Question : धार्मिक कट्टरवाद।
(2005)
Answer : धार्मिक कट्टरवाद एक आंदोलन या आस्था है जो पैराणिक धर्म ग्रंथों या प्रकट धर्म के मौलिक तत्वों की ओर लौटने का आग्रह करता है। बहुधा इसकी धर्म में आधुनिकतावाद और उदारतावाद से तुलना की जाती है। मूलतः इस अवधारणा की प्रकृति धर्मशास्त्रीय है, फिर भी इसका प्रयोग समाज सुधार की योजनाओं को क्रियान्वित करने या राजनीतिक सत्ता को हथियाने के एक हथियार के रूप में किया जाता है। परंतु प्रायोगिक तौर पर इसका प्रयोग वर्तमान समय में धर्म का वास्तविक रूप से कोई लेना-देना नहीं है। तथ्य यह है कि कोइ भी धर्म गलत कार्यों की ओर प्रेरित नहीं करता है, बल्कि सभी धर्मों का संदेश अच्छाई से ही ओत-प्रोत होता है। वास्तव में, धार्मिक कट्टरवाद के अन्तर्गत धर्म के ठेकेदारों ने धर्म का आशय का गलत रूप बना दिया है जिसका प्रयोग निश्चित रूप से राजनीतिक सत्ता को हथियाने या फिर किसी-भी रूप में शासन करना होता है। उदाहरण के तौर पर, मुस्लिम धर्म के अन्तर्गत ‘फतवा’ का अर्थ अच्छे कार्यों के लिए होता है परंतु जिसको जैसा मौका मिला उसका उपयोग उन्होंने अपने तरीके से किया है। हिन्दू धर्म में भी इस तथ्य से इन्कार नहीं किया जा सकता है कि राम जन्मभूमि को लेकर भारतीय जनता पार्टी ने राजनीतिक सत्ता हथियाने का प्रयत्न किया था। विभिन्न विकासशील देशों में ईसाई धर्म के प्रवर्तक भी समाज-सुधार के नाम पर अपने धर्म के प्रचार के साथ धर्मांतरण की प्रवृत्ति भी देखी जा सकती है। निश्चित रूप से इसाई मिशनरी ने बहुत सा काम विकास एवं समाज सुधार के रूप में किया है। परंतु इस तथ्य से इन्कार नहीं किया जा सकता है कि इसके पीछे मूल बात निम्न हिन्दू जाति तथा जनजाति लोगों का धर्म रूपांतरण की आधारभूत भावना रही है। तात्पर्य यह है कि धार्मिक कट्टरवाद एक अच्छी बात हो सकती है अगर इसका उपयोग सही तरीके से समाज सुधार के लिए किये जायें।
Question : भारतीय समाज में परिवर्तन में बाधाएं।
(2005)
Answer : यह सत्य है कि भारतीय समाज परिवर्तित हो रहा है और विकास की कुछ दिशाएं स्पष्ट होती जा रही हैं, फिर भी हमें इस बात से इन्कार नहीं करना चाहिए कि हम सभी लक्ष्यों की प्राप्ति में सफल नहीं हो पाए हैं, जो हम चाहते थे। वास्तव में, इसके पीछे मूल कारण भारतीयसमाज में उपस्थित कुछ समस्याएं जो परिवर्तन में बाधायें उत्पन्न करती हैं, उत्तरदायी ही हैं। इस सम्बन्ध में निम्न कारकों का विश्लेषण आवश्यक हैः
अतः इस प्रकार से देखते हैं कि भारतीय समाज में प्रचलित प्रथाएं एवं परम्परायें सामाजिक परिवर्तन में बाधक रही है जो विकास के राह में रूकावट पैदा करती है।
Question : भारतीय समाज पर जनसंचार माध्यमों और शिक्षा के प्रभाव पर विस्तार से चर्चा कीजिए।
(2004)
Answer : किसी समाज पर जनसंचार के माध्यमों के अंतर्गत हम मुख्यतः प्रिंट एवं विजुअल जनसंचार माध्यमों की बात करते हैं। जनसंचार के ये साधन विशेष रूप से अखबार, फिल्म, रेडियो, टी.वी. एक साथ विश्वव्यापी श्रोताओं को संदेश पहुंचाते हैं। इन साधनों ने सभी सीमाओं को समाप्त कर दिया है, जैसे- भारतीय नेशनल नेटवर्क पर प्रसारित होने वाले धारावाहिक जैसे- महाभारत, रामायण तथा वर्तमान में प्रसारित हो रहा धारावाहिक ‘शक्तिमान’ एवं ‘क्योंकि सास भी कभी बहु थी’का भारतीय जनमानस पर गहरा प्रभाव पड़ा है। वास्तव में, भारतीय समाज पर जनसंचार माध्यमों का वर्तमान समय में सकारात्मक एवं नकारात्मक दोनों रूप से प्रभाव पड़ा है परंतु इससे भी नकारा नहीं जा सकता है कि ये जनसंचार माध्यम सामाजिक परिवर्तन का एक सशक्त माध्यम है।
भारतीय समाज पर जनसंचार माध्यमों का प्रभाव का आकलन करने के लिए हमें समाज को मूल रूप से ग्रामीण एवं शहरी क्षेत्रों के आधार पर देखा जाना जरूरी है। जैसा कि हम जानते हैं कि भारत गांवों का देश है जहां पर भारत की आबादी का लगभग 72% लोग निवास करते हैं परंतु ग्रामीण क्षेत्रों में विविधता एवं भिन्नता देखने को मिलती है जो अमीरी एवं गरीबी पर आधारित है फिर भी रोडियो का प्रभाव हमें ग्रामीण क्षेत्रों में अत्यधित देखने को मिलता है। ग्रामीण क्षेत्रों में रेडियो एक सशक्त माध्यम के रूप में निश्चित रूप से हमेशा से सकारात्मक प्रभाव पड़ा है। रेडियो की यह विशेषता रही है कि ये हमेशा से रोचकपूर्ण एवं ज्ञानवर्धक ज्ञान उपलब्ध कराते रहे हैं जिससे ग्रामीण लोगों को सभी प्रकार की राजनीतिक, सांस्कृतिक, शैक्षिक, सामाजिक एवं स्वास्थ्य रूपी जानकारी मिलती रही है साथ ही रोडियो कृषि आधारित विभिन्न प्रकार के ज्ञानवर्धक विषय-वस्तु उपलब्ध कराते रहा है। ये सभी तथ्य ये स्पष्ट करते हैं रेडियो का प्रभाव ग्रामीण जनता पर, जीवन के प्रत्येक पहलुओं पर व चेतना का विकास करने पर विशेष बल देता है।
