Question : राज्य सूची को आवंटित प्रत्येक विषय पर एक अलग से केन्द्रीय मंत्रलय या विभाग है। क्या इसका अर्थ संघ सरकार की सर्वोच्चता है या कि विकास प्रशासन पर बल है? विश्लेषण कीजिए।
(2007)
Answer : संविधान के अनुसार भारत को ‘राज्यों का संघ’ कहा गया है। भारतीय संघवाद की अपनी एक विशिष्ट अनुपम स्थिति है। संविधान केन्द्र में एक शक्तिशाली शक्ति की व्यवस्था करता है और केन्द्र राज्य सम्बन्धों के प्रत्येक विषय पर केन्द्र की सर्वोच्चता को प्रमाणित भी करता है। वस्तुतः संविधान केन्द्र को एक शक्तिशाली संरक्षक की भूमिका में प्रस्तुत करता है। संविधान के भाग 11, 12 एवं 13 में केन्द्र राज्य सम्बन्धों का वृहद वर्णन है।
राज्य सूची को आवंटित प्रत्येक विषय पर यथा- कृषि, स्वास्थ्य, लोक व्यवस्था इत्यादि एक अलग से केन्द्रीय विभाग है। वस्तुतः ऐसा करने का उद्देश्य केन्द्र की मजबूत स्थिति को विम्बित करने के साथ ही साथ राज्यों पर केन्द्र की सर्वोच्चता को प्रदर्शित करना एवं विकास प्रशासन से भी गुम्फित उद्देश्यों को प्रकट करने से है। संघवाद और भारतीय प्रशासन के सम्बन्ध में केन्द्र-राज्य सम्बन्ध की विधायी शक्तियों में विधान-विस्तार की दृष्टि से एवं विधान-विषय की दृष्टि से विभाजन परिलक्षित होता है। संविधान के अनुच्छेद 245 के अनुसार संविधान के उपबन्धों के आधीन रहते हुए विधायिका भारत के सम्पूर्ण राज्यक्षेत्र या उसके किसी भाग के लिए विधि निर्मित कर सकती है।
इसी तरह किसी राज्य की विधायिका उस सम्पूर्ण राज्य के लिए या उसके किसी विशिष्ट भाग के लिए विधि निर्मित करने का अधिकार रखती है। इसी अनुच्छेद के द्वितीय खण्ड में कहा गया है कि केन्द्रीय विधायिका द्वारा निर्मित कोई विधि इस कारण शून्य नहीं समझी जाएगी कि वह भारत के राज्य क्षेत्र के बाहर परिचालित होती है। केन्द्रीय विधायिका की विधायी शक्ति स्वयं में परिपूर्ण है। संविधान की परिधि में अभ्यागत उपबन्धों की सीमाओं के अन्तर्गत राज्यों की विधायिकों को भी भूतलक्षी एवं भविष्य में परिचालित की जाने वाली विधियों के निर्माण की पूर्ण शक्ति प्राप्त है।
संविधान में सबल और सशक्त केन्द्र की व्यवस्था की गई है। संविधान निर्माण के समय की परिस्थितियों में केन्द्र के सबल होने की अनिवार्यता को संविधान निर्माताओं ने अनुभूत किया था, अस्तु संविधान निर्माताओं ने कनाडा के संविधान में उदघृत प्रबल एवं शक्तिशाली केन्द्र की प्रणाली को ही संविधान में स्थान दिया। राज्यों की परिस्थितियों को समझते हुये संविधान निर्माताओं ने समवर्ती सूची को भी भारतीय संविधान में स्थान दिया। सन् 1935 के भारत सरकार अधिनियम के अनुरूप ही संविधान में सघ सूची, राज्य सूची एवं समवर्ती सूची को स्थान प्रदान किया गया।
संघ सूची में राष्ट्रीय हित के 97 विषय उल्लिखित हैं यथा- भारत की परमाणु शक्ति, वैदेशिक सम्बन्ध, सुरक्षा, सेना, देशीकरण, अस्त्र-शस्त्र आदि। इन राष्ट्रीय महत्व के विषयों पर समान विधि की आवश्यकता अनुभूत की गई। इन विषयों पर विधि निर्माण का एकमात्र अधिकार केन्द्रीय विधायिका को प्रदान किया गया। इन विषयों पर एकमात्र केन्द्रीय अधिकार होने के कारण केन्द्र को अथाह शक्ति प्राप्त हुई।
