बाह्य अंतरिक्ष एवं भारत: कूटनीति का नया अवसर एवं चुनौतियां

भारतीय प्रधानमंत्री द्वारा क्वाड के सदस्य देशों संयुक्त राज्य अमेरिका, ऑस्ट्रेलिया तथा जापान के साथ संवाद के दौरान ‘बाह्य अंतरिक्ष सहयोग’ (Outer Space Cooperation) बढ़ाने पर जोर दिया तथा इस दिशा में भारत ने अमेरिका के साथ ‘अंतरिक्ष स्थिति जागरूकता समझौता ज्ञापन’ (Space Situational Awareness MoU) सम्पन्न किया है जो भारत को बाह्य अंतरिक्ष गतिविधियों के संबंध में डेटा और सेवाओं को साझा करने में म करेगा। भारत ने पहली बार किसी देश के साथ इस तरह का समझौता किया है, ज्ञात हो कि अंतरिक्ष सहयोग पर भारत और उसके क्वाड भागीदारों का जोर देना एक बृहद् प्रौद्योगिकी एजेंडे का भाग है।

बाह्य अंतरिक्ष में भारत की बढ़ती रुचि का कारण

  • 21वीं सदी की विश्व व्यवस्था को आकार देने के दृष्टिकोण से ‘उभरती प्रौद्योगिकियों’ (Emerging Technologies) की केंद्रीयता।
  • बाह्य अंतरिक्ष में शांति और स्थिरता को बरकरार रखने के लिये नए नियम बनाने की आवश्यकता।

बाह्य अंतरिक्ष

इसे सामान्य रूप में ‘अंतरिक्ष’ भी कहा जाता है। यह आकाशीय पिंडों के वायुमंडल के परे ब्रह्मांड के अपेक्षाकृत खाली क्षेत्रों को संदर्भित करता है। यहां कणों का घनत्व कम होता है, जिनमें मुख्य रूप से हाइड्रोजन, हीलियम, विद्युत चुम्बकीय विकिरण, न्यूट्रिनो, धूल, ब्रह्मांडीय किरणें आदि पाई जाती हैं। यह पृथ्वी से लगभग 100 किमी- ऊपर शुरू होता है, जहां हमारे ग्रह के चारों ओर पाया जाने वाला वायुमंडल गायब हो जाता है। यहां सूर्य के प्रकाश को बिखेरने और नीला आकाश उत्पन्न करने वाले कारक नहीं होते हैं। इस कारण अंतरिक्ष काला दिखाई देता है।

अंतरिक्ष स्थितिपरक जागरूकता (SSA)

  • इसके अंतर्गत अंतरिक्ष स्थित ऑब्जेक्ट्स - प्राकृतिक (उल्का) और मानव निर्मित (उपग्रह) की गति तथा अंतरिक्ष के मौसम पर निगरानी रखी जाती है।
  • एस.एस.ए. पर हस्ताक्षर होने के पश्चात् भारत का अमेरिका के साथ इस तरह का पहला समझौता होगा। गौरतलब है कि एस.एस.ए. पर अमेरिका ने दो दर्जन से अधिक देशों के साथ समझौते किये हैं।
  • इसके अतिरिक्त, अमेरिकी और भारतीय प्रतिनिधिमंडल ने आर्टेमिस (Artemis) नामक एक समझौते पर भी चर्चा की है।
  • आर्टेमिस, एक अमेरिका मिशन है, जो चंद्रमा और अन्य ग्रहों के ऑब्जेक्ट्स से संबंधित गतिविधियों के लिये मानदंड विकसित करना चाहता है।

भारत के लिए अवसर

  • नवीन प्रौद्योगिकियों का शोध एवं विकासः बाह्य अंतरिक्ष में जाने के लिए अत्याधुनिक नवीन प्रौद्योगिकियों की आवश्यकता होती है।
  • 21वीं सदी की वैश्विक व्यवस्था को आकार देने में उभरती प्रौद्योगिकियों की केंद्रीय भूमिका होगी। बाह्य अंतरिक्ष से संबंधित उन्नत प्रौद्योगिकियों के विकास की आवश्यकता ने भारत के लिए नए अवसर उपलब्ध कराए हैं।