दूसरी ओर, ग्रामीण क्षेत्रों में समाचार पत्र एवं टेलीविजन का उपयोग सीमित रूप में पाया जाता है। यह एक स्वाभाविक तथ्य है कि गांव शहरों से कटा हुआ रहता है एवं कुछ तो रिमोट क्षेत्रों से जुड़ा हुआ होता है, जहां पर समाचार पत्र एवं टेलीविजन जैसे जनसंचार माध्यम का पहुंचाना शायद मुश्किल है। फिर भी आज लगभग 40-50 प्रतिशत ग्रामीण क्षेत्रों में इन दोनों माध्यमों का उपयोग देखा जा सकता है। इस इलाके में मुख्यतः शहरों से नजदीक एवं बिजली की उपलब्धता के कारण टेलीविजन का उपयोग देखने को मिलता है। यह भी तथ्य है कि अगर किसी गांव में एक या दो भी टेलीविजन हो तो वह सारे गांव को मार्गदर्शन एवं मनोरंजन करने का काम करता है। इसका मतलब है कि गांव एक homogeneous सरंचना होने का कारण अधिक-से-अधिक व्यक्ति इसका लाभ उठा सकते हैं। उदाहरण के तौर पर अगर हम रामायण एवं महाभारत जैसे धारावाहिक की बात करें तो हमें यह स्वीकार करना पड़ेगा कि गांव के अधिकतर व्यक्तियों के लिए एक दैनिक चर्चा बन गयी थी एवं जिसे देखना अनिवार्य समझा जाता था। अतः हम यह कह सकते हैं कि ग्रामीण क्षेत्रों में इन माध्यमों का हमेशा से सकारात्मक प्रभाव पड़ा है तथा ज्ञानवर्धक एवं मनोरंजक जानकारी के साथ ग्रामवासियों का मार्गदर्शन में अभिन्न भूमिका का निर्वाह कर सामाजिक परिवर्तन एवं प्रत्येक स्तर पर चेतना को जागृत कर सहयोग दिया है।
शहरी एवं नगरों में अगर हम जनसंचार माध्यमों में भूमिका का आकलन विभिन्न पहलुओं का ध्यान रखकर करें तो यह पता चलता है कि इसका प्रभाव सकारात्मक एवं नकारात्मक दोनों रूपों में देखने को मिलता है। शहरों में भी जनसंचार के सभी माध्यम एवं वृहत स्तर पर उपलब्ध हैं। ग्रामीण क्षेत्रों के जैसा ही शहरी क्षेत्रों में भी जनसंचार माध्यम का प्रभाव सकारात्मक रूप में पड़ा है परंतु शहरी एवं नगरीय क्षेत्रों में सकारात्मक के साथ नकारात्मक प्रभाव भी देखने को मिलता है।
नकारात्मक प्रभावों का आकलन हमें मुख्यतः टेलीविजन के क्षेत्रों में देखने को मिलता है। आधुनिकता के प्रभाव से आज टेलीविजन के क्षेत्र में विभिन्न प्रकार के चैनल उपलब्ध हैं जो कुछ तो ज्ञानवर्धक एवं मनोरंजक भी है, परंतु कुछ विदेशी चैनल हमारे समाज में उपभोक्तावादी संस्कृति को जन्म देने का भी काम किया है। आज एम.टी.वी. चैनल जैसी संस्कृति का जन्म नगरीय क्षेत्रों में दिया जा रहा है। इसप्रकार की संस्कृति ने समाज को विभिन्न स्तरों में बांटकर वर्गों में विभाजित कर दिया है। यह उपभोक्तावादी संस्कृति उच्च वर्ग के लिए तो हानिकारक नहीं है परंतु मध्य एवं निम्न वर्गों द्वारा अंधानुकरण करने के फलस्वरूप विभिन्न प्रकार की समस्याओं को जन्म दे रहा है। आज प्रत्येक वर्ग के लिए अनुकरण अपने ही उच्च वर्ग का करने में लगा हुआ है। यह अच्छी बात है कि लोग विचार, शिक्षा इत्यादि का अनुकरण करे परंतु जीवन विधि एवं उपभोक्तावादी संस्कृति के अंधानुकरण के लाभ से अधिक हानि ही देखने को मिलती है। उदाहरण के तौर पर हम कहें कि एक मध्यम वर्ग का एक लड़का जिसके पास बहुत सी वस्तुओं को खरीदने के लिए पैसा नहीं है परंतु टेलीविजन द्वारा थोपी हुई संस्कृति उसे यह सब करने के लिए प्रोत्साहित करती है जिससे वह लड़का गलत कामों को करने के प्रेरित होता है जो निश्चित रूप से समाज के लिए हानिकारक है। यही बात लड़कियों एवं स्त्रियों के लिए देखने को मिलती है। ये तथ्य हमें मुख्यतः महानगरों में देखने को मिलती है। अतः इस प्रकार से यह समाज को विभिन्न वर्गों में विभाजित कर देता है।
