Question : पर्यावरण प्रदूषण से आप क्या समझते हैं? विभिन्न प्रकार के प्रदूषणों को बताते हुए यह समझाइए कि भारत में मानव के स्वास्थ्य पर उनका क्या प्रभाव पड़ता है?
(1992)
Answer : भविष्य की चिन्ता किए बिना मानव लगातार विकास के नाम पर प्रकृति और पर्यावरण से विवेकहीन बर्ताव किए जा रहा है। जंगलों की अंधाधुंध कटाई, वायु व जल में विषैली हानिकारक गैसों व अवशिष्ट पदार्थों का उत्सर्जन, नाभिकीय कचरा, औद्योगीकरण, शहरीकरण व जनसंख्या में तेजी से वृद्धि आदि कुछ ऐसे मानवीय कृत्य हैं, जिनसे पर्यावरण के संतुलन में व्यवधान उत्पन्न हो जाता है। इसे ही प्रदूषण कहा जाता है। वातावरण का बढ़ता तापमान, बाढ़, सूखा, दुर्लभ जंतु व वनस्पतियों की विलुप्त होती प्रजातियां, ओजोन परत में छिद्र आदि के लिए पर्यावरण प्रदूषण ही उत्तरदायी हैं। पर्यावरण प्रदूषण निम्न प्रकार के हो सकते हैं- वायु प्रदूषण, जल प्रदूषण, स्थल प्रदूषण, विकिरण प्रदूषण व ध्वनि प्रदूषण।
प्रदूषण का प्रकार | मानव पर प्रभाव |
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(i)वायु प्रदूषण | सिरदर्द, बेहोशी, एग्जीमा, मुहासे, त्वचा कैंसर, आनुवांशिक संरचना में परिवर्तन, यकृत गुर्दे, मस्तिष्क संबंधी रोग तथा दमा व श्वसन संबंधी रोग। |
(ii)जल प्रदूषण | हैजा, पीलिया, दस्त, टायफॉइड, स्नायू संबंधी रोग। |
(iii)स्थल प्रदूषण | जीविका और खाद्य सुरक्षा में व्यवधान। |
(iv)विकिरण प्रदूषण | चर्म कैंसर, फोड़ा, रक्त कोशिकाओंमें परिवर्तन, विकलांगता, मोतियाबिंद आदि। |
(v)ध्वनि प्रदूषण | बहरापन, उच्च रक्त चाप, अनिद्रा, तुतलाना, मानसिक तनाव, सिरदर्द आदि। |
Question : अरावली एवं हिमालय दोनों क्षेत्रों के व्यापक निर्वनीकरण से उत्पन्न अनेक पर्यावरणीय समस्याओं का विवरण कीजिए।
(1991)
Answer : अरावली व हिमालय क्षेत्र में विस्तृत वनों का विनाश पर्यावरण के लिए अत्यंत हानिकारक सिद्ध हो रहे हैं। इस वन विनाश का दूरगामी व तात्कालिक प्रभाव सूक्ष्म पर्यावरण (Micro-climate) पर पड़ेगा। ज्ञातव्य है कि वनस्पति युक्त भू-भाग का तापमान वनस्पति रहित क्षेत्रों की अपेक्षा काफी कम होता है। अतः स्पष्ट है कि वन विनाश से इन क्षेत्रों में तापमान में वृद्धि हो जाएगी। वनस्पति विनाश के कारण मृदा भी प्रभावित होगी अर्थात इन क्षेत्रों में मृदा अपरदन बढ़ेगा। जम्मू व कश्मीर के पर्वतीय क्षेत्र में वन विनाश के फलस्वरूप मृदा अपरदन के कारण बाढ़ की भी आशंका उत्पन्न हो सकती है। पर्यावरण असंतुलन के कारण श्रीनगर के पहाड़ी क्षेत्रों में भू-स्खलन भी संभव है। वन विनाश के कारण वन्य प्राणी अनाधिकार प्रवेश करने वाले लोगों (Poachers) का आसानी से शिकार हो जाएंगे। साथ ही, अनेक विलुप्त होते जा रहे वन्य प्राणियों के लिए अस्तित्व का खतरा भी उत्पन्न हो जाएगा। इसके अलावा, वन विनाश का एक अन्य खतरनाक पहलू है- सार्वत्रिक तापन, (Global Warming) जिसके फलस्वरूप हिमालयन ग्लेशियर के पिघलने का खतरा उत्पन्न हो सकता है। दूसरी ओर, अरावली पर्वतशृंखलाएं, थार मरुस्थल के रेतीले, आंधी वाले क्षेत्र तथा राजस्थान के पूर्वी उर्वर क्षेत्र के मध्य दीवार का काम करती हैं तथा इस रेतयुक्त वायु के झोंके से उर्वर पूर्वी क्षेत्र की रक्षा करती हैं। अतः अरावली पर्वतीय क्षेत्र में वन विनाश का पूर्वी राजस्थान के उर्वर क्षेत्रों में प्रतिकूल प्रभाव पड़ेगा।
Question : पर्यावरण प्रदूषण कितने प्रकार का होता है? भारत में औद्योगीकरण की वृद्धि के कारण यह किन-किन स्थानों पर हुआ है?
