Question : ‘लॉर्ड लिटन एवं लॉर्ड रिपन का वायसराय बनना भारतीय राष्ट्रीय आन्दोलन के इतिहास में एक महत्वपूर्ण ऐतिहासिक घटना हुई।’ कथन की सत्यता की जांच कीजिए।
(1992)
Answer : लॉर्ड लिटन के दमनात्मक कदमों ने ब्रिटिश कानूनों को भारत में अलोकप्रिय कर दिया था। इसी समय लॉर्ड रिपन के उदारवादी कदमों ने भारतीय राष्ट्रीय आंदोलन को प्रेरणा प्रदान की। ऐसे समय में जबकि 1876 के अकाल के कारण लाखों लोग भुखमरी के शिकार हो रहे थे। लॉर्ड लिटन ने 1877 में दिल्ली में एक दरबार बुलाया। इस दरबार में यह घोषणा की गई कि रानी विक्टोरिया ने ‘भारत की साम्राज्ञी’ पद को स्वीकार कर लिया है। इस आडम्बरपूर्ण समारोह पर लाखों रुपए खर्च किए गए, जिसका भार भारतीय राजकोष पर ही पड़ा तथा इस कृत्य की विभिन्न लोगों, समुदायों व समाचार-पत्रों ने आलोचना की। लॉर्ड लिटन ने समाचार-पत्रों की आवाज को दबाने के लिए 1878 में वर्नाकुलर प्रेस कानून पारित किया, जिसने आग में घी का काम किया और भारतीयों के मन में विद्रोह की ज्याला जन्म लेने लगी। इसके अलावा, इसी दौरान लॉर्ड लिटन द्वारा उठाए गए कुछ और कदम भी ऐसे थे, जिससे लोगों में ब्रिटिश शासन के विरूद्ध असंतोष में निरंतर वृद्धि हो रही थी और शासक तथा जनता के बीच मतभेद बढ़ते जा रहे थे। 1878 में बनाए गए ‘शस्त्र कानून’ से भारतीयों को अपने पास शस्त्र रखने पर प्रतिबंध लगा दिया गया, लेकिन ‘शस्त्र कानून’ से यूरोपियन को मुक्त रखा गया। अतः इस कानून से राष्ट्रवादियों ने स्वयं को अपमानित महसूस किया। 1883 में लॉर्ड रिपन ने भारत में रहने वाले अंग्रेजों और अन्य यूरोपवासियों के जातीय अहंकार को चोट पहुंचाने वाले ‘इल्बर्ट बिल’ नामक विधेयक को वापस ले लिया। इस विधेयक के प्रावधान के अनुसार, भारत में रहने वाले किसी अंगेज या यूरोपवासी पर भारतीय न्यायाधीश की अदालत में मुकदमा चलाया जा सकता था। भारत में अंग्रेज और भारतीय न्यायाधीशों के बीच समानता स्थापित करने के उद्देश्य से यह विधेयक लाया गया था, किन्तु अंग्रेजों व यूरोपियन के तीव्र विरोध के फलस्वरूप सरकार ने इसे वापस ले लिया। इस बात से राष्ट्रवादियों को यह महसूस होने लगा कि उनके हितों की रक्षा सिर्फ भारतीय ही करने में सक्षम हैं। साथ ही वे यह भी महसूस करने लगे थे कि अपने उद्देश्यों की प्राप्ति हेतु उन्हें एक मजबूत आन्दोलन चलाना होगा। काफी समय से राष्ट्रवादी भारतीय अभिमत का प्रतिनिधित्व करने वाले एक ऐसे अखिल भारतीय संगठन की आवश्यकता भी महसूस कर रहे थे, जो राजनीतिक व आर्थिक स्तर पर एक शक्तिशाली संगठन हो। अतः लॉर्ड लिटन के दमनात्मक कार्य व लॉर्ड रिपन के कुछ उदारवादी कार्य भारतीय राष्ट्रीय आन्दोलन के विकास में किसी न किसी रूप में सहायक रहे।
Question : स्वदेशी आन्दोलन कहां तक ‘बायकॉट’ (बहिष्कार) से संबंधित था? आंदोलन में जनसहभागिता के स्वरूप का विश्लेषण कीजिए।
(1992)
Answer : राष्ट्रीय आन्दोलन के लक्ष्यों और तरीकों को प्रभावित करने व उन्हें परिवर्तित करने में 1905 के बंग-भंग योजना ने उल्लेखनीय भूमिका निभायी। बंगाल विभाजन के पीछे अंग्रेज सरकार का उद्देश्य राष्ट्रीय आन्दोलन को कमजोर बनाना था। भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस व बंगाल के राष्ट्रवादियों ने इसका तीव्र विरोध करते हुए स्वदेशी व बहिष्कार आन्दोलन चलाए। स्वदेशी व बहिष्कार आंदोलनों को इससे पूर्व अमेरिका, आयरलैण्ड व चीन के लोग अपने देशों में अपना चुके थे। राष्ट्रवादियों ने यह महसूस किया कि स्वदेशी व बहिष्कार एक-दूसरे के पूरक हैं तथा एक के अभाव में दूसरा पूरी तरह सफल नहीं हो सकता। इस आन्दोलन के दौरान विरोध के नए-नए तरीके अपनाए गए। लोगों ने सामूहिक रूप से स्वदेशी वस्तुओं को बढ़ावा व विदेशी वस्तुओं का बहिष्कार करना प्रारंभ कर दिया। इसका उद्देश्य इंग्लैंड के आर्थिक हितों को क्षति पहुंचाना था, क्योंकि अधिकांश विदेशी वस्तुएं इंग्लैण्ड से ही आती थीं। एक ओर सार्वजनिक स्थानों पर विदेशी कपड़ों की होली जलायी गई, तो दूसरी ओर स्वदेशी वस्तुओं के उत्पादन व बिक्री पर जोर दिया गया।
बहिष्कार के कार्यक्रम के अन्तर्गत ब्रिटिश कपड़ों, विदेशी सामान, शैक्षिक संस्थान व न्यायालयों आदि का बहिष्कार किया गया लोग समूह बनाकर दुकानों पर जाकर दुकानदारों से विदेशी सामान ने बेचने व ग्राहकों से उन्हें न खरीदने का आग्रह करते थे। विदेशी सामान बेचने या खरीदने वालों से संपर्क समाप्त करने की नीति भी अपनायी गई। धोबियों व नाइयों ने विदेशी वस्तुओं का उपयोग करने वाले लोगों का काम करने से इनकार कर दिया। बहिष्कार के फलस्वरूप वस्तुओं की आपूर्ति करने के लिए स्वदेशी वस्तुओं को अपनाने पर जोर दिया गया। स्वदेशी कुटीर उद्योग, कपड़ा मिल, माचिस फैक्ट्री, साबुन फैक्ट्री आदि खोली गई। इसी क्रम में पी.सी. रे ने बंगाल में रासायनिक फैक्ट्री की स्थापना की। रवीन्द्रनाथ टैगोर ने स्वयं एक स्वदेशी स्टोर स्थापित करने में सहायता की। अल्प समय में ही अनेक राष्ट्रीय विद्यालयों की स्थापना की गई। 1906 में राष्ट्रीय शिक्षा परिषद का गठन किया गया। बंगाल नेशनल कॉलेज तथा बंगाल टेक्निकल इंस्टीट्यूट की स्थापना की गई। तिलक ने महाराष्ट्र में स्वदेशी वस्तु प्रदर्शनी सभा के अध्यक्ष के रूप में अनेक सहकारी केंद्र स्थापित किए। उन्होंने बम्बई मिल मालिकों को धोतियों की आपूर्ति सस्ती दरों पर करने के लिए प्रोत्साहित किया। पूना में एक स्वदेशी बुनकर कंपनी की स्थापना हुई। न्यायालयों का बहिष्कार करते हुए विवादों का निपटारा स्थानीय पंचायतों द्वारा किया जाने लगा। 16 अक्टूबर, 1905 (बंगाल विभाजन) का दिन शोक दिवस के रूप में मनाया गया। इस आन्दोलन में किसान, श्रमिक, मुस्लिम समुदाय, व्यापारी तथा ब्राह्मण धर्मगुरुओं ने भी उत्साह से भाग लिया। स्वदेशी व बहिष्कार आंदोलन केवल वस्तुओं तक ही सीमित नहीं रहे। एक ओर बहिष्कार का अर्थ ब्रिटिश शासन से संबंधित हर वस्तु से हो गया, तो दूसरी ओर स्वदेशी का अर्थ उन सभी वस्तुओं से हो गया, जिनका संबंध भारत से था। शीघ्र ही यह आन्दोलन आजादी की लड़ाई का प्रमुख हथियार बन गया तथा यह पूरे भारत में जनता की राष्ट्रीय भावनाओं को उभारने में सफल रहा।
Question : स्वाधीनता तथा डोमिनियन स्टेटस पर जवाहरलाल नेहरू के विचारों का विश्लेषण कीजिए। लाहौर कांग्रेस द्वारा प्रतिपादित नीति में यह कहां तक प्रतिबिंबित हुए?
(1992)
Answer : दिसंबर 1928 में मोतीलाल नेहरू की अध्यक्षता में सम्पन्न कांग्रेस के कलकत्ता अधिवेशन में कांग्रेस ने स्वतंत्र उपनिवेश (डोमिनियन स्टेटस) के स्वरूप की सरकार की मांग का प्रस्ताव पारित किया। साथ ही कांग्रेस ने घोषणा की कि यदि एक वर्ष के अंदर स्वतंत्र उपनिवेश का शासन नहीं दिया गया, तो वह पूर्ण स्वराज्य की मांग करेगी और इसे प्राप्त करने के लिए जनआंदोलन शुरू करेगी। जवाहरलाल नेहरू व सुभाष चंद्र बोस ने भारत को एक ‘डोमिनियन स्टेट्स’ का दर्जा दिए जाने का विरोध किया। नेहरू कांग्रेसियों से अपेक्षा रखते थे कि वे पूर्ण स्वराज्य के ‘मद्रास प्रस्ताव’ को पूर्ण रूप से क्रियान्वित करें। इसका परिणाम 1929 में लाहौर में संपन्न कांग्रेस अधिवेशन में सामने आया। इस अधिवेशन में जवाहरलाल नेहरू की अध्यक्षता में नेहरू रिपोर्ट (1928) को समाप्त करते हुए डोमिनियन स्टेटस के स्थान पर पूर्ण स्वराज्य का प्रस्ताव पारित हुआ। कांग्रेसियों को स्पष्ट हो गया था कि राष्ट्रकुल सरकार के अधीन डोमिनियन स्टेटस को अधिक दिन तक स्वीकार नहीं किया जा सकता है। इस अधिवेशन में कांग्रेस द्वारा स्वीकृत घोषणा-पत्र में दिल्ली घोषणा-पत्र को समाप्त करते हुए कहा गया कि गोलमेज सम्मेलन से कुछ प्राप्तनहीं होगा। दिसंबर 1929 में डोमिनियन स्टेटस के स्वरूप वाली सरकार देने के लिए दिया गया एक वर्ष का समय समाप्त हो गया। अतः 31 दिसंबर, 1929 को जवाहरलाल नेहरू ने रावी के तट पर तिरंगा फहरा दिया तथा घोषणा की कि यदि अब ब्रिटिश सरकार पूर्ण स्वतंत्रता देने में अधिक समय लगाती है, तो यह मानव व ईश्वर के प्रति एक बहुत बड़ा अत्याचार होगा।
Question : महात्मा गांधी ने सविनय अवज्ञा आंदोलन क्यों चलाया? भारत के विभिन्न भागों में आंदोलन की उग्रता का विश्लेषण कीजिए।
(1992)
Answer : मेरठ षड्यंत्र मामले के सिलसिले में कम्युनिस्ट नेताओं को दण्डस्वरूप जेल भेज दिया गया था। इस घटना से भारतवासियों में काफी आक्रोश पैदा हो गया। गांधीजी को महसूस होने लगा कि देश अब हिंसक क्रांति की ओर शीघ्रता से बढ़ रहा है तथा वे इस बदलती प्रवृत्ति से काफी दुःखी थे। गांधीजी ने अपने राजनीतिक जीवन का लक्ष्य देश को अहिंसा के माध्यम से स्वतंत्र करना बनाया। गांधीजी ने प्रशासनिक सुधारों के उद्देश्य से यंग इंडिया में 11 सूत्रीय प्रशासनिक सुधारों को प्रकाशित किया तथा 2 मार्च, 1930 को लॉर्ड इर्विन को एक पत्र लिखा। लेकिन वायसराय ने उन्हें कोई उत्साहवर्द्धक उत्तर नहीं दिया। अतः जनसाधारण को राष्ट्रीय आन्दोलन से जोड़ने के लिए लगान में कमी, मद्य निषेध, नमक कर समाप्ति, सैनिक व्यय में कमी, राजनैतिक बन्दियों की रिहाई, स्वरक्षा के लिए हथियारों के लाइसेंस आदि प्रश्नों को लेकर गांधीजी ने सविनय अवज्ञा आन्दोलन शुरू कर दिया। यह आंदोलन गांधीजी ने अपनी प्रसिद्ध दांडी यात्रा से शुरू किया। 12 मार्च, 1930 को साबरमती आश्रम से पैदल दांडी यात्रा शुरू करके गांधीजी ने 385 किलोमीटर दूर पश्चिमी समुद्र तट पर पहुंच कर 6 अप्रैल, 1930 को नमक बनाकर नमक कानून तोड़ा। तमिलनाडु में सी. राजगोपालाचारी ने त्रिचनापल्ली से वेदराण्यम तक की यात्रा की। गुजरात के धरसाणा में सरोजिनी नायडू ने नमक के राजकीय डिपो तक सत्याग्रहियों की अहिंसात्मक यात्रा की अगुवाई की। देश भर में लोगों ने हड़तालों, प्रदर्शनों व विदेशी वस्तुओं के बहिष्कार तथा करबन्दी के अभियान में भाग लिया। महिलाओं ने भी इस आन्दोलन में सक्रिय भाग लिया तथा वे जुलूसों व धरनों में पुरुषों के साथ बराबर की सहभागी बनीं। नागालैण्ड की बहादुर नायिका 13 वर्षीय रानी गौंडिल्यू के नेतृत्व में इस आन्दोलन की गूंज और भी तेज हुई। रानी को गिरफ्रतार करके जेल में डाल दिया गया तथा 1947 में आजादी के बाद ही रिहा किया गया। शीघ्र ही यह आन्दोलन उत्तरी-पश्चिमी किनारों तक भी पहुंच गया, जहां इसका नेतृत्व खान अब्दुल गफ्रफार खां ने संभाला हुआ था। एम-एन- राय जैसे लोगों ने समाजवादी विचारों का प्रचार-प्रसार किया। सूर्यसेन ने 1930 में चटगांव बन्दरगाह का शस्त्रगार लुटवा दिया तथा बंगाल में हिंसक कारवाइयों द्वारा ब्रिटिश शासन को परेशान कर दिया। किसानों ने कर न देने का फैसला किया तथा कर्नाटक, तमिलनाडु, बिहार, बंगाल व अवध में किसानों के संगठन बने।
Question : ‘रेलवे ने भारत में वही किया जो अन्यत्र और कहीं किया, इसने परिवहन स्थिति के स्वरूप को बदल कर हस्तशिल्प को यांत्रिक उद्योग में बदलने की गति में शीघ्रता प्रदान की। विवेचन कीजिए।
(1992)
Answer : यूरोपीय महाद्वीप में औद्योगिक क्रांति के फलस्वरूप यातायात व्यवस्था के क्षेत्र में, विशेषकर रेलवे यातायात में महत्वपूर्ण विकास हुआ। रेलवे के विकास ने आधुनिक उद्योगों की स्थापना को व्यापक प्रोत्साहन प्रदान किया। भारत में 16 अप्रैल, 1853 को डलहौजी के प्रयासों से बम्बई व थाना के बीच 34 कि.मी. लम्बी रेल लाइन के रूप में रेलवे यातायात आरंभ हुआ। रेलवे यातायात ने देश के औद्योगीकरण एवम् विकास में महत्वपूर्ण भूमिका अदा की, लेकिन यह कार्य हस्तकला उद्योग की कीमत पर हुआ। वैसे भी ये वस्तुएं विदेशी मशीनों से बनी वस्तुओं से प्रतिस्पर्द्धा करने में असमर्थ थीं, क्योंकि भारतीय वस्तुओं का निर्माण परम्परागत तकनीक के आधार पर होता था। ब्रिटिश वस्तुओं ने गांवों में पहुंच कर परंपरागत ग्रामीण उद्योगों को बंद करने की स्थिति में पहुंचा दिया, जिससे ग्रामीण शिल्पकारों को भारी कठिनाई हुई। शहरी व नगरीय क्षेत्रें पर भी इसका काफी प्रभाव पड़ा। वास्तव में रेल विकास आर्थिक दृष्टिकोण पर आधारित था तथा यह ब्रिटिश प्रशासनिक व्यवस्था की आवश्यकता भी थी। रेलवे विकास का भारत के पार्थक्य व पिछड़ेपन को तोड़ने में दूरगामी प्रभाव पड़ा तथा इसने सामाजिक एकीकरण को भी दृढ़ता प्रदान की। रेल विकास के साथ-साथ बड़े उद्योगों की स्थापना ने ग्रामीण एवं कुटीर उद्योगों को पनपने का अवसर नहीं दिया। लेकिन रेलों ने देश के संपूर्ण सामाजिक, आर्थिक, राजनैतिक, सांस्कृतिक व वैज्ञानिक जीवन में क्रांति उत्पन्न कर दी। आज भारतीय रेल एशिया में सबसे बड़ी व विश्व में चौथे स्थान पर है तथा देश का सबसे बड़ा राष्ट्रीयकृत सार्वजनिक प्रतिष्ठान है। निश्चय ही, वर्तमान में रेल देश के प्राकृतिक संसाधनों के विदोहन को गति प्रदान करने में अग्रणी हैं। भारत की वर्तमान औद्योगिक उन्नति, कृषि विकास और उन्नत सामाजिक व्यवस्था का श्रेय निःसंकोच रेलवे को ही दिया जा सकता है।
Question : 1919 तक हुए सुधारों में स्थानीय स्वायत्त शासन का एक संक्षिप्त इतिहास लिखिए।
(1992)
Answer : 1816-19 में ऐसे अनेक कानून बनाए गए, जिससे स्थानीय शासन को सड़कों, पुलों व सामूहिक विकास संबंधी ग्रामीणोन्मुखी कार्य करने का अधिकार मिल गया। 1865 में मद्रास व बम्बई की सरकारों को भूमि पर कर लगाने के लिए अधिकार दिए गए। मद्रास में नगर निगम की स्थापना की गई। 1870 में लॉर्ड मेयो ने स्थानीय स्वायत्त सरकार की स्थापना पर बल देते हुए उसे शिक्षा, स्वास्थ्य, सफाई परिवहन व अन्य लोक निर्माण संबंधी कार्यों के अधिकार दिए जाने की घोषणा की। 1871 में नगरपालिका अधिनियम पारित किया गया। इस संबंध में महत्वपूर्ण कार्य करने का श्रेय लॉर्ड रिपन को दिया जा सकता है। 1882 में उसने नगरीय व ग्रामीण क्षेत्रें में म्यूनिसपल बोर्ड, जिला बोर्ड व स्थानीय बोर्डों की स्थापना की तथा उन कमियों को ढूंढने का प्रयास किया, जो स्थानीय सरकारों को बाधा पहुंचाते थे। ग्रामीण क्षेत्रें में जिला व स्थानीय बोर्डों को ‘तहसील’ व ‘तालुका’ बोर्ड के नाम से जाना जाता था। जब कभी आवश्यकता महसूस होती थी, प्रतिनिधियों का चुनाव सरकार द्वारा नामित किए जाने के स्थान पर अदायगी के अनुसार कर लिया जाता था। 1907 में रॉयल कमीशन की स्थापना की गई, जिसने ग्राम पंचायतों के पुनरुद्धार की वकालत की। 1919 के भारत सरकार अधिनियम द्वारा स्थानीय स्वशासन को राज्यों की ‘स्थानान्तरित’ सूची में रख दिया गया।
Question : ब्रिटिश सरकार के श्रम विधान कहां तक श्रमिक वर्ग की स्थिति को सुधारने के लिए बनाए गए थे?
(1992)
Answer : प्रथम फैक्टरी एक्ट में केवल बाल श्रमिकों के संरक्षण संबंधी प्रावधान लागू किए गए थे। द्वितीय फैक्टरी एक्ट में साप्ताहिक छुट्टी तथा केवल महिलाओं व बच्चों के लिए कार्य करने के घण्टे निश्चित करने के प्रावधान किए गए।
1901 में पारित खदान एक्ट से खानों में कार्य करने वाले कर्मचारियों को लाभ मिला। 1926 में भारतीय श्रमिक संघ एक्ट पारित हुआ। इससे श्रम संगठनों की स्थिति मजबूत हुई। 1926 में श्रमिक क्षतिपूर्ति एक्ट पारित हो जाने से श्रमिकों की सामाजिक सुरक्षा व्यवस्थाका श्रीगणेश हुआ। 1914 में खानों में कार्यशील महिला श्रमिकों के लिए मातृत्व हित लाभ एक्ट पारित किया गया। 1929 में पारित श्रम संघर्ष एक्ट के पारित हो जाने के बाद औद्योगिक संघर्षों को समझौता बोर्ड या अस्थायी जांच न्यायालय को दिए जाने की व्यवस्था की गई। 1929 में बंबई, 1930 में मद्रास, 1937 में दिल्ली, 1938 में उत्तर प्रदेश, 1939 में बंगाल, 1943 में पंजाब, 1944 में असम, 1945में बिहार आदि राज्यों की सरकारों ने ‘मातृत्व हित लाभ एक्ट’ पारित किया। 1947 में कोयला खान श्रम-कल्याण कोष एक्ट पारित हुआ व इसी वर्ष अभ्रक खान श्रमिक कल्याण कोष एक्ट भी पारित हुआ। 1947 में पारित औद्योगिक विवाद अधिनियम द्वारा औद्योगिक झगड़ों को निपटाने के लिए कार्यसमितियां व समझौता अधिकारी की व्यवस्था की गई।
ब्रिटिश सरकार द्वारा पारित उपरोक्त सभी कानूनी प्रावधानों का मुख्य उद्देश्य मजदूरों की स्थितियों में सुधार लाना था।
Question : भारत के सामाजिक एवं धार्मिक अन्दोलन में आर्य समाज के क्या योगदान थे?
