भारत के सर्वाेच्च न्यायालय ने इस्लाम धर्म में 1400 साल पुरानी तीन तलाक की प्रथा पर 22 अगस्त, 2017 को ऐतिहासिक फैसला सुनाते हुए ‘एक साथ, एक बार में तीन तलाक' पर रोक लगा दी है। एक ऐतिहासिक फैसले में सुप्रीम कोर्ट ने 3:2 के बहुमत से कहा कि मुसलमानों के बीच इस तरह के तलाक का अभ्यास 'शून्य', 'अवैध' और 'असंवैधानिक' है।
स्मरणीय है कि ‘तीन तलाक महिलाओं के अधिकारों का हनन है अथवा नहीं' के मुद्दे पर मई 2017 में पांच न्यायाधीशों की शीर्ष संवैधानिक पीठ द्वारा 11 मई से 18 मई तक छः दिनों की लगातार सुनवाई कर फैसला सुरक्षित रख लिया गया था। सर्वाेच्च न्यायालय की इस पांच सदस्यीय पीठ में प्रधान न्यायाधीश जगदीश सिंह खेहर, न्यायाधीश कुरियन जोसेफ, न्यायाधीश यू यू ललित, न्यायाधीश अब्दुल नजीर और न्यायाधीश रोहिंग्टन एफ- नरीमन शामिल हैं। यह संयोग ही है कि सभी न्यायाधीश अलग-अलग धर्मों से संबंधित हैं, जिसमें न्यायाधीश कुरियन जोसेफ ईसाई, आरएफ नरीमन पारसी, यूयू ललित हिन्दू, अब्दुल नजीर मुस्लिम और इस बेंच की अध्यक्षता कर रहे सुप्रीम कोर्ट के प्रधान न्यायाधीश जगदीश सिंह खेहर सिख हैं।
जैसा कि विदित है कि इस्लामी कानून ‘तलाक अल-सुन्ना’ और ‘तलाक अल-बिदत’ को मानता है। उत्तरार्द्ध को दो रूपों में विभाजित किया गया था- एक, तलाक की घोषणा तीन बार और दूसरा, तलाक की घोषणा क्रमवार निश्चित अंतराल पर।
तलाक-ए-अहसनः इस्लाम के कानूनविदों का मानना है कि तलाक-ए-अहसन में शौहर, बीवी को तब तलाक दे सकता है जब उसका मासिक चक्र न चल रहा हो, इसे तूहरा की समयावधि कहा जाता है। तत्पश्चात तीन महीने की समयावधि जिसे इद्दत कहा जाता है, वह तलाक वापस ले सकता है। यदि ऐसा नहीं होता तो इद्दत के बाद तलाक को स्थायी मान लिया जाता है। लेकिन इसके बाद भी यदि यह जोड़ा चाहे तो भविष्य में शादी कर सकता है, इसलिए इस तलाक को अहसन यानि सर्वश्रेष्ठ कहा जाता है।
तलाक-ए-हसनः इसकी प्रक्रिया भी तलाक-ए-अहसन की तरह है लेकिन इसमें शौहर अपनी बीवी को तीन अलग-अलग बार तलाक कहता है। इस व्यवस्था में बहस तब शुरू होती है जब तीन बार तलाक कहने की प्रक्रिया एक ही बार में पूरी कर दी जाती है और तलाक सुनिश्चित हो जाता है। तलाकशुदा जोड़ा फिर से शादी तभी कर सकता है जब बीवी किसी दूसरे व्यक्ति से शादी कर ले और फिर उसे तलाक दे। इस प्रक्रिया को हलाला कहते हैं।
हलाला प्रथाः एक ऐसी कुव्यवस्था के रूप में सामने आई कि यदि शौहर और बीबी वापस साथ आना भी चाहें तो भी किसी तीसरे से विवाह के उपरांत तलाक के बिना संभव नहीं होगा। कई मामले तो इस तरह के भी मिलते रहे हैं कि हलाला के लिए किए गए निकाह में तीसरे व्यक्ति ने तलाक ही नहीं दिया। या फिर यह व्यवस्था रुपए देकर सिर्फ एक रात के लिए पूरी की गई।
तलाक उल बिदतः जब शौहर एक बार में, एक ही समय में तीन तलाक कहकर बीवी को तलाक दे देता है। तलाक उल बिदत कहा जाता है। उच्चतम न्यायालय का फैसला इसी तलाक-उल-बिदत से संदर्भित है। मई 2017 में सुरक्षित रखे गए इस फैसले को 22 अगस्त, 2017 को पीठ के प्रधान न्यायाधीश ने पढ़ा।
तीन तलाक को ऐतिहासिक दृष्टिकोण से देखें तो 15 साल पहले 2002 में मुस्लिम औरत शमीम आरा ने उन्हें दिए गए ‘तीन तलाक (इंस्टेंट ट्रिपल तलाक)’ को चुनौती दी थी और सुनवाई के बाद सुप्रीम कोर्ट ने तलाक रद्द कर उनके हक में फैसला सुनाया था। हालांकि इस मामले की तरफ आम जनमानस का ध्यानाकर्षण तब हुआ जब सर्वाेच्च न्यायालय ने अत्तफ़ूबर 2015 में कर्नाटक की एक महिला फूलवती के हिंदू उत्तराधिकार कानून के तहत पैतृक संपत्ति में अपने हिस्से के मामले में प्रकाश एंड अदर्स वर्सेस फूलवती एंड अदर्स केस की सुनवाई के दौरान स्वतः संज्ञान लेते हुए एक पीआईएल दायर करने का फैसला सुना दिया।
यह फैसला जस्टिस अनिल दवे और जस्टिस एके गोयल ने सुनाया। इसी दौरान एक अलग मामले में शायरा बानो की एक अर्जी के बाद तीन तलाक सुिखर्यों में आ गया। उन्होंने ने अपनी अर्जी में तर्क दिया था कि तीन तलाक न इस्लाम का हिस्सा है और न ही आस्था का। उन्होंने मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड के नियमों का भी हवाला दिया और कहा कि उसमें भी इसे गुनाह बताया गया है। शायरा बानो (काशीपुर, उत्तराखंड) के अलावा भी आफरीन रहमान (जयपुर, राजस्थान), अतिया साबरी (सहारनपुर, उत्तर प्रदेश), इशरत जहां (कोलकाता, पश्चिम बंगाल) ने भी तीन तलाक के िखलाफ अलग-अलग याचिकाएं दायर की थी।
सर्वाेच्च न्यायालय ने मुस्लिम महिलाओं के िखलाफ एक हथियार के रूप में इस्तेमाल किए जा सकने वाली तीन तलाक जैसी असंवैधानिक और निरर्थक प्रथा को समाप्त कर एक ऐतिहासिक फैसला दिया है जिससे समाज को एक नई दिशा मिलेगी। हमें यह भी पता है कि कम से कम 22 ऐसे इस्लामी देश हैं जिन्होंने तीन बार तलाक बोलने की प्रथा को पूरी तरह खत्म कर दिया है। इनमे पाकिस्तान, बांग्लादेश, तुर्की, टड्ढूनीशिया और अल्जीरिया जैसे देश भी शामिल हैं।