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विशेषज्ञ सलाह
सामान्य अध्ययन का तीसरा प्रश्न-पत्र सबसे ज्यादा चुनौतीपूर्ण और विविधता लिए हुए है। इस अध्याय में आर्थिक विकास, प्रौद्योगिकी, जैव विविधता, पर्यावरण, सुरक्षा तथा आपदा प्रबंधन जैसे शीर्षक शामिल हैं। इनमें आर्थिक विकास के अतिरिक्त लगभग सभी शीर्षक एक दूसरे से गहराई से जुड़े हुए हैं। उदाहरण के लिए नवीन प्रौद्योगिकियों के इस्तेमाल से भले ही जीवन आसान हो रहा है, आर्थिक विकास के नये मानक बन रहे हैं, किंतु इस प्रौद्योगिकी की कीमत अब मानव समाज को चुकानी पड़ रही है। पर्यावरण बनाम आर्थिक विकास के नजरिये से देखें तो लगता है कि आज पर्यावरण, पिछले कई दशकों में हुए अविवेकपूर्ण आर्थिक विकास की कीमत चुका रहा है। जलवायवीय संकट एवं आपदाएं हमेशा कोई न कोई विपत्ति सामने लाती रहती हैं। चाहे वह उत्तराखंड में भूस्खलन हो या बंगाल की खाड़ी में उठने वाला समुद्री तूफान हो या बढ़ता हुआ धरती का तापमान या फिर जैव विविधता के संकट की स्थिति_ यह सब हमारे आम जीवन से जुड़े हुए हैं।
सामान्य अध्ययन का यह तीसरा पेपर सबसे ज्यादा कठिनाई लिए हुए प्रकट होता है क्योंकि आमतौर पर इतिहास और राजव्यवस्था के विपरीत यह पेपर जीवन की वास्तविक घटनाओं के सबसे ज्यादा करीब है और इस विषय पर अध्ययन सामग्री का एक समग्र रूप से उपलब्ध न होना भी अभ्यर्थियों के समक्ष निरंतर समस्याएं पैदा करता रहता है। सबसे बड़ी बात यह है कि एक ही विषय के तार कई विषयों से जुड़े रहते हैं। उदाहरण के लिए विकास के नाम पर पर्वतीय क्षेत्रें में नई-नई तकनीकों को अपनाकर कई मानदंड गढ़े गए, जिससे पर्यावरण और जैव विविधता का नुकसान तो हुआ ही, कई आपदाएं भी सामने आईं और इन आपदाओं से सुरक्षा का एक नया संकट हमारे सामने खड़ा हो गया।
संघ लोक सेवा आयोग की परीक्षा में जो प्रश्न पूछे जा रहे हैं, उनमें यह निर्धारण करना बहुत मुश्किल हो रहा है कि प्रश्न किस अध्याय से संबंधित हैं, एक ही प्रश्न का जुड़ाव प्रौद्योगिकी, आर्थिक विकास, पर्यावरणीय सुरक्षा और आपदा प्रबंधन से जुड़ा रहता है, ऐसे में उत्तर को लिखना बहुत मुश्किल हो जाता है। फिर भी कुछ वर्षों से संघ लोक सेवा आयोग द्वारा जिस प्रकार के प्रश्न पूछे जा रहे हैं उस आधार पर इस विषय से जुड़े हुए विभिन्न अध्यायों को पहचाना जा सकता है। इस पेपर की सबसे बड़ी विशेषता यह है कि जिन परिस्थितियों से भारत प्रभावित होता है अथवा हो रहा है, सामान्यतः वही विषय प्रश्न बनकर अभ्यर्थियों के सामने आ जाते हैं और अभ्यर्थी से उम्मीद की जाती है कि वह अपने व्यावहारिक और मौलिक ज्ञान का उपयोग करते हुए तथा निश्चित शब्द सीमा का पालन करते हुए उत्तर लिखे। अभ्यर्थियों के बीच सबसे बड़ा संकट यही है कि वे इतिहास और संविधान के अनुच्छेद के दायरे से अपने आप को कैसे निकालें और देश जिन परिस्थितियों का सामना कर रहा है उसको कैसे देखें, सोचें, समझें और अपने उत्तर में लिखें।
इसी परिपेक्ष में सामान्य अध्ययन के इस तीसरे भाग को सरलीकृत करके फ्रलो-चार्ट के माध्यम से समझाने का प्रयास किया गया है। इसके साथ-साथ इस विषय से कैसे प्रश्न बन सकते हैं और किस प्रकार के प्रश्न अभी बन रहे हैं उनको भी टेबल के माध्यम से समझाया गया है।
पाठ्यक्रम | बनने वाले प्रश्न |
विज्ञान व प्रौद्योगिकी विकास, अनुप्रयोग तथा उपलब्धियां |
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दैनिक जीवन व राष्ट्रीय सुरक्षा में प्रौद्योगिकी की भूमिका |
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जैव प्रौद्योगिकी |
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सूचना प्रौद्योगिकी |
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बौद्धिक संपदा अधिकार व डिजिटल मुद्दे |
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कम्प्यूटर व इलेक्ट्रॉनिक्स |
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नवीनतम प्रौद्योगिकी उनके अनुप्रयोग व उभरती स्थिति व चुनौतियां |
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पर्यावरण सुरक्षा व पारिस्थितिक तंत्र |
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वैश्विक तापन/जलवायु परिवर्तन |
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ऊर्जा |
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सुरक्षा व आपदा प्रबंधन |
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उपर्युक्त फ्लो-चार्ट और टेबल के माध्यम से सामान्य अध्ययन के तीसरे पेपर से बनने वाले अधिकांश प्रश्नों को समझा जा सकता है। एक परीक्षार्थी इन विषयों की आम समझ रखे, जैसी परिस्थितियों का सामना भारत कर रहा है, उन्हें देखे, समझे और एक प्रशासनिक अधिकारी के तौर पर आवश्यक सुझाव दे, इसी की अपेक्षा संघ लोक सेवा आयोग द्वारा अपनी परीक्षा में की जाती है। इसमें किताबी ज्ञान की महत्ता बहुत कम होती है। सबसे बड़ी बात यह है कि इसमें टू द पॉइंट मैटर का मिलना बहुत मुश्किल होता है। इस सन्दर्भ में सिविल सर्विसेज क्रॉनिकल विगत दो दशकों से निरंतर अपनी गुणवत्ता को बनाए हुए परीक्षा में शामिल होने वाले अभ्यर्थियों को एकदम अपडेट मैटर उपलब्ध कराने के अपने अभियान में लगी हुई है।
उत्तर लेखन शैली से जुड़ी समस्याएं सामान्य अध्ययन के एक विषय सामाजिक-आर्थिक विकास से संबंधित अध्यायों में भी व्यापक रूप से प्रकट होती हैं। सामान्य अध्ययन से जुड़े इस विषय को पहले भारतीय अर्थव्यवस्था शीर्षक से पढ़ा जाता था। प्रतियोगी परीक्षाओं की तैयारी में लगे संस्थानों, मार्गदर्शकों द्वारा लम्बे समय तक यही धारणा बनाई गई कि बस अर्थव्यवस्था में सामाजिक पक्ष जुड़ गया है। इस विषय पर सबसे बड़ी समस्या मानक पुस्तकों का उपलब्ध न हो पाना है। विश्वविद्यालयी पाठड्ढक्रम के आधार पर लिखी गई अर्थव्यवस्था की परंपरागत पुस्तकें बदले हुए पाठड्ढक्रम के हिसाब से काफी पुरानी हो चुकी हैं। कुछ पुस्तकें वही दो दशक पुराने वाले सिलेबस लिए हुए अभी तक छात्रें के बीच अपनी मौजूदगी बनाए हुए है। ज्यादातर पुस्तकें वही मांग-आपूर्ति, बैंक दर वाले पुराने पैटर्न को अपनाते हुए अनेक तथ्यों को समाहित करते हुए छात्रें को रटन्त विद्या मार्ग पर चलाती रही हैं, जबकि संघ लोक सेवा आयोग का पाठड्ढक्रम एक अभ्यर्थी से देश के सामाजिक-आर्थिक पक्षों की सामान्य समझ के आकलन क्षमता की अपेक्षा करता है।
नये प्रश्न पूछने की बढ़ती प्रवृत्ति से जुड़ी समस्याएं?