संविधान में वर्णित राज्य सूची में 66 विषय हैं। राज्य की आवश्यकताओं एवं स्थानीय आवश्यकताओं के विषयों को इस सूची में स्थान प्रदान किया गया है। राज्यों की विधायी शक्तियां ही यह इंगित करती हैं कि संघात्मक सिद्धान्त कहां तक परिचालित किये जा सकते हैं। राज्य सूची के प्रमुख विषय हैं- कृषि, सिंचाई, पशुपालन, मछली व्यवसाय, स्वास्थ्य एवं औषधि, वन्य पशुओं की रक्षा, ग्राम सुधार, सार्वजनिक स्वास्थ्य और सफाई, शिक्षा, पुस्तकालय, अजायबघर, मादक पेय, गैस एवं गैस निर्माण, विलासिता की वस्तुओं पर कर, मनोरंजन कर, भूमिकर, कृषि आयकर, वाणिज्य, राज्य व्यापार आदि।
राज्य सूची के विषयों पर विधायन आरोपित करने का अधिकार राज्यों को ही है। केवल कुछ विशिष्ट परिस्थितियों और प्रक्रिया का पालन कर ही केन्द्रीय विधायिका राज्य सूची के विषय पर भी विधायन आरोपित कर सकती है। इस प्रकार केन्द्र को बल प्राप्त होता है। केन्द्र में राज्यसूची में उल्लिखित लगभग सभी विषयों पर मंत्रालय हैं। जिसके कारण सम्बन्धित मंत्रलय राज्य सूची के प्रत्येक विषय पर नीतियां उद्घोषित कर सकता है।
इस तरह से नीति निर्धारण में राज्य सूची के विषयों पर केन्द्र का पूर्ण स्वामित्व है। राज्यों की शक्ति की सीमाएं हैं, यह कटुसत्य है कि राज्य सूची में वर्णित विषयों पर राज्यों को विधायन आरोपित करने की पूर्ण स्वतंत्रता नहीं है। वस्तुतः राज्य सूची के विषयों पर शासन राज्य केन्द्र की छाया में ही स्वायत्ततापूर्वक कर सकते हैं।
संविधान में राष्ट्रीय एवं स्थानीय महत्व के 46 विषयों को समवर्ती सूची में स्थान प्रदान किया गया है। इस सूची के महत्वपूर्ण विषय हैं- विवाह और विवाह विच्छेद, फौजदारी विधि व प्रणाली, व्यवहार प्रणाली, निवारक निरोध इत्यादि। वस्तुतः समवर्ती सूची में ऐसे विषयों को स्थान प्रदान किया गया है, जिन पर देश में सामान्य विधायन की आवश्यकता तो अनुभूत की गई है- सार्वजनिक हित के इन विषयों पर केन्द्र एवं राज्यों दोनों का ही स्वामित्व है, लेकिन यहां पर भी केन्द्र की इन विषयों पर उच्चता को प्रतिष्ठित किया गया है। यदि समवर्ती सूची के किसी विषय पर आरोपित केन्द्र एवं राज्यों की विधियों में असमानता है या विरोध है तो इस स्थिति में सम्बन्धित विषय पर आरोपित केन्द्रीय विधायन को अग्रगण्यता प्रदान की गई है अर्थात् राज्यों की विधियों पर केन्द्रीय विधि की उच्चता को स्थापित किया गया है। 1976 में संविधान के 42वें संशोधन द्वारा सातवीं अनुसूची को संशोधित किया गया है।
इस संशोधन द्वारा संघ सूची में संघ और सशास्त्र बल पर संघ का नियंत्रण विषय जोड़ा गया है और राज्य सूची में अंकित शिक्षा विषय को निकालकर समवर्ती सूची में समाविष्ट किया गया है, जिससे कि शिक्षा के मामले में एक राष्ट्रीय नीति का निर्धारण किया जा सके।
