2000)
Answer : वैश्वीकरण का प्रयोग सर्वप्रथम सारे विश्व को तकनीकी एवं संचार के माध्यम से एक छत प्रदान करने के रूप में हुआ था, जिसे हम ‘ग्लोबल विलेज’ कहते हैं। वैश्वीकरण किसी भी देश के लिए अभिशाप एवं वरदान दोनों है। परंतु जहां तक विकासशील देश का सवाल है, वहां अधिक दुष्परिणाम ही देखने को मिला है। इसका कारण यह है कि विकसित देश अपनी सुविधानुसार विकासशील देशों का शोषण करती हैं एवं यह प्रक्रिया इसमें काफी योगदान करती है।
भारत जैसे विकासशील देश जहां पर आर्थिक, सामाजिक एवं राजनैतिक आधार पर असमानता व्याप्त हैं जिसमें वैश्वीकरण की प्रक्रिया इस असमानता में ओर वृद्धि करने में सहायक है। वैश्वीकरण के फलस्वरूप अमीर एवं गरीब के बीच और खाई बढ़ती जायेगी। साथ ही सांस्कृतिक रूप से भी अत्यधिक प्रभावित होगी। वैश्वीकरण के फलस्वरूप सभी देशों के बीच व्यापार का मार्ग खोल दिया गया है, परंतु विकासशील देश के पास विकसित तकनीकी के अभाव होने के कारण को विकसित देशों के साथ प्रतिस्पर्धा करने में असमर्थ होगा। जिसके फलस्वरूप विकासशील देश की अपने उद्योगों की बंद हो जाने की संभावना बढ़ जाती है। आज हम देख रहें हैं कि किस प्रकार बहुराष्ट्रीय कंपनियां हमारे देश में पदार्पण कर चुके हैं जिससे हमारी औद्योगिक इकाइयों पर प्रतिकूल असर पड़ा है।
परंतु दूसरी ओर इसके एक पहलू यह भी है कि तकनीकी एवं संचार क्रांति के फलस्वरूप हम इस क्षेत्र में आत्मनिर्भर भी हुए है। हमारा युवा वर्ग तकनीकी के क्षेत्र में काफी आगे निकल चुका है जो विकसित भारत के लिए एक पथ तैयार करता है। वैश्वीकरण के फलस्वरूप हम विभिन्न देशों के संस्कृति के संपर्क में आये हैं जो हमारे ज्ञान को ओर विकसित करते हैं। साथ ही अधिक से अधिक लोगों को निजी क्षेत्रों में रोजगार उपलब्ध हुए हैं। परंतु यह एक तथ्य है कि वैश्वीकरण प्रतिस्पर्धा की एक प्रक्रिया है जिसमें सभी पहलुओं में विकसित एवं तेज व्यक्ति ही आगे निकलेगा।
Question : ‘हरित क्रांति’ से आपका क्या अभिप्राय है और इसके सामाजिक आर्थिक परिणाम क्या है? विवेचना कीजिए।
(1999)
Answer : 1960 के दशक के मध्य से कृषि क्षेत्र में महत्वपूर्ण जैविक तथा मशीनी नवीनताओं की प्रक्रिया शुरू हुई जिनका परिणाम हरित क्रांति है। शुरू में यह पंजाब, हरियाणा तथा पश्चिमी उत्तर प्रदेश तक ही सीमित रही। धीरे-धीरे यह अन्य राज्यों के कुछ हिस्सों में भी फैल गई। इसके फलस्वरूप, इन क्षेत्रों में किसान उच्च पैदावार वाले बीज, अधिक मात्र में रासायनिक खाद, सिंचाई के लिए पर्याप्त मात्र में पानी तथा आधुनिक कृषि तकनीकी जैसे ट्रैक्टर, थ्रेशर, नल-कूप तथा पम्पसेट आदि का प्रयोग करने लगे।
कृषि में इस महत्वपूर्ण परिवर्तन से फसल पैदा करने वाले क्षेत्रों की संख्या, कुल पैदावार तथा कृषि की उत्पादन क्षमता में वृद्धि आई है। कृषि करने वाले मजदूरों की मांग बढ़ गई है इसलिए कृषि में मजदूरों को किराये पर रोजगार मिलना भी अधिक हुआ है। पंजाब में मजदूरों में हुई कमी दूसरे राज्यों में विशेषकर बिहार तथा पूर्वी उत्तर प्रदेश से आये हुए मजदूरों द्वारा पूरी की गई है। पुनः प्रगतिशील किसानों ने जमीन को बटाई पर किसी और को देने की अपेक्षा व्यक्तिगत निरीक्षण में खेती की है। इसके अतिरिक्त वे गरीब किसानों से पट्टे पर जमीन लेकर भी खेती करते हैं क्योंकि गरीब किसान खेती के लिए आवश्यक कीमती खाद, बीज व टेक्टर आदि नहीं जुटा पाते हैं। आंद्रे बेते के अनुसार इस प्रकार की खेती की महत्वपूर्ण विशेषता यह है कि इसका संगठन एक व्यापारिक काम-काज के संगठन की तरह है न कि सामंती व्यवस्था की तरह।
