भूस्खलन की समस्या (हिमालय क्षेत्रक का विकास)

मानसून में देश के पहाड़ी राज्यों में पहाड़ों से चट्टानों के खिसकने से भूस्खलन की घटनाएं बढ़ती ही जा रही हैं। साल दर साल भूस्खलन से सैकड़ों लोग मौत के मुंह में समा जाते हैं तो वहीं करोड़ों रुपये का नुकसान होता है।

  • दरअसल, आधुनिक विकास कार्यों के कारण पहाड़ी अंचलों में होने वाले खनन, जंगलों की कटाई और पनबिजली योजनाओं से पहाड़ की पारिस्थितिकी प्रभावित हुई है, जिससे हर वर्ष प्रकृति का यह कहर मानवता को भारी कीमत देकर चुकानी पड़ रही है।
  • हिमाचल प्रदेश, उत्तराखंड, जम्मू-कश्मीर और पूर्वोत्तर के राज्यों में पिछले दिनों कई बार भूस्खलन की घटनाएं देखने को मिली हैं। पर्वतीय क्षेत्रों में निर्माण कार्य और भारी बारिश से पहाड़ों से चट्टानों की घटनाएं हर साल बढ़ती जा रही हैं। भूस्खलन से सबसे अधिक नुकसान विकासशील देशों में हो रहा है। पिछले कुछ समय से दुनिया भर में इसके कारण होने वाले नुकसान के संबंध में चर्चा की जा रही है और आवश्यक कदम उठाए जा रहे हैं। रेल सेवाएं, हाईवे समेत कई सड़क मार्ग बंद हो जाते हैं और कई बार नदियां अपना रास्ता बदल लेती हैं। भूस्खलन के कारण भारत को हर साल 150-200 करोड़ रुपये का नुकसान हो रहा है।

भू-स्खलन के परिणाम

भू-स्खलन के भयावह परिणाम सामने आते हैं। इससे जान माल की क्षति तो होती है, दूसरी अनेक समस्याएं भी सामने आती हैं।

  • भू-स्खलन के कारण चट्ट्टाने और इनका मलबा नदियों में गिरता है जिससे जलीय पर्यावरण को तो नुकसान पहुंचता ही है, बाढ़ भी आ जाती है, जिससे तबाही दोगुनी ही जाती है। भू-स्खलन प्रभावित क्षेत्रों का देश के अन्य भागों से संपर्क टूट जाता है।
  • सड़के अवरुद्ध हो जाती हैं। मार्गों को साफ करने में काफी समय लग जाता है।
  • भू-स्खलन के कारण पलायन की समस्या भी उत्पन्न होती है, जिससे बस्तियां और गांव वीरान हो जाते हैं। पलायित परिवारों को नए शिरे से अपना जीवन आरम्भ करना पड़ता है और इसमें उन्हें काफी कठिनाईयों का सामना करना पड़ता है।
  • यह कहना असंगत न होगा कि मनुष्य का संरचनात्मक ढाचा चरमरा जाता है। ऐसी आपदाएं अर्थव्यवस्था को सर्वाधिक प्रतिकूल रूप से प्रभावित करती हैं। राजस्व की क्षति तो होती ही है, राहत कार्यों में भी लम्बा खर्च आता है। विकास की शुरुआत नए शिरे से करनी पड़ती है और अर्थव्यवस्था पर दबाव बढ़ता है।

भारत में भूस्खलन की स्थिति

अनेक अनुभवों, इसकी बारंबारता और भूस्खलन के प्रभावी कारकों, जैसे - भूविज्ञान, भूआकृतिक कारक, ढ़ाल, भूमि उपयोग, वनस्पति आवरण और मानव क्रियाकलापों के आधार पर भारत को विभिन्न भूस्खलन क्षेत्रों में बांटा गया है।

अत्यधिक सुभेद्यता क्षेत्र

ज्यादा अस्थिर हिमालय की युवा पर्वतशृंखलाएं, अंडमान और निकोबार, पश्चिमी घाट और नीलगिरि में अधिक वर्षा वाले क्षेत्र, उत्तर-पूर्वी क्षेत्र, भूकंप प्रभावी क्षेत्र और अत्यधिक मानव क्रियाकलापों वाले क्षेत्र, जिसमें सड़क और बांध निर्माण इत्यादि शामिल हैं, अत्यधिक भूस्खलन सुभेद्यता क्षेत्रों में रखे जाते हैं।