(1992)
Answer : आर्य समाज का योगदान
Question : शिक्षा पर टैगोर के विचार की विवेचना कीजिए। रूढि़गत शिक्षा पद्धति से यह कहां तक भिन्न था?
(1992)
Answer : टैगोर को स्कूल की चारदीवारी में कैद शिक्षा स्वीकार नहीं थी। वे प्रकृति के निकट होकर अनौपचारिक शिक्षा के पक्षधर थे। वे बच्चों को पूर्ण स्वतंत्रता देने व शिक्षा का माध्यम मातृभाषा को ही बनाए जाने के हिमायती थे। टैगोर प्राच्य सभ्यता के आधार पर केंद्रित शिक्षा प्रणाली अंगीकार करने पर बल देते थे। उनके अनुसार, शिक्षा का उद्देश्य मानव के व्यक्तित्व का विकास करना होना चाहिए। गांधीजी के बुनियादी शिक्षा संबंधी विचारों से टैगोर सहमत नहीं थे। उनके अनुसार बालक अपनी रुचि की शिक्षा की ओर स्वयं ही अग्रसर होता है। अतः उसे स्वतंत्रता देनी चाहिए न कि स्वच्छन्दता। टैगोर के अनुसार शिक्षा ऐसी होनी चाहिए, जो ऐसी जीवन दृष्टि प्रदान करे, जिससे मानव समस्त समाजिक व प्राकृतिक परिवेश में विश्वात्मा को देखे।
Question : निम्नलिखित आन्दोलनों के बारे में आप क्या जानते हैं?
(i) वहाबी आन्दोलन
(ii)नील विद्रोह
(iii) भारत छोड़ो आन्दोलन
(1992)
Answer : (i) वहाबी आन्दोलनः यह 19वीं शताब्दी के चौथे दशक से सातवें दशक तक के बीच चला था। सर सैयद अहमद इसके प्रवर्तक थे तथा इस्लाम धर्म को पुनः स्थापित करना चाहते थे। उन्होंने स्वयं को इसका नेता इमाम बताकर अपने अधीन चार उपनेता (खलीफा) नियुक्त किए और पटना, हैदराबाद, मद्रास, बंगाल, यू.पी. व बंबई में इसके केंद्र स्थापित किए। इन्होंने देशभर में अंग्रेज विरोधी भावनाओं का प्रसार किया। 1860 के बाद अंग्रेज सरकार ने इसके दमन के लिए व्यापक अभियान चलाए।
(ii) नील विद्रोहः बंगाल में नील उगाने वालों ने 1860 में अंग्रेज भूमिपतियों के विरूद्ध यह विद्रोह किया था। कंपनी के रिटायर्ड अधिकारी बंगाल व बिहार के जमींदारों से भूमि प्राप्त करके कृषकों से अपनी शर्तों पर नील की खेती करवाते थे व उन पर अत्याचार करते थे। अप्रैल 1860 में बरसात उपविभाग तथा पाबना और नादिया जिलों के सभी कृषकों ने भारतीय इतिहास की प्रथम कृषक हड़ताल की। अंग्रेज सरकार ने विवश होकर 1860 में एक नील आयोग की नियुक्ति की।
(iii) भारत छोड़ो आन्दोलनः कांग्रेस ने बंबई के विशेष अधिवेशन में 8 अगस्त, 1942 को भारत छोड़ो प्रस्ताव पास किया। गांधीजी ने बंबई के ग्वालियर टैंक मैदान से लोगों को ‘करो या मरो’ का नारा दिया। 9 अगस्त, 1942 को प्रमुख नेताओं को गिरफ्रतार कर लिया गया और यह आन्दोलन संपूर्ण भारत में फैल गया।
Question : निम्नलिखित कहां स्थित हैं और वे समाचार-पत्रों में क्यों आते रहे हैं?
(i) कटक
(ii)अयोध्या
(iii) गुआडलजरा
(1992)
Answer : (i) कटकः उड़ीसा में स्थित इस शहर में मिलावटी व विषाक्त शराब पी लेने से 200 लोगों की मृत्यु हो गई थी।
(ii) अयोध्याः उत्तर प्रदेश में स्थित एक धार्मिक नगर, जो कि भगवान राम की जन्मस्थली माना जाता है। यह नगर मंदिर-मस्जिद विवाद के कारण चर्चा में है।
(iii) गुआडलजराः मैक्सिको में स्थित यह नगर लगातार बम विस्फोटों की घटना के लिए चर्चित रहा। बम विस्फोट की घटना अप्रैल 1992 में घटी थी।
Question : निम्न क्यों जाने जाते हैं?
(i) एम.ए. अंसारी
(ii) पी.सी. जोशी
(iii)इन्दुलाल यागनिक
(iv)लॉर्ड पेथविक लॉरेंस
(v)श्रीनारायण गुरु
(vi) नन्दलाल बोस(1992)
Answer : (i) एम.ए. अंसारीः दिल्ली के एक सफल चिकित्सक, जिन्होंने 1912 में तुर्की में एक मेडिकल मिशन का संचालन किया। 1920 में मुस्लिम लीग के व 1922 में खिलाफत समिति के अध्यक्ष रहे तथा कांग्रेस संसदीय दल के संस्थापक प्रेसीडेण्ट भी। 1928-36 की अवधि में जामिया मिलिया विश्वविद्यालय के कुलाधिपति रहे।
(ii) पी.सी. जोशीः भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी के संस्थापक सदस्य, जो कि 1929 में मेरठ षड्यंत्र कांड में जेल गए। 1936 में भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी के महासचिव नियुक्त किए गए तथा 1951 में इलाहाबाद से इन्डिया टुडे पत्रिका का प्रकाशन आरंभ किया।
(iii) इन्दुलाल याग्निकः ये बंबई से निकलने वाले पत्र ‘यंग इंडिया’ के संस्थापकों में से एक थे। गांधी के विश्वासपात्रें में से एक रहे तथा वामदल ‘अखिल भारतीय किसान सभा’ एवं खेड़ा आंदोलन से जुड़े रहे।
(iv) लॉर्ड पेथविक लॉरेंसः ये एटली की लेबर पार्टी के शासन के समय राज्य के सचिव नियुक्त थे तथा भारत को शीघ्र स्वतंत्रता देने की वकालत करते थे। ये 1946 के कैबिनेट मिशन के सदस्य भी थे।
(v) श्रीनारायण गुरुः केरल के एक समाज सुधारक, जो कि जीवनपर्यंत जाति प्रथा के बुरे परिणामों के विरूद्ध संघर्ष करते रहे।
(vi) नन्दलाल बोसः अवनीन्द्रनाथ टैगोर के शिष्य, जो कि आधुनिक चित्रकारी के स्तंभ माने जाते हैं। शांति निकेतन के कला निकेतन को विकसित करने में अग्रणी रहे तथा कांग्रेस के लखनऊ, हरिपुर सहित अनेक अधिवेशनों के मंचों पर चित्रकारी की। प्रमुख कृतियां प्रणाम, गोपिनी, बसन्त आदि।
Question : भारत के स्वतंत्रता आंदोलन के अंतिम चरण विशेषकर 1947 के प्रारंभ से स्वतंत्रता प्राप्ति तक का विवरण दीजिए।
(1991)
Answer : भारत के स्वतंत्रता आंदोलन के अंतिम चरण में एक ओर जहां ब्रिटिश सरकार, मुस्लिम लीग व कांग्रेस नेताओं के बीच भारत के भविष्य को लेकर वार्ताओं के दौर जारी थे, वहीं दूसरी ओर विभिन्न जन-कार्रवाइयां भी सामने आ रही थीं। आजाद हिंद फौज के बंदियों की रिहाई के लिए चले आंदोलन ने जनता को व्यापक पैमाने पर प्रभावित किया। भारतीय सेना पर भी इस आंदोलन का प्रभाव पड़ा। 1945-46 में सैनिक सेवाओं में भी विद्रोह फैल गया। कलकत्ता से प्रारंभ होकर यह विद्रोह थल, जल व वायु तीनों सेनाओं में फैल गया। 18 फरवरी, 1946 को बंबई में जल सेना ने खुला विद्रोह किया तथा मजदूरों ने भी अनेक स्थानों पर प्रदर्शन किया, जबकि ट्राम कर्मचारियों की हड़ताल को अन्य मजदूरों का भी समर्थन हासिल था। इसी वर्ष करांची, कानपुर व कोयम्बटूर में हुए विशाल हड़ताल व प्रदर्शनों में लाखों मजदूरों ने भाग लिया। सितंबर 1946 में बंगाल का तेभागा आंदोलन व त्रवणकोर में पुनाप्पा-वायलार आंदोलन तथा जुलाई 1946 में हैदराबाद में तेलंगाना में हुए संघर्ष में किसानों, मजदूरों व कबायली जनता की प्रमुख भूमिका रही। यद्यपि परस्पर एकता के अभाव में ये सभी आंदोलन या संघर्ष एक जनक्रांति का रूप नहीं ले पाए, लेकिन इसने अंग्रेजों के लिए भारत में अधिक समय तक ठहरना मुश्किल कर दिया।
1946 में ब्रिटेन में मि. एटली के नेतृत्व में मजदूर दल की सरकार स्थापित हो चुकी थी। उन्होंने भारतीयों को सत्ता हस्तांतरित करने के उपाय खोजने के लिए 24 मार्च, 1946 को कैबिनेट मिशन भारत भेजा। मिशन ने भारत के विभिन्न राजनीतिक दलों से वार्ता करके भारत में एक संघ राज्य की स्थापना, संविधान सभा के संगठन तथा अंतरिम सरकार के गठन के संबंध में एक योजना रखी। विभिन्न दलों में योजना पर तीव्र मतभेद थे, तथापि सभी राजनीतिक दलों ने उसे स्वीकार कर लिया तथा इसी आधार पर संविधान सभा के चुनाव हुए। कांग्रेस ने 199 व मुस्लिम लीग ने 73 सीटें जीतीं। कांग्रेस ने इस सभा को संपूर्ण प्रभुत्व सम्पन्न माना, जबकि मुस्लिम लीग ने ऐसा मानने से इनकार कर दिया। लीग ने कैबिनेट मिशन योजना को अस्वीकृत करते हुए पाकिस्तान प्राप्ति के लिए 16 अगस्त, 1946 को ‘प्रत्यक्ष कार्यवाही दिवस’ मनाने की घोषणा की। यह कार्य ब्रिटिश सरकार के विरूद्ध न होकर हिंदुओं के विरूद्ध था। इसके फलस्वरूप, पूरे भारत में सांप्रदायिक दंगे हुए। 2 सितंबर, 1946 को कांग्रेस ने अंतरिम सरकार का गठन किया, परंतु आरंभ में लीग ने उसमें भाग नहीं लिया। 13 अक्टूबर को मुस्लिम लीग के 5 सदस्य अंतरिम सरकार में शामिल हुए, लेकिन उनका रूख सहयोगपूर्ण न था तथा उन्होंने संविधान सभा के कार्य में भाग लेने से मना कर दिया।
फरवरी 1947 में ब्रिटिश सरकार घोषणा कर चुकी थी कि वह जून 1948 से पूर्व ही भारत छोड़ देगी। लॉर्ड वेवेल के स्थान पर लॉर्ड माउण्टबेटन को वायसराय बनाकर भारत भेजा गया। 3 जून, 1947 को माउण्टबेटन ने एक योजना की घोषणा की, जिसमें भारत का शासन जनता के हाथों में सौंपने का आश्वासन दिया गया। कांग्रेस भारत विभाजन के लिए तैयार हो गई, यद्यपि गांधी इससे सहमत नहीं थे। जुलाई 1947 में ब्रिटिश संसद ने ‘भारतीय स्वतंत्रता अधिनियम 1947 पारित कर दिया, जिसके आधार पर भारत और पाकिस्तान दो स्वतंत्र राज्यों का उदय हुआ। 15 अगस्त, 1947 सत्ता हस्तांतरण का दिन निश्चित किया गया। लॉर्ड माउंटबेटन भारत के प्रथम गवर्नर जनरल तथा मि- जिन्ना पाकिस्तान के प्रथम गर्वनर बने।
Question : बीसवीं शताब्दी के प्रथम दशक तक के क्रांतिकारी आतंकवाद के विकास का उसके महाराष्ट्र, बंगाल तथा पंजाब में हुए प्रशासन के विशेष संदर्भ में विवेचन कीजिए। (लगभग 250 शब्दों में)
(1991)
Answer : अंग्रेजों की नीतियों से असंतुष्ट होकर भारत में एक वर्ग ऐसा भी उत्पन्न हुआ, जिसका विश्वास हिंसा में हो गया। वह भारत में नवयुवकों का क्रांतिकारी वर्ग था, जिसके केंद्र पंजाब, महाराष्ट्र और बंगाल थे। इस आंदोलन को क्रांतिकारी आतंकवाद का नाम उसमें अपनाए गए साधनों के कारण दिया गया है। वे संगठित हिंसात्मक साधनों द्वारा अंग्रेजी शासन को नष्ट करके स्वतंत्रता चाहते थे और इस कार्य के लिए विदेश सहायता तक लेने के लिए प्रयत्नशील थे। इन क्रांतिकारियों में भी दो प्रकार की विचारधाराएं उपस्थित थीं। एक वे क्रांतिकारी जो सेना में प्रवेश करने व विदेशों से सहायता पाने की नीति में आस्था रखते थे तथा दूसरे वे, जो स्वतंत्र संगठन द्वारा अपने उद्देश्यों की पूर्ति में विश्वास रखते थे। इन व्यक्तियों में भूपेन्द्र नाथ दत्त, गणेश सावरकर, वी.डी. सावरकर, वरिन्द्र कुमार घोष, सरदार अजीत सिंह, लाला हरदयाल, पुलिन बिहारी, खुदीराम बोस, प्रफुल्ल चाकी, श्यामजी कृष्ण वर्मा, मैडम कामा व लाला लाजपत राय के नाम उल्लेखनीय हैं। क्रांतिकारियों ने अनेक स्थानों पर गुप्त समितियों की स्थापना की, हत्याकांड किए, गोलियां चलायीं, धन लूटा, रेल की पटरियां उखाड़ीं तथा विभिन्न प्रकार से अंग्रेजी शासन को आतंकित किया।
बंगाल में इस कार्य का आरंभ वरिन्द्र कुमार घोष और पुलिन बिहारी दास ने किया। उन्होंने ‘भवानी मंदिर’ तथा ‘वर्तमान राजनीति’ नामक दो पुस्तकें छापीं। इनमें से प्रथम पुस्तक ने क्रांतिकारी दलों को एक स्थान पर अपने संगठन बनाने की आवश्यकता पर बल दिया और दूसरी पुस्तक ने विदेशी सत्ता से सशस्त्र युद्ध करने के तरीकों को बताया। इनके प्रयत्नों के फलस्वरूप ‘अनुशीलन समिति’ नामक क्रांतिकारी दल की स्थापना कलकत्ता और ढाका में हुई। इसके अतिरिक्त साधना समाज, युगांतर समिति, शक्ति समिति आदि जैसे संगठन भी थे। ‘युगांतर’ समाचार-पत्र ने अंग्रेजों के खिलाफ खुले सशस्त्र विद्रोह का प्रचार किया। आंदोलन के अन्य प्रमुख नेता भूपेन्द्र नाथ दत्त थे। 1907-1909 के बीच क्रांतिकारियों ने बंगाल में अनेक कार्रवाइयां कीं। खुदीराम बोस व प्रफुल्ल चाकी ने किंग्सफोर्ड नामक जज की हत्या का प्रयास किया।
1897 में दामोदर व बालकृष्ण चापेकर द्वारा रैण्ड और एयरेस्ट की हत्या के साथ महाराष्ट्र में क्रांतिकारी आंदोलन का सूत्रपात हुआ। वी.डी. सावरकर ने 1904 में महाराष्ट्र में ‘अभिनव भारत’ नामक एक क्रांतिकारी दल का गठन किया, जिसकी शाखाएं बम्बई व पूना के कई कॉलेजों के अलावा अन्य अनेक प्रांतों में भी थीं। वी.डी. सावरकर ने ब्रिटेन से भारत में शस्त्र लाने का प्रयत्न किया, लेकिन वे इसमें सफल नहीं हो सके। एम.एल. धींगड़ा ने कर्जन विलि की हत्या कर दी। बम्बई, पूना, सतारा, बड़ौदा, नासिक, कोल्हापुर व नागपुर में कई क्रांतिकारी संगठन अपने-अपने स्तर पर सक्रिय थे। श्यामजी कृष्ण वर्मा व मद्रास कामा का पूरा समर्थन महाराष्ट्र के क्रांतिकारियों को मिलता था।
पंजाब में क्रांतिकारी आंदोलन के प्रमुख प्रणेता सरदार अजीत सिंह, लाला लाजपतरायव सूफी अम्बा प्रसाद थे। आगा हैदर और सैयद हैदर रजा भी काफी सक्रिय थे। पंजाब के क्रांतिकारी संगठन ने सशस्त्र विद्रोह द्वारा अंग्रेजी राज्य को उलटने की योजना तैयार की। अंग्रेज सरकार ने पंजाब के क्रांतिकारियों के विरूद्ध दमन चक्र चलाया तथा जून 1907 में अजीत सिंह तथा लाला लाजपतराय को निर्वासित कर माण्डले (बर्मा) भेज दिया।
Question : हरिजन आंदोलन क्या था? महात्मा गांधी ने क्यों व्यक्तिगत सत्याग्रह आरंभ किया और इसका क्या प्रभाव हुआ?
(1991)
Answer : रैम्से मैक्डोनाल्ड ने 1932 में अंग्रेजों की ‘बांटो और राज्य करो’की नीति का अनुसरण करते हुए सांप्रदायिक पंचाट की घोषणा की तथा सवर्णों व हरिजनों के अंतर्विरोध का लाभ उठाना चाहा। गांधीजी ने अंग्रेजों की इस कुटिल चाल की आलोचना की। उन्होंने अपने पूर्व विचारों व सिद्धांतों को पुर्नजीवित कर के हरिजनों, अनुसूचित जातियों व जनजातियों के उद्धार कार्य को आरंभ किया। उन्होंने पंचाट के उस निर्णय का विरोध किया, जिसमें हिन्दुओं के कुछ निम्न वर्गों को अस्पृश्यता के कारण अलग कर दिया गया था तथा नवीन संघीय परिषदों के लिए मुस्लिम चुनावों का पक्ष लिया जाता था। पंचाट मुस्लिम तथा हरिजनों को दो भिन्न-भिन्न राजनीतिक अस्तित्व के रूप में इस्तेमाल करती थी। उन्होंने एम.सी. राजा का समर्थन करके हरिजनों के लिए सुरक्षित सीटों हेतु प्रयत्न किया, लेकिन डॉ. अम्बेडकर ने इसका विरोध किया। इसी क्रम में गांधीजी 1932 में यरवदा जेल भी गए। यह एक युगांतकारी घटना थी, जो हरिजन आंदोलनों के दौरान घटी थी। वास्तव में यह आंदोलन हिन्दू एवं हिन्दू समाज में व्याप्त रूढि़यों व कुरीतियों को दूर करने का प्रयास था तथा इसने अप्रत्यक्ष रूप से राजनीति में एक संतुलित समझदारी की भावना को समाविष्ट किया था। हरिजन आंदोलन का उद्देश्य मुख्य रूप से उनके स्तर को शिक्षा के माध्यम से ऊंचा उठाना था। मंदिरों में प्रवेश पर प्रतिबंध को हटाना भी इसका एक उद्देश्य था। इस संदर्भ में एक विशाल आंदोलन मंदिरों में प्रवेश को लेकर शुरू हुआ। यह आंदोलन 8 जनवरी, 1933 को प्रारंभ हुआ। अतः इस तिथि को ‘टेम्पल एन्ट्री डे’ (मंदिर प्रवेश दिवस) के रूप में मनाया गया। गांधीजी ने जेल से वापस आकर हरिजनों की सभा की तथा ‘हरिजन सेवक संघ’ की स्थापना की और अस्पृश्यता को दूर करने का बीड़ा उठाया। उन्होंने व्यक्तिगत सत्याग्रह आरंभ किया। इसी दौरान उन्होंने 8 मई व 16 अगस्त, 1933 से लम्बी अवधि के व्रत भी रखे। इससे इस आंदोलन को और शक्ति मिली। गांधीजी ने हरिजन कल्याण के लिए धन एकत्र किया तथा देश का भ्रमण करके हरिजनों को अधिकार दिलाने व छुआछूत को समाप्त करने के लिए जागृति पैदा की। लेकिन रूढि़वादी लोगों ने इसका तीव्र विरोध किया। गांधीजी द्वारा आंदोलन चलाने के ढंग को लेकर कांग्रेस के मतभेद इस सीमा तक बढ़े कि उन्हें कांग्रेस से त्यागपत्र दे देना पड़ा।
Question : ‘मैं विश्वस्त हूं कि विश्व की समस्याओं के समाधान की एकमात्र कुंजी समाजवाद में है---- गरीबी, अपार बेरोजगारी, अपकर्ष तथा भारत की जनता के दमन को समाप्त करने के लिए समाजवाद के अतिरिक्त मुझे और कोई रास्ता नहीं दिखता’। राष्ट्रीय योजना द्वारा उद्देश्य की प्राप्ति में नेहरूजी किस प्रकार सफल हुए?