अतः इस प्रकार से हम देखते हैं कि जनंसचार माध्यम दोनों रूप से सकारात्मक एवं नकारात्मक में अपना प्रभाव डालता है फिर भी हमें यह स्वीकार करना ही चाहिए कि इन माध्यमों ने समाज में एक क्रांति का सूत्रपात कर निश्चित दिशा देने का अग्रगामी कार्य किया है। इसे सामाजिक परिवर्तन के एक सशक्त माध्यम के रूप में देखा जाना स्वाभाविक है।
भारतीय समाज में शिक्षा का प्रभाव निश्चित रूप से एक शक्तिशाली माध्यम के रूप में उभरकर हमारे सामने आया है। शिक्षा के प्रभावों का आकलन हम मुख्यतः सामाजिक परिवर्तन एवं आधुनिकीकरण के अंतर्गत कर सकते हैं। साथ ही, शिक्षा को समाजीकरण के एक प्रमुख एजेंसी के रूप में तथा शिक्षकों तथा शैक्षिक संस्थाओं को एजेंट के रूप में स्वीकार किया गया है। शिक्षा को सामाजिक परिवर्तन के एक साधन के रूप में बताने में तीन कारक महत्वपूर्ण हैं- परिवर्तन का एजेंट, परिवर्तन की विषय वस्तु और उन लोगों की सामाजिक पृष्ठभूमि जिनका परिवर्तन किया जाना है, अर्थात् छात्र। विभिन्न समूहों के नियंत्रण वाली शिक्षण संस्थाएं उन समूहों के मूल्यों को प्रदर्शित करती हैं जो उन संस्थाओं का प्रबंध एवं समर्थन करते हैं। ऐसी स्थिति में शिक्षक भी बच्चों में विशेष मूल्य, आकांक्षाएं और अभिरुचियां पैदा करते हैं।
शिक्षा के फलस्वरूप ही 1960 और 1970 के दशकों में आधुनिकीकरण के मूल्यों को फैलाने में बल मिला है। अत्यधिक उत्पादक अर्थ व्यवस्था, वितरणशील न्याय, निर्णय करने वाली संस्थाओं में लोगों की भागीदारी, उद्योगों, कृषि तथा अन्य व्यवसायों और पेशों में वैज्ञानिक प्रोद्योगिकी का वरण आदि भारतीय समाज को आधुनिक बनाने के उद्देश्यों के रूप में स्वीकार किये जाने लगे हैं। आधुनिकीकरण न सिर्फ आर्थिक क्षेत्र तक ही सीमित नहीं रहा बल्कि सामाजिक, राजनैतिक, सांस्कृतिक तथा धार्मिक क्षेत्र में भी पर्याप्त प्रभाव डाला है। अनेक समाजशास्त्रियों ने सामाजिक पुनर्गठन और आधुनिकीकरण के लिए शिक्षा को एक साधन के रूप में मानने के विषय पर ध्यान दिया है।
के. अहमद ने कहा है कि यद्यपि औपचारिक शिक्षा लोगों की अभिरुचियों और मूल्यों में ज्ञान के परिवर्तन के माध्यम से वैचारिक परिवर्तन करने में महत्वपूर्ण भूमिका अदा कर सकती है, फिर भी समाज में संरचनात्मक परिवर्तन लाने में इसका प्रभाव सीमित ही है। सुमा चिटनिस ने भी विकास के साधन के रूप में शिक्षा की अनियमित कार्यप्रणाली की ओर संकेत किया है। ए-आर- देसाई ने सामाजिक परिवर्तन के साधन के रूप में शिक्षा की मान्यता पर प्रश्न चिन्ह लगाया है। एम.एस. गोरे ने शिक्षा की विधियों और विषय वस्तु में, उस वातावरण और प्रसंग में जिनमें इसका संचालन हो रहा है और शिक्षकों तथा प्रशासकों की उन आस्थाओं और प्रतिबद्धताओं में, जो वांछित विकास को प्राप्त करने में शिक्षा की प्रभाविता के लिए शिक्षा के प्रबंध के लिए उत्तरदायी हैं, परिवर्तन लाने की आवश्यकता की ओर संकेत किया है।
शिक्षा और आधुनिकीकरण के बीच संबंधों पर भारत में कुछ अनुभवात्मक अध्ययन किए गए हैं। ऐसा एक अध्ययन दिल्ली में एन.सी.ई.आर.टी. (NCERT) द्वारा आठ राज्यों में किया गया था। इन अध्ययनों में वर्णन किया गया है कि किस सीमा तक देश में स्कूलों और कालेजों के छात्रों और शिक्षकों की अभिरुचियों, आकांक्षाओं तथा दृष्टिकोणों में आधुनिकता आयी है। योगेन्द्र सिंह ने राजस्थान विश्वविद्यालय के कालेज शिक्षकों के आधुनिकीकरण के प्रति अभिरुचियों और मूल्यों के संदर्भ में उनके दृष्टिकोण का अध्ययन किया।
अतः उपरोक्त वर्णन यह स्पष्ट करता है कि किस प्रकार शिक्षा एक सशक्त माध्यम एवं एजेंसी के रूप में भारतीय समाज के प्रत्येक पहलुओं को प्रत्यक्ष एवं परोक्ष रूप से प्रभावित किया है। फिर भी विभिन्न समाजशास्त्रियों ने यह स्पष्ट किया है कि इसे ओर अधि्ाक उपयोगी एवं व्यक्तियों के पहुंच के अंतर्गत बनाने की आवश्यकता है।
Question : महिलाओं पर अत्याचारों की सविस्तार चर्चा कीजिए और उनके लिए सर्वनाशी उपाय सुझाइए।
(2004)
