Question : मान लीजिए कि भारत सरकार एक ऐसी पर्वतीय घाटी में एक बांध का निर्माण करने की सोच रही है, जो जंगलों से घिरी है और जहां नृजातीय समुदाय रहते हैं। अप्रत्याशित आकस्मिकताओं से निपटने के लिए सरकार को कौन-सी तर्कसंगत नीति का सहारा लेना चाहिए?
(2018)
Answer : जब कभी भी सरकार द्वारा विकासात्मक कार्यों अथवा अवसंरचनात्मक कार्यों को निष्पादित किया जाता है तो उनके समक्ष कई समस्याएं उत्पन्न होती है यथा लोगों में विश्वास बहाली की समस्या, उनके पुनर्वास की समस्या प्रकृति/पर्यावरण संरक्षण की समस्या, लोगों के सांस्कृतिक तथा रोजगार संबंधी समस्या आदि। अतः उपर्युक्त संदर्भ में विभिन्न आस्मिकताओं से निपटने के लिए निम्नलिखित नीति का सहारा लिया जा सकता है-
उपर्युक्त नीति का अनुकरण करते हुए परियोजना के कार्य को पूरा किया जा सकेगा तथा संबंधित समस्याओं का बेहतर हल निकालते हुए समयबद्ध समय में परियोजना को पूर्ण किया जा सकेगा।
Question : नैतिक आचरण वाले तरूण लोग सक्रिय राजनीति में शामिल होने के लिये उत्सुक नहीं होते हैं। उनको सक्रिय राजनीति में अभिप्रेरित करने के लिये उपाय सुझाइये।
(2017)
Answer : वर्ष 1949 की चीनी क्रान्ति के अग्रदूत माओत्सुंग ने कहा था कि ‘‘राजनीति एक गंदा खेल है।” धीरे-धीरे राजनेताओं ने माओ के इस कथन को सत्य बना दिया। एक तरह से राजनीति अपने स्वार्थों के वशीभूत होकर अपने हितों का संवर्द्धन करने का साधन बन गयी है जिसमें, धर्म, जाति, परिवारवाद, का महत्व बढ़ता गया। यही कारण है कि नैतिक आचरण करने वाले युवा राजनीति से दूर होते गए।
एक युवा जो देश के विकास के सपने देखता है किन्तु दूषित राजनीति उसके प्रत्येक कदम में बाधा खड़ी करती है। इससे कुछ युवा राजनीति से अपनी दूरी बना लेता है। इतना ही नहीं नैतिक आचरण करने वाले युवा अनैतिक राजनीतिक दाव-पेंचों से भी अनजान होते हैं। यही वजह है कि यदि कोई सद्चरित्र युवा राजनीति में आता भी है तो वह अनैतिक राजनीतिक दाव-पेचों का शिकार हो जाता है।
युवाओं को सक्रिय राजनीति में अभिप्रेरित करने के लिए निम्नलिखित उपाय किए जा सकते है-
Question : समझौते से पूर्ण रूप से इन्कार करना सत्यनिष्ठा की एक परख है। इस संदर्भ में वास्तविक जीवन से उदाहरण देते हुए व्याख्या कीजिये।
(2017)
Answer : सत्यनिष्ठा से तात्पर्य है कि सार्वजनिक पद पर बैठे लोगों को बाहर के ऐसे व्यक्तियों या संगठनों के साथ वित्तीय या अन्य बाध्यतावश अपने को लिप्त नहीं करना चाहिए, जो उनके सार्वजनिक कार्य निष्पादन को प्रभावित करे। उपभोक्तावादी संस्कृति में प्रशासक के व्यक्तिगत हित अक्सर ऐसे समझौतों या कार्यों के प्रति अग्रसर हो जाते हैं जो उनके पद के दायित्वों के विपरीत होते हैं। इससे उनकी सत्यनिष्ठा क्षीण होती है।
उपभोक्तावादी संस्कृति के साथ-साथ उचित कार्य संस्कृति का अभाव भी सत्यनिष्ठा को प्रभावित करता है। वास्तविक जीवन में कर्मचारियों को ऐसी समस्याओं का सामना करना पड़ता है, उदाहरण के लिए वेतन का कम होना तथा उपभोक्तावादी संस्कृति में भौतिक वस्तुओं को प्रगति का सूचक माना जाना।