(1991)
Answer : पंडित पंडित जवाहरलाल नेहरू समाजवाद से अधिक प्रभावित थे। उनका विचार था कि गरीबी, बढ़ती हुई बेरोजगारी, अवनति तथा भारतीय जनता की अधीनता को समाप्त करने के लिए समाजवाद के अतिरिक्त अन्य कोई मार्ग नहीं है। समाजवाद ही राजनीतिक तथा आर्थिक ढांचे में क्रांतिकारी परिवर्तन लाएगा, भूमि व उद्योगों में निहित हितों को तथा सामंती और निरंकुश भारतीय राज्यों की प्रणाली को समाप्त करेगा। अर्थव्यवस्था में परिवर्तन केवल उसी समय संभव है, जबकि अर्थव्यवस्था एक निश्चित विकास की अवस्था में पहुंच जाए। समाजवाद केवल नियोजन में ही संभव है। 1950 में योजना की तथा 1952 में राष्ट्रीय विकास परिषद की स्थापना की गई। नेहरू की इस विचारधारा ने प्रथम तीन पंचवर्षीय योजनाओं में आशातीत सफलता दिलायी। उन्होंने जमींदारी प्रथा को समाप्त करने पर बल दिया, जिससे सामाजिक न्याय मिल सके। इस प्रकार, हमारा देश आज न केवल स्वयं ही खाद्यान्नों के मामले में आत्मनिर्भर है, बल्कि सोमालिया, बांग्लादेश आदि को सहायता भी देता है। नेहरू का विज्ञान एवं तकनीकी ज्ञान में अटूट विश्वास था तथा इसे उनके द्वारा अत्यधिक प्रोत्साहन भी मिला। इसके परिणामस्वरूप, देश में उत्पादन एवं उद्योगों में तेजी से वृद्धि हुई तथा लोगों की आय में भी पर्याप्त वृद्धि हुई। साथ ही रोजगार के अवसरों में पर्याप्त सुधार हुआ और आर्थिक विकास की गति तेज हुई। लेकिन पंचवर्षीय योजनाएं गरीबी व बेरोजगारी दूर करने के अपने लक्ष्य में विशेष सफल नहीं हो पायीं। इन योजनाओं ने देश में समाजवादी व्यवस्था की स्थापना की अपेक्षा निजी पूंजी को ही मजबूती प्रदान की।
Question : 1919 तक के विश्वविद्यालय शिक्षा की वृद्धि एवं विकास को लिखिए।
(1991)
Answer : 1854 के पूर्व उच्च शिक्षा की गति धीमी रही, परंतु 1854 में ईस्ट इंडिया कंपनी के संचालकों ने अपनी नयी शिक्षा नीति की घोषणा की, जो ‘वुड घोषणा-पत्र’ के नाम से जानी जाती है। इसकी सबसे प्रमुख बात विश्वविद्यालयों की स्थापना थी। इसी क्रम में सर्वप्रथम कलकत्ता एवं बम्बई (1857 में) विश्वविद्यालयों की स्थापना की गई। ये विश्वविद्यालय लंदन के नमूने पर स्थापित किए गए थे। इनका मुख्य कार्य परीक्षा लेना व उपाधियां देना था। प्रत्येक विश्वविद्यालय में कुलपति एवं उपकुलपति की व्यवस्था की गई, जिनका मनोनयन सरकार द्वारा होता था। इनको मिलाकर सीनेट बनायी गई, जो विश्वविद्यालय के लिए नियमों का निर्माण करती थी। उनके अनुदान के संबंध में भी सुझाव दिए गए। बाद में भारत सचिव ने 1895 में अनुदान की राशि भी उपलब्ध करायी। 1832 में पंजाब विश्वविद्यालय की स्थापना की गई तथा 1887 में इलाहाबाद व लाहौर में विश्वविद्यालयों की स्थापना हुई। कर्जन ने प्रचलित शिक्षा नीति को परिवर्तित करके 1909 में थॉमस रैले की अध्यक्षता में एकविश्वविद्यालय आयोग की नियुक्ति की तथा उच्च शिक्षा के विकास हेतु 5 लाख रुपए प्रदान किए। 1904 में भारतीय विश्वविद्यालय अधिनियम पारित किया गया। इस अधिनियम के तहत विश्वविद्यालयों को अनुदान के रूप में साढ़े तेरह लाख रुपए दिए गए। परंतु 1904 के अधिनियम द्वारा प्रोफेसरों की नियुक्ति का कार्य सीनेट के हाथों में छोड़ दिया गया। 21 मई, 1913 को शिक्षा नीति पर सरकारी प्रस्ताव की घोषणा हुई। इसके तहत प्रत्येक प्रांत में विश्वविद्यालय की स्थापना की रूपरेखा रखी गई। 1917 में सैडलर की अध्यक्षता में कलकत्ता विश्वविद्यालय आयोग की नियुक्ति की गई थी। इसने ढाका में विश्वविद्यालय खोलने का सुझाव दिया। विश्वविद्यालयों की स्थापना के कारण शिक्षा जगत में अभूतपूर्व प्रगति हुई। 1887 में इलाहाबाद विश्वविद्यालय की स्थापना के बाद के लगभग 3 दशकों में मैसूर, बनारस, अलीगढ़ व पटना विश्वविद्यालयों की स्थापना हुई।
Question : ‘डॉ. भीमराव अम्बेडकर का बहुमुखी जीवन अनेक स्थितियों से गुजरा।’ उनके जीवन के अनेक पहलुओं का वर्णन संक्षेप में कीजिए।
(1991)
Answer : डॉ. भीमराव अम्बेडकर का जन्म एक गरीब ‘महार’ परिवार में हुआ था। उन्होंने बड़ी कठिन परिस्थितियों में शिक्षा ग्रहण की थी। उनकी शिक्षा इंग्लैण्ड तथा अमेरिका में हुई थी। 1923 में उन्होंने ‘वकालत’ का पेशा अपनाया। 1924 से 1934 तक वे बम्बई विधानसभा में कार्य करते रहे। उन्होंने तीनों गोलमेज सम्मेलनों में भाग लिया था। वे भारतीय संविधान की प्रारुप समिति के अध्यक्ष भी रहे। डॉ. अम्बेडकर ने प्रथम विधि मंत्री के रूप में भारत की सेवा भी की। उन्होंने सामाजिक एवं राजनीतिक समानता के लिए संघर्ष किया। उनका संघर्ष मुख्यतः पददलितों व हहरिजनों के लिए था। इसके अतिरिक्त लेबर पार्टी की स्थापना का श्रेय भी अम्बेडकर को ही है।
Question : रवीन्द्रनाथ टैगोर कहां तक मानव जाति के कवि थे?
(1991)
Answer : कविवर रवीन्द्रनाथ टैगोर की कविताएं विश्वबंधुत्व एवं भाईचारे का संदेश देती हैं। उनके काव्य में मानव की गरिमा तथा ब्रह्म व मानवीय एकता का स्वर प्रस्फुटित होता है। उन्होंने सदैव ही मानवतावाद एवं अंतरराष्ट्रीयता पर बल दिया। उन्होंने नैतिक विकास के लिए साधना, योग इत्यादि तत्व मीमांसा पर अधिक जोर दिया। वे राष्ट्रवाद को मानवतावाद के विकास में अवरोधक मानते थे तथा मानव की स्वतंत्रता के पक्ष में थे। टैगोर की प्रसिद्ध रचना गीतांजलि है, जिसके लिए उन्हें नोबेल पुरस्कार भी मिला।
Question : भारत में धार्मिक आंदोलन के इतिहास में थियोसोफिकल सोसाइटी की भूमिका का विवेचन कीजिए।
(1991)
Answer : थियोसोफिकल सोसायटी की स्थापना 1875 में अमेरिका में हुई। इसकी स्थापना एक रूसी महिला मैडम हेलना पेट्रोवना व्लावात्सकी और एक अमेरिकी सैनिक अफसर कर्नल हेनरी स्टील ऑल्काट ने की थी। धर्म को समाज सेवा का मुख्य साधन बनाने और धार्मिक भ्रातृभाव के प्रचार और प्रसार हेतु उन्होंने इस संस्था की स्थापना की थी। उन्होंने हिन्दू धर्म (जो राष्ट्रीय धर्म था) और बौद्ध धर्म जैसे प्राचीन धर्मों को पुनर्जीवित कर उन्हें मजबूत बनाने की वकालत की। भारत में ‘ऐनी बेसेन्ट’ ने अड्यार (मद्रास) में इस सोसायटी की स्थापना 1882 में की। दक्षिण भारत में इसका प्रभाव ज्यादा रहा। देखते ही देखते थियोसोफिकल हिन्दूवाद एक अखिल भारतीय आंदोलन बन गया। बेसेंट ने अपने उद्देश्यों की प्राप्ति हेतु बनारस में ‘सेन्ट्रल हिन्दू स्कूल’ की स्थापना की, जो 1915 में विश्वविद्यालय के रूप में परिणित हो गया।
Question : प्रेंस की स्वतंत्रता कम करने के लिए ब्रिटिश सरकार द्वारा लगाए गए विभिन्न अधिनियमों का उल्लेख कीजिए।
(1991)
Answer : प्रारंभ में किसी भी प्रेस संबंधी कानून के अभाव में समाचार-पत्र ईस्ट इण्डिया कंपनी के अधिकारियों की दया पर ही निर्भर करते थे। कंपनी के अधिकारी नहीं चाहते थे कि ऐसे समाचार-पत्र, जिनमें उनके उपक्रमों का उल्लेख होता था, किसी प्रकार लंदन पहुंच सकें। जिन संपादकों से उन्हें परेशानी होती थी, उसे लंदन वापस भेज दिया जाता था। लेकिन यह कृत्य भारतीयों के साथ संभव नहीं था। अतः 1799 में वेलेस्ली ने प्रेस नियंत्रण अधिनियम द्वारा समाचार-पत्रों पर नियंत्रण लगा दिया। इसके अंतर्गत समाचार-पत्र पर उसके संपादक व मुद्रक का नाम प्रकाशित करना अनिवार्य हो गया था। लॉर्ड हेस्टिंग्स ने इसे कड़ाई से लागू नहीं किया तथा 1818 में फ्री. सेंसरशिप को समाप्त कर दिया। जॉन एडम्स के समय (1823) भारतीय प्रेस पर पूर्ण प्रतिबंध रहा। लाइसेंस के अभाव में समाचार-पत्रप्रकाशित करने पर जुर्माना या कारावास की सजा भुगतनी पड़ती थी। 1835 के लिबरेशन ऑफ द इंडियन प्रेस अधिनियम के लागू होने पर प्रकाशक को केवल प्रकाशन स्थान की सूचना देना आवश्यक होता था। 1867 में पंजीकरण अधिनियम लागू करने का उद्देश्य समाचार-पत्रों को नियंत्रित करना था, जिसके अंतर्गत मुद्रक व प्रकाशक का नाम प्रकाशित करना अनिवार्य था। 1878 के वर्नाकुलर प्रेस अधिनियम में देशी भाषा वाले समाचार-पत्रों को नियंत्रण में लाने का प्रयास किया गया। 1908 के अधिनियम द्वारा आपत्तिजनक सामग्री छापने पर मुद्रणालय जब्त कर लिए जाते थे। 1910 के इण्डियन प्रेस एक्ट के तहत प्रकाशकों से पंजीकरण जमानत जमा की जाती थी। इसके बाद क्रमशः 1931 व 1951 में भी प्रेस विरोधी अधिनियम लागू किए गए।
Question : निम्नलिखित आंदोलनों के बारे में आप क्या जानते हैं?
(i)स्वदेशी आंदोलन
(ii) खिलाफत आंदोलन
(iii) नामधारी आंदोलन
(1991)
Answer : (i): स्वदेशी आंदोलनः स्वदेशी आंदोलन का जन्म 1905 के बंगाल विभाजन के समय हुआ। कर्जन द्वारा बंगाल के विभाजन की घोषणा से राष्ट्रवाद की भावना को बल मिला तथा स्वदेशी आंदोलन का उदय हुआ। इसका समर्थन गरम दल के नेताओं ने भी किया था। इस आंदोलन में विद्यार्थियों का प्रमुख योगदान था। अंग्रेजों के आर्थिक हितों पर चोट करने में यह आंदोलन बहुत सफल रहा।
(ii) खिलाफत आंदोलनः खिलाफत आंदोलन का प्रारंभ अली बंधु, मौलाना आजाद, हकीम अजमल खां और हसरत मोहानी के नेतृत्व में हुआ। इनकी मांग थी कि तुर्की के सुल्तान की उपाधि को पुनः प्रतिष्ठित किया जाए, क्योंकि ब्रिटिश सरकार ने तुर्की के सुल्तान पर कठोर व अपमानजनक सेब्र की संधि थोप दी थी। तुर्की का सुल्तान मुसलमानों का धर्मगुरु था।
(iii) नामधारी आंदोलनः यह आंदोलन गुरु राम सिंह के नेतृत्व में लुधियाना में शुरू हुआ था। इसको कूका आंदोलन भी कहते हैं। इसका उद्देश्य सिखों के मध्य जाति-भेद को समाप्त करना तथा अंतर्जातीय विवाह एवं विधवा विवाह की व्यवस्था करना था। धार्मिक तथा सामाजिक सुधार के रास्ते से आगे बढ़कर शीघ्र ही यह आंदोलन उग्र साम्राज्यवाद विरोधी आंदोलन में परिवर्तित हो गया।
Question : निम्न कहां स्थित हैं और वे समाचार-पत्रों में क्यों आते रहे हैं?
(i) रुद्रपुर
(ii) कच्चात्तिवु
(iii)मोरान (मोरों)
(1991)
Answer : (i) रूद्रपुरः यह नैनीताल जिले (उ.प्र.) में स्थित है। यहां अक्टूबर 91 में रामलीला आयोजन के समय दो स्थानों पर हुए बम विस्फोटों में लगभग 70 लोगों की जानें चली गयीं।
(ii) कच्चातिवुः यह हिंद महासागर में स्थित एक छोटा-सा द्वीप है, जिसे 1974 के समझौते में श्रीलंका को दिया गया था। इसकी वापसी को लेकर तमिलनाडु में काफी आंदोलन हो रहे हैं तथा राज्य के मुख्यमंत्री सुश्री जयललिता ने इस विषय में एक संभाषण भी दिया है।
(iii) मोरों: यह आसाम के तेल उत्पादक क्षेत्र में स्थित है। यहां 1953 में एक तेल कुंए की खोज हुई थी। डिगबोई शोषक क्षेत्र में मोरों से ही पर्याप्त मात्र में कच्चा अपरिष्कृत तेल प्राप्त होता है।
Question : निम्नलिखित क्यों जाने जाते हैं?
(i) एस.ए. डांगे
(ii) सी.शंकरण नायर
(iii)टीटू मीर
(iv) थियोडोर बेक
(v) इडविन लयुटिएंस
(1991)
Answer : (i) एस.ए. डांगेः ये एक अनुभवी साम्यवादी नेता थे, जिन्होंने कम्युनिस्ट पार्टी की स्थापना में सहयोग देकर भारतीय राजनीतिक परिदृश्य को प्रभावशाली बनाया। इन्हें सोवियत संघ का ‘ऑर्डर ऑफ लेनिन’ पुरस्कार (1947 में) मिला था।
(ii) सी. शंकरण नायरः मद्रास प्रांत के प्रमुख राजनीतिक व्यक्तियों में से एक, जो कि अमरावती में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के अध्यक्ष रहे। वे मद्रास लेजिस्लेटिव काउंसिल व बाद में गर्वनर जनरल की कार्यकारिणी परिषद के सदस्य भी रहे।
(iii) टीटू मीरः पूर्वी पूर्वी बंगाल में फरायजी संप्रदाय के अनुयायी, जिन्होंने इस्लाम धर्म में आयी विकृतियों के सुधार और धर्म में विश्वास के लिए तरीका-ए-मुहम्मदिया आंदोलन चलाया।
(iv) थियोडोर बेकः एम.ए.ओ. कॉलेज, अलीगढ़ के प्राचार्य तथा राष्ट्रवादी सिद्धांतों के जनक थे। इन्होंने कॉलेज में संप्रदायिक प्रवृत्ति की शुरूआत की तथा मिशनरी भावना के समर्थक रहे।
(v) इडविन ल्युटिएंसः ये ब्रिटिश भारत की नयी राजधानी नई दिल्ली के डिजाइन और वास्तुकला के संस्थापक थे। इनकी अन्य वास्तुकलाएं राष्ट्रपति भवन, संसद भवन व इण्डिया गेट हैं।
Question : गांधीजी ने खिलाफत प्रश्न पर अहिंसात्मक असहयोग आंदोलन क्यों चलाया? बाद में उसके साथ दूसरे प्रश्न कैसे जोड़ दिए गए? असहयोग आन्दोलन के रचनात्मक कार्यक्रम का विवेचन कीजिए? (लगभग 250 शब्दों में)
(1989)
Answer : प्रथम विश्व युद्ध की समाप्ति पर युद्ध की शर्तों के मुताबिक खलीफा की प्रभुसत्ता को कम कर दिया गया। इससे भारत की मुस्लिम जनता क्षुब्ध हो गई, क्योंकि तुर्की का खलीफा इस्लामी दुनिया का प्रमुख माना जाता था। गांधीजी ने महसूस किया कि यह समय हिन्दू-मुस्लिम एकता के लिए सहायक सिद्ध हो सकता है। उन्होंने भारत की जनता के रोष का सर्मथन करने का फैसला किया इसलिए गांधीजी ने खिलाफत के प्रश्न पर अहिंसक असहयोग आन्दोलन का सूत्रपात किया और ब्रिटिश सरकार से कहा कि वे तुर्की (जो पराजित देशों में से एक था) के प्रति नरम रवैया अपनाए।
बाद में इसमें कुछ अन्य मुद्दे भी जोड़ दिए गए, जो निम्नलिखित हैं-
1.रॉलेट एक्ट को खत्म किया जाए और ब्रिटिश सरकार पंजाब में की गई कार्रवाई (जलियांवाला बाग कांड) के संदर्भ में दुःख प्रकट करे।
2.‘स्वराज्य’ की राष्ट्रीय मांग को पूरा करे, जिसमें नए सुधारों के साथ कुछ सार्थक बात हो।
इन मुद्दों के जुड़ने के बाद असहयोग आन्दोलन एक व्यापक रूप में उभर कर सामने आया। इसने अपनी ओर आम लोगों को तेजी से आकर्षित किया।
असहयोग आन्दोलन के कुछ रचनात्मक कार्यक्रम इस प्रकार थेः
1.राष्ट्रीय स्कूलों और कॉलेजों की स्थापना की गई। साथ ही निजी मध्यस्थ कोर्ट, जो पंचायतों के रूप में जाने जाते थे, की समस्त भारत में स्थापना की गई। सरकारी और गैर-सरकारी पब्लिक स्कूल, कॉलेज और कोर्ट के बहिष्कार के साथ ही काउंसिल के चुनावों का भी बहिष्कार किया गया।
2.हाथ से कातने और बुनने के काम को पुनः चालू किया गया, ताकि स्वदेशी और खादी की लोकप्रियता को बढ़ावा मिले। इससे भारतीयों की श्रम के प्रति हीनभावना का अन्त हुआ और विदेशी कपड़ों का बहिष्कार भी संभव हुआ।
3.हिन्दू-मुस्लिम एकता में वृद्धि हुई, जिससे ‘भारतीयता’ की भावना का जन्म हुआ।
4.अस्पृश्यता का अंत और हरिजन कल्याण पर बल दिया गया।
5.महिलाओं की मुक्ति एवं उन्हें नेतृत्व योग्य बनाने की भावना का विकास करने पर भी ध्यान दिया गया। महिलाओं ने आन्दोलन में बढ़-चढ़ कर हिस्सा लिया, जिससे इनके कमजोर लिंग होने की धारणा को धक्का पहुंचा। महिलाओं ने भी सरकारी दमन चक्र का बखूबी मुकाबला किया। नवम्बर 1920 में प्रिंस ऑफ वेल्स के आगमन पर मजदूरों, किसानों व छात्रें ने हड़ताल कर उनके समक्ष अपना विरोध प्रदर्शन किया।
Question : ‘कैबिनेट मिशन योजना’ क्या थी? ‘समूहन खण्ड’ उसके लिए आधारभूत किस प्रकार था? कांग्रेस और लीग की मनोवृत्ति पर उसका क्या प्रभाव पड़ा?
(1989)
Answer : ब्रिटेन में एटली की सरकार ने महसूस किया कि अल्पसंख्यक समस्या का बहाना बनाकर भारत में लम्बे समय तक शासन नहीं किया जा सकता है, क्योंकि अल्पसंख्यक समुदाय बहुसंख्यक समुदाय के हितों पर वीटो नहीं कर सकता। इसके बाद भारतीयों को सत्ता हस्तांतरित करने का उपाय खोजने के लिए 19 फरवरी, 1946 को तीन सदस्यीय कैबिनेट मिशन का गठन करके मार्च, 1946 में भारत भेजा गया, जिसने दोनों समुदायों के लिए समझौते का मार्ग प्रशस्त किया। इसके सदस्यों के नाम थे- लॉर्ड पैट्रिक लॉरेंस (भारत के लिए राज्य सचिव), सर स्टेफोर्ड क्रिप्स (व्यापार परिषद के अध्यक्ष) तथा ए.वी. अलेक्जेंडर (प्रथम नौ-सेनाध्यक्ष)।
भारत आने पर मिशन ने महसूस किया कि मुस्लिम लीग और कांग्रेस संविधान सभा तथा अंतरिम सरकार के गठन के संबंध में एकमत नहीं हो पा रहे हैं। अतः उन्होंने अपनी योजना की घोषणा की। संविधान सभा के गठन व आन्तरिक सरकार के बारे में इसमें पूरे भारत के लिए एक संघ सरकार का प्रावधान था। मिशन की योजना इस प्रकार थीः
कांग्रेस चुनाव लड़ने तथा संविधान सभा में भाग लेने के लिए राजी हो गई, लेकिन मुस्लिम लीग ने अंतरिम सरकार में हिस्सा लेने से मना कर दिया। फिर भी, कांग्रेस ने जवाहरलाल नेहरू के नेतृत्व में 2 सितंबर, 1946 को सत्ता संभाल ली, जिसमें लीग के सदस्य शामिल नहीं हुए। मुस्लिम लीग ने मिशन की योजना के प्रति सहमति जतायी, लेकिन लीग पाकिस्तान की मांग पर अडिग रही। वायसराय के समझाने पर लीग कांग्रेस के साथ अंतरिम सरकार में शामिल हो गई, लेकिन यह सहयोग अधिक समय तक नहीं चल पाया।
Question : ‘सिविल सेवाओं में भारतीयों की भर्ती उन्नीसवीं शताब्दी के अंतिम चतुर्थांश का सबसे महत्वपूर्ण प्रश्न था।’ स्पष्ट समझाइए?