Answer : महिलाओं पर अत्याचारों का वर्णन हम मुख्यतः महिलाओं के प्रति हिंसा एवं उससे संबंधित तथ्यों के अंतर्गत करते हैं। महिलाओं पर अत्याचार को इस प्रकार वर्गीकृत किया जा सकता है- आपराधिक हिंसा (बलात्कार, अपहरण, हत्या), घरेलू हिंसा (दहेज हत्या, पत्नी की पिटाई, नातेदारों द्वारा शोषण, विधवाओं और वृद्ध स्त्रियों से दुर्व्यवहार, बहू को यातना) और सामाजिक हिंसा (पत्नी या बहु को कन्या भ्रूण हत्या के लिए बाध्य करना, छेड़छाड़, युवा विधवा को ‘सती’ होने के लिए बाध्य करना, स्त्री को संपत्ति में से हिस्सा देने से इन्कार करना)।
महिलाओं के प्रति अत्याचार का मूल कारण उनका महिला होना ही है। तभी तो भ्रूण हत्या हमेशा सुनी जाती है, किंतु नर भ्रूण हत्या की बात शायद ही सुनी जाती है। महिलाओं के प्रति अत्याचारों का वर्णन हम इन बिंदुओं के अंतर्गत कर सकते हैं-
उपायः महिलाओं पर अत्याचार को रोकने के लिए निम्नांकित उपाय किये जा सकते हैं-
Question : निर्बल वर्गों की शैक्षिक समस्याएं।
(2003)
Answer : निर्बल वर्गों के अंतर्गत मुख्यतः महिलाएं, अनुसूचित जातियां, अनुसूचित जनजातियां एवं पिछड़े वर्ग आते हैं। इन वर्गों में शैक्षणिक समस्याएं मुख्य रूप से भेद-भाव की नीति एवं सामाजिक-आर्थिक पृष्ठभूमि रही है। एम-एस- गोरे के आठ राज्यों के अध्ययन के आधार पर यह पाया कि महिलाओं के शैक्षिक अवसरों में भेदभाव लिंग के आधार पर सर्वाधिक था। मोटे तौर पर लड़कियों ने शिक्षा में बहुत प्रगति की है और आज विश्वविद्यालयों के कई विभागों संभागों में लड़कियां, लड़कों की अपेक्षा अधिक दिखायी देती हैं। परंतु लड़कियों की यह शिक्षा व्यवस्था वास्तव में शहरों तक ही सीमित है न कि ग्रामीण क्षेत्रों में। वास्तव में ग्रामीण आवास, निम्न जाति और निम्न आर्थिक स्तर निश्चित रूप से लड़कियों को शिक्षा के अवसरों से वंचित कर देते हैं। इसके अतिरिक्त ग्रामीण लोगों की परंपरावादी सोच जो महिलाओं को घर-गृहस्थी तक सीमित कर देती है। ये सभी समस्याएं जैवकीय एवं सामाजिक महिलाओं के लिए शिक्षा के अवसरों से लाभांवित होने में रूकावट पैदा करती हैं।
अनुसूचित जातियों, जनजातियों एवं अन्य पिछड़े वर्गों की शिक्षा से संबंधित बहुत सी समस्याएं हैं। ये कमजोर वर्ग के लोग हमेशा से अधिक शोषण, पीड़ा, सामाजिक पिछड़ेपन और अवमानना के शिकार रहे हैं। कम विशेषाधिकार प्राप्त समूहों और आम जनता की समस्याएं परिमाणात्मक एवं गुणात्मक दोनों रूपों में भिन्न हैं। इसके अतिरिक्त इन कमजोर वर्ग के बच्चे विभिन्न कारणों से अपनी पढ़ाई बीच में ही छोड़ देते हैं। सरकार द्वारा दिया गया आरक्षण पद्धति का सही तरह उपयोग नहीं किया जाता है। कुछ जनजातीय क्षेत्रों में स्कूल दूर स्थानों पर स्थित है और स्कूल पहुंचने में बच्चों को कठिनाई होती है। इसी प्रकार हॉस्टल की सुविधाएं भी अपर्याप्त रूप से उपलब्ध हैं। शिक्षकों की समस्या भी बहुत ही जटिल है। इसके अतिरिक्त शिक्षण माध्यम की भी समस्या हमेशा देखने को मिलती है। कई जनजातियों में पुत्रियों का छोटी आयु में विवाह और बहुओं को अध्ययन के लिए जाने की अनुमति न मिलना शिक्षा प्राप्त करने में अवरोध बन जाता है। उनमें यह भावना भी है कि शिक्षित जनजातीय युवा जीवन के पारंपरिक मूल्यों तथा प्रतिमानों का सम्मान नहीं करते।
Question : जनजातीय नीति की पृथक्तावादी अवधारणा।
(2003)
Answer : जनजातीय समाज में जहां तक अवधारणा की बात है तो यह मुख्यतः भौगोलिक एवं सामाजिक सांस्कृतिक एकाकीपन है। भौगोलिक पृथक्तावादी अवधारणा के आधार के विषय में यह कहा जाता है कि जनजाति के लोग भौगोलिक दृष्टि से अलग-अलग भू-भागों, जैसे पहाड़, जंगल आदि में रहते हैं लेकिन जातिवादी हिन्दू मैदानों में रहते हैं। सभ्य पड़ोसियों से अलग तथा उनसे कम संपर्क के कारण वे हिन्दुओं की तुलना में कम सभ्य हैं। यद्यपि यह सत्य है कि एक समय वे संचार साधनों से दूर रहते थे लेकिन तब बहुत से हिन्दू भी अलग-अलग क्षेत्रों में रहते थे, जबकि कई जनजातियां मैदानों में रहती थीं। आज के युग में कोई भी समूह एकाकी नहीं रहता।