अवशिष्ट शक्तियां अर्थात्, ऐसे विषय जिनका उल्लेख राज्य, संघ एवं समवर्ती सूचियों में नहीं है, संघीय शासन के सुपुर्द की गई है। इस विषय में भारत में कनाड़ा के संविधान का अनुशरण किया गया है।
उपरोक्त विवेचन से स्पष्ट है कि संविधान ने शक्ति के विभाजन में सबल केन्द्रीयकृत प्रणाली को अंगीकृत किया है। राष्ट्रीय महत्व के अधिकाधिक विषय केन्द्र ने अपने पास रखे हैं। केन्द्रीय विधायिका को सम्पूर्ण देश के लिए विधायन आरोपित करने का अधिकार दिया गया है। विशिष्ट परिस्थितियों में राज्यों के विषयों पर भी विधायन आरोपित करने का अधिकार केन्द्रीय विधायिका के पास ही है। राज्य सूची के विषयों को भी केन्द्रीय विधायिका के नियंत्रणाधीन रखा गया है। किसी भी संधि या समझौते को अस्तित्व में लाने हेतु केन्द्रीय विधायिका राज्य सूची के विषयों पर भी विधायन निर्मित कर सकती है। न्यायिक व्यवस्था में केन्द्रीय विधायिका परिवर्तन विधायन आरोपित कर सकती है। केन्द्रीय विधायिका को संविधान में संशोधन करने का अधिकार भी है। उपरोक्त प्रावधान केन्द्र को अत्यन्त शक्तिशाली स्थिति प्रदान करते हैं।
प्रशासन को सक्षमता प्रदान करने के निमित्त मंत्रलयों या विभागों को अस्तित्व प्रदान किया गया है। राष्ट्रपति मंत्रिपरिषद के नेता के परामर्श पर मंत्रियों के विभागों का बंटन एवं उनकी नियुक्ति करता है। मूलतः मंत्री ही सम्बन्धित विभाग के शासन व प्रशासन के लिए जबावदेह होता है। वह अपने मंत्रालय से संदर्भित नीतियों को निर्मित करने के साथ ही साथ उन्हें परिचालित करने की व्यवस्था का भी कार्य करता है।
केन्द्र सरकार द्वारा संघ सूची के विषयों पर मंत्रालय का गठन तो किया ही है, लेकिन राज्य सूची के विषयों पर भी केन्द्र द्वारा मंत्रालय गठित किये गये हैं। कृषि राज्य सूची का विषय है, अर्थात्, कृषि से संदर्भित विषयों पर नीति निर्धारित करने का अधिकार राज्यों को है। वे राज्यों की विधायिकों में कृषि सम्बन्धित विधायन को निर्मित कर सकते हैं। लेकिन केन्द्र में भी कृषि नीति की संकल्पना की है। केन्द्रीय कृषि मंत्रालय ने विशेष आर्थिक क्षेत्र (SEZ) के निर्माण के लिए कृषि के लिए निर्धारित भूमि के अधिग्रहण की अनुशंसा की है।
केन्द्र ने सामान्यतः उन समस्त विषयों पर मंत्रलय या विभाग निर्मित किये हैं, जो राज्य सूची के विषय हैं। इससे केन्द्र का राज्यों पर अप्रत्यक्ष नियंत्रण स्थापित होता है, जिससे केन्द्र शक्तिशाली होता है। इसके अतिरिक्त विकास कार्यों को इससे राष्ट्रीय स्वरूप भी प्राप्त होता है। विकास की नीति में एकरूपता सुनिश्चित करने के निमित्त भी केन्द्र में राज्य सूची के विषयों पर मंत्रालय गठित करना परमावश्यक माना गया। इससे राष्ट्रीय स्तर पर विकास कार्यों के समायोजन को सहयोग प्राप्त होता है।
