प्लास्टिक अपशिष्ट प्रबंधन

अगले 20 वर्षों में वैश्विक स्तर पर 7.7 बिलियन मीट्रिक टन से अधिक प्लास्टिक अपशिष्ट के कुप्रबंधन का अनुमान है, जो मानव आबादी के भार के 16 गुना के बराबर है। ‘सेंटर फॉर इंटरनेशनल एनवायरनमेंटल लॉ’ की वर्ष 2019 की एक रिपोर्ट के अनुसार वर्ष 2050 तक प्लास्टिक से ग्रीनहाउस गैस (GHG) का उत्सर्जन 56 गीगाटन से अधिक हो सकता है, जो शेष कार्बन बजट का 10.13% होगा।

भारत का अपशिष्ट उत्पादन और संग्रहण

भारत सालाना 9.46 मिलियन टन प्लास्टिक अपशिष्ट उत्पन्न करता है, जिसमें से 40% प्लास्टिक अपशिष्ट का संग्रहण नहीं हो पाता।

  • केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड (CPCB) के अनुसार भारत प्रतिदिन लगभग 26,000 टन से अधिक प्लास्टिक उत्पन्न करता है और 10,000 टन प्रतिदिन से अधिक प्लास्टिक अपशिष्ट असंग्रहित रह जाता है। भारत में उत्पादित समस्त प्लास्टिक का 43% पैकेजिंग के लिये उपयोग किया जाता है, जिसमें से अधिकांश एकल-उपयोग प्लास्टिक (Single-Use Plastic) हैं।

प्लास्टिक प्रदूषण के बढ़ने का कारण

कोविड-19 महामारी में एकल उपयोग वाले प्लास्टिक जैसे मास्क, सैनिटाइजर बोतल, व्यक्तिगत सुरक्षा उपकरण, खाद्य पैकेजिंग और पानी की बोतल आदि का प्रयोग बड़े पैमाने पर किया जा रहा है।

  • हालांकि एकल-उपयोग वाले प्लास्टिक उत्पाद जैसे कि सिरिंज, ड्रग टेस्ट, बैंडेज आदि का उपयोग संक्रमणकारी रोगों के प्रसार को रोकने में किया जाता है तथा इन्हें डिस्पोजेबल बनाया जाता है।
  • किन्तु अभी तक उत्पादित कुल प्लास्टिक के केवल 9% का पुनर्नवीनीकरण किया जा रहा है।
  • उत्पादित सभी प्लास्टिक का 79% लैंडफिल और हवा, पानी, मिट्टी और अन्य प्राकृतिक प्रणालियों में मौजूद है।
  • यह प्लास्टिक 5 मिलीमीटर से भी छोटे सूक्ष्म कणों में विखण्डित हो जाता है, जिन्हें माइक्रोप्लास्टिक्स के रूप में जाना जाता है और जल निकायों व मिट्टी के माध्यम से हमारे भोजन और हवा में मिल जाता है।
  • महासागरों में प्लास्टिक प्रदूषण के बढ़ने से न केवल समुद्री जीवन प्रभावित होता है बल्कि यह मानव खाद्यशृंखला में प्रवेश कर मानव स्वास्थ्य को भी हानि पहुंचाते हैं।

चुनौतियाँ

भारत विश्व स्तर पर सबसे ज्यादा कचरा पैदा करता है, और अगर 2050 तक तत्काल उपाय नहीं किए गए तो वर्तमान कचरे की संख्या दोगुनी हो जाएगी।

