कार्यपालिका और न्यायपालिका के बीच शक्तियों को अलग करने और न्यायपालिका की स्वतंत्रता को बनाए रखने के लिए न्यायाधीशों के तीसरे मामले (1998) (Third Judges Case) में कोलेजियम सिस्टम की स्थापना की गई थी। लेकिन सुप्रीम कोर्ट द्वारा हाल ही में लिए गए कुछ फैसलों ने कोलेजियम प्रणाली की खामियों को उजागर किया है। पहली घटना उत्तराखंड के मुख्य न्यायाधीश की पदोन्नति के लिए पुनर्विचार से संबंधित है, जबकि दूसरा पदोन्नति के लिए चयनित उच्च न्यायालय के दो मुख्य न्यायाधीशों को बदलने के कोलेजियम के निर्णय से संबंधित है।
कोलेजियम प्रणाली के मुद्दे
कोलेजियम प्रणाली का स्पष्ट दोष इस तथ्य से सामने आता है कि भारत दुनिया का एकमात्र लोकतांत्रिक देश है, जहां न्यायपालिका ही अपने न्यायाधीशों का चयन करती है। न्यायमूर्ति कर्णन जैसे उदाहरण भी हैं, जो सर्वोच्च न्यायालय के फैसलों को खुली चुनौती देते हैं और न्यायालय की अवमानना करते हुए न्यायपालिका की कोलेजियम प्रणाली की निहित कमियों को दिखाते हैं। हाल ही में भारत सरकार ने न्यायपालिका के काम में पारदर्शिता सुनिश्चित करने के लिए 99वें संवैधानिक संशोधन के माध्यम से राष्ट्रीय न्यायिक नियुक्ति आयोग (NJAC) को लाने की कोशिश की। सुप्रीम कोर्ट ने न्यायिक स्वतंत्रता के लिए खतरा बताते हुए इसे रद्द कर दिया था। यह तर्क त्रुटिपूर्ण और अदूरदर्शी दोनों है।
एनजेएसी की प्रस्तावित संरचना
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आगे की राह
विचारणीय तथ्य भारतीय न्यायपालिका की विडंबना यह है कि जो न्यायाधीश भारतीय लोकतंत्र के मूर्त रूप का प्रतिनिधित्व करते हैं, वे स्वयं एक अलोकतांत्रिक प्रक्रिया के माध्यम से चुने जाते हैं। यहां तक कि भारत के पूर्व मुख्य न्यायाधीश न्यायमूर्ति वेंकटचलैया की अध्यक्षता में ‘संविधान के कामकाज की समीक्षा के लिए राष्ट्रीय आयोग’ (NCRWR) ने भी राष्ट्रीय न्यायिक आयोग के गठन की सलाह दी थी। लंबित मामलों की बढ़ती संख्या के परिदृश्य में कोलेजियम प्रणाली को बनाए रखने और अपारदर्शिता एवं गैर जवाबदेही बनाम संवैधानिक स्वायत्तता एवं शक्तियों के पृथक्करण के दावे के बारे में बहस, दोनों ही स्वांग हैं और सार्वजनिक हित में नहीं हैं। |