संघीय व्यवस्था में राज्यपालः समालोचनात्मक मूल्यांकन

भारत का संविधान संघात्मक है, इसमें संघ तथा राज्यों के शासन के संबंध में प्रावधान किया गया है।

संविधान के अनुच्छेद 153-156, 161,163, 164 (1) तथा 213(1) में राज्यपाल की संवैधानिक शक्तियों को उपबंधित किया गया है।

  • संघीय व्यवस्था में राज्यपाल राज्य और कार्यपालिका के औपचारिक प्रमुख के रूप में काम करता है, विशेषकर तब, जब राजनीतिक अस्थिरता की स्थिति होती है। ऐसी स्थिति में जहां दो या अधिक दल सरकार बनाने का दावा पेश कर रहे हों, राज्यपाल को कानूनी एवं संवैधानिक पक्षों को ध्यान में रखते हुए निर्णय करना होता है। परंतु वर्तमान में राज्यपाल पद की प्रवृत्ति में व्यापक भिन्नता देखी गई है।
  • राज्यपाल का यह निर्णय उसके स्वविवेक पर निर्भर होता है। ध्यातव्य है कि अनुच्छेद 163 राज्यपाल को विवेकाधिकार की शक्ति प्रदान करता है अर्थात् राज्यपाल स्वविवेक संबंधी कार्यों में मंत्रिपरिषद् का सुझाव लेने के लिये बाध्य नहीं होगा।
  • राज्यपाल की इन विवेकाधीन शक्तियों पर न्यायालय भी प्रश्नचिह्न नहीं लगा सकता।
  • परंतु 1994 के बोम्मई जजमेंट में न्यायालय ने कहा कि फ्किसी भी राज्य सरकार का बहुमत परीक्षण राजभवन की जगह विधानमंडल में होना चाहिये तथा राज्य सरकारों को शक्ति परीक्षण का मौका देना होगा।य्

विभिन्न आयोगों और समितियों द्वारा दी गई सिफ़ारिशें

  • वर्ष 1966 में केंद्र सरकार द्वारा मोरारजी देसाई की अध्यक्षता में प्रथम प्रशासनिक सुधार आयोग (ARC) का गठन किया गया था, आयोग ने अपनी रिपोर्ट में सिफारिश की थी कि राज्यपाल के पद पर किसी ऐसे व्यक्ति को नियुक्त किया जाना चाहिये जो किसी दल विशेष से न जुड़ा हो।
  • वर्ष 1970 में तमिलनाडु सरकार द्वारा केंद्र व राज्य संबंधों पर विचार करने के लिये राजमन्नार समिति का गठन किया गया था। गौरतलब है कि इस समिति ने भारतीय संविधान से अनुच्छेद 356 और 357 के विलोपन (Deletion) की सिफारिश की थी। संविधान के अनुच्छेद 356 के अनुसार, यदि राज्य सरकार संवैधानिक प्रावधानों के तहत कार्य करने में असमर्थ है तो केंद्र राज्य पर प्रत्यक्ष रूप से नियंत्रण स्थापित कर सकता है। संविधान के अनुसार, इसकी घोषणा राज्यपाल द्वारा राष्ट्रपति से सहमति प्राप्त करने के बाद की जाती है। साथ ही समिति ने यह भी सिफारिश की थी कि राज्यपाल की नियुक्ति प्रक्रिया में राज्यों को भी शामिल किया जाना चाहिये।
  • 1980 में गठित सरकारिया आयोग ने 1988 में 1600 पेज की अपनी अंतिम रिपोर्ट सरकार को सौंपी थी, जिसमें केंद्र-राज्य संबंधों को लेकर बिंदुवार 247 सिफारिशें की गई थीं। सरकारिया आयोग की केंद्र-राज्य संबंधों के बारे में जो अनुशंसाएं हैं, उसके भाग-1 और अध्याय-4 में यह स्पष्ट किया गया है कि राज्यपाल का पद एक स्वतंत्र संवैधानिक पद है, राज्यपाल न तो केंद्र सरकार के अधीनस्थ है और न उसका कार्यालय केंद्र सरकार का कार्यालय है।

राज्यपाल की भूमिका संबंधित विवाद

केंद्र सरकार द्वारा सत्ता का दुरुपयोगः प्रायः केंद्र में सत्ताधारी दल के निर्देश पर राज्यपाल के पद के दुरुपयोग के कई उदाहरण देखने को मिलते हैं।

