‘भारत, गांवों में बसता है, सर्वप्रथम गांवों को आत्मनिर्भर होना होगा’ महात्मा गांधी का यह दृष्टिकोण भारत की उस नींव पर आधारित है जो कि ग्रामीण उत्पादक और उत्पादनों के आत्मनिर्भरता की ओर इशारा करता है। कृषि और कृषि कर्म जैसे प्राथमिक कार्यों में संलग्न कृषक ही ग्रामीण आत्मनिर्भरता के प्रमुख केन्द्र बिन्दु हैं। कृषि कर्म, खेती और वानिकी के माध्यम से खाद्य और अन्य सामान के उत्पादन से संबंधित है, इसके अंतर्गत पशुपालन, मत्स्य पालन जैसे अन्य कार्य भी सम्मिलित हैं। यह एक ऐसी प्रक्रिया है, जिसने सभ्यताओं के उदय में महत्वपूर्ण भूमिका अदा की। शायद इसीलिए भी भारत को कृषि प्रधान देश कहा जाता है, जहां की 54.6% प्रतिशत आबादी आज भी किसी न किसी रूप में कृषि एवं संबद्ध कार्यों पर निर्भर है। हालांकि, औद्योगिकीकरण की शुरुआत के बाद से कृषि का महत्व कम हो गया है।
अतः इस तथ्य के बावजूद कि कृषि दुनिया की आबादी के एक-तिहाई से अधिक लोगों को रोजगार उपलब्ध कराती है, कृषि उत्पादन, सकल विश्व उत्पाद का पांच प्रतिशत से भी कम हिस्सा बनता है। इस आधार पर कहा जा सकता है कि ‘कृषि’ का इतिहास जितना पुराना है उतना ही कृषकों का भी। कृषक, यानि कृषि कर्म में लगे हुए व्यक्ति। कृषक या किसान की श्रेणी में उन सभी को रखा जा सकता है, जो स्वयं की जमीन पर अथवा पट्टे (समेंम) पर ली गई जमीन पर कृषि करते हों या कृषक मजदूर हों। देश के विकास में अहम भूमिका निभाने एवं जीवन की मूलभूत आवश्यकताओं की पूर्ति करने में सक्षम होने की वजह से किसान होना गर्व एवं सम्मान का विषय था किन्तु कुछ दशकों से देश में किसानों द्वारा की जा रही आत्महत्याएं इस व्यवसाय की कुछ और ही हकीकत बयां करती हैं। अकेले 2004 में ही 18241 किसानों की मौत हुई, जो कि एक वर्ष की समयावधि में किसानों द्वारा की गई आत्महत्याओं का सबसे विशाल आंकड़ा है।
स्रोतः एनसीआरबी |
किसान आत्महत्या के यह भयावह आंकड़े यह सोचने-समझने के लिए मजबूर करते हैं कि आखिर किसानों की इस दुखद स्थिति के पीछे कारण क्या हैं? हम देखते हैं कि सम्मिलित क्षेत्र (महाराष्ट्र, तेलंगाना, मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़ और कर्नाटक) में किसान आत्महत्या की दर सर्वाधिक रही है। क्षेत्र विस्तार के हिसाब से यह क्षेत्र भारत का मध्य और दक्षिणी क्षेत्र है, भारतीय कृषि बहुत हद तक मानसून पर निर्भर है तथा मानसून की विफलता के कारण नकदी फसलें नष्ट होना किसानों द्वारा की गई आत्महत्याओं का मुख्य कारण माना जाता रहा है। जैसे महाराष्ट्र का विदर्भ क्षेत्र कपास और सोयाबीन जैसी नकदी फसलों के लिए जाना जाता है, जहां पर अत्यधिक नुकसान मानसून की विफलता के कारण होता है। किन्तु अलग-अलग अध्ययनकर्ताओं एवं शोधार्थियों ने इसके अलावा भी आत्महत्या के विभिन्न कारण बताएं हैं जिनमें सूखा, कीमतों में वृद्धि, कृषि लागत में वृद्धि, ऋण का अत्यधिक बोझ, आनुवांशिक रूप से संशोधित फसलें, सरकारी नीतियां एवं व्यक्तिगत मुद्दे महत्वपूर्ण स्थान रखते हैं। एनसीआरबी की 2014 की रिपोर्ट में किसान आत्महत्याओं के लिए प्रमुख कारण गरीबी, संपत्ति विवाद, बैंक द्वारा दिवालिया या ऋणग्रस्तता, पारिवारिक समस्याएं, कृषि संबंधी अन्य मामले, विवाह संबन्धित मामले, बीमारी, नशीली दवाओं का सेवन और सामाजिक प्रतिष्ठा का ह्रास मुख्य कारणों में शामिल रहे।
किसानों के आत्महत्या के विभिन्न कारण ‘ऋणग्रस्तता’ सबसे प्रबल कारक के रूप में सामने आया। अकेले महाराष्ट्र में ही देखें तो 73.2% (1163 में से 857) ऋणग्रस्तता एवं 59.1% (1135 में से 671 किसान) पारिवारिक समस्याओं द्वारा आत्महत्याएं हुईं। संपूर्ण पुरुष किसान आत्महत्याओं में सर्वाधिक ऋणग्रस्तता (21.5%) तथा पारिवारिक समस्याएं (20%) रहीं। वही संपूर्ण महिला किसान आत्महत्याओं में से कृषि संबंधी मामले 101 (21.4%), पारिवारिक समस्याएं 97 (20.6%), विवाह संबंधी मामले 58 (12.37%) और ऋणग्रस्तता 51 (10.8%) मुख्य कारण रहे। राज्य आधारित किसान आत्महत्याओं के दृष्टिगत ऋणग्रस्तता से महाराष्ट्र एवं तेलंगाना का प्रतिशत क्रमशः 33.4% एवं 23.0% रहा। |
देश में किसानों की स्थिति गंभीर है फिर भी यह नहीं कहा जा सकता कि इसमें बदलाव संभव नहीं है। भारत सरकार द्वारा किसानों के लिए समय-समय पर कई योजनाएं और कृषि से संबंधित कई नीतियां बनाई जाती रही हैं जिनके सकारात्मक परिणाम भी देखने को मिलते हैं, जैसे- केन्द्र प्रायोजित मिशनः राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा मिशन, सतत कृषि पर राष्ट्रीय मिशन, कृषि विस्तार एवं प्रौद्योगिकी पर राष्ट्रीय मिशन, बागवानी के समन्वित विकास का मिशन। केन्द्रीय क्षेत्र की योजनाएं: राष्ट्रीय फसल बीमा कार्यक्रम, कृषि सहयोग पर एकीकृत योजना, कृषि विपणन के लिए एकीकृत योजना, कृषि जनगणना, आर्थिक एवं सांख्यिकी पर एकीकृत योजना, सचिवालय आर्थिक सेवा। राज्य योजना स्कीमः राष्ट्रीय कृषि विकास योजना।