Question : "संविधान के 73वें संशोधन ने पी.आर.आई. को एक स्थायी संरचनात्मक ढांचा प्रदान किया है, जिसके परिणामस्वरूप एक तीव्र सामाजिक क्रांति आयी है।य् टिप्पणी कीजिए।
(2007)
Answer : लोकतंत्र में लोकतांत्रिक विकेन्द्रीकरण की व्यवस्था को मूलाधार माना गया है। भारत में पंचायती राज व्यवस्था को लोकतंत्र का पर्याय माना जाता है। संविधान में पंचायती राज व्यवस्था को सम्मानित स्थान दिया गया है व इन्हें नीति निर्देशक तत्वों के साथ रखा गया है। संविधान के अनुच्छेद 40 में उल्लिखित है कि- "राज्य ग्राम पंचायतों की स्थापना के आवश्यक कदम उठायेगा एवं उन्हें ऐसी शक्तियां एवं अधिकार प्रदान करेगा जो उन्हें स्वायत्त शासन की इकाई के रूप में कार्य करने में सक्षम बनाने के लिए आवश्यक हों।"
भारतीय संविधान के 73वें संशोधन ने पी. आर. आई. को एक स्थापित स्वरूप प्रदान किया है। जिसके परिणामस्वरूप समाज में एक जागृति आई है। भारत जैसे विशाल लोकतंत्र के लिए यह अत्यावश्यक है कि सत्ता का विकेन्द्रीकरण कर गांव से जिला और स्थानीय स्वशासित संस्थाओं को प्रोत्साहित किया जाये तथा इनका त्रिस्तिरीय ढांचा निर्मित किया जाये। वह एक ऐसी व्यवस्था है जिससे प्रत्येक गांव एवं गांव के परिवार केन्द्र से जुड़ जायेंगे। पंचायती राज संस्थायें सामुदायिक विकास को प्रोत्साहित करें। ये संस्थाएं सहकारिता को व्यवहारिक रूप में लायें, सरकारी नीतियों को व्यवहारिकता का असली जामा ये संस्थायें ही पहनाने में समर्थ हैं, पंचायतों को स्वविकास के कार्यों के लिए स्वप्रेरणा से कार्य करना चाहिए,
इसके निमित्त उनके पास पर्याप्त अधिकारों का होना आवश्यक है। पंचायतों को दिए गए कार्यों को पूरित कराने के निमित्त पंचायतों को काम करने के साधन एवं व्यापक नियंत्रण के अधिकार दिये जाने चाहियें। ऐसी व्यवस्था को बढ़ावा दिया जाना चाहिए। इस प्रकार की नीतियां निर्मित की जानी चाहिये, जिससे कि भविष्य में पंचायतें व्यापक अधिकार प्राप्त कर सकें। स्पष्ट है कि स्वतंत्र भारत में पंचायती व्यवस्था के महत्व को समझा गया और लोकतंत्र की भावना के अनुरूप उन्हें समुचित अधिकार देने की दिशा में श्लाघनीय प्रयास किये गये।
केन्द्रीय विधायिका द्वारा 73वां संशोधन अधिनियम 1992 पारित किया गया। यह राजपत्र में उल्लिखित तिथि से प्रभावी हो गया है। इसे संविधान के अष्ट्म भाग के पश्चात् भाग नवम् में अंतस्थापित किया गया है। इस अधिनियम में वर्णित ‘जिला’ से तात्पर्य किसी राज्य के जिले से है। इस अधिनियम में ग्राम सभा से तात्पर्य ग्राम स्तर पर पंचायत के क्षेत्र के भीतर समाहित किसी ग्राम से संदर्भित निर्वाचक पंजिका में रजिस्ट्रीकृत व्यक्तियों से मिलकर बना निकाय अभिप्रेत है।
अधिनियम में उल्लिखित ‘मध्यवर्ती स्तर’ से ग्राम और जिला स्तरों के मध्य का स्तर अभिप्रेत है, जिसका निर्माण राज्य के महामहिम की सूचना से होता है। ‘पंचायत’ से आशय ग्रामीण क्षेत्रें के लिए संविधान अनुच्छेद 243-ख द्वारा निर्दिष्ट ग्राम के लिए गठित स्वायत्त शासन की किसी संस्था से है। ‘पंचायत क्षेत्र’ से आशय पंचायत के भौतिक क्षेत्र से है। जनसंख्या से आशय ऐसी जनसंख्या से है, जिसे शासन द्वारा जारी की गई निर्वाचन सूची में स्थान प्राप्त हो। संविधान के अनुच्छेद 243(क) उपबंधित करता है- कि ग्राम सभा ग्राम स्तर पर ऐसी शक्तियों का प्रयोग और ऐसे मूल्यों का निर्वहन कर सकेगी, जो राज्य की विधायिका द्वारा विधायन निर्मित कर उपबंधित किये जायेंगे।