(1989)
Answer : लॉर्ड क्लाइव एवं लॉर्ड वारेन हस्टिंग्स के प्रयासों के बावजूद कंपनी के अधिकारियों में व्याप्त भ्रष्टाचार को समाप्त नहीं किया जा सका था। लॉर्ड कार्नवालिस ने महसूस किया कि जब तक भ्रष्टाचार को जड़ से समाप्त नहीं कर दिया जाता, तब तक प्रशासन में सुधार नहीं आ सकता और न ही इसमें कुशलता आएगी। इसी कारण उसने सिविल परीक्षा की व्यवस्था लागू की और सुधारों द्वारा प्रशासन को स्वच्छ बनाना चाहा। लॉर्ड वेलेस्ली ने फोर्ट विलियम कॉलेज की कलकत्ता में स्थापना की, जहां नए सिविल अधिकारियों को प्रशिक्षण दिया जाता था। 1908 में जब कंपनी के निदेशकों ने इसे मंजूरी नहीं दी, तो उसने इंग्लैण्ड के हेलीबरी में ईस्ट इंडिया कॉलेज की स्थापना की, जहां नए अधिकारियों (जो सिविल सेवाओं के लिए नियुक्त हो जाते थे) को 2 वर्ष का प्रशिक्षण दिया जाता था। 1853 के चार्टर एक्ट के अनुसार, सिविल सेवाओं में भर्ती प्रतियोगिता परीक्षाओं के द्वारा की जाने लगी। तब भी उन्नीसवीं शताब्दी के अंत में सिविल सेवाओं से संबंधित सबसे महत्वपूर्ण सवाल भारतीयों को इस सेवा से अलग रखना था। इसके अनेक कारण थे, जो निम्नलिखित हैं:
भारतीय नेताओं ने भारतीयों को अलग रखने की कोशिश का विरोध किया। उन्नीसवीं सदी के अंत में सिविल सेवाओं में भारतीयों की भर्ती की मांग मान ली गई।
Question : जवाहरलाल नेहरू समाजवादी विचारों से कैसे प्रभावित हुए? नेहरू तथा अन्य नेताओं के समाजवादी चिन्तन ने 1942 से पहले कांग्रेस को कैसे प्रभावित किया?
(1989)
Answer : 1929 में विश्व में बड़े पैमाने पर आर्थिक मंदी और बेरोजगारी की समस्या उत्पन्न हुई, जो कि अमेरिका में हुए आर्थिक मंदी के दौर का परिणाम थी। इससे पूंजीवादी देशों में उत्पादन कम होने लगा और विदेशी व्यापार में भी कमी आई। लेकिन रूस में ठीक इसके विपरीत हुआ। वहां मार्क्सवाद, समाजवाद और आर्थिक नियोजन की नीतियों के फलस्वरूप प्रगति हुई, जिससे पूंजीवादी देश इस तरह की नई अर्थव्यवस्था के प्रति सजग हो गए। इसी वजह से नेहरू समाजवाद के सिद्धान्तों से आकर्षित हुए।
सन् 1942 के पूर्व कांग्रेस में नेहरू और सुभाष जैसे नेताओं के चलते समाजवाद की चिंतनधारा का असर पड़ा। नेहरू और सुभाष ने पूरे देश का दौरा करके समाजवादी विचारधारा को अपनाने की शिक्षा दी। आर्थिक मंदी की वजह से किसानों और मजदूरों की हालत खराब हो गई थी। फिर भी वे अपने अधिकारों के लिए लड़े और उन्हें मजदूर संघ और किसान संगठन बनाने में सफलता मिली। 1936 की लखनऊ कांग्रेस में नेहरू ने समाजवाद की विचारधारा पर जोर दिया तथा कांग्रेस को किसानों व मजदूरों के निकट लाने की कोशिश की। सत्यभक्त ने भारतीय साम्यवादी दल स्थापित करने की घोषणा की। कांग्रेस के बाहर आचार्य नरेन्द्र देव और जयप्रकाश नारायण ने मिलकर कांग्रेस समाजवादी पार्टी का गठन किया। 1939 में सुभाष चंद्र बोस ने फॉरवर्ड ब्लॉक का गठन किया। इस तरह विभिन्न संगठनों के निर्माण में समाजवाद की भूमिका अहम रही। 1942 से पहले की कांग्रेस राजनीति में नेहरू व सुभाष का अध्यक्ष चुना जाना इस बात का स्पष्ट संकेत था कि कांग्रेस में समाजवादी विचारधारा का वर्चस्व हो चुका है। कांग्रेस के करांची अधिवेशन में समाजवादी धारा का स्पष्ट प्रभाव दिखाई देता है।
Question : परमोच्च शक्तिमत्ता की राज्य- अपहरण नीति के दुष्परिणामों को अपवारित कर भारत की रियासतों को समेकित करने में पटेल किस प्रकार सफल हुए?
(1989)
Answer : ब्रिटिश प्रधानमंत्री एटली ने 20 फरवरी, 1947 को घोषणा की कि जून 1948 तक भारत को स्वतंत्र कर दिया जाएगा और ब्रिटिश सरकार किसी भी आने वाली सरकार को अपने अधिकार और कर्त्तव्य सौंप देगी। उससे यह डर बना रहा कि अगर छोटे-छोटे राज्य अपनी संप्रभुता बनाए रहे, तो गृहयुद्ध की स्थिति बन सकती है। साथ ही, ब्रिटेन के हटने के बाद अस्थिरता और अराजकता भी फैल सकती है। भारतीय स्वाधीनता अधिनियम, 1947 के मुताबिक ब्रिटेन का शासन भारत पर खत्म हुआ और राज्यों को छूट दी गई कि वह भारत या पाकिस्तान में शामिल हो सकते हैं। 5 अगस्त ‘47 तक 36 रियासतें भारत में शामिल हो गई, पर कुछ रियासतें भारत में शामिल होने से आनाकानी करने लगीं।
इस मोड़ पर भारत के तत्कालीन गृहमंत्री सरदार पटेल ने चतुर राजनीतिक व कूटनीतिक दूरदर्शिता का परिचय दिया। इस काम में उनकी मदद वी.पी. मेनन ने की। पटेल ने राष्ट्रवादी और देशभक्त नरेशों से अपील की कि वे संविधान सभा में शामिल हो जाएं। उन्होंने यह भी आग्रह किया कि केवल विदेश, रक्षा व यातायात ही केंद्र के जिम्मे रहेंगे और बाकी व्यवस्था वैसी ही होगी, जैसी ब्रिटिश शासन में थी। लेकिन जब रियासतों ने प्रपत्र पर हस्ताक्षर किए, तो उन्हें अपनी संप्रभुता खोनी पड़ी। जूनागढ़, हैदराबाद और जम्मू एवं कश्मीर ने पहले प्रपत्र पर हस्ताक्षर नहीं किए। वहां पर बल और लोकमत विधि प्रयोग करके उन्हें भारतीय प्रदेश में शामिल कर दिया गया। पटेल की राजनीतिक दूरदर्शिता एवं कूटनीति के कारण कश्मीर ने विलय पत्र पर 26 अक्टूबर, 1947 तथा जूनागढ़ व हैदराबाद ने 1948में हस्ताक्षर किए। इस तरह पटेल ने लोकतंत्र की ताकतों को एकजुट कर तथा देशभक्त रियासतों को मिलाकर भारतीय संघ की स्थापना की।
Question : उग्रपंथी राष्ट्रवादी आन्दोलन के विकास में धार्मिक सुधार आन्दोलनों के योगदान का संक्षिप्त विश्लेषण कीजिए?
(1989)
Answer : धार्मिक सुधार आंदोलन ने भारतीयों को आत्मसम्मान, आत्मबल एवं अपने देश के गौरव के प्रति जागरूकता प्रदान किया। इससे अनेक भारतीय आधुनिक दुनिया की वास्तविकता को भी समझने लगे। इस आन्दोलन ने पुरातन धर्म को नए रूप में ढाल कर आधुनिक समाज के लिए उपयोगी बनाया। सुधारक आधुनिक मूल्यों एवं विज्ञान में हो रही प्रगति का समर्थन कर रहे थे एवं इसे भारतीय जीवन में अपनाने पर बल देते थे। इससे धर्मनिरपेक्ष एवं राष्ट्रवादी ताकतों का उदय हुआ और राष्ट्रवाद की भावना में बढ़ोत्तरी हुई। लोग कर्म और ज्ञान पर जोर देने लगे, जिससे उग्रपंथी राष्ट्रवादी गतिविधियों का उदय हुआ, जो समानता, भाईचारे और स्वतंत्रता में विश्वास रखते थे। देखा जाए तो भारत वर्ष में सामाजिक सुधार आंदोलन, धार्मिक सुधार आंदोलन का ही अभिन्न अंग है और यह आंदोलन लोगों में राजनैतिक व आर्थिक उत्थान की भावना को जागृत करने में सफल रहा।
Question : ‘रवीन्द्रनाथ ठाकुर का मानवतावाद ईश्वर तथा मानव में उनके विश्वास का सम्मिश्रण है।’ व्याख्या कीजिए।
(1989)
Answer : अैगोर का मानवतावाद आध्यात्मिक नीवों पर आधारित है। वे मनुष्य को भगवान का प्रतीक मानते हैं। यद्यपि टैगोर आधत्मिक शक्ति में विश्वास रखते थे, फिर भी उन्हें मानव धर्म में विश्वास था। मानवतावादी होने के नाते टैगोर मनुष्य में ईश्वर का अंश देखते थे। वे मानव व्यक्तित्व में विश्व को अन्तर्निहित मान कर मानवता की सीमा रेखा में ईश्वर का दर्शन करते थे। उनका आध्यात्मिक मानवतावाद ईश्वर साधना का एकाकी पथ नहीं है, बल्कि उनका दर्शन समग्र रूप से मानव कल्याण से अभिप्रेरित है। उनकी अवधारणा थी कि ईश्वर पृथ्वी पर कठोर कर्म करने वाले व पत्थर तोड़ने वाले श्रमिकों के हृदय में वास करता है।
Question : निम्नांकित आन्दोलनों के संबंध में आप क्या जानते हैं?
(v)रहनुमाई माज्दायसनाम
(vi) भगत आन्दोलन
(vii) वहाबी आन्दोलन
(1989)
Answer : (i) रहनुमाई माज्दायसनामः रहनुमाई माज्दायसनाम सभा की स्थापना 1850 में बम्बई में नौरोजी फरदोनजी, दादाभाई नौरोजी एवं एस.एस. बंगाली ने की थी। इसका मुख्य उद्देश्य पारसी धर्म में सुधार करना, पारसी समाज को आधुनिक बनाना और पारसी महिलाओं को ऊपर उठाना था। इस सभा को धार्मिक सुधार संगठन भी कहते हैं।
(ii) भगत आन्दोलनः भगत आन्दोलन का नेतृत्व नाना भगत ने किया था। छोटानागपुर के आदिवासियों का ये आंदोलन, चौकीदारीकर और किराए के खिलाफ था। आदिवासी इनके भुगतान के खिलाफ थे। आंदोलन को कुचल दिया गया, परंतु इससे स्थानीय जनता में जागरूकता आई।
(iii) वहाबी आंदोलनः वहाबी आंदोलन की शुरूआत सऊदी अरब के मो. इब्न अब्दुल वहाब ने की। भारत में इसके प्रवर्तक सर सैयद अहमद थे। ये आंदोलन इस्लाम में किसी भी तरह के बदलाव एवं परीक्षण के खिलाफ था। इसका प्रसार मुख्यतः उत्तर एवं पूर्वी भारत में हुआ। पटना, हैदराबाद, मद्रास, बंगाल व बम्बई इसके प्रमुख केंद्र थे। यह 19वीं सदी के चौथे दशक से सातवें दशक तक चलता रहा।
Question : निम्नांकित स्थान कहां हैं और समाचारों में उनके नाम क्यों आए?
(viii)मोगा
(ix) चांदीपुर
(x)दमनस्की द्वीप (शेन पाव)
(1989)
Answer : (i) मोगाः पंजाब के फरीदकोट जिले में मोगा नामक स्थान पर उग्रवादियों ने नेहरू पार्क में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की एक शाखा पर हमलाकर एवं बम फेंक कर अनेक व्यक्तियों को मार डाला।
(ii) चांदीपुरः चांदीपुर, उड़ीसा के तटीय क्षेत्र में स्थित है। यहां से भारत के मध्यम दूरी के प्रक्षेपास्त्र ‘‘अग्नि’ का प्रक्षेपण किया गया।
(iii) दमनस्की द्वीपः यह द्वीप सोवियत संघ एवं चीन की सीमा के बीच पढ़ता है। इसके अधिपत्य को लेकर दोनों देशों में विवाद है।
Question : निम्नांकित की प्रशस्ति का कारण क्या है?
(xi) सुब्रह्मण्यम भारती
(xii) एम.ए. अंसारी
(xiii)चापेकर बन्धु
(xiv)पन्नालाल पटेल
(xv) खुदीराम बोस (प्रत्येक पर दो वाक्य)
(1989)
Answer : (i) सुब्रह्मण्यम भारतीः तमिलनाडु के प्रसिद्ध कवि, पत्रकार, लेखक व सामाजिक कार्यकर्त्ता, जिन्होंने एक तमिल दैनिक का प्रकाशन भी शुरू किया, स्वतंत्रता के प्रबल समर्थक एवं राष्ट्रीय अभिलाषाओं के पक्ष में मुखर स्वर। सिस्टर निवेदिता के आचार-विचारों से प्रभावित।
(ii) एम.ए. अंसारीः दिल्ली के प्रमुख डॉक्टर, जिन्होंने 1912 में तुर्की में मेडिकल मिशन का आयोजन किया, 1920 में मुस्लिम लीग तथा 1922 में खिलाफत कमेटी के प्रमुख कांग्रेस पार्लियामेंटरी पार्टी के संस्थापक अध्यक्ष व 1928-36 तक जामिया मिलिया विश्वविद्यालय के कुलाधिपति रहे।
(iii) चापेकर बंधुः चापेकर बंधुओं (बालाकृष्ण एवं दामोदर) ने 1897 में दो अलोकप्रिय ब्रिटिश आफिसरों मि. रैंड एवं ले. अयरस्ट की पुणे में हत्या की थी।
(iv) पन्नालाल पटेलः पन्नालाल पटेल को 1985 में भारतीय ज्ञानपीठ पुरस्कार (20वां) मिला। वे गुजराती साहित्य से संबंधित हैं।
(v) खुदीराम बोसः मिदनापुर के छात्र भंडारण इम्पोरियम से संबद्ध, जहां स्वदेश में बना हथियार आदि सामान रखा जाता था। मुजफ्रफरपुर में प्रफुल्ल चाकी के साथ मिलकर जिला न्यायाधीश की हत्या का असफल प्रयास, परंतु गिरफ्रतार। 11 अगस्त, 1908 को इस क्रांतिकारी को फांसी दे दी गई।
Question : बंगाल के विभाजन को घटित करने में प्रेरक तत्व क्या थे? उसके परिणाम क्या थे? उसको निराकृत क्यों किया गया? (लगभग) 250 शब्दों में)
(1988)
Answer : राष्ट्र चेतना के अभ्युदय तथा प्रसार के कारण अंग्रेज सरकार अत्यधिक चिन्तित थी। इस सैलाब को रोकने के लिए राष्ट्रीय गतिविधियों के केंद्र बंगाल को लॉर्ड कर्जन ने 7 जुलाई, 1905 को दो प्रान्तों पश्चिम बंगाल और पूर्वी बंगाल में विभाजित करने की घोषणा की। पश्चिम बंगाल में बिहार तथा उड़ीसा और पूर्वी बंगाल में असम को शामिल किया गया। बंगाल विभाजन के पीछे अंग्रेजी सरकार का कुटिल उद्देश्य निहित था। वह ‘बांटो और राज्य करो’ की नीति का अनुसरण करके बंगाल की एकता को समाप्त करना चाहती थी। प्रशासनिक रूप से विभाजन की घोषणा (20 जुलाई 1905) के पीछे प्रांत का बहुत बड़ा होना बताया गया था, परंतु इसके पीछे मुस्लिम व हिन्दुओं को विभाजित करने की चाल थी, जिससे कि सरकार के विरूद्ध चल रही राष्ट्रवाद की तीव्र आंधी को रोका जा सके।
इसके दुष्परिणाम स्वरूप सांप्रदायिक तनाव बढ़ गया, लेकिन मुसलमानों ने बंग-भंग का विरोध करते हुए हिन्दुओं को सहयोग दिया और संपूर्ण देश में बंग-भंग के विरोध में सैकड़ों सभाएं हुई व जुलूस निकाले गए। 16 अक्टूबर, 1905 को विभाजन लागू होने के दिन रवीन्द्रनाथ टैगोर के आह्नान पर शोक दिवस मनाया गया। बंगाल में के.के. मित्र, सुरेन्द्र नाथ बनर्जी व लियाकत हुसैन की अगुवाई में व्यापक जनसमूह ने विरोध प्रकट किया। विदेशी वस्तुओं व सरकारी स्कूलों आदि का बहिष्कार किया गया और स्वदेशी वस्तुओं के उपयोग का आंदोलन चलाया गया। कलकत्ता में अनेक लोगों ने हड़ताल करते हुए नंगे पांव चल कर गंगा स्नान किया व ‘आम्मार सोनार बांग्ला ----’ गीत गाते हुए परस्पर राखियां बांधी। ब्रिटिश सरकार ने अनेक दमनात्मक कदम उठाए तथा 1908 तक अधिकांश नेताओं को जेल में बंद कर दिया। आंदोलन के दूरगामी परिणाम हुए तथा आंदोलन गरमपंथी नेतृत्व के हाथों में चला गया। आंदोलन की व्यापकता को देखते हुए ब्रिटिश सरकार बंगाल विभाजन की योजना को कार्यरूप देने के बावजूद इसे निरस्त करने के लिए मजबूर हो गई। अंततः 1911 में बंगाल को पुनः एकीकृत कर दिया गया।
Question : महात्मा गांधी ने इर्विन के सामने जो मांगें पेश कीं, उनका विश्लेषण कीजिए। सत्याग्रह के संचालन में केन्द्रस्थ विषय के रूप में नमक कैसे उभर कर आया?
(1988)
Answer : गांधीजी द्वारा लॉर्ड इर्विन को प्रस्तुत की गई प्रमुख मांगें निम्नवत थीं:
ब्रिटिश सरकार ने इनमें से किसी भी मांग को नहीं माना और न ही वह राष्ट्रवादी आंदोलन को किसी प्रकार की राजनैतिक छूट देने को तैयार हुई। साथ ही, ब्रिटिश सरकार ने रियासतों को कोई भी स्वतंत्रता देने से इंकार कर दिया। गांधीजी ने सभी मांगों को इस कुशलता के साथ रखा कि इससे जनसमुदाय में राष्ट्रीय चेतना की भावना का तेजी से प्रसार हुआ। गांधीजी चाहते थे कि देश का धन देश के सामाजिक-आर्थिक विकास में उपयोग हो तथा धन के देश से बाहर जाने पर नियंत्रण किया जाए।
सत्याग्रह शुरू करने का मुख्य विषय नमक बन गया, क्योंकि यह गरीब अथवा धनी सभी लोगों के दैनिक उपभोग की अत्यावश्यक वस्तु था। नमक का बढ़ता मूल्य गरीबों को सर्वाधिक प्रभावित करता था। अधिकांश लोगों को ब्रिटिश अधीनता से बाहर निकाल कर राष्ट्रीय आन्दोलन से जोड़ने के लिए प्रेरित करने के उद्देश्य से ही नमक को सत्याग्रह शुरू करने का माध्यम बनाया गया। गांधीजी ने अपार जनसमूह के समर्थन से साबरमती आश्रम (12 मार्च, 1930) से डांडी (6 अप्रैल, 1930 तक की यात्रा करके नमक कानून का उल्लंघन करके नमक बनाया।
Question : गांधी-इर्विन समझौता क्या था? इस पर हस्ताक्षर क्यों किए गए? उसके क्या परिणाम थे?
(1988)
Answer : साइमन आयोग की रिपोर्टानुसार, शासन संबंधी सुधारों पर विचार के उद्देश्य से 1930 में लंदन में बुलाया गया प्रथम गोलमेज सम्मेलन कांगेस के भाग न लेने के कारण असफल रहा। इस घटना से ब्रिटिश सरकार ने कांग्रेस के महत्व को समझते हुए कांग्रेस के साथ किसी समझौते पर पहुंचने को प्राथमिकता दी। अतः 5 मार्च, 1931 को गांधीजी व लॉर्ड इर्विन के बीच एक समझौता संपन्न हुआ, जिसकी मुख्य बातें निम्नवत थीं:
समझौते के परिणामस्वरूप, कांग्रेस ने सविनय अवज्ञा आंदोलन स्थगित कर दिया और लंदन में द्वितीय गोलमेज सम्मेलन (1931)में कांग्रेस की ओर से गांधीजी ने भाग लिया। लेकिन अपने द्वारा रखे गए प्रस्तावों पर असहमति के बाद वे भारत लौट आए और इस आन्दोलन को पुनः शुरू कर दिया।
Question : बुनियादी शिक्षा के संबंध में महात्मा गांधी की अवधारणा क्या थी? रवीन्द्रनाथ टैगोर उनसे किन बातों में सहमत नहीं थे?
