Question : भ्रूणवध से संबंधित सामाजिक-सांस्कृतिक कारक
(2004)
Answer : भ्रूणवध वास्तव में समाज के लिए एक अभिशाप की तरह है जो लिंग-भेद पर आधारित होता है। वर्तमान समय में भारतीय समाज में यह समस्या विकराल रूप लेती जा रही है। भ्रूणवध से संबंधित सामाजिक-सांस्कृतिक कारकों का वर्णन हम निम्नलिखित बिन्दुओं के तहत कर सकते हैं-
Question : शिशु-मत्यु दर से संबंधित सामाजिक सांस्कृतिक कारक
(2003)
Answer : धर्म एवं जाति भारतीय समाज का मूल तत्व है। इसके अतिरिक्त सांस्कृतिक प्रयोग में परिवार की भूमिका भी महत्वपूर्ण है। परिवार के अंतर्गत बच्चों का पालन-पोषण एवं महिलाओं के द्वारा समाजीकरण का कार्य, बच्चों का जन्म देना एवं देखभाल प्रमुख हैं।
विभिन्न अध्ययनों के द्वारा यह देखा गया कि धर्म, जाति एवं परिवार के प्रकार शिशु-मृत्यु दर को बहुत प्रभावित करता है। साधारणतया, हिन्दू जातियों में अहिन्दू जातियों की अपेक्षा अधिक शिशु-मृत्यु दर पायी जाती है। इन हिन्दू जातियों में भी अनुसूचित जातियों में शिशु-मृत्यु दर सामान्य हिन्दू जातियों से अधिक है। आंध्र प्रदेश के एक अध्ययन के द्वारा, सांध्या ने स्पष्ट किया कि शिशु-मृत्यु दर में जाति की भूमिका कम है परंतु एकाकी परिवार में शिशु-मृत्यु दर संयुक्त परिवार की अपेक्षा कम पायी जाती है।
एकाकी परिवार के अंतर्गत माता-पिता दोनों बच्चे की देखभाल सही ढंग से करते हैं एवं सारी प्रक्रिया आधुनिक रूप से संपन्न होती है जबकि Joint Family (संयुक्त-परिवार) में यह परंपरात्मक ढंग से होता है। इसके अतिरिक्त सांस्कृतिक भिन्नता भी शिशु-मृत्यु दर का एक प्रमुख कारण है।
यह सांस्कृतिक भिन्नता यह स्पष्ट करती है कि male बच्चे को female बच्चे से अधिक महत्व दिया जाता है जिसके कारण female बच्चे का सही तरह से देखभाल नहीं किया जाता है। यह यहां तक संभव होता है कि female foeticide की घटना भी हमेशा देखने को मिलती है। मातृत्व भी एक सर्वप्रमुख सामाजिक सांस्कृतिक कारक है जो pregnancy एवं बच्चे के स्वास्थ्य पर प्रत्यक्ष रूप से प्रभाव डालता है।
अतः इस प्रकार से हम देखते हैं कि किस प्रकार सामाजिक सांस्कृतिक कारक शिशु-मृत्यु दर को प्रभावित करते हैं। तमिलनाडु में धार्मिक कारणों से शिशु को दूध में डालकर मार दिया जाता है। बहुत से उच्च जातियों में थ्मउंसम बच्चे को बध करने की घृणित प्रथा अभी भी जीवित है।
Question : स्त्री-पुरुष अनुपात में स्त्रियों के घटते अनुपात से संबंधित सामाजिक सांस्कृतिक कारक
(2000)
