जातिगत जनगणना

हाल के दिनों में कई राजनीतिक दलों और सामाजिक चिंतकों ने भारत में जाति जनगणना कराने की मांग की है, जिसका सबसे प्रभावी कारक आरक्षण है।

  • इस मांग को मद्रास उच्च न्यायालय के एक निर्णय ने गति प्रदान करने का काम किया, जिसमें जातिगत जनगणना को आवश्यक बताया गया है। बीते समय के दो परिवर्तनों ने जातिगत जनगणना की मांग को गति को तेज कर दी है, पहला आर्थिक रूप से कमजोर वर्ग (EWS) का आरक्षण और दूसरा राज्यों को ओ. बी. सी. वर्ग की पहचान करने का अधिकार दिया जाना।

आर्थिक रूप से कमजोर वर्ग (EWS) का आरक्षण

  • वर्ष 2019 में 103वें संविधान संशोधन के माध्यम से भारतीय संविधान के अनुच्छेद 15 और अनुच्छेद 16 में संशोधन किया। संशोधन के माध्यम से भारतीय संविधान में अनुच्छेद 15 (6) और अनुच्छेद 16 (6) सम्मिलित किया, जिससे कि अनारक्षित वर्ग के आर्थिक रूप से पिछड़े लोगों को आरक्षण का लाभ प्रदान किया जा सके।
  • संविधान के अनुच्छेद 15 (6) राज्य को खंड (4) और खंड (5) में उल्लेखित लोगों को छोड़कर देश के सभी आर्थिक रूप से कमजोर वर्गों के लोगों की उन्नति के लिये विशेष प्रावधान बनाने और शिक्षण संस्थानों (अनुदानित तथा गैर-अनुदानित) में उनके प्रवेश हेतु एक विशेष प्रावधान बनाने का अधिकार देता है, हालांकि इसमें संविधान के अनुच्छेद 30 के खंड (1) में संदर्भित अल्पसंख्यक शिक्षण संस्थानों को शामिल नहीं किया गया है।
  • संविधान का अनुच्छेद 16 (6) राज्य को यह अधिकार देता है कि वह खंड (4) में उल्लेखित वर्गों को छोड़कर देश के सभी आर्थिक रूप से कमजोर वर्गों के लोगों के पक्ष में नियुक्तियों या पदों के आरक्षण का कोई प्रावधान करें, यहां आरक्षण की अधिकतम सीमा 10 प्रतिशत है, जो कि मौजूदा आरक्षण के अतिरिक्त है।

जातिगत जनगणना के पक्ष में तर्क

सामाजिक वंचनाः यदि कोई सामाजिक वर्ग वंचना का शिकार है तो उसे मुख्यधारा में लाने का सबसे पहला कार्य, उसकी वास्तविक स्थिति का पता लगाना है, जिससे उनकी वास्तविक संख्या, सामाजिक, आर्थिक और शैक्षिक स्थिति का पहचान की जा सके।

  • किसी वर्ग की सामाजिक वंचना को समाप्त करने संबंधी उपायों को अपनाने में बहुत देरी की जाए तो उस वर्ग में असंतोष की भावना उत्पन्न होने लगता है, जो कि कभी-कभी हिंसा का मार्ग अपनाने तक चला जाता है। प्रगति की राह पर आगे बढ़ रहे देश में ऐसा न होने पाए, उसके लिये समय-पूर्व सतर्कता आवश्यक है।

सामाजिक न्याय व समावेशी विकासः कोई भी देश सही अर्थों में तभी विकसित व सफल राष्ट्र की श्रेणी में आता है जब वह समाज के सभी वर्गों के कल्याण को सुनिश्चित कर पाता है। ओ.बी.सी. वर्ग यदि वंचना का शिकार है और उसकी आबादी के अनुपात में संसाधन उपलब्ध नहीं कराए जा रहे हैं तो यह माना जाना चाहिये कि देश के संसाधनों के वितरण में व्यापक असमानता विद्यमान है।