(1988)
Answer : बुनियादी शिक्षा के बारे में गांधी जी ने प्रथम बार 1937 में अपने विचार प्रकट किए। इसे ‘नयी तालीम’ नाम से भी संबोधित किया गया। गांधी ने बुनियादी शिक्षा में शारीरिक प्रशिक्षण, स्वच्छता व स्वावलम्बन पर जोर दिया है। उनके अनुसार, किसी प्रकार के हस्तकौशल या कारीगरी के माध्यम से दी जाने वाली शिक्षा शीघ्र ग्राह्यव लाभकारी होती है। इस पद्धति से व्यक्ति का सर्वाधिक मानसिक व आध्यात्मिक विकास होता है। गांधी के अनुसार, बालकों को जीवकोपार्जन के लिए प्रशिक्षित करना चाहिए तथा उसी के अनुरूप उनके शरीर, मस्तिष्क, हृदय आदि की शक्तियों का विकास करना चाहिए। इससे वह अपने व्यवसाय में निपुणता प्राप्त कर लेगा। उन्होंने बालकों के लिए कला, संगीत व शारीरिक प्रशिक्षण के अलावा रस व सौन्दर्य बोध के विकास पर भी ध्यान देने को आवश्यक बताया है।
टैगोर ने अपने शिक्षा संबंधी विचारों में ऐसी शिक्षा की आवश्यकता पर बल दिया है, जिससे मनुष्य सामाजिक व प्राकृतिक परिवेश में विश्वात्मा को देखे। वे औपचारिक वातावरण के स्थान पर सुरम्य प्राकृतिक वातावरण में शिक्षा देने के पक्षपाती थे। वे बाल मस्तिष्क को पूर्ण स्वतंत्रता देने व उसे अपनी रुचि की शिक्षा की ओर प्रवृत्त होने देने के दृष्टिकोण का समर्थन करते थे। उनके अनुसार, जो भी शिक्षा हो वह आर्थिक विकास के साथ-साथ सांस्कृतिक व कलात्मक विकास करने वाली भी हो। टैगोर ने स्व-सहायता, स्व-अनुशासन व ग्राम सेवा पर काफी बल दिया है।
Question : ‘डिस्कवरी ऑफ इण्डिया’में नेहरू के प्रभाव प्रतिपाद्य विषय को स्पष्ट कीजिए।
(1988)
Answer : जवाहरलाल नेहरू द्वारा लिखित ‘भारत एक खोज’ का मुख्य सार भारत व भारतीयों की गरिमामयी विरासत को उजागर करना है। वह भारत के इतिहास की सार्थकता और वर्तमान में उसके महत्व पर प्रकाश डालना चाहते थे। इस पुस्तक से भारत की गरिमामयी बौद्धिक एवं सांस्कृतिक विरासत पर प्रकाश डाला गया है। उक्त पुस्तक में ब्रिटिश शासकों द्वारा किए गए अमानवीय कृत्यों तथा आर्थिक संरचना को नष्ट करने के प्रयासों को भी प्रमुखता दी गई है। नेहरू के विचारानुसार, आन्तरिक संघर्ष, तानाशाही के बाहरी दबाव, भीतरघात व घृणा का शिकार होकर भी भाईचारे के उद्देश्य को बनाए रखने की भारतीय सभ्यता की परम्परा विश्व में अन्यत्र मिलनी दुलर्भ है।
Question : सन् 1947 से पूर्व की अवधि में रूस के प्रति नेहरू के दृष्टिकोण को स्पष्ट कीजिए।
(1988)
Answer : 1929 में अमेरिका जबर्दस्त मंदी के दौर से गुजर रहा था, जिसने पूंजीवादी देशों पर आर्थिक रूप से प्रत्यक्ष और अन्य क्षेत्रें में अप्रत्यक्ष रूप से प्रभाव डाला। इस मंदी के दौर में रूस ही एक ऐसा देश था, जो न केवल अप्रभावित रहा, बल्कि उसने महत्वपूर्ण प्रगति भी की। रूस की इसी आर्थिक योजना से नेहरू अत्यन्त प्रभावित हुए और इसे अपनी आर्थिक योजनाओं का एक हिस्सा बनाया।
Question : नारी उत्थान के लिए 1856-1956 की अवधि में जो विधायी अध्युपाय पारित किए गए, उनका परिचय दीजिए। हाल ही में सती का प्रतिरोध करते हुए नया अधिनियम क्यों पारित किया गया?
(1988)
Answer : महिलाओं के उत्थान के लिए सरकार एक निश्चित एवं सोची-समझी नीति पर चल रही है। समाज में महिलाओं की दशा सुधारने के लिए समय-समय पर वैधानिक कारवाइयां भी की गई हैं, जो निम्नवत हैं-
स्वतंत्र भारत का संविधान स्त्री व पुरुष दोनों को समानता प्रदान करता है। इस संबंध में स्वतंत्र भारत में सबसे महत्वपूर्ण कानून विशेष विवाह अधिनियम 1954, हिन्दू विवाह अधिनियम 1955, हिन्दू उत्तराधिकार अधिनियम 1956 आदि हैं। 1955 के अधिनियम के अनुसार, लड़की की आयु 15 वर्ष व लड़के की आयु 18 वर्ष निर्धारित की गई। 1956 के अधिनियम के अनुसार, लड़की को पिता की संपत्ति में पुत्र के साथ बराबरी का हक दिया गया।
सती प्रथा की रोकथाम के लिए नया अधिनियम लाने का मुख्य कारण देवराला (राजस्थान) में रूपकुंवर द्वारा सती होना रहा।
Question : भारत के सामाजिक जनजीवन में निम्नलिखित का योगदान समझाइए। (प्रत्येक के लिए एक वाक्य)
(1988)
Answer : (i) इला भट्टः इन्होंने सेल्फ एजुकेशन वुमेन एसोसिएशन (सेवा) के बैनर तले महिलाओं के उद्धार के लिए कार्य किया और उन्हें आत्मनिर्भर बनाने तथा समाज में उचित स्थान दिलाने का प्रयास किया।
(ii) एम.जी. रानाडेः सुप्रसिद्ध समाज सुधारक व 1867 में केशव चन्द्र सेन की प्रेरणा से बम्बई में प्रार्थना समाज के संस्थापकों में एक, जिन्होंने विधवाओं के पुनर्विवाह तथा उनके कल्याण पर जोर दिया और 1887 में ज्वलंत सामाजिक प्रश्नों हेतु मद्रास में नेशनल सोशल कांफ्रेंस का आयोजन किया।
(iii) नारायण गुरुः केरल के गरीब इझावा परिवार में जन्मे जाति प्रथा के कट्टर विरोधी (विशेषकर अस्पृश्यता के), जिन्होंने इझावाओं के सामाजिक, आर्थिक, शैक्षिक व सांस्कृतिक उत्थान के लिए श्रीनारायण धर्मपरिपालनयोगम की स्थापना की।
(iv) मदनमोहन मालवीयः 1861 में इलाहाबाद में जन्मे व पढ़े, काशी हिन्दू विश्वविद्यालय के संस्थापक व उपकुलपति, इंडियन यूनियन, हिन्दुस्तान टाइम्स, अभ्युदय व लीडर के संपादक, इलाहाबाद उच्च न्यायालय के प्रमुख वकील और स्वतंत्रता सेनानी मालवीयजी भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के अध्यक्ष रहे तथा 1931 में लंदन में गोलमेज सम्मेलन में भाग लिया।
(v)आचार्य नरेन्द्र देवः सुप्रसिद्ध वकील, राजनीतिज्ञ, काशी विद्यापीठ के प्राचार्य व विद्वान, जिन्होंने गांधीजी के असहयोग आंदोलन के दौरान वकालत छोड़ दी तथा आरंभ में कांग्रेस में समाजवादी दल के नेता रहे और बाद में कांग्रेस से अलग होकर 1948 में सोशलिस्ट पार्टी की स्थापना की।
(vi) बिरसा मुण्डाः मुण्डा (जनजाति) विद्रोहहियों के नेता जिसके नेतृत्व में उन्नीसवीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध में मुण्डाओं ने मुण्डा स्वशासन की स्थापनार्थ ब्रिटिश शासन के खिलाफ विद्रोह किया और अंग्रेज सरकार ने फरवरी 1860 में इन्हें गिरफ्रतार कर लिया। जेल में ही हैजे से इनकी मृत्यु हो गई।
(vii) बाबा आम्टेः महाराष्ट्र के चन्द्ररपुर जिले में कुष्ठ रोगियों व लिकलांग व्यक्तियों के लिए ‘आनन्दवन’ आश्रम के संस्थापक व 1985 के रेमन मैग्सेसे पुरस्कार के विजेता, जिन्होंने गत दिनों पंजाब में शांति स्थापनार्थ व देश की एकता व अखंडता के लिए ‘भारत जोड़ों यात्रा’ की।
(viii) मालती देवी चौधरीः उड़ीसा की बुजुर्ग स्वाधीनता सेनानी, जिन्होंने सच्चे मन से बच्चों, स्त्रियों एवम् आदिवासियों की शिक्षा व बेहतरी के लिए काफी कार्य किया।
(ix) डॉ. जाकिर हुसैनः सुप्रसिद्ध शिक्षाशास्त्री, जामिया मिलिया (दिल्ली) के संस्थापक, अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय के कुलपति, बिहार के राज्यपाल (1952-62), भारत के उपराष्ट्रपति (1962-67) व बाद में राष्ट्रपति (1967-69), भारत रत्न पुरस्कार पुरस्कार (1963) से सम्मानित, जिनका देहान्त 3 मई, 1969 को हुआ।
(x)सी.एन. अन्नादुरैः सुप्रसिद्ध विद्वान व समाज सुधारक, जिन्होंने कामगारों व सामाजिक रूप से पिछड़े लोगों के उत्थान के लिए कार्य करने के साथ ही तमिल भाषा के प्रचार के लिए भी कार्य किया।
Question : सामाजिक-धार्मिक सन्दर्भ में निम्नलिखित का महत्व समझाइएः (प्रत्येक लगभग 50 शब्दों में)
(i)आलवार संत
(ii)फरायजियों का आन्दोलन
(iii) कूका आंदोलन
(1988)
Answer : (i) आलवार संतः ये तमिल राज्य में 7वीं से 9वीं शताब्दी की अवधि में वैष्णव धर्म के मतावलम्बी व प्रचारक थे। इनमें कुल 12 संतों को मान्यता मिली है, जिसमें रामानुजाचार्य, माधवाचार्य आदि प्रमुख हैं। इनमें विभिन्न व्यवसायों से जुड़े स्त्री व पुरुष थे, जो कि विभिन्न स्थानों पर भ्रमण करते हुए अपनी भक्तिपूर्ण रचनाएं गाते थे। इन्होंने आराध्य और भक्तों के बीच वैयक्तिक संबंधों पर जोर देकर हिन्दू मत को एक नया मोड़ दिया तथा भक्ति की प्रचलित धारणाओं के स्थान पर अच्छे कार्यों द्वारा ईश्वर भक्ति करने पर बल दिया।
(ii) फरायजियों का आंदोलनः फरीदपुर के हाजी शरीयतुल्लाह ने पूर्वी बंगाल में फरायजी संप्रदाय की स्थापना की। ब्रिटिश सरकार की किसानों के खिलाफ जुल्म भरी नीतियों के विरोध में धार्मिक भावनाओं से युक्त फराजियों ने शरीयतुल्ला के नेतृत्व में आंदोलन आरंभ किया। इस आंदोलन का लक्ष्य इस्लाम की कुरीतियों को दूर करना था। ये जमींदारों द्वारा किसानों के शोषण के विरूद्ध थे तथा मुस्लिम शासन की स्थापना करके सामाजिक व राजनीतिक परिवर्तनों के पक्षधर थे। बाद में इसका नेतृत्व दादू मियां ने किया।
(iii) कूका आंदोलनः इस आंदोलन की शुरूआत 1840 में पश्चिमी पंजाब में भगत जवाहरमल (सेन साहब) ने सिख धर्म में आयी कुरीतियों को दूर करने के उद्देश्य से की थी। सेन साहब के प्रसिद्ध अनुयायी बालक सिंह थे। इनका मुख्यालय हाजरों में था। 1863 व 1872 में अंग्रेजों ने कुकाओं को कुचलने के लिए सैनिक कार्रवाइयां कीं तथा इनके प्रमुख नेता रामसिंह कूका को रंगून जेल भेज दिया, जहां उनकी मृत्यु हो गई।
Question : स्वराज पार्टी के प्रादुर्भाव का परिचय दीजिए। स्वराज पार्टी का घोषणापत्र क्या था? स्वराजवादियों की मांगें क्या थीं? उन पर ब्रिटिश शासन की प्रतिक्रिया क्या थी? (लगभग 250 शब्दों में)
(1990)
Answer : 1922 में चौरी-चौरा कांड के परिणामस्वरूप गांधीजी ने असहयोग आन्दोलन को दुखी मन से स्थगित कर दिया। गांधीजी के इस कार्य का जनता के साथ-साथ राष्ट्रवादी नेताओं की भावनाओं पर विपरीत प्रभाव पड़ा। आन्दोलन के नेताओं के बीच बढ़ते मतभेद के चलते दो प्रकार की विचारधाराओं का जन्म हुआ। एक विचारधारा परिवर्तनवादियों की थी, जो कि नेतृत्व में परिवर्तन की मांग करने लगे थे। इनमें देशबंधु चितरंजन दास, हकीम अजमल खां, विट्ठल भाई पटेल तथा मोतीलाल नेहरू प्रमुख थे। दूसरी विचारधारा अपरिवर्तनवादियों की थी, जो गांधीजी के नेतृत्व में पूर्ण विश्वास रखते थे तथा किसी भी प्रकार के परिवर्तन के पक्ष में नहीं थे। इनमें राजेन्द्र प्रसाद, राजगोपालाचारी, सरदार पटेल आदि प्रमुख थे। कांग्रेस के गया अधिवेशन (1922) में एक ओर परिवर्तनकारी 1919 के अधिनियम के अन्तर्गत निर्मित परिषदों में प्रवेश करने व निर्वाचन में भाग लेकर अंदर से सहयोग के पक्षधर थे, तो दूसरी ओर अपरिवर्तनकारी परिषद में प्रवेश के विरोधी तथा गांधीजी द्वारा सुझाए गए रचनात्मक कार्य किए जाने के पक्षधर थे। परिवर्तनवादी कांग्रेसियों ने गया अधिवेशन में एक प्रस्ताव पेश करके परिषदों में प्रवेश की अनुमति मांगी, लेकिन प्रस्ताव बहुमत द्वारा अस्वीकृत कर दिया गया। फलतः देशबंधु ने अध्यक्ष पद व मोतीलाल नेहरू ने कांग्रेस के महामंत्री पद से त्यागपत्र दे दिया। 1 जनवरी, 1923 को इन्होंने अखिल भारतीय सम्मेलन बुलाकर कांग्रेस के समानांतर ही स्वराज पार्टी का गठन किया। देशबंधु इसके अध्यक्ष तथा मोतीलाल नेहरू सचिव बनाए गए। स्वराज पार्टी ने अपने गठन के साथ ही 1919 के अधिनियम के अन्तर्गत परिषद निर्वाचनों में भाग लेने व विधायिका में प्रवेश करके सरकार के साथ असहयोग करने का निर्णय लिया।
स्वराज पार्टी का चुनाव घोषणा-पत्र 1923 में प्रकाशित हुआ इसकी प्रमुख बातें निम्नलिखित थीं-
कांग्रेस का समर्थन हासिल करके स्वराज पार्टी ने चुनावों (नवम्बर, 1923) में भाग लिया तथा 145 में से 45 स्थान जीते। बंगाल व मध्य प्रांत की व्यवस्थापिकाओं में उन्हें पूर्ण बहुमत मिला। फरवरी 1924 में मोतीलाल नेहरू ने केंद्रीय व्यवस्थापिका में एक प्रस्ताव प्रस्तुत किया, जो कि 1919 के अधिनियम में परिवर्तन से संबंधित था। प्रस्ताव में स्वराज पार्टी ने अपनी मांगें स्पष्ट की थीं।
इनकी प्रमुख मांगें थीं-
I.भारत के सभी प्रतिनिधियों की गोलमेज परिषद का आयोजन हो, जो अल्पसंख्यकों के अधिकारों व हितों की सुरक्षा को दृष्टि में रखते हुए भारत के लिए एक विधान का निर्माण कर सके।
II.वर्तमान व्यवस्थापिका भंग हो तथा नवीन व्यवस्थापिका के समक्ष उक्त योजना प्रस्तुत हो। इसे बाद में कानून बनाने के लिए ब्रिटिश संसद को प्रस्तुत किया जाए।
सर मैलकम हैली ने स्वराज पार्टी की उक्त मांगों पर विचार का आश्वासन दिया, लेकिन पार्टी के विधानसभा सदस्य हैली के उत्तर से संतुष्ट नहीं हुए। इसकी प्रतिक्रिया में सदस्यों ने अनुदान मांगों को अस्वीकृत व वित्त विधेयक को पारित नहीं होने दिया। 1919 के अधिनियम के क्रियान्वयन की जांच की स्वराज पार्टी की मांग के दृष्टिगत 1924 में सर मुडीमैन की अध्यक्षता में मुडीमैन रिफॉर्म इन्क्वायरी कमेटी की स्थापना की गई।
Question : द्वितीय विश्व युद्ध के प्रति इण्डियन नेशनल कांग्रेस का दृष्टिकोण क्या था? अगस्त प्रस्ताव क्या था? वे कौन से कारक थे, जिनके कारण ब्रिटिश शासन को अपनी निषेधात्मक नीति को बदल कर क्रिप्स को भारत भेजना पड़ा?
(1990)
Answer : द्वितीय महायुद्ध की घोषणा ने इंडियन नेशनल कांग्रेस को दुविधा में डाल दिया, क्योंकि अंतरराष्ट्रीय नीति के क्षेत्र कांग्रेस की सहानुभूति ब्रिटेन और उसके सहयोगियों के साथ थी और कांग्रेसी युद्ध में ब्रिटेन की हार नहीं चाहते थे। ब्रिटिश लोकतंत्र, स्वतंत्रता व संसदीय संस्थाओं के प्रति कांग्रेस में आदर का भाव था, जबकि नाजियों को वे स्वतंत्रता तथा लोकतंत्र का दुश्मन समझते थे। इंग्लैण्ड द्वारा 3 सितंबर, 1939 को युद्ध की घोषणा के उपरान्त वायसराय लिनलिथगो ने गांधीजी को बातचीत के लिए आमंत्रित किया, लेकिन यह प्रयास असफल रहा। ब्रिटिश सरकार ने भारतीय जनता से पूछे बिना ही भारत को युद्ध की आग में धकेल दिया। कांग्रेस ने इस पर तीव्र आपत्ति की तथा ब्रिटिश सरकार को प्रथम महायुद्ध में किए गए वादों के उल्लंघन का स्मरण करााया।भारत मंत्री ने 1939 में वायसराय को सलाह दी कि इस गतिरोध को दूर करने के लिए कांग्रेस व मुस्लिम लीग के नेताओं की एक सभा बुलायी जाए, लेकिन सरकार ने इस पर कोई ध्यान नहीं दिया। अन्ततः कांग्रेस ने असंतुष्ट होकर मंत्रिमंडल से त्यागपत्र दे दिया तथा प्रान्तीय कांग्रेस मंत्रिमंडलों को ब्रिटिश सरकार की युद्धमें किसी प्रकार की सहायता न करने का आदेश दिया। कांग्रेस की मांग थी कि ब्रिटेन, भारत को स्वतंत्र राष्ट्र घोषित करे तथा तुरन्त ही लोक शासन की स्थापना करे। कांग्रेस ने कहा कि भारत-ब्रिटेन को युद्ध में सहयोग दे सकता है, यदि यह सहयोग बराबरी व स्वेच्छा के आधार पर हो। 7 जुलाई, 1940 को कांग्रेस ने पूना प्रस्ताव में ब्रिटेन को शर्तों के आधार पर सहयोग देने का प्रस्ताव रखा। मुख्य प्रस्ताव युद्धोपरांत भारत को पूर्ण स्वतंत्रता तथा भारतीय प्रशासन के केंद्रीय क्षेत्र में तत्काल अस्थायी मिली-जुली सरकार की नियुक्ति का था। संवैधानिक गतिरोध दूर करने हेतु भारतीयों के लिए औपनिवेशिक स्वराज्य के संदर्भ में एक प्रस्ताव की घोषणा 8 अगस्त, 1940 को लॉर्ड लिनलिथगो ने की। इसे ही अगस्त प्रस्ताव कहा जाता है। प्रस्ताव की प्रमुख बातें निम्नलिखित हैंः
कांग्रेस ने इन प्रस्तावों को असंतोषजनक व निराशाजनक बताते हुए ठुकरा दिया। महात्मा गांधी ने व्यक्तिगत सत्याग्रह आरंभ किया। इधर, जापान भी युद्ध में शामिल हो गया तथा वह अमेरिका, सोवियत संघ व चीन पर सफलता हासिल करते हुए दक्षिण पूर्व एशिया में बर्मा तक आ गया। युद्ध का भारतीय सीमा तक विस्तार होने पर ब्रिटेन की चिन्ता बढ़ने लगी तथा उसने अपनी निषेधात्मक नीति में बदलाव लाते हुए कांग्रेस व अन्य नेताओं का सहयोग प्राप्त करने की नीति अपनायी। अंग्रेजों ने 11 मार्च, 1942 को सर स्टैफोर्ड क्रिप्स के नेतृत्व में एक मिशन भारत भेजा। क्रिप्स अपने साथ युद्धकालीन व युद्धोत्तरकालीन प्रस्ताव लाए थे, लेकिन भारतीय जनता ने उन्हें अस्वीकार कर दिया।
Question : महात्मा गांधी की समाजवाद विचारधारा क्या थी? मार्क्सवादी समाजवाद से वह किस प्रकार भिन्न थी?
(1990)
Answer : गांधी का समाजवाद उनकी विचार पद्धति का ही एक व्यापक नाम है। गांधीजी को समाजवाद की प्रेरणा ‘ईशोपनिषद’ के प्रथम श्लोक से मिली थी। वे इस मूल समाजवादी विचार में विश्वास रखते थे कि मनुष्य को अपना पेट भर लेने से अधिक की इच्छा नहीं करनी चाहिए। गांधी ने अन्याय के अहिंसात्मक विरोध का पाठ पढ़ाया है। हालांकि गांधीजी ने कार्ल मार्क्स के समान कोई व्यवस्थित जीवन-दर्शन प्रस्तुत नहीं किया, फिर भी गांधीवादी तथा मार्क्सवादी समाजवाद की तुलना करने पर यह स्पष्ट होता है कि दोनों ही सिद्धान्तों में एक सीमा तक समरूपता है। गांधी की मान्यता थी कि श्रम (मजदूर) और पूंजी एक-दूसरे के विरोधी नहीं हैं। गांधीवादी समाजवाद प्रचलित समाजवाद की वर्ग संघर्ष की धारणा के विपरीत वर्ग सहयोग व वर्ग सामंजस्य पर विश्वास रखता है। गांधी राज्य के नियंत्रण के पक्षपाती थे। वे गरीब और अमीर के बीच की खाई को पाटना चाहते थे। उनकी इसी कामना ने ट्रस्टीशिप के सिद्धान्त को जन्म दिया। कार्ल मार्क्स भी गांधी की ही भांति गरीबी-अमीरी के अन्तर को मिटाना चाहता था। गांधी अहिंसा के समर्थक थे और वे अमीरों को समझा-बुझाकर रास्ते पर लाना चाहते थे, जबकि मार्क्स क्रांति द्वारा अमीर वर्ग को समाप्त कर शासन का सूत्र सर्वहारा के हाथों में देना चाहता था। गांधी का समाजवाद नैतिक-आर्थिक पुनरूत्थान पर आधारित था, जिसमें सामाजिक भेदभाव तथा व्यक्ति-व्यक्ति के मध्य आर्थिक असमानता नहीं होती है। सभी को विकास के पूर्ण अवसर प्राप्त होते हैं और किसी का शोषण नहीं हो पाता है। वैसे तो मार्क्स भी समाज की वर्तमान व्यवस्था से असंतुष्ट था और समाज में विषमता का पूर्ण विरोधी भी था, परंतु गांधीवाद कुछ दृष्टिकोण से समाजवाद (मार्क्सवाद) से भिन्न है। गांधीवाद का सिद्धान्त आत्मवादी है, जबकि मार्क्स का समाजवाद भौतिकवादी है। मार्क्सवाद मनुष्य को आर्थिक प्राणी मानते हुए समाजवाद के मशीनीकरण पर बल देता है। इसके विपरीत, गांधी मनुष्य को नैतिक प्राणी स्वीकार करते हुए, सादगी और स्वावलम्बन हेतु पवित्र श्रम का समर्थन करते हैं। मार्क्स का समाजवाद हिंसा की अनुमति देता है, जबकि गांधीवाद का आधार ही अहिंसा है। मार्क्सवाद धर्म को ढोंग की श्रेणी में रखता है, जबकि गांधीवाद मूलतः धर्म पर ही आधारित है। मार्क्सवाद केंद्रीयकरण में तथा गांधीवाद विकेंद्रीकरण में विश्वास करता है। गांधी भारतीय संस्कृति के संरक्षक थे, जबकि मार्क्स ग्रीक संस्कृति के पोषक थे। इसलिए गांधी आत्मपरिष्कार पर बल देते थे, क्योंकि उनका सपना राम-राज्य लाने का था।
Question : ‘1935 के अधिनियम’ की प्रमुख विशेषताएं क्या थीं? इस अधिनियम के प्रति जवाहरलाल नेहरू की प्रतिक्रिया क्या थी? उन्होंने 1937 के चुनावों में क्यों भाग लिया और उसका परिणाम क्या हुआ?
