Question : "हमारे लोक क्षेत्र के घटिया निष्पादन के लिए दोष उस ढंग पर मढ़ा जा सकता है, जिस ढंग से हमारा अधिकारी तंत्र संरचित है।" विश्लेषण कीजिए।
(2007)
Answer : हमारे देश में लोक क्षेत्र के घटिया निष्पादन का प्रमुख कारण नौकरशाही के कार्य करने का तरीका है। ब्यूरोक्रेसी अथवा नौकरशाही का शाब्दिक अर्थ डेस्क सरकार अथवा ब्यूरो द्वारा सरकार से भी लिया जाता है। मार्कस ने नौकरशाही का अर्थ विभिन्न प्रकार से व्यक्त किया हैः
नौकरशाही की एक विशेषता उसमें लालफीताशाही को अपनाया जाना है। लालफीताशाही को हम नियमों-विनियमों के पालन में आवश्यकता से अधिक बारीकी की प्रवृत्ति कह सकते हैं, जब लालफीताशाही बहुत अधिक बढ़ जाती है तो प्रशासन में लचीलापन समाप्त हो जाता है।
फलस्वरूप प्रशासनिक निर्णयों में देरी होती है और प्रशासनिक कार्यों के संचालन में सहानुभूति, सहयोग आदि का महत्व गौण हो जाता है। लालफीताशाही नौकरशाही को कठोर, यन्त्रवत् और अत्यन्त औपचारिक बना देती है। लालफीताशाही के कारण ही नौकरशाही अपने कार्य को ठीक ढंग से नहीं कर पाती है व बदनामी का शिकार होती है।
लोक उपक्रम अथवा लोक उद्यम या सार्वजनिक उपक्रम से आशय उन औद्योगिक संस्थाओं से है, जिन पर राज्य का स्वामित्व होता है और उनकी व्यवस्था प्रबन्ध संचालन राजकीय प्रशासन द्वारा किया जाता है। देश के औद्योगिकरण करने, देश के आर्थिक पिछड़ेपन को दूर करने, सार्वजनिक क्षेत्र में पूंजी निवेश को प्रोत्साहन देने, राष्ट्रीय अर्थव्यवस्था में चंद औद्योगिक घरानों के बढ़ते एकाधिकार पर नियंत्रण रखने और आर्थिक सत्ता के केन्द्रीयकरण को रोकने में इन सार्वजनिक उपक्रमों की महती भूमिका रही है।
लेकिन सार्वजनिक उपक्रमों का निष्पादन संतोषजनक नहीं रहा है, अतः लोक उपक्रमों की समस्याओं पर विचार आवश्यक है। भारतीय सार्वजनिक उद्यम अधिकांश मूलभूत समस्याओं से ग्रसित है जिनके निराकरण के बिना उसके कुशल कार्य निष्पादन की कल्पना नहीं की जा सकती है। इन उद्यमों पर प्रबन्धकीय समस्याओं का बहुत दुष्प्रभाव हुआ है। प्रायः इनके संचालन मण्डल में भारतीय प्रशासनिक सेवा के अधिकारी होते हैं जिनमें वाणिज्यिक तथा व्यवसयिक कुशलता का प्रायः अभाव पाया जाता है। ये अधिकारी लालफीताशाही से ग्रस्त रहते हैं, जिसका कुप्रभाव सार्वजनिक उद्यमों पर पड़ता है। भारतीय सार्वजनिक उद्यम अधिकांश रूप से घाटे में चल रहे हैं। घाटे की इस स्थिति को इनके सामाजिक उत्तरदायित्व के सिद्धान्त के आधार पर नजरअन्दाज नहीं किया जाना चाहिए।
