Question : नक्सलबाड़ी आंदोलन।
(1999)
Answer : फरवरी 1967 में पश्चिम बंगाल में जब कम्युनिस्ट पार्टी (CPI) के सहयोग से संयुक्त मोर्चा सरकार सत्ता में आई, तब कुछ सक्रिय एवं स्थानीय समूहों का उदय हुआ। उनमें से एक चारु मजूमदार तथा कानू सान्याल के नेतृत्व में शुरू किया जिसने कृषक समाज में सशत्रता को विकसित करने पर जोर दिया जिससे किसानों को सशस्त्र संघर्ष के लिए तैयार किया जा सके। प्रारंभ में नेताओं ने बेनामी भूमि पर जबरन कब्जा में कृषकों से भाग लेने को कहा लेकिन बाद में उन्होंने गुरिल्ला युद्ध के माध्यम से वर्ग शत्रुओं को समाप्त करने पर बल दिया। इस प्रकार जन आंदोलन का स्थान भूमिगत छोटे समूह दस्तों ने ले लिया। इस प्रकार नक्सलबाड़ी आंदोलन की गुरिल्ला कार्यवाही ने पश्चिम बंगाल और आंध्र प्रदेश में सबसे अधिक प्रभाव डाला और बाद में बिहार में भी।
नक्सलबाड़ी में कृषक विद्रोह 1972 में पश्चिम बंगाल के दार्जिलिंग जिले में तीन क्षेत्रों में शुरू हुआ। बेनामी भूमि पर काबिज होने के लिए 1950 व 1960 के दशकों में किसान सभा द्वारा किसानों को आह्वान किया गया कि फसल काटो और अपनी जगह से भंडारण करो। किसान समितियों के समक्ष अपने भू-स्वामियों का साक्ष्य प्रस्तुत करने के लिए जोतदारों से कहो। फसल बचाने तथा फसल को पुलिस से बचाने के लिए शस्त्र धारण करो आदि। 1960 के तथा 1970 के दशकों में नक्सलबाड़ी कृषक आंदोलन के दूसरे चरण में गुप्त उग्रवादी दस्ते बनाये गये तथा कृषकों से जोतदारों और बागान श्रमिकों की भूमि पर कब्जा करने को कहा गया जिन्होंने गरीब किसानों से जमीन खरीद ली थी, छीनी गई भूमि को जोतने और सम्पूर्ण प्राप्त फसल पर कब्जा करने को कहा गया, भू-स्वामी से भोजन की मांग और उसके मना करने पर उससे जबरन लेने तथा जोरदार को अग्नेयास्त्रें से उसे वंचित करने को कहा गया। नक्सलबाड़ी क्षेत्रों में 1967 में नक्सलबाड़ी विद्रोह को पुलिस कार्यवाही द्वारा दबा दिया गया, लेकिन अगस्त-सितंबर 1968 में पुनः शुरू हो गया जो 1972 तक चलता रहा।
पश्चिम बंगाल में नक्सलबाड़ी आंदोलन की प्रमुख विशेषताएं थी- एक, कृषकों और श्रमिक वर्ग के हितों की रक्षार्थ गतिशीलता और इसमें सभी नृजातीय (जनजातियों सहित) और जाति समूह सम्मिलित थे, दो, अपनाए गए साधन गैर-संस्थागत और हिंसा को प्रोत्साहित किया जाता था, तीन, नेतृत्व कम्युनिस्ट पार्टी के नेताओं द्वारा प्रदान किया जाता था, चौथे, इसका उद्देश्य था जोतदारों को नीचे की ओर ले जाना तथा बन्धन युक्त सीमांत कृषकों को ऊपर की ओर उठाना। इस प्रकार, गांधीजी के सर्वोदय आंदोलन और नक्सलबाड़ी आंदोलन में यह अंतर यह था कि प्रथम का उद्देश्य सामुदायिक स्वामित्व के साथ जमीन के व्यक्तिगत स्वामित्व को हटाना था जबकि दूसरे का उद्देश्य व्यक्तिगत स्वामित्व था।
इस आंदोलन की असफलता के कारक थे- इसका राष्ट्र विरोधी झुकाव, जैसा कि चीन के प्रति इसके समर्थन से जाहिर होता था। इसका भारतीय राष्ट्रीय नेतृत्व की निन्दा करना तथा चीनी नेतृत्व को अपनी आकांक्षाओं का स्रोत मानना, राज्य सत्ता को हथियाने का इसका घोषित इरादा, हिंसा और वामपंथियों में गुटबाजी का खुला समर्थन। आर.के. मुखर्जी ने इस आंदोलन का विश्लेषण सामाजिक संरचना और सामाजिक परिवर्तन के अर्थ में किया है। उसका तर्क है कि यद्यपि आंदोलन का घोषित इरादा राज्य सत्ता हासिल करना था, परंतु वास्तव में यह आंदोलन व्यवस्था के विरुद्ध नहीं था बल्कि इसकी अतिवादिता के विरुद्ध भू-स्वामी और किसान के बीच वस्तु विनिमय को नियमित करने का उद्देश्य था।