इसके कारण कर्मचारी या अधिकारी पारिवारिक या सामाजिक दबाव में अनैतिक आचरण करने के लिए विवश होते हैं। किन्तु एक सद्चरित्र सत्यनिष्ठ प्रशासक अपने कर्तव्यों से किसी प्रकार का समझौता नहीं करता है, भले ही उसे अपने व्यक्तिगत जीवन में कितनी भी समस्याओं का सामना क्यों न करना पड़े। वह अपने पद का प्रयोग केवल
सार्वजनिक हित के लिए करता है न कि व्यक्तिगत हित के लिए। इससे उसकी एक ईमानदार प्रशासक की छवि समाज में उभरती है तथा वह शासन, प्रशासन एव समाज को एक नई दिशा देने में प्रेरक के रूप में कार्य करता है।
इस प्रकार सत्यनिष्ठ बना रहना एक चुनौतिपूर्ण कार्य है किन्तु एक ईमानदार प्रशासक सत्यनिष्ठा के मार्ग में आने वाली प्रत्येक बाधा को आसानी से पार करते हुए सत्यनिष्ठ प्रशासक के रूप में प्रेरणा स्रोत बनता है।
Question : कॉरपोरेट सामाजिक उत्त्तरदायित्व कंपनियों को अधिक लाभदायक तथा चिरस्थायी बनाता है। विश्लेषण कीजिये।
(2017)
Answer : हम जिस समाज में रहते हैं, जिन लोगों के बीच कार्य करते हैं, उनके प्रति हमारा कुछ दायित्व बनता है। इन दायित्वों की पूर्ति न केवल समाज को लाभ पहुंचाती है अपितु स्वंय व्यक्ति भी लाभान्वित होते हैं। व्यक्तिगत सामाजिक उत्तरदायित्व की भांति ही, कॉरपोरेट सामाजिक उत्तरदायित्व की संकल्पना भी विकसित हुई है। चूंकि कम्पनियाँ भी समाज के बीच और समाज के लिए कार्य करके लाभान्वित होती हैं इसलिए उसके भी समाज के प्रति कुछ दायित्व बनते हैं। फिर किसी कंपनी के साथ कुछ नकारात्मक प्रभाव भी जुड़े होती हैं जैसे पर्यावरण प्रदूषण आदि। इनका निवारण करना भी आवश्यक होता है नहीं तो लोगों के बीच कंपनी की नकारात्मक छवि बनती है जो उसके लिए नुकसानदायक हो सकती है।
भारत में कपंनी अधिनियम, 2013 में सामाजिक मुद्दों का हल निकालने और गरीब, वंचित समूहों का समावेशी विकास सुनिश्चित करने के लिए कॅारपोरेट को उनके तीन वर्षों के कुल लाभ का 2% सामाजिक मद में खर्च करना अनिवार्य बना दिया गया है। सामाजिक मद के तहत शिक्षा, स्वास्थ्य, रोजगार, पर्यावरण संरक्षण, स्वच्छता आदि कार्यों को शामिल किया गया है।
सामाजिक मद कपंनी के द्वारा खर्च की गयी राशि कंपनी के लिए लाभदायक होने के साथ-साथ कंपनी के लाभ को चिरस्थायी भी बनाती है क्योंकि-
इस तरह हम कह सकते है कि कॉपोरेट सामाजिक दायित्व जितना समाज के लिए आवश्यक है उतना ही किसी कंपनी के लिए भी।
Question : क्या कारण है कि निष्पक्षता और अपक्षपातीयता को लोक सेवाओं में विशेषकर वर्तमान सामाजिक-राजनीतिक संदर्भ में आधारभूत मूल्य समझना चाहिए? अपने उत्तर को उदाहरणों के साथ सुस्पष्ट कीजिए।
(2016)
Answer : सामान्य अर्थ में निष्पक्षता का तात्पर्य है बिना पक्षपात के सेवा संगठन। गैर-तरफदारी का अभिप्राय है सिविल सेवकों द्वारा सरकार की नीतियों के क्रियान्वयन में किसी राजनीतिक पार्टी के प्रति झुकाव न होना। वस्तुतः सार्वजनिक हित और प्रामाणिक तथ्यों के आधार पर लिया गया निर्णय और उसका संपादन निष्पक्षतापूर्ण कार्यवाही है।
