न्यायिक व्यवस्था में ई-तकनीक का उपयोगः महत्व एवं चुनौतियां

भारतीय न्यायालयों में न्याय की प्रक्रिया सामान्यतः काफी लंबी, देरी और कठिनाइयों से भरी होती हैं। सर्वोच्च न्यायालय द्वारा जून 2020 में जारी ऑंकड़ों के अनुसार, भारतीय न्यायालयों में 3.27 करोड़ मामले लंबित हैं, जिनमें से 85,000 मामले 30 से अधिक वर्षों से लंबित हैं।

  • अतः लंबित मामलों और अन्य समस्याओं के समाधान के लिये ई-कोर्ट के रूप में तकनीक का उपयोग किया जा रहा है।
  • हालांकि प्रौद्योगिकी का क्रांतिकारी उपयोग न्यायालयों में केवल तभी किया जा सकता है जब यह नागरिकों के मौलिक अधिकारों के संवैधानिक ढॉचे के भीतर काम करती है। यदि ऐसा नहीं हो पाता है तो इससे जुड़ी प्रौद्योगिकी आगे लोगों में बहिष्करण, असमानता और उनकी निगरानी जैसी समस्याओं को पैदा कर सकती है।
  • भारत के सर्वोच्च न्यायालय की ई-समिति ने हाल ही में ई-कोर्ट परियोजना के तीसरे चरण के लिये अपना मसौदा विजन दस्तावेज जारी किया।
  • चरण I और II में न्यायपालिका के डिजिटलीकरण यानी ई-फाइलिंग, ऑनलाइन मामलों पर नजर रखने, निर्णयों को ऑनलाइन अपलोड करने आदि कार्यों का क्रियान्वयन किया गया था। इससे न्याय के वितरण की प्रक्रिया आसान बनाने में म मिली है।
  • उदाहरण के लिये ई-कोर्ट परियोजना के दूसरे चरण में राष्ट्रीय सेवा और इलेक्ट्रॉनिक प्रक्रियाओं की ट्रैकिंग का विकास देखा गया, एक ऐसा सॉफ्टवेयर जिसने सम्मन हेतु ई-सेवा को सक्षम किया।
  • कोविड-19 महामारी के कारण कुछ समस्याओं के बावजूद, सर्वोच्च न्यायालय और उच्च न्यायालय ऑनलाइन कार्य करने में सक्षम हैं।

ई-कोर्ट मिशन मोड परियोजना

  • ई-कोर्ट मिशन मोड परियोजना (एमएमपी) तकनीक के उपयोग की अवधारणा द्वारा भारतीय न्यायपालिका को बदलने के दृष्टिकोण से शुरु की गई थी।
  • इस परियोजना का विकास भारतीय न्यायपालिका में सूचना प्रौद्योगिकी के साधनों के कार्यान्वयन पर राष्ट्रीय नीति एवं कार्य योजना पर सुप्रीम कोर्ट के तहत ई-समिति द्वारा प्रस्तुत रिपोर्ट किया गया था।
  • ई-न्यायालय एमएमपी के तहत, 5 साल की अवधि में 3 चरणों में भारतीय न्यायपालिका में सूचना और संचार प्रौद्योगिकी को लागू करने का प्रस्ताव है।
  • एमएमपी का उद्देश्य दिल्ली,मुंबई कोलकाता और चेन्नई के लगभग 700 न्यायालयों में और देशभर के 29 राज्यों/संघ राज्य क्षेत्रों के 900 न्यायालयों और देश भर के 13000 जिला और अधीनस्थ न्यायालयों में स्वचालित निर्णय प्रणाली और निर्णय-समर्थित प्रणाली की स्थापना करना है।
  • ई-न्यायालय एक एकीकृत एमएमपी है जिसका एक स्पष्ट उद्देश्य है-न्याय वितरण प्रणाली को पुनः व्यवस्थित करना गुणात्मक और मात्रत्मक दोनों दृष्टिकोण से न्यायिक निर्णय प्रणाली की क्षमता में वृद्धि करना और सस्ती, सुलभ,प्रभावी लागत,पारदर्शी और जवाबदेही प्रणाली का निर्माण करना है।
  • इस परियोजना दायरे के अंतर्गत पूरे देश में अदालतों में स्वचालित निर्णय लेने और समर्थन निर्णय प्रणाली विकसित करना, स्थापित करना और लागू करना है।
  • ई-न्यायालय परियोजना डिजीटल संपर्क के माध्यम से तहसील स्तर से लेकर सभी न्यायालयों को सर्वोच्च न्यायालय से जोड़ने की सुनिश्चिता जोर देती है।