Question : प्रारंभिक-पाश्चात्य प्रभाव के प्रति भारतीय समाज की प्रतिक्रिया
(1998)
Answer : भारतीय सामाजिक संस्थाओं की पश्चिमी संस्कृति ने जितना अधिक प्रभावित किया है उसकी तुलना किसी भी दूसरी संस्कृति से नहीं की जा सकती। पश्चिमी संस्कृति की कुछ ऐसी विशेषताएं हैं भारत के लोगों को अधिक आकर्षित किया। पश्चिमी संस्कृति की यह विशेषताएं हैं- तार्किकता व्यक्ति की स्वतंत्रता का महत्व, समतावादी विचारधारा, मानवीय मूल्यों का महत्व, सामाजिक न्याय तथा भौतिक साधनों में वृद्धि। भारत में जब तक अंग्रेजों का राज्य रहा, हिंदुओं और अंग्रेजों के बीच धार्मिक आधार पर बहुत दूरी बनी रहने के कारण उनकी संस्कृति हमारी सामाजिक संस्थाओं को अधिक प्रभावित नहीं कर सकी। लेकिन स्वतंत्रता के बाद जब भारतीयों ने अपनी सामाजिक संस्थाओं में सुधार करना प्रारंभ किया तो पश्चिमी संस्कृति को अधिक उपयोगी समझा जाने लगा।
सर्वप्रथम, पश्चिमी संस्कृति का प्रभाव हिंदू धर्म एवं कर्मकाण्डों पर पड़ा। ईसाई मिशनरियों ने निम्न जाति के हिंदुओं एवं जनजातियों को विभिन्न रूप से प्रभावित किया। इसी के फलस्वरूप भारत में आर्य समाज, ब्रह्म समाज, रामकृष्ण मिशन जैसे सुधारवादी सम्प्रदायों का जन्म हुआ। पश्चिम के प्रतिक्रिया के फलस्वरूप ही आज भारत एक धर्म निरपेक्ष समाज है। आज प्रत्येक व्यक्ति की स्थिति का निर्धारण उसकी योग्यता और कुशलता के आधार पर किया जाता है।
पश्चिमी संस्कृति के प्रभाव से आज हिंदू विवाह की मान्यताएं जैसे- अंतर्विवाह, बहिर्विवाह, कुलीन विवाह, बाल-विवाह और कन्यादान, तेजी से बदल रहा है। पश्चिमी प्रभाव के फलस्वरूप अंतर्जातीय विवाह, विलम्ब विवाह इत्यादि प्रगतिशील दृष्टिकोण का प्रार्दुभाव हुआ जिसे शिक्षित वर्ग आज आसानी से स्वीकार करते हैं पश्चिम का भी यह प्रभाव है कि संयुक्त परिवार का विघटन हो रहा है एवं साथ ही एकाकी परिवार का निर्माण भी हो रहा है, जिसे समाज का एक वर्ग इसको अपने जीवन में उतारने की कोशिश कर रहा है। साथ ही, स्त्रियों की परिस्थिति में भी परिवर्तन आया है। स्त्रियां आज अधिक-से-अधिक रूप में आत्मनिर्भर बनना चाहती हैं एवं शिक्षा का प्रसार इसकी प्रस्थिति को उच्च बनाने में काफी योगदान किया है।
पश्चिम के प्रभाव के कारण ही भारत में व्याप्त कुप्रथाओं जैसे- सती-प्रथा, बलि-प्रथा, बाल-हत्या, देवदासी प्रथा, और अस्पृश्यता इत्यादि का निराकरण भी समाप्त किया जा चुका है, जो निश्चित रूप से भारत के लिए एक वरदान के समान है। साथ ही इससे जाति-प्रथा के बंधन भी ढीले पड़े है एवं वर्ग की उत्पत्ति हुई है। हरिजनों की दशा सुधारने तथा जातिगत अन्धविश्वासों को दूर करने के लिए आज जितने भी प्रयत्न किये जा रहे हैं, उन पर पश्चिमी संस्कृति की स्पष्ट छाप है।
पश्चिमी संस्कृति के फलस्वरूप ही हमारे समाज में नैतिक मूल्यों, सामूहिकता की विचारधारा एवं प्राथमिक संबंधों में कमी आयी है, शायद भारत जैसे देश के लिए स्वागत योग्य नहीं है। अतः इस प्रकार से हम कह सकते हैं जो कि पश्चिमी संस्कृति के प्रभाव की प्रतिक्रिया का मूल्यांकन सकारात्मक एवं नकारात्मक दोनों रूपों में किया जा सकता है।