Question : एशिया महाद्वीप के दक्षिणी भाग में अवस्थित होने के कारण भारत को किस प्रकार के भू-राजनीतिक तथा आर्थिक सौलभ्य प्राप्त हुए?
(1989)
Answer : एशिया महाद्वीप के दक्षिणी में स्थित होने के कारण भारत को अनेक भू-राजनीतिक व आर्थिक लाभ प्राप्त हुए हैं। हिन्द महासागर के शीर्ष पर स्थित भारत की स्थिति अंतरराष्ट्रीय व्यापार के लिए बहुत हितकर है, क्योंकि पुराने एवं नए विश्व के अधिकांश संपर्क रास्ते इधर से ही गुजरते हैं। भारत के उत्तर में हिमालय की ऊंची पर्वतमालाएं तथा दक्षिण में हिन्द महासागर है। हिमालय की ऊंची पर्वतमालाओं के कारण भारत की सुरक्षा को उत्तर की ओर के देशों से कम खतरा रहता है। हिन्द महासागर के तट पर स्थित होने के कारण भारत को समुद्र से प्राप्त होने वाले अधिकांश लाभ प्राप्त होते हैं तथा वह समुद्री संपदा का पर्याप्त दोहन करता है। समुद्री संपदा के दोहन में मत्स्य पकड़ना, खनिज व तेल निकालना आदि शामिल हैं। समुद्री मार्ग द्वारा भारत के दक्षिण एशिया के सुदूर देशों के साथ व्यापारिक एवं वाणिज्यिक संबंध होने के साथ ही सांस्कृतिक संबंध भी हैं। यदि एशिया के मानचित्र पर एक दृष्टि डाली जाए, तो इस बात में कोई संदेह नहीं रहता है कि भारत, भारतीय उपमहाद्वीप की सर्वाधिक प्राकृतिक भौगोलिक इकाई है, जहां विभिन्न संस्कृतियों के लोग निवास करते हैं और यहां प्राकृतिक संसाधन पर्याप्त मात्र में उपलब्ध हैं। उत्तर का पर्वतीय क्षेत्र जंगलों व पशुधन, गंगा व ब्रह्मपुत्र का मैदान कृषि, दक्षिण का पठार खनिज, कृषि व उद्योग तथा तटीय प्रदेश मछली पालन की दृष्टि से काफी समृद्ध हैं।
Question : 1987-88 के प्रचंड सूखे के कारण भारत के कौन-कौन से इलाके मुख्यतः प्रभावित हुए? इसके मुख्य परिणाम क्या थे?
(1988)
Answer : 1987-88 के भीषण सूखे ने भारत के विभिन्न भागों को गंभीर रूप से प्रभावित किया था। व्यापक पैमाने पर प्रभावित राज्यों में गुजरात, राजस्थान, मध्य प्रदेश, उत्तर प्रदेश, हरियाणा, पंजाब, हिमाचल प्रदेश, महाराष्ट्र, उड़ीसा व तमिलनाडु शामिल थे। सूखे के परिणामस्वरूप, कृषि उत्पादन को भारी धक्का लगा और उसका प्रभाव वार्षिक विकास दर पर भी पड़ा। औसत वार्षिक विकास दर 4.4 प्रतिशत से गिर कर 1987-88 में 2 प्रतिशत से भी कम हो गई। कृषि उत्पादन का सूचकांक 1986-87में 3.7 प्रतिशत और 1987-88 में 1 प्रतिशत गिर गया। खाद्यान्न का उत्पादन 1987-88 में गिरकर 138.41 मिलियन पर आ गया। जल के स्तर में गिरावट के फलस्वरूप सिंचाई व जलविद्युत उत्पादन पर विपरीत प्रभाव पड़ा। कृषि उत्पादन में कमी का प्रभाव औद्योगिक उत्पादन पर भी पड़ा, क्योंकि कृषि आधारित कच्चे माल की आपूर्ति कम हो गई थी। कृषि उत्पादन में 1985-86 से 1987-88 की अवधि में होने वाली गिरावट की स्थिति में 1988-89 में सुधार हुआ। 1987-88 की तुलना में 1988-89 में कृषि उत्पादन में 1988-89 की अपेक्षा 1.7 प्रतिशत की वृद्धि हुई। सातवीं योजना में कृषि उत्पादन में पर्याप्त सुधार हुआ तथा इसकी वार्षिक विकास दर 4.1 प्रतिशत रही, जबकि लक्ष्य 4 प्रतिशत का था।
