Question : समन्वित ग्रामीण ऊर्जा पद्धति से आप क्या समझते हैं? ऊर्जा के कम से कम तीन नए स्रोतों को भी लिखिए।
(1991)
Answer : समन्वित ग्रामीण ऊर्जा पद्धति का उद्देश्य क्षेत्रीयता पर आधारित सूक्ष्म स्तरीय समन्वित ग्रामीण ऊर्जा परियोजना का निर्माण एवं योजना के तहत इसका सही उपयोग करना है। इसके अलावा इस ऊर्जा पद्धति का प्रमुख उद्देश्य ग्रामीण क्षेत्रों में ऊर्जा की आवश्यकता की पूर्ति करना, समेकित विकास को बढ़ावा देना एवं इन क्षेत्रों में लोगों के जीवनस्तर को सुधारना भी है। रसोई बनाने, ग्रामीण क्षेत्रों में प्रकाश एवं ऊष्मा की पूर्ति में परम्परागत व गैर-परम्परागत दोनों ऊर्जा स्रोतों का उपयोग महत्वपूर्ण माना जा रहा है। परम्परागत स्रोतों के तहत ग्रामीण विद्युतीकरण, पेट्रोलियम उत्पाद की आपूर्ति, तेल, ईंधन, लकड़ी एवं कोक आते हैं। नवीन व पुनउर्पयोग किए जाने वाले ऊर्जा स्रोतों के तहत सौर फोटो वोल्टेइक (SPV), पवन ऊर्जा, सूक्ष्म व गुरु जल विद्युत ऊर्जा आदि आते हैं। ऊर्जा के ये स्वरूप पर्यावरण संरक्षण के अनुकूल, प्रदूषण रहित एवं वन विकास में अत्यन्त सहायक होते हैं। ऊर्जा के उपरोक्त स्रोतों का उपयोग सुदूरवर्ती, दूरदराज व पर्वतीय क्षेत्रों में विस्तृत रूप से किया जा सकता है। आई.आर.एस.-I ‘ए’ हिमालय जैसे दुर्गम क्षेत्रों का भी अध्ययन करने में सक्षम है। आई.आर.एस. आंकड़ों की सहायता से राष्ट्रीय पेयजल कमीशन की मदद से पेयजल प्राप्ति के क्षेत्र में 85.95 प्रतिशत तक सफलता हासिल की गई है। उपग्रह द्वारा भेजे गए चित्र के प्राप्त होने के एक सप्ताह के अंदर भू-विशेषज्ञों द्वारा प्रभावित क्षेत्रों का एक मानचित्र तैयार किया जाता है। सुदूर संवेदी द्वारा भूगर्भ में स्थित खनिज पदार्थों की भी सफलतापूर्वक जानकारी उपलब्ध करायी जा सकती है। इतना ही नहीं, आई.आर.एस. की सहायता से किसी क्षेत्र में जल की स्थिति, उसकी फसलों के उत्पादन का आकलन, चारागाह से संबंधित आंकड़े, भविष्य में उपयोग में लाए जाने के लिए सफल फसल पद्धति, बंजर भूमि आदि से संबंधित आंकड़े भी उपलब्ध कराए जा सकते हैं।
Question : भारत में भूमि संसाधनों की पहचान तथा मानचित्रण में हाल में हुए विकास की जांच कीजिए।
(1991)
Answer : उपग्रह के क्षेत्र में नवीनतम विकास भारत में भू-संसाधन की पहचान एवं मानचित्रण के लिए काफी उपयोगी सिद्ध हो रहा है। इस उद्देश्य हेतु उपयोग किए जाने वाले पारम्परिक उपाय, यथा सतह व वायवीय सर्वेक्षण आदि काफी खर्चीले होते थे। अब इन नए उपायों का उपयोग सुदूर संवेदन की सहायता हेतु किया जा रहा है, जो अपेक्षाकृत बहुत जल्द एवं सही जानकारी उपलब्ध कराता है। आई.आर.