सांस्कृतिक पृथक्तावादी वास्तव में जनजातियों को अपना एक स्वतंत्र सांस्कृतिक अस्तित्व होता है। विभिन्न जनजातीय संगठनों के तहत ये लोग धर्म, भाषा एवं लिंग का व्यवहारों एवं कार्यों का नियंत्रण होता है। जनजातीय समाज में पृथक धर्म हेाता है जो मुख्यतः टोटमवाद एवं आत्मवाद पर आधारित होता है। जबकि एक जनजाति की भाषा अन्य से भिन्न होती है। अतः सांस्कृतिक आधार पर ये जनजातियां, दूसरे जनजाति एवं हिन्दु जाति एवं समूह से काफी पृथक होती हैं। साथ ही, ये जनजातियां किसी संस्कृति एवं सभ्यता के साथ सामंजस्य को पसंद नहीं करतीं क्योंकि ये एक अपना अस्तित्व एवं Identity को कायम रखना चाहती हैं। फिर भी वर्तमान समय में एकीकरण एवं सामंजस्य की प्रक्रिया ने जनजातियों के पृथक्तावादी प्रवृत्ति को प्रभावित किया है। आधुनिक शिक्षा का प्रसार, सरकारी नीति एवं नगरीकरण के फलस्वरूप जनजातीय नीति की पृथक्तावादी प्रवृत्ति का बहुत परिवर्तन देखने को मिलता है।
Question : विवाहित महिलाओं पर अत्याचारों की प्रकृति।
(2002)
Answer : विवाहित महिलाओं पर अत्याचारों की प्रकृति मूलतः हम आंतरिक एवं बाहरी के सापेक्ष ले सकते हैं। विवाहित महिला अपने पैतृक घर को छोड़कर एक नये घर में प्रवेश करते है जिसके कारण उसे वहां की सारी परिस्थितियों के साथ सामंजस्य बिठाना पड़ता है। जहां तक अत्याचारों की प्रकृति का सवाल है, यह दहेज प्रथा से शुरू होता है। दहेज प्रथा के फलस्वरूप महिलाओं को अपने ससुराल में बहुत सी समस्याओं का सामना करना पड़ता है। हम आये दिन दैनिक समाचार पत्रों में यह पढ़ते हैं कि अमुक महिला की दहेज की ज्यादा मांग के फलस्वरूप हत्या कर दी गयी। इसके अतिरिक्त हमें ये भी स्वीकार करना पड़ेगा कि वर्तमान समय में परिवार हिंसा की बारंबारता में वृद्धि हुई है। वास्तव में महिलाओं को हर एक क्षेत्र में सामना करना पड़ता है। परिवार हिंसा के अंतर्गत पति, सास एवं पुनः परिवार के दूसरे सदस्य के साथ आज सामान्य घटना हो गयी है। हाल ही में एक घटना सामने आयी कि दिल्ली में एक स्त्री द्वारा अपने पति की लंबी आयु के लिए करवा चौथ व्रत रखा परंतु उसके पति ने उसकी उसी दिन पीट-पीटकर हत्या कर दी। यह अमानवीय घटना हमें हमेशा देखने को मिलती है।
दूसरी ओर, जो विवाहित महिलाएं घर से बाहर काम करती है उसे घर एवं बाहर दोनों की परिस्थितियों से सामना करना पड़ता है। यह अक्सर देखा जाता है काम के स्थानों में महिलाओं के साथ छेड़-छाड़ एवं छींटाकशी जैसी घटनाएं घटित होती रहती है। साथ ही महिलाओं के साथ बस पर, रास्ते में कहीं भी कोई घटना हो सकती है। अतः इस प्रकार की सामाजिक दिमाग के Set-up को बहुत ही गहराई से समझने की आवश्यकता है।
सच तो यह है कि इस आधुनिकीकरण के युग में व्यक्तिवादी प्रवृति बढ़ी है जिसके फलस्वरूप महिलाओं पर अत्याचारों की समस्या और भी जटिल होती जा रही है। साथ ही, सभी क्रियाओं के बाजारीकरण के फलस्वरूप भी इसकी बारंबारता में वृद्धि हुई है। अतः वर्तमान समय में महिलाओं पर अत्याचारों की प्रकृति जागरुकता के बावजूद भी वृद्धि हुई है।
Question : भारत में बाल श्रम की समस्याएं।
(2002)
Answer : बालश्रम की समस्या बहुत गहराई तक जड़ें जमा चुकी हैं। यह समस्या वास्तव में गरीबी, बीमारी व कुपोषण के कारण उत्पन्न होती है। बाल श्रम पर गठित विश्व श्रम संगठन की विशेषज्ञ समिति का कहना है कि 10 से 14 वर्ष की आयु वाले लगभग 25 प्रतिशत बच्चे विभिन्न क्षेत्रों में काम कर रहे हैं। अधिकांश बच्चों से गैरकानूनी रूप से काम लिया जाता है, वे शिक्षा से वंचित हैं तथा जीवन पर्यन्त गरीबी में गुजारा करते हैं। बालश्रम दुनिया में बच्चों के शोषण व दुरुपयोग का सबसे प्रमुख स्रोत है। बालश्रम एक सामाजिक आर्थिक समस्या है।
भारत में बालश्रम को गैरकानूनी नहीं माना जाता। यद्यपि वैधानिक रूप से कुछ कारखानों में बच्चों के काम करने पर प्रतिबंध लगा है, फिर भी कृषि सेवाओं तथा कुटीर उद्योगों में उन्हें काम करने की छूट है। इनमें कार्यदशाएं प्रायः कारखानों से भी खराब होती है। बच्चों को विविध तरह के कामों में लगाया जाता है। यह न केवल शहरों में बल्कि देहातों में भी जहां परिवार आर्थिक तंत्र का आधार है। एक बड़ी संख्या में बच्चे असीमित क्षेत्रों में काम करते हैं। बहुत से बच्चे भीख मांगने में लगे रहते हैं तथा वे बंधुवा मजदूर के रूप में काम करते हैं। माता-पिता साहूकारों से कर्ज लेते हैं तथा अपने बच्चों को जमानत के रूप में सौंप देते हैं। प्रायः बहुत कम पैसे में बालिकाओं को बेच दिया जाता है तथा उन्हें वेश्यावृत्ति के धंधे में लगाया जाता है।
