Question : "भारत का राष्ट्रपति परिवार में दादा-दादी की भांति कार्य करता है। यदि जवान पीढ़ी उसकी सलाह का अनुसरण नहीं करती हो तो भी वह कुछ कर सकने में नितांत असमर्थ होता है।" टिप्पणी कीजिए।
(2007)
Answer : भारत का राष्ट्रपति परिवार में एक अनुभव प्राप्त व्यक्ति की भांति कार्यरत रहता है। यहां भारत को एक परिवार रूप में दर्शित किया गया है तथा परिवार के अनुभव प्राप्त बुजुर्ग व्यक्तियों से राष्ट्रपति को इंगित किया गया है। यहां पर एक तरह से शासकीय व्यवस्था की कल्पना सामाजिक व्यवस्था को आधार बनाकर की गई है, जिससे यह तथ्य प्रकट होता है कि प्रशासन व समाज एक दूसरे से संगुम्फित हैं। जिस प्रकार परिवार में अनुभव प्राप्त बुजुर्ग व्यक्ति की बात न मानने पर वे कुछ कर पाने की स्थिति में नहीं होते, उसी प्रकार यदि भारत के राष्ट्रपति के परामर्श को मंत्रिपरिषद न अंगीकृत करे, तो राष्ट्रपति कुछ भी कर सकने में असमर्थ है।
सामान्य शब्दों में, उपरोक्त कथन राष्ट्रपति की असीमित शक्तियों तथा उसकी सीमाओं की विवेचना करता है। राष्ट्रपति से प्रधानमंत्री के सम्बन्धों की व्याख्या भी उपरोक्त कथन करता है।
राष्ट्रपति गणतंत्र का द्योतक है। पद एवं प्रतिष्ठा की उच्चता निश्चय ही राष्ट्रपति को सर्वोच्च गरिमा प्रदान करती है। संविधान का अनुच्छेद 53 राष्ट्रपति को संघ का शासन चलाने वाले सर्वोच्च व्यक्ति के रूप में अंगीकार करता है। संघ की कार्यकारी शक्तियों का अगाध ड्डोत राष्ट्रपति के पास है। संविधान के 73 व 74वें अनुच्छेद के अनुसार राष्ट्रपति व्यवहार में संविधानिक प्रधान है तथा वास्तविक शक्तियां मंत्रिपरिषद में निहित होती हैं। अनुच्छेद 74 की व्यवस्था के अनुरूप राष्ट्रपति अपनी कार्यपालिकीय शक्तियों का प्रयोग मंत्रिपरिषद की सहायता से और मंत्रणा से करेगा, वहीं अनुच्छेद 75 मंत्रिपरिषद को लोकसभा के प्रति सामूहिक रूप से उत्तरदायी बनाता है।
अतः यह कहना सम्यक् होगा कि यथार्थ रूप में राष्ट्रपति लोकसभा के प्रति उत्तरदायी होता है, लेकिन इस उत्तरदायित्व में मंत्रिपरिषद माध्यम का कार्य करती है और मंत्रिपरिषद भी सामूहिक रूप से निर्णय करके राष्ट्रपति के माध्यम से कार्यपालिकीय कार्यों को सम्पादित करती है। संविधान ने राष्ट्रपति को कोई प्रत्यक्ष वास्तविक शक्ति नहीं दी गई है लेकिन राष्ट्रपति पद की स्थिति और सत्ता को मर्यादापूर्ण बनाते हुये, उसे राज करने योग्य बनाया है, शासन करने योग्य नहीं।
भारतीय संविधान ने राष्ट्रपति को कार्यकारी, विधायी, वित्तीय, संकटकालीन एवं न्यायिक शक्तियों से अभिभूत किया है। राष्ट्रपति की सामान्य कालीन शक्तियों पर विवाद नहीं है, किन्तु पिछले कुछ समय से राष्ट्रपति की आपातकालीन शक्तियां विवाद का विषय रही हैं। संविधान निर्माताओं ने देश के विभाजन की विभीषिका से उद्भूत संक्रमित परिस्थितियों एवं आन्तरिक उपद्रवों तथा वाह्य आक्रमण से आसन्न परिस्थितियों को दृष्टिगत रखकर ही संविधान में आपातकालीन उपबंधों को स्थान प्रदान किया था। राष्ट्रपति की स्थिति को देखते हुए यह स्पष्ट है कि बहुत ही न्यून अवसरों पर राष्ट्रपति को स्वविवेक का प्रयोग करना पड़ता है, तथापि मूलतः वह विधिक स्वरूप में राष्ट्राध्यक्ष के रूप में राष्ट्र का प्रतिनिधित्व करता है। राष्ट्रपति संवैधानिक शक्तियों का भी प्रतीक है। राष्ट्रपति की शक्तियां यथार्थ रूप में मंत्रिपरिषद की सलाह पर निर्भर हैं।
वास्तविक कार्यपालिकीय शक्तियों पर राष्ट्रपति का अप्रत्यक्ष नियंत्रण होता है, जबकि प्रत्यक्ष नियंत्रण मंत्रिपरिषद का होता है। इसी कार्यपालिकीय शक्तियों पर नियंत्रण रखने वाली शक्तियों का प्रधान प्रधानमंत्री होता है।
संविधान के अनुसार राष्ट्रपति के कार्यों में योग प्रदान करने के निमित्त मंत्रिपरिषद की व्यवस्था की गई है, जिसका नेता प्रधानमंत्री को बताया गया है। यह मंत्रिपरिषद राष्ट्रपति के कार्यों के लिए विचार प्रदान करने का कार्य करेगी। यह भी संविधान में कहा गया है कि राष्ट्रपति अपने कर्त्तव्यों के निर्वहन में मत्रिपरिषद की मंत्रणा के अनुरूप ही कार्य करेगा। यह राष्ट्रपति का विशेषाधिकार है कि वह मंत्रिपरिषद द्वारा प्रदत्त मंत्रणा पर मंत्रिपरिषद को पुनर्विचार हेतु कह सकता है। यदि पुनर्विचार के पश्चात् मंत्रिपरिषद पुनः मंत्रणा राष्ट्रपति के पास प्रेषित करता है, तो राष्ट्रपति ऐसी मंत्रणा को स्वीकार करने हेतु बाध्य है। मंत्रिपरिषद द्वारा राष्ट्रपति को दी गई मंत्रणा की न्यायालय में जांच नहीं की जा सकती।
प्रधानमंत्री को एवं उसकी मंत्रिपरिषद को अस्तित्व में राष्ट्रपति ही ला सकता है। अन्य मंत्रियों का अस्तित्व राष्ट्रपति, प्रधानमंत्री की सलाह पर निर्मित करता है। मंत्रीगण राष्ट्रपति के प्रसादपर्यन्त अपने-अपने पद धारित कर सकेंगे। मंत्रिपरिषद विधायिका के निम्नसदन के प्रति सामूहिक रूप से उत्तरदायित्व ग्रहित करती है। प्रधानमंत्री का दायित्व है कि वह मंत्रिपरिषद द्वारा संघ कार्यों के शासन सम्बन्धी समस्त विनिश्चयों तथा प्रस्तावित विधि से संदर्भित सभी सूचनाएं राष्ट्रपति को प्रदान करेगा। संघ के कार्य प्रशासन से संदर्भित तथा विधान से संदर्भित प्रस्थापनाओं से सम्बन्धित जो जानकारी राष्ट्रपति को देगा। कोई ऐसा विषय जो मंत्रिपरिषद द्वारा विचारित न किया गया हो, किंतु जिसे किसी मंत्री ने विनिश्चित किया हो, प्रधानमंत्री राष्ट्रपति की इच्छा से उस विषय को मंत्रिपरिषद के सम्मुख विचार हेतु प्रस्तुत कर सकता है।
मूलतः भारत का राष्ट्रपति अपने मंत्रियों का परामर्शदाता, मार्गदर्शक, आलोचक एवं पिता सदृश है। संवैधानिक रूप से प्रधान होने के कारण राष्ट्रपति का पद राष्ट्र की राष्ट्रीय एकता का भी द्योतक है। राष्ट्रपति की सरकार द्वारा शासन संचालन में श्लाघनीय भूमिका है। किसी दल विशेष से सम्बन्धित न होने के कारण उसके निर्णयों में निष्पक्षता होती है। इसी निष्पक्षता के कारण वह मंत्रिपरिषद के निर्णयों में अपने प्रभाव का इस्तेमाल कर काफी हद तक पारदर्शिता ला सकता है। जनहित के मुद्दों पर राष्ट्रपति मंत्रिपरिषद केा प्रधानमंत्री के माध्यम से उचित भूमिका का निर्वहन किया है। स्वतंत्र भारत के अभी तक के राष्ट्रपतियों में राष्ट्रपति डॉ. राजेन्द्र प्रसाद, डॉ. सर्वपल्ली राधाकृष्णन, वेंकटरमण, नारायणन का कार्यकाल निश्चय ही चुनौतीपूर्ण रहा एवं इन सभी राष्ट्रपतियों ने चुनौतियों से प्रत्यक्ष सामना करते हुए विशुद्ध लोकतंत्र की आस्था को अक्षुष्ण रखा।
Question : "सचिवालय और निदेशालय के बीच विवाद सामान्यज्ञ बनाम विशेषज्ञ विवाद का ही परिणाम है" विश्लेषण कीजिए?