एस. (भारतीय सुदूर संवेदी) द्वारा राष्ट्रीय पेयजल आयोग को उसके उद्देश्यों को पाने में काफी सहायता दी जा रही है। इसकी सहायता से आयोग को देश में पेयजल आपूर्ति के उद्देश्यों को 90 प्रतिशत तक प्राप्त करने में सफलता मिली है, जबकि पारंपरिक स्रोतों द्वारा जल संसाधनों के क्षेत्रों का पता लगाने में केवल 45 प्रतिशत ही सफलता मिलती थी। उपग्रह द्वारा लिए गए चित्रों द्वारा ऐसी भूगर्भीय संरचनाओं का पता लगाया जा सकता है, जिसे पारंपरिक सर्वेक्षण द्वारा पता लगाना सामान्यतः संभव नहीं है। उपग्रह की सहायता से पृथ्वी के किसी क्षेत्र विशेष का बहुआयामी प्रेक्षण किया जाता है, ताकि उस क्षेत्र में मृदा व इससे संबंधित अन्य संसाधनों का विस्तृत व सही अध्ययन किया जा सके।
Question : स्थान के साथ घनत्व में परिवर्तन को समझाते हुए भारत में जनसंख्या के वितरण को प्रभावित करने वाले कारकों को समझाइए।
(1991)
Answer : भारत में जनसंख्या वितरण से संबंधित प्रमुख कारक हैं- मृदा की उर्वरता, भौतिक कारक, यथा- नदी तट, शहरों में बाजार का प्रभाव, किसी क्षेत्र में कच्चे मालों का उत्पादन एवं इसकी उपलब्धता आदि। सामान्य रूप से किसी क्षेत्र की जनसंख्या वहां की मृदा उर्वरता पर निर्भर करती है। जनसंख्या का घनत्व भारत के ऐसे क्षेत्रों में अपेक्षाकृत अधिक है, जहां जल आसानी से उपलब्ध है। इस आधार पर जनसंख्या घनत्व पूर्व से पश्चिम की ओर क्रमशः कम होता जाता है। उदाहरण के तौर पर, पश्चिम बंगाल अधिक जनसंख्या घनत्व वाला क्षेत्र है, जबकि पंजाब व हरियाणा के मैदानी क्षेत्रों में जनसंख्या घनत्व अपेक्षाकृत कम है। भारत में कम जनसंख्या घनत्व वाले क्षेत्र हैं-उत्तर का उच्च पर्वतीय क्षेत्र, उत्तर-पूर्वी सीमांत के मानसूनी जंगलीय क्षेत्र एवं पश्चिमी राजस्थान एवं गुजरात के कच्छ तक विस्तृत शुष्क भू-क्षेत्र। इसके अलावा, भारत में जनसंख्या के वितरण के लिए अन्य उत्तरदायी कारक तथा सामाजिक परिस्थिति से संबंधित कारक भी हैं।
Question : भारत में खाद्य तेल के उत्पादन और आपूर्ति का परीक्षण कीजिए। इसके मूल सस्य क्या हैं और इनकी पैदावार कहां की जाती है? क्या हमें खाद्य तेल का आयात करना पड़ता है।
(1989)
Answer : वनस्पति तेल व घी अत्यावश्यक उपभोक्ता वस्तुएं हैं। आवश्यक वस्तु अधिनियम, 1955 के अंतर्गत सरकार ने तेल व वनस्पति घी को आवश्यक वस्तुएं घोषित किया हुआ है। मुख्य तिलहन हैं- मूंगफली, सरसों, रेपसीड, सूरजमुखी, नाइगर, सीसेम व सोयाबीन। रेपसीड और सरसों की कृषि मुख्यतः उत्तर प्रदेश, राजस्थान, मध्य प्रदेश, असम व हरियाणा में होती है। दूसरी ओर मूंगफली पश्चिमी और दक्षिण भारत में होती है। मूंगफली का सर्वाधिक उत्पादन गुजरात में होता है। 1985-86 में मूंगफली और रेपसीड व सरसों का उत्पादन क्रमशः 5.5 मिलियन टन व 2.6 मिलियन टन था। वर्तमान में देश में 94 से अधिक वनस्पति इकाइयां हैं, जिनकी वार्षिक क्षमता 15.33 लाख टन की है। वर्ष 1986 में देश में विलायक विधि से तेल निकालने वाले कारखानों की संख्या 615 थी, जिनकी वार्षिक क्षमता 7.18 लाख टन थी। संगठित क्षेत्र में तेल की पेराई करने वाली लगभग 230 इकाइयां हैं, जिनकी वार्षिक क्षमता 50 लाख टन है। तेजी से बढ़ती जनसंख्या के लिए खाद्य तेल की मांग की पूर्ति आंतरिक साधनों से पूरी नहीं हो पा रही है। इसलिए प्रतिवर्ष काफी मात्र में खाद्य तेल का आयात किया जा रहा है। 