चुनाव लोकतात्रिक शासन का आधार है। स्वतन्त्र और निष्पक्ष चुनाव व्यवस्था लोकतंत्र को स्थायित्व और परिपक्वता प्रदान करती है । काफी समय से देश में चुनाव सुधारों की मांग की जाती रही । चुनाव के दौरान अपनाए जाने वाले भ्रष्ट तरीकों को समाप्त करने का प्रश्न सरकार के समक्ष काफी समय से विचाराधीन रहा। पिछले वर्षों में हुए अनुभवों ने चुनाव सुधार की तात्कालिकता पर जोर दिया। चुनाव आयोग ने भी कुछ सुझाव सरकार के पास भेजे।
राजनैतिक दलों के नेताओं तथा अन्य प्रबुद्ध नागरिकों ने भी अनेक सुधारों की ओर सरकार का ध्यान आकृष्ट किया। सुधारों की आवश्यकता और उनके स्वरूप के बारे में अनेक मंचों से समय-समय पर ठोस विचार सामने आते रहे हैं। वर्षों से चुनावी सुधारों की जरूरत के बारे में बातें हो रही हैं। इस मुद्दे पर अनेक समितियां गठित की जाती रही हैं, जैसे कि गोस्वामी समिति (1990), वोहरा समिति (1991), इंद्रजीत गुप्ता समिति (1998), चुनाव आयोग (1999), संविधान समीक्षा के लिए राष्ट्रीय आयोग (2001)।
चुनाव सुधारों में शामिल विषय निम्नवत हैं
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चुनाव सुधार को लेकर चुनाव आयोग के पास बहुत लम्बी सूची है जिसे लागू करवाने के लिए यह कई वर्षों से प्रयास किया जा रहा है। चुनाव आयोग की सिफारिशों को 3 वर्गों में बांटा जा सकता है। पहला सुझाव चुनाव प्रणाली को साफ-सुथरा बनाने के लिए सुधार, जिसके अंतर्गत अपराधों से दागदार राजनीतिज्ञों के चुनाव लड़ने पर रोक, धन-बल पर अंकुश लगाने, नकारा और संदिग्ध राजनीतिक दलों का पंजीकरण रद्द करने की शक्तियां चुनाव आयोग को प्रदान करने से संबंधित है।
दूसरा सुझाव चुनाव आयोग को अधिक सशक्त, अधिक स्वतंत्र (जैसे कि कोलिजियम के माध्यम से चुनाव आयुत्तफ़ों की नियुक्ति, वरीयता के आधार पर मुख्य चुनाव आयुक्त के रूप में उनकी पदोन्नति तथा उन्हीं की तरह महाभियोग द्वारा पद से हटाए जाने के विरुद्ध संरक्षण) बनाने के सुधार से संबंधित है जबकि तीसरा सुझाव चुनाव प्रणाली को अधिक सक्षम बनाने वाले सुधारों से संबंधित है (जैसे कि पोलिंग बूथ पर हुए मतदान का रहस्योद्घाटन रोकने के लिए टोटालाइजर मशीनों का प्रचलन इत्यादि)।''
सबसे बड़ी बात तो यह है कि चुनाव आयोग राजनीतिक पार्टियों के परिचालन को नियमित करने की शक्तियों के लिए काफी समय से दबाव डाल रहा है।
वर्तमान में सभी राजनीतिक दलों का 70 प्रतिशत चंदा अज्ञात स्रोतों से आ रहा है। यहां तक कि विधि आयोग ने भी इन संदिग्ध दानकर्ताओं के बारे में चिंता भी व्यक्त की है। 2014 के लोकसभा चुनाव लड़ने के लिए राजनीतिक पार्टियों द्वारा 500 करोड़ से भी अधिक का चंदा जुटाया गया था।
सरकार ने हाल ही के बजट में पहले ही यह कदम उठाया है कि राजनीतिक पार्टियां किसी विशेष दानकर्त्ता से 2000 रुपए से अधिक चंदा नहीं ले सकतीं। चुनावी हुंडियों (इलैक्शन बांड्स) की मोदी सरकार की अवधारणा का संबंध इतना चुनावी सुधारों से नहीं जितना काले धन को समाप्त करने से है। चुनाव आयोग सदा से ही चुनावों के सरकारी वित्त पोषण के बारे में कुछ चिंतित रहा है क्योंकि यह इस बात पर अनुरोध करता है कि इसके साथ ही साथ राजनीति के अपराधीकरण पर अंकुश लगाने, वित्तीय पार्दर्शिताएवं भ्रष्टाचार नियंत्रण के लिए कठोर कानूनों के लिए भी सुधार किए जाएं।
प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी और पूर्व राष्ट्रपति प्रणव मुखर्जी भी लोकसभा और विधानसभा चुनाव एक साथ करवाए जाने की बातें कहते रहे हैं। इससे चुनाव पर होने वाले सरकारी खर्च में कमी आएगी। इस काम के लिए केन्द्र और राज्य सरकारों के साथ-साथ चुनाव आयोग को भी मिल-बैठ कर समाधान ढूंढना होगा। आिखर स्वतंत्रता प्राप्ति से दो दशक बाद तक तो पूरे देश में चुनाव एक साथ होते रहे हैं। केवल 70 के दशक में ही अलग-अलग समय पर चुनाव करवाने का सिलसिला शुरू हुआ। अब तो कहीं न कहीं चुनाव चलते ही रहते हैं इसलिए यह एक चिंता का विषय बन गया है। ई-वी-एम- मशीनों की कार्यकुशलता पर भी सवाल उठ रहे हैं।