सामान्य अध्ययन से जुड़े इस विषय की पहली समस्या नये प्रकार के बनने वाले प्रश्नों की है जिनका उत्तर परंपरागत विश्वविद्यालय स्तर पर संचालित अर्थव्यवस्या की पुस्तकों में दूर-दूर तक नहीं मिलता। आज पूछे जाने वाले प्रश्नों का संबंध सीधे-सीधे देश की सामाजिक-आर्थिक नीतियों से जुड़ा होता है। कुछ प्रश्न तो इतने सम-सामयिक व व्यावहारिक स्तर के होते हैं कि उनको जानना, समझना तथा राजनैतिक समझ वाले पूर्वाग्रह को त्यागते हुए उनको उत्तर में बेहद संतुलित तरीके से लिखना बेहद चुनौतीपूर्ण व कठिन कार्य है।
कुछ सम-सामयिक मुद्दों के माध्यम से इस विषय के बदले हुए पैटर्न को समझा जा सकता है। कृषि क्षेत्र में बने तीन नए कानून, इनका वर्तमान तक जारी विरोध, न्यूनतम समर्थन मूल्य का योगदान, देश की भंडारण नीति, एफ- सी- आई-, नेफेड की विवादित कार्यप्रणाली, अनुबंध व डिजिटल कृषि, निजी क्षेत्र का कृषि गतिविधियों में प्रवेश, कृषि वित्त, लोन माफी व जर्जर भारतीय बैंक, कृषकों की आत्महत्याएं, अन्नदाताओं के नाम पर जारी राजनीति आदि मुद्दों से मौजूदा भारत की आर्थिक नीति प्रभावित हो रही है।
कृषि क्षेत्र से जुड़े ये तमाम मुद्दे अपने अन्दर इतने अंतर्विरोध, विशेषताएं, आशंकाएं लिए हुए हैं कि इन मुद्दों के आधार पर एक समझ बनाकर परीक्षा उत्तीर्ण करना काफी चुनौतीपूर्ण कार्य है।
ठीक यही स्थिति गरीबी-बेरोजगारी, उद्योग, वित्त जैसे पुराने परंपरागत विषयों को लेकर उत्पन्न हो रही है। परीक्षा प्रणाली वर्तमान दौर की नीतियों से जुड़े मुद्दों पर प्रश्न पूछ रही है। वहीं पुस्तकें प्रछन्न बेरोजगारी की विशेषताएं व मिश्रित अर्थव्यवस्था के गुण बताकर नये अभ्यर्थियों को अभी भी दशकों पुराने पैटर्न पर चला रही हैं।
वास्तविकता तो यह है कि वर्तमान में संचालित सभी नीतियों का निष्पक्ष, संतुलित ज्ञान रखते हुए सामान्य अध्ययन के इस विषय (सामाजिक-आर्थिक विकास) से जुड़े प्रश्नों का शब्द सीमा के अंतर्गत उत्तर लिखना तभी संभव है जब एक अभ्यर्थी नियमित रूप से विभिन्न नीतियों पर अपनी समझ को शब्द सीमा के दायरे में बांधने की पूर्ण कोशिश करते हुए निरंतर उत्तर लेखन का अभ्यास करे।
एप्रोच को बदलें
सामाजिक-आर्थिक विकास से जुड़े विषय के सन्दर्भ में पहली आवश्यकता तो यह है कि अभ्यर्थी इसका अध्ययन केवल अर्थव्यवस्था के भाग के रूप में न करें, बल्कि देश की सामाजिक-आर्थिक नीति के रूप में इसका अध्ययन करें। इस चार्ट को देखें_ इसमें परंपरागत प्रश्नों के स्थान पर किस प्रकार नये प्रश्न बन सकते हैं, इसे समझाने की कोशिश की गई है-
पाठयक्रम | परंपरागत प्रश्न | परिवर्तित पाठड्ढक्रम पर बनते नये प्रश्न |
भारतीय अर्थव्यवस्था | परिचय, प्रकृति, विशेषता, स्थिति, समस्याएं व चुनौतियां | अर्थव्यवस्था के सामाजिक-आर्थिक पक्ष व वर्तमान परिदृश्य |
मानव विकास | सिर्फ सैद्धांतिक जानकारी | मानव विकास की अवधारणा, उपागम, सरकार की नीतियां तथा वैश्विक व भारतीय रिपोर्ट |
सतत-विकास | सिर्फ सैद्धांतिक जानकारी | सतत-विकास लक्ष्य, भारत की नीतियाँ, निष्पादन व सूचकांक |
समावेशी विकास | सिर्फ सैद्धांतिक व सामान्य जानकारी | नीति, पहल, आवश्यकता, वर्तमान रणनीति, निष्पादन, चुनौती, समाधान |
गरीबी व बेरोजगारी | परिभाषा, प्रकार, मापन, कारण, दूर करने के प्रयास | सामाजिक-आर्थिक पक्ष_ जनसंख्या वृद्धि व गरीबी_ बहु-आयामी गरीबी सूचकांक वैश्वीकरण की नीतियां व गरीबी-बेरोजगारी_ कोविड-19 का प्रभाव |
कृषि | विशेषता, योगदान, पंचवर्षीय योजनाएं, विकास हेतु पहल | नये कृषि कानून व भारतीय कृषि की समस्याएं_ डैच् का प्रभाव, भण्डारण, बाजारीकरण व नए कृषि कानून, जलवायु परिवर्तन का प्रभाव_ कृषकों की दोगुनी आय हेतु उठाये गए कदमों की समीक्षा |
उद्योग क्षेत्र | समग्र नीतियों की चर्चा | लघु उद्योग की महत्ता, स्थिति, चुनौती व सरकारी प्रयास_ स्टार्ट-अप/ स्टैंड-अप व अन्य विकासात्मक योजनाओं का निष्पादन |
मुद्रा व बैंकिंग | मुद्रा जगत की अवधारणा, RBI की सरंचना व कार्य पद्धति | RBI की नीतियों का मूल्यांकन_ वित्तीय समावेशन_ देश के विकास में वित्तीय नीतियां कैसे लागू हो रही हैं, प्रभाव, परिणाम, समस्याएं व सुझाव |
कुपोषण व भुखमरी | अवधारणा / सामान्य परिचय | कुपोषण-प्रकार, मापन, प्रभाव, रिपोर्ट, दूर करने की नीति, सुझाव_ खाद्य सुरक्षा- आवश्यकता, नीतियां, वर्तमान परिदृश्य, समस्याएं, नई पहल, सुझाव |
स्वास्थ्य | (पाठड्ढक्रम का भाग नहीं) | स्वास्थ्य - प्रणाली, स्थिति, मुद्दे, चुनौतियां, सरकार की नीति, राज्यों की स्थिति, सुझाव |
ग्रामीण विकास | (पाठड्ढक्रम में कृषि, गरीबी अध्याय से जुड़ा महज एक अध्याय) | ग्रामीण विकास- अवधारणा, महत्त्व, विकास नीति, दृष्टिकोण, सरकारी प्रयास, उत्पन्न प्रभाव, समस्याएं व सुझाव |
सामाजिक सुरक्षा | (पाठड्ढक्रम का हिस्सा नहीं) | सामाजिक सुरक्षा- अवधारणा, आवश्यकता, उद्देश्य, सुरक्षा की आवश्यकता क्यों, सम्बंधित प्रावधान, समितियां, रिपोर्ट, मूल्यांकन, सुझाव |
असुरक्षित वर्ग | (पाठड्ढक्रम का हिस्सा नहीं) | असुरक्षित वर्ग- परिचय, वर्गीकरण, महिलाएं, बच्चे, वृद्ध, दिव्यांग, अल्पसंख्यक, पिछड़े तथा जातिगत रूप से पिछड़े वर्गों के कल्याणार्थ नीतियां |
इस छोटी सारणी में विषय से जुड़े तमाम प्रसंगों को समेटने का प्रयास किया गया है। ये सभी मुद्दे प्रारम्भिक परीक्षा, मुख्य परीक्षा तथा निबंध के अतिरिक्त इंटरव्यू में भी पूछे जा सकते हैं।
भविष्य की राह
नये-पुराने अभ्यर्थियों के लिए यह आवश्यक है कि वह अर्थशास्त्र के जटिल सिद्धांतों के मकड़जाल से निकलकर देश के विकास हेतु आवश्यक सामाजिक-आर्थिक नीतियों को समझे। सिविल सर्विसेस क्रॉनिकल जैसी पत्रिकाएं पिछले दो दशक से इसी दायित्व को पूर्ण कर रही हैं।
नये अभ्यर्थी के साथ पुराने परीक्षार्थी भी इनका नियमित अध्ययन कर परीक्षा के मानकों को पूर्ण कर सकते हैं।
उत्तर लेखन शैली में प्रकट होने वाली समस्याएं सामान्य अध्ययन के एक विषय संविधान व राजव्यवस्था से जुड़े अध्याय से भी व्यापक पैमाने पर प्रकट होती हैं। सामान्य अध्ययन से संबंधित विषयों में संविधान व राजव्यवस्था सबसे रोचक, व्यावहारिक के साथ मौलिक ज्ञान और समझ का आकलन करने वाला विषय है। मुख्य परीक्षा के साथ-साथ निबंध लेखन व साक्षात्कार में भी इसकी व्यावहारिक समझ एक निर्णायक भूमिका निभाती है। एक सामान्य विद्यार्थी के व्यावहारिक व प्रशासनिक समझ का पूर्णतया आकलन यह विषय आसानी से कर लेता है। देश के राजनैतिक-प्रशासनिक संरचनाओं से जुड़ा यह विषय विगत दो दशकों से सिविल सेवा मुख्य परीक्षा का सबसे दिलचस्प व विस्तृत आयामों को अपने अंदर समेटने वाला प्रसंग बना हुआ है। हमेशा नए-नए प्रश्नों के बनने व उनके परीक्षा में पूछे जाने की संभावना बनी रहती है।
प्रश्न बनते कैसे हैं?