Question : ‘काली मिट्टी’ क्या होती है? भारत में इसका वितरण बताइए। उनके क्या उपयोग हैं और उनकी समस्याएं क्या हैं? समझाइए।
(1988)
Answer : काली मृदा अर्द्धशुष्क स्थिति के अंतर्गत लावा के जमावों से बनी मृदा है। इसका काला रंग इसमें विद्यमान लौह अंश, टिटेनिफेरस व एल्युमिनियम के कारण होता है। इस प्रकार की मृदा की गहराई कहीं कम, तो कहीं बहुत अधिक होती है। यह मृदा भारत में महाराष्ट्र, मध्य प्रदेश के पश्चिमी व मध्यवर्ती भाग, गुजरात, आंध्र प्रदेश, कर्नाटक के उत्तरी जिले व उड़ीसा के दक्षिणी भाग में पायी जाती है। कुछ काली मृदा अत्यधिक उपजाऊ होती है। काली मृदा में महीन कण वाली मृदा, गहरे हरे रंग की तथा कैल्सियम व मैग्नेशियम कार्बोनेट की मात्र अधिक रहती है। ऐसी मृदा भीगने पर फैलती है तथा सूखने पर इसमें सिकुड़ने के कारण दरारें पड़ जाती हैं। इसमें कैल्सियम, पोटश, लौह तत्व तथा एल्युमिनियम की अधिकता और फॉस्फोरस, नाइट्रोजन एवं जीवांशों की कमी होती है। यह कपास की खेती के लिए उपयुक्त है। इसके अलावा काली मृदा ज्वार, गेहूं, अलसी, मूंगफली, चना व तम्बाकू के लिए भी उपयुक्त होती है। इसे रेगड़ मृदा भी कहा जाता है। इसकी आर्द्र क्षमता अधिक होती है, अतः इसमें सिंचाई की अधिक आवश्यकता नहीं पड़ती है।
Question : मध्य प्रदेश में मालवा की मिट्टी काली और कर्नाटक की लाल क्यों है? इन दोनों मिट्टियों के तुलनात्मक उपजाऊपन की विवेचना कीजिए।
(1994)
Answer : मध्य प्रदेश के मालवा क्षेत्र में पायी जाने वाली काली मिट्टी को रेगड़ कहते हैं। रेगड़ मिट्टी की उत्पत्ति पहले के लैगूनों में नदियों द्वारा लायी गई लावा के जमाव से हुई है। कुछ भूविदों के मतानुसार, काली मिट्टी का निर्माण धारवाड़, बसाल्ट, ग्रैनाइट, नीस इत्यादि चट्टानों की तरह फूटने से होता है। वर्तमान में ऐसी मान्यता है कि ये मिट्टियां ज्वालामुखी विस्फोट से निकले लावा के जमने से निर्मित हुई हैं, जिसके कारण यह मिट्टी काली होती है। काली मिट्टी की संरचना में उसके कण बहुत समीप पाए जाते हैं, जिसके कारण मिट्टी की बनावट घनी होती है और इसमें पानी बहुत देर तक ठहर सकता है। इस मिट्टी में गेहूं, कपास ज्वार, बाजरा, लाल मिर्च, रागी, मूंगफली, तम्बाकू और दलहन की खेती होती है। काली मिट्टी मुख्य रूप से कपास की खेती के लिए विख्यात है।
लाल मिट्टी का निर्माण शुष्क और नम जलवायु के बदलते रहने से प्राचीनतम रवेदार चट्टानों और रूपांतरित चट्टानों में टूट-फूट होने के कारण होता है। कर्नाटक में बहने वाली ताप्ती नदी की घाटी में अधिक गर्मी पड़ने के कारण पहाड़ी ढलान की चट्टान टूट जाती है,जिसके फलस्वरूप उसमें मौजूद लोहा, मिट्टी में समान रूप से फैल जाता है। यह मिट्टी भी उपजाऊ मिट्टी की श्रेणी में आती है। इसमें मुख्य रूप से गन्ना, चावल, गेहूं, जूट, मक्का, ज्वार, मूंगफली, कपास, तिलहन और तम्बाकू की खेती की जाती है।
Question : भारत में दक्षिण-पश्चिम मानसून की अपेक्षा उत्तर-पूर्वी मानसून से अधिक वर्षा होती है? समझाइये ऐसा क्यों है?
