अफ़गानिस्तान संकट का कारण एवं प्रभाव

अमेरीका और मित्र राष्ट्रों से समर्थित नाटो सेनाओं का दो दशक (वर्ष 2001 से 2021) के बाद अफगानिस्तान से वापस आने के पश्चात अफगानिस्तान का राजनीतिक, सामाजिक, आर्थिक,

  • सांस्कृतिक एवं मानवीय सुरक्षा का परिदृश्य बदलने लगा तथा 15 अगस्त 2021 को तालिबान द्वारा बाद अफगानिस्तान की राजधानी काबुल पर कब्जा कर लिया तथा लोकतांत्रिक व्यवस्था के निर्वाचित सरकार के मुख्य राष्ट्रपति अशरफ गनी 15 अगस्त, 2021 को अफगान छोड़ना पड़ा।
  • 20 वर्ष पश्चात (सर्वप्रथम तालिबान अफगान में वर्ष 1996 से 2001 तक सत्ता में रहा) एक बार पुनः अफगानिस्तान में तालिबान का शासन प्राम्भ हो गया है। वस्तुतः अफगानिस्तान पर तालिबान के कब्जे की नींव फरवरी 2020 में अमेरिका और तालिबान के बीच सम्पन्न दोहा समझौता में ही रखी जा चुकी थी।

क्या था दोहा समझौता

29 फरवरी, 2020 को खाड़ी देश कतर की राजधानी दोहा अमेरिका और तालिबान के बीच शांति समझौता किया गया था जिसमें भारत को भी आमंत्रित किया गया था इसके प्रमुख विन्दु निम्न है।

  • इस समझौते में हिंसा का अंत, विदेशी सैनिकों की वापसी, अमेरिका-अफगान शांति वार्ता की शुरुआत और अल-कायदा और इस्लामिक स्टेट-खुरासान जैसे आतंकवादी समूहों द्वारा अफगान भूमि का उपयोग नहीं करने देने जैसे विषय शामिल थे।
  • समझौते के अनुसार, तालिबान ने हिंसा को कम करने का वादा किया, अंतरा-अफगान शांति वार्ता में शामिल होने और खुद को विदेशी आतंकवादी समूहों से अलग करने के लिए सहमत हुआ। वहीं, अमेरिका ने 1 मई, 2021 तक अपने सभी सैनिकों को वापस बुलाने का वादा किया।
  • दोहा वार्ता की प्रगति के लिए, तालिबान ने केवल अमेरिका के साथ सीधे बात करने का फैसला लिया था तथा अमेरिका ने विद्रोहियों के साथ सीधी बातचीत करने का फैसला किया।
  • इस समझौते के तहत तालिबान को शांति और स्थिरता का वादा निभाना था, लेकिन इसे न करने के बावजूद अमेरिका वापसी में जुटा रहा इससे तालिबान का दुस्साहस बढ़ा और वह अफगानिस्तान में घुसने लगा पाकिस्तान, चीन आदि देशों ने तो तालिबान की वापसी की सराहना की है, लेकिन दुनिया के देशों ने उसे मान्यता नहीं दी है, भारत इस पूरे मामले में ‘वेट एंड वॉच’ और ‘सॉफ्ट पॉवर’ की नीति पर आगे बढ़ रहा है।

अफगान संकट और अमेरिका की भूमिका

21वीं सदी में अफगानिस्तान को संकट 11 सितम्बर, 2001 को अमरीका के ‘वर्ल्ड ट्रेड सेन्टर’ पर आतंकवादी हमले से जुदा हुआ है। जब तालिबान जिस वक्त अफगानिस्तान में शासन कर रहा था जिम्मेदार अलकायदा ओसामा बिन लादेन अमरीका को सौंपने से इनकार कर दिया।