संविधान व राजव्यवस्था से जुड़े विषय से परीक्षा में पूछे जाने वाले प्रश्नों के संदर्भ में पहली समस्या निरंतर बनने वाले नए प्रश्नों को लेकर होती है। जो अभ्यर्थी नियमित समाचार-पत्र, पत्रिकाओं का अध्ययन करते हैं उन्हें तो प्रश्नों की प्रकृति समझ में आती है, किन्तु नए अभ्यर्थी अपने पुस्तकीय ज्ञान को देश की व्यावहारिक परिस्थितियों से तुलना कर एक सहज, सरल और प्रशासनिक दृष्टिकोण अपने अंदर बनाने और उसी अनुरूप उत्तर लिखने की शैली को विकसित करने में असफल हो जाते हैं।
वास्तव में संविधान व राजव्यवस्था से जुड़े मुद्दों को समझने के लिए देश की व्यावहारिक राजनैतिक-प्रशासनिक परिस्थितियों की वास्तविकता व उलझनों को समझना आवश्यक है। बिना इसे जाने, न प्रश्न के उत्तर को लिखा जा सकता है न निबंध या साक्षात्कार में विवादित प्रश्नों का व्यावहारिक उत्तर दिया जा सकता है।
इस तथ्य को विस्तार से समझने के लिए दो विशेष मुद्दों से जुड़े विशेष पहलुओं को परीक्षा प्रणाली के पैटर्न से जोड़कर देखने में वैचारिक स्पष्टता सामने आएगी। उदाहरण के लिए संविधान के अंतर्गत एक विषय, केन्द्र-राज्य संबंध है। संविधान में इनका स्पष्ट विभाजन श्रेणीकरण, शक्तियां सब कुछ परिभाषित है। किन्तु यह भी सच है कि केन्द्र व राज्य समय-समय पर इनकी सीमाओं का अतिक्रमण करते रहे हैं। पूर्व में राजमन्नार समिति (1969), सरकारिया आयोग (1983), पुंछी आयोग (2007) की रिपोर्ट में केन्द्र-राज्य संबंधों को सुधारने की पहल की गई।
अस्सी के दशक में जिस प्रकार प्रबल केन्द्रीकरण जैसी समस्या पनपी वैसी परिस्थितियों की आशंका आज फिर इस समय भी व्यक्त की जा रही है। केन्द्र द्वारा जीएसटी को लागू करना, राज्यों की आपत्ति, वित्त आयोग की सिफारिशों पर राज्यों द्वारा विरोध करना, केन्द्रीय जांच ब्यूरो (सीबीआई) के क्रियाकलापों को राज्य विशेष द्वारा न पालन करना, नए कृषि कानून के कुछ प्रावधानों को राज्यों से पूछे या सलाह लिए बिना पूरे भारत में लागू करने की कोशिशें, केन्द्र-राज्य के अच्छे संबंधों का प्रतीक सहकारी संघवाद की अवधारणा का कमजोर पड़ना जैसी कई नई प्रवृत्तियां सामने आ रही हैं। भारत के दो राज्यों ने तो संविधान के प्रावधानों का हवाला देते हुए उच्चतम न्यायालय में अपील भी कर दी कि केन्द्र अपनी संवैधानिक सीमा का अतिक्रमण कर रहा है।
इन परिस्थितियों में सिविल सेवा की तैयारी में लगे परीक्षार्थी से उम्मीद की जाती है कि सर्वप्रथम वे केन्द्र-राज्य संबंधों के संवैधानिक प्रावधानों को जानें, इसके साथ वह उसके व्यावहारिक पहलुओं को देखें, समझें, उनका विश्लेषण करें कि यह उचित है या अनुचित। संविधान द्वारा निर्मित प्रावधान या दायरे में ये सभी केन्द्र व राज्य के आपसी संबंध सही तरीके से गतिमान हो रहे हैं अथवा नहीं, इसकी भी वास्तविक समझ एक परीक्षार्थी में है या नहीं, इसकी मांग संघ लोक सेवा आयोग अपनी परीक्षा में कर रहा है।
इसी तरह असम में लागू एन-आर-सी- से उत्पन्न जो भी परिस्थितियां पनपीं उससे अन्य राज्यों की राजनीति, प्रशासन और विचारधारा प्रभावित हो रही है। केन्द्र के इस प्रयास का विरोध राज्यों के द्वारा किया जा रहा है। देश के एक अल्पसंख्यक समुदाय का असहज होना, नागरिकता कानून का विरोध व इसके औचित्य, पश्चिम एशियाई देशों से प्रभावित होते रिश्तें जैसे विविध पहलुओं पर पिछले वर्षों में कई प्रश्न पूछे जा चुके हैं। यद्यपि बेहद विवादास्पद माने गए विषयों पर प्रश्न पूछने की परंपरा कम ही रही है।
किन्तु साक्षात्कार के स्तर पर प्रश्न पूछने की न कोई सीमा होती है न कोई विशेष दायरा। इस परिवेश में एक नए या पुराने परीक्षार्थी से उम्मीद यही रखी जाती है कि वह संविधान व राजव्यवस्था से जुड़े सभी तथ्यात्मक पुस्तकीय ज्ञान की जानकारी तो रखे ही, इसके अतिरिक्त देश जिन परिस्थितियों का सामना कर रहा है संविधान की दृष्टि से वह उचित है अथवा नहीं, इस विषय का भी एक संतुलित व सारगर्भित एप्रोच बनाए। इस विशेष मौलिक समझ की मांग आज यह परीक्षा प्रणाली कर रही है।
वर्तमान की केन्द्र सरकार की विचारधारा (राष्ट्रवाद) के कई आयाम हैं, इसकी परिभाषा-व्याख्या व व्यावहारिकता को सरलीकृत करने में भी कई समस्याएं हैं। विपक्ष की राजनीति का मिटता स्तर राजनैतिक दलों की गुटबंदी, देश के वास्तविक मुद्दों को उलझाना, गुमराह करने आदि के दृश्य संसद के अंदर और बाहर सत्ता पक्ष व विपक्ष दोनों स्तरों पर प्रकट हो रहे हैं।
विचारधारा के स्तर पर अब तक प्रचलित संविधान में शामिल कई प्रावधानों में पंथनिरपेक्षता, समाजवादी मॉडल, सामाजिक न्याय, मिली-जुली संस्कृति, भाईचारा, सांप्रदायिक सद्भाव, सामाजिक सहिष्णुता-असिहष्णुता, पंचशील, गुटनिरपेक्षता, आइडिया ऑफ न्यू इंडिया, राष्ट्र के नागरिकों का मौलिक कर्त्तव्य, राज्य का कल्याणकारी स्वरूप जैसी कई राजनैतिक शब्दावलियों के अर्थ बदलते जा रहे हैं। पहले पाठ्यपुस्तकों में प्रचलित जानी-समझी गई अवधारणाएं कई रूपों में प्रकट होती जा रही है। ऐसे कई प्रसंग हैं जो देश की राजनीति में गतिमान हैं और इनका संबंध संविधान व राजव्यवस्था से प्रत्यक्षतः जुड़ा है।
उत्तर लिखने की समस्या
इन सभी परिस्थितियों का जानना, समझना, व्यावहारिक-वास्तविक परिस्थितियों का आकलन कर एक प्रशासनिक उत्तर लिखना सबसे बड़ी चुनौती अभ्यर्थियों के सामने आती जा रही है। विगत कुछ वर्षों के प्रश्न पत्र को उठाकर देखे तो एक सामान्य विद्यार्थी प्रश्नों को पढ़कर बुरी तरह दिग-भ्रमित और मानसिक उलझन में उलझ कर रह जा रहा है।
नागरिकता कानून के विरोध का औचित्य, रोहिंग्या समस्या, जम्मू-कश्मीर की उलझती राजनीति, मीडिया का पूर्वाग्रहपूर्ण स्वरूप से ऐसे-ऐसे प्रश्न पूछे जा रहे हैं जिनको समझना-समझाना, उत्तर लिखना, शब्द सीमा का पालन करना सबसे बड़ी चुनौती है। सामान्य अध्ययन में परीक्षार्थियों का प्राप्तांक इसका जीवंत उदाहरण है।
एप्रोच को बदलें
संविधान व राजव्यवस्था के अध्याय में अभ्यर्थियों को अध्ययन एप्रोच बदलने की आवश्यकता है। एनसीईआरटी और एम- लक्ष्मीकांत जैसी परंपरागत अध्ययन सामग्री के अतिरिक्त देश में गतिमान राजनैतिक-संवैधानिक संस्थाओं के क्रियाकलाप पर एक प्रशासनिक समझ बनाना और उन्हें उत्तर लिखने में प्रयोग करने की शैली विकसित करनी होगी। इस चार्ट को देखें, इसमें परंपरागत प्रश्नों के अतिरिक्त, बदलती परिस्थितियों पर किस तरह एक सामान्य अभ्यर्थी को अपना अध्ययन-लेखन विकसित करना है यह समझाने की कोशिश की गई है-
पाठ्यक्रम | परंपरागत प्रश्न | परिवर्तित पाठ्यक्रम पर बनते प्रश्न |
उद्देशिका | उद्देशिका का महत्व | शामिल नए शब्दों की व्याख्या, उद्देश्य, औचित्य (120 शब्द) |
संघ व राज्य क्षेत्र | राज्य निर्माण प्रक्रिया | केंद्र शासित प्रदेशों की आवश्यकता, वर्तमान नीति में परिवर्तन (120 शब्द) |
राज्य निर्माण | राज्य निर्माण प्रक्रिया | विशेष राज्यों के प्रावधान का औचित्य (120 शब्द) पूर्वोत्तर राज्यों में इनर लाइन परमिट की आवश्यकता व अपरिहार्यता (120 शब्द) जम्मू-कश्मीर की वर्तमान स्थिति (120 शब्द) |
नागरिकता | नागरिकता के संवैधानिक प्रावधान |
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प्रकारमहत्व |
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राज्य के नीति निदेशक तत्व |
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केंद्र-राज्य संबंध |