यह महज समस्या को टाल देने वाली बात होगी। कुल राष्ट्रीय उत्पादन में सार्वजनिक क्षेत्र की औद्योगिक इकाइयों का अंशदान बहुत कम है और जिसमें लाभ की स्थिति है तो भी लाभदायकता की दर उनमें किए गए पूंजी निवेश की तुलना में बहुत कम है। भारतीय सार्वजनिक उपक्रम अपनी क्षमता का उपयोग नहीं कर पा रहे हैं। इन उपक्रमों को श्रमिक समस्याओं से भी जूझना पड़ता है, जिससे उत्पादन की मात्रा में कमी आती है। समय-समय पर भारतीय संसद में भी सार्वजनिक उपक्रमों की कार्यप्रणाली आलोचना का विषय रही है। अनेक बार अलाभकारी सार्वजनिक उपक्रमों को बन्द करने की मांग की जाती रही है। वर्तमान में भारत सरकार सार्वजनिक क्षेत्र के महत्व को स्वीकार करते हुए उनकी दशा को सुधारने के लिए प्रयत्नरत दिखाई देती है, अतः अधिकारी तन्त्र की कार्य प्रणाली और मनोवृत्ति के कारण ही सार्वजनिक उपक्रमों की निष्पादन क्षमता घटी है।
Question : "सरकार और लोक उद्यम के बीच ‘समझौता ज्ञापन योजना’ ने लोक उपक्रमों को अपने समग्र निष्पादन को सुधारने को मजबूर कर दिया है।" टिप्पणी कीजिए।
(2007)
Answer : भारत की आर्थिक व्यवस्था में लोक उपक्रमों की श्लाघनीय भूमिका रही है। स्वतंत्रता के नवी परिदृश्य में सार्वजनिक क्षेत्र ने त्वरित विकास किया है। लोक उपक्रम या लोक उद्यम से तात्पर्य उन उत्पादन की औद्योगिक संस्थाओं से है, जिन पर राज्य का स्वामित्व एवं नियंत्रण होता है एवं जिनकी व्यवस्था तथा प्रबंध-संचालन का पूर्ण दायित्व राज्य के प्रशासन द्वारा परिचालित किया जाता है।
लोक उपक्रम का अधीक्षण, प्रबन्ध एवं परिचालन राज्य या कोई अन्य राज्याधीन संस्था द्वारा किया जाता है। यदि सरकार एवं निजी क्षेत्र का साझा स्वामित्व हो, तो यह महत्वपूर्ण है कि सरकार का स्वामित्व में हिस्सा हो अर्थात्, सरकार का साझे में न्यूनतम रूप में भी हिस्सा 51 प्रतिशत से कम न हो।
सरकार को यह विशेषाधिकार है कि लोक उपक्रम के नित्यप्रति के प्रबन्धन या संचालन का दायित्व वह किसी अन्य संस्था को हस्तान्तरित कर सकती है, किंतु उच्चतस्तर पर प्रबन्ध सरकार सदैव अपने पास ही सुरक्षित रखती है। लोक उपक्रमों को संचालित करने का आधार वित्तीय आत्मनिर्भरता होता है। ये उपक्रम सामान्यतः एकाधिकार के रूप में संचालित किये जाते हैं। मूलतः एक लोक उपक्रम प्रबन्धकीय दृष्टिकोण से प्रायः पूर्ण होता है।
भारतीय अर्थव्यवस्था के विकास में सार्वजनिक क्षेत्र के उद्योगों की अग्रगण्य भूमिका रही है। सार्वजनिक उद्यमों का लक्ष्य है कि देश में भारी उद्योगों को आधार बनाया जाए और व्यवस्थापन की मूलभूत सुविधाएं उपलब्ध कराई जायें, जिससे देश नव तकनीक को ग्रहित कर आत्मनिर्भरता की ओर उन्मुख हो सके और स्वयं के प्रयास द्वारा आर्थिक सुदृढ़ता को प्राप्त कर सके, अपने यहां रोजगार के नवीन अवसरों को उत्पन्न कर सकें। देश के विभिन्न क्षेत्रें में सन्तुलित आर्थिक विकास हो सके, उत्पादन के साधनों पर जनता का एकाधिकार हो और वह आर्थिक विकास के कार्यक्रमों में कुशल सहभागिता कर सके। इन सब का मिश्रित प्रभाव यह होगा जहां आर्थिक क्रियाकलापों में तीक्ष्णता का दर्शन हो सकेगा।
