Question : भारत के किन्हीं तीन जनजातीय इलाकों के नाम बताइए। सरकार के जनजातीय विकास कार्यक्रम के प्रमुख अवयवों को बताइए।
(1988)
Answer : भारत में लगभग 50 जनजातीय समूह बड़ी संख्या में रहते हैं। तीन बड़े जनजातीय क्षेत्र हैं- उत्तर-पूर्वी राज्य, मध्य प्रदेश और बिहार। भारत में 1981 में अनुसूचित जनजातियों की संख्या 5 करोड़ 16 लाख थी, जो पूरी जनसंख्या का 75 प्रतिशत था। सरकार की जनजातीय उप-योजना की कार्यनीति जनजातीय समुदायों को जीवन की बेहतर सुविधाएं उपलब्ध कराकर इस क्षेत्र का विकास करना है। जनजातीय उप-योजना कार्यनीति के मुख्य घटक हैं- समन्वित जनजातीय विकास परियोजना (ITDPS), मोडिफाइड एरिया डेवलपमेंट एप्रोच (MADA) और लघु और आदि जनजातीय समूह उपयोजना (PPTGP)। जनजातीय उपयोजना का वित्तीय प्रबंध निम्न स्रोतों से होता है-
I.राज्य के योजना व्यय से।
II.जनजातीय क्षेत्रों के लिए केंद्रीय मंत्रालय द्वारा किए जाने वाले व्यय से।
III.केंद्र द्वारा जनजातीय क्षेत्रों को मिलने वाली विशेष वित्तीय सहायता से।
IV.बैंकों द्वारा उपलब्ध कराए जाने वाला वित्त से।
जनजातीय जनजातीय उपयोजना की कार्यनीति का तात्कालिक उद्देश्य जनजातीय क्षेत्रों में सभी प्रकार के शोषण को समाप्त करना, सामाजिक-आर्थिक विकास की प्रक्रिया को तेज करना, लोगों को आत्मनिर्भर बनाना और उनकी संगठनात्मक क्षमता में सुधार लाना है।
Question : ‘अनियत नगर विस्तार’ की प्रक्रिया में परिसरीय नगर वृद्धि’ उपनगर तथा उपग्रही नगरों का अन्तर समझाइए और भारत के किसी भी महानगर को केंद्र बनाकर प्रत्येक का कम से कम एक उदाहरण दीजिए।
(1990)
Answer : भारत में अनियमित नगर विस्तार की प्रक्रिया के कारण परिसरीय नगर वृद्धि की प्रवृत्ति स्पष्ट परिलक्षित होती है। महानगरों के आसपास की ग्रामीण या कृषि भूमि महानगरीय संपर्क के कारण स्वप्रसार के क्रम में नगरीय रूप धारण कर लेती है। इसी को परिसरीय नगर वृद्धि कहा जाता है। नगरीकरण की प्रक्रिया सामान्यतः इमारतों के विस्तार की ओर संकेत करती है। अधिकांशतः कृषि योग्य भूमि पर नगरीकरण हो रहा है और ये नगर धीरे-धीरे भीड़-भाड़ वाले महानगरों में परिवर्तित होते जा रहे हैं। आगरा, मेरठ, जयपुर, बंगलौर, अहमदाबाद आदि महानगरों में परिसरीय नगर वृद्धि तेजी से हो रही है। महानगरों के भीड़ व शोर भरे वातावरण से अकुलाए लोग आजकल महानगरों को छोड़ कर नगरों के बाहर के छोर व अपेक्षाकृत शांत जगह की ओर प्रवास करने लगे हैं। इससे नगरों के बाहर उपनगरों का निर्माण हो रहा है। नगरों के केंद्रीय भाग दुकानों, व्यावसायिक परिसरों, कार्यालयों आदि के केंद्र बनते जा रहे हैं। दिल्ली में पीतमपुरा, रोहिणी, पंजाबीबाग, आनंद विहार, विवेक विहार; गुजरात में सूरत, भड़ौंच, बड़ौदा, आनंद, नांडियार, अहमदाबाद; कलकत्ता में हावड़ा, दमदम, पानिहाटी व भाटपार आदि उपनगरों के उदाहरण हैं। जब कोई छोटा पृथक नगर महानगरों के विकास के साथ-साथ अस्तित्व में आता है, तो इसे उपग्राही नगर कहा जाता है। दिल्ली में शाहदरा, अहमदाबाद में साबरमती, बम्बई में कल्याण व जयपुर में सांगनेर आदि नगर उपग्राही नगरों की श्रेणी में रखे जा सकते हैं।
Question : स्वामीनाथन समिति द्वारा दिये गए राष्ट्रीय जनसंख्या नीति के प्रारूप में लिंग संबंधी मुद्दों पर प्रमुख संस्तुतियां क्या हैं।
(1994)
Answer : राष्ट्रीय जनसंख्या नीति का प्रारूप बनाने के लिए डॉ. एम-एस- स्वामीनाथन की अध्यक्षता में गठित समिति द्वारा लिंग संबंधित मुद्दों पर की गई प्रमुख संस्तुतियां निम्नलिखित हैं-
Question : भारत के किन क्षेत्रों को अकाल पीड़ित चुना गया है? इस चुनाव का आधार क्या है?