(2007)
Answer : सचिवालय और निदेशालय के मध्य विवाद सामान्यज्ञ बनाम विशेषज्ञ विवाद का ही परिणाम है। वस्तुतः सचिवालय नीति का निर्माण करता है और निदेशालय नीति को लागू करते हैं। सचिवालय में आई. एस. एस. अधिकारियों को नियुक्त किया जाता है जो कि सामान्यज्ञ की श्रेणी में आते हैं जबकि निदेशालय में तकनीकी अधिकारियों को नियुक्त किया जाता है। ये तकनीकी अधिकारी निदेशक बनते हैं, अतः सचिवालय व निदेशालय का सम्बन्ध विवादित रहता है।
लोक प्रशासन की एक मुख्य समस्या सामान्यज्ञ बनाम विशेषज्ञ प्रशासकों के आपसी सम्बन्धों की है। परम्परागत प्रशासन में सामान्यज्ञ प्रशासकों का जो वर्चस्व था जो कमोवेश रूप में आज भी बना हुआ है, लेकिन लोक कल्याणकारी राज्य के अभ्युदय ये प्रशासन के स्वरूप में व्यापक परिवर्तन किए हैं, जिससे अब प्रशासन का संचालन करने में विशेषज्ञ ज्ञान की आवश्यकता अनुभव की जाने लगी है। जटिल और विस्तृत प्रशासनिक दायित्वों के कारण प्रशासन तन्त्र में तकनीकी और विशेषज्ञ तत्वों का बहुत संख्या में समावेश हो गया है। आज प्रशासन में लोक सेवकों के स्पष्ट रूप से दो वर्ग बन गए हैं- प्रथम सामान्यज्ञ तथा द्वितीय विशेषज्ञ।
सामान्यज्ञ प्रशासन से आशय उस प्रशासन से है जो प्रशासनिक मामलों में विशेषज्ञता प्राप्त किए बिना ही प्रशासनिक कार्यों का संचालन करता है। भारत में अखिल भारतीय सेवाओं के प्रशासकों को इसी श्रेणी में रखा जा सकता है। वे बिना विशेषज्ञ ज्ञान प्राप्त किए ही सभी प्रकार के पदों का दायित्व निर्वाह करते हैं। विशेषज्ञ प्रशासक वह है जो प्रशासन के किसी कार्य विशेष का सम्पादन करने के लिए विशेषज्ञ ज्ञान या योग्यता का निर्वाह करता है, उस विशेषज्ञ को केवल उसी पद पर नियुक्त किया जा सकता है जिसका उसकी योग्यता से सम्बन्ध है। उदाहरण के लिए किसी इंजीनियर को केवल इंजीनियरिंग विभाग में ही नियुक्त किया जा सकता है। उसे मेडिकल या स्वास्थ्य विभाग का सचिव नहीं बनाया जा सकता है। इसका अर्थ यह है कि विशेषज्ञों के कार्यों में किसी भी रूप में परिवर्तन नहीं किया जा सकता है। पर इन अधिकारियों के काम की शैली तकनीकी होती है। ये अधिकारी भी अपने अनुभव तथा नवीन प्रशिक्षण के माध्यम से अपने-अपने क्षेत्रों विशेषज्ञता प्राप्त कर लेते हैं। आज प्रशासन में ऐसे विशेषज्ञों की आवश्यकता है जिसकी मांग भी की जा रही है।
परन्तु सामान्यज्ञ प्रशासकों का मत है कि प्रशासन का संचालन करने के लिए उदार या व्यापक दृष्टिकोण की आवश्यकता होती है, जिसका विशेषज्ञों में अभाव पाया जाता है। वे किसी विभाग विशेष में विशेषज्ञता प्राप्त करने और सतत रूप से उसी प्रकार के कार्यों का निष्पादन करते रहने के कारण अपनी दृष्टि को संकुचित तथा अपना दायरा सीमित बना लेते हैं। इस संकुचित दृष्टिकोण को रखने वाले विशेषज्ञों को नीति निर्माण करने को शक्ति प्रदान नहीं की जा सकती है। संकुचित दृष्टिकोण रखने वाले विशेषज्ञ की सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक और सांस्कृतिक चुनौतियों और परिवेश के परिप्रेक्ष्य में सही समय पर सही निर्णयों लेने में सक्षम नहीं होते हैं, क्योंकि उनमें इसकी सही समझ नहीं होती है।
सामान्यज्ञों और विशेषज्ञों का यह विवाद प्रशासन के लिए सही नहीं माना जा सकता है और प्रशासन के जनकल्याणकारी स्वरूप को देखते हुए इस विवाद को रोका जाना चाहिए। मंत्री सामान्यज्ञ व विशेषज्ञों दोनों के आपसी समन्वय, सहयोग और साझेदारी की भावना पर ही प्रशासन की उपयोगिता निर्भर करती है। इस भावना के विकास की दिशा में निम्नलिखित उपायों का अवलम्बन ग्रहण किया जाना चाहिएः
Question : "संसदीय विभागीय समितियों ने अनुदानों की मांगों का विश्लेषण करने में अपनी भूमिका प्रभावशाली ढंग से निभाई है।" मूल्यांकन कीजिए।
(2007)
Answer : संसदीय शासन व्यवस्थाओं में व्यवस्थापिका द्वारा देश के वित्तीय प्रशासन तंत्र पर दो तरफा नियन्त्रण रखने की व्यवस्था प्रचलन में है। कार्यपालिका द्वारा प्रस्तुत बजट प्रावधानों की स्वीकृति के समय व्यवस्थापिका के कार्य संचालन की प्रक्रिया लोक वित्त पर व्यवस्थापिका के नियंत्रण की प्रथम अवस्था मानी जाएगी, जबकि सरकारी व्यय से सम्बन्धित नियन्त्रण तथा महालेखा परीक्षक के प्रतिवेदन के सूक्ष्म परीक्षण की प्रक्रिया को वित्तीय नियन्त्रण की दूसरी महत्वपूर्ण अवस्था कहा जाता है।
1947 में स्वतंत्रता प्राप्ति के पश्चात लोक वित्त पर संसदीय नियन्त्रण को अधिक कारगर बनाने के लिए समिति प्रणाली का गठन किया गया। ये विभागीय समितियां अपने कार्य का संचालन अधिक क्षमता से कर सकें, इसके लिए स्पष्ट नियम-विनियम भी बनाए गए हैं। समिति का गठन, कार्य संरचना इत्यादि की व्यवस्था की गई है। इस दृष्टि से लोक लेखा समिति, प्राक्कलन समिति और लोक उद्यमों पर समिति जांच करने वाली समितियां हैं। प्रत्येक विभाग की अपनी विभागीय समिति भी होती है।
लोक लेखा समिति को कभी-कभी प्राक्कलन समिति के ही समान कार्य करना होता है। ये समितियां शक्ति का स्रोत हैं। ये समितियां शक्तिशाली नौकरशाही के कार्य की जांच करती हैं तथा इनके कार्य के बारे में प्रतिवेदन देती हैं।