Answer : जनसंख्या में लिंग अनुपात महत्वपूर्ण होता है क्योंकि इसका प्रभाव विवाह दर, मृत्यु दर, जन्म दर और यहां तक कि प्रव्रजन दर भी पड़ता है। 2001 जनसंख्या आंकड़ों के अनुसार भारत में प्रति 1000 पुरुषों पर 933 स्त्रियों का अनुपात आता है। लिंग असन्तुलन के कारण हैः स्त्री बाल हत्या, बालिकाओं की उपेक्षा, बाल-विवाह, बच्चे की जन्म पर मृत्यु, स्त्रियों के साथ बुरा व्यवहार और कठिन कार्य से लिंग अनुपात लगातार गिरता चला जा रहा है। 1901 में 972, 1931 में 950, 1951 में 946, 1991 में 927 रहा।
निःसंदेह ग्रामीण क्षेत्रों की अपेक्षा नगरीय क्षेत्रों में लिंग अनुपात अधिक ऊंचा है क्योंकि एकल पुरुष शिक्षा, रोजगार तथा अन्य कारणों से ग्रामीण क्षेत्रों से शहरी क्षेत्रों में चले जाते हैं। अलग-अलग राज्यों में लिंगानुपात में अंतर-पाया जाता है। यह लिंगानुपात में अंतर का सामाजिक-सांस्कृतिक कारकों में दहेज प्रथा, हिंदू में धार्मिक कारण, बालिकाओं की उपेक्षा एवं सामाजिक बंधन प्रमुख है।
दहेज प्रथा एक ऐसा सामाजिक कारण है जो आज के वर्तमान समय में लगभग सभी धर्म के लोगों के बीच व्याप्त होते जा रहे हैं। इस प्रथा के कारण ही फिमेल फ्रयेटस की हत्या कर दी जाती है, जिससे अनुपात में स्त्रियों का अनुपात घटना स्वाभाविक है। दूसरी ओर, हिंदू धर्म के अंतर्गत ऐसी मान्यता है कि बेटे के जन्म से उसके माता-पिता को स्वर्ग की प्राप्ति होगी जो बलिकाओ की उपेक्षा का कारण होता है। साथ ही भारत के विभिन्न भागों में अभी कन्या हत्या की प्रथा प्रचलित है जो लिंगानुपात को प्रभावित करती है। आज भी बहुत सी ऐसी सामाजिक मान्यताएं हैं जिसमें स्त्रियों के प्रति भेदभाव किया जाता है।
Question : भारत में बाल-कल्याण कार्यक्रमों का आलोचनात्मक मूल्यांकन कीजिए। क्या इनसे भारत में बच्चों के सभी वर्गों को लाभ मिला है?
(2000)
Answer : मानव संसाधन विकास मंत्रालय में 1985 में महिला और बाल विकास विभाग का गठन किया गया। इसका उद्देश्य महिलाओं और बच्चों के लिए आवश्यक सर्वांगीण विकास की जरूरत को पूरा करना है। यह विभाग देश में महिलाओं और बच्चों की स्थिति में सुधार के लिए कार्य कर रहे सरकारी तथा गैर-सरकारी, दोनों तरह के संगठनों के प्रयासों में तालमेल कायम करने के साथ-साथ इस संबंध में योजनाएं, नीतियां और कार्यक्रम तैयार करने तथा कानूनों के निर्माण और उनमें संशोधन करने के लिए केंद्रीय एजेंसी के रूप में कार्य करता है। बाल कल्याण से संबंधित निम्नलिखित कार्यक्रम हैं-
(1) समन्वित बाल विकास सेवाः सन् 1974 में राष्ट्रीय बाल नीति-स्वीकार किये जाने के बाद 1975-76 में 33 समन्वित बाल विकास सेवा ब्लाकों/परियोजनाओं के जरिए इस कार्यक्रम की शुरुआत हुई। इस कार्यक्रम में पूरक पोषाहार, टीकाकरण, स्वास्थ्य जांच, स्वास्थ्य परामर्श, स्कूल-पूर्व अनौपचारिक शिक्षा और माताओं के लिए स्वास्थ्य तथा पौषाहार शिक्षा जैसी सुविधाएं एकमुश्त तौर पर उपलब्ध कराई जाती हैं। गर्भवती तथा प्रसूती महिलाएं और छह वर्ष तक के बच्चे इस कार्यक्रम का लक्ष्य है। समन्वित