पर्यावरणीय हितैषी जलवायु स्मार्ट कृषि अपनाए जाने के कारण

वर्तमान में भारत तथा अन्य विकासशील देशों में जिस आधुनिक कृषि प्रणालियों को अपनाया जा रहा है उसके कई दुष्परिणाम सामने आ रहे हैं। भारत में भी हरित क्रांति के दुष्परिणाम सिर्फ खेती में ही नहीं बल्कि पर्यावरण तथा मानवीय स्वास्थ्य पर भी दिखने लगे हैं। आधुनिक कृषि प्रणालियों की मुख्य समस्याएं निम्न हैं-

  1. संसाधनों की मात्र व गुणवत्ता में गिरावट
  2. पैदावार एवं फसल उत्पादों की गुणवत्ता में गिरावट
  3. मृदा स्वास्थ्य में क्षरण
  4. मृदा में सूक्ष्म पोषक तत्वों की कमी
  5. भू-जल स्तर में निरंतर गिरावट
  6. खेतों में खरपतवार का बढ़ता प्रकोप
  7. किसानों की निम्न आय
  8. मृदा लवणीयता की समस्या
  9. खाद्य पदार्थों में विषैले कृषि रसायनों की उपस्थिति
  10. कीटनाशकों के प्रयोग में वृद्धि

पर्यावरणीय हितैषी प्रमुख कृषि प्रणाली

  • जलवायु स्मार्ट कृषिः यह वस्तुतः खाद्य सुरक्षा और जलवायु परिवर्तन की आपस में जुड़ी चुनौतियों का समाधान करने वाला एक एकीकृत दृष्टिकोण है जो बदलते जलवायु परिदृश्य में खाद्य सुरक्षा सुनिश्चित करने के लिए क्रषि प्रणालियों को परिवर्तित और पुनर्जीवित करने के लिए आवश्यक क्रियाओं को निर्देशित करने में म करती है। यह भविष्य में बढ़ती जनसंख्या के खाद्य आपूर्ति तथा सतत कृषि हेतु आवश्यक संकल्पना है।

उद्देश्य

  • कृषि उत्पादकता और आय में लगातार वृद्धि प्राप्त करना।
  • खेती को जलवायु परिवर्तन के अनुरूप बनाना।
  • ग्रीन हाउस गैसों के उत्सर्जन को कम कर जलवायु परिवर्तन के प्रभावों को कम करना।
  • एरोबिक धान प्रणालीः जल की सीमित उपलब्धता को ध्यान रखते हुए धान उत्पादन की इस विधि में धान के पौधे को खेत में तैयार कर सीधे ही खेत में बो दिया जाता है। इससे पानी की काफी ज्यादा बचत होती है तथा यह भारत को आभासी जल का भी लाभ पहुंचाता है।
  • इस विधि के अन्तर्गत खेतों में पानी नहीं भरते है इसलिए धान के खेतों में वायुदाब का वातावरण बना रहता है, जिसके परिणामस्वरूप विनाइट्रीकरण की क्रिया द्वारा नाइट्रोजन के ह्रास को रोका जा सकता है।
  • इस विधि के उपयोग से पर्यावरण प्रदूषण में भी कमी लाई जा सकती है। दूसरी तरफ धान की फसल में नाइट्रोजन उपयोग दक्षता एवं उत्पादकता में भी वृद्धि की जा सकती है।
  • पंजाब व हरियाणा सरकारों ने 50 हजार हेक्टेयर क्षेत्र में एरोबिक रोगों का जैविक नियंत्रण विधि से धान लगाने का लक्ष्य रखा है।

समेकित कीट प्रबंधनः इस विधि का प्रमुख उद्देश्य कीट/ खरपतवार नियंत्रण में कीटनाशी/शाकनाशी की मात्र को कम करना है।

  • समेकित कीट प्रबंधन हमेशा फसल उत्पादन के लिए खाद, पानी और कीटनाशकों के विवेकपूर्ण उपयोग का समर्थन करता रहा है।
  • इसी तरह नियमित निगरानी से कीटों पर समय पर कार्यवाही से गैर-जरूरी कीटनाशक प्रयोग में काफी कमी आती है।

कीटों तथा रोगों का जैविक नियंत्रणः खेती में प्रयोगशाला जनित मित्र जीवों जैसे धान के तना के लिए ट्राइकोग्रामा जयोनिकमा, तना के लिए टाईकोग्रामा चीलोनिस तथा टमटर फल छेदक और तंबाकू की इल्ली लिटुराद्ध के लिए न्यूक्लियोपोल वायरस का उपयोग इन कीटों के अनुकूल नियंत्रण के लिए किया जा सकता है।

