Question : सु-शासन के लक्ष्यों को प्राप्त करने का सबसे अच्छा तरीका सिविल सेवकों के लिए एक प्रकार से अभिकल्पित माड्यूल आधारित प्रशिक्षण है, विश्लेषण कीजिए।
(2007)
Answer : लोक सेवाएं आधुनिक राज्य की स्थाई कार्यपालिकाएं हैं संसद मंत्रिमण्डल तथा दूसरे उच्चराजनीति कार्य समय समय पर बदलते रहते हैं, किन्तु लोक सेवाएं स्थाई रूप से शासन का संचालन करती हैं। एक राज्य द्वारा प्रदान की जाने वाली समस्त सेवाएं लोक सेवकों के माध्यम से ही जन-साधारण तक पहुंचती है, अतः लोक सेवाएं प्रशासकीय संगठन का एक ऐसा माध्यम है, जिनके द्वारा सरकार अपने लक्ष्यों को प्राप्त करती है। लोक सेवाओं को प्रशासन का सर्वाधिक महत्वपूर्ण तत्व माना जाता है, अतः सु-शासन के लक्ष्यों को प्राप्त करने का मुख्य साधन सिविल सेवक है। इनके योग्यता, क्षमता,दक्षता पर ही सुशासन का आधार टिका है।
लोक सेवकों को उनके कार्यों तथा दायित्वों का समुचित प्रशिक्षण दिया जाता है वे गैर- अनुभवी नहीं होते हैं। उन्हें दिए गए प्रशिक्षण का सम्बन्ध केवल उनके पद के दयित्वों से नहीं होता वरन् उनके दृष्टिकोण को व्यापक बनाने तथा उन्हें सम्पूर्ण प्रशासनिक संगठन के लक्ष्यों और आदर्शों को समझने में सहायक होता है। अतः प्रशासनिक जटिलता के आधार पर प्रशिक्षण को भी व्यवस्था की आवश्यकता पड़ती है। प्रतियोगी परीक्षाओं द्वारा उच्च लोक सेवा के लिए जो अभ्यर्थी चुने जाते हैं, उन्हें प्रशिक्षण दिया जाता है। भारत में केन्द्रीय संस्थागत प्रशिक्षण और साथ ही काम पर प्रशिक्षण की नीति अपनाई गई है।
इस कार्य के लिए राष्ट्रीय प्रशासन अकादमी है, जहां पर सभी चुने हुए प्रत्याशियों को एक निश्चित अवधि के लिए भेजा जाता है। फिर भिन्न सेवाओं के लिए पृथक-पृथक प्रशिक्षण स्कूल हैं, जिनमें उन सेवाओं के लिए चुने गए प्रत्याशी व्याख्यानों के रूप में औपचारिक अनुदेश प्राप्त करते हैं। इतना प्रशिक्षण प्राप्त करने के बाद उन्हें कार्यालय में भेजा जाता है, जहां कि वे व्यावहारिक रूप से कार्य करके काम पर प्रशिक्षण प्राप्त करते हैं। प्रशिक्षण में नवीनीकरण, पाठयक्रमों के उपयोग द्वारा लोक सेवकों के ज्ञान और कुशलता को अद्यतन बनाए रखने का प्रयत्न किया जाता है।
भारतीय प्रशिक्षण व्यवस्था में कमी के कारण सिविल सेवक अपने कार्यों को क्षमता पूर्वक नहीं कर सकते हैं। प्रायः अधिक समय का प्रशिक्षण प्रभावहीन होता है। कई कमियों के कारण ही प्रशिक्षण कारगर व उपयोगी नहीं होता है।
अतः प्रशिक्षण को कारगर व उपयोगी बनाने के लिए यह आवश्यक है कि कर्मचारियों में भावनात्मक एकता पैदा की जाए पाठ्यक्रम में परिवर्तन किया जाना चाहिए प्रशिक्षण के लिए विषय रखने चाहिए जिनके अध्ययन से प्रशिक्षणार्थी में नेतृत्व के गुण, सामाजिकता एवं परस्पर सहयोग की भावना के साथ ईमानदारी एवं निष्ठा पूर्वक कार्य करने की पहल विकसित हो सका।