  • राज्यपाल की नियुक्ति की प्रकिया को इसमें प्रमुख कारण माना जाता है।

पक्षपाती विचारधाराः कई मामलों में एक विशेष राजनीतिक विचारधारा वाले राजनेताओं और पूर्व नौकरशाहों को केंद्र सरकार द्वारा राज्यपालों के रूप में नियुक्त किया जाता है।

  • यह संवैधानिक रूप से अनिवार्य तटस्थ पद के पूर्ण विरुद्ध है और यह पक्षपात को जन्म देता है, जैसा कि कर्नाटक और गोवा के मामलों में देखा गया।

कठपुतली शासकः हाल ही में राजस्थान के राज्यपाल पर आदर्श आचार संहिता के उल्लंघन का आरोप लगाया गया है। केंद्रीय सत्ताधारी दल के प्रति उनका समर्थन गैर-पक्षपात की भावना के विरुद्ध है जिसकी अपेक्षा संवैधानिक पद पर आसीन व्यक्ति से की जाती है।

  • ऐसी घटनाओं के कारण ही राज्य के राज्यपाल के लिये केंद्र के एजेंट, कठपुतली और रबर स्टैम्प जैसे नकारात्मक शब्दों का उपयोग किया जाता है।

एक विशेष राजनीतिक दल का पक्ष लेनाः चुनाव के बाद सबसे बड़ी पार्टी/गठबंधन के नेता को सरकार बनाने के लिये आमंत्रित करने की राज्यपाल की विवेकाधीन शक्तियों का प्रायः किसी विशेष राजनीतिक दल के पक्ष में दुरुपयोग किया जाता है।

शक्ति का अनुचित उपयोगः प्रायः यह देखा गया है कि किसी राज्य में राष्ट्रपति शासन (अनुच्छेद 356) के लिये राज्यपाल की सिफारिश सदैव ‘तथ्यों’ पर आधारित न होकर राजनीतिक भावना और पूर्वाग्रह पर आधारित होती है।

आगे की राह

राज्यपाल का उत्तरदायित्त्वः एक लोकतांत्रिक सरकार के सुचारु रूप से संचालन के लिये यह बहुत आवश्यक है कि राज्यपाल को अपने विवेक और व्यक्तिगत निर्णय का प्रयोग करते हुए तर्कपूर्ण, निष्पक्ष तथा कुशलता से कार्य करना चाहिये।

  • जैसा कि सरकारिया आयोग ने कहा है, राज्यपाल का कार्य फ्यह सुनिश्चित करना है कि सरकार बने, न कि सरकार बनाने का प्रयास करना।य्

संघवाद को मजबूत बनानाः राज्यपाल कार्यालय के दुरुपयोग को रोकने के लिये भारत में संघवाद तंत्र को और मजबूत किया जाना बहुत आवश्यक है।

  • इस संबंध में अंतर-राज्य परिषद और संघवाद के कक्ष के रूप में राज्यसभा की भूमिका को मजबूत किया जाना चाहिये।

राज्यपाल की नियुक्ति प्रक्रिया में सुधारः राज्यपाल के रूप में ‘अपने किसी व्यक्ति/प्रतिनिधि’ का चुनाव करने के केंद्र के एकाधिकार को समाप्त करने के लिये यह नियुक्ति राज्य विधायिका द्वारा स्थापित एक पैनल द्वारा की जा सकती है। इसके अतिरिक्त वास्तविक नियुक्ति प्राधिकारी अंतर-राज्य परिषद को होना चाहिये, न कि केंद्र सरकार का।

राज्यपाल के लिये आचार संहिताः राज्यपाल के लिये संविधान में निर्धारित कर्तव्यों का निर्वहन करने हेतु केंद्र व राज्य सरकारों द्वारा आपसी सहमति से एक ‘आचार संहिता’ (Code of Conduct) का निर्धारण किया जाना चाहिये।

  • इस आचार संहिता के तहत कुछ ‘मानदंडों और सिद्धांतों’ का निर्धारण किया जाना चाहिये जो राज्यपाल के ‘विवेक’ और उसकी शक्तियों (जिसे वह अपने फैसलों में प्रयोग करने का हकदार है) के कार्यान्वयन का मार्गदर्शन करें। इस संदर्भ में ऐसी संहिता के लिये केंद्र-राज्यों संबंधों पर बने सरकारिया आयोग की विभिन्न सिफारिशों से प्रेरणा ली जा सकती है।