प्रश्न : क्या असफलता के लिए गलत रणनीति जिम्मेवार है?

उत्तर :

संघ लोक सेवा आयोग के आंकड़ें बताते हैं कि सिविल सेवा परीक्षा में अंतिम रूप से चयनित छात्रों में 150 से अधिक अपने प्रथम प्रयास में ही सफल हो गये जो कि कुल सफल छात्रों का 15.8 प्रतिशत है। यह आंकड़ा कमोवेश एक समान ही रहता है। ये आंकड़ें यह दर्शाते हैं देश की कठिनतम परीक्षा होने के बावजूद इसमें सफल होना और वह भी प्रथम प्रयास में कठीन भले हो पर असंभव तो नहीं ही है। आखिर ऐसा क्यों होता है कि केवल 15 प्रतिशत प्रत्याशी ही अपने प्रथम प्रयास में सफल होते हैं और शेष को कई प्रयासों की जरूरत पड़ती है तथा कई तो सारे प्रयासों के बावजूद भी सफलता का स्वाद नहीं चख पाते? आखिरकार शेष 85 प्रतिशत सफल छात्रों को तो एक से अधिक प्रयासों की जरूरत पड़ जाती है। दूसरी ओर, यूपीएससी के आंकड़ों की एक सच्चाई यह भी है कि इसमें अंतिम रूप से सफल होने वाले छात्रों की प्रतिशतता काफी कम होती है, लगभग 0.004 प्रतिशत। हिंदी माध्यम में तो आंकड़े और भी चौकाने वाले हैं। अंतिम सफल छात्रों में हिंदी माध्यम का आंकड़ा तो आजकल 100 भी पार नहीं कर पा रहा है।आखिर ऐसा क्यों है?

वस्तुतः आईएएस परीक्षा में पहली बार शामिल होने वाले छात्रों में अधिकांश संख्या वैसे होते हैं जो महज दिखाने के लिए ही आईएएस परीक्षा के लिए आवेदन करते हैं और उसमें शामिल होते हैं। कई छात्र ऐसे भी होते हैं जो परीक्षा को समझने के लिए इसमें प्रवेश लेते हैं। यहां, इन पर चर्चा करना हमारा उद्देश्य नहीं, क्योंकि न तो वे परीक्षा के प्रति गंभीर होते हैं और न आपको उन्हें गंभीरता से लेने की जरूरत है और न हम यहां उन्हें गंभीरता से ले रहे हैं। पर आईएएस परीक्षा में पहली बार शामिल होने वाले बहुत सारे छात्र गंभीर भी होते हैं और उन सभी की तमन्ना भी होती है कि पहली बार में ही आईएएस बन जायें। भला कौन ऐसा नहीं चाहेगा, पर चाहने से क्या होता है? सच तो यही है कि कुल सफल छात्रों में 15 प्रतिशत ही प्रथम प्रयासी होते हैं शेष लगभग 85 प्रतिशत को दोबारा, तिबारा कमर कसने की जरूरत होती है। पर यहां विचारणीय विषय यह है कि आखिरकार प्रथम प्रयास में सफल होने वाले उन 15 प्रतिशत छात्रों में ऐसा क्या है जो उन्हें शेष से अलग कर देता है और असंभव को संभव बना देते हैं? या फिर बहुसंख्यक छात्र अपने सारे प्रयास गंवाने के बावजूद सफलता का स्वाद नहीं चख पाते हैं? ऐसे छात्रों की भी कमी नहीं है जो प्रारंभिकी से पहले ही मुख्य परीक्षा की तैयारी तो कर लेते हैं परंतु उनके कोचिंग नोट्स खुलते ही नहीं, अर्थात उन्हें कभी भी मुख्य परीक्षा देने का मौका मिलता ही नहीं।  वहीं जो 15000 छात्र मुख्य परीक्षा देते हैं उनमें महज 2500 ही साक्षात्कार तक पहुंचते हैं और इनमें भी लगभग 1000 ही अंतिम रूप से सफल होते हैं। अर्थात इस पूरी प्रक्रिया में 4 लाख छात्र बाहर हो जाते हैं और 1000 से 1200 ही मसूरी की प्रशासनिक प्रशिक्षण यात्रा पर जा पाते हैं। इनमें भी हाल के वर्षों में हिंदी माध्यम के सफल छात्रों की संख्या तो काफी कम हो गयी है। 

यदि 4 लाख की बात न करें तो कम से कम यह तो मानना ही पड़ेगा कि इनमें से 1 लाख तो गंभीर होते ही हैं जो सिविल सेवक बनने के प्रति गंभीर होते हैं। सच कहा जाये तो इन सभी 1 लाख गंभीर छात्रों में सिविल सेवक बनने की कमोवेश क्षमता होती है और वे बन भी सकते हैं। हिंदी माध्यम के छात्रों पर भी यही लागू होता है। लेकिन कुछ तो ऐसी बात है जिसके कारण हिंदी माध्यम के छात्र अंग्रेजी माध्यम के छात्रों के समान सफल नहीं होते, हालांकि क्षमता के मामले में उनमें कोई कमी नहीं होती। यहां तक कि वे मेहनत भी अधिक करते हैं। इसके बावजूद वे अधिक सफल नहीं हो पाते। कुछ हद तक यूपीएससी की प्रणाली को हम दोष दे सकते हैं पर उसे सुधारना न तो आपके हाथ में है और न ही यह विषय आपके डोमेन में आता है।