प्रशिक्षण में वैज्ञानिक और आधुनिक तकनीकों को अपनाकर उसे और भी प्रभावशाली बनाया जाना चाहिए। कम्प्यूटर की सहायता से विभिन्न मांडल प्रशिक्षण को अधिक कारागर बनाना आवश्यक है। अतः यह स्पष्ट है कि सुशासन के लक्ष्यों को प्राप्त करने का सबसे अच्छा तरीका सिविल सेवकों के लिए एक भली प्रकार से अभिकल्पित मॉड्यूल आधारित प्रशिक्षण है।
Question : ‘नागरिक समाज’ की परिभाषा दीजिये। प्रशासनिक मशीनरी पर नियंत्रण रखने का क्या यह एक प्रभावी साधन है? टिप्पणी कीजिये।
(2007)
Answer : सामान्यत किसी राष्ट्र की भूमि पर निवास करने वाले व्यक्ति को नागरिक माना जाता है। मूलतः नागरिक समाज उन प्रबुद्ध नागरिक माना जाता है। मूलतः नागरिक समाज उन प्रबुद्ध नागरिकों का एक समूह होता है जो देश की प्रगति में रूचि रखते हैं। ये शिक्षित व्यक्तियों का वह समूह है जो राष्ट्र की राजनैतिक, प्रशासनिक, आर्थिक, सामाजिक, सांस्कृतिक व्यवस्था को भली प्रकार जानते हैं। वे राष्ट्र की सामाजिक आर्थिक प्रगति के प्रति पराकाष्ठा के स्तर तक संवेदनशील होते हैं। इन्हें किसी प्रकार के सकारात्मक एवं नकारात्मक बदलावों की सूक्ष्म समझ होती है। ये लोग देश के बुद्धिजीवी वर्ग के प्रबल बौद्विक व्यक्ति होते हैं तथा शासकीय कार्यों का निरपेक्ष दृष्टि से विश्लेषण करने में दक्ष होते हैं। वस्तुतः नागरिक समाज ही राष्ट्र की दशा एवं दिशा तय करते हैं। राष्ट्र के जिम्मेदार नागरिक होने के कारण ये राष्ट्रहित के प्रति जागरूक होते हैं। राष्ट्र की नीतियों के सफल क्रियान्वयन के लिये इनका जन प्रशासन पर नियंत्रण अनिवार्य है।
वर्तमान में विश्व के सभी राष्ट्रों में जन सेवा को नये आयाम प्रदान कर विस्तृत किया जा रहा है, शासन के कार्यों में वृद्धि सुरसा के मुंह के समान बढ़ती ही जा रही है। वर्तमान परिप्रेक्ष में यह कहा जा सकता है कि लोक प्रशासन के कार्यों में वृद्धि एक सतत् प्रक्रिया का रूप धारित कर चुकी है। प्रत्येक वर्ष कोई न कोई नूतन विषय शासकीय सूची को सुशोभित करता जा रहा है। भारत में भी शासकीय शक्तियों का निरन्तर विकास हो रहा है। शक्ति प्रदान करते समय सदैव शक्ति के दुरूपयोग का भय बना रहता है। यह आशंका निर्मूल नहीं है। भारत में 26 जून 1975 से 23 मार्च 1977 तक आपात स्थिति में जन प्रशासन द्वारा की गई बर्बरता इस भय को प्रमाणित करती है। प्रशासनिक शक्तियों को नियंत्रित करने के निमित्त प्रभावकारी प्रणाली को विकसित किया गया है, अस्तु प्रशासन पर प्रभावी नियंत्रण तंत्र परिपोषण हेतु आवश्यक है।
लोक प्रशासन पर विधायी, कार्यपालिका, न्यायिक, जन एवं आन्तरिक नियंत्रण स्थापित किया गया है। नागरिक समाज प्रशासन पर नियंत्रण निर्वाचन, जन प्रतिनिधियों की वापसी, सलाहकार समितियां, हित/ दबाब समूह एवं जागरूक जनमत आदि साधनों को अपनाकर रखा जाता है। इन साधनों को व्यवहार में लाकर नागरिक समाज प्रशासन पर प्रभावी नियंत्रण स्थापित करने में सफल हो सकता है एवं प्रशासन को नागरिकोन्मुखी बनने हेतु प्रेरित कर सकता है।