  • इस आतंकी हमले का जवाब देने के लिए अमरीका ने आतंकवादियों का सफाया करने के लिए ‘वॉर इन्डड्ढूरिंग फ्रीडम’ अभियान के तहत् अमरीका ने अफगान से तालिबान की सत्ता को बाहर कर दिया था।
  • इसके पश्चात हामिद करजई के नेतृत्व में एक अस्थायी सरकार का निर्माण कर दिया, परन्तु ओसामा बिन लादेन की खोज में एक दशक के लम्बे संघर्ष में उलझा रहा परिणामस्वरूप 12 मई, 2011 को ओसामा बिन लादेन को पाकिस्तान के ऐबटाबाद में मारा गया, लेकिन अमरीका 20 वर्षों तक अफगानिस्तान में उलझ कर रह गया।
  • 14 अप्रैल, 2021 को अमरीकी राष्ट्रपति जोसेफ बाइडेन द्वारा एक औपचारिक घोषणा की गई थी की अमेरिका मई से 11 सितम्बर तक पूरी तरह से अपनी सेना को अफगान से वापस बुला लेगा। इस घोषणा के साथ ही तालिबानी लड़ाकों ने अफगान सेनापर हमला बोल दिया।

वैश्विक प्रतिक्रिया

तालिबान शासन की स्थापना के पश्चात वैश्विक स्तर पर सबसे ज्यादा अमरीका की आलोचना की गई तथा उसकी विदेश नीति की असफलता माना गया परन्तु अमेरिका द्वारा यह कहा गया की उसका उदेश्य वहां लोकतंत्र की बहाली था न की मानव अधिकारों की रक्षा करना।

  • अफगानिस्तान पर तालिबान के कब्जे को कुछ देशों ने तत्काल समर्थन किया तो कुछ देशों ने विरोध किया।
  • चीन, रूस और पाकिस्तान द्वारा कुछ हद तक तालिबान का समर्थन किया है। अमरीका इंग्लैण्ड, फ्रांस, भारत और संयुक्त राष्ट्र संघ हैं, जिन्होंने मानवाधिकारों के उल्लंघन और वैश्विक आतंकवाद की चिंताएं जाहिर की है।
  • इराक, सऊदी अरब, कतर सहित अन्य मुस्लिम देश हैं, जिन्होंने कोई प्रतिक्रिया नहीं दी दुनिया कुछ ऐसे देश भी थे जिन्होंने अपने आप को इस मामले तटस्थ रखा हुआ है।

अफगानिस्तान संकट का प्रभाव

तालिबान के कब्जे के पश्चात मानवीय संकट के साथ ही वैश्विक शक्ति संतुलन, मानवीय सुरक्षा पर सीधा प्रभाव पड़ने की सम्भावना है परन्तु कुछ महत्वपूर्ण चिंताएं निम्नलिखित है-

  • अफगानिस्तान में आम नागरिकों, महिलाओं, बच्चों एवं अल्पसंख्यकों के मानवाधिकारों के हनन कला, संस्कृति, विज्ञान और उद्योग आदि क्षेत्रों के आधुनिकीकरण नकारात्मक रूप से प्रभावित होगा।
  • मध्य एशिया में शांति, सुरक्षा एवं शक्ति संतुलन के नए समीकरण स्थापित होने से भारत समेत अफगान के अनेक पड़ोसी राष्ट्रों के ‘राष्ट्रीय हित प्रभावित हो सकते हैं।
  • वैश्विक आतंकवाद बढ़ने की सम्भावना है।
  • अफगान में अनेक बहु-नृजातीय समूह रहते हैं, भविष्य में इन समूहों में वर्चस्व को लेकर गृह युद्ध के हालात पैदा हो सकते हैं।
  • अफगान में राष्ट्र निर्माण की प्रक्रिया में गतिरोध उत्पन्न हो सकता है। दक्षिण-पूर्व एशिया में इस्लामी कट्टरवाद, आतंकवाद तथा अफीम का वैध व्यापार बढ़ने की सम्भावना है।
  • अलकायदा आतंकी संगठन तथा पाकिस्तान का आईएसआई एजेंसी का प्रभाव बढेगा
  • वैश्विक मानवीय सुरक्षा को लेकर खतरा बढ़ सकता है

