लैंगिक हिंसा से महिलाओं की सुरक्षा

हाल ही में प्रकाशित राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण (NFHS)- 5 रिपोर्ट और यू. एन विमेन ने लैंगिक हिंसा की घटना को रेखांकित किया है। यू. एन. विमेन ने लैंगिक हिंसा में वृद्धि को शैडो पैनडेमिक की संज्ञा देते हुए महिलाओं के विरुद्ध हिंसा की रोकथाम संबंधी उपाय करने करने का आग्रह किया है।

  • इसके साथ ही NFHS-5 के अनुसार पांच राज्यों सिक्किम, महाराष्ट्र, हिमाचल प्रदेश, असम और कर्नाटक में घरेलू हिंसा के मामलों में वृद्धि देखी गई है। कर्नाटक में घरेलू हिंसा के मामलों में सबसे अधिक वृद्धि हुई है, जो NFHS-4 के 20.6% की तुलना में NFHS-5 में बढ़कर 44.4% हो गया है।
  • राष्ट्रीय महिला आयोग के अनुसार वर्ष 2021 में महिलाओं के खिलाफ अपराधों की शिकायतों में 46 प्रतिशत की वृद्धि हुई है।
  • हालांकि नोवेल कोरोना वायरस के वैश्विक प्रसार से पूर्व के भी आंकड़े दर्शाते हैं कि सम्पूर्ण विश्व में लगभग एक-तिहाई महिलाओं ने अपने जीवन में किसी न किसी रूप में हिंसा का सामना किया है। राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो के अनुसार सबसे ज्यादा लैंगिक हिंसा घरों के भीतर होती हैं। हिंसा करने वालों (शोषक) में अधिकतर महिला के रिश्तेदार, पति, दोस्त, सहकर्मी, पड़ोसी, नौकर एवं अजनबी होते हैं।

लैंगिक हिंसा क्या है?

मानवतावादी परिवेश में लैंगिक हिंसा का तात्पर्य किसी हानिकारक कृत्य के लिए एक सामूहिक शब्द, जो किसी व्यक्ति की इच्छा के विरुद्ध उसके साथ किया गया हो, जो पुरुषों तथा महिलाओं के बीच सामाजिक रूप से आरोपित (लैंगिक) अंतरों पर आधारित हो।

  • लैंगिक हिंसा विश्व में सबसे प्रचलित मानवाधिकार उल्लंघन है। इसकी कोई सामाजिक, आर्थिक या राष्ट्रीय सीमाएं नहीं होती है। यह पीड़ितों के स्वास्थ्य, गरिमा, सुरक्षा तथा स्वायत्तता को नुकसान पहुंचाती है। पुरुष और महिलाएं दोनों ही अपने सामाजिक लिंग की वजह से हिंसा का सामना कर सकते हैं, लेकिन सामाजिक लिंग आधारित कठोर विभेद तथा असमान शक्ति संबंधों की वजह से महिलाएं व लड़कियां इसके प्रति खासतौर से असुरक्षित होती है।

