वर्तमान अंतरराष्ट्रीय परिप्रेक्ष्य में भारत की विदेश नीति

1990 के बाद बदलते अंतरराष्ट्रीय परिदृश्य में भारत ने भी अपनी विदेश नीति में बदलाव किया है।

सोवियत संघ के विघटन के पश्चात शीत युद्ध की समाप्ति हुई। इसके बाद विश्व में एक ध्रुवीय व्यवस्था कायम हो गई है।

  • वैश्वीकरण अथवा भूमंडलीकरण के चलते अंतरराष्ट्रीय संबंधों में विचारधारा का समापन होने के कगार पर है और प्रत्येक राष्ट्र आर्थिक हित को प्रधानता देने में लगा है। ऐसे परिवर्तित परिवेश में भारतीय विदेश नीति के प्रमुख लक्ष्य क्या होने चाहिए तथा इन लक्ष्यों की पूर्ति वर्तमान समसामयिक विश्व में कहां तक पूरी की जा सकती है।
  • इसका वर्णन निम्नलिखित बिंदुओं के अंतर्गत किया जा सकता है-
    • संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद में स्थायी सदस्यता प्राप्त करना तथा इसके पुनर्गठन का समर्थन करना।
    • संयुक्त राष्ट्र के पुनर्गठन करने वालों में भारत प्रमुख है क्योंकि इसका मत है कि 1945 से अब तक संयुक्त राष्ट्र के अन्य संगठनों तथा विश्व राजनीति में काफी परिवर्तन हुआ है। अतः ऐसी स्थिति में संयुक्त राष्ट्र का पुनर्गठन किया जाना चाहिए। साथ ही भारत ने संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद की स्थायी सदस्यता के लिए भी अपना दावा प्रस्तुत किया है।

परमाणु शक्ति के रूप में भारत की छविः भारत ने अपनी परमाणु नीति की समीक्षा 1998 में किया था। अतः इस नीति के कारण भारत ने मई 1998 में पोखरण अभियान के नाम से परमाणु परीक्षण कर पूरे विश्व को अपनी परमाणु क्षमता का परिचय दे दिया है और पूरे विश्व में यह संदेश भी दिया कि उसका परमाणु कार्यक्रम केवल शांति के लिए है न कि युद्ध के लिए।

भारत का एक आर्थिक शक्ति के रूप में उभारनाः प्रमुख वैश्विक शक्ति के रूप में भारत को उभारना भी विदेश नीति का प्रमुख लक्ष्य बन गया है। भारत चाहता है कि 21वीं शताब्दी में वह एक आर्थिक शक्ति के रूप में उभर कर सामने आए। आज भारत अपनी सॉफ्टवेयर तकनीक के कारण विश्व के चुनिंदा देशों में से एक हो गया है।