बाल विकास सेवा का दायरा लगातार बढ़ता गया है और 31 मार्च, 1996 तक इसके अंतर्गत स्वीकृत परियोजनाओं की संख्या बढ़कर 5,614 हो गई है। इस प्रकार देश के सभी 5,320 सामुदायिक विकास खंड तथा प्रमुख शहरी झुग्गी-झोपड़ी बस्तियां इसके अंतर्गत आ गई हैं। इनमें से समन्वित बाल-विकास सेवा की 4,200 परियोजनाएं 31 मार्च, 1998 तक कार्यशील हैं। समन्वित बाल-विकास सेवा के माध्यम से इस समय 2.40 करोड़ बच्चों और माताओं को पूरक पोषाहार संबंधी सुविधा उपलब्ध कराई जा रही है। इसके अलावा, तीन से छह वर्ष तक के 1.14 करोड़ बच्चों को स्कूल-पूर्व शिक्षा की व्यवस्था इसके जरिए की गई है। समन्वित बाल-विकास सेवा देश में बच्चों के लिए चलाया जाने वाला अपनी तरह का अकेला सबसे बड़ा कार्यक्रम है।
समन्वित बाल विकास सेवा की सबसे निचले स्तर की इकाई ग्रामीण/जनजातीय इलाकों या झुग्गी झोपड़ी बस्तियों में काम करने वाली आंगनबाड़ियां। ग्रामीण इलाकों/झुग्गी झोपड़ी बस्तियों में आम तौर पर करीब 1,000 की आबादी पर एक आंगनबाड़ी खोली जा सकती है, जबकि जनजातीय क्षेत्रों में 700 की आबादी पर एक आंगनबाड़ी खोली जा सकती है। समन्वित बाल-विकास सेवा का उद्देश्य बच्चों के समग्र विकास के लिए आंगनबाड़ियों के जरिए उन्हें सेवाएं उपलब्ध कराना है। समन्वित बाल-विकास सेवा कार्यक्रम के अंतर्गत स्कूली शिक्षा अधूरी छोड़ने वाली उन किशोरियों की ओर अधिक ध्यान दिया जा रहा है, जिनकी अब तक उपेक्षा होती रही है।
समन्वित बाल विकास सेवा के अलावा, यह विभाग बाल विकास की तीन अन्य योजनाएं भी लागू कर रहा है। ये हैं- बाल्यावस्थापूर्व शिक्षा, बालवाड़ी पौष्टिक आहार कार्यक्रम और कामकाजी व बीमार माताओं के बच्चों के लिए शिशुसदन। जिन क्षेत्रों मे समन्वित बाल विकास सेवा के केंद्र नहीं है वहां पर बाल्यावस्था पूर्व शिक्षा और बालवाड़ी पौष्टिक आहार कार्यक्रम लागू किये जा रहे हैं। बाल्यावस्था पूर्व शिक्षा योजना शैक्षिक दृष्टि से पिछड़े हुए नौ राज्यों आंध्र प्रदेश, असम, बिहार, जम्मू कश्मीर, मध्य प्रदेश, उड़ीसा, राजस्थान, उत्तर प्रदेश और पश्चिमी बंगाल में स्वयंसेवी संगठनों द्वारा चलाई जा रही है।
(2) पुरस्कारः बाल कल्याण के लिए राष्ट्रीय पुरस्कारों की शुरुआत 1979 में अंतर्राष्ट्रीय बाल वर्ष के दौरान की गई थी। इनका उद्देश्य बाल कल्याण के लिए स्वैच्छिक आधार पर कार्य करने वालों को सरकार की ओर से मान्यता प्रदान करना था। बाल कल्याण के क्षेत्र मे उत्कृष्ट कार्य करने के लिए प्रतिवर्ष पांच पुरस्कार संस्थाओं को और तीन व्यक्तियों को दिये जाते हैं। संस्थाओं को दो लाख रुपये और प्रशस्ति-पत्र, तथा व्यक्तिगत पुरस्कार प्राप्त करने वालों को 50,000 रुपये और प्रशस्ति-पत्र दिया जाता है।