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राज्य विधान मंडल |
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राज्यपालों की सक्रियता के वर्तमान उदाहरण, रिपोर्ट, पूर्व की समितियों की रिपोर्ट व इनके अपेक्षित प्रभाव (120/250 शब्द) |
निर्वाचन व मताधिकार (निर्वाचन आयोग) |
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न्यायपालिका |
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लोकतंत्र व मीडिया |
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विचारधारा व राजनीति |
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संसद |
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ऐसे दर्जनों प्रसंग हैं, जो देश की वर्तमान व्यवस्था को प्रभावित कर रहे हैं और इनके सिविल सेवा के मुख्य परीक्षा समेत साक्षात्कार में हर परीक्षार्थी से पूछे जाने की संभावना सदैव बनी रहती है।
भविष्य की राह
नए व पुराने अभ्यार्थियों के लिए यह आवश्यक है कि इन सभी मुद्दों को जानें, समझें, समाचार-पत्रें के स्तंभों का सावधानी से अध्ययन करें, अपने विशेष राजनैतिक-सामाजिक रुझानों-पूर्वाग्रहों से निकलें, सच्चाई व वास्तविकता से ज्यादा प्रशासनिक उत्तर में लिखे जाने वाले संतुलित उत्तर की महत्ता को समझें। इसके साथ-साथ सिविल सर्विसेज क्रॉनिकल के स्तंभ जो इस परिवर्तन को विगत कई वर्षों से प्रस्तुत करते जा रहे हैं। अपने अध्ययन व लेखन में प्रयोग करें। (क्रमशः)
संघ लोक सेवा आयोग की सिविल सेवा मुख्य परीक्षा में सबसे बड़ी समस्या उत्तर लेखन शैली को लेकर प्रकट होती है। पहले के कुछ दशकों में गुणवत्तापूर्ण सामग्री न मिलने की समस्या थी, किन्तु इंटरनेट क्रांति के पश्चात अब समस्या अध्ययन सामग्री की नहीं, बल्कि पूछे जाने वाले प्रश्नों के प्रारूप व दिन प्रतिदिन बदलते उनके पैटर्न को लेकर प्रकट हो रही है। यह बदलाव प्री और मेन्स दोनों स्तरों पर देखा जा रहा है। पहले के प्रश्न सामान्य अध्ययन के किसी विशेष खंड से जुड़े होते थे, किन्तु अब प्रश्न को देखकर यह बताना मुश्किल है कि इसका संबंध सामान्य अध्ययन के किस विषय से है। कभी-कभी एक ही प्रश्न का संबंध अर्थव्यवस्था, पर्यावरण, सम-सामयिकी के साथ नैतिकता से भी जुड़ा होता है। इसके साथ ही प्रश्न के उत्तर की शब्द सीमा के निर्देशों का पालन करने में परीक्षार्थियों के बीच सबसे ज्यादा कठिनाई देखी जा रही है। प्रश्न का प्रारूप ऐसा होता है कि उसके विभिन्न आयामों को लिखने में 1200 शब्द भी कम पड़ जाएं, जबकि उसे 200 शब्दों में लिखने का निर्देश दिया जाता है। ऐसे में यह जरूरी हो जाता है कि कम से कम शब्दों में प्रश्नों के अनुरूप सारगर्भित उत्तर लिखा जाए। बदलते पैटर्न को देखकर यह कहा जा सकता है कि अब किताबी ज्ञान के दिन पूरे हो चुके हैं। इसलिए परीक्षार्थियों को मौलिक ज्ञान खोजने की संघ लोक सेवा आयोग की मुहिम के अनुरूप उत्तर लिखने के दृष्टिकोण में बदलाव करना होगा।
बदलता एप्रोच
जब से परीक्षा प्रणाली में बदलाव हुआ है तथा मुख्य परीक्षा का सिलेबस बदला है, तब से ही सामान्य अध्ययन का पेपर दिन-प्रतिदिन व्यावहारिक होता जा रहा है। प्रतिदिन की होने वाली राजनैतिक, सामाजिक, आर्थिक व सांस्कृतिक घटनाओं का असर पूछे गए प्रश्नों पर स्पष्टतः देखा जा सकता है। विगत कुछ वर्षों के प्रश्न-पत्रों को देखें तो यह बदलाव पूछे गए प्रश्नों में झलकता है। इस समस्या का सर्वाधिक असर हिन्दी भाषी राज्यों के विद्यार्थियों पर पड़ रहा है। हिन्दी भाषी छात्रों में राज्यों की पहले से ही कमजोर शिक्षा प्रणाली की कई अंतर्निहित विसंगतियां उनके साथ ही रहती है, जो अंतिम सफलता मिलने में हमेशा अवरोध खड़ी करती रहती हैं। इस बदलाव को समझने के लिए सामान्य अध्ययन के हर विषय के एक-एक अध्यायों पर क्रमशः चर्चा अपेक्षित है।
इतिहास व संस्कृति
इतिहास विषय का केन्द्रण मुख्य परीक्षा में ज्यादातर स्वतंत्रता संग्राम से जुड़े विविध प्रसंगों से जुड़ा है। इनमें भारत में अंग्रेजी साम्राज्य की स्थापना, उनके विविध चरण, सामाजिक-आर्थिक प्रभाव, राष्ट्रवाद, राष्ट्रवाद के विविध चरण, स्वतंत्रता प्राप्ति, देश विभाजन, देश का नवनिर्माण जैसे अध्याय शामिल हैं। पहले के प्रश्न बेहद सहज व सरल होते थे, जो मानक व स्तरीय पुस्तकों के पढ़ने के पश्चात्त लिखे जा सकते थे, किन्तु इधर के वर्षों में प्रश्नों का प्रारूप विश्लेषणात्मक के साथ तुलनात्मक स्तर का होता जा रहा है। इसके साथ-साथ नैतिकता, निर्णय लेने की क्षमता, पूर्वाग्रह जैसे विशेष गुण भी परखे जाने लगे हैं। इनके अतिरिक्त वर्तमान में उमड़ रहे राजनैतिक-सामाजिक विचारों का भी प्रभाव इतिहास जैसे परंपरागत समझे गए विषय पर पड़ रहा है और इस बदलाव को ज्यादातर परीक्षार्थी समझ नहीं पा रहे हैं।
उदाहरण के लिए सांप्रदायिकता, सांप्रदायिक राजनीति, गांधीवादी राजनीति, मुस्लिम राजनीति, पाकिस्तान की मांग, देश विभाजन के कारण, कश्मीर-हैदराबाद का अंतिम विलय, संविधान निर्माण, प्रथम प्रधानमंत्री नेहरू का योगदान, कश्मीर समस्या व नेहरू, सुभाष चंद्र बोस बनाम गांधी, सुभाष चंद्र बोस का योगदान, क्रांतिकारी आंदोलन बनाम अंहिसा, नेहरू बनाम पटेल, गांधी बनाम अम्बेडकर, राष्ट्रवाद की विचारधारा में गांधी बनाम टैगोर, सांप्रदायिकता बनाम धर्मनिरपेक्षता, सावरकर बनाम गांधी जैसे कई प्रसंग विभिन्न नए तथ्यों के साथ इधर के वर्षों में सामने आए हैं। ये सभी प्रश्न परीक्षाओं में पूछे भी जा रहे हैं। इनका उत्तर एन.सी.ई.आर.टी. की पुस्तकों के अतिरिक्त, बिपिन चंद्र की प्रसिद्ध पुस्तक स्वतंत्रता संघर्ष से लेकर विभिन्न शिक्षण संस्थाओं के नोट्स या अध्ययन सामग्री में भी पूर्ण रूप से उपलब्ध नहीं हैं। इस समस्या का पूरा असर उन परीक्षार्थियों पर पड़ता है जो न समाचार पत्र पढ़ते हैं, न उन्हें नए-नए इन बदलावों पर स्वतंत्र रूप से सोचने के लिए प्रेरित किया जाता है। परीक्षार्थियों को यह कभी नहीं बताया जाता कि देश में हो रहे बदलावों को किस दृष्टि से देखें; उनका कैसे संतुलित तरीके से अपनी परीक्षा प्रणाली के अनुरूप प्रयोग करें, कभी भी दिगभ्रमित श्रेणी के उत्तर न लिखें। ये कमी आज ज्यादातर परीक्षार्थियों में देखी जा सकती है।
प्रश्नों को समझें
इधर के वर्षों में जो प्रश्न पूछे जा रहे हैं उनमें परीक्षार्थियों के व्यक्तित्व, ज्ञान, रुझान, पूर्वाग्रह, निर्णय लेने की क्षमता का पूरा आकलन किया जाता है। इन विशेष बदलावों को कुछ विशेष प्रश्नों से समझा जा सकता हैः
- क्या आप इस तथ्य से सहमत है कि वीर सावरकर ने सांप्रदायिक राजनीति को प्रारंभ किया, वहीं गांधीवादी आंदोलन धर्म निरपेक्षता का प्रतीक था।
- दो राष्ट्रों के सिद्धान्त पर टिप्पणी कीजिए, इस संदर्भ में गांधी, जिन्ना व सावरकर की भूमिका का मूल्यांकन करें।
- भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन में महात्मा गांधी व सुभाष चंद्र बोस की विचारधारा का तुलनात्मक वर्णन व विश्लेषण करें। देश विभाजन व स्वतंत्रता प्राप्ति एक ही सिक्के के दो पहलू हैं, क्या आप इससे सहमत हैं, टिप्पणी करें।
- स्वतंत्रता पश्चात नेहरू की नीतियों का मूल्यांकन करें, इनके प्रभावों की समीक्षा करें।
- 1920 के दशक से राष्ट्रीय आंदोलन ने कई वैचारिक धाराओं को ग्रहण किया और अपना सामाजिक आधार बढ़ाया, विवेचना कीजिए।
- धर्मनिरपेक्षता के नाम पर हमारी सांस्कृतिक प्रथाओं के सामने क्या-क्या चुनौतियां हैं?