समिति प्रत्येक लेखा पर विचार करते समय विभागीय अधिकारियों से स्पष्टीकरण मांगती है, यदि उसे कहीं अपव्यय अथवा हानि दिखाई दे और इसी दौरान वह प्रशासनिक तन्त्र के कार्य संचालन रीति की भी समीक्षा करके सुधार के आवश्यक सुझाव भी देती है।
सरकार के द्वारा प्रस्तुत बजट का विश्लेषण संसदीय समितियां करती हैं। खर्च के लिए मांगे गए रुपये के औचित्य की जांच की जाती है कि यह रकम तर्कसंगत है कि नहीं। प्रायः यह दृष्टिगत है कि सरकारी विभाग अधिक से अधिक पैसे की मांग रखते हैं।
अतः कार्य की प्रकृति व प्रणाली तथा प्रशासनिक संरचना को दृष्टिगत रखते हुए विभागों द्वारा मांगे गये धन की समीक्षा समितियां करती हैं, अतः अपनी रिपोर्ट को संसद में रखती हैं। वस्तुतः यह रिपोर्ट अनुदानों की मांगों का विश्लेषण करने में महत्वपूर्ण मानी जाती हैं। वस्तुतः ज्यादातर सांसद आर्थिक मामलों को समझ नहीं पाते हैं, अतः समितियां यह कार्य करती हैं, जिससे बजट की भाषा स्पष्ट और सरल हो जाए।
इस दृष्टि से इनका कार्य काफी महत्वपूर्ण है। लेकिन समय की कमी, कार्य की अधिकता, अर्थशास्त्र की जटिलता विभागीय अधिकारियों का नकारात्मक व्यवहार, सरकार पर जांच रिपोर्ट को मानने की बाध्यता न होना इत्यादि कारण समिति के कार्यों को कमजोर बनाते हैं। इन कमियों के होने के बाद भी संसदीय विभागीय समितियों ने अनुदानों की मांगों का विश्लेषण करने में अपनी भूमिका प्रभावशाली ढंग से निभाई है। इनकी रिपोर्ट विपक्ष के लिए धारदार हथियार के समान होती है और वित्त नियन्त्रण स्थापित करना सरल होता है।
Question : संविधान के कार्यकरण की समीक्षा करने के लिये राष्ट्रीय आयोग ने प्रशासनिक संस्कृति में क्रांतिकारी परिवर्तनों के सुझाव दिये हैं। सिविल सेवाओं और प्रशासन पर उसकी प्रमुख सिफारिशों का विश्लेषण कीजिये।
(2007)
Answer : संविधान के कार्यकरण की समीक्षा के लिये राष्ट्रीय आयोग का गठन केन्द्रीय सरकार द्वारा किया गया, इस आयोग ने संविधान के कार्यकरण की व्यापक समीक्षा की तथा प्रशासन में श्लाधनीय परिवर्तनों के सुझाव अपनी आख्या में प्रदान किये हैं।
नवीन राज्यों के गठन जन सेवाओं के विस्तार, विभागों तथा अन्य एजेन्सियों में वृद्धि, शासकीय उद्यमों की समस्याओं और विकास के अग्रगण्य साधन के रूप में प्रशासनिक व्यवस्था के बारे में साधारण रूचि इत्यादि वजहों से केन्द्र तथा राज्यों में बारम्बार प्रशासनिक सुधारों सम्बन्धी जांच की गई है। केन्द्र में इस प्रकार के अनुसंधानों को कई बार किया गया क्योंकि राज्यों की तुलना में केन्द्र पर जिम्मेदारियों का बाहुल्य है। राष्ट्रीय संविधान समीक्षा आयोग के अध्ययन एवं प्रतिवेदन के मूलाधार पर सिविल सेवाओं एवं प्रशासन में अग्रांकित परिवर्तन पर आवश्यक माने गये।
संक्रमित अवस्था से गुजरना हमारी प्रशासनिक संरचना सुधारों की मांग करनी है जबकि प्रशासनिक सुधार को कई भागों में प्रस्तावित किया जाता है।
विगत दस वर्षों में भारत सहित अन्यानेक राष्ट्रों में जाग्रत मानवाधिकारों की स्पृहा, सूचना के अधिकारों की स्पृहा प्रशासनिक पारदर्शिता की चाहत, उपभोक्ता संरक्षण की जागरूकता तथा आर्थिक उदारीकरण की तरंग निश्चय ही प्रशासनिक सक्षमता को नवीन रूप प्रदान कर सकने में समर्थ है।
प्रशासनिक सुधार से आशय प्रशासन में इस प्रकार के निश्चित बदलाव लाना है, जिनसे यह अपनी सक्षमताएं वृहद् कर सके एवं सामाजिक उद्देश्यों की प्राप्ति की दिशा में अग्रसारित् हो सके। प्रशासनिक सुधार मूलतः प्रशासनिक विकास का एक ऐसा यंत्र है, जो सुनियोजित एवं संगठित होने के साथ ही साथ क्रमिकता एवं सृजनात्मकता की आकांक्षा भी रखता है।
वर्तमान काल में विश्व के राष्ट्र आर्थिक एवं सामाजिक बदलाव की मुख्य धारा को अनुभूत कर रहे हैं। इस परिवेश में विश्व के समस्त राष्ट्र सामाजिक एवं आर्थिक लक्ष्य नवीन संभावनाओं के अनुरूप तीव्र गति से बदल रहे हैं, इन प्रगतिवादी उद्देश्यों की सम्प्राप्ति के लिए प्रशासन की संरचना, प्रक्रिया, एवं दर्शन आदि में आवश्यक सुधार किया जाना नितांत आवश्यक है।
प्रशासनिक परिवर्तन की यह स्पृहा वर्तमान में विकसित एवं विकासशील दोनों तरह के राष्ट्रों में दर्शित हो रही है। किन्तु
भारत जैसे रूढि़वादी समाज एवं प्रशासन पर अवलम्बित व्यवस्था के लिये यह विशिष्ट महत्ता रखती है।
हमारे संविधान में उल्लिखित आर्थिक, सामाजिक एवं राजनीतिक स्वतंत्रता एवं न्याय के उद्देश्यों की सम्प्राप्ति के निमित्त सिविल प्रशासन का विशिष्ट दायित्व है।
मूलतः भारत में वर्तमान प्रशासनिक सुधार राजनैतिक परिवर्तन, पंचवर्षीय योजनाओं एवं भ्रष्टाचार के उन्मूलन हेतु परमावश्यक है। इन्हीं कारणों को दृष्टिगत् रखते हुये सिविल सेवाओं में सुधार की परम आवश्यकता महसूस की जा रही है। राष्ट्रीय आयोग द्वारा अग्रांकित सिफारिशें की गई हैं-
वस्तुतः आयोग ने सुधार की सिफारिश के निमित्त लोक प्रशासन के किसी क्षेत्र की अवहेलना नहीं की। आयोग ने विस्तृत दृष्टिकोण को मूलाधार निर्मित कर अपनी आख्या को प्रकाशित किया। आयोग ने अपनी आख्या में इस तथ्य को स्वीकार किया कि प्रशासन अपनी वृहत् भूमिका के निर्वहन में विफल रहा है। संविधान ने सामाजिक आर्थिक व राजनैतिक न्याय को मूलभूत लक्ष्य उद्घोषित किया था जिसको अभी प्राप्त करना शेष है।
