आंध्र प्रदेश और पश्चिम बंगाल सरकार ने अपने-अपने राज्यों में मामलों की जांच के लिए सीबीआई को दी गई ‘‘सामान्य सहमति" वापस ले ली। एजेंसी के शीर्ष अधिकारियों के बीच उत्पन्न हुए विवाद से पैदा आंतरिक उथल-पुथल और केंद्र सरकार द्वारा सीबीआई का उपयोग विपक्ष को चुप कराने के आरोपों की पृष्ठभूमि में हुआ है। इससे सीबीआई के एक ‘पिंजडे़ में बंद राजनीतिक तोता’ होने की पुरानी बहस फिर से शुरू हो गई।
सामान्य सहमति और उसका उद्देश्य
सीबीआई ‘दिल्ली विशेष पुलिस स्थापना अधिनियम’ द्वारा शासित है। यह अधिनियम निर्धारित करता है कि सीबीआई का अधिकार क्षेत्र केवल केंद्र सरकार के विभागों और उसके कर्मचारियों के आचरण पर है। इसलिए सीबीआई के लिए राज्य सरकार के कर्मचारियों या किसी भी राज्य में हिंसक अपराध से संबंधित मामले की जांच करने के लिए संबंधित राज्य की सहमति की आवश्यकता होती है। यह सहमति किसी एक मामले के आधार पर दी जाती है या ‘‘सामान्य सहमति’’ प्रदान की जाती है, ताकि सीबीआई को भ्रष्टाचार के मामलों में अपनी जांच करने में मदद मिल सके। लगभग सभी राज्यों ने ऐसी सामान्य सहमति दी है।
तत्काल प्रभाव और दीर्घकालिक प्रभाव
सामान्य सहमति को वापस लेने का अर्थ है कि सीबीआई इन दोनों राज्यों में तैनात केंद्र सरकार के किसी भी अधिकारी या एक गैर सरकारी व्यक्ति के खिलाफ बिना मामला-विशिष्ट सहमति प्राप्त किए कोई भी नया मामला दर्ज नहीं कर सकेगी। हालांकि सीबीआई के पास उन पुराने मामलों की जांच करने की शक्ति होगी, जब उसे सामान्य सहमति प्राप्त थी। इसके अलावा देश में कहीं भी मामले दर्ज किए जाते हैं, जिनमें आंध्र प्रदेश और पश्चिम बंगाल निवासी शामिल हैं तो सीबीआई के अधिकार क्षेत्र को इन राज्यों में लागू करने की अनुमति मिलेगी।
इस निर्णय के दीर्घकालिक प्रभाव और दूरगामी परिणाम होंगे। भारत जैसी लोकतांत्रिक व्यवस्था में जहां सहकारी संघवाद वक्त की जरूरत है सहमति का वापस लेना, केंद्र सरकार पर राज्य सरकारों के विश्वास की कमी को प्रदर्शित करता है। संस्थागत स्वायत्तता के साथ-साथ सार्वजनिक हित को बनाए रखने के लिए भ्रष्टाचार से संबंधित सीबीआई जांच की निगरानी करने वाले सेवानिवृत्त न्यायाधीशों की ‘जवाबदेही समिति’ नामक पहले के प्रयोग को पुनर्जीवित करने और लागू करने की आवश्यकता है।