इन विशेष चुनिंदा प्रश्नों में अंतिम दो प्रश्न 2020 व 2019 की मुख्य परीक्षा में पूछे गए हैं तो इनके अतिरिक्त सभी प्रश्न किसी न किसी रूप में राज्य लोक सेवा आयोगों की परीक्षाओं में पूछे जा रहे हैं। इन प्रश्नों को समझना, उनकों स्टेप बाई स्टेप सहज, सरल व संतुलित तरीके से लिखना एक सामान्य परीक्षार्थी के लिए सबसे बड़ी चुनौती होती है। जिसे प्रत्यक्षतः देखा जा रहा है।
उत्तर को लिखना
इन प्रश्नों को लिखते समय परीक्षार्थियों से उम्मीद रखी जाती है कि वह विविध आयामों को अपने उत्तर में लिखें, वह भी शब्द सीमा (250/125 शब्द) के अंदर। उदाहरण के लिए एक प्रश्न को समझते हैं। 2020 के एक प्रश्न (1920 के दशक का राष्ट्रीय आंदोलन+कई वैचारिक धाराओं का ग्रहण+सामाजिक दायरे का विस्तार) को 250 शब्दों में 4 विभिन्न आयामों में लिखने के लिए कुछ विशेष बिन्दुओं पर ध्यान दिया जाना चाहिएः
- राष्ट्रीय आंदोलन में विविध विचारधाराएं।
- मध्यम वर्गीय कांग्रेसी आंदोलन।
- उदारवादी/उग्रवादी/कांग्रेसी/जातिवादी/संप्रदायवादी आंदोलन।
- गांधीवादी विचारधारा।
- धार्मिक मजहबी (हिंदू महासभा/मुस्लिम लीग) विचारधारा।
- साम्यवादी, समाजवादी, श्रमिक संघ, औद्यौगिक संगठन, देशी रियासतें, कृषक, दलित, महिला व क्षेत्रीय जातिगत आंदोलन।
- इन सभी आंदोलनों का प्रभाव व दायरा और जुड़े लोगों की स्थिति।
ये 7 विविध प्रकार के पहलू हैं िजन्हें 250 शब्दों मे लिखे जाने की उम्मीद एक परीक्षार्थी से की जाती है। ठीक इसी तरह एक दूसरे वर्ष 2019 के प्रश्न में (धर्मनिरपेक्षता+भारतीय सांस्कृतिक प्रथाएं+चुनौतियां) इतिहास व संस्कृति, सामाजिक मुद्दे, सामाजिक न्याय, ‘एथिक्स, इन्टीग्रिटी व एप्टीटड्ढूड’जैसे सभी पक्ष एक दूसरे से जुड़े हुए हैं और इसे 150 शब्दों में लिखना है। इस प्रश्न को लिखते- समय यह उम्मीद की जाती है कि एक परीक्षार्थी निम्नलििखत विविध पहलुओं को ध्यान में रखे:
- धर्मनिरपेक्षता की परिभाषा व स्थिति।
- धर्मनिरपेक्षता का व्यावहारिक प्रदर्शन।
- भारतीय सांस्कृतिक प्रथाएं।
- वर्तमान धर्मनिरपेक्ष राजनीति कैसे चुनौती दे रही है।
- चुनौती देने वाली घटनाएं-क्रियाकलाप।
- क्या यह सही है अथवा गलत।
- क्या धर्मनिरपेक्षता महज तुष्टिकरण है।
ये 8 विविध पहलू इस प्रश्न के उत्तर में अपेक्षित हैं। जिनकी मांग यह प्रश्न कर रहा है और इन्हें 150 शब्दों में लिखना है।
हिन्दी राज्यों की व्यथा
परिवर्तित पाठ्यक्रम का सर्वाधिक नकारात्मक परिणाम हिन्दी बेल्ट पर पड़ा है। पूरे भारत में, तीन दशक से मशहूर एक प्रसिद्ध विशेषज्ञ एवं मार्गदर्शन देने वाली संस्था के प्रमुख ने हिन्दी बेल्ट के निराशाजनक परिणाम पर टिप्पणी करते हुए कहा है कि समस्या परीक्षार्थियों में नहीं, बल्कि समस्या हिन्दी भाषी राज्यों की परंपरागत शिक्षा प्रणाली में है। जो हर विषय को रटते है, प्रश्नों को समझने की अपेक्षा पेज भर कर नंबर पाने की उम्मीद रखते हैं। ये वो तरीका है जो हाईस्कूल से ग्रेजुएशन तक विद्यार्थी अपनाते रहे हैं। क्वेश्चन को गेस करने और लिखने का परंपरागत तरीका सिविल सर्विसेज परीक्षाओं में आज भी उसी तरह आजमाया जा रहा है। देश व समाज की बदलती परिस्थितियों का आकलन कर उनको अपने उत्तर में कैसे समेटें, इसका न अभ्यास होता है न उत्तर लिखकर अपना आकलन करने की प्रवृत्ति। परीक्षार्थियों को मार्गदर्शन देने के नाम पर शिक्षण संस्थाएं भी अपने दायित्व को पूर्ण नहीं करतीं और न ही बदलते मानक व पाठ्यक्रम की तरफ नए परीक्षार्थियों को मोड़ने की कोशिश करती हैं। अनेक संस्थाओं के द्वारा तो सिर्फ अपने नोट्स रटने को प्रेरित कर यह दावा किया जाता है कि सब कुछ इसमें से ही फंसेगा। यही विश्वास परीक्षार्थियों के लिए ज्यादातर आत्मघाती होता है। देखा जाए तो यह वक्तव्य रटन्ट, घोटन्त, लिखन्त वाली विचारधारा पर ही की गई टिप्पणी है जो दशकों बाद आज भी हिन्दी बेल्ट पर शत प्रतिशत सही व सटीक बैठती है।
भविष्य की राह
इन विकट परिस्थितियों से बचने या निकलने के लिए परीक्षार्थियों को कुछ विशेष मुद्दों पर ध्यान देते हुए कुछ शैक्षणिक संस्कारों को अपने अंदर विकसित कर उनको अपनाना चाहिए:
- पुस्तक अवश्य पढ़ें।
- पूर्व के पूछे गए प्रश्नों का अवलोकन करते रहें।
- प्रश्नों का फॉर्मेट (Answer Format) बनाने की कोशिश करें।
- “क्या-कितना-कैसे-किस तरह”उत्तर लिखना है, इसका निर्धारण करें।
- उत्तर को हमेशा ‘टू द प्वॉइन्ट’लिखने की कोशिश करें।
- प्रतिदिन 2-3 प्रश्नों को लिखने की अवश्य प्रैक्टिस करें।
- लिखे गए प्रश्नों का किसी प्रसिद्ध विशेषज्ञ से आकलन कराएं।
- अपनी कमियों को पहचानें, संचार क्रांति का उपयोग करें।
- देश की बदलती विचारधारा को समझें।
- बदलती विचारधारा को कैसे संतुलित तरीके से समझें, लिखें व बोलें, यह संस्कार भी धीरे-धीरे अपने अंदर समाहित करें। किसी मुद्दे को पढ़ने से ज्यादा उसे प्रश्न-उत्तर शैली में लिखने की कोशिश करें।