एक सिविल सेवक किसी व्यक्ति या समुदाय विशेष के लिए कार्यरत नहीं होता बल्कि पूरे समाज व राष्ट्र के हित के लिए उसकी सेवाएं ली जाती है। अगर सिविल सेवक जाति, धर्म, भिन्नता, भाई-भतीजावाद आदि की भावना से प्रेरित होकर कार्य करे तो यह सामाजिक न्याय की स्थापना में बाधक होगा। पुनः सिविल सेवक अगर किसी राजनीतिक विचारधारा से प्रेरित हो तो यह भी एक लोकतांत्रिक समाज स्थापित करने में बाधक होगा। इसीलिए निष्पक्षता और गैरतरफदारी को सिविल सेवकों के लिए आवश्यक नैतिक मूल्य माना जाना चाहिए।
वर्तमान सामाजिक-राजनीतिक परिदृश्य में यह ज्ञातव्य है कि अमीर-गरीब के बीच की खाई अभी खत्म नहीं हुई है तथा राजनीतिक महकमों में विभिन्न राजनीतिक दल जाति, धर्म, क्षेत्र आदि विषयों पर वोट बैंक की राजनीति में लिप्त हैं जिससे समाज के कई टुकड़ों में विभाजित होने का खतरा रहता है। एसे में सिविल सेवकों द्वारा गैर-तरफदारी जैसे मूल्यों को आत्मसात करना जरूरी है ताकि वे किसी दल विशेष अथवा मंत्रियों के प्रभाव से स्वतंत्र होकर अपनी सेवा दे सकें और सामाजिक आर्थिक एवं राजनीतिक लोकतंत्र को सफल बना सकें। उदाहरण के लिए अगर एक मजदूर को किसी भूमिपति द्वारा मजदूरी नहीं दिए जाने पर उस जिले के कलक्टर अथवा लेवर सुपरिटेंडेंट द्वारा उस गरीब के साथ न्याय न कर भूमिपति का पक्ष लिया जाए तो वैसे में देश में लोककल्याणकारी राज्य की स्थापना नहीं हो पाएगी और सामाजिक न्याय मजाक बनकर रह जाएगा।
Question : ‘शासन’, ‘सुशासन’और ‘नैतिक शासन’शब्दों से आप क्या समझते हैं?
(2016)
Answer : शासन से अभिप्राय है किसी क्षेत्र, राज्य अथवा राष्ट्र विशेष में वहां के संविधान/प्रोटोकाल/निर्णय के मुताबिक सरकार का निर्माण तथा सरकार के विभिन्न अंगों द्वारा नीतियों का निर्माण एवं उसका कार्यान्वयन। यहां ‘शासन’शब्द के अंतर्गत यह अभिप्राय भी शामिल है कि सरकार के विभिन्न अंगों के अधिकार एवं उत्तरदायित्व को सुनिश्चित कर उनके द्वारा कार्य निष्पादन करना। परंतु ‘शासन’शब्द से सरकार के कार्यों का मूल्यांकन आदि भावार्थ स्पष्ट नहीं होते।
‘सुशासन’शासन शब्द को और स्पष्ट करता है और यह स्पष्टीकरण इस अर्थ में है कि यह शासन की प्रकृति एवं इसके लक्ष्य की ओर एक संकेत है। सुशासन में शासन का वह पक्ष प्रतिबिम्बित होता है जिसके द्वारा नागरिकों की आकांक्षाएं पूरी होती दिखती हैं अर्थात ‘शासन’के मूल्यांकन से यह स्पष्ट होता है कि यह सुशासन है जहां सरकार के सभी अंग एवं सिविल सेवक अपने कार्य निष्पादन के द्वारा लोगों की आवश्यकताओं को पूरा कर रहे हैं तथा वहां वाक्स्वतंत्रता, प्रश्न की स्वतंत्रता तथा वैज्ञानिक सोच की गुंजाईश है। ‘नैतिक शासन’का अभिप्राय है शासन का वह रूप जहां शासन कार्य के दौरान नीति निर्माण, कार्यान्वयन आदि में नैतिक मूल्यों को विशेष तरजीह दी जा रही हो। नीति निर्धारक, नीति-सलाहकार, कार्यक्रम प्रबंधक, कार्यक्रम क्रियान्वयन आदि स्वहित नहीं बल्कि जनहित को अंतिम लक्ष्य माना जा रहा हो। यहां यह दृष्टव्य है कि शासन का लक्ष्य सिर्फ ‘नैतिक’नहीं होता बल्कि शासन कार्य में नैतिक माध्यम/मूल्यों को अपनाया जाता है।