Question : "लोक आयुक्त पर्याप्त कर्तव्य-शक्ति-विहीन न्यायिक संस्थायें (Judicial Institutions) हैं" टिप्पणी कीजिये।
(2006)
Answer : लोक प्रशासन के सभी स्तरों पर भ्रष्टाचार का रूप भिन्न है। इसके प्रमुख उदाहरणों में बोफोर्स, बैंक घोटाला और चीनी घोटाला है, जिन्हें इस महामारी का विकृत चिन्ह्न कहा जा सकता है। 1966 में प्रशासनिक सुधार आयोग की नागरिकों की शिकायतों के निराकरण के लिये दी गई संस्तुति, जिसके द्वारा शासन में भ्रष्टाचार और भाई-भतीजावाद से निपटने के लिये राज्यों में लोकायुक्त नामक संस्था की स्थापना की गई, परंतु वर्तमान परिप्रेक्ष्य में यह संस्था उतनी प्रभावी और न्यायपूर्ण साबित नहीं हुई, जितनी आशाओं व आकांक्षाओं के साथ इसका सृजन किया गया था।
लोकायुक्त संस्था की महत्ता शीर्ष से भ्रष्टाचार के उन्मूलन के प्रयास में तथा राजनीतिक में भ्रष्टाचार के उन्मूलन के प्रयास में तथा राजनीतिक और प्रशासनिक भ्रष्टाचार को एकीकृत रूप में लेने से है। एक निरंतरतावादी तंत्र को लाते हुये भ्रष्टाचार पर अंकुश रखा जा सकता है और सत्यनिष्ठा को बढ़ाया जा सकता है। संगठित ‘राजनीतिक भ्रष्टाचार’ को दूर करने में इनकी ज्यादा उपयोगिता है। शिकायतों का निवारण कम लागत पर ही किया जा सके, उसके लिये उपयोगिता है। अतः इन अपेक्षाओं के साथ लोकायुक्त को निम्न दायित्व सौंपे गये
लोकायुक्त विधेयक के अनुसार संस्था के क्षेत्राधिकार पर कुछ सीमायें भी लगाई गई हैं। इन सीमाओं के तहत लोकायुक्त द्वारा निम्नलिखित कार्यों के विषय में शिकायतों की जांच पड़ताल नहीं कर पातीः
अतः लोकायुक्त अधिनियमों केा लाये जाने के बावजूद इनमें प्रभावी रूप से लागू किये जाने में निम्न कमियां देखी गई हैं।
इनकी सिफारिशों पर (जोकि सलाहकारी है बाध्य नहीं) सरकार के द्वारा उपयुक्त रूप से ध्यान देने में कमियां होती हैं।
अधिकारियों या कर्मियों के संदर्भ में राज्य सरकारों पर निर्भरता की वजह से विशेष अक्षमता और अकर्त्तव्यनिष्ठ अधिकारियों के संदर्भ में देखी गई है। इस संस्था के प्रावधान को संविधान में शामिल न किया जाना। एक समयबद्ध तरीके से इसकी सिफारिशों पर निर्णय लेने के प्रावधानों का अभाव, एक समय सीमा का अनुपालन न हो पाना जिसके प्रतिवेदन राज्यपाल तक तथा राज्यपाल से विधायिका के समक्ष पहुंचे; भ्रष्टाचार के विषयों के साथ इनके कारणों का भी अन्वेषण किया जाना चाहिए। परंतु इसका अभाव; स्थानीय सरकारों के संबंध में शक्तियों का अभाव। इन सभी कारणों से आज लोकायुक्त नाममात्र की संस्था बनकर रह गया है और लोकतंत्र के स्वप्न और अपने उद्देश्य की पूर्ति में नाकाम साबित हुआ है।
परंतु इसके अस्तित्व की अनिवार्यता निश्चित रूप से नागरिक और सरकार सभी के लिये एक आवश्यक चिंतनीय विषय के रूप में उपस्थित है।