राष्ट्रीय स्तर पर आयोजन एकरूपी विकास के निमित्त परमावश्यक है। राज्यों की वित्तीय स्थितियां विषम होने के कारण राज्य राष्ट्रीय नीतियों को अंगीकार कर लेते हैं, क्योंकि राष्ट्रीय नीतियों के साथ ही साथ केन्द्र इसके निमित्त अर्थ की भी व्यवस्था करता है। इस तरह केन्द्र द्वारा निर्मित राष्ट्रीय नीतियों को सभी राज्यों में लागू किया जाता है। जिससे सभी राज्यों का विकास होता है और राज्यों के मध्य समानता की भावना का विकास होता है। इस तरह जनसामान्य को विकास योजनाओं का लाभ मिलता है एवं राज्यों के मध्य शिक्षा, स्वास्थ्य से सम्बन्धित सेवाओं का प्रचार-प्रसार होता है।
राज्य सरकारें स्वनिर्मित योजनाओं को भी केन्द्र की सहभागिता से ही अस्तित्व में लाती हैं। कुल मिलाकर समान विकास के लिए इन मंत्रालयों की उपादेयता से इंकार नहीं किया जा सकता है। इन मंत्रालयों के माध्यम से विकास प्रशासन को भी वास्तविक अर्थों में सार्थकता प्राप्त होती है। अतः यह कहा जा सकता है कि राज्य विषयों पर केन्द्र में मंत्रालय या विभाग का गठन विकास प्रशासन के लिए आवश्यक है, अस्तु राज्य इसका विरोध नहीं करते हैं।
Question : "अनेक न्यायिक निर्णयों के कारण, राज्यों में राज्यपाल अब केन्द्रीय स्तर पर ‘राज्य सत्ता में दल’ के एजेंट के रूप में नहीं देखे जाते हैं।" मूल्यांकन कीजिए।
(2007)
Answer : संविधान भारत को राज्य के संघ के रूप में स्वीकार करता है, यह राज्यों का संघ सम्पूर्ण प्रभुतासम्पन्न लोकतांत्रिक गणराज्य की परिकल्पना पर निर्मित किया गया है। भारत के अधिकार में ऐसे राज्य, संघ राज्य क्षेत्र तथा ऐसे अन्य क्षेत्र समाहित हैं, जो भारतीय शासन द्वारा किसी समय अर्जित किये गये हैं। वर्तमान में भारत में 28 राज्य एवं 7 केन्द्रशासित प्रदेश सम्मिलित हैं। संविधान के अनुच्छेद 370 द्वारा जम्मू एवं कश्मीर को विशिष्ट संवैधानिक स्थिति प्रदान की गई है।
इस राज्य के राज्यपाल की विशिष्ट स्थिति है तथा यहां का संविधान पृथक है। संविधान ने राज्यों में राज्यपाल की नियुक्ति का दायित्व राष्ट्रपति को प्रदान किया है। राज्यों के राज्यपाल राष्ट्रपति के प्रसादपर्यन्त अपना पद धारित करते हैं। राज्यपाल राष्ट्रपति के प्रति उत्तरदायी होता है। राज्य विधान मण्डल द्वारा पारित विधेयक विधिक स्वरूप ग्रहण करने के लिए राज्यपाल की सहमति पर आश्रित होते हैं। कुछ विशिष्ट या सार्वजनिक हित के महत्वपूर्ण विधेयकों को राष्ट्रपति विचार करने के लिए राज्यपाल प्रेषित कर सकता है। इस प्रकार राज्यपाल के पास स्वविवेकी शक्तियां भी होती हैं।
राज्यपाल राज्य का प्रतीक होता है और राज्य के समस्त, कार्यपालिकीय कार्यों को क्रियात्मक स्वरूप प्रदान करता है, अस्तु कार्यरूप में राज्यपाल के अधिकार एवं कर्त्तव्य हैं। राज्य में संवैधानिक विषमता की दुरूह स्थिति के समय राज्यपाल की भूमिका महत्वपूर्ण हो जाती है एवं उसे स्वविवेक का प्रयोग कर कार्यों को सम्पादित करना पड़ता है। लेकिन कुछ विशिष्ट शक्तियों यथा- सैनिक, आपातकालीन, कूटनीतिक आदि के अलावा राज्यपाल की शक्तियां कमोवेश राष्ट्रपति की शक्तियों के समान ही हैं। राज्यपाल को द्वितीयक भूमिका का संवहन करना पड़ता है।
