क्वाड प्लस (Quad plus), ये शब्द चर्चा में थे। दरअसल, क्वाड या चतुष्पक्षीय सुरक्षा वार्ता से तात्पर्य एक फोरम से है जिसे अमेरिका, ऑस्ट्रेलिया, भारत और जापान मिलकर बनाना चाहते हैं। कुछ जगह इस फोरम को एशियन आर्क ऑफ डेमोक्रेसी कहा जा रहा है तो कहीं-कहीं इसे एशिया का नाटो कहा जा रहा है। दरअसल, क्वाड या चतुष्पक्षीय सुरक्षा वार्ता, जापानी प्रधान मंत्री शिंजो आबे के मस्तिष्क की उपज है। उन्होंने ही इसकी कल्पना की थी और इसे लोकतंत्र का एशियाई आर्क कहा था। 2007 में इसके गठन के बाद, चीन द्वारा सभी देशों को इसके विरोध में राजनयिक नोट भेजा गया और ऑस्ट्रेलिया के प्रधानमंत्री केविन रूड ने चीन की आपत्ति को स्वीकार करते हुए 2008 में क्वाड से बाहर निकलने की घोषणा की थी, जिसके कारण क्वाड भंग हो गया था। भारत, अमेरिका और जापान आज भी इस सुरक्षा फोरम में शामिल हैं। भारत, अमेरिका और जापान एक दूसरे के साथ पहले से ही मंत्री स्तरीय त्रिपक्षीय वार्ता और वार्षिक नौसैनिक अभ्यास में संलग्न हैं।
ऑस्ट्रेलिया के इस समूह से बाहर होने के कई कारण थे जैसे कि, ऑस्ट्रेलिया की अर्थव्यवस्था चीन से कमोडिटी निर्यात पर भारी मात्र में निर्भर करती है, ऑस्ट्रलिया में राजनीतिक दलों के विदेशी वित्त पोषण से संबंधित नियमों के चलते ऑस्ट्रेलियाई राजनीति में चीनी पैसा बड़ी मात्र में लगा हुआ है, जापान और भारत के विपरीत ऑस्ट्रेलिया का चीन के साथ कोई सीधा विवाद भी नहीं है आदि। फिलिपिन्स में आयोजित 31 वें आसियान शिखर सम्मेलन के अवसर पर भारत, अमेरिका, जापान और ऑस्ट्रेलिया के शीर्ष नेताओं ने हिन्द-प्रशांत क्षेत्र को मुक्त और स्वतंत्र बनाये रखने के लिए, समग्र सुरक्षा एवं रक्षा सहयोग बढ़ाने के लिए, चतुष्पक्षीय गठबंधन को पुनः मूर्त रूप देने की दिशा में पहली बैठक भी की है।
उल्लेखनीय है कि भारत-प्रशांत क्षेत्र में चीन अपना सैन्य निर्माण लगातार मजबूत कर रहा है जिसे लेकर ना केवल चीन के पड़ोसी देश व भारत-प्रशांत क्षेत्र के देश बल्कि विश्व की सभी बड़ी शक्तियाँ चिंतित हैं यही प्रमुख कारण है कि ऑस्ट्रेलिया पुनः इस समूह का भाग बनना चाहता है।
क्या क्वाड पुनः एक हकीकत बन पायेगा?
क्वाड पुनः एक हकीकत होगा इसकी प्रबल संभावना है किन्तु इसके निर्माण में कुछ बाधाएं हैं जिन्हें दूर करना आवश्यक है जैसेः
प्रथम; सुरक्षा केन्द्रित समूह और अर्थव्यस्था केन्द्रित समूह में यह प्रमुख अंतर होता है कि आर्थिक भागीदारी में सदस्य संख्या बढ़ने से मानकों की एकरूपता हासिल करने में मदद मिलती है जबकि सुरक्षा आधारित समूह में सदस्यों की संख्या बढ़ने से मानकों के एकीकरण में बाधा उत्पन्न होती है। ऐसा इसलिए होता है, क्योंकि कोई भी समूह प्रत्येक प्रतिभागी की विश्वसनीयता और प्रतिबद्धता पर निर्भर करता है। आर्थिक समूह में सदस्य संख्या बढ़ने से वैश्विक अर्थव्यस्था में समान प्रकार के नियम निर्मित होते हैं जिससे अंतर्राष्ट्रीय बाजार में व्यापार करना सुगम हो जाता है तथा वैश्विक अर्थव्यस्था की दक्षता में वृद्धि होती है तथा सभी देशों को लाभ प्राप्त होता है। इस प्रकार आर्थिक समूहों का एक व्यापक एजेंडा होता है। जबकि सुरक्षा आधारित समूह सार्वजनिक हित की जगह अपने खुद के हितों पर निर्भर करते हैं। इनमें सर्वसम्मति बन पाना एक दुष्कर कार्य होता है।
क्वाड प्लस क्या है? क्वाड प्लस वर्तमान में एक विचार है जिसे हाल ही में, जापानी विदेश मंत्री तारो कोनो ने प्रस्तुत किया है। उन्होंने सुझाव दिया है कि ब्रिटेन और फ्रांस को भी क्वाड समूह में शामिल किया जाये। इस प्रकार क्वाड में ब्रिटेन और फ्रांस को शामिल करके जो नया समूह बनेगा उसे ही क्वाड प्लस कहा जा रहा है। |
