यह किसी विडम्बना से कम नहीं है कि जिस अमेरिका का सम्पूर्ण इतिहास अप्रवासियों से अभिन्न रूप से सम्बद्ध रहा है वहां के 45वें राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ने पद की शपथ लेने के आठ दिन बाद ही 28 जनवरी, 2017 को सात मुस्लिम बहुसंख्यक देशों के शरणार्थियों के प्रवेश को बाधित करने वाला एक अधिशासी आदेश जारी कर दिया। इसके अंतर्गत 120 दिन के लिए अमेरिकी शरणार्थी कार्यक्रम के निलंबन तथा 90 दिनों के लिए इराक, ईरान, सीरिया, यमन, सूडान, लीबिया, सोमालिया के सभी नागरिकों के अमेरिका में प्रवेश को रोकने का प्रावधान है।
इस प्रकार जटिल अंतरराष्ट्रीय-परिदृश्य में राष्ट्रीय सुरक्षा का तर्क देकर ट्रंप-प्रशासन द्वारा आव्रजन नीति में किये जा रहे परिवर्तन का एक पक्ष तो स्पष्टतः ‘इस्लामफोबिया’, से सम्बंधित है। परन्तु क्या आधारभूत समस्याओं का विश्लेषण करने के स्थान पर सतही उपाय अपनाने से धार्मिक-कट्टरता और नस्लीय-उन्माद जैसी भीषण समस्याओं को सुलझाया जा सकता है? निश्चित तौर पर नहीं। लोगों के मध्य वृहत्तर संवाद और निरंतर संपर्क से ही ऐसे मसलों का हल संभव है। इसके उलट उपर्युक्त विभेदकारी नीतियों के दीर्घकालिक दुष्परिणाम हो सकते हैं। ऐसा कदापि नहीं है कि अमेरिका में ऐसे नारों का सहारा लेकर अतीत में चुनाव नहीं जीते गए लेकिन उनका उद्देश्य ट्रम्प की भांति संकुचित राष्ट्रवादी आधार पर अमेरिका की स्थिति को सुदृढ़ करना नहीं बल्कि उस विश्व-व्यवस्था को और सुदृढ़ करना था जिसका नेतृत्व द्वितीय विश्व-युद्ध के पश्चात् से ही अमेरिका के हाथों में था।
ट्रंप के चुनावी नारे जैसे ‘मेक अमेरिका ग्रेट अगेन’, ‘अमेरिका फर्स्ट’ और अमेरिका का ट्रांस-पैसिफिक पार्टनरशिप से सम्बन्ध- विच्छेद, मैक्सिको से लगती हुयी दक्षिणी-सीमा पर एक दीवार का निर्माण संभवतया अमेरिका द्वारा पुनः पार्थक्यवादी मार्ग का अनुसरण करने की ओर संकेत करते हुए प्रतीत होते हैं। वस्तुतः एक शताब्दी से अधिक समय तक अमेरिका के अंतरराष्ट्रीय-संबंध मुनरो सिद्धांत (1823) से संचालित होते रहे। परन्तु प्रश्न यह उठता है कि क्या 21वीं शताब्दी के दूसरे दशक के अंतिम वर्षों में अमेरिका पार्थक्य की नीति को वहन कर सकता है? जबकि विउपनिवेशीकरण के पश्चात् ‘विश्व-व्यवस्था’ और शीत-युद्ध की समाप्ति के बाद एक ध्रुवीय ‘नव विश्व-व्यवस्था’ का नेतृत्व करते हुए अमेरिका को छः दशक से अधिक हो चुके हैं।
सबसे महत्वपूर्ण तो यह कि यह ‘इस विश्व-व्यवस्था’ अंतर्गत ‘वैश्वीकरण’ अथवा ‘अमेरिकीकरण’ की व्यवस्था ही रही है। वास्तव में दो गंभीर अतरराष्ट्रीय महत्व के मुद्दों पर मुखर हो चुकी नवीन अमेरिकी-प्रशासन की नीति उपर्युक्त आशंका को खारिज करने के लिए पर्याप्त है। पहला तो अमेरिकी राष्ट्रपति द्वारा कट्टर इस्लामी आतंकवाद को समाप्त करने का वायदा और दूसरा 23 जनवरी को व्हाइट हाउस के प्रवक्ता सेन स्पाइसर का वह वक्तव्य जिसने दक्षिण चीन सागर विवाद की ओर दुनिया का ध्यान पुनः केन्द्रित कर दिया। हालांकि ट्रंप की सुरक्षा और सामरिक रणनीतियों पर से पर्दा उठना शेष है। परन्तु अमेरिका अपने राष्ट्रीय हितों को साधने के लिए अपनी सीमाओं के बाहर भी अत्यंत सक्रिय रहने का संकेत दे चुका है।