प्रथम वह राज्य का संवैधानिक प्रधान होता है, द्वितीय वह केन्द्र सरकार के एजेंट के रूप में भी कार्यरत होता है, राज्यपाल एक तरह से अपनी दोनों भूमिकाओं को साथ-साथ संतुलन के साथ निभाता है तथा इन दोनों दायित्वों में समन्वय स्थापित करके द्वितीयक भूमिकाओं के साथ न्याय भी करता है। राज्यपाल के पास कार्यकारी विधायी, वित्तीय एवं न्यायिक शक्तियां होती हैं। अन्य मंत्रियों एवं राज्य के अन्य अधिकारियों को अस्तित्व में लाता है। राज्यपाल विधायिका का अभिन्न अंग होता है, उसे विधानमंडल की बैठक बुलाने एवं स्थगित करने का अधिकार प्राप्त है। वह विधानसभा को अस्तित्वविहीन या निलम्बित कर सकने में सक्षम है। राज्यपाल विधानसभा में अभिभाषण दे सकता है और सन्देश भेज सकता है। अध्यादेशों को अस्तित्व प्रदान कर सकता है, विधानमंडल द्वारा स्वीकृत विधेयकों को सहमति प्रदान करता है।
राज्यपाल की वित्तीय शक्तियां लगभग राष्ट्रपति के सदृश ही होती हैं। लेकिन उसकी वित्तीयी शक्तियां मात्र सम्बन्धित राज्य में ही प्रयुक्त की जा सकती हैं। राज्यपाल अपने न्यायपालिकीय क्षेत्राधिकार के अंतर्गत किसी अपराधी के दण्ड को न्यून करने, दण्ड को निलम्बित करने या दण्ड को क्षमा करने का अधिकार धारित करता है। राज्यपाल अपने न्यायिक अधिकार का प्रयोगवाद के पूर्व या वाद के मध्य या वाद के पश्चात कर सकता है। राष्ट्रपति उच्च न्यायालय में मुख्य न्यायाधीश की नियुक्ति के लिए राज्यपाल से परामर्श अवश्य करता है। जनपद न्यायाधीश की नियुक्ति राज्यपाल द्वारा ही होती है।
यह सर्वविदित है कि राज्यपाल को प्रांत की कार्यपालिकीय शक्तियों के प्रधान के रूप में असीमित अधिकार एवं शक्तियां प्राप्त हैं। कर्नाटक के मुख्यमंत्री एस. आर. बोम्मई के वाद में सर्वोच्च न्यायालय ने व्यवस्था दी कि राज्यपाल द्वारा प्रेषित आख्या की युक्तिसंगतता की जांच की जा सकती है एवं यह निर्धारित किया जा सकता है कि राज्यपाल की आख्या किन-किन आधारों पर अवलम्बित है।
सरकार के बहुमत का संज्ञान मात्र विधानसभा में शक्ति परीक्षण द्वारा ही संभव है। न्यायालयों ने अनेक निर्णयों में राज्यपाल को राज्य का मुखिया स्वीकृत किया है। न्यायालय राज्यपाल से संवैधानिक कार्यों की आकांक्षा रखते हैं। राज्यपाल मूल रूप में राज्य में राष्ट्रपति का प्रतिनिधि होता है, वह केन्द्र में सत्ता प्राप्त राजनैतिक दल का अभिकर्ता नहीं है। अपनी गरिमामय स्थिति के कारण राज्यपाल एक तरह से राज्य का संरक्षक भी होता है।
उपरोक्त विवरण से विदित है कि अनेक न्यायिक निर्णयों के कारण राज्यों में राज्यपाल अब केन्द्रीय स्तर पर राज्य सत्ता में दल के एजेंट के रूप में नहीं देखे जाते हैं।
Question : भारत के केंद्र-राज्य संबंधों की मुख्य समस्या राजकोषीय संघवाद में मार्गविरोध हैं। टिप्पणी कीजिये।
(2006)