वास्तव में विश्व में किसी देश का शासन नैतिक शासन की शर्तों को पूरा नहीं करता परंतु भारत के इतिहास में अशोक ने धम्म नीति द्वारा नैतिक शासन को प्रतिस्थापित करने की कोशिश अवश्य की थी। आजादी के पश्चात नेहरूजी ने भी ‘पंचशील’के माध्यम से पड़ोसी देशों के साथ संबंधों को नैतिक शासन की संकलना को क्रियान्वित करने का प्रयास किया था। वर्तमान में 'Give it up' का नारा देकर वर्तमान सरकार एलपीजी गैस में सब्सिडी छोड़ने की अपील कर नैतिक शासन की तरफ एक कदम बढ़ाने में सफल हुई है।
Question : जीवन, कार्य, अन्य व्यक्तियों एवं समाज के प्रति हमारी अभिवृत्तियां आमतौर पर अनजाने में परिवार एवं उस सामाजिक परिवेश के द्वारा रूपित हो जाती हैं, जिसमें हम बड़े होते हैं। अनजाने में प्राप्त इनमें से कुछ अभिवृत्तियां एवं मूल्य अक्सर आधुनिक लोकतांत्रिक एवं समतावादी समाज के नागरिकों के लिए अवांछनीय होते हैं।
आज के शिक्षित भारतीयों में विद्यमान ऐसे अवांछनीय मूल्यों की विवेचना कीजिए।
(2016)
Answer : अभिवृत्ति किसी वस्तु, व्यक्ति, घटना, विचारधारा, परिस्थिति इत्यादि के प्रति हमारी सकारात्मक या नकारात्मक मनोदशा है। परिवार, समाज, शिक्षण संस्थाएं तथा सामाजिक अंतर्क्रिया हमारी अभिवृत्तियों को काफी हद तक प्रभावित करती है और इसलिए व्यक्ति शिक्षित हो या अशिक्षित अपनी अभिवृत्ति को अक्षुण्ण नहीं रख पाता। कई बार ये प्रभाव नकारात्मक अभिवृत्तियां उत्पन्न करते हैं चाहे व्यक्ति शिक्षित ही क्यों न हो। इन नकारात्मक अभिवृत्तियों/मूल्यों में स्वार्थपरता, परिवारवाद, धार्मिक कट्टरता, क्षेत्रीयतावाद, लोभ, भाषायी संकीर्णता अंधविश्वास तथा जातिगत झुकाव आदि महत्वपूर्ण है। इन मूल्यों से प्रेरित होकर एक शिक्षित व्यक्ति भी स्वहित से ऊपर नहीं उठ पाता तथा जनहित की अनदेखी कर समाज व राष्ट्र के बजाए स्वकेंद्रित व्यवहार करता है। ऐसी अभिवृत्ति सामाजिक, आर्थिक व राजनीतिक लोकतंत्र के लिए खतरा बन जाती है। जाति और धर्म के नाम पर वोट बैंक की राजनीति नकारात्मक अभिवृत्ति का एक जीता-जागता उदाहरण है। लैंगिक असमानता के प्रति असंवेदनशीलता समाज में स्त्री-पुरुष के बीच समानता स्थापित करने में एक बड़े अवरोध का काम करता है। परंतु ऐसी अभिवृत्तियां भी वस्तुतः परिवार, समाज और आदि के प्रभाव में ही उपजती है जिससे व्यक्ति अस्वस्थ और निकृष्ट मूल्यों को आत्मसात कर लेता है। यही कारण है कि काफी शिक्षित लोग भी अलगाववाद और आतंकवाद को अपना लक्ष्य बना लेते हैं जो कि एक दुखद सच है।
Question : ऐसी अवांछनीय अभिवृत्तियों को कैसे बदला जा सकता है तथा लोक सेवाओं के लिए आवश्यक समझे जाने वाले सामाजिक नैतिक मूल्यों को आकांक्षी तथा कार्यरत लोक सेवकों में किस प्रकार संवर्धित किया जा सकता है?