वास्तविक रूप में भारत में सर्वाधिक बाल श्रमिक हैं। यह देखा गया है कि बाल श्रम केंद्र के अंतर्गत बच्चों का बुरी तरह शोषण होता है। कारखानों के तंग, अस्वास्थ्यकर तथा असुरक्षित वातावरण में बच्चों को काम करने हेतु मजबूर किया है। शिवकाशी सबसे ज्वलंत उदाहरण है, जहां लगभग 50,000 बच्चे पटाखों के कारखानो में काम करते हैं। इनमें से लगभग आधे बच्चे हर वक्त जान पर खेल कर कार्य करते हैं। फिरोजाबाद (उत्तर प्रदेश) के कांच के कारखानों में बल्ब, जार, झाड़-फाड़नूस, चूडि़यां इत्यादि का निर्माण होता है। इन कारखानों में लगभग 50,000 बच्चे 1400 डिग्री सेल्शियस तापमान वाली भट्टी के नजदीक नंगे पांव काम करते हैं। इस प्रकार के उदाहरण भरे पड़े हैं। अतः इस प्रकार से हम कह सकते हैं कि भारत में बाल श्रम की समस्या एक ज्वलंत समस्या है।
Question : मद्यपान एवं नशीले पदार्थ व्यसन के सामाजिक परिणाम
(2001)
Answer : मद्यपान एवं नशीले पदार्थ व्यवसन के सामाजिक परिणाम का हम निम्नांकित बिंदुओं के आधार पर वर्णन कर सकते हैं:
यह सत्य है कि नशीली दवाओं का दुष्प्रयोग से न केवल सामाजिक दुष्प्रभाव पड़ता है बल्कि ये आर्थिक, शारीरिक एवं मानसिक परिस्थितियों को जन्म देते हैं।
Question : भारत में शैक्षिक असमानताएं।
(2000)
Answer : यद्यपि यह एक तथ्य है कि सभी मनुष्य योग्यता और दक्षता में समान नहीं है और ऐसे समाज की कल्पना करना भी अविवेकपूर्ण और आदर्शहीन होगा जो अपने सभी सदस्यों को एक समान स्थिति और लाभ प्रदान कर सके, फिर भी उनके उद्देश्यों और आकांक्षाओं की प्राप्ति के लिए सभी लोगों को समान अवसर प्रदान करना आवश्यक है।
भारत में शैक्षिक असमानता को 1967 में आठ राज्यों में किये गये एक अनुभावात्मक अध्ययन के आधार पर प्राप्त निष्कर्षों से देखा जा सकता है, जो कि विभिन्न स्तरों पर हाई स्कूलों, कॉलेजों और व्यावसायिक संस्थाओं में अध्ययनरत छात्रों की सामाजिक पृष्ठभूमि (आयु, लिंग, जाति, पिता का व्यवसाय, पिता की शिक्षा आदि) पर आधारित था। इस अध्ययन में दो संभावित विचारणीय तथ्य उजागर किए- (1) शिक्षा स्वेतवसन समूह में प्राथमिकता प्राप्त होती है और इस समूह के बालक शिक्षा सुविधाओं का उपयोग अन्य समूहों के बालकों से अधिक करते हैं। (2) उन लोगों को जो श्वेतवसन समूह के नहीं हैं, शिक्षा विभेदों से उपलब्ध हैं।
शिक्षा में असमानताओं के वर्णनों पर कुछ अध्ययन किये गये हैं, जैसा कि क्षेत्रीय, ग्रामीण-नगरीय, लिंग और जातिगत असमानताओं, स्कूलों और कॉलेजों में प्रवेश में असंतुलनों औरअसमानताओं के परिणामों से सिद्ध होता है। इन सभी अध्ययनों ने लाभों से वंचित लोगों के स्तर और पहचान पर शिक्षा के प्रभाव को इंगित किया है। अनुसूचित जातियों और जनजातियों पर किये गये अध्ययनों से संकेत मिलता है कि जब तक ये लोग शैक्षिक रूप से पिछड़े रहेंगे तब तक उन्हें आर्थिक मदद या उच्च शिक्षण संस्थानों में आरक्षित प्रवेश के रूप में भेदभाव प्रदान करना है। इस प्रकार का एक अध्ययन आई.पी. देसाई के निर्देशन में 1974 में भारतीय सामाजिक विज्ञान अनुसंधान परिषद द्वारा प्रायोजित किया गया था। इस अध्ययन में 14 राज्य शामिल थे और इसका उद्देश्य था देश में अनुसूचित जातियों और जनजातियों के स्कूल और कॉलेज के छात्रों की स्थिति और उनकी समस्याओं का अध्ययन। इस अध्ययन में यह संकेत मिला कि दलित छात्र अध्ययन के प्रति उदासीन होते हैं और अशिक्षा असमानता में वृद्धि करती है तथा व्यवसायिक व सामाजिक गतिशीलता को रोकती है। विक्टर डिसूजा ने पंजाब में दलितों और अन्य के बीच शिक्षा में भेदभाव के स्वरूप और जाति प्रथा, जाति व्यवहार, आर्थिक कारक और कल्याण कार्यक्रमों का स्वरूप और कार्यविधि किस प्रकार इन स्वरूपों को प्रभावित करते हैं, का पता लगाया। वी-पी- साह ने गुजरात में शिक्षा और अस्पृश्यता के बीच संबंध को इंगित किया है।
इसी प्रकार स्त्रियों की शिक्षा पर भी अध्ययन हुए हैं। यह अध्ययन करुणा-चनाना तथा अन्य लोगों द्वारा किया गया जिसमें उन्होंने विकासशील समाज में स्त्रियों की भूमिका में शिक्षा के महत्व को दर्शाया है। बेकर ने महिला छात्राओं की आकांक्षाओं का शैक्षिक सुविधाओं के उपयोग में उनके सामने आने वाली समस्याओं के समझने की दृष्टि से अध्ययन किया। सुमा चिटनिस ने मुंबई में मुस्लिम छात्राओं पर सह-शिक्षा के प्रभाव का अध्ययन किया है। ये सब अध्ययन असमानताओं के प्रभाव और परिवर्तन की आवश्यकताओं को दर्शाते हैं।