हरित-क्रांति के सामाजिक आर्थिक परिणामः इस क्रांति के फलस्वरूप समाज में दोनों प्रकार की क्रियाएं हुई। सर्वप्रथम, इस कार्यक्रम का जितना अच्छा प्रभाव भारत में देखा गया उतना शायद किसी अन्य विकासशील देश में नहीं देखा गया। इस कार्यक्रम के फलस्वरूप निश्चित रूप से कृषि का विकास हुआ है। हरित-क्रांति के बाद की अवधि में 1967-68 से 1991-92 तक कृषि उत्पादन की दर लगभग 2 .78 प्रतिशत वार्षिक रही। इस अवधि में खाद्यान्न उत्पादन 950.5 लाख टन से बढ़कर 1670.6 लाख टन हो गया। विभिन्न अध्ययनों के अनुसार भारत जो 1960 के दशक में खाद्यान्न की कमी वाला देश माना जाता था, 1980 के दशक के अंत मे अपनी आवश्यकता से अतिरिक्त उत्पादन करने वाला देश बन गया। यह उपलब्धि उसने जनसंख्या में लगभग दो गुनी वृद्धि के बावजूद प्राप्त की। इस क्रांति का सबसे अधिक प्रभाव गेहूं के उत्पादन पर पड़ा। इसी कारण कुछ विद्वान ‘हरित क्रांति’ को ‘गेहूं क्रांति’ की संज्ञा भी देते हैं। हरित क्रांति का प्रथम चरण सन् 1966 से सन् 1971 तक विशेष सफल रहा, जिसमें अन्य खाद्यान्नों का उत्पादन भी 7.2 करोड़ टन से बढ़कर 10.8 करोड़ टन हो गया। परंतु सन् 1972 से 1979 तक के दूसरे चरण में विपरीत मौसम के कारण उत्पादन में अत्यधिक उतार-चढ़ाव होते रहे। भारत में यदि हरित क्रांति न होती तो संभवतः देश को भुखमरी व अकालों का सामना करना पड़ता। इसी कारण कुछ लोगों की धारणा है कि यदि भारत में हरित क्रांति आंदोलन आरंभ न किया गया होता तो ‘खूनी क्रांति’ हो जाने की संभावना बढ़ जाती। एम.एल. दांत वाला ने हरित क्रांति के पश्चात कृषिगत विकास के विभिन्न पहलुओं पर प्रकाश डालते हुए लिखा है कि ‘अधिक उपज देने वाली किस्मों’ का अपनाया जाना ही देश में खाद्य समस्या का एकमात्र हल था।’ वाशिंगटन डी.सी. स्थित ‘अंतर्राष्ट्रीय खाद्य नीति संस्थान’ के सहयोग से भारत द्वारा कराये गये दो अध्ययनों में कहा गया है कि हरित क्रांति ने भारतीय किसानों की उत्पादक क्षमता बढ़ाकर एक और ग्रामीण आय में वृद्धि की है और दूसरी ओर गरीबों को सस्ते मूल्य पर खाद्यान्न उपलब्ध कराया है।’
हरित क्रांति के प्रभावों के मूल्यांकन में न सिर्फ अच्छे ही आते हैं बल्कि इसके विपरीत भी असर पड़ा है। भल्ला ने चर्चा की है कि हरित क्रांति में अंतर्क्षेत्रीय स्तर पर जिलों के बीच तथा कृषि के उत्पादन तथा आमदनी में विषमताएं पैदा हो गई हैं। हरित क्रांतिके लाभ कृषि से जुड़े विभिन्न वर्गों में सामान्य रूप से वितरित नहीं हुए है। कृषि में अत्यधिक उत्पादन का लाभ मुख्य रूप से बड़े भू-स्वामियों को मिला है। छोटे तथा सीमांत किसानों के पास जमीन कम होने के कारण वे अधिक उत्पादन करने में असमर्थ रहे हैं। इसके अतिरिक्त मध्यम और छोटे किसानों ने सहकारी तथा अन्य वित्तीय संस्थाओं से बहुत मात्र में ऋण लिया हैं क्योंकि इसके बिना कृषि में बढ़ती हुई लागत का खर्च स्वयं उठाने में वह असमर्थ हैं। भल्ला ने यह भी बताया है कि प्रगतिशील तथा रूढि़वादी किसानों के बीच का अंतर बढ़ गया है।