(1990)
Answer : 1935 का गवर्नमेण्ट ऑफ इंडिया एक्ट काफी लम्बा एवं जटिल था। इसमें 451 धाराएं थीं। इस अधिनियम में भारत में एक संघ की स्थापना का प्रावधान किया गया, जिसमें ब्रिटिश भारत के गवर्नर व चीफ कमिश्नर शासित प्रान्त व देशी राज्य शामिल किए जाने थे। अधिनियम के दो मुख्य भाग थे- संघीय व्यवस्था तथा प्रांतीय स्वायत्तता के प्रावधान। संघीय कार्यपालिका का प्रधान गवर्नर जनरल था, जो अपने कार्यों में सलाह देने के लिए मंत्रिपरिषद नियुक्त करता। लेकिन उसके विवेकपूर्ण कार्यों के प्रति मंत्रिपरिषद का कोई हस्तक्षेप नहीं होता। संघ में द्वि-व्यवस्थापिका प्रणाली अपनायी गई, जिसमें उच्च सदन काउंसिल ऑफ स्टेट्स तथा निम्न सदन फेडरल असेम्बली कहलाया। काउंसिल ऑफ स्टेट्स में 260 सदस्य रखे गए एवं उनका कार्यकाल 9 वर्ष रखा गया। इसके एक तिहाई सदस्य हर तीन वर्ष पर मुक्त होते थे। फेडरल असेम्बली में 375 सदस्य रखे गए, जिसमें विभिन्न समुदायों को प्रतिनिधित्व दिए जाने की व्यवस्था की गई। दोनों सदनों को लगभग समान विधायी शक्तियां दी गईं। पूरी विधायी प्रक्रिया पर गवर्नर जनरल का प्रभुत्व रखा गया व उसकी निषेधात्मक शक्ति की सर्वोच्चता बनायी रखी गई।
प्रांतीय स्वायत्तता के प्रावधानों के अंतर्गत प्रांतों की कार्यपालिका शक्तियों को गवर्नर में निहित किया गया, जो स्वविवेक से मंत्रियों के परामर्श के अनुसार कार्य करता था। प्रांतीय विधानपालिकाओं को विधायी, प्रशासनिक व वित्तीय अधिकार दिए गए। विधानसभा सदस्य प्रश्नों, प्रस्तावों, विवादों व स्थगन प्रस्तावों के माध्यम से मंत्रिपरिषद पर नियंत्रण रख सकते थे। गवर्नरों को व्यापक विशेष उत्तरदायित्व सौंप कर सत्ता पर तानाशाही लागू करने की पूरी व्यवस्था की गई। निर्वाचक मंडल को और विस्तृत किया गया, जिससे 14 प्रतिशत लोगों को प्रांतीय व्यवस्थापिका के लिए मत देने का अधिकार मिला। साथ ही सांप्रदायिक निर्वाचक मण्डल को और विस्तृत किया गया।
1935 के अधिनियम में निम्न तीन सूचियां बनायी गईः
1935 के अधिनियम द्वारा एक संघीय न्यायालय व रिजर्व बैंक ऑफ इंडिया की स्थापना के अलावा दो नए प्रान्त- सिंध व उड़ीसा बनाए गए तथा उत्तर-पश्चिम सीमा प्रान्त के लिए एक गवर्नर नामित किया गया। साथ ही, बर्मा व अदन को भारत से अलग कर दिया गया और इंडिया काउंसिल को समाप्त कर दिया गया। इस अधिनियम का संघीय स्वरूप कांग्रेस, मुस्लिम लीग व देशी शासकों ने स्वीकार नहीं किया, जबकि प्रान्तीय स्वरूप तुरन्त लागू कर दिया गया।
इस अधिनियम में किए गए आरक्षणों व संरक्षणों को अंतिम रूप से ब्रिटिश सरकार के नियंत्रण वाला बताते हुए जवाहरलाल नेहरू ने इन पर तीखी प्रतिक्रिया व्यक्त की। नेहरू के अनुसार, इसके प्रावधान प्रतिक्रियावादी, पृथकतावादी, भारतीय हितों के प्रतिकूल व गवर्नर जनरल को शक्तिशाली बनाने वाले थे। कांग्रेस सहित सभी राजनीतिक दलों ने 1937 के प्रांतीय चुनावों में भाग लिया तथा 11 में से 8 राज्यों में कांग्रेस की सरकार बनी। कांग्रेस व अन्य दलों ने इन चुनावों में तभी भाग लिया, जब उन्हें यह आश्वस्त कर दिया गया कि नित्य-प्रति के प्रान्तीय प्रशासन में संबंधित राज्य के गवर्नर का हस्तक्षेप नहीं होगा। 1939 में द्वितीय महायुद्ध छिड़ने पर भारतीय नेताओं से परामर्श किए बिना ब्रिटेन द्वारा भारत को युद्ध में शामिल करने की घोषणा के विरोध में सभी राज्यों के कांग्रेस मंत्रिमंडल ने त्यागपत्र दे दिया।
Question : ब्रिटिश शासन के प्रारंभिक दिनों से लेकर वर्ष 1947 तक नारी शिक्षा की प्रगति का क्रमिक विकास बताइए। (प्रत्येक पर लगभग 150 शब्दों में)
(1990)
Answer : ब्रिटिश शासनावधि के प्रारंभ के समय में गिनी-चुनी महिलाएं ही शिक्षित थीं तथा अधिकांश महिलाओं में शिक्षा का अभाव था। ईस्ट इंडिया कंपनी ने महिलाओं की शिक्षा पर प्रतिबंध लगा दिया था तथा केवल पुरुष वर्ग ही शिक्षा प्राप्त कर सकता था। धीरे-धीरे पाश्चात्य सभ्यता व संस्कृति के संपर्क में आकर भारतीयों ने स्त्री शिक्षा के प्रति उदार दृष्टिकोण अपनाया, लेकिन यह मात्र उच्च वर्ग तक ही सीमित रहा। 1930 के आसपास क्रिश्चियन मिशनरियों व भारतीय समाज सुधारकों, (राजा राममोहन राय, दादाभाई नौरोजी व ज्योतिबा फुले) के प्रयासों से स्त्री शिक्षा की नींव रखी गई। ब्रिटिश शासनकाल में स्त्री शिक्षा के प्रसार हेतु उठाए गए प्रमुख कदम निम्नलिखित हैं-
Question : लाला लाजपतराय और बाल गंगाधर तिलक ने भारत में सामरिक राष्ट्रवाद की धारणा का समर्थन कैसे किया?
(1990)
Answer : गरमपंथियों को अंग्रेजों की न्यायप्रियता में विश्वास नहीं था तथा वह संघर्ष द्वारा भारत को आजाद करना चाहते थे। गरमपंथियों का नेतृत्व लाला लाजपत राय, लोकमान्य तिलक व विपिन चंद्र पाल ने किया। लाला लाजपत राय जिन्हें ‘शेरे पंजाब’ के नाम से भी जाना जाता है, ने अपने समाचार पत्रों ‘पंजाब’ (अंग्रेजी) व ‘वंदे मातरम्’ (उर्दू) द्वारा राष्ट्रवादी भावनाओं को उद्वेलित कर अंग्रेजी शासन के प्रति उत्पन्न घृणा को तीव्र बनाया। उन्होंने 1907 में किसानों के एक जबर्दस्त आन्दोलन का संचालन किया। साइमन कमीशन के विरोध में निकाले गए जुलूस के दौरान पुलिस लाठी चार्ज में लाजपत राय घायल हो गए तथा 1928 में इनकी मृत्यु हो गई। तिलक ने ‘मराठा’ (अंग्रेजी) तथा ‘केसरी’ (मराठी) समाचार-पत्रों के संपादक के रूप में राष्ट्रवादी भावनाओं का प्रसार किया। तिलक ने राष्ट्रीय भावनात्मक एकता को सुदृढ़ करने के लिए शिवाजी उत्सव (1895) तथा गणेश उत्सव (1893) आरंभ किए। तिलक की यह उक्ति ‘स्वराज्य हमारा जन्म सिद्ध अधिकार है’, उनकी राष्ट्रवाद की भावना को स्पष्ट उजागर करती है। उनकी मान्यता थी कि ब्रिटेन केवल दबाव की भाषा समझता है तथा स्वराज्य भिक्षा से प्राप्त नहीं हो सकता है। तिलक विदेशी वस्तुओं के बहिष्कार, स्वदेशी वस्तुओं के प्रयोग तथा स्वदेशी शिक्षा द्वारा अंग्रेज सरकार से संघर्ष की प्रेरणा देते थे।
Question : ‘यदि अरविन्द स्वदेशी आन्दोलन के ग्रथित पुरोघा थे, तो रवीन्द्रनाथ इस आन्दोलन के कवि मनीषी थे।’ पल्लवित कीजिए।
(1990)
Answer : अरविन्द घोष ने अपने सत्याग्रह के सिद्धान्त व स्वदेशी आंदोलन के जरिए अंग्रेज सरकार की नीतियों एवं उनकी सत्ता का बहिष्कार किया। वे भारतीय सिविल सेवा में चयनित हो गए थे, लेकिन अनिवार्य घुड़सवारी परीक्षा में उन्होंने भाग नहीं लिया और इसी कारणवश उन्हें इस सेवा को त्यागना पड़ा। 1906 में प्रोफेसर पद से त्यागपत्र देकर वे स्वतंत्रता आंदोलन में सक्रिय हो गए और बंग-भंग आंदोलन में सक्रिय भाग लिया। उन्होंने प्रशासन, पुलिस, ब्रिटिश वस्तुओं व न्यायालयों का बहिष्कार किया और देशी वस्त्रों व स्कूलों को बढ़ावा देने के लिए जागरूकता बढ़ाने का काम आरंभ किया। वन्देमातरम पत्रिका द्वारा अपने लेखों में श्री घोष ने राष्ट्रप्रेम का संदेश दिया तथा धर्म व दर्शन को राष्ट्रीयता का आधार बताया। श्री घोष के अनुसार, आत्मविकास स्वतंत्रता के वातावरण में ही संभव है। भारत की स्वतंत्रता, उनकी आत्मा की पुकार थी तथा राष्ट्रीयता मानव जीवन का सर्वोत्तम भाव।
टैगोर ने अपनी लेखनी व संभाषणों के द्वारा राष्ट्रीय आंदोलन को गतिशील बनाया। उन्होंने देशभक्तिपूर्ण गीतों द्वारा भारत के गौरवपूर्ण अतीत व संस्कृति को प्रस्तुत करके जन-जन को प्रेरित किया। आमार-सोनार बांग्ला----- जैसे गीतों ने राष्ट्रप्रेमियों को क्रांति के लिए प्रेरणा प्रदान की। जलियांवाला बाग काण्ड के विरोध में उन्होंने अपनी ‘सर’ की उपाधि त्याग दी। इस प्रकार घोष के अध्यात्म व टैगोर के देशभक्तिपूर्ण गीतों ने स्वदेशी आंदोलन को प्रेरणा प्रदान की।
Question : रामकृष्ण मिशन में स्वामी विवेकानन्द की भूमिका को विशेष रूप से ध्यान में रखते हुए इस संस्था का समीक्षात्मक परिचय दीजिए।
(1990)
Answer : रामकृष्ण मिशन की स्थापना मई 1897 में स्वामी विवेकानन्द ने अपने गुरु स्वामी रामकृष्ण परमहंस की स्मृति में की थी। स्वामी विवेकानन्द ने अपने गुरु के सिद्धान्त ‘मानवता की सेवा’ का अपने व्यावहारिक जीवन में अक्षरशः पालन किया। रामकृष्ण मिशन द्वारा विवेकान्द वेदान्त दर्शन के ‘तत् त्वमसि’ सिद्धान्त को व्यवहार रूप में प्रस्तुत करना चाहते थे। यह संस्था वैज्ञानिक प्रगति व चिन्तन के साथ-साथ प्राचीन भारतीय अध्यात्मवाद को जनकल्याणकारी बनाने हेतु आज भी प्रयत्नशील है। यह मिशन समाज सुधार व समाज सेवा में देश के अग्रगामियों में से एक है। इसके द्वारा विद्यालय, चिकित्सालय, कॉलेज आदि चलाए जा रहे हैं तथा कृषि, कला व शिल्प के प्रशिक्षण की व्यवस्था के साथ ही पुस्तकें व पत्रिकाएं प्रकाशित की जाती हैं। स्वामीजी ने भावनात्मक उत्कृष्टता व हिन्दूवाद पर भी जोर दिया। उन्होंने ‘गर्व से कहो हम भारतीय हैं’ उद्घोष द्वारा लोगों के मन में राष्ट्रवाद का दीप जलाया। स्वामीजी के संदेशों को रामकृष्ण मिशन ने विदेशों में भी प्रसारित किया।
Question : रॉयल इंडियन नेवी का विद्रोह कब और क्यों हुआ? उन्होंने इस आन्दोलन को स्थगित क्यों कर दिया? इस आंदोलन के प्रति गांधी और पटेल के दृष्टिकोण क्या थे? (प्रत्येक पर लगभग 50 शब्दों में)
(1990)
Answer : 1945-46 की शीत ऋतु में सैनिक सेवाओं में भी विद्रोह फैल गया, जिसने ब्रिटिश सम्मान को ठेस पहुंचायी। कलकत्ता से प्रारंभ होकर यह तीनों सेनाओं में फैल गया। 18 फरवरी, 1946 को बम्बई में रॉयल इंडियन नेवी के प्रशिक्षण पोत ‘तलवार’ के 1,100 नाविकों के बीच स्वतः स्फूर्ति विद्रोह भड़क उठा तथा उन्होंने खुला विद्रोह कर दिया। विद्रोह के पीछे प्रमुख कारण नाविकों द्वारा कमान अफसरों की कोई बात न मानना व प्रत्युत्तर में कमान अफसरों द्वारा उनके विरूद्ध अनुशासनात्मक तथा प्रतिशोधात्मक कार्रवाई करना था। विद्रोही नौसैनिकों की प्रमुख मांग नस्ली भेदभाव को समाप्त करना, बी-सी- दत्त की रिहाई, भारतीय व ब्रिटिश नाविकों के लिए समान सेवा शर्तें व जहाज पर कार्य की दशाओं में सुधार आदि थीं। इस विद्रोह के समर्थन में अनेक स्थानों पर मजदूरों ने भी हड़ताल की।
अंग्रेजी सरकार ने विद्रोहियों के आंदोलन को कुचलने के लिए दमनात्मक कार्रवाई का सहारा लिया। सरदार पटेल ने आन्दोलनकारियों को आत्मसमर्पण की सलाह दी तथा गांधीजी ने इसे अविवेकपूर्ण आन्दोलन कहा। गांधीजी ने विद्रोहियों को राजनीतिक पहल की प्रतीक्षा करने की सलाह दी। पटेल व गांधी का मानना था कि इस आन्दोलन के पूरी सेना में फैलने पर स्वतंत्रता के लिए जारी प्रक्रिया में अड़चन आएगी तथा अंगेजों को भारत को स्वतंत्र करने में विलम्ब का एक अच्छा अवसर मिल जाएगा। कांग्रेस ने समस्या के समाधान हेतु पटेल को अपना प्रतिनिधि नियुक्त किया तथा पटेल के प्रयासों से अंततः आन्दोलन स्थगित कर दिया गया।
Question : निम्नांकित आन्दोलनों के बारे में आप क्या जानते हैं?
(i)फरायजी आन्दोलन
(ii)शुद्धि आन्दोलन
(iii) तरुण बंगाल आन्दोलन
(1990)
Answer : (i) फरायजी आन्दोलनः मुसलमानों का धर्म सुधार व ब्रिटिश सरकार विरोधी आन्दोलन जिसे दौलतपुर (फरीदपुर) निवासी हाजी शरीअतुल्ला ने चलाया। ये कुरान शरीफ के टीकाकार अमूहनीफ के मत का अनुसरण करके जगत क्रिया और ईश्वर तत्व के संबंध में विशेष भक्ति भाव प्रदर्शित करते थे। ये कुरान को ही मोक्ष का साधन मानते थे। इस आंदोलन के प्रमुख नियम हैं- जिहाद की कर्त्तव्यता, ईश्वर पूजा में विश्वास, पाखण्ड व नास्तिकों पर रोक तथा सभी को एक ही ईश्वर का अंश मानना।
(ii) शुद्धि आंदोलनः आर्य समाज के संस्सथापक स्वामी दयानन्द सरस्वती द्वारा चलाया गया एक आन्दोलन, जिसका उद्देश्य भारत की एकता व अखण्डता को बल प्रदान करना था। इस उद्देश्य के मद्देनजर स्वामीजी ने आन्दोलन के जरिए अनेक गैर-हिन्दुओं को हिन्दू बनाया और हिन्दू धर्म को पुनः शक्तिशाली बनाने के प्रयास किए।
(iii) तरुण बंगाल आंदोलनः 19वीं शताब्दी में प्रसिद्ध लेखक हेनरी एल- डेरोजियो द्वारा चलाया गया आन्दोलन, जिसका उद्देश्य धर्म में पाखण्ड व सामाजिक कुरीतियों को दूर करना, स्त्री शिक्षा का प्रसार करना तथा सामाजिक दशा का सुधार व देश भक्ति की भावना का विकास करना था। रूढ़ीवाद व अन्धविश्वास के विरोधी होने के कारण इस आन्दोलन से सम्बद्ध लोग नास्तिक कहे जाने लगे। कृष्णमोहन बंद्योपाध्याय, दक्षिण रंजन मुखोपाध्याय, प्यारे चन्द्र मित्र, रसिक कृष्ण मलिक व रामतनु लाहिरी इस आन्दोलन में काफी सक्रिय थे।
Question : निम्नांकित कहां स्थित हैं और समाचार-पत्रों में उनकी चर्चा किस प्रसंग में हुई?
(i)गजरौला
(ii)तीन बीघा
(iii) जाम्बिया
(1990)
Answer : (i) गजरौलाः मुरादाबाद (उ. प्र.) का एक कस्बा, जहां एक मिशनरी विद्यालय की अध्यापिकाओं के साथ असामाजिक तत्वों द्वारा अशोभनीय हरकतें करने की घटना प्रकाश में आयी। उक्त घटना के विरोध में स्कूल कर्मचारियों व स्थानीय लोगों ने आंदोलन चलाया। प्रदेश के तत्कालीन मुख्यमंत्री ने पूरे मामले की जांच तथा विद्यालय को पूर्ण सुरक्षा दिए जाने के आदेश जारी किए।
(ii) तीन बीघाः भारत-बांग्लादेश सीमा पर कूच बिहार जिले में स्थित 187 मीटर लम्बा व 85 मीटर चौड़ा स्थान, जो भारत और बांग्लादेश के बीच विवाद का विषय बना हुआ था। भारत ने एक समझौते के तहत उक्त भू-भाग बांग्लादेश को पट्टे पर दे दिया तथा दोनों देशों के नागरिकों को आवागमन का अधिकार एवं सुविधा प्रदान की गई। सर्वोच्च न्यायालय ने मई 1990 में इस क्षेत्र को बांग्लादेश को सौंपे जाने के संबंध में आने वाली कानूनी बाधाओं को समाप्त कर दिया था।
(iii) जाम्बियाः दक्षिणी केंद्रीय अफ्रीका का एक देश, जहां असंतुष्ट राजनीतिज्ञों ने सरकार के विरूद्ध विद्रोह करके 30 जून, 1990 को तख्ता पलटने का प्रयास किया। विद्रोही अपने प्रयास में असफल रहे। इस घटना के घटित होते समय देश के राष्ट्रपति केनेथ कोण्डा राजधानी लुसाका से बाहर गए हुए थे।
Question : निम्नलिखित किस लिए प्रसिद्ध हुए?