(1994)
Answer : तमिलनाडु के दक्षिण-पूर्वी समुद्र तट, मैसूर एवं मालाबार क्षेत्रों में दक्षिण-पश्चिम मानसून की अपेक्षा उत्तर-पूर्वी मानसून से अधिक वर्षा होती है। दक्षिण-पश्चिम मानसून के भारतीय भू-भाग में पहुंचते ही उच्चावच तथा उत्तर-पश्चिम भागों में स्थित निम्न वायु दाब क्षेत्र के प्रभाव से इनकी दिशा में परिवर्तन हो जाता है और ये अरब सागर तथा बंगाल की खाड़ी की शाखाएं बनकर आगे बढ़ जाती हैं। इसके फलस्वरूप तमिलनाडु के दक्षिण-पूर्वी भाग, मैसूर एवं मालाबार क्षेत्रों में कम वर्षा हो पाती है।
नवंबर के प्रारंभ में उत्तर-पश्चिम भाग से आने वाला मानसून बंगाल की खाड़ी में स्थानांतरित हो जाता है। यह स्थानांतरण आसानी से नहीं हो पाता है। उसी अवधि में अरब सागर में चक्रवात बनने लगते हैं और भारतीय दक्षिणी प्रायद्वीप के पूर्वी तटों को पार कर जाते हैं। इसके कारण उपरोक्त क्षेत्रों में भारी वर्षा होती है। इसे उष्ण-कटिबंधीय चक्रवात कहते हैं, जो बहुत ही विनाशकारी होता है। इस चक्रवात के कारण यहां तूफान भी आते रहते हैं। यह उष्ण कटिबंधीय चक्रवात कभी सुन्दरवन तथा बांग्लादेश में भी पहुंच जाते हैं। इन्हीं कारणों से तमिलनाडु के दक्षिण-पूर्वी भाग, मैसूर और मालाबार क्षेत्रों में दक्षिण-पूर्वी मानसून की अपेक्षा उत्तर-पश्चिमी मानसून से अधिक वर्षा होती है।
Question : शुष्क-भूमि खेती क्या है? भारत के लिए इसके महत्व की विवेचना कीजिए।
(1994)
Answer : शुष्क भूमि खेती ऐसी खेती को कहते हैं, जिसमें सिंचाई के कृत्रिम साधन उपलब्ध नहीं होते हैं तथा यह भूमि प्राकृतिक वर्षा पर ही निर्भर रहती है। भारत में अनुमानतः 990 लाख हेक्टेयर भूमि में होने वाली खेती प्राकृतिक वर्षा पर निर्भर है, जो खेती के लिए की गई कुल बुआई (1410.60 लाख हेक्टेयर) का 70 प्रतिशत है। इस तरह की भूमि पर ज्वार, बाजरा, तिलहन, दलहन इत्यादि फसलों की बुआई की जाती है, जिसे कम पानी की आवश्यकता होती है। शुष्क भूमि खेती मुख्य रूप से पश्चिम और दक्षिण उत्तर प्रदेश, गुजरात, मध्य प्रदेश, राजस्थान, महाराष्ट्र इत्यादि में की जाती है। चूंकि इस क्षेत्र की कृषि वर्षा पर निर्भर होती है, अतः इनके उत्पादन का ग्राफ हमेशा ऊपर-नीचे होता रहता है। इस कृषि पर निर्भर किसानों की आर्थिक हालत दयनीय होती है। भारतीय वैज्ञानिक अब फसलों की ऐसी किस्म का विकास करने में लगे हुए हैं, जो कम पानी और कम समय में पक कर तैयार हो जाएं। भारत सरकार भी इस प्रकार की खेती में लगे लोगों के जीवनस्तर को सुधारने के लिए अनेक कार्यक्रम चला रही है।
Question : लघु नदी घाटी परियोजनाओं की तुलना में ऊंचे बांध वाली विशाल नदी घाटी परियोजनाओं की तर्कपूर्णता का अपना मूल्यांकन दीजिए।