  • देश में शहरी अपशिष्ट की प्रकृति है जिसमें ऐसे पदार्थों का मिश्रण होता है जो पूरी तरह से दहन के लिए उपयुक्त नहीं होता है। चूंकि शहरी अपशिष्ट का 80 प्रतिशत पदार्थ सड़ा-गला भोजन, रद्दी-कतरन जैसे जैविक पदार्थ होते हैं इसलिए निर्धारित वायु गुणवत्ता मानक पर खरे उतरने में मौजूदा संयंत्र को कठिनाई आती है। केंद्र, राज्य, और स्थानीय सरकारें दशकों से अपशिष्ट प्रबंधन के मुद्दे पर कार्य कर रही हैं किन्तु ठोस अपशिष्ट प्रबंधन नियम-2016 का पालन नहीं किया जाता है। इनमें से कुछ ऐसे संयंत्र हैं जो चालू तो हैं, किन्तु वे बुनियादी ढांचे और प्रौद्योगिकी की कमी के कारण कुशल अपशिष्ट प्रबंधन सेवाएं प्रदान करने में सक्षम नहीं हैं।
  • मौजूदा अपशिष्ट के निपटान की विधियां बहुत अच्छी नहीं है। शहरी नगर-निगम अपशिष्ट प्रबंधन पर 500 से 1500 रुपये प्रति टन खर्च करती है। इसमें से 60 से 70 प्रतिशत कूड़ा एकत्रित करने में शेष 20 से 30 प्रतिशत एकत्रित कचड़े को धूरे तक ले जाने में खर्च होता है जिसके बाद कचड़े के प्रबंधन और निपटान पर खर्च करने के लिए कुछ भी राशि नहीं बचती है। इसके अलावा शहरी क्षेत्रों को कम कर स्वास्थ्य के लिए हानिकारक कूड़े के मैदान बनाना एक बड़ी चुनौती है।
  • अपशिष्ट प्रबंधन से बड़े पैमाने पर कम्पोस्ट खाद और बायो गैस उत्पन्न करने के लिए स्थापित किये जाने वाले संयंत्रों के लिए जगह की कमी एक प्रमुख समस्या है।
  • शहर की नगरपालिकाओं का मुख्य दायित्व है कि वे शहरों को साफ रखने के लिए अपशिष्ट का प्रबंधन करें। लेकिन लगभग सभी नगरपालिकाएं लैंडफिल साइट में अपशिष्ट पहुंचाकर उसका सही तरीके से निपटान नहीं करती है। जानकारों का मानना है कि भारत में अपशिष्ट प्रबंधन की दोषपूर्ण व्यवस्था के कारण ऐसा होता है।
  • दिल्ली, चेन्नई, कोलकाता, मुंबई, बेंगलुरु, अहमदाबाद और हैदराबाद सबसे ज्यादा प्लास्टिक अपशिष्ट उत्पन्न करने वाले शहरों में शामिल हैं। भारत में प्लास्टिक का उत्पादन अगले 20 सालों में दोगुना हो जाएगा, इसलिए इसके उचित प्रबंधन का अभाव है।

विकल्प

भारतीय विज्ञान संस्थान (IISc) के शोधकर्ताओं ने ‘सिंगल-यूज प्लास्टिक’ (Single-Use Plsatics) का विकल्प तैयार करने का तरीका खोज लिया है। अखाद्य तेलों और कृषि अपशिष्ट से निकाले गए सेल्यूलोज को मिलाकर, शोधकर्ताओं द्वारा एक जैव-अपघटड्ढ ‘पॉलिमर शीट’ तैयार की गयी है।

  • विकसित किया गया पॉलिमर शीट एकल-उपयोग प्लास्टिक का विकल्प बन सकती है, जो पर्यावरण में प्लास्टिक अपशिष्ट के जमा होने की समस्या को कम कर सकती है।
  • एकल उपयोग प्लास्टिक, निपटान-योग्य प्लास्टिक का एक रूप होती है, जिसे केवल एक बार इस्तेमाल करके फेंक दिया जाता है। भारत में प्रति व्यक्ति प्लास्टिक की खपत 11 किलोग्राम प्रति वर्ष है, जो अभी भी दुनिया में सबसे कम है।
  • भारत सरकार ने वर्ष 2019 में एकल-उपयोग प्लास्टिक को चरणबद्ध तरीके से वर्ष 2022 तक पूर्ण रूप से खत्म करने की प्रतिबद्धता जताई है। संयुक्त राष्ट्र पर्यावरण कार्यक्रम (UNEP) के अनुसार एकल-उपयोग प्लास्टिक के उपयोग को 2022 तक पूर्ण रूप से समाप्त करने की प्रतिबद्धता को कोविड-19 महामारी ने प्रभावित किया है।