(1988)
Answer : औद्योगीकरण के कारण पर्यावरण तेजी से प्रदूषित होता जा रहा है तथा जल, थल, वायु, मानव, वन, जीव-जंतु सभी पर औद्योगीकरण से उत्पन्न प्रदूषण का खतरनाक प्रभाव पड़ रहा है। पर्यावरण प्रदूषण के लिए चार घटक मुख्य रूप से उत्तरदायी हैं- वायु प्रदूषण, जल प्रदूषण, ध्वनि प्रदूषण और रेडियोधर्मिता। पर्यावरण प्रदूषण का प्राकृतिक भौतिक संसाधन एवं जीवन के गुणों से संबंधित मूल्यों (जैसे सांस्कृतिक व सौन्दर्य विषयक मूल्य आदि) पर गहन प्रभाव पड़ता है। कारखानों की चिमनियों से निकलने वाली गैसें तथा मोटर वाहनों के धुएं, कोयले व तेल से चलने वाले शक्ति केंद्र आदि आसपास के वातावरण को प्रदूषित करते हैं। इनसे निकलने वाले धुएं में कार्बन मोनोऑक्साइड की विद्यमान मात्र शरीर पर दुष्प्रभाव डालती है। मोटर वाहनों में मुख्यतः एक्जॉस्ट पाइप, ब्रेक केस, कारब्यूरेटर एवं ईंधन की टंकी प्रदूषण के मुख्य स्रोत हैं। मथुरा के तेल शोधक कारखाने से निकलने वाले धुएं व हानिकारक गैसों तथा दिल्ली में मोटर वाहनों द्वारा छोड़े जाने वाले धुएं से पर्यावरण निरंतर प्रदूषित हो रहा है। समुद्री जहाजों द्वारा प्रतिवर्ष भारी मात्र में तेल समुद्र के पानी में छोड़ा जाता है, जिससे हजारों समुद्री जीव-जंतु मर जाते हैं। इसके अलावा उद्योगों द्वारा नदियों में फेंका जाने वाला कचरा नदियों के जल को प्रदूषित कर देता है। पौधों पर छिड़का जाने वाला डी.डी.टी. पाउडर भी वर्षा के जल के साथ नदियों में पहुंच जाता है तथा अंततः समुद्री जल को प्रदूषित करता है। हरिद्वार से लेकर कलकत्ता तक गांगा नदी का जल औद्योगिक व महानगरीय कचरे के कारण प्रदूषित हो गया है। खेतों में कीटाणुनाशक दवाओं का प्रयोग मृदा प्रदूषण का मुख्य कारण है। मानव मल-मूत्र के खेती में निरंतर उपयोग के अनेक घातक परिणाम होते हैं। उद्योग धंधों की मशीनों, स्थल व वायु परिवहन साधनों तथा मनोरंजन के साधनों (ध्वनि विस्तारक आदि) के कारण ध्वनि प्रदूषण भी तेजी से बढ़ा है, जिससे सिरदर्द, बेहोशी, बहरेपन आदि की घटनाएं तेजी से बढ़ रही हैं। इसके अलावा, परमाणु ईंधन व परमाणु बमों के परीक्षण भी रेडियोधर्मिता को बढ़ा रहे हैं। रेडियोधर्मी धूल सांस द्वारा मानव शरीर में पहुंच कर भावी पीढ़ी को विकलांग व रोगी बना सकती है। इस प्रकार, आज पर्यावरण को प्रदूषण से बचाने के लिए अत्याधुनिक तकनीक की सर्वाधिक आवश्यकता महसूस की जा रही है। यद्यपि औद्योगिक परियोजनाओं के पर्यावरण पर प्रभाव की कुछ विशेष क्षेत्रों में पूरी छानबीन के साथ जांच की गई है तथा उसको नियंत्रित करने के लिए आवश्यक कदम भी उठाए गए हैं, लेकिन ये सभी कदम पर्याप्त नहीं साबित हुए हैं।
Question : भू-संरक्षण की आवश्यकता क्यों है? भारत में भूमि का संरक्षण करने के लिए सरकार ने प्रमुख रूप से क्या-क्या कदम उठाए हैं?