1988-89 में देश में 727 करोड़ रुपए मूल्य के खाद्य तेल का आयात किया गया था। इस वर्ष तेल के वास्तविक उत्पादन का अनुमान 15.5 लाख टन व उत्पादन लक्ष्य 15.65 लाख टन था। तिलहनों के उत्पादन में वृद्धि हेतु केंद्र सरकार ने एक तकनीकी मिशन भी चलाया है, जिससे कि आयात को कम किया जा सके।
Question : राष्ट्रीय जल ग्रिड की अवधारणा और उसके आशय समझाइए।
(1990)
Answer : राष्ट्रीय जल ग्रिड की संकल्पना केंद्रीय जल एवं शक्ति आयोग (Central Water and power Commission) द्वारा विभिन्न नदियों के बीच अंतर संबंध स्थापित करने के उद्देश्य से की गई। इसके अंतर्गत जल के बारे में व्यापक अध्ययन किया जा रहा है। इसमें निम्नलिखित उद्देश्य निहित हैं-
I.प्रायद्वीपीय नदियों के अतिरिक्त जल का वैकल्पिक उपयोग करना। राज्य की आवश्यकताओं को पूरा करने के बाद शेष जल का हस्तान्तरण जल की कमी वाले राज्यों में करना।
II.अतिरिक्त जल का हस्तान्तरण प्राथमिकता के आधार पर सूखाग्रस्त क्षेत्रों में करना।
III.हिमालय और प्रायद्वीपीय नदियों का विकास करना।
IV.जल की कमी वाले क्षेत्रों में कुछ नदियों में बाढ़ आ जाती है और इस प्रकार काफी जल व्यर्थ चला जाता है। इस जल को व्यर्थ होने से बचाने के लिए नदियों में अन्तर्संबंध स्थापित करके कृषि कार्यों के लिए उपलब्ध कराने की व्यवस्था करना।
राष्ट्रीय जल ग्रिड से भारत में लगभग 22 लाख मि. घनमीटर से भी अधिक अतिरिक्त जल का उपयोग हो सकता है तथा देश को 35 मि. हेक्टेयर भूमि की अतिरिक्त सिंचाई व 40 मि. किलोवाट अतिरिक्त विद्युत उत्पादन प्राप्त हो सकता है। लेकिन इसके लिए नदी प्रकमों में उचित स्थानों पर जल भण्डारण की पर्याप्त व्यवस्था नितांत आवश्यक है। इन उद्देश्यों की प्राप्ति के लिए निम्नलिखित योजनाएं बनायी गई हैं- गंगा कावेरी लिंक नहर, ब्रह्मपुत्र गंगा लिंक नहर, नर्मदा से पश्चिमी राजस्थान तक लिंक नहर, चम्बल से एक नहर, उड़ीसा के तटवर्ती इलाकों व आंध्र प्रदेश के लिए महानदी से लिंक नहर आदि।
Question : नहर सिंचाई के हानिकारक प्रभावों पर अपने विचार व्यक्त कीजिए।
(1990)
Answer : भारत को प्रकृति ने पर्याप्त जल संसाधन प्रदान किए हैं तथा अपनी विशाल जल क्षमता का उपयोग करने के लिए देश ने अनेक जलाशयों व नहरों का निर्माण किया है। देश की कुल सिंचित भूमि का लगभग 40 प्रतिशत भाग नहरों द्वारा सींचा जाता है। यद्यपि नहरें सिंचाई का काफी सस्ता व सहज उपलब्ध साधन हैं, लेकिन अनेक कारणों से इन्हें अहितकर भी कहा जाता है। कुछ प्रमुख कारण निम्नलिखित हैं-
Question : भारत के विभिन्न क्षेत्रों के अल्प विकास के भौगोलिक-आर्थिक कारण क्या हैं?