(2016)
Answer : जहां तक सिविल सेवा में संलग्न लोगों की नकारात्मक प्रवृत्तियों में परिवर्तन लाने का प्रश्न है तो यह ज्ञातव्य है कि इस वर्ग के लिए आचरण संहिता तथा नीति संहिताओं का निर्माण किया गया है ताकि इन कार्यरत सिविल सेवकों की अभिवृत्ति में सकारात्मक परिवर्तन लाकर इनमें ईमानदारी, गैरतरफदारी, निष्पक्षता, करुणा, सहानुभूति, तटस्थता आदि नैतिक मूल्यों के प्रति अपनत्व उत्पन्न कर इन्हें सम्यक बनाया जा सके। समय-समय पर इनके कार्यों का पर्यवेक्षण, अनुशासनात्मक कार्रवाई द्वारा लोक सेवकों की अभिवृत्ति में परिवर्तन लाया जा सकता है।
जहां तक वैसे लोगों का प्रश्न है जो सिविल सेवा के आकांक्षी हैं उनमें उच्च नैतिक मूल्यों के आत्मसातीकरण के द्वारा उनकी अभिवृत्ति में परिवर्तन लाने का कार्य कई स्तरों पर किया जा सकता है। इसकी शुरुआत परिवार, समाज, शैक्षणिक संस्थाओं तथा मित्रमंडली के स्तर पर संभव है ताकि ऐसे सिविल सेवा के इच्छुक लोगों में सत्यनिष्ठा, ईमानदारी, करुणा, दया तथा गैरतरफदारी जैसे मूल्यों को उत्पन्न किया जा सके।
इससे ये सहिष्णु, राष्ट्र के प्रति उन्मुख, समाज के प्रति जागरूक, धार्मिक रूप से तटस्थ तथा स्वहित और परिवारवाद तथा भाषा एवं क्षेत्र से परे होकर सिविल सेवक बनने पर स्वहित से ऊपर उठकर परहित अर्थात जनकल्याण के प्रति समर्पित हो सके। परिवार में और समाजीकरण की प्रक्रिया द्वारा यह कार्य संभव तो है ही साथ ही शिक्षण संस्थाओं में एक उचित पाठ्यक्रम तैयार कर भविष्य के इन सिविल सेवकों की अभिवृत्ति में सकारात्मक एवं उच्च मूल्यों से अवगत कराया जा सकता है।
Question : ‘‘केवल कानून का अनुपालन ही काफी नहीं है, लोक सेवक में, अपने कर्तव्यों के प्रभावी पालन करने के लिए, नैतिक मुद्दों पर एक सुविकसित संवेदन-शक्ति का होना भी आवश्यक है।” क्या आप सहमत हैं? दो उदाहरणों की सहायता से स्पष्ट कीजिए जहां (i) कृत्य नैतिकतः सही है, परन्तु वैध रूप से सही नहीं है तथा (ii) कृत्य वैध रूप से सही है, परन्तु नैतिकतः सही नहीं है।
(2015)
Answer : कानून के अनुपालन में प्रशासन को निष्पक्षता मितव्ययता, कुशलता तथा ईमानदारी एवं संवेदना का ध्यान रखते हुए समुचित निर्णय लेना होता है। परन्तु प्रशासन के सामने अनेक बार अपने रोजमर्रा के कार्यों के दौरान ऐसी अनेक समस्याएं आती है जिनमें नैतिक एवं कानूनी विरोधाभास मौजूद रहता है, और यही विरोधाभास उन समस्याओं को और भी अधिक जटिल एवं बड़ी बना देता है। ऐसे समय में प्रशासक कोकानून एवं नैतिकता दोनों में समन्वय स्थापित करते हुए युक्तिसंगत एवं प्रभावी निर्णय लेना होता है। इसी वजह से प्रशासक के लिए कानून के प्रति सम्मान के साथ साथ नैतिक मुद्दों पर एक सुविकसित संवेदन शक्ति का होना भी आवश्यक माना जाता है। उपयुक्त कानूनी एवं नैतिक विरोधाभासी दशाओं को नीचे दिए गए उदाहरणों से आसानी से समझा जा सकता है;
Question : ‘‘ज्ञान के बिना ईमानदारी कमजोर और व्यर्थ है, परंतु ईमानदारी के बिना ज्ञान खतरनाक और भयानक होता है।” इस कथन से आप क्या समझते हैं? आधुनिक संदर्भ से उदाहरण लेते हुए अपने अभिमत को स्पष्ट कीजिए।
(2014)
