हाल ही में पेगासस स्पाइवेयर विवाद ने भारत में साइबर निगरानी से संबंधित वाद-विवाद को और बढ़ा दिया है। निगरानी का आशय किसी व्यक्ति या समूह पर विशेष नजर रखने या गहन निरीक्षण से है, विशेष रूप से ऐसे व्यक्ति/समूह जिनकी स्थिति या गतिविधियां संदेहास्पद हैं या जिनकी गतिविधियों या स्थितियों का पर्यवेक्षण करना आवश्यक है।
पेगासस स्पाइवेयर क्या है?
पेगासस एक स्पाइवेयर सॉफ्टवेयर प्रोग्राम है, जिसे इजरायली साइबर सुरक्षा कंपनी NSO द्वारा विकसित किया गया है, जो उपयोगकर्त्ताओं के मोबाइल और कंप्यूटर से गोपनीय एवं व्यक्तिगत जानकारियां चोरी करता है एवं उन्हें नुकसान पहुंचाता है।
भारत में साइबर निगरानी और इससे संबंधित कानून
भारत में साइबर निगरानी मुख्य रूप से भारतीय तार अधिनियम, 1885 तथा सूचना प्रौद्योगिकी अधिनियम, 2000 के तहत की जाती हैः
राष्ट्रीय सुरक्षा बनाम गोपनीयता से जुड़ी चुनौतियां
निजता और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रताः उचित संदेह पर आधारित कथित जोखिम, विवादास्पद या उत्तेजक विचारों को व्यक्त करने, साझा करने और उन पर चर्चा करने की क्षमता को प्रभावित करता है।
प्रेस की स्वतंत्रताः ऐसे मे पत्रकारों और उनके स्रोतों की निजी सुरक्षा खतरे में पड़ सकती है, विशेषकर जिनका कार्य सरकार की आलोचना करना होता है। इसलिए, निजता के अभाव के कारण इन पत्रकारों में अविश्वास की भावना का सृजन होगा और प्रभावी रूप से उनकी विश्वसनीयता को प्रभावित करता है। ‘रिपोर्टर्स विदाउट बॉर्डर्स’ द्वारा प्रकाशित विश्व प्रेस स्वतंत्रता सूचकांक के वर्ष 2021 संस्करण में 180 देशों में से भारत को 142वां स्थान प्रदान किया गया है।
राष्ट्रीय सुरक्षा के समक्ष खतराः साइबर-आतंकवाद और साइबर-अपराधों की बढ़ती घटनाओं के कारण सूचना, कंप्यूटर सिस्टम एवं प्रोग्राम तथा डेटा के विरुद्ध हमला करने संबंधी गतिविधियों में वृद्धि हुई है, जिसके परिणामस्वरूपउप-राष्ट्रीय समूहों या गुप्त एजेंटों द्वारा गैर-लड़ाकू लक्ष्यों के विरुद्ध हिंसा की घटनाएं सामने आई हैं।
वाक् एवं अभिव्यक्ति की स्वतंत्रताः संसदीय या न्यायिक निरीक्षण की कमी के कारण, इलेक्ट्रॉनिक निगरानी विशेषकर कार्यपालिका को, निगरानी के विषय और व्यक्तियों को प्रभावित करने की शक्ति प्रदान करती है। इसके परिणामस्वरूप भय उत्पन्न कर लोगों की वाक् एवं अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को बाधित किया जा सकता है।
विधि की सम्यक् प्रक्रिया का उल्लंघनः कार्यपालिका द्वारा की जाने वाली निगरानी संविधान के अनुच्छेद 32 और 226 (क्रमशः उच्चतम न्यायालय और उच्च न्यायालयों द्वारा रिट जारी करने की शक्ति) के तहत प्रदत्त अधिकारों को सीमित करती है, क्योंकि कार्यकारी निगरानी को गुप्त तरीके से संचालित किया जाता है। इसलिए, प्रभावित व्यक्ति अपने अधिकारों के उल्लंघन संबंधी साक्ष्य को प्रस्तुत करने में असमर्थ होता है।