दसवीं अनुसूचीः समीक्षा की आवश्यकता

52वें संविधान संशोधन 1985 के माध्यम से संविधान में 10वीं अनुसूची शामिल की गई थी, इसे ही सामान्यतः दल-बदल विरोधी कानून के नाम से जाना जाता है।

  • इस कानून का उद्देश्य राजनीतिक लाभ और पद के लालच में दल-बदल करने वाले जन-प्रतिनिधियों को अयोग्य करार देना है, ताकि संसद या राज्य विधानमंडल की स्थिरता बनी रहे।
  • संविधान के अनुच्छेद 102(2) तथा अनुच्छेद 191(2) के अनुसार यदि किसी व्यक्ति को 10वीं अनुसूची के तहत अयोग्य घोषित कर दिया जाता है तो वह संसद तथा राज्य विधानसभा के किसी भी सदन का सदस्य होने के लिए अयोग्य घोषित कर दिया जाएगा।
  • 10वीं अनुसूची में यह प्रावधान किया गया है कि सदन के किसी सदस्य की अयोग्यता के मुद्दे पर अध्यक्ष/सभापति का निर्णय अंतिम होगा।

अयोग्य घोषित किये जाने के आधार

  • यदि एक निर्वाचित सदस्य स्वेच्छा से किसी राजनीतिक दल की सदस्यता को छोड़ देता है।
  • यदि कोई निर्दलीय निर्वाचित सदस्य किसी राजनीतिक दल में शामिल हो जाता है। यदि किसी सदस्य द्वारा सदन में पार्टी के पक्ष के विपरीत वोट किया जाता है।
  • यदि कोई सदस्य स्वयं को वोटिंग से अलग रखता है।
  • छह महीने की समाप्ति के बाद यदि कोई मनोनीत सदस्य किसी राजनीतिक दल में शामिल हो जाता है।

दल-बदल विरोधी कानून के अपवाद

10वीं अनुसूची कहती है यदि किसी राजनीतिक दल के दो तिहाई सदस्य आपसी सहमति से अपने दल को छोड़कर किसी दूसरे दल की सदस्यता ग्रहण कर लेते हैं, तो इसे दो राजनीतिक दलों के बीच विलय (merger) माना जाएगा तथा ऐसे मामले में दल परिवर्तित करने वाले सदस्यों की सदस्यता समाप्त नहीं होगी।
  • यदि कोई व्यक्ति सदन के स्पीकर या अध्यक्ष के रूप में चुना जाता है तो वह अपनी पार्टी से इस्तीफा दे सकता है और जब वह स्पीकर या अध्यक्ष का पद छोड़ता है तो वह पुनः अपनी पार्टी में शामिल हो सकता है। इस तरह के मामले में उसे अयोग्य नहीं ठहराया जाएगा।

स्पीकर का निर्णय न्यायिक पुनरावलोकन के अधीन है?

10वीं अनुसूची में स्पष्ट रूप से उल्लिखित है कि दल-बदल से संबंधित किसी भी मामले में अंतिम निर्णय सदन के अध्यक्ष का होता है और किसी भी न्यायालय की इस संबंध में कोई अधिकारिता नहीं है। हालांकि 10वीं अनुसूची के इस प्रावधान को किहोतो होलोहन मामले के तहत सर्वोच्च न्यायालय में चुनौती दी गई।

  • 1992 के किहोतो होलोहन बनाम जाचिल्लहू वाद (Kihoto Hollohan vs Zachilhu Csae) में सुप्रीम कोर्ट की 5 जजों की पीठ ने 1985 के 52वें संविधान संशोधन की समीक्षा की; इसी संशोधन के जरिये संविधान में 10वीं अनुसूची शामिल की गई थी।
  • इस मामले में पीठ ने 52वें संशोधन को बरकरार रखते हुए कहा कि सांसद/विधायक की अयोग्यता के संबंध में निर्णय लेते समय सदन के अध्यक्ष/सभापति न्यायाधिकरण की तरह कार्य करते हैं, अतः उनके निर्णयों की न्यायिक समीक्षा उच्च न्यायालय एवं उच्चतम न्यायालय द्वारा की जा सकती है।
  • न्यायालय का मानना था कि सदन के अध्यक्ष या सभापति के दो तरह के कार्य होते हैं- प्रक्रियात्मक कार्य तथा अर्ध-न्यायिक कार्य। सदन के सदस्यों की अयोग्यता के संबंध में निर्णय लेने का कार्य अध्यक्ष या स्पीकर का अर्ध-न्यायिक प्रकृति का दायित्व है। अतः ऐसे मामले में अध्यक्ष द्वारा लिए गए निर्णय की न्यायालय द्वारा समीक्षा की जा सकती है।
  • 1992 का किहोतो होलोहन वाद इस कारण से भी याद किया जाता है कि इसमें सर्वोच्च न्यायालय ने स्वतंत्र और निष्पक्ष चुनाव को ‘संविधान के आधारभूत ढांचे’ में शामिल किया था।