Answer : संघवाद, जो केंद्र राज्य संबंधों को आकार प्रदान करता है तथा जिसके परिणामस्वरूप अनोखी समस्यायें उत्पन्न होती हैं, वह क्षेत्रीय आकांक्षाओं एवं देशव्यापी आवश्यकताओं के मध्य सम्यक् स्थापित करने की एक राजनीतिक योजना है तथा इससे एक आवश्यक निष्कर्ष यह भी निकलता है कि यह सम्यक् स्थिर या कठोर न होकर नमनीय व गतिशील है। इस संघात्मक व्यवस्था में केंद्र और राज्यों की सरकारों के बीच विधायी और प्रशासनिक शक्तियों का ही विभाजन नहीं होता अपितु वित्तीय स्रोतों के विभाजन का भी बंटवारा होता है। चूंकि समस्त संघात्मक व्यवस्थाओं में केंद्र राज्य संबंधों के क्षेत्र में समस्यायें और असंतुलन होते हैं, चाहे दोनों स्तरों के कार्यों और संसाधनों का कितना ही विस्तारपूर्ण विवेचन क्यों न हो, समस्यायें रहती ही हैं। वित्तीय संबंधों को लेकर मतभेद और तनाव राज्यों के बीच मनमुटाव की अनिवार्य परिणति के रूप में सामने आता है।
भारतीय संविधान के अनुच्छेद 264 से 291 में केंद्र तथा राज्य वित्तीय संबंधों का उल्लेख है। केंद्र और राज्यों में राजस्व-वितरण की व्यवस्था बहुत कुछ भारत सरकार अधिनियम, 1935 का अनुसरण ही है। संघ और राज्यों के मध्य राजस्व साधनों के विभाजन के सिद्धांत के आधार हैं- कार्यक्षमता, पर्याप्तता और उपयुक्ता। चूंकि इन तीनों उद्देश्यों की एक साथ प्राप्ति कठिन कार्य है। अतः हमारे संविधान ने केंद्र राज्य संबंध का निरूपण इस प्रकार किया है-
इसके साथ ही वित्त आयोग की व्यवस्था, 73वें व 74वें संविधान संशोधन द्वारा राज्य वित्त आयोग से जुड़ाव; करों की अवशिष्ट शक्तियां संघ को दी गयी हैं तथा करों के संबंध में केंद्र की स्थिति सशक्त है और राज्यों की संघ पर निर्भरता है, संघ और राज्यों की ट्टण लेने की शक्तियां अनुच्छेद 292 के अनुसार संघ सरकार को भारत की संचित निधि की गारंटी पर भारत में या उसके बाहर जैसे विश्व बैंक, एशियाई बैंक इत्यादि से उधार लेने की शक्ति प्राप्त है। संघ सरकार इस शक्ति का प्रयोग संसद द्वारा निर्धारित सीमाओं के अधीन करती है। इसी प्रकार अनु. 293 के अनुसार कोई राज्य भी राज्य की संचित निधि की गांरटी पर राज्य विधानमंडल द्वारा निर्धारित सीमाओं के भीतर इसी प्रकार उधार ले सकता है।
नयी व्यवस्था में संघ और राज्य संबंधों में वित्तीय विषयों में विभिन्न चुनौतियां सामने आयी हैं जैसे-
इसके अतिरिक्त यदि संघ के द्वारा ज्यादा कर लगाने की वजह से राज्यों के कर जुटाने की क्षमता पर असर पड़ता है तो तनाव उत्पन्न होता है।
यदि स्वविवेक वाले अनुदानों का संघ के द्वारा ज्यादा प्रयोग किया जाता है राज्यों में मतभेद की स्थिति होती है या फिर राज्यों के साथ भेदभाव करने या ज्यादा शर्तें रखने से भी तनाव उत्पन्न होता है। यदि संघ के द्वारा स्थानीय सरकारों को दिये जाने वाले वित्त में राज्यों की भूमिका को उपयुक्त रूप से ध्यान में नहीं रखा जाता तो तनाव उत्पन्न होता है और यदि राष्ट्रीय वित्त आयोग के कारण समय और उसे Farm of Reference देते समय उपयुक्त सलाह व परामर्श नहीं दिया जाता तब भी अंतर की स्थिति उत्पन्न होती है। कुछ कार्यक्रमों के संदर्भ में या सहायता में राज्य अनुदान के रूप में धन की अपेक्षा करता है, जबकि संघ ट्टण के रूप में धन देना चाहता है।
