राष्ट्रीय अधिकरण आयोगः अर्द्धन्यायिक संस्थाओं के सुव्यवस्थीकरण का प्रयास

दिसम्बर, 2021 में केंद्र सरकार द्वारा अधिकरण सुधार (सुव्यवस्थीकरण और सेवा शर्तें) अध्यादेश [Tribunal Reforms (Rationalisation and Conditions of Service) Ordinance] प्रख्यापित किया गया है। इस अध्यादेश के माध्यम से केंद्र ने कई अपीलीय अधिकरणों को समाप्त कर दिया है और उनके अधिकार क्षेत्र को अन्य मौजूदा न्यायिक निकायों में स्थानांतरित कर दिया है।

  • इस अध्यादेश ने न केवल सामान्य विधायी प्रक्रिया को दरकिनार किया बल्कि इसमें हितधारकों के परामर्श के बिना फिल्म प्रमाणन अपीलीय अधिकरण जैसे कई अधिकरणों को समाप्त करने के प्रावधान किये गए हैं जिससे इस अध्यादेश को तीखी आलोचना का सामना करना पड़ा है।
  • इसके अलावा यह पहली बार नहीं है जब केंद्र सरकार ने अधिकरणों के कामकाज में हस्तक्षेप करने की कोशिश की है, अधिकरणों के क्षेत्र में कार्यपालिका द्वारा पहले भी हस्तक्षेप होते रहे हैं जिसे शक्तियों के पृथक्करण के उल्लंघन के रूप में माना जा सकता है। अधिकरणों की स्वतंत्रता से समझौता किये बिना उनके मामलों को विनियमित करने का एक तरीका राष्ट्रीय अधिकरण आयोग (National Tribunals Commission- NTC) की स्थापना करना है।

भारत में अधिकरणों की वर्तमान स्थिति

स्वतंत्रता का अभावः विधि सेंटर फॉर लीगल पॉलिसी रिपोर्ट (रिफॉर्मिंग द ट्रिब्यूनल फ्रेमवर्क इन इंडिया) के अनुसार स्वतंत्रता की कमी भारत में अधिकरणों को प्रभावित करने वाले प्रमुख मुद्दों में से एक है।

  • प्रारंभ में चयन समितियों के माध्यम से नियुक्ति की व्यवस्था अधिकरणों की स्वतंत्रता को गंभीर रूप से प्रभावित करती है।
  • इसके अलावा पुनर्नियुक्ति के मुद्दे और सेवानिवृत्त न्यायाधीशों की नियुक्ति की प्रवृत्ति भी अधिकरणों की स्वतंत्रता को प्रभावित करती है।

गैर-एकरूपता की समस्याः अधिकरणों में सेवा शर्तों, सदस्यों के कार्यकाल, विभिन्न न्यायाधिकरणों के प्रभारी नोडल मंत्रालयों के संबंध में गैर-एकरूपता की समस्या है।

  • ये कारक अधिकरणों के प्रबंधन और प्रशासन में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं।

संस्थागत मुद्देः अधिकरण के कामकाज में कार्यकारी हस्तक्षेप प्रायः इसके दिन-प्रतिदिन के कामकाज के लिये आवश्यक वित्त, बुनियादी ढांचे, कर्मियों और अन्य संसाधनों के प्रावधान के रूप में देखा जाता है।

राष्ट्रीय अधिकरण आयोग और इसका प्रभाव

  • NTC का विचार सबसे पहले एल- चंद्र कुमार बनाम भारत संघ मामले(1997) में सर्वोच्च न्यायालय द्वारा प्रस्तुत किया गया था।
  • उद्देश्यः NTC की कल्पना अधिकरणों के कामकाज, सदस्यों की नियुक्ति और उनके खिलाफ अनुशासनात्मक कार्यवाही की निगरानी तथा ट्रिब्यूनल की प्रशासनिक एवं ढांचागत जरूरतों का ध्यान रखने के लिये एक स्वतंत्र निकाय के रूप में की गई है।
  • एकरूपताः NTC सभी न्यायाधिकरणों में समान प्रशासन का समर्थन करेगा। यह ट्रिब्यूनल की दक्षता और उनकी अपनी प्रशासनिक प्रक्रियाओं के लिये प्रदर्शन मानक निर्धारित कर सकता है।
  • शक्तियों का पृथक्करण सुनिश्चित करनाः NTC को नियमों के अधीन सदस्यों के वेतन, भत्ते और अन्य सेवा शर्तों को निर्धारित करने का अधिकार देने से न्यायाधिकरणों की स्वतंत्रता बनाए रखने में म मिलेगी।
  • NTC विभिन्न न्यायाधिकरणों द्वारा किये गए प्रशासनिक और न्यायिक कार्यों को अलग करने का मार्ग प्रशस्त कर सकता है।
  • सेवाओं का विस्तारः एक बोर्ड, एक मुख्य कार्यकारी अधिकारी (CEO) और एक सचिवालय से युक्त NTC की एक ‘निगमीकृत’ संरचना इसे अपनी सेवाओं को बढ़ाने और देश भर के सभी न्यायाधिकरणों को आवश्यक प्रशासनिक सहायता प्रदान करने की अनुमति देगी।
  • स्वायत्त निरीक्षणः NTC अनुशासनात्मक कार्यवाही और अधिकरण के सदस्यों की नियुक्ति से संबंधित प्रक्रिया को विकसित और संचालित करने के लिये एक स्वतंत्र भर्ती निकाय के रूप में कार्य कर सकता है।
  • एक NTC प्रभावी रूप से नियुक्ति प्रणाली में एकरूपता लाने में सक्षम होगा और यह सुनिश्चित करेगा कि यह स्वतंत्र तथा पारदर्शी हो।

राष्ट्रीय ट्रिब्यूनल आयोग के प्रशासनिक दायित्व

आयोग अपने स्वयं की प्रशासनिक प्रक्रियाएं और प्रदर्शन स्तर का निर्धारण कर सकता है। सदस्यों की नियुक्ति अपने स्तर पर कर सकता है।

  • वेतन-भत्तों एवं अन्य सेवा शर्तों को आयोग को सौपें जाने से उनकी स्वतंत्रता बनी रहेगी।
  • राष्ट्रीय आयोग के गठन तक ट्रिब्यूनल की जिम्मेदारी वित्त मंत्रालय को सौंपी गई है। राष्ट्रीय ट्रिब्यूनल आयोग की स्थापना के लिए वर्तमान न्यायाधिकरण प्रणाली में आमूलचूल पुनर्गठन की आवश्यकता होगी।