बच्चों के कल्याण के लिए उत्कृष्ट कार्य करने वाले व्यक्तियों को प्रोत्साहन देने के लिए भारत सरकार ने राजीव गांधी मानव सेवा पुरस्कार भी प्रारंभ किये हैं। राष्ट्रीय वीरता पुरस्कारों की शुरुआत 1957 में भारत सरकार ने की थी। कठिन परिस्थितियों मे असाधारण सूझबूझ और बहादुरी दिखाने के लिए बच्चों को ये पुरस्कार प्रदान किये जाते हैं। राष्ट्रीय बाल कल्याण परिषद सरकार की वित्तीय सहायता से ये पुरस्कार देती है। हर साल गणतंत्र दिवस की पूर्व संध्या पर प्रधानमंत्री ये पुरस्कार प्रदान करते हैं। भारत सरकार ने हाल ही में असाधारण उपलब्धियां हासिल करने वाले बच्चों के लिए राष्ट्रीय पुरस्कार शुरू किये हैं। इसके अंतर्गत पढ़ाई-लिखाई, कला, संस्कृति और खेल-कूद जैसे क्षेत्रों में उत्कृष्ट उपलब्धियां प्राप्त करने वाले बच्चों को पुरस्कार प्रदान किये जाते हैं। यह पुरस्कार 1997 से शुरू किया गया है जिसके अंतर्गत तैंतीस बच्चों को प्रदान की जाती है।
(3) बच्चों के लिए राष्ट्रीय कार्य योजनाः बच्चों के जीवन, सरंक्षण और विकास के बारे में विश्व घोषण पर हस्ताक्षर करने वालों में भारत भी शामिल है। अपने सर्वोच्च लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए महिला और बाल विकास विभाग ने अन्य केंद्रीय मंत्रलयों/विभागों, राज्य सरकारों और स्वयंसेवी संगठनों के साथ विचार-विमर्श/सहयोग से राष्ट्रीय कार्य योजना तैयार की है। इसमें स्वास्थ्य और परिवार कल्याण संबंधी गतिविधियां बेटे-बेटी में भेद-भाव समाप्त करने और आर्थिक, सामाजिक तथा शारीरिक रूप से दुर्बल वर्गों के बच्चों के लिए विशेष संरक्षण की व्यवस्था है।
(4) सार्क बालिका दशकः भारत मे बालिकाओं की स्थिति में सुधार के लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए एक अन्य महत्वपूर्ण उपलब्धि सार्क बालिका वर्ष (1991-2000) के सिलसिले में राष्ट्रीय कार्य योजना का निर्माण है। कार्य योजना में बालिकाओं के बेहतर भविष्य तथा उनकी छवि संवारने के अंतिम लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए नीतियों और कार्यक्रमों का जिक्र किया गया है। कार्य योजना में बालिकाओं और किशोरियों के स्वास्थ्य, शिक्षा, व्यावसायिक प्रशिक्षण तथा उन्हें जागरूक बनाने, पर विशेष जोर दिया गया है। इसमें ‘विशेष समूहों’ की बालिकाओं तथा मुसीबत में बड़े बच्चों की देख-रेख और संरक्षण के बारे में भी विशेष प्रावधान किए गये हैं।
(5) बच्चों के अधिकारों के बारे में संयुक्त राष्ट्र की घोषणाः 20 नवंबर, 1989 को संयुक्त राष्ट्र महासभा ने बच्चों के अधिकारों के बारे में एक घोषणा को मंजूरी दी इसमें दुनिया के किसी भी स्थान पर रहने वाले बच्चों को शोषण, उपेक्षा और उत्पीड़न से बचाने की बात कही गई है। इसके कई प्रावधान बच्चों के बारे में 1990 में हुए विश्व शिखर सम्मेलनमें सन् 2000 तक के लिए