सुरक्षा समूहों का एक संकुचित एजेंडा होता है। इनमें जैसे-जैसे सदस्य संख्या बढती है वैसे वैसे आपसी टकराव बढ़ता है जिस कारण मानकों में एकरूपता नहीं आ पाती। सुरक्षा समूह में प्रत्येक प्रतिभागी की विश्वसनीयता और प्रतिबद्धता उससे बिल्कुल अलग होती है, जैसे आर्थिक समूह में, जिस कारण एक बड़े समूह के बीच सुरक्षा सहयोग की सफलता एक चुनौतीपूर्ण कार्य है।
दूसरा, कई कारणों से ग्रुपिंग में ऑस्ट्रेलिया को स्वीकार करने में भारत अनिच्छुक रहा है। ऑस्ट्रेलिया की अर्थव्यवस्था चीन को कमोडिटी निर्यात पर भारी मात्र में निर्भर करती है। ऑस्ट्रलिया में राजनीतिक दलों के विदेशी वित्त पोषण से संबंधित नियमों के चलते ऑस्ट्रेलियाई राजनीति में चीनी पैसा बड़ी मात्र में लगा हुआ है। जापान और भारत के विपरीत, ऑस्ट्रेलिया का चीन के साथ कोई सीधा विवाद भी नहीं है। दरअसल, यही वो कारण थे जिनकी वजह से ऑस्ट्रेलिया के प्रधानमंत्री केविन रूड ने, चीन की आपत्ति को स्वीकार करते हुए 2008 में क्वाड से बाहर निकलने की घोषणा की थी और ये सभी कारण आज भी विद्यमान हैं जिस कारण इसकी प्रबल संभावना है कि ऑस्ट्रेलिया पुनः वही कदम उठा सकता है जो उसने 2008 में उठाया था।
भारत-प्रशान्त क्षेत्र में शक्ति संतुलन
सचाई यह है कि आज एशिया प्रशांत क्षेत्र जिसे हाल ही में अमेरिका ने भारत प्रशांत क्षेत्र से संबोधित किया था, अब विश्व राजनीति के केंद्र में आ रहा है। अब इस क्षेत्र पर पूरे विश्व की नजर है। यहाँ के राजनीतिक समीकरण अब पहले से जटिल होते जा रहे हैं। अगर चीन की बात करें तो चीन लगातार पूर्वी चीन सागर, दक्षिण चीन सागर, पश्चिमी प्रशांत महासागर और भारतीय महासागर मेंलगातार अपना प्रभाव बढ़ा रहा है। यही नहीं उसने कुछ वर्षों से दक्षिण चीन सागर के द्वीपों और सागरीय इलाके पर अपना प्रादेशिक अधिकार जताया है। अगर उसकी यह मंशा पूरी हुई तो दक्षिण चीन सागर से होकर भारत और अन्य देशों के व्यापारिक और सैनिक पोतों की आवाजाही पर उसका नियंत्रण स्थापित हो सकता है। इस आशंका से इस क्षेत्र के तमाम देश चिंतित हो गए हैं। ऑस्ट्रेलिया और जापान संयुक्त अभ्यास में विस्तार कर रहे हैं, पनडुब्बी प्रौद्योगिकी को साझा कर रहे हैं। उनके मध्य अर्थ गठबंधन है। जापान और अमेरिका के बीच में रक्षा संधि है, आपसी रक्षा की गाइडलाइन के मुताबिक जापान की रक्षा की जिम्मेदारी अमेरिका की है। ऑस्ट्रेलिया और अमेरिका के बीच भी गठबंधन है। भारत के लिए यह क्षेत्र व्यापक महत्व का है। भारत की ‘एक्ट ईस्ट नीति' इस क्षेत्र में भारत के कार्यों की आधारशिला है और विदेश नीति में व्यापक महत्व रखती है। अमेरिका और भारत के चीन के साथ अच्छे व्यापारिक संबंध हैं लेकिन कूटनीतिक मोर्चे पर दोनों के लिए चीन सबसे बड़ी चुनौती रहा है। इसलिए अमेरिका उसे चारों ओर से घेर देना चाहता है। इस क्षेत्र के देशों जापान, वियतनाम, साउथ कोरिया और फिलीपींस से भारत के रक्षा और व्यापारिक संबंध हैं। वैसे तो सभी देशों के अपने-अपने हित और लक्ष्य हैं किन्तु व्यापारिक और सैनिक पोतों की आवाजाही पर नियंत्रण की संभावना सभी की उभयनिष्ठ समस्या है।
चीन की इस आक्रामकता को रोकने और इस इलाके के देशों के हितों की रक्षा के लिए ही इन चार देशों ने एक साथ आने का फैसला किया है। भारत, अमेरिका, जापान और ऑस्ट्रेलिया के बीच की इस सामरिक साझेदारी से चीन को अंतर्राष्ट्रीय नियमों का पालन करने के लिए बाध्य किया जा सकता है, इस क्षेत्र में उसके बढ़ते प्रभाव को नियंत्रित किया जा सकता है।