संघ के द्वारा वित्तीय अनुशासन के लिये रखे गये विषय, वित्तीय सूचनाओं की मांग इत्यादि को लेकर तनाव उत्पन्न होते हैं और कुछ कार्यक्रमों में भी वित्तीय योगदानों को लेकर मतभेद उत्पन्न उत्पन्न होते ही रहते हैं। चूंकि संघ-राज्य में वित्तीय संबंध बेहतर बनाना किसी भी राष्ट्र की वित्तीय स्थिरता सुनिश्चित कराने के लिये परम् आवश्यक है।
अतः अवशिष्ट शक्तियों के अनुसार कुछ कर संघ को और संघ के कुछ करों को राज्यों को तथा इससे राज्यों से स्थानीय सरकारों को कर, कर के विकेंद्रीकरण की व्यवस्था बेहतर बनाने में कारगर साबित होगा। सामान्य रूप से स्थानीय सरकारों को राज्यों के माध्यम से धन देकर और राष्ट्रीय स्तर पर उपयुक्त समिति व्यवस्था के माध्यम से प्रयास हो कि समय से और उपयुक्त रूप से स्थानीय सरकारों को यह धन प्राप्त होता है या नहीं। सामान्य रूप से राज्यों को अनुदान राष्ट्रीय वित्त आयोग की सिफारिशों के माध्यम से हो और स्वविवेकाधिकार वाले अनुदानों का प्रयोग विशेष परिस्थितियों में हो।
केंद्र नियोजित कार्यक्रमों को सीमित करते हुये राज्यों और स्थानीय सरकारों को वित्त दिया जाये। राज्यों के ट्टण की आवश्यकताओं का व्यावसायिक और निष्पक्ष संस्थाओं के द्वारा उपयुक्त मूल्यांकन होना चाहिए। संघ स्तर पर रखे गये ‘राजकोषीय उत्तरदायित्व और बजट प्रबंधन अधिनियम’ के अनुरूप सभी राज्यों में भी उपयुक्त प्रयास हों।
वस्तुतः केंद्र और राज्यों के बीच पूरक बन जाते हैं। दिशा-निर्देश देने और साधनों के वितरण का कार्य केंद्र के जिम्मे और उनके अमल का कार्य यदि राज्य पूर्ण रूप से निभाये तो विवाद और उसकी संभावनाओं दोनों से बचा जा सकता है।
केंद्र सरकार | राज्य सरक |
1. कर राजस्व | 1. कर राजस्व |
2. गैर-कर राजस्व | 2. गैर- कर राजस्व |
3. ट्टण या उधार | 3. ट्टण या उधार की शक्ति |
Question : बाल श्रमिकों को सुरक्षित करने और बच्चों के दुरूपयोग को रोकने के लिये संघ तथा राज्य सरकारों द्वारा कौन-कौन से मुख्य कदम उठाये गये हैं?
(2006)
Answer : किसी भी जनतंत्र में हरेक बच्चा अनमोल माना जाता है और बच्चों के विकास की संपूर्ण जिम्मेदारी सरकार की होती है। देश की कुल जनसंख्या का लगभग 34 प्रतिशत बच्चे हैं।
इसके बावजूद यह दुर्भाग्यपूर्ण ही है कि राजनीतिक दलों और मीडिया के एजेंडे में बच्चों से जुड़े स्वास्थ्य, शिक्षा, साक्षरता और पोषण जैसे मुद्दों को शायद ही कभी जगह मिलती है। कहना न होगा कि समाज का यह तबका न केवल देश का बहुमूल्य मानव संसाधन है, वरन् उनके सामाजिक-आर्थिक विकास से समूचे देश की प्रगति को गति मिलती है।
14 साल से कम उम्र के बच्चों से काम कराने की अनुमति नहीं है। सरकार ने अब भोजनालयों, ढाबा तथा घरों में भी बालश्रम को प्रतिबंधित कर दिया है। लेकिन सवाल यह है कि क्या यह निर्णय मौजूदा हालात के अनुकूल है? बच्चे काम करने के लिये क्यों मजबूर होते हैं?