Question : वेश्यावृत्ति के सामाजिक सहसंबंधक।
(2000)
Answer : वेश्यावृत्ति एक ऐसी सामाजिक समस्या है जो समाज को अंदर-ही-अंदर खोखला करते जा रही है। वर्तमान समय में वेश्यावृत्ति भारत के हर एक शहरों में देखने को मिल जाता है। साथ ही आज शिक्षित वर्ग, समाजसेवी संस्थाएं एवं सरकार के बीच वेश्यावृत्ति को कानूनी मान्यता प्रदान करने की एक बहस सी चल पड़ी है।
सवाल उठता है वेश्यावृति के क्या-क्या सामाजिक सहसंबंधकहै? उत्तर के रूप में यह कहा जा सकता है वेश्यावृत्ति का मूल समाज की लोगों की प्रवृत्ति, गरीबी एवं साथ ही विवशता हो सकती है। परंतु आज के आधुनिक समाज में मध्यम एवं उच्च मध्यम स्तर के महिलाओं के बीच अंधाधुन उपभोक्तावादी संस्कृतिके अपनाने के फलस्वरूप भी वेश्यावृत्ति को बढ़ावा मिल रहा है। दिपांकर गुप्ता के प्रयोग किया हुआ शब्द ‘Westoxicated’ इस तथ्य को व्याख्या करने में प्रयुक्त हो सकता है। साथ ही आज के विदेशी टेलीविजन चैनलों ने भी उपभोक्तावादी प्रवृत्ति को बढ़ावा दिया है। आज की महिलायें इतनी अधिक महात्वाकांक्षी हो गयी है कि वे पैसे एवं पश्चिमी सुख-सुविधा के लिए कुछ भी करने को तैयार हैं जिसका अंतिम दस्तक वेश्यावृत्ति की ओर जाता है। इसके अतिरिक्त गरीबी एवं विवशत भी एक कारण है जिसके फलस्वरूप ग्रामीण महिलायें वेश्यावृत्ति की ओर प्रवृत्त होती हैं। इसके दूसरे पक्ष यह भी है कि गांव की सीधी-साधी महिलायें कुछ स्वार्थी तत्वों के द्वारा रोजगार के बहाने से लाकर इस व्यवसाय की ओर प्रवृत करा देते हैं। इसके अतिरिक्त पारिवारिक विवशता के कारण भी इस व्यवसाय को स्वीकार करना पड़ता है। परंतु इस तथ्य से भी इंकार नहीं किया जा सकता है कि आज के शिक्षित वर्ग के लोग भी इस व्यवसाय में धड़ल्ले से पदापर्ण कर रहे है जिसकी हमें विभिन्न पत्रिकाओं एवं समाचार पत्रों के द्वारा जानकारी मिलती है।
Question : संपूर्ण साक्षरता अभियान।
(1999)
Answer : भारत में बढ़ती अशिक्षा की समस्या का समाधान करने के लिए एक प्रोद्योगिक मिशन 5 मई, 1988 को शुरू किया गया, जिसे राष्ट्रीय साक्षरता मिशन कहते हैं। इसका महत्वपूर्ण उद्देश्य 1995 तक 15-35 वर्ष के बीच के आयु के 80 मिलियन लोगों को प्रकार्यात्मक साक्षरता प्रदान की जाय। इस उद्देश्य की प्राप्ति के लिए बहुत से प्रभावी कार्यक्रम चलाये गये एवं बहुत से संगठनों के माध्यम से सम्पूर्ण साक्षरता अभियान चलाये गये। माध्यम के रूप में प्रमुख संगठन थे- गुजरात विद्यापीठ, भारत ज्ञान विज्ञान समिति, गांधीवादी एवं सर्वोदय संगठन इत्यादि। इस अभियान के सफल बनाने हेतु अक्टूबर-नवंबर 1990 में दो जथ्थाओं की मदद से साक्षरता के लिए राष्ट्रीय स्तर पर अभियान छेड़ा गया।
26 जनवरी, 1989 में इस दिशा में एक महत्वपूर्ण विकास हुआ, जब केरल के अरणाकुलम जिला में सम्पूर्ण साक्षरता प्राप्ति हेतु एक चेतनापूर्ण अभियान छेड़ा गया। यह अभियान केरला शास्त्र साहित्य परिषद के द्वारा जिला प्रशासन एवं विभिन्न स्वयंसेवी संस्थाओं की मदद से चलाया गया एवं इसी सहयोग के फलस्वरूप 4 फरवरी, 1990 को संपूर्ण जिला को पूर्ण साक्षर जिला घोषित किया गया जो भारतीय इतिहास में यह शिक्षा के क्षेत्र में पहली उपलब्धि थी। इस प्रयोग को बाद में पांडिचेरी, गोवा, पश्चिम बंगाल के मिदनापोर एवं वर्धमान, कर्नाटक में बीजापुर एवं दक्षिण कन्नड़ जिले में भी चलाया गया। उसके बाद आंध्र प्रदेश, बिहार, गुजरात, हरियाणा, हिमाचल प्रदेश, कर्नाटक, महाराष्ट्र, मध्य प्रदेश, उड़ीसा, पंजाब, राजस्थान, तमिलनाडु, उत्तर प्रदेश एवं पश्चिम बंगाल में 88 पूर्ण साक्षरता अभियान प्रोजेक्ट की शुरुआत करीब 139 जिलों में की गयी। केरल एवं पांडिचेरी के अलावा, पश्चिम बंगाल के वर्धमान, मिदनापुर, हुगली, कर्नाटक के दक्षिण कन्नड, महाराष्ट्र के वर्धा एवं सिन्धुदुर्ग एवं गुजरात के गांधी नगर को पूर्णतया साक्षर घोषित किया गया। इस प्रकार से हम देखते हैं कि इस अभियान की सफलता अविस्मरणीय है। इस अभियान की आधारभूत विशेषताएं निम्न हैं-