ये कुछ महत्वपूर्ण प्रसंग हैं, जिन्हें परीक्षार्थियों, विशेषकर हिन्दी बेल्ट के परीक्षार्थियों द्वारा अपनाया जाना चाहिए। ये शैक्षणिक संस्कार इंग्लिश मीडियम के परीक्षार्थियों में व्यापक पैमाने पर प्रकट होते हैं। सिविल सर्विसेज क्रॉनिकल जैसी पत्रिकाएं लम्बे समय से अपनी विविध पुस्तकों, मॉक टेस्ट, प्रश्नोत्तर शैली वाले स्तंभों के माध्यम से बदलाव लाने की मुहिम में शामिल हैं। (क्रमशः)
निबंध का अर्थ
सामान्यतः निबंध की चर्चा होते ही विश्वविद्यालयों में पढ़ाए जाने वाले विषय हिन्दी साहित्य की प्रचलित अवधारणा ही सामने आने लगती है कि निबंध भावों एवं विचारों को समुचित तरीके से जोड़कर प्रस्तुत करने का एक माध्यम है, जिसमें किसी विषय पर व्यक्ति के भाव, विचार, अनुभव को प्रस्तुत किया जाता है। निबंध के संदर्भ में यह अवधारणा साहित्य के स्तर पर तो प्रचलित है किन्तु निबन्ध की इस विधा से एक प्रशासनिक अधिकारी की खोज कैसे होगी, सामान्यतः इस पर निष्पक्षता से चर्चा नहीं होती।
दरअसल निबंध एक नजरिया है, जो किसी विषय पर टीवी, समाचारपत्र, पत्र-पत्रिकाओं के माध्यम से तथा वर्तमान की प्रचलित अवधारणा के जरिये किसी भी व्यक्ति के अंदर विशेष दृष्टिकोण के तहत निर्मित होता रहता है। एक ही विषय पर कई अलग-अलग विचारधाराएं सामने आती हैं और इन सबके अलग-अलग तर्क होते हैं, प्रत्येक तर्क को प्रस्तुत करने वाला विचारक इतना तार्किक होता है कि वह अपने तर्कों से स्वयं को सही व उचित बताता है और जिससे दूसरी विचारधारा गलत या कमजोर पड़ने लगती है। इस परिस्थिति में निबंध लेखन के लिए विषय, तथ्य, विश्लेषण करने की पद्धति की आवश्यकता प्रतियोगी परीक्षाओं की तैयारी करने वाले परीक्षार्थियों के लिए हमेशा एक वैचारिक संकट जैसी पहेली बनी रहती है।
सिविल सेवा परीक्षा में निबंध के माध्यम से परीक्षार्थियों के अंदर की मौलिक समझ का आकलन किया जाता है कि वह किसी विशेष विषय पर कितना व्यावहारिक ज्ञान और समझ रखता है। विषय के सकारात्मक - नकारात्मक पहलुओं के साथ समस्या का समाधान कैसे व किस तरह हो सकता है इसी की पहचान निबंध के माध्यम से सिविल सेवा परीक्षाएं करती हैं।
निबंध के प्रकार
निबंध के कितने प्रकार होते हैं ऐसा कोई निर्देश नहीं दिया गया है किन्तु विगत कई वर्षों के पूछे गए प्रश्नों के आधार पर इनको व्याख्यायित करने का प्रयास किया जाता है। सामान्यतः दो खंडों में विभाजित कुल 8 निबंध पूछे जाते हैं जिनमें एक-एक निबंध का चुनाव कर प्रत्येक को 1200 शब्दों में लिखना होता है।
इन निबंधों में भावना प्रधान, अनुभव, वस्तुस्थिति लिए हुए विश्लेषण करने वाले निबंध वर्णनात्मक निबंध कहलाते है। इसे निबंधों में किसी भी परीक्षार्थी की भावना का आकलन होता है। वर्ष 2020 में इस शीर्षक से जुड़े चार निबन्ध पूछ लिए गए। इसमें ‘मनुष्य’ व ‘मनुष्य होने’ के बीच अर्न्तसंबंध, मानव व्यक्तित्व में विचारधारा की भूमिका, मानव समाज के अंदर की अंतर्रनिहित कमियां, सफलता ही मूलमंत्र है जैसे शीर्षक, कुछ गूढ़ शब्दों के माध्यम से पूछे गए जिनकों एक बार में पढ़ कर कोई परीक्षार्थी विचलित हो सकता है किन्तु ध्यानपूर्वक पढ़ने, चिन्तन करने, समझने के पश्चात पूछे गए शीर्षक के तहत शब्द सीमा के अंदर लेखन के नियमित अभ्यास से निबंध का उत्तर लिखा जा सकता है।
निबंध का दूसरा खंड विवरणात्मक विषय से जुड़ा रहता है जो देश व समाज की यथास्थिति से संबंधित होता है। इसमें देश पर पड़ने वाले प्रभाव-परिणाम की चर्चा कर परीक्षार्थी के सामाजिक ज्ञान का आकलन किया जाता है। सोशल मीडिया का प्रभाव, नए कृषि कानून, नई शिक्षा नीति, पक्षपात पूर्ण मीडिया जैसे वर्तमान के कई प्रचलित विवादित विषय इस श्रेणी में शामिल है। वर्ष 2020 के संघ लोक सेवा आयोग के प्रश्नों को देखें तो दूसरा खंड इस श्रेणी से जुड़ा रहा, जिसमें सभ्यता व संस्कृति, सामाजिक न्याय व आर्थिक समृद्धि, समाज का पुरुष प्रधान पितृसत्तात्मक स्वरूप, अंतरराष्ट्रीय संबंधों को प्रभावित करने में प्रौद्योगिकी जैसे शीर्षक वाले निबंध पूछे गए जो क्रमशः सामान्य अध्ययन से जुड़े विषय इतिहास व संस्कृति, राजव्यवस्था व अर्थव्यवस्था, सामाजिक न्याय व अंतरराष्ट्रीय संबंध से संबंधित थे, किन्तु उनका जुड़ाव वर्तमान भारत से संलग्न कर पूछा गया।
निबंध लिखने का तरीका
एक सामान्य समस्या आती है कि निबन्ध लिखें कैसे, उसके लिखने का तरीका क्या हो। इसके लिए कुछ विशेष मानदंडों का पालन करना चाहिए-
- सर्वप्रथम शीर्षक का चुनाव करें;
- शीर्षक का प्रारूप बनाएं;
- शब्द सीमा का ध्यान रखते हुए निबंध के प्रारूप का विभाजन करें;
- शीर्षक से जुड़े तथ्य, आंकड़े, संदर्भ को एकत्र कर एक स्थान पर पहले ही लिख लें;
- फिर स्टेप बाई स्टेप लिखें, व्याख्या करें;
- निबंध का विश्लेषण हमेशा सकारात्मक, देशबोधक, उम्मीदपरक, भविष्योउन्मुखी होना चाहिए।
ये कुछ महत्वपूर्ण निर्देश हैं जिनका पालन करके निश्चित समय सीमा में परीक्षार्थी बेहतर अंक प्राप्त कर सकते है। अधिकांश परीक्षार्थी टाइम और वर्ड मैनेजमेंट में संतुलन नहीं बना पाते किन्तु निरन्तर अभ्यास से इसमें सुधार लाया जा सकता है।
किस विचारधारा को लिखें?
