मुख्य न्यायाधीश जस्टिस जे-एस- खेहर की अध्यक्षता वाली सर्वोच्च न्यायालय की 9 सदस्यीय खंडपीठ ने के-पुत्तास्वामी बनाम भारत संघ वाद में सर्वसम्मति से ऐतिहासिक निर्णय देते हुये ‘निजता के अधिकार' को संविधान के अनुच्छेद 21 के जीवन व स्वतंत्रता के अधिकार (freedom of life and personal liberty) के तहत मूल अधिकार का अभिन्न हिस्सा माना जिसे संविधान के भाग-3 द्वारा गारंटी प्रदान की गई है। न्यायालय ने यह भी कहा कि ‘निजता का अधिकार न केवल सामान्य विधि अधिकार, न केवल वैधानिक अधिकार, न केवल मूल अधिकार है। यह प्रत्येक व्यक्ति में अंतर्निहित प्राकृतिक अधिकार भी है।’ सर्वोच्च न्यायालय ने एम-पी-शर्मा वाद में आठ न्यायाधीशों की खंडपीठ व खड़क सिंह वाद में छह न्यायाधीशों की खंडपीठ में दिये गये अपने पूर्व के निर्णयों को पलट दिया। पूर्ववर्ती दोनों निर्णयों में निजता का अधिकार को मूल अधिकार नहीं माना गया था। इसके अलावा देश में आपातकाल के समय एडीएम जबलपुर बनाम एस-एस- शुक्ला वाद 1976 (जिसे हैबियस कॉर्पस वाद भी कहा जाता है) में सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीश वाई-वी चंद्रचूड़ ने जिस प्रकार से राज्य को लोगों के जीवन में झांकने की खुली छूट दे थी, उसकी तुलना में मौजूदा निर्णय एक प्रगतीशील कदम है। ज्ञातव्य है कि निजता के अधिकार को जिन 9 न्यायाधीशों की खंडपीठ ने मूल अधिकार माना, उनमें न्यायमूर्ति(स्वर्गीय) वाई-वी- चंद्रचूड़ के पुत्र न्यायमूर्ति डी-वाई- चंद्रचूड़ भी शामिल हैं।
न्यायालय का पक्ष
निजता के अधिकार के संवैधानिक स्थिति का मामला उस समय पैदा हुआ जब उच्च न्यायालय के सेवानिवृत्त न्यायाधीश के-एस- पुत्तास्वामी के नेतृत्व में कई लोगों ने वर्ष 2012 में तत्कालीन यूपीए सरकार द्वारा नागरिकों के लिए बायोमीट्रिक डाटा आधारित आधार कार्ड आरंभ करने के निर्णय के खिलाफ याचिकाएं दायर की। याचिका दाखिल करने वाले अन्य लोगों में शामिल थे_ मैगसेसे पुरस्कार विजेता तथा राष्ट्रीय बाल अधिकार सुरक्षा आयोग के अध्यक्ष शांता सिन्हा, नारीवादी शोधकर्त्ता कल्याणी सेन मेनन इत्यादि। उपर्युक्त याचिकाओं को 11 अगस्त, 2015 को सर्वोच्च न्यायालय की 5 सदस्यीय संविधान पीठ के पास भेज दिया गया। जे-एस-खेहर की अध्यक्षता वाली पीठ ने 18 जुलाई, 2017 को इस विषय पर जब सुनवाई आरंभ किया तो केंद्र सरकार ने दलील दी कि मौजूदा पीठ की संख्या पर्याप्त नहीं है क्याेंकि वर्ष 1954 में एम-पी-शर्मा वाद में 8 सदस्यीय खंडपीठ तथा 1962 में खड़क सिंह वाद में छह सदस्यीय पीठ ने निजता के अधिकार को मूल अधिकार नहीं माना था। इसके पश्चात पांच सदस्यीय खंडपीठ ने तुरंत ही इस मामला को नौ सदस्यीय संविधान पीठ को भेज दिया और 19 जुलाई, 2017 से इस विषय पर सुनवाई फिर से आरंभ हुयी और 2 अगस्त को खत्म हुयी। दोनों पक्षों की ओर से दलीलें दी गईं।
वहीं याचिकाकर्त्ताओं की ओर से दलील दी गई कि संविधान का सर्वाधिक महत्वपूर्ण मूल अधिकार ‘स्वतंत्रता का अधिकार’ (राइट टू लिबर्टी) का अविभाज्य व अंतर्भूत हिस्सा है। उनके मुताबिक राइट टू लिबर्टी, जिसमें निजता का अधिकार भी शामिल है, पूर्व मौजूद प्राकृतिक अधिकार है जिसे राज्य द्वारा उसे छीने जाने की स्थिति में संविधान ने गारंटी के रूप में स्वीकार किया।
न्यायालय का यह निर्णय कई अन्य क्षेत्रें को भी प्रभावित करेगा। मसलन_ सिविल राइट्स, समलैंगिता को आपराधिक ठहराना, अल्कोहल पर कई राज्यों में प्रतिबंध होना, गोमांस पर प्रतिबंध इत्यादि।