इसरो की भूमिकाः वर्तमान समय में इसरो द्वारा प्रक्षेपण के क्षेत्र में वैश्विक प्रतिष्ठा प्राप्त है तथा यह विश्व के कई देशों के उपग्रहों का प्रक्षेपण कर चूका है। इस प्रकार भारत के पास इसके वाणिज्यिक दोहन की प्रबल सम्भावना है।

अंतरिक्ष में बढ़ती गतिविधियां एवं वैश्विक अंतरिक्ष बाजारः बाह्य अंतरिक्ष वैश्विक स्तर पर अंतरिक्ष उपग्रह प्रक्षेपण का बड़ा बाजार बन गया है तथा यह बाजार लगातार बढ़ रहा है। वर्तमान में इसके लगभग 450 बिलियन डॉलर मूल्य का होने का अनुमान है। इस दशक के अंत तक इसके बढ़कर 1.4 ट्रिलियन डॉलर होने की उम्मीद है।

  • इस बाजार का लाभ वही देश उठा सकता है जो बाह्य अंतरिक्ष में संचालित की जाने वाली गतिविधियों में निपुण हो। भारत ने अपना अंतरिक्ष कार्यक्रम 1960 के दशक में शुरू किया था, परन्तु वर्तमान में भारत विश्व के अग्रणी अंतरिक्ष क्षमता वाले देशों में शामिल है। अंतरिक्ष क्षेत्र में अंतरराष्ट्रीय सहयोग को बढ़ाकर भारत इसरो की क्षमता में वृद्धि कर सकता है। यह वैश्विक अंतरिक्ष उद्योग में भारत की हिस्सेदारी बढ़ाने में भी सहायक है, जो वर्तमान में लगभग 2 प्रतिशत है।

अंतरिक्ष पर्यटनः हाल के समय में बाह्य अंतरिक्ष एक पर्यटन गंतव्य के रूप में उभरा है। वर्तमान में स्पेस एक्स, ब्लू ओरिजिन आदि कंपनियां इसका दोहन कर रही है। अभी अंतरिक्ष पर्यटन शैशवावस्था में है, जिसके भविष्य में बढ़ने की पूरी संभावना है।

सैन्य शक्ति संतुलनः अंतरिक्ष धीरे-धीरे पृथ्वी पर सैन्य शक्ति संतुलन को आकार देने में एक महत्वपूर्ण कारक के रूप में विकसित हो रहा है। इसलिए, विभिन्न देशों के बीच अंतरिक्ष तथा उपग्रह प्रक्षेपण प्रौद्योगिकी में आगे निकलने की प्रतिस्पर्धा बढ़ रही है। भारत सहित अमेरिका, रूस, चीन ने उपग्रहों को अंतरिक्ष में नष्ट करने की क्षमता भी प्राप्त कर ली है।

भारत के लिए चुनौतियां

निजी क्षेत्र की कम भागीदारीः भारत का अंतरिक्ष कार्यक्रम मुख्य रूप से भारतीय अंतरिक्ष अनुसंधान संस्थान (इसरो) के द्वारा संचालित किया जाता है। इसरो एक सरकारी क्षेत्र का उद्यम है। अमेरिका, चीन और रूस जैसे देशों में विनिर्माण समर्थन के अलावा जटिल संचालन कार्यों में निजी क्षेत्र की उच्च भागीदारी पाई जाती है।

संस्थागत समर्थन की कमीः भारत में अंतरिक्ष क्षेत्र में निजी क्षेत्र को बढ़ावा देने से संबंधित एक उचित संस्थागत समर्थन की कमी पाई जाती है। भारत में एक उचित अनुकूल पारिस्थितिक तंत्र का भी अभाव पाया जाता है।

  • 2020 में भारत सरकार के द्वारा ‘भारतीय राष्ट्रीय अंतरिक्ष संवर्धन और प्राधिकरण केंद्र’ (Indian National Space, Promotion - Authorçation Centre-IN-SPACe) की स्थापना की गई है। अमेरिका की अंतरिक्ष एजेंसी नासा अपने वार्षिक बजट का एक हिस्सा निजी क्षेत्र में निवेश करने के लिए रखती है।

विशिष्ट कानून का अभावः भारत में कोई विशिष्ट व्यापक कानून नहीं है, जो अंतरिक्ष क्षेत्र से संबंधित पारिस्थितिक तंत्र को नियंत्रित करता हो।