  • भूमि में बहुत से ऐसे लाभकारी सूक्ष्म जीव पाए जाते है जो किसी न किसी प्रकार से रोग पैदा करने वाले रोग जनकों की संख्या एव क्रियाशीलता को प्रभावित करते हैं, जिससे जनित रोगों के प्रबंधन में म मिलती है।
  • इन लाभकारी सूक्ष्म जीवों की संख्या कृत्रिम विधि द्वारा मृदा में बढ़ाना एवं रोगजनक सूक्ष्म जीव की संख्या एवं क्रियाशीलता को कम करना रोग का जैविक नियंत्रण कहलाता है।

नीम लेपित यूरियाः फसल उर्वरक के रूप में यूरिया जब विघटित होता है, तो यह नाइट्रस ऑक्साइड नाइट्रेट अमोनिया और अन्य तत्वों में बदल जाता है तथा नाइट्रस ऑक्साइड हवा में घुल कर स्वास्थ्य के लिए खतरा बन जाती है।

  • यह अम्लीय वर्षा के साथ-साथ, जमीन में नाइट्रेट व अमोनिया घुलने से भूजल को प्रदूषित करता है।
  • यह कार्बन डाइऑक्साइड की अपेक्षा तापमान में 300 गुना तक वृद्धि करता है जो जमीन में मौजूद खेती के लिए लाभदायक बैक्टीरिया व अन्य सूक्ष्म जीवों की क्रियाशीलता पर भी इसका प्रतिकूल असर पड़ता है।
  • नीम लेपित यूरिया (एनसीयू) का प्रयोग यूरिया में उपस्थित नाइट्रोजन का मृदा में लीचिंग व डीनाइट्रीफिकेशन की क्रिया को कम करता है। इसके अलावा नीम युक्त यूरिया का प्रयोग करके नाइट्रोजन उपयोग दक्षता को भी बढ़ाया जा सकता है।
  • इसी क्रम में यूरिया बोरी की क्षमता 50 किग्रा से घटाकर 45 किग्रा की गई क्योंकि नीम लेपित यूरिया की 45 किग्रा की बोरी 50 किग्रा सामान्य यूरिया के बराबर काम करेगी।
  • इस प्रौद्योगिकी का उपयोग करने से कीटनाशक जीवों और रोगों के प्रकोप तथा ग्रीन हाउस गैस उत्सर्जन में कमी भी लाई जा सकती है।

कृषि वानिकीः कृषि वानिकी भूमि प्रबन्धन की ऐसी पद्धति है, जिसके अन्तर्गत एक ही भू-खण्ड पर फसलों के साथ बहुउदेशीय पेड़ों, झाड़ियों के उत्पादन के साथ-साथ पशुपालन को भी लगातार या क्रमबद्ध तरीकों से किया जाता है।

  • इससे न केवल भूमि की उपजाऊ शक्ति को बढ़ाया जाता है, बल्कि क्षेत्र की पारिस्थितिकी, सामाजिक एवं आर्थिक आवश्यकताओं की पूर्ति की जा सकती है।
  • समन्वित पोषण प्रबंधनः यह पौधों को पोषक तत्व प्रदान करने वाले सभी संभव स्रोतों जैसे रासयनिक उर्वरक, जैविक खादें, फसल अवशेष इत्यादि का कुशलतम समायोजन कर फसलों को संतुलित पोषण प्रदान किया जाता है।
  • रासायनिक उर्वरकों के अत्यधिक व अनुचित प्रयोग को कम करने हेतु इस प्रबन्धन का उपयोग किया जाता है। यह एक किफायती, पर्यावरण हितैषी तथा टिकाऊ प्रबंधन रणनीति है।

फसल विविधीकरणः यह प्रणाली फसलों की पैदावार में कमी तथा गुणवत्ता में भी गिरावट को रोकती है। इसमें धान फसलों के साथ दलहन फसले, बागवानी फसले, पशुपालन, मछली पालन व मधुमक्खी पालन किया जाता है।