(1998)
Answer : भारत की यह विडम्बना ही है कि एक तरफ जहां इसके कुल क्षेत्रफल के 12 प्रतिशत भाग में 60 सें.मी. से भी कम वर्षा होती है, वहीं दूसरी तरफ 8 प्रतिशत भाग में 250 से.मी. से भी ज्यादा वर्षा होती है। 1962 में सिंचाई आयोग ने उन क्षेत्रों को अकाल पीड़ित क्षेत्र चुना, जिन क्षेत्रों में वर्षा 10 सें.मी. से कम होती है और इस वर्षा का भी 75 प्रतिशत उन स्थानों को 20 साल में नहीं प्राप्त होता है। इसके अलावा, इन क्षेत्रों में सिंचाई की व्यवस्था फसल क्षेत्र के 30 प्रतिशत हिस्से से भी कम क्षेत्र में होती है।
भारत का एक तिहाई भाग सूखाग्रस्त है। इन क्षेत्रों को हम तीन भागों में बांट सकते हैं-
Question : भारत के वृहत नगरों का नाम बतलाइए और उनकी विशिष्ट समस्याओं का विवरण दीजिए।
(1998)
Answer : भारत के छः शहरों दिल्ली, मुंबई, चेन्नई, कलकत्ता, हैदराबाद तथा बंगलौर को वृहत नगर (Maga City) के अंतर्गत रखा जाता है, जिनकी जनसंख्या 50 लाख से अधिक है। अधिकाधिक जनसंख्या के बसने के चलते इन शहरों में कई तरह की नगरीय समस्याएं उत्पन्न हो जाती हैं। क्षेत्रफल कम होने तथा जनसंख्या अधिक होने से इन नगरों का जनसंख्या घनत्व काफी अधिक होता है। इससे कई तरह की स्वास्थ्यपरक समस्याओं का जन्म होता है। इतनी बड़ी जनसंख्या के लिए जन-सुविधाओं के विकास तथा कचरा एवं अन्य उत्सर्ज्य पदार्थों के निष्पादन में काफी मुश्किलें आती हैं। कुप्रबंध के चलते इन क्षेत्रों में बीमारियों के प्रसार की प्रबल संभावना बनी रहती है। इतनी बड़ी जनसंख्या के लिए रोजगार का प्रबंधन भी एक वृहद समस्या है। जिन लोगों को रोजगार नहीं मिल पाता है, वे आपराधिक कार्यों में लिप्त हो जाते हैं, जिससे इन क्षेत्रों में रोज हत्या, बलात्कार, लूटमार आदि की घटनाएं होती हैं। गांवों से शहरों की ओर पलायन बढ़ने से ग्रामीण कृषि भी कुप्रभावित हुई है, जिसका सीधा असर देश की अर्थव्यवस्था पर पड़ता है।
Question : भारत सरकार ने आदिवासी क्षेत्रों के विकास के लिए क्या उपाय किए हैं?