(1993)
Answer : वर्तमान युग में, विशेषकर भारत की वृहत जनसंख्या एवं क्षेत्रफल के लिए सिंचाई, उद्योग व अन्यान्य विकास कार्यों हेतु ऊर्जा की बड़े पैमाने पर आवश्यकता है। ऊर्जा की इन आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए ऊंचे बांध वाली विशाल नदी घाटी परियोजनाओं को लगाया जाना उचित ही जान पड़ता है। ऐसी परियोजनाओं के निर्माण से सिंचाई की अधिक सुविधाएं प्राप्त होती हैं, इससे कृषि क्षेत्रों का विकास होता है और परिणामतः कृषि उत्पादन में बढ़ोत्तरी होती है। इन परियोजनाओं द्वारा बाढ़ पर भी प्रभावी नियंत्रण किया जा सकता है तथा इन पर बनने वाले बैराज से यातायात एवं संचार की सुविधाएं बढ़ती हैं। इससे संसाधनों में गतिशीलता आएगी तथा उनका देश के विकासार्थ समुचित दोहन किया जाना संभव हो सकेगा। विशाल नदी घाटी परियोजनाओं के निर्माण से बड़े पैमाने पर रोजगार के अवसरों का भी सृजन होता है। यथा नर्मदा घाटी परियोजना के निर्माण के दौरान 7 लाख लोगों को तात्कालिक रोजगार व इसके पूर्ण होने पर 6 लाख लोगों को स्थायी रोजगार उपलब्ध होगा। बड़े बांधों के किनारे जलाशयों का निर्माण करके मत्स्य पालन को भी बढ़ावा दिया जा सकता है तथा भूमिगत जल के नीचे खिसकने व गंदगी से उत्पन्न रोगों पर भी रोक लगायी जा सकती है।
बड़ी परियोजना के निर्माण से लोगों के पुनर्वास, विभिन्न वन्य प्राणियों व वनस्पतियों के विनाश, आदिवासियों की पुरातन संस्कृति व नैसर्गिक जीवन शैली पर प्रतिकूल प्रभाव, पारिस्थितिक असंतुलन, पानी में अम्लता व भूगर्भिक असंतुलन के कारण भूकंप की संभावना जैसे दुष्प्रभाव उत्पन्न हो जाने की प्रायः बात की जाती है। लेकिन ये सब ऐसी समस्याएं हैं, जिनके समाधान के लिए आवश्यक उपाय किए जा सकते हैं। इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता है कि किसी दूसरे के कल्याण के लिए अन्य की सुख-सुविधाओं का हरण नहीं किया जाना चाहिए तथा सरकार को मानवीय पहलुओं पर भी अवश्य ध्यान देना चाहिए। सरकार को विस्थापितों के पुनर्वास व आदिवासियों की संस्कृति व विरासत को बनाए रखने की ओर समुचित कदम उठाने चाहिए साथ ही पर्यावरण की रक्षा व विकास कार्यों में परस्पर संतुलन स्थापित करना भी जरूरी है। अतः तमाम विरोधाभासों व अनियमितताओं के बावजूद ऊंचे बांध वाली विशाल नदी घाटी परियोजनाएं देश के विकास में सहायक हैं।
Question : भारत के किन भागों को सूखा क्षेत्र कहा जाता है? इन क्षेत्रों के अभिलक्षण तथा उनमें प्रचलित आर्थिक कार्यकलापों पर टिप्पणी लिखिए।
(1993)