  • विशिष्ट कानून के अभाव में इस क्षेत्र से संबंधित विभिन्न हितधारकों को वित्त, तकनीकी सहयोग, सार्वजनिक-निजी क्षेत्र की भागीदारी जैसे मुद्दों पर समस्या का सामना करना पड़ता है।

मानव संसाधन की चुनौतीः भारत में अंतरिक्ष क्षेत्र में कार्य करने में सक्षम कुशल मानव संसाधन की कमी है। इसका एक बड़ा कारण देश के विभिन्न संस्थानों में प्रदान की जाने वाली निम्न गुणवत्ता वाली शिक्षा है।

  • इसके साथ ही उच्च शिक्षा प्राप्त कुशल मानव संसाधन का देश से बाहर गमन भी होता है। इनकी एक बड़ी संख्या नासा सहित विभिन्न वैश्विक अग्रणी अंतरिक्ष अन्वेषण कंपनियों में कार्यरत हैं।

बाह्य अंतरिक्ष संबद्ध समस्याएँ

  • अंतरिक्ष में बढ़ता साइबर खतरा (हैकिंग और दूसरे सैटेलाइट दखल के जरिए),
  • उपग्रहों की बढती संख्या से टक्कर की बढ़ती आशंका,
  • अंतरिक्ष में मलबे का फैलाव,
  • अन्तरिक्ष प्रदुषण
  • अंतरिक्ष में हथियारों के प्रसार का शुरुआती रुझान और बड़े सैटेलाइट समूहों के द्वारा जबरदस्त रेडियो फ्रीक्वेंसी तरंगे।

अंतरराष्ट्रीय संगठनों और संधियों की कमजोरी

इन सबके साथ-साथ मून रश, संपत्ति अधिकारों, ट्रैफिक नियमों, आपराधिक संहिता और लागू करने वाली एजेंसियों को लेकर अंतरर्राष्ट्रीय स्तर पर कानून की कमी है।

बाह्य अन्तरिक्ष संधिः अंतरिक्ष क्षेत्र को विनियमित करने हेतु अंतरराष्ट्रीय स्तर पर 1960 व 1970 के दशक के कई कानून एवं संधियां हैं, उदाहरणस्वरूप 1967 की बाह्य अंतरिक्ष संधि आदि।

  • अब इन कानून व संधियों के प्रावधान अप्रासंगिक हो चले हैं। 1979 की चंद्रमा संधि (Moon Treaty) को अभी तक बड़ी-बड़ी अंतरिक्ष शक्तियों (अर्थात् देशों) ने अनुमोदित नहीं किया है, जो इसकी प्रासंगिकता पर सवाल खड़ा करता है।
  • अंतरराष्ट्रीय स्तर पर ऐसा कोई कानून या संधि नहीं है, जो बाह्य अंतरिक्ष से संबंधित विवादों के लिए एक ‘विवाद निवारण मैकेनिज्म’ उपलब्ध कराती हो।
  • यदि कोई देश ने गलती से या जानबूझकर किसी अन्य देश के सैटेलाइट को नष्ट कर दिया तो इसका समाधान कैसे किया जायेगा, इसके लिए अंतरराष्ट्रीय स्तर पर कोई समाधान तंत्र नहीं है।

आगे की राह

बैंक ऑफ अमेरिका का कहना है कि वर्तमान में बाह्य अंतरिक्ष मार्केट लगभग 350 बिलियन डॉलर की है, जिसके 2050 तक 2.7 ट्रिलियन डॉलर तक पहुंचने की संभावना है इसलिए भारत द्वारा बाह्य अंतरिक्ष में उपलब्ध अवसर का लाभ उठाने सार्वजनिक और निजी संस्थानों का आपसी सहयोग के साथ-साथ अंतरिक्ष अनुसंधान एवं विकास पर वित्तपोषण को बढ़ावा देकर एक स्वतंत्र नियामक स्थापित किये जाने की आवश्यकता है।

  • भारत के भावी अभियानों जैसे चन्द्रयान-3 के तहत लैंडर प्रथम अंतरिक्ष मानव मिशन (स्वदेशी) 2050 तक भारत का खुद का स्पेस स्टेशन की सफलता हेतु भारत की बाह्य अन्तरिक्ष नीति पर निर्भर करती है।