अपवंचित वर्गों के सदस्यों, विकलांगों, बालकों, महिलाओं की दयनीय दशा को सुधारने के साथ ही साथ विकासोन्मुखी कार्यों के सम्पादन का दायित्व भी प्रशासन पर ही है। प्रशासन अपनी संकुचित मानसिकता के कारण ऐसा नहीं कर सका जैसा कि करने का दायित्व प्रशासन पर था। प्रशासन परंपरा में निरंकुशता, तानाशाही, लालफीताशाही, जनसामान्य से दूरी, भाई-भतीजावाद एवं भ्रष्टाचार इत्यादि विषमताओं का हित चिंतक माना गया है। ये सभी विषमतायें विकासात्मक कार्यों में बाधा उपस्थित करती हैं। अतः प्रशासन में सकारात्मक बदलाव की स्पृहा की गई है।
देश के मौलिक विकास के निमित्त देश के सेवी वर्ग के प्रशासन को नूतनता के परिदृश्य में लाया जाना पर आवश्यक है। एकीकृत पदसोपानीय, औपचारिक, सत्तावादी, अनुत्तरवादी तथा स्वच्छन्द सेवी वर्ग प्रशासन की व्यवस्था की विरासत लोकतांत्रिक भारत के उत्तरदायित्वों के संवहन में निरर्थक सिद्ध हुई है।
ब्रिटिश शासन के समय विकसित प्रशासनिक संरचना में स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद अनेक परिवर्तन हुये हैं।
नियोजित विकारन के आरम्भ होने स्थानीय स्तर पर लोकतन्त्रत्मक संस्थाओं के विनिर्माण और राज्यों के कार्यों में अत्यधिक वृद्धि के कारण यह अनुभूत किया गया कि नितान्त औपचारिक तथा स्वकार्यों से सन्तुष्ट ढांचे में आवश्यक परिवर्तन किये जायें जिससे प्रशासन सामाजिक एवं आर्थिक बदलाव की नीतियों को क्रियान्वित कर सके व विकासात्मक कार्यों में अपनी भूमिका के साथ न्याय कर सके।
Question : यदि जानकारी शक्ति है, तो शायद किसी नागरिक को विभिन्न लोक प्राधिकरणों के कब्जे में गुप्त एवं विकासात्मक सूचनाओं के मुकाबले कोई और चीज अधिक सशक्त नहीं बना सकती है। इन कथन पर प्रकाश डालते हुये सूचना अधिनियम 2005 के गुणों-अवगुणों का विश्लेषण कीजिये।
(2007)
Answer : लोकतांत्रिक वातावरण अपने नागरिकों को यह संज्ञान कराने का वास्तविक अधिकार देता है कि शासन जनहित के कार्य किस प्रकार सम्पादित कर रहा है तथा वे प्राधिकारी जो शासन चला रहे हैं। उनका कार्यव्यवहार कितना लोकतांत्रिक भावनाओं के अनुरूप है। मूलतः यह जवाबदेयता लोकतंत्र को सार्थकता प्रदान करती है। एक सामान्य नागरिक जो कि लोकतांत्रिक राष्ट्र का सम्मानित सदस्य है उसे जनसामान्य द्वारा चयनित सरकार के कार्य व्यवहार को जानने का नैतिक अधिकार भी जनतंत्र प्रदान करता है।
इससे सूचना के अधिकार की अपरिहार्यता सुस्पष्ट होती है, अतः केन्द्रीय विधायिका ने लोकतंत्र की मूलभूत भावनाओं के अनुरूप ही सूचना का अधिकार 2005 को सम्मति प्रदान की है।
सूचना का अधिकार अधिनियम, 2005 के अस्तित्व में आने के कारण भारतीय लोकतंत्र को सच्चे अर्थों में संजीवनी शक्ति प्राप्त हुई है। इस विधि को राष्ट्र के जनतांत्रिक इतिहास में स्वर्ण आभा कहा जाये तो कोई अत्युक्ति नहीं होगी, क्योंकि इस विधायन ने लोकतांत्रिक इतिहास में प्रथम बार मुक्त शासन की संकल्पना को वैधानिक अधिकार प्रदत्त करते हुये देश के जनसामान्य के हाथों में एक दिव्यास्त्र को सौंपा है। इस अधिनियम द्वारा जनसामान्य के जीवन को चलाने के निमित निर्मित साधारणतः समस्त सरकारी नीतियों, निर्णयों, कार्यक्रमों एवं योजनाओं इत्यादि के बारे में किसी भी प्रकार की संगत सूचना अब सहजतापूर्वक बिना किसी भय व संकोच के एक प्राथमिक अधिकार के रूप में मांगी जा सकती है, जो कि इस अधिनियम द्वारा प्रदत्त शक्ति के अभाव में एक दुरूह कार्य था।
यह यथार्थ है कि हमारी केन्द्रीय विधायिका ने इस विधि को निर्मित कर मानवाधिकारों के जनतांत्रिक दृष्टिकोण को नवीन उच्चता से सुशोभित किया है और राष्ट्र की प्रशासनिक व्यवस्था में गहन जड़े जमा चुके भ्रष्टाचार रूपी विकृति एवं अधिकारी द्वारा अधिकारातीत कार्य की दूषित वृत्ति को सीमितता प्रदान करते हुये उत्तरदायित्व, पारदर्शिता एवं जबाबदेही के नवप्रकाश को प्रोत्साहित किया है।
सूचना के अधिनियम को परिचालित करने का श्लाधनीय कार्य निश्चय ही आज के शिक्षा से संतृप्त युग में सूचना के अधिकार की अवधारणा को धीरे-धीरे समस्त शिक्षित समाज द्वारा वैश्विक सार्वभौमिक अधिकार के रूप में मान्यता प्राप्त हुई है।
जब तक विश्व के लगभग प्रत्येक राष्ट्रवासियों के लिये सूचना के अधिकार को सुनिश्चित नहीं किया जाएगा तब तक उनका शासन वास्तविक अर्थों में सम्यक् शासन की श्रेष्ठता को प्राप्त नहीं कर पायेगा और अन्ततोगत्वा इस अधिकार की शून्यता के कारण राष्ट्र के सर्वांगीण एवं सन्तुलित विकास का उद्देश्य भी शून्य हो जायेगा। वर्तमान में भारत सहित विश्व के लगभग पचपन देशों ने अपने यहां इस तरह की विधि निर्मित की है, जो कि देशवासियों के सूचना से संदर्भित अधिकार को वैधानिक मान्यता प्रदान करते हैं। अन्यानेक राष्ट्रों में भी इस दिशा में स्तुत्य प्रयास वर्तमान में किये जा रहे हैं।