(1990)
Answer : भारत में कृषि कार्यों में लगभग 75 प्रतिशत कार्यशील जनसंख्या संलग्न है, लेकिन विभिन्न कारणों से भूमि की उर्वरता में कमी आती जा रही है। पानी और वायु के साथ मिट्टी के कटाव, बहाव अथवा उड़ने के ढंग को मृदा का अपरदन कहते हैं। मिट्टी की ऊपरी सतह, जिसमें पोषक तत्व रहते हैं, के कट जाने से भूमि की उर्वरता में कमी आती है। अपरदन पर वर्षा, भूमि की ढाल, भूमि की किस्म, वनस्पति, जुताई और फसलों का अभाव, ढाल पर जुताई आदि का सीधा प्रभाव पड़ता है। भूमि को विविध क्षरण शक्तियों द्वारा कटने-बहने से बचाने और उसकी उर्वरता बढ़ाने को भूमि संरक्षण या मृदा संरक्षण कहते हैं। मृदा क्षरण को रोकने के लिए निम्न उपाय किए जा सकते हैं-
I.वृक्षारोपण कार्यक्रम द्वारा वर्षा की बूंदे सीधी मृदा पर नहीं पड़ती हैं और भूमि क्षरण रोका जा सकता है।
II.घास के मैदानों को चारागाह न बनाकर, पशुओं को घास काट कर खिलाना चाहिए। इससे घास की जड़ें भूमि को जकड़े रहती हैं।
III.मेढ़ बनाकर व भूमि को समतल बनाकर मृदा क्षरण रोका जा सकता है।
IV.पौधों की पक्तियां भूमि की ढाल व वायु की दिशा के विपरीत रखनी चाहिए।
V.ढालू जमीन पर सीढ़ीनुमा खेत बनाकर जल प्रवाह को रोका जा सकता है।
मृदा संरक्षण के लिए सरकारी स्तर पर प्रथम योजना से ही प्रयास आरंभ हो गए थे। यद्यपि देश में मृदा संरक्षण संबंधी गतिविधियों के वैचारिक स्वरूप में कोई परिवर्तन नहीं आया है, लेकिन मिट्टी के कटाव, उर्वरक शक्ति में कमी की प्रक्रिया को कम करना, अनुपजाऊ जमीन को खेती योग्य बनाना आदि मृदा संरक्षण के कई कार्यक्रम शुरू किए गए। प्रथम योजना में मृदा संरक्षण हेतु 1.6 करोड़ रुपए व्यय किए गए और 10 क्षेत्रीय अनुसंधान व प्रशिक्षण केंद्र खोले गए। 1953 में केंद्रीय मृदा संरक्षण डिवीजन की स्थापना की गई। दूसरी योजना में इस कार्यक्रम पर 20 करोड़ रुपए व्यय किए गए तथा 300 लाख हेक्टेयर भूमि का मृदा संरक्षण की दृष्टि से सर्वेक्षण किया गया। तीसरी योजना में मृदा संरक्षण हेतु 78 करोड़ रुपए व्यय किए गए तथा 44.87 लाख हेक्टेयर भूमि का सर्वेक्षण किया गया। चौथी व पांचवीं योजना में मृदा संरक्षण पर क्रमशः 161 करोड़ रुपए व 215 करोड़ रुपए व्यय किए गए, जबकि छठी योजना में मृदा एवं जल संरक्षण पर 434 करोड़ रुपए का व्यय निर्धारित किया गया। अरुणाचल प्रदेश, मिजोरम, असम, मेघालय, मणिपुर, त्रिपुरा व नागालैण्ड में स्थानान्तरित कृषि (Shifting Cultivation) पर नियंत्रण के लिए विशेष योजना शुरू की गई। अखिल भारतीय मृदा एवं भूमि उपयोग सर्वेक्षण (All India Soil and Land Use Survey) कार्यक्रम के तहत पठारी जमीन का संरक्षण, झूम खेती पर रोक, अपवाह क्षेत्र का चित्रण, वर्गीकरण व जलसंभर (Watershed) की प्राथमिकताओं को सुनिश्चित करने के लिए समुचित प्रयास किए जा रहे हैं।
Question : गंगा कार्यवाही योजना के अंतर्गत उठाए गए विभिन्न उपायों तथा उनका गंगा-जल के गुण पर पड़े प्रभाव का वर्णन कीजिए।
(1994)