एक बड़ी व्यावहारिक समस्या विचारधारा को लेकर आती है। यह समस्या सोशल मीडिया के आने पर ज्यादा गंभीर हुई है। यह कहने की आवश्यकता नहीं कि देश के ज्यादातर मीडिया जगत कुछ विचारों से विविध खेमों में बंटे हैं, उनकी रिर्पोटिंग कई उलझनें पैदा करती है। एक परीक्षार्थी के लिए उनमें संतुलन बनाना बेहद कठिन कार्य है। उदाहरण के लिए नए कृषि कानून, किसान आंदोलन, कोविड की स्थिति, चीन से सीमा पर तनाव, राफेल विमान खरीद जैसे कई मुद्दों पर इतने तथ्य, विश्लेषण, आँकड़े सामने आते रहे जिससे किसी भी स्थिति में उलझनें दूर नहीं हो सकतीं। इस परिस्थिति में भी परीक्षार्थी को कुछ विशेष मानदंडों का पालन करना चाहिए-
- प्रत्येक विषय के सकारात्मक-नकारात्मक पहलुओं को एकत्र करें;
- किसी भी प्रकार का पूर्वाग्रह न रखें;
- किसी भी संगठन, पार्टी, दल या खास विचारधारा से सहानुभूति न रखें;
- क्रांतिकारी, उत्तेजक शब्दों या विचारों का प्रयोग न करें;
- अपनी बात सहज, सरल शब्दों में रखें;
- हमेशा संतुलित, मर्यादित शब्दों का प्रयोग करें;
- कभी भी हमलावर या प्रहार करने की भाषा या तथ्य का प्रयोग न करें।
वास्तव में ये कुछ विशेष सावधानियां होती हैं जिनके पालन करने की अपेक्षा एक प्रशासनिक सेवा की तैयारी करने वाले परीक्षार्थी से की जाती है। ज्यादातर ऐसा देखा गया है कि परीक्षार्थी इन विभिन्न प्रकार के विवादित प्रसंगों में संतुलन नहीं बना पाते, जो बना लेते है उन्हें बेहतर अंक मिलते है।
प्रशासनिक अधिकारी व निबंध
एक प्रशासनिक अधिकारी के तमाम गुणों की खोज निबंध के माध्यम से कैसे होती है, वास्तव में यही सबसे महत्वपूर्ण प्रसंग है, जिस पर विशेषकर हिन्दी भाषी राज्यों से जुड़े परीक्षार्थी ध्यान नहीं देते। हिन्दी भाषी राज्यों की विशेषता कहें या विडंबना, उनके हर विषय या प्रसंग का जुड़ाव किसी न किसी विशेष विचारधारा से होता है। राजनैतिक रूप से बेहद जागरूक व सक्रिय रहे इन राज्यों के निवासियों में बचपन से ही प्रत्येक विषय पर एक विशेष विचारधारा बनने लगती है जो अंत तक हावी रहती है। यह सोच, समझ, रुझान, निबंध लेखन में भी झलकता है। उदाहरण के लिए इतिहास व संस्कृति में प्राचीन जाति-वर्णव्यवस्था, हिन्दू मुस्लिम संबंध, देश विभाजन, स्वतंत्रता प्राप्ति, संविधान निर्माण, मूल अधिकार, न्यायपालिका, पंचायती राज, समाजिक रीति रिवाज, आरक्षण व्यवस्था, मीडिया का स्वरूप, महिलाओं की स्थिति जैसे कई प्रसंगों पर उनकी समझ किताबी ज्ञानों से एक दम अलग होती है। जबकि एक प्रशासनिक अधिकारी से उम्मीद की जाती है वह सभी प्रकार के वैचारिक पूर्वाग्रहों से मुक्त हो, वह किसी प्रकार का वैमनस्य समाज की किसी जाति, धर्म, संप्रदाय, समुदाय, पार्टी, संगठन से न रखे। उसका दृष्टिकोण निरपेक्ष हो, वह हमेशा सकारात्मक सोच रखे, वह हमेशा सही दिशा में बदलाव की उम्मीद रखे, वह हिंसक क्रांतिकारी या सत्ता को पलटने जैसी विचारधारा का पोषक न हो।
इसी प्रकार के कुछ विशेष गुण संघ लोक सेवा आयोग द्वारा परीक्षार्थी के लेखन के माध्यम से जाँचे जाते हैं। कई बार किसी विषय पर बेहतरीन लेखन भी उम्मीद के अनुसार नंबर नहीं दिला पाता। इसका कारण कहीं न कहीं विचारों का भटकाव या प्रस्तुतीकरण में कुछ विशेष खामियों की ओर इशारा करता है, जिन्हें परीक्षार्थी लेखन करते वक़्त समझ नहीं पाते। सामान्यतः जो उनके हृदय व मस्तिष्क में होता है वही लेखन में झलकने लगता है। किसी भी प्रसंग पर स्पष्ट समझ व निरन्तर अभ्यास से ही इन विशेष गुणों को सही दिशा दी जा सकती है।
संपादकीय लेख व निबंध
प्रशासनिक सेवा के अधिकांश परीक्षार्थी निबंध लेखन अभ्यास के साथ सम-सामयिक मुद्दों के लिए अखबारों, पत्रिकाओं में प्रकाशित संपादकीय लेखों का प्रयोग करते है। द हिन्दू, इंडियन एक्सप्रेस, फ्रंटलाइन, इंडिया टुडे, दैनिक जागरण, जनसत्ता जैसी कुछ विशेष पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित लेखों का वैचारिक व तथ्यात्मक प्रभाव गहराई से पड़ता है। ज्यादातर परीक्षार्थियों का लेखन संपादकीय शैली में होता है, जो कि उतना सही नहीं माना जाता। संपादकीय लेखों से भी विशेष विचारधारा झलकती है जिसमें विशेषज्ञ अपनी बातों, तथ्यों से किसी भी प्रसंग पर इतनी विशेषताएं या खामियां गिना देते हैं कि एक निष्पक्ष दृष्टिकोण का बनना मुश्किल हो जाता है। इस स्थिति में संपादकीय लेखों को पढ़ते वक्त कुछ विशेष सावधानियां बरती जानी चाहिए जैसे-
- संपादकीय लेखों से विचार या तथ्य को निकालें;
- हमेशा सकारात्मक तथ्यों को एकत्र करें;
- नकारात्मक तथ्यों को हमेशा चुनौती समझें;
- सिर्फ वैश्विक, अंतरराष्ट्रीय या राष्ट्रीय स्तर के संगठन के आंकड़ों, विश्लेषणों का प्रयोग अपनी बातों को रखने में करें;
- संशकित, उलझन, अन्जान भय, नकारात्मक प्रभावों वाले लेखों से बचें;
- वामपंथ, दक्षिणपंथ, लिबरल, नेशनलिस्ट जैसे वैचारिक खेमे के समर्थन वाले विचारों से बचें;
- एक ही विषय पर दो अलग-अलग वैचारिक खेमों के सिर्फ कुछ विचारों को लें ताकि संतुलन बना रहे।
वास्तव में ये कुछ ऐसे निर्देश हैं जिनका निरन्तर पालन करने से न सिर्फ समझ का दायरा विस्तृत होता है वरन् परीक्षा में बेहतर परिणाम भी मिलते हैं। उदाहरण के लिए नए कृषि कानून, न्यूनतम समर्थन मूल्य तथा कृषि क्षेत्र से जुड़ी समस्याओं पर इतने संपादकीय लेख उपलब्ध हैं, जिनसे वैचारिक उलझन हमेशा बनी रहती है। इनमें संतुलन बनाना बेहद आवश्यक है ताकि सामान्य अध्ययन के साथ निबन्ध व साक्षात्कार के स्तर पर भी इस संतुलित ज्ञान का प्रयोग किया जा सके।
निबंध और वास्तविकता
एक अन्य महत्वपूर्ण प्रसंग समाज की वास्तविकता और प्रतियोगी परीक्षाओं में पूछे गए प्रश्नों की प्रवृत्ति को लेकर है। भारत के एक सामान्य नागरिक का अनुभव देश के पुलिस प्रशासन, न्यायपालिका एवं सरकारी विभागों के प्रति कैसा है, यह किसी से छुपा नहीं है। ज्यादातर नागरिकों का उत्तर नकारात्मक प्रवृत्ति का ही मिलेगा। उसी तरह भ्रष्टाचार-कालाधन, विदेशी निवेश, भारत-चीन विवाद, भारत-पाक संबंध, राज्यपालों की षडयंत्रकारी भूमिका, गरीबी का मापन, बेरोजगारी दूर करने के उपाय, विश्व व्यापार संगठन व अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष की शर्तें, संयुक्त राष्ट्र संघ की भूमिका जैसे दर्जनों विषयों पर लेख, विचार व तथ्य सामने आते रहते हैं।
प्रशासनिक सेवा की तैयारी में लगे एक परीक्षार्थी का सामना पुस्तकीय तथ्यों के अध्ययन करने के पश्चात समाज की वास्तविकता से होता है। कुछ परीक्षार्थी जो महज पुस्तकीय ज्ञान तक सीमित होते हैं उनका चयन अंतिम रूप से नहीं हो पाता; होता भी है तो इसमें लंबा समय लग जाता है। कुछ परीक्षार्थी जिनका सामाजिक ज्ञान अन्य से बेहतर होता है, वे सामाजिक घटनाओं के प्रति सजग होते हैं किन्तु जैसे-जैसे उन्हें समाज का सच पता चलता है, वास्तविक कारण सामने आते है, वे अपने इन अनुभवजन्य ज्ञान और प्रशासनिक अधिकारी की आवश्यकता में संतुलन नहीं बना पाते, परिणामस्वरूप वे अपने नकारात्मक अनुभवों को लिख आते हैं। अपने अनुभवजन्य ‘सच’ को लिखने की यह प्रवृत्ति सामान्य अध्ययन के साथ निबंध के अतिरिक्त इंटरव्यू में पूछे गए प्रश्नों के उत्तर देते समय भी प्रकट होती है।