10वीं अनुसूची का महत्व

दल-बदल विरोधी संवैधानिक प्रावधान ने संसदीय प्रणाली में अनुशासन और सुशासन सुनिश्चित करने में अत्यंत महत्वपूर्ण भूमिका अदा की है।

  • इस संवैधानिक प्रावधान ने दल-बदल की प्रवृत्ति को कम करके राजनैतिक संस्थाओं व सरकार को स्थिरता प्रदान की है। जिसके कारण निर्वाचन में अनियमित और अप्रगतिशील खर्च पर नियंत्रण लगाने में सहायता मिली है।
  • साथ ही यह दल के घोषणा पत्रों के आधार पर निर्वाचित उम्मीदवारों को पार्टी की नीतियों के प्रति वफादार बनाए रखता है। इसके अलावा यह राजनीतिक दल के भीतर अनुशासन को भी बढ़ावा देता है।
  • 10वीं अनुसूची के माध्यम से पहली बार राजनैतिक दलों को संवैधानिक मान्यता प्राप्त हुई। इससे पूर्व संविधान में राजनैतिक दलों का उल्लेख नहीं किया गया था।
  • इसने राजनैतिक नैतिकता के विरुद्ध जाकर व्यक्तिगत लाभ के लिए किए जाने वाले दल-बदल पर यथा-संभव रोक लगाई है।

इस संदर्भ में विभिन्न समितियों के विचार

दिनेश गोस्वामी समिति

  • वर्ष 1990 में दिनेश गोस्वामी समिति ने कहा था कि दल-बदल कानून के तहत प्रतिनिधियों को अयोग्य ठहराने का निर्णय चुनाव आयोग की सलाह पर राष्ट्रपति/राज्यपाल द्वारा तय किया जाना चाहिये।

विधि आयोग की 170वीं रिपोर्ट

  • विदित हो कि वर्ष 1999 में विधि आयोग ने अपनी 170वीं रिपोर्ट में कहा था कि चुनाव से पूर्व दो या दो से अधिक पार्टियां यदि गठबंधन बनाकर चुनाव लड़ती हैं तो दल-बदल विरोधी प्रावधानों में उस गठबंधन को ही एक पार्टी के तौर पर माना जाए।
  • राजनैतिक पार्टियों को व्हिप (दल के पक्ष में वोट न देने या किसी भी पक्ष को वोट न देने की स्थिति में अयोग्य घोषित करने का आदेश) केवल तभी जारी करनी चाहिये, जब सरकार खतरे में हो।

चुनाव आयोग का मत

  • चुनाव आयोग का विचार है कि इस संबंध में उसकी स्वयं की भूमिका व्यापक होनी चाहिये।
  • अतः दसवीं अनुसूची के तहत आयोग की बाध्यकारी सलाह पर राष्ट्रपति/राज्यपाल द्वारा निर्णय लेने की व्यवस्था की जानी चाहिये।

कमियां

10वीं अनुसूची में सदस्यों की स्वतंत्रता पर सीमाएं लगाई गईं, जिसमें उनकी असहमति और दल-परिवर्तन के मध्य अंतर को स्पष्ट नहीं किया गया।

  • इसके माध्यम से बड़े दलों में छोटे-छोटे विभाजनों को तो रोका गया परंतु छोटे दलों में होने वाले परिवर्तनों को इसने रोकने के बजाए और अधिक बढ़ा दिया।
  • इसने निर्दलीय और मनोनीत सदस्यों के मध्य विभेद कर निर्दलीय सदस्यों के अधिकारों में कटौती की।
  • आलोचकों द्वारा ऐसा कहा जाता है कि दल-बदल विरोधी कानून जनता का नहीं, बल्कि दलों के शासन की व्यवस्था अर्थात ‘पार्टी राज’ को बढ़ावा देता है।
  • इसने अध्यक्ष को इतनी शक्तियां प्रदान की हैं कि अगर अध्यक्ष तटस्थ न हो तो उसके निर्णय में त्रुटि होने की संभावना बनी रहती है। यह भी ध्यातव्य है कि चूंकि सदन का अध्यक्ष किसी एक राजनीतिक दल का सदस्य होता है, ऐसे में पक्षपात की संभावना बनी रहती है।

आगे की राह

  • दल बदल विरोधी कानून संसद की आंतरिक राजनीति और सांसदों/विधायकों की खरीद-फरोख्त को रोकने का एक महत्वपूर्ण यंत्र है। लेकिन दल-बदल विरोधी कानून के सन्दर्भ में यह कथन सटीक बैठता है कि ‘इलाज ही अब स्वयं बीमारी बन गई है’।
  • ऐसा इसलिये है क्योंकि इस कानून के कुछ प्रावधान विसंगतियुक्त हैं, उदाहरण के लिये यदि कोई अपनी ही पार्टी के फैसले की सार्वजनिक आलोचना करता है तो यह माना जाता है कि संबंधित सदस्य 10वीं अनुसूची के तहत स्वेच्छा से दल छोड़ना चाहता है। यह प्रावधान पार्टियों को किसी स्थिति की मनमाफिक व्याख्या की सुविधा प्रदान करता है।