(i) कुंवर सिंह
(ii) एस.एच. स्लोकम
(iii) पी.आनंद चारु
(iv) के.एम. मुंशी
(v) मुजफ्रफर अहमद
(1990)
Answer : (i) कुंवर सिंहः बिहार में जगदीशपुर के एक राजपूत सरदार व 1857 के स्वतंत्रता आंदोलन के सैनानी, जिनके नेतृत्व में अंग्रेजों के विरूद्ध बिहार में आन्दोलन शुरू हुआ। बिहार को छोड़ कर वे अन्य दूसरे स्थानों से अपना संघर्ष जारी रखे हुए थे। 23 अप्रैल, 1858 को इनकी मृत्यु हो गई।
(ii) एस.एच. स्लोकमः भाखड़ा बांध का डिजायन तैयार करने वाले एक ब्रिटिश। यह बांध पंजाब के अम्बाला जिले में सतलज नदी पर स्थित है। इसमें 518 मी. लम्बा व 226 मीटर ऊंचा बांध बनाया गया है, जो कि भारत का सबसे ऊंचा बांध है।
(iii) पी. आनन्द चारुः दक्षिण भारत के स्वाधीनता सेनानी व भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के संस्थापकों में से एक, जो कि 1891 के सातवें (नागपुर) अधिवेशन में कांग्रेस अध्यक्ष निर्वाचित हुए। मद्रास के प्रतिनिधि के रूप में ये आठ वर्ष तक सुप्रीम लेजिस्लेटिव काउंसिल के सदस्य रहे तथा आई.सी.एस. परीक्षा इंग्लैंड के साथ-साथ भारत में आयोजित करने के लिए आन्दोलन चलाया। 1908 में इनका निधन हो गया।
(iv) के.एम. मुंशीः गुजरात के प्रसिद्ध लेखक, वकील व हिन्दू संस्कृति के कट्टर समर्थक, जो कि उत्तर प्रदेश के राज्यपाल भी रहे। होम रूपल, भारत छोड़ो आदि स्वाधीनता आंदोलनों में भाग लेने वाले स्वतंत्रता सेनानी व भारतीय विद्या भवन के संस्थापक, जो कि केंद्रीय कृषि मंत्री भी रहे। इन्होंने सी. राजगोपालाचारी के साथ स्वतंत्र पार्टी की स्थापना की।
(v) मुजफ्रफर अहमदः कलकत्ता में पढ़े व भारतीय साम्यवादी दल के शीर्ष नेता, जो कि दल की राष्ट्रीय परिषद के सदस्य भी थे। बंगाली दैनिक ‘नवयुग’, बंगाली साप्ताहिक ‘लंगल’ व ‘गणवाणी’ के संपादक तथा ऐटक (AITUC) के उपसभापति (1928-29), जो कि 1945-47 में अखिल भारतीय किसान सभा के अध्यक्ष निर्वाचित हुए। मेरठ षड्यंत्र केस (1929-33) में जेल भी गए।
Question : द्वितीय विश्व महायुद्ध के आरंभ का भारत के राजनीतिक परिदृश्य पर क्या प्रभाव पड़ा? क्या क्रिप्स मिशन भारत में राजनीतिक संकट को सुलझा पाया?
(1994)
Answer : सितंबर 1939 में द्वितीय महायुद्ध प्रारंभ होने के समय भारत राजनीतिक रूप से अस्थिर था। सभी राजनीतिक दल अंग्रेज सरकार पर भारत की स्वतंत्रता के लिए दबाव बनाए हुए थे। 1935 का अधिनियम संघीय मामलों में लागू नहीं था, परंतु इसमें दी गई प्रांतीय स्वायत्तता की वजह से राज्यों में लोकतांत्रिक विधायिकाएं एवं सरकारें मौजूदा थीं। इन परिस्थितियों में भारत के वायसराय ने 3 सितंबर, 1939 को बिना भारतीय नेताओं से विचार-विमर्श किए, भारत को भी युद्ध में सम्मिलित होने की घोषणा कर दी। वायसराय का यह कदम जले में नमक डालने जैसा ही था। पूर्वी मोर्चे पर जापान के बढ़ते आक्रमण तथा पश्चिमी मोर्चे पर जर्मनी की लगातार विजय से ब्रिटेन महायुद्ध में धीरे-धीरे कमजोर होता जा रहा था। इस अवसर पर भारतीय नेता ब्रिटेन की कमजोर स्थिति का लाभ उठा कर उसे स्वतंत्रता के लिए बाध्य कर सकते थे, किंतु पारस्परिक वैमनस्यता तथा शीर्ष स्तर पर नेताओं के मध्य उभरे मतभेद से यह अवसर हाथ से जाता रहा। यद्यपि कांग्रेस ने इस अवसर पर सरकार को किसी भी तरह का समर्थन देने से इनकार कर दिया, किंतु उसके दो प्रमुख नेताओं जवाहरलाल नेहरू एवं गांधीजी द्वारा सरकार समर्थक बयान जारी करने से विरोधाभास की स्थिति पैदा हो गई। सुभाष चन्द्र बोस ने ब्रिटिश सरकार पर दबाव डालने का प्रयास किया। बोस की अवधारणा में महायुद्ध से ब्रिटेन का कमजोर होना भारतीय स्वतंत्रता की मांग के लिए लाभदायक होता। विनोबा भावे ने भी इस अवसर पर व्यक्तिगत रूप से आंदोलन प्रारंभ किया। इस पूरे प्रकरण में मुस्लिम लीग ने खुद को तटस्थ रखा तथा कोई बयान जारी नहीं किया।
ब्रिटिश सरकार ने भारतीय राजनीति के इस विरोधाभास तथा फूट का लाभ उठाते हुए भारत को आजादी दिए जाने का मसला पुनः टाल दिया। इस प्रकार भारतीय नेताओं के उक्त रवैये के कारण स्वतंत्रता या अधिकारों की प्राप्ति का एक सुंदर अवसर उनके हाथ से निकल गया। इसी समय ब्रिटिश सरकार ने अवसर का लाभ उठाया तथा भारतीय नेताओं को फुसलाने के लिए क्रिप्स मिशन को भारत भेज दिया।
ऐसी संकटग्रस्त परिस्थितियों तथा ब्रिटिश सरकार पर पड़ रहे दबाव के फलस्वरूप हाउस ऑफ कॉमन्स के प्रमुख सर स्टैफोर्ड क्रिप्स के नेतृत्व में एक शिष्टमंडल 22 मार्च, 1942 को भारत पहुंचा। मिशन ने घोषणा की कि-
किंतु, उक्त घोषणाओं के बावजूद भारत के प्रत्येक राजनीतिक दल एवं नेताओं ने इन प्रस्तावों को नकार दिया, जिसके प्रमुख कारण निम्नलिखित थे-
Question : 1917 के चम्पारण सत्याग्रह तक भारतीय राजनीति में हुए गांधीजी के उद्भव को रेखांकित कीजिए। उनके द्वारा प्रतिपादित सत्याग्रह का अधारभूत दर्शन क्या था?
(1994)
Answer : भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के प्रणेता राष्ट्रपिता महात्मा गांधी 1894 से 1914 तक दक्षिण अफ्रीका में अपने ‘सत्य के प्रयोग व दर्शन’ को व्यथित वर्ग हेतु प्रयोग करते रहे, जिसमें उन्हें सफलता भी मिली। अपनी इन्हीं सफलताओं की आजमाइश का ख्वाब पिरोये गांधीजी भारतीय जनता को अंग्रेजी दुःशासन से छुटकारा दिलाने जनवरी 1915 में भारत की धरती पर पधारे। गांधीजी के भारत आगमन पर भारतीय राष्ट्रवाद का तीसरा युग प्रारंभ हुआ। भारत आते ही गांधीजी अपने राजनीतिक गुरु गोपाल कृष्ण गोखले से मिले एवं तत्कालीन परिस्थितियों का अध्ययन किया। यद्यपि चम्पारण सत्याग्रह (1917) गांधीजी का प्रथम सत्याग्रह माना जाता है तथापि इससे पूर्व वे कई छोटे-मोटे आन्दोलनों में भाग ले चुके थे। 1916 ई. में साबरमती आश्रम की स्थापना कर अंग्रेजों की नीति के विरूद्ध उनका शंखनाद शुरू हो गया।
अपने अभियान के प्रथम चरण में उन्होंने अनेक राजनीतिक मामलों में सक्रियता दिखायी, यथा-
(i)अनुबंधबद्ध (Indentured) परिश्रम की समाप्तिः गांधीजी ने भारतीय श्रमिकों को अन्य देशों में श्रमिक कार्य हेतु ले जाने एवं उन पर अत्याचार करने के खिलाफ प्रदर्शन किया। इस समय अफ्रीकी व लैटिन अमेरिकी देशों में भारतीय श्रमिकों को ले जाने तथा उन्हें स्थायी रूप से बसाए जाने की प्रथा प्रचलित थी। गांधीजी के सत्याग्रह के फलस्वरूप यह प्रथा समाप्त हुई।
(ii)बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय में प्रबुद्ध वर्ग को आड़े हाथों लेनाः फरवरी 1916 में बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय के उद्घाटन समारोह के अवसर पर गांधीजी ने अपने विचार व्यक्त करते हुए प्रबुद्ध वर्ग को आड़े हाथों लिया। इस समारोह में उपस्थित राजाओं, महाराजाओं एवं धनाढ्यों पर कटाक्ष करते हुए उन्होंने उनसे अपने निर्धन साथियों (देशवासियों) के खातिर विलासितापूर्ण जीवन त्यागने के लिए कहा तथा स्वशासन प्राप्ति के लिए एकजुट होकर मुकावला करने का आह्नान किया। इस अवसर पर गांधीजी के उत्तेजित भाषण ने उन्हें भारतीय राजनीतिक पटल पर प्रमुखता से ला खड़ा किया।
(iii) अन्य समस्याएं: गांधीजी ने अपने निर्धन देशवासियों को दुरुह करों एवं अन्य छोटी-छोटी समस्याओं से बचाने के भी असफल प्रयास किए जैसे राजकोट के नजदीक स्थित बीरमगांव, जहां पर लोगों से सीमा शुल्क अधिकारियों द्वारा तट कर लिया जाता था, की समस्या का समाधान गांधीजी के सत्याग्रह के फलस्वरूप ही संभव हुआ।
इसके पश्चात चंपारण में नील की खेती करने वाले कृषकों को अंग्रेज अधिकारियों के अत्याचार से निजात दिलाने के लिए गांधीजी ने 1917 में सत्याग्रह प्रारंभ किया। यह सत्याग्रह गांधीजी द्वारा किया गया प्रथम समग्र सत्याग्रह था, जिससे गांधीजी भारतीय राजनीतिक नेताओं की पंक्ति में शामिल हो गए।
गांधीजी के अनुसार सत्याग्रह सत्य, प्रेम और अहिंसा पर आधारित राजनीतिक व सामाजिक अन्याय के विरूद्ध संघर्ष करने का एक नैतिक तरीका है। सत्याग्रह से तात्पर्य है, हर हालत में सत्य का पल्लू पकड़े रखना अर्थात सत्य से कभी न डिगना। चूंकि सत्य अनादि व अनन्त है, अतः एक सामान्य आदमी द्वारा इसे नहीं समझा जा सकता। उन्होंने ‘स्यादवाद’ का अनुसरण करते हुए बताया कि सत्य के अनेक पहलू हो सकते हैं। यह प्रत्येक व्यक्ति के बीच भिन्न हो सकता है। जहां सब कुछ असफल हो जाता है, वहां एक सत्याग्रही, व्यक्ति को विवेकपूर्ण ढंग से समझाने का प्रयास करता है एवं उसके हृदय और अंतरात्मा को परिवर्तित करने का मार्ग प्रशस्त करता है। सत्याग्रह के मूल में यह भी दृष्टिगत होता है कि एक सही सत्याग्रही वही है, जो स्वयं को कष्ट दे, परंतु अहिंसात्मक रुख अपनाये रहे। सत्याग्रही विचारों एवं कार्यों से प्राणी मात्र को कष्ट नहीं पहुंचाने को भी प्रधानता देता है। गांधीजी ने अहिंसात्मक कष्ट सहने की विचारधारा को मानव जीवन की सभी क्रियाओं में लागू किया, ताकि सामाजिक, राजनीतिक व आर्थिक क्षेत्र में मौलिक परिवर्तन लाया जा सके। अहिंसा का अर्थ यह भी है कि आप अपने दुश्मन का भी भला करें तथा उसके द्वारा पहुंचाए गए कष्ट को सहें। आपकी इन क्रियाओं से शायद उसका मन बदले, वह दुराचारी आपसे प्रभावित होकर सदाचारी बन जाए एवं सत्याग्रह की राह पकड़ ले। गांधीजी ने सत्याग्रह को बलवानों का औजार बताया है। इससे लोगों के मन से भय दूर होता है। यह एक ऐसा आदर्श हथियार है, जो हर परिस्थिति में प्रत्येक व्यक्ति द्वारा उपयोग किया जा सकता है।
Question : उन्नीसवीं शताब्दी में ब्रिटिश शासन के विरूद्ध हुए अद्वितीय जनजातीय विप्लव का विवेचन कीजिए।
(1994)
Answer : कोई भी आदिवासी तभी विद्रोह करता है, जब बाहरी लोग उसके सामाजिक, सांस्कृतिक व आर्थिक संसाधनों पर अतिक्रमण करते हैं। उन्नीसवीं सदी में ब्रिटिश शासन के विरूद्ध जनजातीय विप्लव भी इन्हीं भावनाओं से ग्रस्त था। जब ब्रिटिश सरकार ने इन्हीं जनजातियों पर अत्याचार करना प्रारंभ किया, तो ये आदिवासी इसे अपनी आजादी और संस्कृति पर अतिक्रमण समझने लगे। अतः वे ब्रिटिश सरकार की जड़ें खोदने लगे। यद्यपि उन्हें इसमें सफलता प्राप्त नहीं हुई तथापि इनके विद्रोहों ने अंग्रेज सरकार के होश ठिकाने लगा दिए। इनकी असफलता के अनेक कारण हैं, जिसमें प्रमुख कारण इनका पिछड़ापन ही था, क्योंकि जहां ये आदिवासी तीर-कमान, तलवार-ढाल, आदिकालीन शस्त्रों व नीतियों से युद्ध कर रहे थे, वहीं विदेशी अत्याधुनिक अस्त्र-शस्त्रों का प्रयोग कर रहे थे।
इन जनजातियों ने अनेक स्थानों पर विद्रोह किए, जिनमें से प्रमुख विद्रोह निम्न हैं-
(i) कोल विद्रोहः यह विद्रोह 1820 से 1837 तक चलता रहा, जो बिहार के रांची से प्रारंभ होकर सिंहभूम, हजारीबाग, पलामू तथा मानभूम के पश्चिमी भाग तक फैल गया। यह विद्रोह तब हुआ, जब अंग्रेजों ने कोल मुखिया से शासन छीन कर बाहर से आए सिख व मुसलमानों को यहां का शासन सौंप दिया। इसे अंग्रेजी सत्ता ने बुरी तरह कुचल दिया।
(ii) संथाल विद्रोहः यह विद्रोह 1855-56 में हुआ। इस विद्रोह का नेतृत्व सीदो और कान्हु नामक दो भाइयों ने किया। यह विद्रोह हजारीबाग और मानभूम से राजमहल पहाडि़यों के क्षेत्र में बसे संथालों के 40 ग्रामों में उस समय प्रारंभ हुआ, जब इनसे साहूकारों द्वारा बहुत ऊंची दर पर लगान वसूला जाने लगा। जब साहूकारों द्वारा ऊंची दर पर लगान वसूला गया, रेल व राजस्व विभाग द्वारा बेगार लिया जाने लगा एवं बाहरी व्यक्तियों द्वारा इन आदिवासियों की स्त्रियों से व्यभिचार किया जाने लगा, तो संथाल जवान इस अत्याचार को सहन नहीं कर सके और विप्लव की इस आग में जलने लगे। अंग्रेजी सरकार ने इस विप्लव को बुरी तरह कुचल दिया।
(iii) रम्पा विद्रोहः 1879 ई. में यह आंध्र प्रदेश में गोदावरी के पहाड़ी क्षेत्रों से शुरू हुआ। यद्यपि इस विद्रोह के अनेक कारण थे, तथापि प्रमुख कारण मनसबदारों का इमारती लकड़ी व चराई करों में भारी वृद्धि कर देना था। इस विद्रोह का नेतृत्व कोया व कोंडा आदिवासी मुखियाओं ने किया। रम्पा विद्रोह की भड़कती आग को ठंडा करने के लिए ब्रिटिश सरकार को सेना की भी मदद लेनी पड़ी।
(iv) मुंडा विद्रोहः बिहार राज्य में उपजा एक प्रमुख विद्रोह, जिसके अंश वर्तमान राजनीति में भी दृष्टिगत होते हैं। रांची के दक्षिणी क्षेत्र के आदिवासियों ने बिरसा मुंडा के नेतृत्व में अंग्रेजी सरकार के खिलाफ हल्ला बोल दिया। यह विद्रोह अंग्रेजी सरकार के खिलाफकिए गए सभी विद्रोहों में सर्वाधिक सुसंगठित व योजनाबद्ध था। यद्यपि यह विद्रोह दबा दिया गया, तथापि यह विभिन्न रूपों में उपस्थित होकर स्वतंत्रता संग्राम को सुदृढ़ करता रहा। इसके अतिरिक्त निम्न विप्लव भी महत्वपूर्ण हैं-
1.खासी विद्रोह1829 में असम में तीरता सिंह के नेतृत्व में
2.फरायजी या पागल1840-57 तक बंगाल में करम शाह व टीपू
पंथियों का विद्रोह मीर के नेतृत्व में
3.रामोसी विद्रोह1822-23 में महाराष्ट्र में
4.भीलों का विद्रोह1819-46, मध्य भारत तथा राजस्थान में
5.चुआर विद्रोह1768-1831 तक
6.हो विद्रोह1820-20 में
7.खोंड विद्रोह1815-55, तमिलनाडु में
Question : भारत में ‘गैर-ब्रिटिश’ शासन का क्या अर्थ है? भारत के राष्ट्रवादियों की इसके प्रति क्या प्रतिक्रिया हुई थी? भारत में ब्रिटिश शासन की बुराइयों का उद्घाटन करने में दादाभाई नौरोजी की भूमिका का मूल्यांकन कीजिए।
(1994)
Answer : ‘पॉवर्टी एंड अनब्रिटिश रूल इन इंडिया के लेखक तथा ‘ग्रैंड ओल्ड मैन ऑफ इंडिया’ के नाम से प्रसिद्ध भारतीय अर्थशास्त्री दादाभाई नौरोजी ने भारत में गोरी सरकार के उद्देश्यों व कार्य करने के तरीकों का विश्लेषण करते हुए इसे ‘गैर-ब्रिटिश शासन’ की संज्ञा दी। नौरोजी के अनुसार, भारत में ब्रिटिश शासन ब्रिटेन के शासकों द्वारा प्रतिपादित नियमों व क्रियाविधियों के अनुरूप नहीं था। यह एक चिरस्थायी और दिनोंदिन बढ़ने वाला विदेशी आक्रमण था। राजद्रोह के नाम पर हो रहे अन्यायपूर्ण मुकदमे, भारतीय भाषा की स्वतंत्रता पर प्रतिबंध, तानाशाही, अत्याचार, अनाचार आदि उदाहरण देते हुए दादाभाई नौरोजी ने गैर-ब्रिटिश शासन को कोसते हुए ब्रिटेन में प्रचलित शासन से इसकी तुलना की, जो कि ब्रिटेन की ख्याति और सम्मान के अनुपयुक्त थी।
भारत के राष्ट्रवादियों ने दादाभाई नौरोजी की राय से सहमतता प्रकट करते हुए कहा कि जब तक इस अन्यायपूर्ण ब्रिटिश शासन को दूर सके उसके स्थान पर वास्तविक और न्यायोचित ब्रिटिश शासन नहीं चलाया जाता, तब तक न तो भारत का उद्धार हो सकता और न ही ब्रिटिश सरकार का।
दादाभाई नौरोजी ने विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं तथा राजनीतिक-सामाजिक मंचों से स्पष्ट तौर पर ब्रिटिश आर्थिक नीति की आलोचना की। उनका मानना था कि भारत में उपजी निर्धनता, महामारी, अकाल, विकास की धीमी गति व अन्य बुराइयों के लिए ब्रिटिश शासन ही उत्तरदायी थी। भारत के हितों की अवहेलना अंग्रेज सरकार स्वयं की संपन्नता के लिए कर रही थी। 1867 में लंदन की ईस्ट इंडिया एसोसिएशन के समक्ष पढ़े हुए लेख ‘भारत के प्रति इंग्लैंड का कर्त्तव्य’ में उन्होंने कहा कि, ‘ब्रिटिश शासन में संपूर्ण देश का दोहन होने के कारण इसकी जीवनदायी शक्ति व कार्यक्षमता में गिरावट आ रही है।’ दादाभाई ने विभिन्न संस्थाओं के सामने ब्रिटिश उपनिवेशवाद का असली चेहरा दिखाते हुए कहा कि ब्रिटिश सरकार भारतीय उपनिवेश से आर्थिक संसाधनों का दोहन कर इसे कंगाल बनाने में जुटी हुई है। भारतीय स्वतंत्रता की आवाज को बुलन्द करते हुए भारत के इस महान वृद्ध व्यक्ति ने ब्रिटिश आर्थिक नीतियों की खुल कर आलोचना की।
Question : उन्न्नीसवीं शताब्दी के अंत से लेकर लॉर्ड कर्जन के वायसराय पद पर बने रहने तक तिब्बत के प्रति रही ब्रिटिश नीति का विवेचन कीजि
(1994)
Answer : हिमालय के उत्तर में तिब्बत का क्षेत्र ऊंची-नीची घाटियों, विशाल पर्वतश्रृंखलाओं व पर्वत चोटियों से निर्मित है। यह सामरिक दृष्टिकोण से रूस, चीन व ब्रिटिश सरकार के बीच उपभोग का केंद्र बनता रहा। आठारहवीं सदी के प्रारंभिक वर्षों में तिब्बत ने चीन का प्रभुत्व स्पीकार कर लिया था। तिब्बत सरकार के नियंत्रण के लिए दो चीनी राजदूत नियुक्त किए गए। तिब्बत से अंग्रेजों का संपर्क 1773-75 में वॉरेन हस्टिंग्स के शासनकाल में हुआ। तिब्बत का शासन दो महान लामाओं दलाई लामा व ताशीलामा द्वारा किया जाता था। अंग्रेजों के बढ़ते साम्राज्यवाद ने चीनियों पर दबाव डाला, जिसके फलस्वरूप 1876 में ‘चीफू कन्वेन्शन’ गठित किया गया, जिसमें भारत सरकार का वाणिज्यिक शिष्टमंडल ‘ल्हासा’ भेजा गया। 1890 तक तिब्बत के दक्षिण में एक शक्तिशाली ब्रिटिश साम्राज्य की स्थापना हो चुकी थी, जो एशिया की राजनीति का केंद्र बन गया था। भारत की अंग्रेजी सरकार की तिब्बत में केवल व्यापार के लिए रूचि थी। क्योंकि इस विशाल औद्योगिक राष्ट्र को अब भी मंडियों की आवश्यकता थी। तिब्बत के स्थिायित्व हेतु दलाई लामा ने 1898 में एक शिष्टमंडल रूस भेजा, जो जार से मिलकर बौद्ध प्रजा के लिए दान एकत्र करके लाया। रूस की बढ़ती शक्ति को देशकर अंग्रेजी साम्राज्यवाद को खतरे का अंदेशा हुआ, जिसके फलस्वरूप लॉर्ड कर्जन ने 1903 ई. में कर्नल यंग हस्बैण्ड को एक छोटी सेना के साथ तिब्बत भेजा। तिब्बतियों को अंग्रेजी सेना से संधि करनी पड़ी। यंग हस्बैंड व कर्जन द्वारा तिब्बतियों पर अनेक शर्तें थोपी गईं, परंतु भारत सचिव ने संधि में हस्तक्षेप करते हुए इन शर्तों को आसान बनाने की कोशिश की। इसके एवज में दलाई लामा को 25 लाख रुपए की राशि का भुगतान किश्तों में करना पड़ा। इस संधि के दौरान तिब्बत में अंग्रेजी रेजीडेन्ट की नियुक्ति प्रस्तावित थी। परंतु, जैसे ही अंग्रेजी सेना ने तिब्बतियों का देश छोड़ा, चीनियों ने घुसपैठ करते हुए तिब्बती शासन पर अधिकार कर लिया। 1914 के शिमला त्रिमुखी सम्मेलन में चीनी, तिब्बती और अंग्रेज प्रतिनिधियों ने एक समझौता किया, जिसके अनुसार तिब्बत पर चीनी अधिकार स्वीकार कर लिया गया।
कुल मिलाकर, यदि तिब्बत पर ब्रिटिश नीति का प्रभाव देखें, तो यह प्रभावहीन ही रहा। यद्यपि कुछ समय के लिए इसका ब्रिटिश वस्तुओं की मंडी के रूप में उपयोग होता रहा, किन्तु अंततः यहां चीनी अधिपत्य ही सिरमौर बना।
Question : भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के आरंभिक दिनों में नरम दल वालों के क्या योगदान रहे?