उदाहरण के लिए इस देश में भ्रष्टाचार सरकारी विभाग का एक प्रमुख गुण है। पिछले कई वर्षों से अनेक सरकारें इसे नियंत्रित करने की सिर्फ घोषणा ही करती रही हैं। सीबीआई व सीवीसी जैसी संस्थाएं महज मुखौटा बनी हुई हैं। नियंत्रक व महालेखा परीक्षक की रिपोर्ट की मानें तो केन्द्र व राज्य स्तर पर 2014 तक 500 बड़े व 5000 छोटे घोटाले हो चुके हैं, किन्तु इनमें 1 प्रतिशत लोगों को भी सजा नहीं हो पाई है। न्यायालयी भ्रष्टाचार के संदर्भ में देखें तो इस देश की ज्यादातर अदालतों में निर्णय भ्रष्टाचार से प्रभावित हैं। एक सामान्य नागरिक के लिए अदालती क्रियाकलाप चक्रव्यूह की तरह हैं जो उसे टार्चर करते रहते हैं।
पड़ोसी देशों के साथ बनते बिगड़ते संबंधों की सच्चाई पर गौर करें तो हम पाते हैं कि भारत-चीन विवाद में चीन का पलड़ा अभी भी भारी है। 14देशों के साथ उसकी सीमा लगती है, सभी के साथ उसका विवाद है। अंतरराष्ट्रीय रिपोर्ट व वैश्विक लेखकों की मानें तो चीन भारत से 10 वर्ष आगे है, उसके घरेलू उत्पाद भारतीय उद्योगों को तबाह कर रहे हैं। इसके अतिरिक्त भारत-पाक संबंधों में विश्लेषक यही मानते हैं कि अगले 50 वर्षों तक फिलहाल सुधार हो ही नहीं सकता; पाकिस्तान का जन्म ही भारत विरोध पर हुआ है और यह अंत तक जारी रहेगा।
राज्य में राज्यपालों की भूमिका पर ध्यान दें तो हम देखते हैं कि राज्यपालों के संबंध में न जाने कितनी कमेटियों ने अपनी रिपोर्ट दी, सुधार की पहल की, किन्तु अभी भी उनकी षडयंत्रकारी भूमिका ही सामने आती रही है; पांडिचेरी (फरवरी 2021) का उदाहरण सामने है। इसी तरह से गरीबी और बेरोजगारी ही समस्या भी आर्थिक वृद्धि की कड़वी सच्चाई बयां करती हैं। वैश्विक संगठनों में संयुक्त राष्ट्र जैसी संस्थाएं महज अमरीका जैसे देशों के हाथों की कठपुतलियां हैं, वहीं विश्व स्वास्थ्य संगठन की भूमिका सालों से संदेह के घेरे में है।
कुल मिलाकर देखें तो मामला भारत का हो या विश्व का, कुछ चुनिंदा लोग, संस्थाएं, संगठन ही इन सभी पर कब्जा किए हुए हैं और अपने अनुसार सत्ता चला रहे है। इन्हीं सब सामाजिक वास्तविकताओं से सिविल सेवा की तैयारी कर रहे परीक्षार्थी रूबरू होते हैं, परिणामस्वरूप यही सच उनके लेखन में भी प्रकट होने लगता है। उदाहरण के लिए परीक्षार्थियों को लेखन में कुछ विशेष दृष्टिकोण व भाषा शैली का प्रयोग करना चाहिए जैसे-
- भ्रष्टाचार व कालाधन भारतीय अर्थव्यवस्था की एक विशेष समस्या है, जिन पर उचित नियंत्रण करने की आवश्यकता है;
- भारत-चीन संबंधों को विश्लेषित करने में सावधानी बरतने की आवश्यकता है, क्योंकि चीन का विवाद लगभग सभी देशों से है;
- वैश्विक संगठनों में कुछ विकसित देशों की बहुराष्ट्रीय कंपनियों का प्रभाव देखा जा रहा है, जिनका दृष्टिकोण विकासशील देशों के प्रति भेदभावपूर्ण वाला है।
ऐसी संतुलित भाषा शैली का प्रयोग बहुत कम परीक्षार्थी कर पाते हैं। समाज व देश की समस्या कहें या सच्चाई, ये पहले भी थीं, अभी भी हैं और आगे भी रहेंगी। इनमें परिवर्तन धीरे-धीरे होता है। इस परिस्थिति में एक प्रशासनिक अधिकारी की तैयारी में लगे परीक्षार्थी से उम्मीद की जाती है कि वे व्यावहारिक ज्ञान रखें, वास्तविकता समझें तथा सच्चाई जानने के बाद भी उनकों संतुलित दृष्टि से प्रस्तुत करें; साथ ही हमेशा सुधार की उम्मीद रखें। इन विशेष प्रशासनिक गुणों वाली प्रवृतियों का विकास एकाएक नहीं हो सकता। हर घटना, प्रसंग पर क्या पढ़ना है और क्या नहीं पढ़ना है, से ज्यादा आवश्यक है कि क्या लिखना है और क्या नहीं लिखना है।
ऐसे दर्जनों उदाहरण हैं जिनमें देखा गया है कि एक सामान्य विद्यार्थी भी उच्च रैंक प्राप्त कर लेता है वहीं बहुत मेधावी विद्यार्थी अंतिम रूप से भी चयनित नहीं हो पाते। इस प्रवृत्ति का शिकार हिन्दी भाषी राज्यों के परीक्षार्थी सबसे ज्यादा रहे हैं। यह तब होता है जब उत्तर लिखते समय वैचारिक जंजाल उन्हें उलझा कर रख देता है; किन्तु सिविल सर्विसेज क्रॉनिकल जैसी पत्रिकाएं उनको एक दृष्टिकोण देती हैं तथा किसी संकीर्ण दृष्टिकोण को अपनाने से बचाती हैं। शेष वे किसी कैरियर कंसल्टेंट की सहायता से निरन्तर अभ्यास कर अपने इस भटकाव को रोक कर स्वयं को संतुलित कर सकते हैं। समाज की वास्तविकता व प्रशासनिक सेवा की परीक्षाओं में लिखे जाने वाले निबंध दो अलग-अलग कड़ी हैं; इनमें सामंजस्य व संतुलन आवश्यक है।
निबंध के विषय क्या हो सकते हैं?
एक अन्य महत्वपूर्ण प्रसंग है कि निबंध के विषय क्या-क्या हो सकते हैं तथा वर्तमान में सिविल सेवा की तैयारी में लगे परीक्षार्थी किन-किन विषयों पर अपना ध्यान केंद्रित करें। इस पर स्वयं को फोकस करने के लिए सबसे बेहतर विकल्प है कि देश जिन परिस्थितियों से गुजर रहा है उसका अवलोकन करते रहें; उनसे जुड़े डेटा, फैक्ट, फिगर, एनालिसिस, रिपोर्ट का अध्ययन करते रहें। उदाहरण के लिए संविधान व राजव्यवस्था से जुड़े विषयों में नागरिकता, निजता रूपी मूल अधिकार, अल्पसंख्यकवाद, धर्म आधारित शिक्षा, धर्मान्तरण, समान नागरिक संहिता, मीडिया सेंसरशिप, पूर्वाग्रहपूर्ण मीडिया, केन्द्र-राज्य संबंध, न्यायिक सक्रियता, जम्मू कश्मीर की विशेष स्थिति, पंथनिरपेक्षता, राष्ट्रवाद, भारतीय समाज की विविधता जैसे विषयों पर नए-नए प्रकट होते स्वरूप, पड़ोसी देशों के साथ बदलते संबंध, आंतरिक सुरक्षा को चुनौती देने वाले नए-नए तत्व जैसे अनेकों प्रसंग हैं जिन पर एक संतुलित समझ या नजरिया बनाने की आवश्यकता है। पिछले दो दशकों के निबंध के प्रश्न पत्रों को उठाकर देखें तो पता चलता है कि पूछे गए प्रसंग का संबंध कहीं न कहीं देश की मौजूदा व्यावहारिक परिस्थितयों से जुड़ा रहा है, जिनको अध्ययन की सुविधा के लिए संविधान व राजव्यवस्था, आर्थिक विकास, पर्यावरण या आंतरिक सुरक्षा जैसे विषयगत शीर्षकों से जोड़ कर बताया जाता है। यह देखने में सामान्य लगता है किन्तु इतना सामान्य होता नहीं है।
निबंध के प्रथम खंड के लिए सिविल सर्विसेज क्रॉनिकल में प्रकाशित विविध प्रसंगों की व्याख्या का नियमित अध्ययन बेहद प्रभावकारी है, जिसमें विषय, विषय के प्रस्तुतीकरण तथा उनकी व्याख्या बेहद सहज, सरल शब्दों में की जाती है, जिनका नियमित अध्ययन परीक्षा में हमेशा उत्कृष्ट अंक प्राप्ति का एक माध्यम बन कर प्रकट होता रहा है। वहीं दूसरे खंड के लिए निरन्तर अभ्यास करने की आवश्यकता है। विषय का संतुलित, सारगर्भित, उचित व पूर्वाग्रह से मुक्त होना तथा महत्वपूर्ण डेटा, फैक्ट-फिगर, विश्लेषण एवं रिपोर्ट के माध्यम से किसी प्रसंग की व्याख्या आधारित लेखन ही मौलिक प्रतिभा की खोज करने वाले संघ लोक सेवा आयोग का पहला पैमाना है। संघ लोक सेवा आयोग की परीक्षा में एक सामान्य समझ वाले व्यावहारिक, प्रशासनिक व्यक्ति की खोज की जाती है जो वर्तमान के सिस्टम की विशेषताओं व खामियों से परिचित हो, उसे समझे और कुछ सुधारों के साथ देश के सिस्टम को चलाए; न कि किसी खोजी रिपोर्टर की तरह किसी मुद्दे को परत दर परत उधेड़े या सच को उजागर करे।
ये ही कुछ विशेष प्रसंग हैं जो निबंध परिचर्चा में शामिल हैं तथा इन पर अमल करके सफलता सुनिश्चित की जा सकती है।