सूचना का अधिकार, 2005 के प्रकाश में आने से पूर्व हमारे देश के संविधान में अन्यानेक ऐसी विधियां विद्यमान थी, जिसमें परोक्ष या अपरोक्ष रूप से सूचना सम्बन्धी अधिकार की संलिप्तता को आभासित किया जा सकता था। इस दृष्टि से सूचना का अधिकार भारतीय विधिशास्त्र की नूतन उपलब्धि नहीं कहा जा सकता।
हमारे राष्ट्र की मौलिक विधियां भी इसका एक अनुपम समर्थन करती प्रतीत होती हैं। हालांकि इसमें सूचना के अधिकार को प्रत्यक्षतः शामिल नहीं किया गया है। संविधान के मौलिक विधियों के अनुच्छेद 19 (1) (क) एवं 21 का वृहद रूप में विवेचन करते हुये क्रमशः वाक् एवं अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता तथा जीवन के अधिकार में सूचना के अधिकार को भी समाहित माना गया है।
कई महत्वपूर्ण सुअवसरों पर यह विचार व्यक्त किया गया है कि भारत जैसे वृहद् लोकतांत्रिक देश में जनसामान्य को शासन की कार्यविधियों के संदर्भ में सूचनाएं प्राप्त करने का पूर्ण अधिकार देशवासी होने के कारण स्वतः ही प्राप्त हो जाता है विशिष्ट रूपेण उस स्थिति में जहां पर कोई शासकीय नीति निर्णय या योजना इत्यादि जनसामान्य के जीवन, स्वास्थ्य एवं आजीविका को नकारात्मक रूप से दंशित करने का दुराग्रह रखती हो।
इसके अलावा दण्ड प्रक्रिया संहिता, उपभोक्ता संरक्षण अधिनियम-1986, खाद्य अपमिश्रण निवारण अधिनियम; 1954, राष्ट्रीय सुरक्षा अधिनियम इत्यादि व्यवस्थाओं के द्वारा सूचना प्राप्त की जा सकती है। संसद के निम्न सदन में सदस्यगण जनता के हितार्थ प्रश्नों को पूछकर भी सूचना प्राप्त कर सकते हैं, क्योंकि संसद के सदस्यगण जनता द्वारा प्रत्यक्षतः निर्वाचित होते हैं। अतः उनके प्रश्नों में भी जनता की अभिव्यक्ति प्रतिबिम्बित होती है।
स्वतंत्रता प्राप्ति के पश्चात् हमारे देश में अति गोपनीयता की नीति का संवरण करके कभी राष्ट्रीय सुरक्षा, एकता, अखण्डता एवं जनहित का छद्म आवरण बनाकर जनसामान्य को कई महत्वपूर्ण शासकीय क्रियाकलापों के ज्ञान से विरत् रखा जाता था, जिसके भयावह परिणामों से एक तरह से शासकीय भ्रष्टाचार के आतंक को प्रोत्साहन प्राप्त होता था, वहीं दूसरी ओर शासन द्वारा सृजित कई जनकल्याणकारी एवं विकासोन्मुखी योजनाओं का सुपरिणाम भी जनसामान्य को उपलब्ध नहीं हो पाता था। जिससे देशवासियों के अन्तस् में कहीं न कहीं संदेह एवं आक्रोश की भावना प्रस्फुरित होने लगी थी।
ज्यादातर अवसरों पर सटीक सूचना व ज्ञान की न्यूनता के कारण जनसामान्य यह तक संज्ञान में नहीं ला पाते थे कि उनके विकास, कल्याण एवं सुरक्षा के निमित्त शासन ने कितना अर्थ आवंटित किया था और निर्धारित अर्थ कहां पर एवं किस प्रकार व्यय किया गया।
ऐसी विषम स्थितियों को संज्ञान में लेते हुये हमारी संसद को यह आभासित होने लगा कि यदि हमें लोकतंत्रिक मर्यादाओं को अक्षुण्ण रखते हुये जनसहभागिता वास्तविक अर्थों में प्राप्त करनी है एवं जनता में विश्वास का विचार जाग्रत करना है तो सरकारी सूचनाओं की पहुंच जनसामान्य तक सुगमतापूर्वक सुनिश्चित की जाये। लोकतंत्र में शासन व उसके अंग स्वच्छन्द नहीं हो सकते हैं बल्कि जनता के प्रति उनके वैधानिक उत्तरदायित्व सुनिश्चित हैं, जिससे कि वे निश्चित रूप से जनता के प्रति जबाबदेह हैं।
इसी जबाबदेही को अनिवार्य करने के निमित्त सूचना सम्बन्धी विधि 2005 को केन्द्रीय विधायिका ने सहमति प्रदान की जिसे 12 अक्टूबर, 2005 से परिचालित किया गया।
इस जनकल्याणकारी विधायन में सूचना को विस्तृत ढ़ंग से व्याख्यायित किया गया और इसके अनुसार अनेक प्रकार की सूचनायें चाहे उनका स्वरूप जैसा भी हो, इसमें स्थान प्रदान किया गया। इस विधायन के अनुरूप अब कोई भी देशवासी अभिलेख, ई-मेल, परामर्श, विचार, प्रेस विज्ञप्ति, आदेश, निर्देश, दस्तावेज आख्या मानक व इलेक्ट्रॉनिक अनुमान के रूप में अंकित एवं निजी संस्थाओं से संबंधित ऐसी प्रत्येक सूचना सुगमतापूर्वक प्राप्त कर सकता है जिस तक किसी जन अधिकारी की पहुंच विधि के अधीन हो।
इस विधि में सूचना प्राप्ति के क्षेत्र को विशालता प्रदान की गई है अब देशवासी बिना किसी बाधा के या विलम्ब के किसी भी लोक प्राधिकारी के नियंत्रण में आगत सूचनाओं को प्राप्त करने की स्पृहा कर सकता है। सूचना की प्राप्ति को सुनिश्चित् करने के निमित अत्यन्त प्रभावी व्यवस्था को प्रश्रय दिया गया है। यह अपेक्षा की गई है कि शासन का प्रत्येक विभाग एक लोक सूचनाधिकारी की नियुक्ति करे, जिसका प्रमुख कर्त्तव्य जनसामान्य से सीधे आवेदन प्राप्त कर उन्हें अपेक्षित सूचनाएं प्रदान करें।
सूचना के अधिकार का परिचालन सम्यक् ढंग से हो, इसके लिये केन्द्रीय एवं राज्य सूचना आयोगों को अस्तित्व प्रदान किया गया है जिससे कि देशवासियों के सूचना सम्बन्धी अधिकार का किसी भी स्थिति में हनन न हो सके।
सूचना एक दिव्यशक्ति के समान है। इसके प्रयोग से जनसामान्य को शासकीय कार्यों एवं विकास योजनाओं में व्यय हुए धन का पूर्ण विवरण मांगने, संसद सदस्यों एवं विधानमण्डल के सदस्यों का लेखा जोखा जानने, सरकारी अभिलेखों का निरीक्षण करने, भ्रष्टाचार की अपवृत्ति को प्रकाशित करने, राहत कार्यों में होने वाली विषमता को जनसामान्य के संज्ञान में लाने तथा सामान्य जन से संगुम्फित् इस प्रकार की अन्यानेक समस्याओं के निवारण के लिये भी सूचना का अधिकार सच्चे अर्थों में एक ब्रह्मास्त्र सिद्ध हो सकता है।