  • संसाधनों के न्यायपूर्ण वितरण से इस तरह की असमानता को समाप्त कर सामाजिक न्याय व समावेशी विकास संबंधी पहल किया जाना देश के उत्तरोत्तर विकास हेतु अति आवश्यक है, जिसकी शुरुआत वंचितों की गणना करने से होनी चाहिये।
  • विभिन्न जातियों के मध्य व्याप्त विसंगतियों: इंद्रा साहनी मामले में सर्वोच्च न्यायालय ने निर्देश दिया था कि ओ.बी.सी. वर्ग की सामाजिक, शैक्षिक व आर्थिक स्थिति का समय-समय पर अध्ययन कराया जाना चाहिये जिससे कि इस वर्ग की ऐसी जातियां, जो सामाजिक, शैक्षिक व आर्थिक आधार पर वंचना से मुक्त हो गई हों, उन्हें ओ.बी.सी. वर्ग से निकालकर सामान्य वर्ग में शामिल किया जा सके।
  • इससे इस वर्ग में शामिल वंचित जातियों के उत्थान के अवसर भी बढ़ेंगे और ओ- बी- सी वर्ग की विभिन्न जातियों के मध्य व्याप्त विसंगतियों को भी दूर किया जा सकेगा।

जातिगत जनगणना के विपक्ष में तर्क

सामाजिक एवं शैक्षणिक स्थिति पर सूचना की अनुपलब्धताः विभिन्न जातियों के सामाजिक एवं शैक्षणिक पिछड़ेपन के संबंध में सूचना की उपलब्धता का अभाव है, जो वृहद संख्या में जातियों के अतिरिक्त, एक राज्य से दुसरे राज्य में जातियों के भीतर महत्वपूर्ण भिन्नता के कारण सांख्यिकीय रूप से अत्यंत कठिन अभ्यास हो सकता है।

जाति आधारित राजनीति को बढ़ावा मिलेगाः जातिगत जनगणना देश में जाति आधारित राजनीति को बढ़ावा देगी। भारत की राजनीति में जाति का प्रभाव हमेशा से रहा है और अभी आगे भी बने रहने की संभावना है। यह समस्या लोकतंत्र की व्यवस्था में व्याप्त कमियों को दर्शाती है, जिसका समाधान तलाशा जाना वैचारिकी के स्तर पर अभी बाकी है।

  • जनगणना अपने आप में बहुत जटिल कार्य है। जनगणना में कोई भी चीज एक बार दर्ज हो जाती है, तो उससे एक राजनीतिक का जन्म होता है, विकास के नए आयाम भी उससेनिर्धारित होते हैं। जातिगत जनगणना से जातिगत रजनीति की शुरुआत होगी, उसके बाद लोग जाति से खुद को जोड़ कर देखने लगगे, जिससे जाति आधारित पार्टियां और एसोसिएशन बनाने लगेगें।

ओ.बी.सी. के कुछ वर्गों में असंतोष को बढ़ावा देगाः इससे ओ.बी.सी. के कुछ वर्गों में अशांति उत्पन्न कर सकती है क्योंकि इससे लाभ पुनर्वितरित हो जाएगा। ओ.बी.सी. आरक्षण का मुद्दा अतीत में राजनीतिक उथल-पुथल का कारण बन चुका है।

निष्कर्ष

लोकतंत्र की विसंगतियों का बहाना बनाकर किसी वर्ग की वंचना की स्थिति को बरकरार रखना कहीं से भी उचित नहीं है। साथ ही जातिगत जनगणना के बाद आरक्षण की 50 प्रतिशत की अधिकतम सीमा को बढ़ाए जाने की मांग को समझना भी आवश्यक है। हमें सबसे पहले तो यह समझना होगा कि 50 प्रतिशत की यह सीमा कोईअंतिम व आदर्श लकीर नहीं है। इस तथ्य पर ध्यान दिया जाना आवश्यक है कि राज्यों की आबादी में जातीय भिन्नताएं व्याप्त हैं। अनुसूचित जाति व जनजाति के संदर्भ में जनगणना होने के कारण यह आसानी से तय कर दिया जाता है कि उक्त राज्य में उनके लिये कितना प्रतिशत आरक्षण होगा, किंतु ओ.बी.सी. की गणना न होने से वे इस लाभ से वंचित रह जाते हैं। अतः केंद्र के स्तर पर भले ही अधिकतम कोटे की सीमा का ध्यान रखा जाए किंतु राज्यों के स्तर पर इस सीमा में आवश्यकतानुसार बदलाव जरूरी है। इस बदलाव के लिये यह आवश्यक है कि अब जातिगत जनगणना में और देरी न की जाए।