लैंगिक हिंसा के कारण

  • शोधकर्ताओं तथा विकास अभ्यासकर्ताओं द्वारा लैंगिक हिंसा का संयुक्त रूप से कारण बनने वाले वैयक्तिक, परिस्थितिगत तथा सामाजिक-सांस्कृतिक कारकों को समझने के लिए पारिस्थितिक ढांचे का उपयोग अधिक किया जाने लगा है। अतः हिंसा किसी एक कारक का परिणाम नहीं है, बल्कि यह सामाजिक परिवेश के विभिन्न स्तरों पर कारकों के सम्मिलन का परिणाम होता है।
  • आर्थिक संसाधनों तक सिमित या न के बराबर पहुँचः भारत की कुल जनसंख्या का लगभग आधी जनसंख्या महिलाओं की है। इसके बावजूद महिलाओं का श्रम बल भागीदारी बहुत कम या न के बराबर होती है। नकद एवं ऋण के संसाधनों तक सीमित पहुंच के कारण महिलाएं पुरूषों पर आर्थिक रूप से निर्भर हो जाती है।
  • परंपरागत नियमः परिवार में भेदभावपूर्ण परंपरागत नियम/रिवाज, जो महिलाओं को अधिकारों से वंचित रखते हैं। कानूनों द्वारा दिए गए अधिकारों के बावजूद कई परिवारों द्वारा अपनी बेटियों को सम्पत्ति के अधिकार से वंचित रखा जाता है।
  • जागरूकता का अभावः दहेज, यौन उत्पीडन, वैवाहिक बलात्कार, घरेलू हिंसा, तलाक के बाद वित्तीय गुजारा भत्ता, बच्चों की अभिरक्षा जैसे मुद्दों पर हिंसा के खिलाफ सख्त कार्रवाई सुनिश्चित करने वाले, कानूनों के बारे में जागरूकता की कमी, महिलाओं को अपने ऊपर होने वाले व्यवहारों के खिलाफ आवाज उठाने से रोकती है।
  • न्याय मिलाने में देरी होनाः न्यायलय में मामलों का कई सालों तक खीचते रहना, कानूनी प्रक्रियाओं में बहुत समय लगाना एवं बहुत कम ही मामलों में अपराधी को सजा मिलना, यह सभी कुछ ऐसे कारण हैं, जिनसे महिलाओं में हिंसा के मामलों में कानूनी सहायता लेने का साहस नहीं आ पाता है और वे हिंसात्मक परिस्थितियों में रहने को मजबूर हो जाती है।
  • पुरुषत्व वाली सोचः विश्व स्तर पर की गई अध्ययनों में पाया गया है कि महिलाओं के विरुद्ध हिंसा वहां अधिक सामान्य प्रचलित होती है, जहां लैंगिक भूमिकाएं कठोरता से निर्धारित और लागू की जाती हैं।

लैंगिक हिंसा का प्रभाव

  • महिलाओं पर हिंसा का प्रभाव बहुआयामी होता है। लैंगिक हिंसा के प्रायः शारीरिक, मनोवैज्ञानिक और सामाजिक प्रभाव होते हैं, पीड़ितों के लिए अन्योन्याश्रीत (आपस में संबंधित) होते हैं।
  • स्वास्थ्य समस्याः लैंगिक हिंसा का संबंध अनेक गंभीर स्वास्थ्य समस्याओं से होता है, जो तत्काल तथा दीर्घकालिक दोनों प्रकार की होती हैं। इसमें शारीरिक तथा मनोवैज्ञानिक स्वास्थ्य समस्याएं शामिल हैं।
  • शारीरिक प्रभावः लैंगिक हिंसा के कारण किशोरी बालिकाओं एवं वयस्क महिलाओं का यौन स्वास्थ्य प्रभावित होता है।
  • मनोवैज्ञानिक या मानसिक प्रभावः महिलाओं के साथ होने वाली हिंसा के मनोवैज्ञानिक और भावनात्मक प्रभाव, शारीरिक प्रभावों से अत्याधिक गंभीर और हानिकारक होते हैं। ऐसी घटनाएं महिला के आत्मविश्वास को घटाने के साथ-साथ अन्य मानसिक स्वास्थ्य समस्याएं भी उत्पन्न करती है। इसके कारण महिलाएं आत्महत्या कर सकती है या आत्महत्या करने की कोशिश कर सकती है।
  • बच्चों पर प्रभावः लैंगिक हिंसा का शिकार होते देखने वाले बच्चे या तो गुस्सैल और आक्रामक बन जाते हैं या फिर वे खामोश हो जाते हैं और अकेले रहना पसंद करने लगते हैं, जिससे वे मानसिक बिमारियों से भी ग्रस्त हो सकते हैं।
  • आर्थिक व सामाजिक प्रभावः लैंगिक हिंसा से ग्रसित महिलाएं सामुदायिक स्तर पर अस्वीकृत, बहिष्कार तथा सामाजिक दोषी मानी जाती है। इसके कारण महिलाओं को सामाजिक और आर्थिक गतिविधियों में भागीदारी की क्षमता में कमी आती है।
  • शिक्षा का बाधित होनाः भावी हिंसा का तीव्र भय, जो व्यक्तिगत पीड़ितों से समुदाय में अन्य सदस्यों तक फैलता है। महिलाओं के आत्मविश्वास को नुकसान पहुंचता है, जिसके परिणामस्वरूप महिलाएं सार्वजनिक स्थानों पर जाने से डरती है, जिसके कारण महिलाओं की शिक्षा बाधित हो सकता है।