  • फसल विविधीकरण में प्राकृतिक संसाधनों का भी उचित उपयोग होता है तथा खेती को टिकाऊ बनाया जा सकता है।
  • फसल विविधीकरण का मुख्य लक्ष्य पर्यावरण एवं मृदा स्वास्थ्य का बचाव और उच्च कृषि बढ़वार बनाए रखने, ग्रामीण रोजगार सृजन व बेहतर करना है।
  • यह तकनीकी और कार्य प्रणाली को किसानों तक पहुँचाकर देश में खाद्यान्न उत्पादन, बेहतर पर्यावरण और संसाधनों की मात्र व उनकी गुणवत्ता को बढ़ाता है।
  • मोटे अनाज की खेतीः मोटे अनाज स्वास्थ्यवर्धक होने के साथ साथ पर्यावरण को भी बेहतर बनाए रखने में म करते हैं। हमारे देश में मक्का, ज्वार, बाजरा, रागी, कोदों और मंडवा जैसे कई मोटे अनाजों की खेती की जाती है।
  • मोटे अनाज आयरन, जिंक, कॉपर व प्रोटीन जैसे पोषक तत्वों से भरपूर होते हैं। साथ ही धान व गेहूँ जैसी फसलों की तरह ग्रीन हाउस गैसों के बनने का कारण भी नहीं बनते हैं।

जैविक खेतीः बजट 2020-21 में रासायनिक उर्वरकों के जरूरत से ज्यादा इस्तेमाल पर रोक लगाने के लिए पारम्परिक जैविक खादों के उपयोग को बढ़ावा देने पर जोर दिया गया है। जैविक, प्राकृतिक और एकीकृत खेती को बढ़ावा देने की नीति पर जोर दिया जा रहा है।

  • इससे जहाँ एक ओर जैविक उत्पादों की बढ़ती वैश्विक माँग से किसानों को कम लागत में ज्यादा लाभ मिल सकेगा, वहीं रासायनिक उर्वरकों और कीटनाशकों के अधिक इस्तेमाल पर अंकुश भी लगेगा।
  • इस कदम से न केवल भूमि की उपजाऊ क्षमता का संरक्षण हो सकेगा, बल्कि सरकार पर सब्सिडी का बोझ भी कम होगा। जैविक खेती कृषि पारिस्थितिकी की दृष्टि से भी बहुत महत्वपूर्ण है, जैविक खेती का महत्वपूर्ण पहलू पर्यावरण सुधार है। प्राकृतिक संसाधनों का बेहतर प्रयोग और अन्य खाद्यान्नों जैसे-उर्वरक व कीटनाशकों का प्रयोग न होने से यह विधि पर्यावरण हितैषी भी है, क्योंकि इस विधि में भूमि जैव-विविधता भी बढ़ती है।
  • प्राकृतिक खेतीः उच्च गुणवत्ता वाली उपज का जहर मुक्त प्राकृतिक खेती जो गौ पर आधारित खेती का प्रारूप है।
  • जिसमें गाय के अवशिष्ट अर्थात् गाय का गोबर एवं गौमूत्र आदि में पाए जाने वाले असंख्य सूक्ष्म जीवाणु द्वारा फसलों को आवश्यक पोषक तत्व देकर कृषि उत्पादन को लेना, प्राकृतिक खेती या जीरो बजट नेचुरल फार्मिंग प्रणाली कहलाता है।

आगे की राह

  • खाद्य सुरक्षा पर सम्पूर्ण विश्व में चिंता है। कोविड-19 महामारी ने खाद्य सुरक्षा पर पुनः नए सिरे से चिंतन करने का मौका दिया है। जहाँ संयुक्त राष्ट्र के सतत् विकास लक्ष्य (Sustainable Development Goal-SDG) के अनुसार एक ऐसी दुनिया का सपना देखा जाता है, जहाँ कोई गरीब न हो, जहाँ कोई भूखा न हो वही इंटर गवरन्मेंटल पैनल ऑन क्लाइमेट चेंज के अनुसार साल 2050 तक हमें उपज में 10 से 25% तक की कमी देखने को मिल सकती है, इसका सम्पूर्ण विश्व की खाद्य उपलब्धि पर भारी प्रभाव होगा। जलवायु परिवर्तन के कारण पशुधन के क्षेत्र में भी उत्पादकता, भोजन और चारे की उपज और मवेशियों की सेहत में गिरावट दर्ज होगी। पौधों और जन्तुओं पर आधारित बीमारियों का फैलाव बढ़ जाने की भी संभावना है। किसानों की आय पर प्रभाव पड़ने से गरीबी के स्तर में भी वृद्धि हो सकती है।