Answer : भारत में थार मरुस्थल सूखा क्षेत्र के अंतर्गत आता है। थार मरुस्थल के अंतर्गत राजस्थान के बीकानेर, बाड़मेर, जैसलमेर, पश्चिमी जोधपुर व गंगानगर का दक्षिणी भाग तथा गुजरात का उत्तर-पश्चिमी भाग आता है।
इन क्षेत्रों में प्रतिवर्ष औसतन 25 से.मी. से भी कम वर्षा होती है तथा जनवरी माह में तापक्रम 5ºC से 22ºC और जून माह में 28ºC से 45ºC के मध्य रहता है। यहां प्रायः बलुई मिट्टी है तथा हवा के कारण बालू के वृहत टीले बनते व बिगड़ते रहते हैं। बलुई मिट्टी में फॉस्फेट की काफी मात्र होती है, जबकि नाइट्रोजन बहुत कम मात्र में होता है। वनस्पतियां प्रायः नहीं के बराबर होती हैं और जो थोड़ी बहुत होती भी हैं, वे कंटीली झाडि़यों, कांटेदार वृक्षों, बबूल या कैक्टस के रूप में होती हैं। सिंचाई सुविधाओं का अभाव होता है तथा दिन अधिक गर्म व रातें अधिक ठंडी होती हैं।
ऐसे क्षेत्रों में प्रायः सूखी खेती की जाती है। बाजरा व तिलहन मुख्य फसलें होती हैं। ऊंट व भेड़पालन में काफी लोग संलग्न रहते हैं तथा इन पर अपनी आजीविका के लिए आश्रित होते हैं। खनिज पदार्थों के अंतर्गत इन क्षेत्रों में जिप्सम पाया जाता है।
Question : शास्त्रीय उत्क्रांति एवं स्थलाकृतीय अवस्थाओं में अंडमान तथा निकोबार द्वीप समूह एवं लक्षद्वीप किस प्रकार भिन्न हैं?
(1998)
Answer : भारत में कुल 247 द्वीप हैं। इनमें से 204 द्वीप बंगाल की खाड़ी में हैं तथा ये अंडमान व निकोबार द्वीपसमूह की रचना करते हैं। अरब सागर में पाए जाने वाले द्वीपसमूहों में लक्षद्वीप ही प्रमुख है।
अंडमान व निकोबार द्वीपसमूह ज्वालामुखी उद्गार से बने हैं। हजारों वर्ष पूर्व इस क्षेत्र में व्यापक ज्वालामुखी उद्गार देखने को मिला था। ये ज्वालामुखी समुद्र के अन्दर स्थित थे। इनसे निकले लावा से इन द्वीपसमूहों का निर्माण हुआ। भारत का एकमात्र सक्रिय ज्वालामुखी इन्हीं द्वीपों में से एक, बैरन द्वीप में स्थित है। यह द्वीप सागर से घिरा है तथा यहां छोटी-छोटी पहाड़ियाँ देखी जा सकती हैं। यहां की वनस्पति सदाबहार प्रकृति की है तथा यहां अंडमान, पाडोक व गुर्जन जैसे वृक्ष पाए जाते हैं। भारत का सबसे दक्षिणी छोर इंदिरा प्वाइन्ट यहीं स्थित है।
लक्षद्वीप एक कोरल निर्मित द्वीप है। इन द्वीपों का निर्माण ‘कोरल पॉलिप’ के जमाव से हुआ है। इस द्वीप में 12 प्रवाल द्वीप, तीन प्रवाल भित्ति तथा जलमग्न बालू के तट पाए जाते हैं। इसके उत्तर में चेरबनियानी रीफ है। यहां की वनस्पतियों में घास प्रधान वनस्पति है। ये समुद्री घास इसके तट की रक्षा करते हैं तथा अपरदन को रोकते हैं। इस द्वीप में बागानी फसल यथा- नारियल, केला आदि उगाए जाते हैं।
Question : भारत के लिए हिन्द महासागर का क्या महत्व है?