सूचना के अधिकार में जो सूचना प्राप्त करने के लिये उत्सुक हैं, वह निर्धारित शुल्क के साथ सूचना अधिकारी के समक्ष सूचना प्राप्ति के लिये आवेदन करें। वह सूचना प्राप्ति से संदर्भित आवेदन प्राप्त होने के एक महीने के अन्दर आवेदनकर्त्ता को उसके द्वारा स्पृहित् सारी सूचनायें उपलब्ध कराये जो कि विधि के परितः मान्य हैं, लेकिन यदि आवेदन कर्त्ता द्वारा स्पृहित् सूचना किसी व्यक्ति के जीवन व स्वतंत्रता से संबंध रखती हैं, तो ऐसी परिस्थिति में यह समयाविधि प्रकरण की संवेदनशीलता को अधिमान्यता हेतु मात्र 48 घंटे निर्दिष्ट की गई है।
सूचना के अधिकार पर युक्तिसंगत निर्बन्धनों को भी मान्य किया गया है। ऐसी सूचना जिसके सार्वजनीकरण से देश की एकता, अखण्डता, सुरक्षा, वैज्ञानिक व आर्थिक हित या दूसरे देशों की एकता, अखण्डता, सुरक्षा, वैज्ञानिक व आर्थिक हित या दूसरे देशों के साथ मैत्रीपूर्ण सम्बन्ध पर नकारात्मक रूप से प्रभावित होने नहीं दी जा सकती। ऐसी सूचना जिसके प्रकाशन पर न्यायालय ने कोई प्रतिबन्ध आरोपित किया हो, न्यायालय द्वारा लगाये गये प्रतिबन्ध की समयावधि तक नहीं प्रदान की जा सकती।
ऐसी सूचना जिसके प्रकरण से किसी व्यक्ति के जीवन या शारीरिक सुरक्षा को खतरा उत्पन्न हो जाये, नहीं दी जा सकती। इसके अलावा ऐसी सूचना जिससे केन्द्रीय एवं राज्यों की विधायिकाओं की अवमानना हो, न्यायालय की अवमानना हो, के प्रकट करने पर बंधन है। सूचना उपलब्ध न कराने की अप्राकृतिक दशा में दण्ड की व्यवस्था भी सूचना के अधिनियम 2005 के अंतर्गत की गई है। सूचना न उपलब्ध कराने की विषम अवस्था में सूचना अधिकारी को 250 रूपये प्रतिदिन अर्थदण्ड देना होगा, जो कि अधिकतम 25,000 रूपये तक हो सकेगा। सूचना के अधिकार को दमित करने या उल्लंघन करने पर व्यक्ति एक तो लोक सूचना अधिकारी से पद में ज्येष्ठ अधिकारी के समक्ष एवं द्वितीय केन्द्रीय या राज्य सूचना आयोग के समक्ष अपील कर सकता है। इस प्रकार की अपील का विस्तारण दो से तीन पखवारे के अन्दर अवश्यमेव ही कर दिया जाना चाहिये।
सूचना के अधिकार को लेकर व्याप्त विषम चर्चायें भी हैं। इसकी प्रभावोत्पादकता व लोकोपयोगिता को लेकर कुछ नकारात्मक भ्रान्तियां भी हैं। लोक सूचना अधिकारी के समक्ष अधिकाधिक संख्या में सूचना प्राप्ति से संदर्भित आवेदन प्राप्त होंगे।
जिसके नकारात्मक परिणामस्वरूप सामान्य शासकीय कार्यों के सम्यक् सम्पादन में बाधा आयेगी। अधिकतम सूचना प्राप्ति के क्रियान्वयत पर व्यर्थ का शासकीय व्यय होगा। जनसामान्य कई अवसरों पर असंगत, अनावश्यक व सार्थकताविहीन सूचनाओं की स्पृहा करेगा। उपरोक्त सभी भ्रान्तियां एवं सन्देह आधारहीन हैं एवं अलोकतांत्रिक तानाशाही प्रकृत्ति के पोषक है, जबकि यथार्थ सत्य यह है कि सूचना का अधिकार प्रशासन में सफलता एवं समग्र विकास के कुशल क्रियान्वयन का मूलाधार है एवं देशवासियों को अत्यन्त शक्तिशाली स्थिति प्रदान करना है। इस प्रकार सूचना का अधिकार देशवासियों के अधिकार की सम्यक् दृष्टि से अनिवार्य है।
Question : भारत का प्रधानमंत्री भारत की सर्वोच्च संसद के प्रति न केवल जवाबदेह होना चाहिए, बल्कि वह ऐसा है यह दिखाई भी देना चाहिए। संविधान शक्ति के संदर्भ में भारतीय संसद के प्रति प्रधानमंत्री की जवाबदेही पर टिप्पणी कीजिये।
(2006)
Answer : संसदीय लोकतंत्रत्मक शासन व्यवस्था में प्रधानमंत्री वास्तविक कार्यपालिका की भूमिका निभाता है। इसी कारण उसकी पद स्थिति सर्वाधिक शक्तिशाली मानी जाती है। भारत में भी प्रधानमंत्री की पद स्थिति अत्यंत सम्मानित, शक्ति संपन्न तथा गरिमायुक्त है।
शासन सत्ता के शिखर पर आसीन प्रधानमंत्री की शक्तियां तथा कृत्य बहुआयामी हैं-
देश के लोकतांत्रिक शासक के रूप में यह भारतीय प्रजातांत्रिक मूल्यों में आस्था रखने वाला लोककल्याणकारी राज्य का संचालक होता है, जहां संसदीय लोकतंत्र की शासन प्रणाली प्रवर्तित है। यद्यपि संवैधानिक दृष्टि से राष्ट्रपति की स्थिति सर्वोच्च प्रतीत होती है तथापि देश का वास्तविक शासक प्रधानमंत्री ही होता है। देश में लोकतंत्र की वास्तविक स्थापना, जनसाधारण के कष्टों का निवारण तथा संवैधानिक निर्देशों की अनुपालना मुख्यतः प्रधानमंत्री तथा उसकी मंत्रिपरिषद के अन्य मंत्रियों की कार्यशैली से प्रभावित होती है।
(i) नीति निर्माता के रूप में संसदीय लोकतंत्र में राजनीतिक कार्यपालिका के सदस्य प्रधानमंत्री तथा उसकी मंत्रिपरिषद व्यवसथापिका या विधायिक का एक भाग होते हैं। इस प्रकार प्रधानमंत्री कार्यपालिका तथा विधायिका दोनों में प्रभावी भूमिका निभाता है। प्रधानमंत्री ही वह व्यक्ति है जो राष्ट्रीय समस्याओं, कार्यक्रमों योजनाओं तथा सामाजिक आर्थिक विकास के लिये आधारभूत नीतियां बनाता है।
यद्यपि ये नीतियां उस दल की मान्यताओं से अत्यधिक प्रभावित होती हैं, जिस दल का प्रधानमंत्री सदस्य होता है, तथापि नीति-निरूपण में प्रधानमंत्री की भूमिका सर्वोपरि होती है।