वहीं मुद्रा के विकेन्द्रीकरण के परिणामस्वरूप सामान्य जन अपनी प्राथमिक आवश्यकताओं को पूर्ण कर सकने में समर्थ हो सकेगा, जनता के कल्याण का उत्तरदायित्व, धन का विकेन्द्रीकरण, सन्तुलित एवं प्रभावी आर्थिक विकास, उपभोक्ताओं के हितों की संरक्षा, आदर्श नियोक्ता की अग्रगण्य भूमिका के कारण लोक उपक्रमों को अपेक्षित परिणाम प्राप्त नहीं हो सके हैं। वस्तुतः लोक उपक्रम अपनी क्षमता को पूर्णतः क्रियान्वित कर सकने में सफल नहीं हो सके हैं और सरकार के लिये शुद्ध एवं कल्याणकारी उद्देश्यों को धारित करने के बावजूद अपनी उपदेयता को सिद्ध कर सकने में असमर्थ रहे हैं।
अप्रशिक्षित व्यक्तियों की नियुक्ति, कर्मचारियों की बहुलता, प्रबन्धकों की असफलता, तालाबंदी, युक्तिसंगत नीति का पालन न करना, राजनैतिक दबाव, नित्यप्रति के कार्य में शासकीय व्यवधान, वित्त की अउपलब्धता, नेतृत्व की क्षमता का अभाव के कारण लोक उपक्रमों ने अपनी प्रासंगिकता को विस्मृत कर दिया है। शासन के समक्ष यह यक्ष प्रश्न है कि किस प्रकार लोक उपक्रमों को जनता के लिए प्रासंगिक बनाया जाये। लोक उद्यमों की क्षमता को कैसे बढ़ाया जाये, यह प्रश्न आज सरकार के समक्ष अपने मूल स्वरूप में है। लोक उपक्रमों को पुनर्जीवन प्रदान करने के निमित्त शासन ने विभिन्न नीतियां निर्मित की हैं, किंतु इनके यथार्थ परिणाम आने शेष हैं।
लोक उपक्रमों को पूर्ण क्षमता से क्रियान्वित करने के लिए शासकीय नीतियों में से एक समझौता ज्ञापन योजना का केन्द्रीय उद्देश्य है कि लोक उपक्रमों को अपने पूर्ण स्वरूप को सुधारने हेतु विवश कर दिया जाये। लोक उद्यमों में लाभ न्यून होने के कारण क्षमता का सुनियोजित उपयोग न करना, कार्मिकों की परिलब्धियां उनकी कार्य स्थितियों के अनुसार न होना, दीर्घकालिक सुधार योजना, अत्यधिक उत्पादन कर वस्तु के बाजार की अउपलब्धता प्रबन्धकों की अदूरदर्शिता, कर्मचारियों की दूषित मनोवृत्ति, बीमार यूनिटें, सामाजिक एवं नागरिक सुविधाओं पर अत्यधिक ध्यान, अल्प विकसित क्षेत्रें में लोक उद्यमों की स्थापना इत्यादि हैं।
शासन द्वारा क्रियान्वित समझौता ज्ञापन नीति के आधार पर लोक उपक्रमों को व्यापक मात्रा में अधिकार प्राप्त हुये हैं। इसके द्वारा लोक उद्यमों में सरकार के हस्तक्षेप को सीमितता प्राप्त होने के साथ ही साथ शासकीय नियंत्रण में न्यूनता आभासित की गई है। अपने नित्यप्रति के कार्यों में लोक उद्यम वर्तमान में स्वतंत्र हैं। इससे लोक उद्यम काफी स्वायत्तता प्राप्त कर रहे हैं।
वे वित्त से संदर्भित एवं आवश्यकताओं के अनुरूप कोई भी निर्णय ले सकते हैं। समझौता ज्ञापन योजना सरकार द्वारा लोक उद्यमों को प्रदत्त ऐसा दिव्यास्त्र है जो निश्चय ही इनकी स्थिति को लाभ की ओर उन्मुख करने में सफल होगा, जिससे सरकार के साथ ही साथ उद्यमों को भी प्रतिष्ठा प्राप्त होने के साथ ही साथ लाभ भी प्राप्त होगा। अतः यह कहना सम्यक है कि समझौता-ज्ञापन योजना ने लोक उद्यमों को अपने समग्र निष्पादन को सुधारने हेतु विवश कर दिया है।