Answer : प्राचीनकाल से ही हिंदू संस्कृति में गंगा को एक पवित्र नदी के रूप में माना जाता रहा है। आज भी हिन्दू मान्यता वाले लोगों में गंगा-पूजन का प्रचलन है। लेकिन आज की गंगा के पानी में अनेक गंदे नालों का पानी और कारखानों से निकले विषैले कचरे आकर मिलते हैं। गंगा के जल से इस प्रदूषण को समाप्त करने के लिए वर्ष 1985 में गंगा की स्वच्छता के लिए गंगा कार्ययोजना शुरू की गई। इसके अंतर्गत नदी में बहने वाली गंदगी को निकाल कर तथा किसी अन्य स्थानों पर इकट्ठा कर उसे ऊर्जा के रूप में परिवर्तित करना है। इस योजना के तहत गंदे नाले के पानी को गंगा में जाने से रोकने व कल-कारखानों से निकले दूषित पदार्थों को गंगा में गिरने से रोकने के लिए विभिन्न प्रयास किए गए हैं। इसी संदर्भ में गंगा के किनारे बसे स्थानों में शौचालय के निर्माण पर जोर, विद्युत शवदाह गृह निर्माण, पंपिंग स्टेशनों एवं जल-मल त्यजन संस्थानों का नवीकरण करने की योजना है।
वर्ष 1985 में उपरोक्त योजनाओं को लागू करने के लिए गंगा प्राधिकरण की स्थापना की गई थी। सरकारी आंकड़ों के अनुसार कार्ययोजना के तहत प्रतिदिन 873 लीटर गंदे कचरे को गंगा में मिलने से रोकना था, जबकि अब तक केवल 543 मिलियन लीटर गंदे कचरे को गंगा में गिरने से रोकने एवं 297 मिलियन लीटर गंदगी को साफ करने के लिए ही सभी आवश्यक सुविधाओं की व्यवस्था हो पायी है। अब तक स्वीकृत की गई 261 परियोजनाओं में से 211 परियोजनाएं पूरी की जा चुकी हैं, जिनमें 67 ऐसी परियोजनाएं हैं, जो गंदे नालों के बहाव के रास्ते को बदलने से संबंधित हैं। 15 परियोजनाएं मलोपचार से संबंधित, 41 निम्न लागत वाली स्वच्छता से संबंधित, 26 विद्युत शवदाह गृह से संबंधित, 35 परियोजनाएं नदी के मुहानों से संबंधित एवं 27 जैव तकनीक के इस्तेमाल से संबंधित परियोजनाएं हैं।
वर्ष 1995 में यह परियोजना अपने गठन के दसवें वर्ष को पूरी कर चुकी है। वास्तविकता तो यह है कि इस परियोजना पर अब तक करोड़ों रुपए खर्च हो चुके हैं, फिर भी गंगा के जल की गुणवत्ता में कोई सुधार नहीं हुआ है। आज भी प्रदूषण फैलाने वाली गंदगी गंगा में प्रवाहित हो रही है। इस परियोजना को पूरी दृढ़इच्छाशक्ति के साथ लागू करने पर ही कोई सुधार संभव है।
Question : उत्तरी भारत के पारिस्थितिक सन्तुलन को जंगलों की कटाई किस प्रकार नष्ट कर रही है?
(1998)
Answer : हिमालय स्थित जंगलों की कटाई ने उत्तरी भारत के पारिस्थितिकीय संतुलन को काफी हद तक प्रभावित किया है। इसने उत्तरी भारत के वातावरणीय कारकों, मिट्टी, नदियों तथा खेतों एवं वनस्पतियों पर बुरा प्रभाव डाला है। जंगलों की कटाई से सबसे बड़ा खतरा तो यह उत्पन्न हो गया है कि बड़े-बड़े चट्टान टूट-टूट कर नदी की तलहटी में जमा हो रहे हैं, जिससे भूस्खलन की घटनाओं में वृद्धि हुई है। साथ ही इससे नदियों में बाढ़ आने की आशंका भी बढ़ गई है। मालपा में हुआ भूस्खलन जंगलों की इसी कटाई का एक भयंकर नतीजा माना जा रहा है, जहां पर चट्टानों के खिसकने तथा नदियों में आयी बाढ़ के कारण जान-माल की काफी क्षति हुई थी। जंगलों की कटाई ने जमीन को अनुर्वर तथा बंजर बना दिया है। मिट्टी द्वारा नमी को बनाए रखने की शक्ति में लगातार कमी आती जा रही है। कई तरह के जीव-जंतुओं की नस्लों का सफाया होने की आशंका उत्पनन हो गई है। कुल मिलाकर इसने उत्तरी भारत के पारिस्थितिकीय संतुलन को बिगाड़ दिया है, जिससे जनजीवन पर भविष्य में खतरे के बादल मंडराने लगे हैं।