वैसे तो भारत में इस दिशा में वैधानिक प्रावधानों की पर्याप्त मात्रा है। अनुच्छेद 24 के द्वारा भारतीय संविधान यह व्यवस्था करता है कि 14 वर्ष से कम उम्र के बच्चों का नियोजन खतरनाक कार्यों के लिये नहीं किया जा सकता है। (अनुच्छेद 39 ई.) के तहत यह भी व्यवस्था है कि निश्चित आयु सीमा से कम आयु के बच्चे को काम पर रखना अपराध है।
अनुच्छेद 45 में 14 वर्ष से कम उम्र के बच्चों की अनिवार्य एवं निःशुल्क की व्यवस्था तो है ही। इनके अतिरिक्त 1948 के फैक्टरी अधिनियम, 1950 के खादान अधिनियम, 1951 क प्लांटेशन लेबर आदि इस दिशा में अन्य विधिक प्रयास हैं। 1975 में सरकार के समन्वित बाल विकास कार्यक्रम की घोषणा की। 1986 में सरकार द्वारा बालश्रम की राष्ट्रीय नीति के निर्माण के रूप में सामने आया। अभी हाल में सरकार ने बालश्रम अधिनियम, 1986 के तहत प्रतिबद्ध 13 व्यवसायों की सूची में दो नये व्यवसायों घरों एवं होटलों को जोड़कर इनमें भी बालश्रम को निषिद्ध कर दिया। यह 10 अक्टूबर, 2006 से प्रभाव में आ गया।
इन सब विधायी प्रावधानों के होने के बावजूद बाल विकास के मानदंड कोई उज्ज्वल तस्वीर नहीं पेश कर पाते। शिक्षा और पोषण का स्तर काफी नीचा है। आई. सी. डी. एस. की रणनीति को पुनर्निर्धारित करने की जरूरत को बल मिलता है। बच्चों के चार मौलिक अधिकार हैं- स्कूल-पूर्व शिक्षा का अधिकार, कामकाजी महिलाओं के बच्चों के लिये शिशुगृह का अधिकार, भोजन का अधिकार तथा स्वास्थ्य का अधिकार अपने वर्तमान स्वरूप में आई. सी. डी. एस इन सभी लक्ष्यों की पूर्ति नहीं कर पा रही हैं। आई. सी. डी. एस सहित बाल रक्षा कार्यक्रमों का विकेंद्रीकरण कर उन्हें अनिवार्य रूप से जनसंगठनों को सौंप दिया जाना चाहिए। तभी माता-पिता गरीबी के पाश से निकलकर अपने बच्चों को बेहतर भविष्य दे पायेंगे। साथ ही एक यह भी तर्क है कि सरकार के सभी गरीबी निवारण पैकेजों व कार्यक्रमों में बाल रक्षा को शामिल किया जाना चाहिये।
Question : "सैक्स के व्यवसाय में महिलाओं के कल्याण के लिये संघ और राज्यों द्वारा कौन-कौन से उपाय किये गये हैं?
(2006)
Answer : महिलाओं के सैक्स उत्पीड़न संबंधी अवैध व्यापार को जो इनके अधिकारों के हनन का सबसे घृणित रूप है, से निपटने के लिये अनैतिक व्यापार (निवारण) अधिनियम 1986 बनाया गया है। यौन उत्पीड़न के शिकार शारीरिक, मानसिक तथा आत्मिक रूप से टूट जाते हैं। इसका बचाव तथा पुनर्वास, सरकार तथा सभ्य समाज के सामने एक बड़ी चुनौती है। वेश्यावृत्ति जो एक सामाजिक बुराई के रूप में अति प्राचीनकाल से प्रचलित है। यह स्त्री अथवा पुरूष द्वारा आजीविका कमाने के लिये स्थापित किया जाने वाला अवैध यौन संबंध है। इसमें भावात्मक लगाव नहीं होता तथा बिना किसी भेदभाव के शरीर को आर्थिक लाभ के लिये बेचा जाता है।
अखिल भारतीय स्तर पर 1956 में स्त्रियों तथा कन्याओं का अनैतिक व्यापार निरोध अधिनियम बना। इसमें व्यक्तिगत् वेश्यावृत्ति को अपराध नहीं माना गया है, परंतु वेश्यावृत्ति पर अंकुश के लिये राज्यों को कई अधिकार दिये गये हैं। इस कानून की प्रमुख विशेषतायें इस प्रकार हैं-
विभिन्न NGO'S को भी योगदान प्रदान किया जाय;