नीतियों के अतिरिक्त अन्य सामयिक कानूनों, योजनाओं तथा विकासपरक कार्यक्रमों के निर्माण, क्रियान्वयन, नियंत्रण तथा मूल्यांकन में प्रधानमंत्री की प्रभावशाली भूमिका है। भारत में बहुत सी नीतियां तथा कार्यक्रम प्रधानमंत्रियों के नामों से चर्चित रहे हैं, जैसे- नेहरू जी का पंचशील सिद्धांत, इंदिरा गांधी का गरीबी हटाओ, राजीव गांधी का कम्प्यूटरीकरण इत्यादि।
(ii) विकासोन्मुख नेतृत्व के रूप में भारत उन देशों में सम्मिलित है, जहां सामाजिक-आर्थिक विकास के लक्ष्य नियोजन प्रणाली के माध्यम से प्राप्त करने का प्रयास किया जाता है। योजना आयोग तथा राष्ट्रीय विकास परिषद् के अध्यक्ष के रूप में प्रधानमंत्री का विकास के क्रम में दृष्टिकोण तथा पहल करने की क्षमता राष्ट्र के समग्र विकास में निश्चित रूप से निर्णायक भूमिका निर्वाहित करती है। राष्ट्र की समस्याओं, जनाकांक्षाओं, उपलब्ध संसाधनों तथा कुशल प्रशासनिक तंत्र के साथ दूरदर्शितापूर्वक समन्वय स्थापित करने वाला प्रधानमंत्री ही विकास को नये आयाम दे सकता है।
प्रथम प्रधानमंत्री श्री नेहरू ने मिश्रित अर्थव्यवस्था के दृष्टिकोण को अपनाते हुए सामाजिक, आर्थिक विकास का प्रयास किया। वहीं राजीव गांधी ने अतिआधुनिक तकनीकी साधनों का विकास कार्यों में प्रयोग स्वीकार किया।
पिछड़े वर्गों, कृषकों, अल्पसंख्यकों महिलाओं, विकलांगों, शरणाथिरायों तथा विस्थापितों इत्यादि के उत्थान हेतु कारगर विकास कार्यक्रम प्रधानमंत्री की इच्छा पर निर्भर है।
(iii) संसद में राजनीतिज्ञ के रूप में सामान्यत प्रधानमंत्री लोकसभा का सदस्य होता है। बहुमत दल का सर्वसम्मत नेता होने के कारण उसे अन्य राजनीतिक दलों अर्थात् विपक्ष के नेताओं के साथ राजनीतिक वैचारिक भिन्नता तथा प्रधानमंत्री होने के कारण स्वभाविक शासकीय दबावों का सामना करना पड़ता है। इसी प्रकार प्रश्नकाल, विश्वासमत प्रस्ताव या अविश्वास प्रस्ताव इत्यादि के समय प्रधानमंत्री को सत्तारूढ़ दल तथा देश की वास्तविक कार्यपालिका दोनों दृष्टियों से बहस में उत्तर देना पड़ता है।
(iv) अन्तरराष्ट्रीय स्तर पर भारत के प्रतिनिधि के रूप में तेजी से भागाती दुनिया में हो रहे ध्रुवीकरण के कारण किसी भी देश की छवि उसके गुटों से भी प्रभावित होती है। गुटनिरपेक्ष आंदोलन राष्ट्रमंडल तथा सार्क के माध्यम से भारत की छवि न्यूनाधिक मात्रा में निष्पक्ष तथा शांति पसंद राष्ट्र की है। इसके लिये पूर्व प्रधानमंत्रियों की विचारधारायें तथा अंतरराष्ट्रीय मंचों पर भारत की सार्थक उपस्थिति महत्वपूर्ण रही है। इन सब में भारत के पक्ष को स्पष्ट करने में प्रधानमंत्री की भूमिका अहम् होती है।
सारांशत्ः भारत में प्रधानमंत्री कैबिनेट रूपी महल के कंगूर पर सज्जित दीपक की तरह दिखाई देता है, लेकिन वास्तव में वह उसकी आधारशिला है।
Question : न्यायपालिका, कार्यपालिका और विधानमंडल की भांति, लेखापरीक्षा भी लोकतंत्र के महत्वपूर्ण संघटकों में से एक है। टिप्पणी कीजिये।
(2006)
Answer : लेखा परीक्षण न्यायपालिका, कार्यपालिका और विधानमंडल की भांति जनता के शासन को सुशासन के रूप में सुनिश्चित करने का सात्विक प्रयास निरंतर करता है। लेखा परीक्षण लोकवित्त पर संसदीय नियंत्रण का अपरिहार्य अंग है। लेन-देन के पूर्ण होने के पश्चात् लेखाओं की जांच तथा परीक्षण लेखा परीक्षण कहलाता है। इस जांच का उद्देश्य किसी भी अनधिकृत, अवैध या अनियमित व्ययों, दोषपूर्ण वित्तीय कार्यविधियों की खोज तथा विधानमंडल को तत्संबंधी सूचना देना एवं यह पता लगाना होता है कि प्रशासन ने अपने उत्तरदायित्वों को सच्चाई के साथ पूरा किया है या नहीं।
लेखा परीक्षण प्रशासन के ऊपर बाह्य नियंत्रण का एक पहलू है और यह सभी वित्तीय लेन-देनों के लिये स्वतंत्र परीक्षण द्वारा प्रशासन को उत्तरदायी ठहराता है। सभी देशों के सरकारी लेखों की जांच में प्रधानतया दो बातें देखी जाती हैं। एक यह कि कानून संगत है, दूसरा यह कि वह सच्चाई से किया गया है। दूसरे शब्दों में, आडिट में यह देखा जाता है कि सभी व्यय कानून और नियम के अनुसार किये गये हैं और सभी खर्चे यथानियम प्रमाणक तथा उचित हैं। इस विषय में मतभेद है कि व्यय के औचित्य एवं मितव्यय का अंतिम निर्णय किसका मान्य हो-प्रशासन का या लेखा परीक्षक का।
सरकारी धन सर्वसाधारण का धन है और उसका अपव्यय किसी विशेष व्यक्ति या समुदाय के लिये अनुचित है। अतः लेखा परीक्षण के धन की सुरक्षा कर वित्तीय संदर्भों में लोकतांत्रिक मूल्यों की स्थापना करता है और न्यायपालिका, विधायिका और कार्यपालिका की भांति लोकतंत्र के चौथे स्तंभ का कार्य करता है।
Question : ‘कुछ पदों’ को लाभ के पद अधिनियम’ की अधिकारिता से बाहर निकाल कर भारत सरकार ने जनमानस को अपनी कथनी करनी के अंतर का द्विगुणित आश्वासन दे दिया है। टिप्पणी कीजिये।
(2006)
Answer : लाभ के पद का पदावली की संविधान या लोक प्रतिनिधित्व अधिनियम 1951 में कहीं कोई परिभाषा नहीं दी गई है। न्यायिक निर्णयों के आधार पर लाभ का पद पदावली से तात्पर्य ऐसे पद से है, जिससे लाभ मिल सकता है या जिससे व्यक्ति युक्ति-युक्त रूप से लाभ प्राप्त करने की आशा कर सकता है। लाभ के पद संबंधी हालिया घटनाक्रम का मूल भारतीय संविधान का अनु. 102 (1)(A) है।