आव्रजन नीति में परिवर्तन का दूसरा पक्ष अपने राजनैतिक हितों को साधने व उसे सिद्ध करने की कामना से प्रेरित है। इसके अंतर्गत अमेरिकी पेशेवरों के लिए रोजगार सुरक्षित रखने हेतु एच-1बी व एल-1 वर्क वीजा नियमों में संशोधन हेतु एक विधेयक अमेरिका के प्रतिनिधि सदन (House of Representatives) में प्रस्तुत किया गया है। आईटी, बायो-टेक्नोलॉजी, विश्वविद्यालयों, अस्पतालों और फैशन जैसे अनेक व्यावसायिक क्षेत्रें में काम करने के लिए उच्च कौशल प्राप्त कर्मियों को अमेरिका अपने यहां काम करने का अवसर देने के लिए प्रति वर्ष 85 हजार एच-1 बी वीजा जारी करता है। इन्हें अन्य अनेक सुविधाएं मिलती हैं लेकिन अमेरिकी प्रवासी के अधिकार नहीं मिलते। अभी तक इस नियम के तहत उन्हीं कामों के लिए विशेषज्ञ पेशेवरों को अमेरिका बुलाया जा सकता था, जिसमें न्यूनतम वेतन 60 हजार वार्षिक हो। संशोधन के पश्चात् यह न्यूनतम सीमा, जो 1989 में निर्धारित की गयी थी, दो गुने से भी अधिक बढ़कर 1-3 लाख डॉलर निर्धारित की जाएगी। निश्चित तौर पर संशोधित आव्रजन नीति अमेरिका में मानव श्रम के आयात को नियमित करेगी।
बिल के लागू होने से कम्पनियों के लिए अमेरिका के स्थान पर भारत या अन्य देशों के कुशल नागरिकों को रोजगार देना मुश्किल हो जायेगा। वैश्वीकृत अंतरराष्ट्रीय-परिदृश्य में यह एक प्रतिक्रियावादी तथा प्रतिगामी कदम है। आर्थिक परिप्रेक्ष्य में भूमंडलीकरण के चार मौलिक तत्व हैं- वस्तुओं व सेवाओं का निर्बाध प्रवाह, वित्तीय-पूंजी का निर्बाध प्रवाह, तकनीक का निर्बाध प्रवाह और श्रम का निर्बाध प्रवाह। भूमंडलीकरण की अवधारणा को व्यवहार रूप देने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाने वाले दुनिया के विकसित राष्ट्र प्रायः ही श्रम के प्रवाह को नियंत्रित करने के प्रयास करते रहे हैं। हाल ही में संपन्न हुआ ब्रेक्जिट इस संरक्षणवादी दृष्टिकोण का ज्वलंत उदाहरण है।
अमेरिका भारतीय आईटी कम्पनियों का सबसे बड़ा बाजार है। ‘भारतीय मूल अमेरिकी माटी’ नामक रिपोर्ट (2015) के अनुसार भारतीय कंपनियां अमेरिका में 91 हजार से अधिक अमेरिकियों को रोजगार दे रही हैं। लगभग 15 अरब डॉलर का निवेश भी कर रखा है। वहां अवस्थित अधिकांश कम्पनियां एच-1बी वीजा के अंतर्गत भारतीय आईटी पेशेवरों को कुछ वर्ष के लिए बुलाती हैं। यह अमेरिकी आईटी पेशेवरों को रोजगार पर रखने की अपेक्षा लाभप्रद होता है। प्रस्तावित संशोधन इसी सुविधा को समाप्त करने जा रहा है। वर्तमान आव्रजन-नीति के आलोचकों का कहना है कि इसके कारण अमेरिकी पेशेवर बेरोजगार रह जाते हैं, अतः परिवर्तन के पश्चात् पूरा परिदृश्य बदल जायेगा।
दूसरी ओर प्रस्तावित संशोधन के आलोचकों का मानना है कि बदला परिदृश्य स्वयं अमेरिका के लिए हानिकर सिद्ध होगा, क्योंकि इससे अमेरिकी आईटी उत्पाद महंगे हो जायेंगे तथा अमेरिकी आईटी कम्पनियों का विदेशों की ओर पलायन होगा।
संरक्षणवादी अमेरिकी आव्रजन नीति का दुनिया के सभी देशों और विशेषकर भारत जैसे विकासशील देशों के आर्थिक विकास पर नकारात्मक प्रभाव पड़ेगा, क्योंकि अंतरराष्ट्रीय-व्यापार की बाधाएं पर्याप्त सीमा तक बढ़ने की संभावना है। दूरगामी और व्यापक प्रभाव के रूप में वैश्वीकरण की मूल भावना को चोट पहुंचेगी।
अन्तरराष्ट्रीय स्तर पर आर्थिक विकास के नेता के रूप में चीन की भूमिका बढ़ जाएगी। वैसे भी चीन दुनिया की सबसे बड़ी आर्थिक शक्ति बनने की ओर तेजी से अग्रसर है। हालांकि चीन ट्रांस पैसिफिक पार्टनरशिप (टीपीपी) का सदस्य तो नहीं है। परन्तु जिस प्रकार से डावोस आर्थिक सम्मेलन में चीनी राष्ट्रपति शी जिनपिंग ने बड़े उत्साह के साथ इस अंतरक्षेत्रीय सहयोग समूह का समर्थन किया उससे निकट भविष्य में चीन इस समूह में सक्रिय भागीदार हो, इस संभावना से इंकार नहीं किया जा सकता है।