महिलाओं के संरक्षण के लिए किया गया प्रयास

  • घरेलू हिंसा से महिला संरक्षण अधिनियम 2005: यह एक सिविल कानून है, जो पीड़ित महिलाओं को प्रदत रहत पर केन्द्रित है जैसे कि प्रतिपूर्ति, सुरक्षा, साझे घर में निवास करने का अधिकार आदि। यह अधिनियम महिलाओं के विरुद्ध भेदभाव के सभी रूपों के उन्मूलन पर संयुक्त राष्ट्र अभिसमय के सिद्धांतों को प्रतिष्ठापित करता है।
  • दहेज प्रतिषेध अधिनियमः यह एक अपराधिक कानून है, जो दहेज लेने व देने, दोनों को दंडनीय अपराध घोषित करता है।
  • भारतीय दंड सहिंता की धारा 498।: यह एक अपराधिक कानून है, जो पति व पति के उन नातेदारों पर लागू होता है, जिनके द्वारा महिलाआें के साथ निदर्यी व्यवहार किया जाता है।
  • महिलाओं का कार्यस्थल पर लैंगिक उत्पीडन (निवारण, प्रतिषेध और प्रतितोष) अधिनियम 2013: यह अधिनियम कार्यस्थल पर महिलाओं को लैंगिक उत्पीडन से सुरक्षा प्रदान करने का प्रावधान करता है। यह कार्यस्थल पर लैंगिक उत्पीडन को परिभाषित करता है तथा शिकायतों के निवारण के लिए एक तंत्र स्थापित करता है।

स्कूली शिक्षा में गुणवत्ता, चुनौतियाँ और विकास

हाल ही में किए गए राष्ट्रीय उपलब्धि सर्वेक्षण और शिक्षा की वार्षिक स्थिति रिपोर्ट ने स्कूलों में शिक्षा की गुणवत्ता और विकास के मुद्दों को रेखांकित किया है।

  • हालांकि गुणवत्तापूर्ण शिक्षा की कोई मानक परिभाषा नहीं है, परन्तु इसे आमतौर पर प्रत्येक छात्र के सामाजिक, भावनात्मक, मानसिक, शारीरिक और संज्ञानात्मक विकास पर केन्द्रित माना जाता है, जो बच्चों को जीवन के लिए तैयार करता है न कि केवल परिक्षण के लिए।

गुणवत्तापूर्ण शिक्षा के महत्व

  • स्कूल छोड़ने वाले बच्चों की संख्या में कमी आएगीः गुणवत्तापूर्ण शिक्षा प्रदान करने से स्कूल छोड़ने वाले बच्चों की संख्या में कमी आएगी। जहां एक सुखद प्राथमिक अनुभव एक बच्चे को माध्यमिक स्कूल जारी रखने और उच्चतर शिक्षा प्राप्त करने के लिए प्रेरित करता है, वहीं एक उत्साहहीन व उबाऊ प्राथमिक शिक्षा अवधि के कारण बच्चे प्राथमिक शिक्षा पूरी करने से पहले ही स्कूल छोड़ देते हैं। वास्तव में 36 प्रतिशत बच्चे प्राथमिक शिक्षा पूरी करने से पहले ही पढाई छोड़ देते हैं।
  • सतत विकास लक्ष्य को हासिल करनाः सतत विकास लक्ष्यों को हासिल करने का सबसे प्रभावी साधन पूरी तरह से गुणवत्तापूर्ण शिक्षा है। लोगों को एक सतत अर्थव्यवस्था के विचार का समर्थन करने के लिए कौशल की आवश्यकता होती है, जिसे केवल गुणवत्तापूर्ण शिक्षा के माध्यम से ही आत्मसात किया जा सकता है।
  • अर्थव्यवस्था में उत्पादकता का बढ़नाः एक शिक्षित व्यक्ति अर्थव्यवस्था में उत्पादकता के स्तर को बढाता है, जो समृद्धि की कुंजी है। शिक्षा गरीबी कदुष्चक्र से बचने, रोजगार, बेहतर आजीविका और व्यापक अवसरों को सुनिश्चित करता है।
  • असमानता में कमी और लैंगिक समानता का बढ़ावाः गुणवत्तापूर्ण शिक्षा असमानताओं को कम करने और लैंगिक समानता तक पहुंचाने में म करता है। इसके अतिरिक्त गुणवत्तापूर्ण शिक्षा लोगों के मध्य सहिष्णुता को बढ़ावा देने और अधिक शांतिपूर्ण समाजों के निर्माण में योगदान देता है।
  • एक व्यक्ति के विकास लिए महत्वपूर्णः वैश्विक शोध से ज्ञात होता है कि मस्तिष्क का 90 प्रतिशत विकास 5 वर्ष की आयु तक होता है। इसका अर्थ है कि प्राथमिक शिक्षा की गुणवत्ता का बच्चे के विकास पर महत्वपूर्ण प्रभाव डालता है।