दूसरी ओर, हरित क्रांति से कृषक वर्ग में विभिन्नता भी आई है, जो कृषि में पूंजीवाद के फैलाव का प्रतीक है। उत्सा पटनायक ने हरियाणा की 15 एकड़ या उससे कम भूमि पर खेती करने वाले कृषक परिवारों के अध्ययन से यह पता लगाया है कि उनमें दो कृषक वर्ग हैं। एक ओर धनी तथा मध्यम किसानों का वर्ग है जो भाड़े के मजदूरों से खेती करवाते हैं। दूसरी ओर, ग्रामीण गरीब वर्ग हैं जिसमें सभी अतिरिक्त छोटे और गरीब किसान हैं। पहला वर्ग बड़ी मात्र में घरेलू संपत्ति का मालिक है। आधुनिक कृषि के लिए आवश्यक तकनीकी के प्रयोग पर अपना एकाधिकार जमा चुका है और अपने उत्पादन का अधिकांश हिस्सा बाजारों में बेचता है। दूसरी ओर, छोटे व निर्धन किसानों के पास घरेलू संपत्ति की मात्र बहुत कम होती है। उनके पास परंपरागत पशुधन तथा कृषि औजार होते हैं एवं वे अपनी फसल का केवल एक तिहाई बाजार में बेच पाते हैं। इस प्रकार, नयी तकनीकि बड़े भू-स्वामियों के लिए लाभप्रद होती है और छोटे किसानों को इसका लाभ पूरी तरह नहीं मिल पाता।
बड़े किसानों को हरित क्रांति का लाभ तो मिला ही साथ ही उन्होंने ग्रामीण विकास योजनाओं का भी पूरा फायदा उठाया। छोटे किसान तथा कृषक मजदूरों को आजादी के 40 वर्ष बाद भी केवल गरीबी और बेरोजगारी ही मिली। ग्रामीण क्षेत्रों में रहने वाले धनिकों तथा गरीबों के बीच की खाई वास्तव में कम होने की जगह बढ़ी हैं
गिल ने पंजाब के अध्ययन में दिखाया है कि भूमि संबंधों, पूंजी संचय और वेतन मजदूरों का अस्तित्व और उनमें वृद्धि के संदर्भ में वहां पर पूंजीवाद का फैलाव हुआ है। भूमि संबंधों के विषय में उसका निष्कर्ष है कि 20 एकड़ से अधिक भूमि वाले 10 प्रतिशत किसान हैं ये कुल भूमि के 37 प्रतिशत से अधिक भाग के मालिक हैं। वहां पर पूंजी संचय इस तरह दिखाई देता है कि 10 प्रतिशत उच्च स्तरीय किसानों के पास 88.75 प्रतिशत ट्रैक्टर, 24.12 प्रतिशत नलकूप, 20.40 प्रतिशत थ्रेशर और खरीदी हुई जमीन का 42.86 प्रतिशत हिस्सा है। इसके अतिरिक्त वास्तविक पट्टेदारों की संख्या में कमी आयी है। परंतु 1961 से 1971 के दशक में कृषक मजदूरों की संख्या 17.3 प्रतिशत से बढ़कर 32.1 हो गई है। कृषि मजदूरों की नगद मजदूरी बढ़ी है परंतु कीमतों के अनुपात में अधिक वृद्धि होने के कारण उनकी मजदूरी वास्तव में घट गई है। दूसरे वर्गों की तुलना में कृषि आय में मजदूरों का संबंध हिस्सा घट गया है।
Question : परंपरागत ग्रामीण आर्थिक संरचनाओं पर बाजार अर्थव्यवस्था के प्रभावों का मूल्याकंन कीजिए।
(1998)
Answer : परंपरागत ग्रामीण आर्थिक संरचना पर बाजार अर्थव्यवस्था के प्रभावों का मूल्यांकन करने से पहले हम यहां बाजार अर्थव्यवस्था के बारे में संक्षिप्त जानकारी देना चाहेंगे।
बाजार अर्थात् आधुनिक आर्थिक व्यवस्था ने समाज के सभी पक्षों को प्रभावित किया है। मार्क्स का तो मत है कि जब आर्थिक संस्थाओं में परिवर्तन आता है, तो समस्त समाज एवं संस्कृति में भी परिवर्तन आता है क्योंकि वे ही समाज एवं संस्कृति की आधारशिला है। पूंजीवादी एवं समाजवादी अर्थव्यवस्थाएं समाज में विभिन्न प्रकार की सामाजिक संस्थाओं को जन्म देती है और समाज पर भी उनका प्रभाव भिन्न-भिन्न होता है। यहां पर हम बाजार अर्थव्यवस्था का प्रभाव परम्परागत ग्रामीण आर्थिक संरचना का मूल्यांकन निम्नांकित बिंदुओं के अंतर्गत करने जा रहे हैं:
अतः इस प्रकार से हम कह सकते हैं कि बाजार अर्थव्यवस्था का प्रभाव वर्तमान समय में न सिर्फ ग्रामीण अर्थव्यवस्था पर ही पड़ा है बल्कि इससे संबंधित विभिन्न संस्थाओं पर भी पड़ा है।