(1997)
Answer : भारत सरकार का कल्याण मंत्रालय आदिवासी विकास व कल्याण हेतु संपूर्ण नीति निर्माण एवं उसके क्रियान्वयन तथा समन्वय के लिए महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है। इस मंत्रालय द्वारा आदिवासियों के विकास के लिए निम्नलिखित योजनाएं चलायी गई हैं-
केंद्र द्वारा प्रायोजित योजनाएं: केंद्र द्वारा प्रायोजित योजनाओं में निम्नलिखित योजनाएं चलायी गई हैं-
राज्य की योजनाएं: राज्य की ओर से निम्नलिखित क्षेत्रों में योजनाएं चलायी गई हैं-
शिक्षाः मैट्रिक पूर्व छात्रवृत्ति, आवास, अनुदान, छात्रावास, निःशुल्क पुस्तकों की सुविधा, स्टेशनरी, वर्दी तथा दोपहर का भोजन।
आर्थिक विकासः कृषि कार्यों के लिए बीज, खाद आदि पर सब्सिडी, कुटीर उद्योग को बढ़ावा देना, पुनर्वास, संचार, पशुपालन, उद्यान विज्ञान, मत्स्य पालन, नहर से सिंचाई तथा मृदा संरक्षण आदि।
स्वास्थ्य, आवासीय तथा अन्यः इसके तहत आवास, पीने का पानी, चिकित्सा तथा जन-स्वास्थ्य, सामाजिक एवं सांस्कृतिक गतिविधियां एवं स्वैच्छिक संस्थाओं को सहायता देना प्रमुख है। इन उपरोक्त विकास कार्यक्रमों का सकारात्मक प्रभाव आदिवासियों पर पड़ा है।
Question : ‘उत्तराखंड’ को भारत में एक पृथक पर्वतीय प्रदेश बनाने की मांग क्यों है?
(1997)
Answer : उत्तर प्रदेश के आठ पर्वतीय जिलों नैनीताल, अल्मोड़ा, पिथौरागढ़, पौड़ी गढ़वाल, चमोली, टिहरी गढ़वाल, देहरादून और उत्तर काशी को मिलाकर पृथक उत्तराखंड राज्य बनाने की मांग के समर्थन में आंदोलन किया जाता रहा है।
वर्ष 1991 की जनगणना के अनुसार उत्तराखंड का कुल क्षेत्रफल 51 हजार 125 वर्ग कि.मी. तथा आबादी 58लाख 74 हजार है। भौगोलिक स्थिति के कारण यहां की जनसांख्यिकीय और आर्थिक स्थितियां आरंभ से ही मैदानी क्षेत्रों की अपेक्षा अलग तरह की रही हैं। यहां की तीन चौथाई जनता आज भी गरीबी की रेखा से नीचे है।
यहां की जमीन कृषि के लिए उपयुक्त नहीं है तथा यहां उद्योग-धंधों का भी प्रसार नहीं किया गया। स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद से ही इस क्षेत्र का निरंतर दोहन किया गया, लेकिन यहां विकास प्रक्रिया को बढ़ावा नहीं दिया गया। पर्वतीय क्षेत्रों के लिए सरकार ने सदैव लुभावने वादे किए, लेकिन व्यवहार में इसका लाभ पहाड़ियों को नहीं मिला। उन लोगों की सांस्कृतिक परंपराओं पर भी लगातार प्रहार हुए।
वर्ष 1994 में वहां लागू की गई आरक्षण की नीति ने वहां काफी असंतोष पैदा किया। वहां अन्य पिछड़े वर्गों की संख्या मात्र दो प्रतिशत ही है, जबकि उनके लिए 27 प्रतिशत आरक्षण की व्यवस्था की गई। इससे निश्चित रूप से स्थानीय हितों की बलि होती। ऐसे में वहां के लोगों में तीव्र असंतोश उभरा और वे पृथक उत्तराखंड राज्य की मांग करने लगे। यह एक सीमा क्षेत्र है, इसलिए इसके हितों की उपेक्षा राष्ट्रिहत में नहीं होगी।