Answer : ज्ञान के संबंध में यह कथन सही ही जान पड़ता है कि जैसे-जैसे ज्ञान प्राप्त होता है, व्यक्ति आगे बढ़ता है, सदाचार का निर्माण होता है और व्यक्ति में गैर पृथकतावादी विचारों का प्रभाव बढ़ता है। परन्तु, कई बार ऐसी स्थिति की कल्पना की जा सकती है जहां ईमानदारी तो हो परंतु ज्ञान व समझ का अभाव हो। ऐसे में इस नैतिक मूल्य के पूरी तरह सदुपयोग होने पर संशय किया जा सकता है और व्यक्ति ज्ञान के अभाव में दिशाहीन महसूस कर सकता है। आजकल के इस जटिल समाज में ईमानदार होने के बावजूद कई लोगों को उनके कार्यों का उचित परिणाम नहीं मिलता, बल्कि उनके समक्ष कठिनाइयां ही उपस्थित हो जाती हैं जिसका ठीकरा उन्हीं के सर फोड़ा जाता है। परन्तु ज्ञान के होते हुए ईमानदारी का अभाव हो तो व्यक्ति भयंकर भूल कर सकता है।
हिटलर, मुसोलिनी इसके स्पष्ट उदाहरण हैं। जिन्होंने ज्ञान का दुरूपयोग कर मानवता के खिलाफ कई ऐसे कार्य किए जो मानव कल्याण की अवधारणा के प्रतिकूल थी। इनकी नीतियों ने कई युद्धों को जन्म दिया जिसमें मानव मात्र के प्रति ईमानदारी लेशमात्र भी नहीं थी वहीं ज्ञान के साथ-साथ ईमानदारी जैसे नैतिक मूल्य के होने के कारण गांधीजी राष्ट्रपिता कहलाए क्योंकि उन्हें मानव मात्र के प्रति ईमानदारी एवं कर्त्तव्य बोध का अहसास था। सार्वजनिक स्तर पर 2 जी घोटाला तथा कई ऐसे घोटाले कुछ ऐसे स्पष्ट उदाहरण हैं जो ईमानदारी के अभाव में ज्ञान के दुरूपयोग किए जाने के परिचायक हैं और मानव समाज के सामाजिक-आर्थिक विकास में बाधक है।
Question : ‘‘मनुष्यों के साथ सदैव उनको, अपने आप में ‘लक्ष्य’मानकर व्यवहार करना चाहिए, कभी भी उनको केवल साधन नहीं समझना चाहिए।” आधुनिक तकनीकी-आर्थिक समाज में इस कथन के निहितार्थों का उल्लेख करते हुए इसका अर्थ और महत्व स्पष्ट कीजिए।
(2014)
Answer : प्रस्तुत प्रश्न में मनुष्य को साधन न मानकर साध्य मानने से अभिप्राय यह है कि वर्तमान में बदलते तकनीकी और आर्थिक परिदृश्य में मानव की स्थिति पशुओं जैसी हो गई है। अर्थात मनुष्य पशु के स्तर पर ‘उत्पादक’बन कर व्यवहार करने के लिए अभिशप्त हो गया है। उसे एक वस्तु की तरह अधिक अथवा कम लाभ देने वाले समान की तरह महत्व दिया जाने लगा है।
वर्तमान में अर्थव्यवस्था के हर क्षेत्र का मशीनीकरण हो चुका है और अर्थव्यवस्था की प्रकृति में आए इस परिवर्तन अथवा उत्पादन के तरीकों में आए बदलाव के कारण अधिक लाभ देने वाले मनुष्य को और अधिक महत्व दिया जा रहा है। परन्तु कम लाभ देने वाले मनुष्य को छांट दिया जा रहा है।
वर्तमान में तकनीकी विकास के उपउत्पाद के रूप में एक स्पष्ट परिणाम यह सामने आया है कि बड़े-बड़े कॉरपोरेट घराने स्वयं के नाम के लिए जनसंख्या के एक बड़े भाग का लगभग अमानवीकरण अथवा ‘मनुष्य का मशीनीकरण’कर रहे हैं जिसका लक्ष्य मानव मात्र का लाभ/कल्याण नहीं बल्कि व्यक्ति अथवा समुदाय विशेष से हित साधना है। इस प्रकार का आचरण ‘सबों के सुख’ के सिद्धांत के प्रतिकूल है।
वस्तुतः मानवता हमारे अंदर हो या बाहर यह हमेशा साध्य है, साधन नहीं। परन्तु अगर मानवता को साधन बना लिया जाए तो समाज के सभी सदस्यों के प्रति न्याय और उचित समायोजन संभव नहीं हो सकता। मानव को साधन बनाने का निर्णय विषम परिस्थिति में ही लिया जाना चाहिए। यह अपवाद हो सकता है किंतु सर्वमान्य नियम नहीं। मानव को साधन मानकर आगे बढ़ने का अर्थ है कि लक्ष्य मानव कल्याण नहीं बल्कि कुछ और है जो सबके हित को सुनिश्चित नहीं करता। कांट हो अथवा गांधी जी इन सभी लोगों ने मानव मात्र को साध्य मानने की वकालत की है।