भारत पर प्रभाव

  • अफगानिस्तान की सत्ता पर तालिबान का नियंत्रण भारत के लिए भी चिंता का सबब है। दो दशकों में भारत ने अफगानिस्तान में करीब 22 हजार करोड़ रुपए का निवेश किया है। 1996 से 2001 के बीच जब अफगानिस्तान में तालिबान का प्रभुत्व था, तब भारत ने काबुल से रिश्ते खत्म कर लिए थे। अमेरिकी सेना के आने के बाद अफगानिस्तान में हामिद करजई की सरकार का गठन हुआ तो भारत फिर से काबुल में सक्रिय हो गया था इसलिए भारत पर इसके प्रभाव का मुल्यांकन आवश्यक हो जाता है
  • भारत द्वारा अफानिस्तान में किये जा रहे सलमा डैम प्रोजेक्ट, काबुल में अफगानिस्तान की संसद, भारत के बॉर्डर रोड्स ऑर्गेनाइजेशन का अफगानिस्तान में 218 किलोमीटर लंबा हाईवे प्रोजेक्ट्, जरंज-डेलाराम के अलावा भी कई सड़क निर्माण परियोजाओं में भारत ने निवेश कर रखा है इन सभी निवेशों का भविष्य अधर में पड़ने की सम्भावना है।
  • अफगानिस्तान में तालिबान का कब्जा भारत की आंतरिक सुरक्षा के लिए भी चिंता की बात है
  • अफगानिस्तान में तालिबान जैसे 20 से ज्यादा समूह हैं। चिंता करने वाली बात यह है कि यदि तालिबान ऐसे चरमपंथी समूहों को पनाह देता है तो ये भारत के लिए संकट उत्पन्न कर सकते हैं।
  • अफगानिस्तान से पाकिस्तान होकर एक मिलिटेंट कॉरिडोर बन सकता है। जो भारत के लिए चिंता की बात होगी।
  • अंतरराष्ट्रीय आतंकवाद को तालिबान से प्राप्त पुनः समर्थन और तालिबान की ओर से लड़ रहे जिहादी समूहों को पाकिस्तान द्वारा पुनः भारत की ओर मोड़ दिया जाना भारत के लिये एक गंभीर चुनौती होगी।
  • तापी परियोजना तथा चावहार बंदरगाह परियोजना के संकट में पड़ने की सम्भावना है
  • पकिस्तान और चीन अफगानिस्तान के साथ भारत की सीमा सुरक्षा तथा आंतरिक सुरक्षा के लिए खतरा पैदा कर सकते है

आगे की राह

अफगान में हुए इस बदलाव को लेकर पूरी दुनिया के देश ‘वेट एंड वॉच’ की नीति पर चल रहे हैं, अफगानिस्तान से अमेरिकी सैन्यबल की वापसी के प्रभाव भारत पर भी पड़ेंगे, उसे अपने हितों की रक्षा के लिये और अफगानिस्तान में स्थिरता की बहाली के लिये तालिबान तथा अन्य क्षेत्रीय शक्तियों के साथ मिलकर कार्य करना होगा।

तालिबान की सत्ता में वापसी को लेकर भले ही कुछ देशों ने समर्थन किया हो, लेकिन तालिबान द्वारा गठित अंतरिम सरकार को मान्यता देने में दुनियाभर के देश जल्दीबाजी करने की स्थिति में नहीं दिख रहे है। भारत को एक अंतर्संबंधित मिटिगेशन रणनीति अपनानी होगी। इससे भारतीय हितों की रक्षा करने और आतंकवाद के जोखिमों को कम करने में म मिल सकती है, साथ ही तालिबान पर पाकिस्तानी आईएसआई के बढ़ते प्रभाव, विशेष रूप से हक्कानी समूह पर नियंत्रण और काबुल में बढ़ती अस्थिरता के साथ अफगानिस्तान में भारत के दीर्घकालिक हितों को सुनिश्चित करना आसान हो सकेगा।