संभावित लाभ

सूचनाओं का निर्बाध आदान-प्रदानः इसके माध्यम से राज्य की विभिन्न शाखाओं, जैसे- न्यायपालिका, पुलिस और जेल प्रणालियों के बीच इंटरऑपरेबल क्रिमिनल जस्टिस सिस्टम (Interoperable Criminal Justice System-ICJS) के माध्यम से डेटा का आदान-प्रदान किया जा सकता है।

एकरूपता और मानकीकरणः तीसरे चरण के तहत यह व्यक्तियों की पहचान किये बिना मुद्दों के बारे में समेकित और सांख्यिकीय रूप से सही जानकारी प्रदान करेगा। अतः डेटा एकत्रीकरण उपयोगी हो सकता है।

  • चरण III में एंट्री क्षेत्रों (Entry Fields) की एकरूपता और मानकीकरण को प्रोत्साहित करके इसे संभव बनाया जा सकता है।
  • 360-डिग्री प्रोफाइलिंगः तीसरे चरण में सरकारी एजेंसियों के साथ उनके सभी बातचीत (Interactions) को एक डेटाबेस में एकीकृत करके प्रत्येक व्यक्ति की 360-डिग्री प्रोफाइल बनाने की परिकल्पना की गई है।
  • एक बार जब कोई सरकारी विभाग ऑनलाइन हो जाता है, तो उनके ‘पेन-एंड-पेपर रजिस्टर’ एक्सेल शीट बन जाएंगे, जिन्हें एक क्लिक के साथ साझा किया जा सकता है।
  • स्थानीयकृत डेटा केंद्रीकृत हो जाएगा जिससे समस्या के समाधान में बड़ी प्रगति हो सकती है।

चुनौतियां

असमानताओं को बढ़ावा देनाः आपराधिक न्याय और पुलिस जवाबदेही परियोजना जैसे संगठनों द्वारा यह बताया गया है कि ICJS संभावित रूप से वर्ग और जाति की असमानताओं को बढ़ा देगा जो पुलिस और जेल प्रणाली की विशेषता है।

  • उदाहरण के लिये आपराधिक डेटा निर्माण की जरूरत स्थानीय पुलिस स्टेशनों में होती है।
  • स्थानीय स्टेशनों ने ऐतिहासिक रूप से औपनिवेशिक युग के कानूनों के माध्यम से पूरे समुदायों के अपराधीकरण में योगदान दिया है जैसे-1871 का आपराधिक जनजाति अधिनियम ऐसे समुदायों को ‘आदतन अपराधी’ बताकर पूरे समुदाय का अपराधीकरण कर दिया।
  • गृह मंत्रालय के पास डेटा का भंडारणः यह विशेष रूप से चिंता का विषय है क्योंकि ई-कोर्ट परियोजना के माध्यम से जिन डेटा को एकत्रित किया जाएगा, साझा किया जाएगा एवं समाकलित किया जाएगा उसे ICJS के तहत गृह मंत्रालय के संरक्षण में रखा जाएगा। अदालतें विभिन्न प्रकार के मामलों को सुलझाती हैं, जिनमें से कुछ विशुद्ध रूप से दीवानी, वाणिज्यिक या व्यक्तिगत प्रकृति के हो सकते हैं।
  • इस बात का कोई स्पष्ट स्पष्टीकरण नहीं दिया गया है कि गृह मंत्रालय को ऐसे अदालती डेटा तक पहुंच की आवश्यकता क्यों है जिसका आपराधिक कानून से कोई संबंध नहीं हो सकता है।
  • डेटा गोपनीयता का मुद्दाः डेटा एकत्रीकरण गोपनीयता मानकों का उल्लंघन नहीं कर सकता है जो कि पुट्टस्वामी बनाम भारत संघ मामले(वर्ष 2017) में निर्धारित है, खासकर तब जब भारत में डेटा सुरक्षा व्यवस्था नहीं है।
  • लक्षित निगरानी का डरः लक्षित विज्ञापनों के लिये सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म और प्रौद्योगिकी कंपनियों द्वारा किसी व्यक्ति की 360-डिग्री प्रोफाइलिंग किया जाता है।
  • हालांकि अंतर यह है कि जब प्रौद्योगिकी कंपनियॉं ऐसा करती हैं तो हमें लक्षित विज्ञापन मिलते हैं, लेकिन अगर सरकार ऐसा करती है तो हम लक्षित निगरानी के शिकार होते हैं।