Question : दहेज, एक सामाजिक समस्या के रूप में।
(1999)
Answer : दहेज एक ऐसी सामाजिक समस्या है जो पूरे समाज को खोखला करते जा रहा है। दहेज वस्तुतः वह राशि या संपत्ति होती है जो वर पक्ष द्वारा वधु पक्ष से डिमांड की जाती है। सर्वप्रथम यह हिंदू समाज तक ही सीमित है परंतु वर्तमान समय में यह मुस्लिम, ईसाई एवं अन्य प्रकार के समाजों में भी प्रचलन बढ़ रहा है। यहां तक जनजाति समाजों में भी दहेज की प्रथा की शुरुआत हो चुकी है।
दहेज मुख्यतः विभिन्न वर्ग के लोगों के भिन्न-भिन्न प्रकार से प्रचलित है। उच्च वर्ग के लोगों के बीच यह उपहार के रूप में देखी जाती है, क्योंकि इसके बीच आर्थिक समस्या नहीं होती है, जिसके फलस्वरूप दहेज नाम की चीज भी नहीं होती। यह वास्तविक समस्या मध्यम एवं निम्न वर्ग के लोगों के बीच होता है। मध्यम वर्ग में दहेज लेना या देना दोनों ही प्रस्थिति के रूप में देखा जाता है। वधु पक्ष के ये लोग किसी भी रूप में अच्छे प्रस्थिति के लड़के की खोज करते है जिसके फलस्वरूप बहुत अधिक मात्र में रुपये एवं संपत्ति दी जाती है। यहां तक विभिन्न प्रस्थिति के लड़कों को एक निश्चित मात्र में दहेज दिया जाता है, यह समाज की प्रचलित प्रथा पर निभर्र करती है। दूसरी ओर, निम्न वर्ग के लोगों के पास बुनियादी जीवन के साधन उपलब्ध नहीं होते है, जैसे- भोजन, वस्त्र और आवास फिर भी किसी भी तरह कर्ज लेकर भी दहेज देते हैं जो एक दिन एक बड़ी समस्या बन जाती है।
दहेज के दुष्परिणाम वर्तमान समय में यहां तक देखने को मिलता है कि कन्या हत्या, दहेज हत्या एवं पत्नी से मारपीट करना इत्यादि देखने को मिलता है जो समाज के लिए निश्चित रूप से एक अभिशाप से कम नहीं हैं। उदाहरण के तौर पर यह मध्यम वर्ग के लोगों में अधिक देखने को मिलता है।
दहेज प्रथा समाज में इतनी गहरी नींव जमाये हुए हैं कि इसे समाप्त करना एक दिन का खेल नहीं है परंतु सही रूप से क्रियान्वयन के द्वारा समाप्त किये जा सकते हैं। इसके लिए सबसे उपयुक्त तरीका हो सकता है- अंतर्जातीय विवाह, शिक्षा एवं जागरूकता, लिंग विषमता को दूर करना, स्त्री-पुरुष दोनों को रोजगार एवं आत्मनिर्भर होना चाहिए एवं सामाजिक समस्या को एक आंदोलन का रूप देना अति आवश्यक है।
Question : भारत में वयस्क असाक्षरता की समस्या।
(1998)
Answer : भारत में वयस्क असाक्षरता की समस्या बहुत ही गंभीर एवं आलोचनयोग्य है। स्वतंत्रता के 55 वर्ष बाद भी भारत इस समस्या से जूझ रहा है। वास्तव में यह विभिन्न विदेशी शासकों द्वारा किये गये शोषण की नीति के फलस्वरूप हुआ है। भारत गांवों का देश है जहां पर अभी भी शिक्षा साधनों की कमी है। भारत के अधिकांश लोग गांवों में निवास करते हैं। इसलिए यहां प्रौढ़ असाक्षरता की संख्या अधिक है। इस समस्या से निपटने के लिए 1964 में शिक्षा आयोग ने प्रौढ़ शिक्षा की भूमिका को उजागर करते हुए 15-25 आयु वर्ग समूह में साक्षरता विस्तार के लिए गंभीर प्रयत्नों की सिफारिश की और इसको विकास कार्यक्रम से जोड़ा। परंतु इस ओर 1975-76 तक कुछ नहीं किया गया। 1978 में सरकार ने 15-25 आयु वर्ग समूह के लगभग 10 करोड़ निरक्षर लोगों के लिए राष्ट्रीय प्रौढ़ शिक्षा कार्यक्रम की घोषणा की। कोठारी आयोग (1981-82) ने इस कार्यक्रम में कई दोष और अपर्याप्तयों की ओर संकेत किया। (i) यह कार्यक्रम अधिकार निरक्षरता तक ही सीमित रहा। (ii) निरक्षरता को विकास के साथ जोड़ना सरल नहीं था। (iii) जागृति का उद्देश्य प्राप्त नहीं किया जा सका। (iv) विज्ञान में कार्यक्रमों के प्रति कम ध्यान दिया गया। (v) काफी संख्या में राज्य (आसाम, हिमाचल प्रदेश और उड़ीसा) राष्ट्रीय प्रौढ़-शिक्षा प्रोग्राम से अछूते रहे। (vi) काफी लचीला और केंद्रित नहीं था। (vii) स्त्रियों और पुरुषों की अलग-अलग आवश्यकताओं पर कोई ध्यान नहीं दिया गया। (viii) कार्यक्रम प्रमुख रूप से राज्य सरकारों का ही उत्तरदायित्व रहा। मीडिया एवं स्वयं सेवी संस्थाओं को इसमें सम्मिलित नहीं किया गया।
इस प्रकार से हम देखते हैं कि विभिन्न सरकारी कार्यक्रमों एवं प्रर्यन्तों के बावजूद भारत में प्रौढ़ असाक्षरता की समस्या बनी हुई है।