इसके मुताबिक अगर कोई व्यक्ति केंद्र या राज्य सरकार के अधीन किसी लाभ के पद पर है, तो वह संसद के किसी भी सदन की सदस्यता के लिये अयोग्य होगा। इसके बाद जब भी जनप्रतिनिधियों में सत्ता भोग की लिप्सा बढ़ी, तो नये-नये पद सृजित होने लगे और उन पदों पर सुविधायेंभी बढ़ने लगीं। इस पर अंकुश लगाने के बजाये सत्ता के द्वार पर पहुंचकर बहुमत के जादुई आंकड़े में थोड़ी कमी का सामना करने वाले दल बहुमत के लिये उन पदों को हथियाने लगे।
केवल केंद्र में ही नहीं बल्कि राज्यों में भी बहुमत जुटाना कठिन कार्य हो गया। फिर जब 31वें संविधान संशोधन अधिनियम 2003 के द्वारा व्यवस्था की गई कि सदनों की सम्मिलित सदस्य संख्या के 15 प्रतिशत से अधिक लोगों को मंत्री का दर्जा नहीं दिया जा सकता तो लोक निगमों में लोक सेवक नियुक्त किये गये और उनकी सभी सुविधायें मंत्री जैसी ही रखी गईं। संसदीय लोकतंत्र में बढ़ती सत्ता की भूख और पद के केंद्रीकरण के कारणवश ऐसी मनोवृत्ति बढ़ी है।
Question : राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग द्वारा भारत के नागरिकों की गरिमा के अनुरक्षण एवं संरक्षण में निभाई गई भूमिका संतोषजनक और प्रत्याशा के अनुरूप रही है। स्पष्ट कीजिए।
(2006)
Answer : भारत की संसद ने मानवाधिकार संरक्षण अधिनियम 1993 पारित करके अक्टूबर 1993 में राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग गठित किया। यह एक वैधानिक संस्था है। मानवाधिकार भंग होने की स्थिति में देश के नागरिक आयोग के समक्ष कार्यवाही की प्रार्थना कर सकते हैं।
आयोग में एक अध्यक्ष व छह सदस्यों का प्रावधान है। उच्चतम् न्यायालयों का मुख्य न्यायाधीश अध्यक्ष के लिये पात्र होता है। वर्तमान में आयोग के चार पूर्ण सदस्य तथा दो समकक्ष सदस्य हैं। राष्ट्रीय महिला आयोग की अध्यक्ष तथा राष्ट्रीय अलपसंख्यक आयोग के अध्यक्ष को समकक्ष सदस्यों का स्तर प्रदान किया गया है। इन सबकी नियुक्ति राष्ट्रपति द्वारा की जाती है। अध्यक्ष तथा सदस्यों का कार्यकाल 5 वर्ष या 70 वर्ष की आयु जो भी पहले हो निर्धारित की गई है।
वस्तुतः भारत एक विकासशील देश है, जो सतत् विकसित होने के प्रयास में परंपरा और आधुनिक मूल्यों के संक्रमण के दौर से गुजर रहा है। इसके अतिरिक्त अभी देश में सामाजिक अवसंरचना जैसे शिक्षा, स्वास्थ्य सुविधायें इत्यादि भी अभी पूर्ण रूप से उपलब्ध नहीं हैं। इसके अतिरिक्त देश में सरकार लोकतंत्रिक गणराज्य जैसे महान आदर्शों पर आधारित है, जो देश के कल्याण हेतु बड़े-बड़े कार्यक्रमों का सृजन अवश्य करती है, परंतु वितरण तंत्र में कमी के कारण आज स्वतंत्रता के साठ वर्षों के उपरांत भी देश की बड़ी जनसंख्या, गरीबी, भुखमरी और अशिक्षा से ग्रसित है।
देश में नक्सलवाद और आतंकवाद जैसी सामाजिक बुराइयों और घटते पारिवारिक और सामाजिक मूल्यों के चलते बढ़ते यौन अपराध, बाल शोषण और संपन्न और विपन्न की गहरी खाई ने मानवाधिकार संरक्षण हेतु संस्थागत प्रयास की आवश्यकता को सामने रखा है। अधिनियम की धारा-12 में आयोग को निम्न कर्त्तव्य सौंपे गये हैं:
मानवाधिकारों के क्षेत्र में शोध करना एवं शोध के लिये प्रोत्साहन देना, गैर-सरकारी संगठनों को प्रोत्साहित करना, मीडिया प्रकाशन आदि को इसके संबंध में जागरूक करना। आयोग के कार्यों को सुदृढ़ता प्रदान करने हेतु इसे कई शक्तियां भी दी गईं हैं- जांच के प्रयोजन के लिये आयोग की सिविल न्यायालयों की शक्तियां प्राप्त हैं, जो सिविल प्रक्रिया संहिता 1908 के अंतर्गत किसी वाद का विचारण करने वाले न्यायलय को प्राप्त होते हैं।
सशस्त्र बल के सदस्य द्वारा मानवाधिकारों का उल्लंघन होने पर आयोग की शक्तियां इस प्रकार हैं:
(क) आयोग स्वप्ररेणा से अथवा कोई शिकायत, परिवाद या याचिका प्राप्त होने पर केंद्र सरकार से उस पर रिपोर्ट प्राप्त करता है।
(ख) ऐसी रिपोर्ट प्राप्त हो जाने पर आयोग या तो आगे कार्रवाई करता है या उस पर सरकार की अपनी अनुशंसायें प्रेषित करता है।
यह समय-समय पर केंद्र सरकार एवं संबंधित राज्य को अपनी वार्षिक रिपोर्ट तथा सामाजिक महत्व के अत्यावश्यक मामलों में विशेष रिपोर्ट प्रेषित करता है। ऐसी रिपोर्ट केंद्र सरकार द्वारा लोकसभा में तथा राज्य सरकार द्वारा विधानपालिका के पटल पर प्रस्तुत किया जाता है।
‘कल्याणकारी राज्य’ को सुनिश्चित करता राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग एक महत्वपूर्ण निकाय है। नागरिक स्वतंत्रताओं का संरक्षण आयोग के कार्यों का केंद्र बिंदु है। पुलिस कस्टडी में व्यक्ति का गायब होना, यातनायें या अन्य प्रकार के क्रूर, अमानवीय या असम्मानजनक बर्ताव की जांच को भी उच्च प्राथमिकता दी जाती है। इसी प्रकार लिंग संबंधी हिंसा कमजोर वर्गों पर अत्याचार के मामलों की जांच को भी विशेष महत्व देता है।
अतः आयोग निश्चित रूप से देश की जनता के लिये कठिन परिस्थितियों में अपने पिता की भांति अनुरक्षा एवं संरक्षण में सहायक है।