(1998)
Answer : भारत की भूमि को बंगाल से कच्छ तक छूने वाला हिन्द महासागर पूर्वी अफ्रीका, पश्चिम एशिया तथा दक्षिण व दक्षिण पूर्वी एशिया को एक साथ जोड़ता है। स्वेज नहर के खुल जाने से भूमध्य सागर को हिन्द महासागर से जोड़ दिया गया है और इस प्रकार दक्षिणी यूरोप तथा उत्तरी अफ्रीका भी हिन्द महासागर के प्रभाव क्षेत्र में आ गए हैं। भारत का दक्कन प्रायद्वीप हिन्द महासागर में इस तरह प्रक्षेपित है कि इस देश के लिए अपने पश्चिमी तट से पश्चिम एशिया, अफ्रीका व यूरोप तथा पूर्वी तट से दक्षिण-पूर्वी एशिया सुदूर-पूर्व व आस्ट्रेलिया को देखना संभव है। अपनी इस भौगोलिक स्थिति के कारण भारत अंतरराष्ट्रीय समुद्री मार्ग के संगम पर स्थित है, जिसका इसे व्यापारिक लाभ मिलता है।
भारत की तटीय सीमा 6,100 कि.मी. लंबी है तथा हिन्द महासागर में 200 मील तक इसका ‘एक्सक्लूसिव इकोनॉमिक जोन’(E.P.Z.) है। इस तरह हमारे समुद्री संसाधनों में मत्स्य, खनिज व ऊर्जा संसाधनों का लगातार दोहन संभव हो रहा है। हिन्द महासागर के केंद्र में स्थित होने के कारण भारत को इस क्षेत्र में भू-राजनीतिक लाभ भी मिलता है। हिन्द महासागर तटवर्ती संघ (बिमस्टेक) के बन जाने से अपनी केंद्रीय स्थिति के कारण भारत केा व्यापारिक व भू-राजनीतिक लाभ मिलना तय है।
Question : भारत में मानसून की उत्पत्ति का वर्णन करें।
(1997)
Answer : भारत की जलवायु में मानसून की प्रधानता देखी जा सकती है। भारतीय मानसून की उत्पत्ति का मूल कारण जल भाग और स्थल भाग का पारस्परिक संबंध है। ग्रीष्म ऋतु में जब उत्तर-पश्चिमी भारत में अत्यधिक तापमान के कारण वायु का कम दाब होता है, तो निकटवर्ती अरब सागर पर वायु का अधिक दाब होता है, जिससे सागर से स्थल की ओर वायु चलने लगती है। दक्षिणी गोलार्द्ध के वाणिज्य पवन विषुवत रेखा तक द.पू. से चलते हैं, पर इसके उत्तर में स्थित हिन्द महासागर में ये द. पू. दिशा से भारत के कम दाब क्षेत्र की ओर चलने लगते हैं। हजारों किलोमीटर की समुद्री यात्र करने के बाद भारत भूमि पर पहुंचने के कारण ये जलवाष्प से भरे होते हैं। हिमालय की अत्यधिक ऊंचाई इन्हें उत्तर की ओर नहीं जाने देती। उन दिनों पर्वतों व पहाड़ियों की स्थिति वर्षा वितरण को निर्धारित करती है।