निर्धारित लक्ष्यों से स्पष्ट हो जाते हैं। घोषणा में प्रत्येक बच्चे के नागरिक, राजनीतिक, सामाजिक, आर्थिक और सांस्कृतिक अधिकारों की ओर भी ध्यान आकृष्ट किया गया है। भारत सरकार ने 2 दिसंबर, 1992 को घोषणा पर हस्ताक्षर किए। समझौते पर हस्ताक्षर करने वाले एक सदस्य के रूप में भारत की पहली आवधिक रिपोर्ट जिनेवा स्थित संयुक्त राष्ट्र की बाल अधिकार विशेषज्ञ समिति के पास 18 मार्च, 1997 को प्रस्तुत की जा चुकी है। भारत में बाल विकास के इन ऊपरवर्णित कार्यक्रमों को ध्यान से आकलन करें तो पता चलता है कि ये कुछ हद तक सफल एवं कुछ हद तक असफल भी रहे हैं। आज के वर्तमान समय में बच्चों की सबसे बड़ी समस्या बाल श्रमिक की समस्या है जिसे किसी भी स्तर पर समाधान नहीं किया गया है। बहुत सी योजनाएं बनी एवं गयी परंतु उसका कार्यान्वयन सही रूप में नहीं हो सका।
बाल शिक्षा अधिकार संशोधन विधेयक भी पास हो चुका है जिसके अंतर्गत 6 से 14 वर्ष के बच्चों को निःशुल्क शिक्षा प्रदान करना है। सवाल यह उठता है कि हमारे समाज में इतनी विषमताएं हैं जहां पर मूलभूत समस्याएं गरीबी स्वास्थ्य एवं अशिक्षा है तो ये नीतियां कहां तक कार्याविंत हो सकती है। दूसरी ओर बाल विकास कार्यक्रम के अंतर्गत आंगनबाड़ी की चर्चा आयी जो अपनी क्रियाकलाप में हद तक असफल रही हैं। इसका सर्वप्रमुख कारण भ्रष्टाचार एवं देख-रेख का आभाव रहा है। इसके अलावा भी जितने प्रमुख कार्यक्रम है उसका सामाजिक निरसता एवं कार्यक्रम के संलग्न व्यक्तियों द्वारा अपना पेट भरने से मतलब रखा है, जिसके फलस्वरूप ये असफल रहे हैं।
भारत जैसा कि हम जानते हैं एक विकासशील देश हैं जिसमें हर एक पृष्ठभूमि के लोग निवास करते हैं। जहां तक इन बाल विकास कार्यक्रमों की लाभ की बात रही है तो सभी वर्गों को पूर्णतया लाभ मिला है, इसमें संदेह है। सभी विकास कार्यक्रम एक निश्चित राजनीतिक एवं नौकरशाही प्रक्रिया से गुजरता है जो काफी जटिल है। विभिन्न अध्ययनों से यह स्पष्ट होता है कि शहर के अमीर बच्चे ही हर एक क्षेत्र में आगे निकल रहे हैं न कि ग्रामीण क्षेत्र के गरीब बच्चे। अतः यह स्वाभाविक है कि इन कार्यक्रमों का अधिकतम लाभ इन्हीं अमीर बच्चों को मिला है। इसका सर्वप्रमुख कारण ग्रामीण क्षेत्र के लोगों के बीच ग्रसित गरीबी एवं सामाजिक चेतना का अभाव पाया जाना है। फिर भी इस बात से इन्कार नहीं किया जा सकता है कि ये विकास कार्यक्रम अपने उद्देश्य में पूर्णतया असफल रहा है।
Question : भारतीय आबादी के बदलते आयु-संघटन के सामाजिक-आर्थिक प्रभावों का परीक्षण कीजिए।
(1998)