Question : सामाजिक समस्याओं के प्रति व्यक्ति की अभिवृत्ति (Attitude) के निर्माण में कौन से कारक प्रभाव डालते हैं? हमारे समाज में अनेक सामाजिक समस्याओं के प्रति विषय अभिवृत्तियां व्याप्त हैं। हमारे समाज में जाति प्रथा के बारे में क्या-क्या विषय अभिवृत्तियां आपको दिखाई देती हैं? इन विषम अभिवृत्तियों के अस्तित्व को आप किस प्रकार स्पष्ट कर सकते हैं?
(2014)
Answer : अभिवृत्ति प्रतिक्रिया करने की तत्परता है और यह अनुभव के कारण संगठित होती है तथा व्यक्ति के व्यवहार पर इसका स्पष्ट प्रभाव पड़ता है। सामाजिक समस्याओं के प्रति अभिवृत्ति के निर्माण में कई कारकों का प्रभाव पड़ता है। कुछ प्रमुख कारक इस प्रकार हैंः
इसके अलावा स्वयं का व्यक्तित्व, संवेगात्मक कारक तथा सांस्कृतिक तत्व आदि भी सामाजिक समस्याओं के प्रति व्यक्ति को एक खास तरीके से प्रतिक्रिया व्यक्त करने को प्रेरित करते हैं।
जहां तक भारतीय समाज में व्याप्त जाति प्रथा के प्रति भिन्न-भिन्न अभिवृत्तियों का प्रश्न है तो यह मानना पड़ेगा कि भारतीय समाज जाति प्रथा का एक क्लासिकल मॉडल प्रस्तुत करता है। जाति प्रथा भारतीय समाज के ऐतिहासिक विकास का एक अंग रहा है। परन्तु स्वतंत्रता के पश्चात् भारत में राजनीतिक आधुनिकीकरण ने जाति प्रथा में एक दोहरापन उत्पन्न किया है।
जाति को लेकर स्वच्छता (Purity) एवं छूत-अछूत की अभिवृत्ति अभी वर्तमान है परन्तु आधुनिकीकरण की प्रक्रिया ने जाति बंधन को कमजोर भी किया है। पुनः जातीय सोपानक्रम में नीचे आनेवाली जातियों का महत्व पहले से बढ़ रहा है जिससे जाति प्रथा संबंधी विरोधाभास को बल मिला है। अब तथाकथित उच्चवर्ग राजनीतिक महत्वकांक्षा को पूरा करने हेतु कथित पिछड़ी जातियों को साथ लेकर चलने में नहीं चुकते वही व्यक्तिगत स्तर पर वे अब भी (Purity) ‘शुद्धता’के विचार पर अडिग हैं।
पुनः पिछड़ी जातियों में भी जाति प्रथा को लेकर नई चेतना जगी है। परन्तु उनकी अभिवृत्ति में भी विरोधामास है। एक तरफ वे उच्च एवं निम्न ‘छूत-अछूत’का विरोध कर जाति सोपानक्रम में स्वयं को तथा कथित अगड़ों की बराबरी करना चाहते है। परंतु, अरक्षण तथा नौकरियों में लाभ पाने के मुद्दे पर वे सामाजिक एवं राजनीतिक संदर्भ में स्वयं के लिए कथित पिछड़ा, दलित अथवा कमजोर वर्ग शब्दों से संबोधित करते हैं ताकि सरकारी स्कीम का लाभ लिया जा सके। इस प्रकार जाति प्रथा को लेकर वर्तमान में एक अजीब सा विरोधाभास है।
Question : ‘से स्वतंत्रता’ (Freedom from) का ‘को स्वतंत्रता’ (Freedom to) हेतु क्या महत्व है? अपने मत को स्पष्ट करने हेतु एक समस्या अध्ययन प्रस्तुत करें।
Answer : उत्तर: ‘से स्वतंत्रता’ से ‘की स्वतंत्रता’ का अंतर
समस्या अध्ययनः किसी दूरस्थ गांव में एक गंभीर रूप से बीमार वृद्ध महिला रहती थी। उसके पास अच्छे अस्पताल में इलाज हेतु धन नहीं था। यह तय था कि अब वह उस बीमारी से नहीं बचेगी।
Question : किस प्रकार नैतिक भावनाओं के नाम से जानी जाने वाली संवेदनाएं नैतिक बाध्यता के बोध से जुड़ती हैं?