जाड़े की ऋतु या शीत काल में परिस्थितियां विपरीत हो जाती हैं। सूर्य दक्षिणायन होता है और तापमान में कमी आ जाती है। स्थल पर कम दाब की जगह अधिक दाब हो जाता है, जिससे स्थल से सागर की ओर पवन चलने लगती है। इन पवनों को भूमध्यसागरीय प्रदेश के चक्रवातों से मदद मिलती है। शुष्क होने के कारण यह पवन बहुत कम वर्षा कराती है। हिमालय के कारण मध्य एशिया के अधिक दाब क्षेत्र से चलने वाले शीत पवन भारत नहीं पहुंच पाते हैं। भारत के इन दो मानसूनों को क्रमशः ‘गर्मी का मानसून’ तथा ‘जाड़े का मानसून’ कहा जाता है। भारतीय मानसून की उत्पत्ति के संबंध में भारतीय विशेषज्ञों द्वारा हाल ही में यह पता लगाया गया है कि ग्रीष्मकालीन मानसून अरब सागर से जल जाता है, न कि हिन्द महासागर से। आधुनिक जलवायु विशेषज्ञों ने नया सिद्धांत प्रतिपादित करके यह बताया है कि यह ऊपरी वायुमंडल के संचालन से प्रभावित है।
क्षेभमंडल की ऊपरी सीमा पर अति तीव्र जेट पवनें चला करती हैं। हिमालय के उत्तर में पश्चिमी जेट पवन शक्तिशाली होती है। जब पूर्वी जेट पवन भारत के पश्चिमी भाग में उत्पन्न निम्न दाब गर्त के निकट आते हैं, तो ठीक इसी समय निम्न वायुमंडल में मानसून का प्रक्षेप होता है। जब ये जेट पवन धीमे पड़ते हैं, तो ग्रीष्मकालीन मानसून भी शक्तिहीन हो जाता है।
Question : भारतीय महासागर के शीर्ष पर स्थित होने के कारण भारत को जो लाभ है, उन्हें समझाइए।
(1996)
Answer : भारत, हिन्द महासागर के शीर्ष पर स्थित है। इसके दक्षिण में श्रीलंका एवं मालदीव, दक्षिण-पूर्व में दक्षिण-पूर्वी एशियाई देश तथा पश्चिम में पश्चिम एशिया के देश स्थित हैं। भारत की यह विशिष्ट भौगोलिक स्थिति उसके व्यापार और वाणिज्य के दृष्टिकोण से अत्यधिक लाभकारी है। इसी से होकर विश्व के महत्वपूर्ण वाणिज्यिक एवं व्यापारिक मार्ग गुजरते हैं। पूर्वी एशिया एवं दक्षिण-पूर्व एशिया से आस्ट्रेलिया जाने वाला सामुद्रिक मार्ग भी भारतीय महासागर से ही गुजरता है। ‘स्वेज नहर मार्ग’ तथा ‘केप ऑफ द गुड होप’ होकर जाने वाले मार्ग से भारत अमेरिकी महादेश, अफ्रीका एवं यूरोप से अपने को जोड़ता है। 1869 में स्वेज नहर के खुल जाने पर यूरोप से भारत की दूरी में 7000 कि.मी. की कमी हो गई। भारत की ऐसी स्थिति उसके पर्यावरण एवं जलवायु संबंधी विविधता हेतु भी जिम्मेदार है। दक्षिण-पश्चिम मानसूनी हवा से ही भारत में जीवनदायी कृषि एवं प्राकृतिक पर्यावरण की रक्षा संभव हो पाती है। अतः भारतीय महासागर के शीर्ष पर स्थित होने के कारण भारत को अनेक प्रकार के लाभ हैं।
Question : ‘डेकन ट्रैप’ का आप क्या अर्थ समझते हैं? इसके अभिलक्षणों का वर्णन कीजिए।
(1995)