Answer : उच्च जन्म दर और तेजी से कम होती मृत्यु दर के कारण जनसंख्या में तेजी से बढ़ोत्तरी होती है, जिसके कारण आयु संबंधी ढांचा विकृत होने लगता है। यह आयु-लिंग पिरामिड के आधार को भी व्यापक करता है। यह कार्यशील जनसंख्या अर्थात् काम पर लगे हुए लोगों पर निर्भरता के बोझ को बहुत अधिक बढ़ा देता है। इस विकृत संरचना का प्रभाव कई वर्षों तक बना रहता है, उस समय भी जबकि जन्म दर कम हो जाती है। आर्थिक समायोजन की दृष्टि से, देश की जनसंख्या को मोटे तौर पर निम्नलिखित तीन आयु-वर्गों में बांटा जा सकता हैः
स्पष्टतः बालक और वृद्ध आर्थिक रूप से कार्यशील जनसंख्या पर निर्भर होते हैं। इसलिए बालकों और कार्यशील जनसंख्या के बीच का अनुपात ‘युवा निर्भरता अनुपात’ कहलाता है। इसी प्रकार बालकों और वृद्धों के जोड़ और कार्यशील जनसंख्या के बीच के अनुपात को ‘पूर्ण निर्भरता अनुपात’(Total Dependency ratio) कहते हैं।
एक विकासशील अर्थव्यवस्था में जहां मृत्यु दर में तेजी से कमी आती है और जन्म दर की गति बहुत धीमी होती है, वहां जनसंख्या में बच्चों का प्रतिशत बढ़ने लगता है। 1991 की जनगणना के अनुसार 14 वर्ष तक के बच्चों का प्रतिशत 36 था। यह प्रतिशत यह बताता है कि इस देश में दूसरों पर आश्रितों की संख्या अधिक है। 60 वर्ष या इससे अधिक आयु के लोगों का प्रतिशत 6.49 है। इस प्रकार लगभग 42.49 प्रतिशत जनसंख्या देश में बच्चों व बूढ़ों की है तथा शेष 57.51 प्रतिशत की आयु 15 से 59 के बीच की है। युवा जनसंख्या की एक खास समस्या है कि जन्मदर में कमी आने के बाद भी आगे के कई सालों तक शिक्षा-प्रणाली और रोजगार के अवसरों पर पड़ने वाला बोझ बढ़ता रहेगा। इसी प्रकार, जन्म दर में कमी के बावजूद कई सालों तक संतान पैदा करने योग्य स्त्रियों की जनसंख्या में अनुपात बढ़ता रहेगा। फलस्वरूप जन्म दर में कमी के बाद भी कुछ समय तक जनसंख्या का तेजी से बढ़ना जारी रहेगा।
ऊपर के विवेचन से यह स्पष्ट है कि भारत को जिन समस्याओं का सामना करना पड़ रहा है उनमें सबसे गंभीर समस्या जनसंख्या की तीव्र वृद्धि दर है। यहां पर यह उल्लेख करना आवश्यक है कि किस प्रकार आर्थिक एवं सामाजिक कारक जनसंख्या को प्रभावित करते हैं। इसके लिए हमें विकास की जन्म दर पर प्रभाव को समझना होगाः-
(i) यह व्याख्या आर्थिक है। यह आज के विकसित राष्ट्रों के अनुभव पर आधारित है। इसके अनुसार, आर्थिक विकास और जन्म दर के बीच नकारात्मक संबंध होता है। किसी देश का आर्थिक विकास जितना अधिक होगा उसका प्रजनन स्तर उतना ही कम होगा। आर्थिक विकास के साथ माता-पिता बच्चों की परवरिश की आर्थिक लागत और उनसे मिलने वाले लाभों के बारे में बहुत अधिक जागरूक हो जाते है। इस दृष्टिकोण का जन्म दर और परिवार के आकार पर स्पष्ट प्रभाव पड़ता है।