शिक्षा के अधिकार का संवैधानिक प्रावधान

  • मूल भारतीय संविधान के भाग- IV (DPSP) के अनुच्छेद 45 और अनुच्छेद 39(f) में राज्य द्वारा वित्तपोषित समान और सुलभ शिक्षा का प्रावधान किया गया।
  • शिक्षा के अधिकार पर पहला आधिकारिक दस्तावेज वर्ष 1990 में राममूर्ति समिति की रिपोर्ट थी।
  • वर्ष 1993 में उन्नीकृष्णन जेपी बनाम आंध्र प्रदेश राज्य और अन्य मामले में सर्वोच्च न्यायालय ने अपने ऐतिहासिक निर्णय में कहा कि शिक्षा का अधिकार अनुच्छेद 21 के अंतर्गत एक मौलिक अधिकार है।
  • तपस मजूमदार समिति (1999) ने अनुच्छेद 21(A) को शामिल करने की अनुशंसा की थी।
  • वर्ष 2002 में 86वें संवैधानिक संशोधन से शिक्षा के अधिकार को संविधान के भाग- III में एक मौलिक अधिकार के तहत शामिल किया गया।
  • इसे अनुच्छेद 21। के अंतर्गत शामिल किया गया, जिसने 6-14 वर्ष के बच्चों के लिये शिक्षा के अधिकार को एक मौलिक अधिकार बना दिया। इसने एक अनुवर्ती कानून शिक्षा के अधिकार अधिनियम 2009का प्रावधान किया।

स्कूली शिक्षा को गुणवत्तापूर्ण बनाने में चुनौतियाँ

  • योग्यता आधारित शिक्षा का अभावः वर्तमान में, स्कूलों का ध्यान मुख्य रूप से पाठ्यक्रम को पूरा करने और परीक्षा में पास कराने पर केन्द्रित है, जो बच्चों को उनकी शिक्षा आधारित अन्य क्रियाकलाप को प्रभावित करता है। इसलिए परीक्षा आधारित शिक्षा से योग्यता आधारित शिक्षा की ओर ध्यान देने की आवश्यकता है।
  • शिक्षा की गुणवत्ता पर पर्याप्त ध्यान का अभावः भारत ने स्कूली स्तर पर नामांकन में सुधार पर ध्यान देने के साथ लगभग-सार्वभौमिक स्कूल नामांकन हासिल किया है। परन्तु शिक्षा की गुणवत्ता की उत्तरोत्तर आवश्यक निगरानी और अधिगम के परिणामों की उपलब्धि पर तुलनीय ध्यान देने की आवश्यकता है।
  • शिक्षकों को गैर-शिक्षण कार्यों में संलग्नताः राष्ट्रीय शैक्षिक योनजा एवं प्रशासन संस्थान की एक रिपोर्ट के अनुसार, शिक्षक के वार्षिक स्कूल के घंटों का केवल 19 प्रतिशत ही शिक्षण गतिविधियों के लिए उपयोग किया जाता है, जबकि शेष समय गैर-शिक्षण गतिविधियों जैसे-चुनाव डड्ढूटी, डेटा संग्रहण, जनगणना आदि में उपयोग किया जाता है।
  • योग्य शिक्षकों की कमीः नीति आयोग के अनुमानों के अनुसार कई शिक्षक स्वयं अपने द्वारा पढाई जाने वाली कक्षा के विषय में 60-70 प्रतिशत से भी कम स्कोर कर रहे हैं।
  • जीवन-कौशल आधारित ज्ञान पर बहुत कम ध्यान देनाः पारंपरिक पाठ्यचर्चा और जीवन-कौशल सीखने के एजेंडे के बीच संगतता की संभावित कमी है।