संविधान का अनुच्छेद 243(ख) पंचायतों के गठन का प्रबंध करता है। इस अनुच्छेद के अनुसार प्रत्येक राज्य में ग्राम, मध्यवर्ती और जनपद स्तर पर इसके प्रावधानों के अनुरूप पंचायतों को अस्तित्व में लाया जायेगा। मध्यवर्ती स्तर पर पंचायत का गठन उस राज्य में नहीं किया जा सकेगा जिसकी जनसंख्या 20 लाख से न्यून है।
अनुच्छेद 243(ग) पंचायतों की संरचना के विषय में प्रावधान करता है। इसके अनुसार राज्यी विधायिका, विधायन द्वारा पंचायतों की संरचना के लिए उपबंध कर सकेगी। पंचायत के सभी स्थान पंचायत क्षेत्र द्वारा पूरित किये जायेंगे एवं इस प्रयोजन के निमित्त, प्रत्येक पंचायत क्षेत्र ऐसी विधि से प्रादेशिक निर्वाचन क्षेत्रों में बांटे जायेंगे कि प्रत्येक चयन क्षेत्र की जनसंख्या और उसकी आवंटित सीटों की संख्या के मध्य अनुपात समस्त पंचायत क्षेत्र में यथासाध्य एक ही हो। राज्य की विधायिका विधायन द्वारा पंचायतों की संरचना निर्धारित करेगी। किसी पंचायत के अध्यक्ष और अन्य सदस्यों को पंचायतों के अधिवेशनों में मत प्रदान करने का अधिकार होगा। जिला स्तर या मध्यवर्ती स्तर पर किसी पंचायत का अध्यक्ष उसके निर्वाचित सदस्यों द्वारा अपने में से चुना जाएगा।
अनुच्छेद 243(घ) पंचायत में स्थानों के आरक्षण के विषय में है। इसके अनुसार प्रत्येक पंचायत में परिगणित जातियों एवं जनजातियों के लिए स्थान आरक्षित रहेंगे और इस प्रकार आरक्षित स्थानों की संख्या का अनुपात, उस पंचायत में प्रत्यक्ष निर्वाचन द्वारा पूरित किया जायेगा। आरक्षण की व्यवस्था परिगणित जातियों एवं जनजातियों की जनसंख्या के आधार पर होगी, यह भिन्न-भिन्न निर्वाचन क्षेत्रें को चक्रानुक्रम से निर्धारित किये जायेंगे।
ऊपर वर्णित व्यवस्था के अन्तर्गत आरक्षित स्थानों की कुल संख्या के 1/3 स्थान परिगणित जातियों एवं जनजातियों की महिलाओं के लिए आरक्षित रहेंगे। प्रत्येक पंचायत में सीधे निर्वाचन द्वारा भरे जाने वाले स्थानों की कुल संख्या के एक तिहाई स्थान महिलाओं से भरे जाने की व्यवस्था भी यह अनुच्छेद करता है।
ग्राम पंचायतों को कार्यकाल अपने प्रथम अधिवेशन के लिये नियत तिथि से पांच वर्ष की अवधि तक रहेगी। इसी प्रकार राज्य अधिनियम 1992 में सदस्यों के लिये अहर्ताएं पंचायतों की शक्तियां, प्राधिकार एवं उत्तरदायित्व, कर आरोपित करने की शक्ति और पंचायतों की निधियां, वित्तीय स्थिति के पुनर्विलोकन हेतु वित्त आयोग का गठन, पंचायतों के लेखाओं की संपरीक्षा, पंचायतों के लिये निर्वाचन की व्यवस्था स्पष्ट की गई है।
तिहत्तरवें संशोधन अधिनियम ने पंचायती राज संस्थाओं को विधिक स्वरूप प्रदान करते हुये उनका तीव्र विकास किया है, जिससे पंचायतों का संरचनात्मक ढांचा विकास के सोपानों की उच्चता को प्राप्त कर सका है। चूंकि पंचायतें लोकतांत्रिक शक्तियों के पारस्परिक बंटन के अंतर्गत निर्मित की गई हैं, अस्तु पंचायतों के माध्यम से ग्रामीणों को राजनैतिक सत्ता में सम्यक भागीदारी प्रदान करना ही ग्राम के व्यावहारिक विकास की नींव निर्मित करना है। ग्रामीण जनसामान्य में पंचायतों के गठन का सकारात्मक प्रभाव पड़ा है। पंचायतों में निर्दिष्ट आरक्षण व्यवस्था ने परंपरागत ग्राम्य समाज में क्रांतिकारी परिवर्तन किये हैं। अब महिलाएं आरक्षण व्यवस्था के अंतर्गत पंचायतों में भाग ले रही हैं तथा अपने कार्य से ग्रामीण महिलाओं की प्रतिभा को नवीन आयाम प्रदान कर रही हैं। पुरुषों के विचारों के दर्प को भी खुलकर चुनौती मिल रही है कि वे महिलाओं से श्रेष्ठ कार्य सम्पादित कर सकते हैं। पंचायतों में महिलाओं की समुचित संख्या प्राप्त हुई है। वर्तमान में पंचायतें ग्राम के विकास हेतु सीमितता प्राप्त हुई है। वर्तमान में पंचायतें ग्राम के विकास हेतु स्तुत्यपूर्ण कार्यों को सम्पादित कर रही हैं। सड़क, पेयजल, प्राथमिक शिक्षा, प्राथमिक स्वास्थ्य, स्वच्छता आदि कार्यों को पंचायतों द्वारा ही किया जा रहा है।