अधिक सुभेद्यता क्षेत्र

अधिक भूस्खलन सुभेद्यता क्षेत्रों में भी अत्यधिक सुभेद्यता क्षेत्रों से मिलती-जुलती परिस्थितियां होती हैं। लेकिन दोनों में भूस्खलन को नियंत्रण करने वाले कारकों के संयोजन, गहनता और बारंबारता का अंतर है। हिमालय क्षेत्र के सारे राज्य और उत्तर-पूर्वी भाग (असम को छोड़कर) इस क्षेत्र में शामिल हैं।

मध्यम और कम सुभेद्यता क्षेत्र

पार हिमालय के कम वृष्टि वाले क्षेत्र लद्दाख और हिमाचल प्रदेश में स्पिती, अरावली पहाड़ियों के कम वर्षा वाले क्षेत्र, पश्चिमी व पूर्वी घाट व दक्कन पठार के वृष्टि छाया क्षेत्र ऐसे इलाके हैं, जहां कभी-कभी भूस्खलन होता है।

  • इसके अलावा झारखंड, ओडिशा, छत्तीसगढ़, मध्य प्रदेश, महाराष्ट्र, आंध्र प्रदेश, कर्नाटक, तमिलनाडु, गोवा और केरल में खाद्यानों और भूमि धंसने से भूस्खलन होता रहता है।

अन्य क्षेत्र

भारत के अन्य क्षेत्र विशेषकर राजस्थान, हरियाणा, उत्तर प्रदेश, बिहार, पश्चिम बंगाल (दार्जिलिंग जिले को छोड़कर) असम (कार्बी अनलोंग को छोड़कर) और दक्षिण प्रांतों के तटीय क्षेत्र भूस्खलन युक्त हैं।

निवारण

भूस्खलन से निपटने के उपाय अलग-अलग क्षेत्रों के लिये अलग-अलग होने चाहिये। अधिक भूस्खलन संभावी क्षेत्रों में सड़क और बड़े बांध बनाने जैसे-निर्माण कार्य तथा विकास कार्य पर प्रतिबंध होना चाहिये।

  • इन क्षेत्रों में कृषि नदी घाटी तथा कम ढाल वाले क्षेत्रों तक सीमित होनी चाहिये तथा बड़ी विकास परियोजनाओं पर नियंत्रण होना चाहिये।
  • सकारात्मक कार्य जैसे- बृहद स्तर पर वनीकरण को बढ़ावा और जल बहाव को कम करने के लिये बांध का निर्माण भूस्खलन के उपायों के पूरक हैं। स्थानांतरी कृषि वाले उत्तर-पूर्वी क्षेत्रों में सीढ़ीनुमा खेत बनाकर कृषि की जानी चाहिये।

भारत की पहल

भारत को आपदा रोधी बनाने तथा भूस्खलन से होने वाले नुकसान को कम करने के लिये सरकार ने आपदा प्रबंधन अधिनियम, 2005 को अपनाया है। सभी स्तरों पर हितधारकों की क्षमता को मजबूत बनाने की यह एक अहम पहल है।

  • भूकंप, सुनामी और ज्वालामुखी की तुलना में चक्रवात के आने के समय एवं स्थान की भविष्यवाणी संभव है। इसके अतिरिक्त आधुनिक तकनीक का इस्तेमाल करके चक्रवात की गहनता, दिशा और परिमाण आदि को मॉनीटर करके इससे होने वाले नुकसान को कम किया जा सकता है।
  • नुकसान को कम करने के लिये चक्रवात शेल्टर, तटबंध, डाइक, जलाशय निर्माण तथा वायुवेग को कम करने के लिये वनीकरण जैसे कदम उठाए जा सकते हैं, फिर भी भारत, बांग्लादेश, म्यांमार इत्यादि देशों के तटीय क्षेत्रों में रहने वाली जनसंख्या की सुभेद्यता अधिक है, इसीलिये यहां जान-माल का नुकसान बढ़ रहा है।