Answer : मध्यकालीन महाकल्प के उत्तरार्द्ध तथा नवजीव महाकल्प के प्रारंभिक काल में 7 करोड़ वर्ष पूर्व भारत के मध्य भाग तथा पश्चिमी भाग में ज्वालामुखीय प्रक्रिया हुई, जिससे दक्षिण लावा 5,18,000 वर्ग कि.मी. क्षेत्र में फैल गया और इससे यह क्षेत्र एक मोटी बेसाल्ट लावा की पर्त से ढक गया। इसकी अधिकतम मोटाई 3000 मीटर तक है। उत्तर तथा पूर्व में ये परतें काफी पतली हो गई हैं। कच्छ में इन परतों की मोटाई 160 मीटर, अमरकण्टक में 152 मीटर, नागपुर के पूर्व में 15 मीटर तथा जबलपुर के निकट केवल 6 मीटर है। बेसाल्ट लावा की परत से बेसाल्ट की शैलें बनीं। इन्हीं शैलों को ‘डेकन ट्रैप’ कहा जाता है। इस प्रकार की शैलें महाराष्ट्र, गुजरात, मध्य प्रदेश तथा इससे लगे आंध्र प्रदेश और कर्नाटक राज्य में पायी जाती हैं।
इस भाग की सबसे बड़ी विशेषता परिपक्व उभार का होना है। इस क्षेत्र की नदियां काफी पुरानी हैं, जो अपने निम्नतम स्तर को प्राप्त हो चुकी हैं तथा जिससे इन नदियों की घटियां ‘वी’ (V) आकार की बन गई हैं। नदियों की ऊर्ध्व अपरदन शक्ति समाप्त हो चुकी है। किनारों का कटाव अधिक है, इसलिए घाटियां उथली तथा चौड़ी हैं, जिसमें पानी का बहाव मन्द है।
‘डेकन ट्रैप’ की शैलें नीस एवं रवेदार हैं। कुछ अवसादी शैलें भी हैं, जो इस प्रकार अनुप्रस्थ पडी हैं कि उन पर मोड़ने वाली शक्तियों का विशेष प्रभाव ज्ञात नहीं होता। इस क्षेत्र में निर्जीव महाकल्प की शिष्ट एवं ग्रैनाइट शैलें भी पायी जाती हैं। समुद्र तटीय क्षेत्रों में अतिक्रमण से बनी कम आयु की शैलें भी इस भाग में मिलती हैं।
Question : हिमालय से निकली नदियों से ठीक विपरीत दक्षिणी प्रायद्वीप की नदियों की वाहिकाएं सुनिर्धारित व दृढ़ क्यों होती हैं?
(1995)
Answer : हिमालय से निकलने वाली नदियां अभी अपनी युवावस्था में ही हैं। अतः उनके द्वारा लम्बवत कटाव अधिक होता है और इसी कारण वहां गहरी घाटियां या गार्ज देखने को मिलती हैं, जिससे अनेक जलोढ़ पंख बन गए हैं। इसके विपरीत, दक्षिणी प्रायद्वीपीय पठार की चट्टानें बहुत ही कठोर और पुरानी हैं। ये चट्टानें या तो आग्नेय हैं या रवेदार। इस क्षेत्र के कठोर शिला समूह, जो मौसमी प्रहारों का सामना कर चुके हैं, आज पहाड़ बन गए हैं। उन्हीं में जो कुछ कोमल थे, वे आज घाटी और मैदान बन गए हैं। यह भू-पर्पटी के एक स्थायी खण्ड का सूचक है। यही कारण है कि दक्षिण प्रायद्वीप की नदियों की वाहिकाएं सुनिर्धारित तथा दृढ़ हैं। इन वाहिकाओं की क्षरण करने की शक्ति कम है। इस क्षेत्र की नदियां तथा उनकी वाहिकाएं काफी पुरानी हैं और अपने आधार तल तक पहुंच गई हैं। दूसरी तरफ, हिमालय की नदियों की वाहिकाएं सुनिर्धिारित तथा दृढ़ नहीं हैं और यह बराबर अपना रास्ता बदलती रहती हैं।