(1998)
Answer : भारत में क्षेत्रीय असमानता के पीछे भौगोलिक-आर्थिक कारण निहित हैं। भारत की भौगोलिक विविधता यहां की जलवायु, संसाधन, परिवहन, उद्योग व कृषि को प्रभावित करती है।
भारत के कई हिस्से या तो रेगिस्तान हैं या पहाड़ी हैं। इन क्षेत्रों में जलवायु परिवहन, उद्योगों की स्थापना या कृषि के लिए प्रतिकूल अवस्थाओं को जन्म देती है। इसी कारण राजस्थान, जम्मू व कश्मीर तथा पूर्वोत्तर राज्यों में विकास की गति अवरूद्ध हुई है। इसके विपरीत, जिन स्थानों में अनुकूल जलवायु तथा संसाधनों की उपलब्धता है, वहां काफी विकास हुआ है। कच्चा माल यथा- तेल, कोयला आदि उद्योगों के स्थानीयकरण में अहम भूमिका निभाते हैं। भारत में पायी जाने वाली मिट्टी तथा जल की उपलब्धता यहां की कृषि को प्रभावित करती है। रेगिस्तानी, दलदली या पहाड़ी क्षेत्र की मिट्टियां कृषि के लिए अनुपयुक्त होती हैं। इसके अलावा, मानसून की असामान्य प्रकृति यहां की कृषि को प्रभावित करती है। अधिक वर्षा वाले क्षेत्र तथा जलोढ़ मिट्टी के क्षेत्रों में कृषि जोर-शोर से की जा रही है, परंतु कम वर्षा या वर्षाविहीन क्षेत्रों में कृषि व्यवस्था चरमरा गई है तथा यहां सूखे का प्रकोप भी देखने को मिलता है।
इसके अलावा, सरकार की आर्थिक नीतियां भी क्षेत्रीय असमानता के लिए जिम्मेदार हैं। वह उन्हीं स्थानों में अपना ध्यान केंद्रित करती है, जहां विकास हो चुका है या विकास की ज्यादा संभावना है। इसके फलस्वरूप पिछड़े क्षेत्र पिछड़े ही रह जाते हैं। भारत की हरित क्रांति इसका एक उदाहरण है। इसके अलावा, कृषि व उद्योगों के विकास में वैज्ञानिक पद्धतियों व उपकरणों का अभाव है, जिससे इनकी उत्पादकता प्रभावित होती है और क्षेत्रीय असमानता बढ़ती है।
Question : नर्मदा नदी घाटी परियोजना ने सामान्य लोगों का ध्यान क्यों आकर्षित किया है?
(1997)
Answer : देश की सबसे बड़ी और सर्वाधिक विवादास्पद नर्मदा घाटी परियोजना नर्मदा नदी से संबंधित है। नर्मदा, अमरकंटक की पहाड़ी से निकल कर मध्य प्रदेश, महाराष्ट्र व गुजरात में लगभग 1312 कि.मी. बहने के बाद खंभात की खाड़ी में गिरती है। नर्मदा के जल का अपक्षय रोकने और उसका विकास कार्यों में इस्तेमाल करने के लिए केंद्र सरकार ने संबद्ध राज्य सरकारों तथा विश्व बैंक की सहायता से ‘नर्मदा घाटी परियोजना’ के तहत छोटे-बड़े अनेक बांध बनाने की योजना है। बड़े बांधों में मध्य प्रदेश के खंडिवा में ‘नर्मदा सागर’ तथा गुजरात के नवगांव में ‘सरदार सरोवर’ बांध बनायी जाएगी। इससे अनेक प्रकार के लाभ मिलेंगे। सिंचाई, पेयजल, विद्युत ऊर्जा, रोजगार वृद्धि, पर्यटन विकास, मत्स्य पालन, सूखा बचाव एवं औद्योगिक विकास को बढ़ावा मिलेगा। लेकिन यहां के अनेक क्षेत्र डूब जाएंगे। जैव विविधता की क्षति होगी। जनजातियों के अनेक सांस्कृतिक एवं धार्मिक स्थल डूब जाएंगे। 248 गांव जलमग्न हो जाएंगे, जिनका पुनर्वास करना कठिन होगा। इसलिए कई पर्यावरणविद विस्थापन, डूब क्षेत्र, पर्यावरण, स्वास्थ्य तथा पुनर्वास जैसे मुद्दों को लेकर लंबे समय से इस परियोजना का विरोध कर रहे हैं, जिनमें बाबा आम्टे, मेधा पाटकर, आशीष कोगरी जैसे लोग प्रमुख हैं। दूसरी ओर, गुजरात के लोगों ने इसके निर्माण को निरंतर जारी रखने के लिए आंदोलन किया है, ताकि गुजराती हितों की पूर्ति हो सके। इस योजना से संबद्ध राज्यों में भी आपसी सहमति नहीं है तथा इसके लिए केंद्र सरकार को ही नहीं, बल्कि सर्वोच्च न्यायालय को भी हस्तक्षेप करना पड़ा है।