पंचायतें जहां एक ओर विकास के लिए प्रतिबद्ध हैं, वहीं वे परंपरागत समाज में मौलिक परिर्वतन कर सकने में भी समर्थ हो रही हैं। महिला आरक्षण को पंचायत राज अधिनियम में पालित करके महिला सशक्तीकरण की सार्थकता देने का कार्य पंचायतें कर रही हैं। परिगणित एवं जनजातियों को पंचायत में यथेष्ट स्थान प्रदान करने के कारण आज पंचायतें वास्तविक लोकतंत्र की पृष्ठपोषक हो गई हैं। विकास कार्यों का उत्तरदायित्व संविहत करने के कारण सर्वहारा वर्ग के लोगों को भी जीविका के साधन पंचायतों ने प्रदान किये हैं। यह सत्य है कि पंचायतें वास्तविक संरक्षक की भांति ग्रामों के विकास हेतु कटिबद्ध प्रतीत होती हैं। आवश्यकता है तो मात्र शासन को इनके अधिकारों को और वृहद्ता प्रदान करने की एवं शासकीय प्रोत्साहन की। अतः यह सम्यक है कि 73वें संविधान संशोधन अधिनियम से पंचायती राज संस्थाओं के विकास को एक स्थायी संरचनात्मक ढांचा प्रदान किया है, जिसके परिणामस्वरूप एक सामाजिक क्रांति का आविर्भाव हुआ है।
Question : संविधान के 73वें और 74वें संशोधन भारत के सांविधानिक इतिहास और स्थानीय शासन में प्रमुख परिवर्तनकारी घटनाएं हैं।" टिप्पणी कीजिए।
(2006)
Answer : देश के स्थानीय शासन को सुदृढ़ता प्रदान करने हेतु लाए गए 73वें और 74वें संशोधन के पीछे एक लंबा राजनीतिक इतिहास है, ये क्रांतिकारी परिवर्तन एकाएक भारतीय राजनीतिक रंगमंच पर परिलक्षित नहीं होते, अपितु में अत्यधिक प्रतिबद्धता और समय के साथ लोकतांत्रिक मूल्यों की सुदृढ़ता का ही संकेत देते हैं। स्थानीय शासन के नियमित चुनाव, इनका एक समान पूरे देश में संरचनात्मक ढांचा, कमजोर वर्गों मसलन एससी/एसटी तथा महिलाओं की निश्चित भागीदारी, इनके कर्तव्यों, अधिकारों तथा आर्थिक संसाधनों का प्रावधान इत्यादि देश में स्थानीय शासन को सुदृढ़ एवं अधिक से अधिक लोकतांत्रिक बनाने का एक सात्विक प्रयास हैं।
जहां 73वां संशोधन पंचायतराज व्यवस्था को लक्ष्य करता है तथा सदियों से चली आ रही देश में पंचायत व्यवस्था को संवैधानिक दर्जा देने के साथ ही उसकों एकरूपता प्रदान करता है। 74वां संविधान संशोधन देश में नगरीय स्थानीय संस्थाओं को संचनात्मक एकता तथा अस्तित्व के संकट से उबारता है।
चुनाव का नियमित अवधि पर संपन्न होना अर्थात् प्रत्येक पांच वर्ष पर, राज्य के निरंकुश व्यवहार पर रोक लगाता है तथा संस्था को संवैधानिक सुरक्षा मुहैया कराता है।
महिलाओं की भागीदारी स्थानीय शासन में, राज्य और केंद्र दोनों ही जगह एक प्रकार से आदर्श को स्थापित करती है, परंतु दुर्भाग्यवश राज्य और केंद्र अभी तक उसे पाने में असफल ही रहे हैं।
तृणमूल लोकतंत्र को सुनिश्चित करते 73वें और 74वें संशोधन की आत्मा, भारत के राजनीतिक पटल पर लोकतांत्रिक व्यवस्था के सुदृढ़ीकरण की व्यवस्था का एक क्रांतिकारी कदम आवश्यक है, क्योंकि जब तक देश की मूलभूत शासनिक इकाई सुदृढ़ नहीं होगी तो उसपर खड़ा लोकतंत्र का महल अपने अस्तित्व को कभी भी खो सकता है।