यहा कहा जाता है कि माता-पिता शिशु पालन की आर्थिक लागत और लाभों पर विचार करते हैं। इसे अवसर लागत भी कहा जाता है। इसके साथ ही यह भी माना जाता है कि बडे़ परिवार (अधिक बच्चे) पालने की अवसर लागत विकासशील देशों की तुलना में विकसित देशों में बहुत ज्यादा होती है। फलस्वरूप विकासशील देशों के निवासियों की तुलना में विकसित देशों के निवासियों के बच्चे काफी कम होते हैं। व्याख्या का यह स्वरूप‘निर्णय-प्रक्रिया का आर्थिक मॉडल’ कहलाता है। लेकिन प्रजनन क्षमता (जन्म दर) की पूर्णतः आर्थिक व्याख्या विकासशील देशों पर लागू नहीं होती। विकासशील देशों में विकास एवं प्रजनन क्षमता के बीच हमें इतना स्पष्ट नकारात्मक संबंध नहीं मिलता है।
(ii) जन्म दर पर आर्थिक विकास के प्रभाव से संबंधित दूसरी व्याख्या में माता-पिता का अपने बच्चों के प्रति प्यार और लगाव को ध्यान में रखा जाता है। यह सन्तानोंत्पत्ति की प्रेरणा का प्रभावी पहलू कहलाता है। इस व्याख्या के अनुसार अपने परिवार को सीमित रखने में माता-पिता अपने बच्चों के भविष्य निर्माण के विचार से प्रभावित होते हैं। इस प्रकार बड़ा परिवार न रखने का आधार यह भय नहीं है कि बड़े परिवार की वजह से आर्थिक लाभ में कमी आएगी और लागत बढ़ जायेगी बल्कि खास वजह यह भय है कि यदि परिवार बड़ा होगा तो वे अपने बच्चों के उज्ज्वल भविष्य के लिए पर्याप्त साधन नहीं जुटा पायेंगे जो उनके लिए महत्वपूर्ण है। यह तथ्य माता-पिता को परिवार बड़ा करने से हतोत्साहित करती है।
वास्तव में जनांकिकीय संक्रमण की सबसे पहली अवस्था में बच्चों को सामाजिक स्तर अपने माता-पिता से विरासत में मिलता है। क्योंकि उस समय परिवार उत्पादन की इकाई के साथ-साथ अनौपचारिक आर्थिक संगठन भी होता है। लेकिन आर्थिक विकास के साथ-साथ अर्थव्यवस्था संगठित होती जाती है। संगठित अर्थव्यवस्था के आगमन के फलस्वरूप बच्चों को अपना सामाजिक स्तर घर के बाहर स्वयं अर्जित करना पड़ता है और इस कारण माता-पिता अपने बच्चों को संतोषजनक आर्थिक सामंजस्य के लिए तैयार करने की नई जिम्मेदारी के प्रति बहुत जागरूक हो जाते हैं। संतोषजनक आर्थिक सांमजस्य की समस्या को ध्यान में रखकर माता-पिता यह सुनिश्चित करने की कोशिश करते हैं कि बच्चों का सामाजिक स्तर उनके स्तर से कम न हो। इस व्याख्या से हमारे इस सामान्य तथ्य की पुष्टि होती है कि बड़े परिवारों के बच्चे अपने जीवन एवं व्यवसाय में अपने माता-पिता की तुलना में बदतर स्थिति में होते है। इसलिए जो माता-पिता इस बातों के प्रति सजग होते हैं उनमें छोटा परिवार रखने की प्रवृत्ति बढ़ने लगती है।
अतः ऊपरवर्णित परिप्रेक्ष्य से यह निश्चित रूप से तथ्य सामने आता है कि विकासशील देशों में बच्चों की जन्म दर अधिक होने के सामाजिक कारणों में परंपरावादी मनोवृति, धार्मिक कारण, बेटे की प्रबल इच्छा, पितृ सत्तात्मक समाज आदि है। आर्थिक कारणों के अंतर्गत हम इस बात के माध्यम से कह सकते हैं कि ‘जितना बच्चा उतनी आमदनी’ यह मनोवृति जन्म दर एवं बाल श्रम दोनों की वृद्धि के लिए उत्तरदायी हैं।