Answer : उत्तरः नैतिक बाध्यताएं सद्गुण और दुराचारों से जुड़ी हुई हैं। ये आदते हैं। इस प्रकार यह आश्चर्यजनक नहीं है कि ये नैतिक स्वभाव, भावनाएं और इच्छाशक्ति है न कि वैसे भावनात्मक प्रकरण जो सद्गुणों और दुराचारों का निर्माण करते हैं।
Question : ‘‘शक्ति भ्रष्ट बनाती है तथा पूर्ण शक्ति पूर्णतः भ्रष्ट बनाती है।’’ इस कथन का आलोचनात्मक मूल्यांकन कीजिए।
Answer : उत्तरः किसी भी राज्य के कार्य करने का मुख्य आधार सत्ता होती है। लोकतांत्रिक सरकारों की बनावट तथा शासन प्रणाली जानबूझकर ऐसी रखी जाती है या होती है कि इसमें सत्ता का छितराव हो सके तथा निरंकुश शासन से बचा जा सके। सरकार के तीनों अंगों- कार्यपालिका, न्यायपालिका तथा व्यवस्थापिका में रोक तथा सन्तुलन (Checks and balance) का सिद्धान्त पर्याप्त रूप से लागू होना चाहिए।
Question : कंपनियों के कोष बढ़ाने की क्षमता को बढ़ावा देने में आचार वित्तीय सहायता करता है। आप इस कथन से कितना सहमत हैं?
Answer : उत्तर: मैं इस कथन से सहमत हूं-
Question : आपका मित्र बहस कर रहा है कि भारत के सभी अल्पसंख्यक समुदाय को बहुसंख्यक समुदाय के धर्म में परिवर्तित हो जाना चाहिये। वह तर्क करता है यदि समानता होगी तो देश में एकता होगी। वह आपको अपना मत स्वीकार करवाने के लिये प्रयत्न करता है। क्या आप उसके मत से सहमत हैं? यदि हां, तो समझाईये। यदि नहीं, तो बताइये आप कैसे उसका प्रत्युत्तर देंगे? समालोचनात्मक टिप्पणी कीजिए।
Answer : उत्तरः धार्मिक स्वतंत्रता का अधिकार भारत के संविधान ने अपने सभी नागरिकों को दिया है। इसके साथ ही हमारे संविधान में यह भी कहा गया है कि सभी नागरिक इसके आदर्शों का पालन करेंगे एवं अपने कर्त्तव्यों का निर्वहन करें। जैसे धर्मनिरपेक्षता बंधुत्व की भावना का विकास, एवं सभी धर्मों का समान आदर। यदि आपका मित्र फिर भी इस बात पर अडिग है कि सभी अल्पसंख्यकों को धर्मांतरण कर लेना चाहिए तो वह संविधान के नियमों का पालन नहीं कर रहा है।
Question : सरकारी सेवा में प्रवेश के समय नए प्रतिभागियों के अंदर उत्साह, सेवा, प्रेरणा के तत्व उच्च रूप में मौजूद रहते हैं, हालांकि कुछ वर्षों के बाद ये तत्व गतिहीन होने लगते हैं। इस कथन में शामिल कारकों की व्याख्या करें।
Answer : उत्तरः इस प्रश्न को निम्नलिखित बिंदुओं पर प्रकाश डाल कर हल किया जा सकता हैः