भारतीय विदेश नीति के प्रमुख सिद्धांत

वर्तमान समय में अंतरराष्ट्रीय राजनीति के बदलते परिदृश्य के कारण भारत की विदेश नीति में भी बदलाव आया है। स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद विदेश नीति में जिन विचारों को अपनाया गया था उनमें समय-समय पर परिवर्तन होता रहा है।

  • विद्वानों का मानना है कि अंतरराष्ट्रीय राजनीति में बदलते परिदृश्य के कारण भारत के सामने सबसे बड़ी चुनौती अपनी वैदेशिक नीति को नया रूप प्रदान करने की होगी। भारत को परम्परागत हितों, राष्ट्रीय हितों एवं सुरक्षा, एकता एवं अखंडता को बरकरार
  • सामने सबसे बड़ी चुनौती अपनी वैदेशिक नीति को नया रूप प्रदान करने की होगी। भारत को परम्परागत हितों, राष्ट्रीय हितों एवं सुरक्षा, एकता एवं अखंडता को बरकरार रखना, तीव्र गति से आर्थिक विकास एवं इस बात को निश्चित करना होगा कि वैदेशिक नीतियों के निर्धारण में भारत बाहरी प्रभावों से मुक्त रह सके।
  • आज आवश्यकता इस बात की है कि भारत अपने वैदेशिक संबंधों को फिर से नये रूप में प्रस्तुत करे।
  • आज अमेरिका, पाकिस्तान के बजाय भारत के साथ अधिक मित्रता की नीति अपना रहा है। भारत को सोच-समझकर अमेरिका के साथ आर्थिक विकास की नीति अपनानी होगी। इसी प्रकार पाकिस्तान से आतंकवाद का मुद्दा, तथा कश्मीर का मुद्दा द्विपक्षीय बातचीत के आधार पर हल करने के प्रयास ढूंढने होंगे।
  • साथ ही संयुक्त राष्ट्र संघ के पुर्नगठन और सुरक्षा परिषद की स्थायी सदस्यता के दावे को विश्व के विकासशील देशों के सामने सुदृढ़ तरीके में प्रस्तुत करना होगा। स्पष्ट है कि विश्व के बदलते राजनीतिक परिवेश में भारत को समायोजन की नीति का पालन करना उचित होगा। इसके द्वारा भारत न केवल अपने राष्ट्रीय हितों को सुरक्षित रख सकता है बल्कि अंतरराष्ट्रीय राजनीति के मंच पर एक नायक की भूमिका भी निभा सकता है।

भारतीय विदेश नीति के प्रमुख सिद्धांत

पंचशील

भारत और चीन के तिब्बत क्षेत्र के बीच व्यापार और शांति के समझौते पर 28 अप्रैल, 1954 को हस्ताक्षर किए गए थे। यह समझौता तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू और चीन के पहले प्रीमियर (प्रधानमंत्री) चाऊ एन लाई के बीच हुआ था। यह शांतिपूर्ण सह-अस्तित्व के पांच सिद्धांत पर आधारित है।

  • अप्रैल 1954 में भारत ने तिब्बत को चीन का हिस्सा मानते हुए चीन के साथ ‘पंचशील’ के सिद्धांत पर समझौता कर लिया। इस सिद्धांत के मुख्य बिंदु थे-
    1. दूसरे देश के आंतरिक मामलों में हस्तक्षेप न करना
    2. एक-दूसरे देश पर आक्रमण न करना।
    3. शांतिपूर्ण सहअस्तित्व की नीति का पालन करना।
    4. परस्पर सहयोग एवं लाभ को बढ़ावा देना।
    5. सभी देशों द्वारा अन्य देशों की क्षेत्रीय अखंडता और प्रभुसत्ता का सम्मान करना।

गुट निरपेक्षता

द्वितीय विश्व युद्ध के बाद सम्पूर्ण विश्व का दो गुटों - पूंजीवादी गुट तथा साम्यवादी गुट में बंट जाना एक महत्वपूर्ण घटना थी। इसने अंतरराष्ट्रीय संबंधों में शीत-युद्ध की अवधारणा को जन्म दिया। तीसरी दुनिया के सामने सबसे बड़ी चुनौती यह थी कि वे किस गुट में शामिल हों या न हों, नवोदित स्वतन्त्रता राष्ट्र फिर से पराधीनता की जंजीर में जकड़े जाने से भयभीत थे। इसलिए उन्होंने इन गुटों से दूर रहकर ही अपनी स्वतन्त्रता को सुदृढ़ आधार प्रदान किया। उन्होंने गुटों से दूर रहकर अपनी निष्पक्षता का परिचय दिया, जिससे गुटनिरपेक्षता की नीति का जन्म हुआ।

  • भारत के प्रथम प्रधानमंत्री पंडित जवाहर लाल नेहरू, मिश्र के कर्नर नासिर तथा युगोस्लाविया के नेता मार्शल टीटो ने 1961 में गुटनिरपेक्षता की नीति को सुदृढ़ आधार प्रदान किया।

अर्थ

साधारण रूप से भारत की गुटनिरपेक्षता से अर्थ है कि हम हर विषय को उस समय की परिस्थितियों के संदर्भ में योग्यता के अनुसार आंकना तथा विश्व शांति और अन्य उद्देश्यों के संदर्भ में उचित निर्णय लेना। गुटनिरपेक्षता का अर्थ है अपने आप को सैनिक गुटों से दूर रखना तथा जहां तक सम्भव हो तथ्यों को सैनिक दृष्टि से न देखना।

यदि ऐसी आवश्यकता पड़े तो स्वतन्त्र दृष्टिकोण रखना तथा दूसरे देशों से मैत्रीपूर्ण सम्बन्ध बनाए रखना गुटनिरपेक्षता के लिए आवश्यक है। अर्थात विभिन्न शक्ति गुटों से तटस्थ या दूर रहते हुए अपनी स्वतन्त्र निर्णय नीति और राष्ट्रीय हित के अनुसार सही या न्याय का साथ देना।

विशेषता

  • यह सभी प्रकार के सैनिक राजनीतिक सुरक्षा संधियों तथा गठबंधनों के विरोध की नीति है; जैसे सीटो, नाटो वारसा।
  • यह शीत युद्ध का विरोध करती है या शांतिपूर्ण सहस्तित्व की नीति है।
  • यह स्वतंत्र विदेश नीति का पालन करने वाली नीति है।
  • यह अलगाववाद तथा तटस्थता का विरोध करने वाले नीति है।
  • यह राष्ट्रीय हितों को प्राप्त करने का कुटनीतिक साधन नहीं है।

उपलब्धि

  • इस नीति ने शीत युद्ध को सामरिक युद्ध में बदलने से रोकने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है।
  • अंतरराष्ट्रीय विवादों के शांतिपूर्ण समाधान में सहयोग किया है, जैसे कोरिया संकट, स्वेज नहर संकट आदि।
  • इसने निःशस्त्रीकरण को बढ़ावा दिया है।
  • संयुक्त राष्ट्र संघ की भूमिका में वृद्धि की है।
  • दक्षिण सहयोग को बढ़ावा प्रदान किया है।