  • भारत ने एशिया में क्षेत्रीय सहयोग संगठन, विशेषकर सार्क, आसियान, हिमतक्षेस आदि के माध्यम से आर्थिक सहयोग को बढ़ाने की दिशा में कार्य किया है और इन सबके पीछे मुख्य उद्देश्य भारत को एक प्रमुख आर्थिक शक्ति के रूप में विश्व के समक्ष प्रस्तुत करना रहा है।
  • C.T.B.T. को न्यायपूर्ण बनानाः सीटीबीटी का विरोध भारत इसलिए करता रहा है क्योंकि यह पश्चिमी देशों के परमाणु अधिकारों को तो सुरक्षित रखती है जबकि परमाणुविहीन देशों के परमाणु परीक्षणों और उत्पादन पर रोक लगाती है। अतः भारत ने इस संधि को भेदभाव पूर्ण मानते हुए इस पर हस्ताक्षर नहीं किये हैं।
  • विदेशों में सुदृढ़ मित्रों की तलाशः इस हेतु भारत की राजनयिकों द्वारा विदेश यात्राओं के दौरान भारत ने अन्तरराष्ट्रीय संबंधों में अपनी भूमिका को और सुदृढ़ करने के लिए विदेशों में अपने मधुर संबंधों को बढ़ाने की नीति अपनाई है, जिसके लिए भारत के प्रधानमंत्री राष्ट्रपति, गृहमंत्री, विदेश मंत्री तथा रक्षा मंत्रियों ने विदेशों की यात्रा करके विश्व जनमत को अपनी महत्वपूर्ण भूमिका से अवगत करा दिया
  • वर्तमान में भारत का द्वीपीय देशों, आसियान देशों तथा अमेरिका, ब्रिटेन और रूस जैसे प्रमुख देशों की यात्रा कर आर्थिक तथा सामरिक हितों को मजबूती दी जा रही है।
  • अंतरराष्ट्रीय आतंकवाद के खिलाफ विश्व जनमत तैयार करनाः भारत प्रारंभ से आतंकवाद के विरोध की मुहिम के अंतर्गत विश्व को इसका परिणाम बताता रहा है लेकिन कारगिल युद्ध (1999), सितंबर 2001 की घटना तथा भारतीय संसद,पुलवामा हमला, पठान कोट पर आतंकवादी हमले के बाद भारत ने अपनी नीति के तहत आतंकवाद को अंतरराष्ट्रीय स्तर पर विरोध की मुहिम चलाई है और इसके विरुद्ध विश्व जनमत तैयार किया है।

दक्षिण एशिया का नेतृत्व और प्रतिनिधित्वः वर्तमान में भारतीय विदेश नीति का एक लक्ष्य यह भी है कि वह दक्षिण एशिया में सबसे बड़ा देश होने के नाते अपनी प्रमुख भूमिका अंतरराष्ट्रीय राजनीति में निभाए। भारत चाहता है कि इस क्षेत्र के सभी विवाद आपसी सहयोग तथा द्विपक्षीय आधार पर सुलझाए जाने चाहिए। किसी तीसरी शक्ति के हस्तक्षेप का भारत ने विरोध किया है। भारत ने कश्मीर विवाद पर पाकिस्तान से बातचीत के द्वारा हल करने की पेशकश की है।

अंतरराष्ट्रीय शांति और सुरक्षा के लिए प्रयास करने की नीतिः भारत की विदेश नीति का प्रमुख आधार है अंतरराष्ट्रीय शांति तथा सुरक्षा की स्थापना। वर्तमान में भी भारत ने इस नीति पर कार्य जारी रखा है तथा संयुक्त राष्ट्र संघ के द्वारा विश्व शांति के प्रत्येक प्रयास में सहभागी बने रहने की नीति अपनाई है। भारत ने खाड़ी युद्ध (1991), अफगानिस्तान में शांति की स्थापना, रूस-यूक्रेन विवाद या फिर इजरायल-फिलिस्तीन विवाद सभी में अपनी सक्रिय भूमिका का निर्वाह किया है।

नाम की प्रासंगिकता को बनाये रखनाः भारत ने 1990 के बाद बदले हुए अंतरराष्ट्रीय परिवेश में भी गुटनिरपेक्षता को अपनी विदेश नीति का प्रमुख लक्ष्य स्वीकार किया है। 1990 के बाद इस मंच को भारत विकासशील देशों के लिए आर्थिक मुद्दों की मांग के लिए पेश करना चाहता है। भारत की मान्यता है कि नाम एक ऐसा विश्वस्तरीय मंच है जिसकी अवहेलना कोई नहीं कर सकता।

पड़ोसी देशों के साथ सम्बन्धों को ज्यादा महत्वः वर्तमान में भारत की विदेश नीति में पडोसी प्रथम को तरजीह दी जा रही है तथा गुजराल सिद्धांत जिसमें पड़ोसी देशों के साथ संबंध बेहतर करने पर बल दिया गया, पर अधिक बल दिया जा रहा है।