(1994)
Answer : 1885 ई. में स्थापित भारीय राष्ट्रीय कांग्रेस 1905 तक नरमदलीय लोगों द्वारा संचालित की जाती रही। इस समय कांग्रेस की मुख्य भूमिका भारतीय राजनीतिज्ञों को एकता व प्रशिक्षण के लिए एक मंच प्रदान करना था। प्रारंभ में इसने भारतीय उच्च वर्ग की आकांक्षाओं व हितों को ही मुखरित किया। इस युग में कांग्रेस पर दादाभाई नौरोजी, फिरोजशाह मेहता, वोमेश चन्द्र बनर्जी आदि लोगों का वर्चस्व था। इनका विश्वास था कि अंग्रेज न्यायप्रिय लोग हैं और वे भारतीयों के साथ न्याय करेंगे। फलस्वरूप, इन्होंने भारतीयों के लिए केवल रियायतों की, जिनमें विधान परिषदों के विस्तार, उनकी शक्ति में वृद्धि तथा प्रतिनिधित्व देना सम्मिलित था, की मांग की।
नरमदलीय कांग्रेसियों की उपलब्धियां सीमित ही रहीं। इन्होंने भारतीय राष्ट्रवाद को जन्म दिया, जनमानस में जागरूकता का प्रसार किया तथा भारतीयों में प्रजातंत्र हेतु विचारों का संप्रेषण किया। इन्होंने लोक सेवा आयोग की स्थापना के लिए अंग्रेजी सरकार को बाध्य किया। इन्होंने भारतीयों की आर्थिक दुर्दशा को अहम मुद्दा बनाया तथा इसके लिए अंग्रेजी सरकार को दोषी ठहराया। लोक सेवा में भारतीयों की भागेदारी भी नरम दल वालों की ही देन है। इन्होंने अंग्रेजों की वास्तविकता संपूर्ण विश्व के सामने रखने की कोशिश की।
इस प्रकार, यदि प्रारंभिक दिनों में नरमदलीय लोगों के योगदान पर दृष्टिपात करें, तो यह स्पष्ट होता है कि उन्होंने अपने बाद की पीढि़यों का स्वतंत्रता प्राप्ति हेतु मार्ग प्रशस्त किया।
Question : होम रूल आंदोलन में एनी बेसेंट की भूमिका को स्पष्ट कीजिए।
(1994)
Answer : भारतीय भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस में फूट (1907 ई.) से कांग्रेसजनों में उपजे मतभेद तथा 1909 ई. के मार्ले-मिन्टो सुधारों के सरकारी प्रयासों ने स्वतंत्रता संग्राम की गति को धीमा कर दिया। चारो ओर निराशा और असंतोष का वातावरण छा गया। ऐसे में, आयरलैंड निवासी एनी बेसेन्ट ने राष्ट्रीय कांग्रेस के सदस्यों में जोश का माहौल पैदा किया और आयरलैंड में प्रचलित ‘होम रूल लीग’ की स्थापना मद्रास में 1916 ई. में की। एनी बेसेन्ट के इस भगीरथ प्रयास में लोकमान्य तिलक ने उनका साथ दिया और उन्होंने भी ‘होम रूल लीग’ की स्थापना की। तिलक ने ‘मराठा’ व ‘केसरी’ के माध्यम से तथा एनी बेसेन्ट ने ‘कॉमन वील’ व ‘न्यू इंडिया’ समाचार-पत्रों के माध्यम से गृह शासन की जोरदार मांग की और यह आंदोलन शीघ्र ही संपूर्ण देश में फैल गया।
एनी बेसेन्ट के प्रयत्नों से ही नरमपंथी व गरमपंथी 1916 के लखनऊ अधिवेशन में पुनः एक मंच पर आए। इसी अधिवेशन में कांग्रेस और मुस्लिम लीग के बीच भी समझौता हुआ। एनी बेसेन्ट के ‘होम रूल’ विचार से सभी कांग्रेसी संतुष्ट थे। इस आंदोलन की सफलता के आधार पर ही एनी बेसेन्ट को 1917 ई. में कांग्रेस का अध्यक्ष बनाया गया। इन ‘स्वशासी आंदोलनकर्त्ताओं’ का मानना था कि भारत ने प्रथम विश्व युद्ध में जिस तरह अंग्रेजी सरकार को सहयोग प्रदान किया था, उसी तरह अंग्रेजों को उनके इस स्वशासन की मांग को भी स्वीकारना चाहिए। यद्यपि इस आन्दोलन ने राजनीतिक माहौल को गरमा दिया था, परंतु प्रत्यक्ष रूप से इसको सफलता नहीं मिली। इसी आंदोलन की प्रेरणा से 1919 ई. का मांटेग्यू-चेम्सफोर्ड सुधार आया, जिसने ‘प्रांतीय स्वायत्ताता’ का मार्ग प्रशस्त किया।
Question : इस शताब्दी के तीसरे दशक के अंतिम दिनों में अंतरराष्ट्रीय घटनाओं ने जवाहरलाल नेहरू के आमूल परिवर्तन कारक विचार को किस प्रकार प्रभावित किया?
(1994)
Answer : जवाहरलाल नेहरू मूलतः एक राजनीतिज्ञ थे, हॉब्स या रूसो की भांति राजनीतिक दार्शनिक नहीं। इसलिए विश्व की कोई भी छोटी-बड़ी घटना उनके विचारों पर अपना प्रभाव अवश्य डालती थी। परंतु, बीसवीं सदी के दूसरे दशक में प्रथम विश्व युद्ध की समाप्ति के पश्चात सोवियत गणराज्य में जो क्रांति हुई, जिसे ‘वोल्शेविक क्रांति’ के नाम से जाना जाता है, उसने विश्व के सभी राजनीतिक विचारकों को प्रभावित किया। इस अभूतपूर्व क्रांति से भारतीय राजनीतिक विचारक जवाहरलाल नेहरू भी अछूता नहीं रह सके और साम्यवाद व समाजवाद जो 1917 ई. की बोल्शेविक क्रांति की उपज थी, ने नेहरू को काफी प्रभावित किया। अपनी जिज्ञासा को शांत करने वे 1926 में बर्लिन पहुंचे। 1927 ई. में अंतरराष्ट्रीय गणतांत्रिक आंदोलन के साथ उनके व्यापक और दीर्घकालीन संपर्कों की शुरूआत हुई। ब्रुसेल्स में हुए पीडि़त राष्ट्र सम्मेलन में उन्होंने भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस का प्रतिनिधित्व किया। सोवियत संघ की यात्रा ने उनके जीवन दर्शन को ही बदल दिया।
नेहरू के समाजवाद के अंतर्गत अभावों से पीडि़त जनता के लिए एक दर्द था तथा जीवन के सभी क्षेत्रों में सभी के लिए समानता की कामना थी। नेहरू के ऊपर द्वितीय विश्व युद्ध तक मार्क्सवाद और साम्यवाद छाया रहा, परंतु बाद में उनके अंदर ये भावनाएं क्षीण होती चली गईं।
इस प्रकार, बोल्शेविक क्रांति, साम्यवाद, समाजवाद आदि अंतरराष्ट्रीय घटनाक्रमों ने नेहरू की विचारधारा को प्रभावित किया। तत्कालीन अंतरराष्ट्रीय घटनाक्रम का गहन अध्ययन करने के कारण नेहरू भारत में साम्यवाद व समाजवाद के प्रबल समर्थक बन गए।
Question : टैगोर ने राजनीतिक व्यवस्था की तुलना में सामाजिक व्यवस्था को प्राथमिकता देने पर क्यों बल दिया था?
(1994)
Answer : नोबेल पुरस्कार से सम्मानित प्रथम भारतीय रवीन्द्रनाथ टैगोर न सिर्फ कवि थे, अपितु वे एक उच्च कोटि के संगीतकार, नाट्यकार, चित्रकार व साहित्यकार भी थे। वे एक राजनीतिक विचारक न होकर सामाजिक विचारक थे, क्योंकि वे भारत के पिछड़ेपन का कारण सामाजिक पिछड़ेपन को ही मानते थे। उन्होंने राज्य का लोप नहीं चाहा, पर इसका आधार व्यक्ति और समाज को ही माना और सामाजिक कल्याण का दायित्व राज्य पर माना। ‘हीगल’ और ‘मार्क्स’ जहां राज्य को सामाजिक जीवन की शर्त मानते हैं, वहीं टैगोर राज्य को एक ऐसी संस्था के रूप में स्वीकार करते हैं, जिसका मुख्य कार्य शांति और व्यवस्था की रक्षा करना है।
टैगोर एक ऐसे समाज के समर्थक थे, जिसमें व्यक्तियों को सृजनात्मक और सहकार द्वारा आत्माभिव्यक्ति के पूर्ण अवसर मिल सकें। सामाजिक असमानताएं बहुत कम होनी चाहिए तथा व्यक्ति को आपेक्षिक महत्व दिया जाना चाहिए। टैगोर के अनुसार, स्वतंत्रता का अर्थ प्रथाओं और परम्पराओं के बंधन से मुक्त होना, मन व दृष्टिकोण की संकीर्णता से दूर होना तथा भय से मुक्ति प्राप्त कर लेना है। टैगोर गांव के स्वावलंबन पर बहुत अधिक जोर देते थे। उनके अनुसार, गांवों में सभी सुविधाएं व संसाधन होने चाहिए, जिससे ग्रामीण नवयुवक शहर की ओर आकृष्ट नहीं हों। उन्होंने सामाजिक बुराइयों को जनचेतना द्वारा दूर करने पर बल दिया।
उपरोक्त विचारधाराओं का अध्ययन करने पर स्पष्ट होता है कि टैगोर एक सामाजिक विचारक थे। वे तत्कालीन सामाजिक परिस्थितियों के लिए राजनीति को उत्तरदायी ठहराते हैं। उनका मानना था कि राजनीतिक व्यवस्था में सुधार तभी संभव है, जब समाज आदर्श गुणों का पालन करे।
Question : निम्नलिखित के विषय में आप क्या जानते हैं?
(i) ताना भगत आंदोलन
(ii)सत्यशोधक आंदोलन
(iii) खिलाफत आंदोलन
(1994)
Answer : (i) ताना भगत आंदोलनः यह सामाजिक एवं धार्मिक तथा उरांव जनजाति के उत्थान के लिए 1914-15 में रांची, पलामू एवं हजारीबाग क्षेत्र में जात्र भगत द्वारा चलाया गया आन्दोलन था। भगत सदस्यों ने गांधी के असहयोग आंदोलन और बाद के राष्ट्रीय आंदोलनों में सक्रिय भूमिका निभायी।
(ii) सत्यशोधक आंदोलनः 1873 में ज्योतिबा फूले ने समाज के कमजोर वर्ग के लोगों को सामाजिक न्याय दिलाने के उद्देश्य से इस आंदोलन का सूत्रपात किया। इसी क्रम में सभी वर्णों के अनाथों तथा स्त्रियों के लिए अनेक पाठशालाएं एवं अनाथालय भी खोले गए।
(iii) खिलाफत आंदोलनः यह मुहम्मद अली और शौकत अली के आह्नान पर तुर्की सल्तनत के खलीफा के पक्ष में चलाया गया ब्रिटिश विरोधी आंदोलन था। बाद में महात्मा गांधी भी इसमें शामिल हो गए तथा इसे असहयोग आंदोलन का हिस्सा बना लिया।Question : निम्नलिखित किसके लिए प्रसिद्ध हुए?
(i) एन.जी.रंगा
(ii) सी.वाई. चिंतामणि
(iii) सर विलियम वेडरबर्न
(iv) नरेन्द्र देव
(v) एम.आर. जयकर
(vi) मदनलाल धींगड़ा
(1994)
Answer : (i) एन.जी. रंगाः 60 वर्षों तक संसद सदस्य रहने के कारण इस स्वतंत्रता सेनानी तथा भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के नेता का नाम गिनीज बुक ऑफ वर्ल्ड रिकॉर्ड्स में जोड़ा गया।
(ii) सी.वाई. चिन्तामणिः स्वतंत्रता स्वतंत्रता सेनानी भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के नरमपंथी विचारधारा से संबंधित नेता, मांटेग्यू-चेम्सफोर्ड अधिनियम 1919 के अंतर्गत संयुक्त मंत्रिमण्डल में मंत्री रहे।
(iii) सर विलियम वेडरबर्नः 1889 में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के संस्थापक ए.ओ. ह्यूम की जीवनी का संकलन किया।
(iv) नरेन्द्र देवः ये प्रसिद्ध बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय एवं लखनऊ विश्वविद्यालय के अध्यक्ष थे तथा समाजवादी विचारों से प्रेरित थे। कांग्रेस सोशलिस्ट पार्टी के अध्यक्ष एवं बौद्ध धर्म-दर्शन के लेखक के रूप में भी जाने जाते हैं।
(v) एम.आर. जयकरः ये बहुत ही अच्छे शिक्षाशास्त्री, समाज सेवक, राजनीतिज्ञ आदि के रूप में जाने जाते हैं। इन्होंने बंबई लेजिस्लेटिव काउंसिल में स्वराज पार्टी के नेता के पद का निर्वाह किया।
(vi) मदनलाल धींगड़ाः प्रसिद्ध क्रांतिकारी के रूप में विख्यात इंजीनियरिंग के इस छात्र ने बी.डी. सावरकर से प्रभावित होकर इंडियन होम रूल सोसायटी की सदस्यता ग्रहण की। भारत सचिव के सहायक विलियम कर्जन वायली की हत्या के कारण इन्हें फांसी की सजा दी गई।
Question : ‘‘अहिंसात्मक सत्याग्रह की तकनीक को अंग्रेजों के विरूद्ध शस्त्र के रूप में राष्ट्र द्वारा 1916-20 ई. के मध्य स्वीकार करवा लेने में महात्मा गांधी की सफलता अद्भुत थी’’ स्पष्ट कीजिए।
(1993)
Answer : महात्मा गांधी ने दक्षिण अफ्रीका में 1894-1914 तक लोगों के शोषण के खिलाफ ब्रिटिश सरकार के विरोध में अहिंसक आंदोलन छेड़ा और अपने उद्देश्य में पूर्णतः सफल हुए। महात्मा गांधी 1915 में भारत वापस लौट आए। भारत में भी उन्हें उन्हीं परिस्थितियों का सामना करना पड़ा, जो उन्होंने दक्षिण अफ्रीका में देशी थी और जिसके विरोध में वहां अहिंसक आन्दोलन का सूत्रपात किया था। महात्मा गांधी ने भारत में ब्रिटिश हुकूमत, उनकी दमनकारी नीति, उनके शोषण और रंगभेद की नीति के विरूद्ध अहिंसक सत्याग्रह की तकनीक को एक प्रभावकारी हथियार के रूप में अपनाया।
गांधीजी ने 1917 ई. में चंपारन में नील की खेती करने वाले किसानों के प्रति यूरोपियन अधिकारियों के अत्याचारों के विरोध में प्रथम सत्याग्रह किया। सत्याग्रह आन्दोलन में दो प्रमुख तत्व निहित थे- सत्य और अहिंसा। गांधीजी का मानना था कि सत्य और अहिंसा से जन्मी शक्ति आत्मा की शक्ति होती है। जीवन में सफल होने के लिए यह आवश्यक है कि सत्याग्रही भय, घृणा और असत्य से दूर रहें। गांधीजी के भारतीय राष्ट्रीय आन्दोलन में प्रवेश के समय आन्दोलन की धाराएं दो विपरीत दिशाओं में प्रवाहित हो रही थीं। एक ओर मोतीलाल नेहरू, गोपाल कृष्ण गोखले, एनी बेसेंट आदि जैसे नरमपंथी लोग वैधानिक तरीकों से स्वतंत्रता प्राप्ति हेतु संघर्षरत थे, तो दूसरी ओर बाल, पाल, लाल सदृश गरमपंथी स्वतंत्रता संग्राम में किसी भी तरीके को अपनाने के लिए तैयार थे। तीसरा दल क्रांतिकारियों का था, जो अंग्रेजों से वैधानिक सुधार की अपेक्षा को भिक्षावृत्ति मानते थे और अंग्रेजी शासन को समाप्त करने के लिए त्याग, बलिदान और अन्य सभी उपायों को उचित मानते थे।
तत्कालीन परिप्रेक्ष्य में महात्मा गांधी ने यह अनुभव किया कि अंग्रजों की ‘फूट डालो और शासन करो’ की नीति और उनकी विपुल शक्ति के आगे भारतीय सशस्त्र संघर्ष से अपनी मंजिल प्राप्त नहीं कर सकेंगे। इसलिए उन्होंने अहिंसक सत्याग्रह का मार्ग अपनाया। 1917-18 के मध्य गांधीजी ने चम्पारन सत्याग्रह, खेड़ा (गुजरात) सत्याग्रह और मिल मजदूरों की मजदूरी में 35 प्रतिशत की बढ़ोत्तरी में इसी नए अस्त्र के सहारे सफलता प्राप्त की।
उपरोक्त सफलताओं से देश में अहिंसक आन्दोलन की पृष्ठभूमि तैयार हुई, जिसने रॉलेट एक्ट के विरूद्ध राष्ट्रव्यापी आन्दोलन चलाए जाने का मार्ग प्रशस्त किया। सत्य और अहिंसा के प्रति गांधीजी का विश्वास अटूट था, जिसका प्रत्यक्ष प्रमाण 1920 के असहयोग आन्दोलन के सफलता के चरमोत्कर्ष पर होने के बाद भी चौरी-चौरा में हुई हिंसक घटनाओं के बाद इसे वापस लेना है। आन्दोलन वापस लेने के कारण गांधीजी को अपने सहयोगियों की आलोचना का शिकार होना पड़ा। परंतु उन्होंने कहा कि भारत को स्वतंत्र करने के लिए लोगों को सत्याग्रह का वास्तविक अर्थ समझना पड़ेगा और जब तक हम मन, वचन और कर्म से पूर्णतः अहिंसक नहीं हो जाते तब तक आन्दोलन सफल नहीं हो सकता। गांधीजी के प्रयास से समस्त भारतवासियों ने असहयोग तथा सविनय अवज्ञा आन्दोलन में सत्य और अहिंसा के सहारे आन्दोलन किया तथा भविष्य में अनवरत रूप से स्वतंत्रता प्राप्ति के लिए इसका प्रयोग करते रहे।
जिस समय संपूर्ण विश्व हथियारों की प्रतिस्पर्द्धा में शामिल था, तो ऐसे समय में शस्त्र के रूप में सत्याग्रह को भारतीय जनमानस द्वारा स्वीकार कराना महात्मा गांधी की सफलता का ही परिचायक है। अंग्रेजों के विरूद्ध निःशस्त्र होकर उनका विरोध करना एक दुःसाहसिक कार्य था। 1919 में जलियांवाला बाग की हिंसा ने भारतीय जन्मानस में प्रतिशोध की एक तीव्र लहर पैदा की, फिर भी 1920 के असहयोग आन्दोलन का आधार सत्य और अहिंसा ही रहा। यह गांधीजी की बहुमुखी प्रतिभा का प्रतिफल था और यही उनके इस नवीन अस्त्र की सफलता का परिचायक भी।
Question : 1905 में बंगाल विभाजन क्यों किया गया? इसने राष्ट्रीय आन्दोलन में गरम और आतंकवादी विचारधाराओं को किस प्रकार प्रोत्साहित किया? इसको क्यों रद्द किया गया और इसके क्या परिणाम हुए?
(1993)
Answer : राष्ट्र चेतना का सबसे तीव्र प्रसार बंगाल में हुआ था। तत्कालीन बंगाल में बिहार, असम, उड़ीसा और बांग्लादेश सम्मिलित थे। तत्कालीन गृह सचिव राइसले के अनुसार, उपविभाजित बंगाल एक बड़ी शक्ति थी, जो अंग्रेजी शासन की नींव हिला सकती थी। इसलिए तत्कालीन वायसराय लॉर्ड कर्जन ने देशभक्ति के इस उफनते सैलाब को रोकने के लिए राष्ट्रीय गतिविधियों के इस केंद्र को जुलाई 1905 में दो प्रांतों पश्चिम बंगाल (बिहार, उड़ीसा सहित) और पूर्वी बंगाल (असम सहित) में विभाजित करने की घोषणा की। यद्यपि ऊपरी तौर पर बंगाल विभाजन का उद्देश्य प्रशासनिक कठिनाइयों को कम करना था। लेकिन वास्तविक रूप में बंगाल विभाजन का उद्देश्य बंगाल में उठ रही राष्ट्रीयता की लहर को शांत करना ही था। ब्रिटिश शासन का उद्देश्य सिर्फ यहीं तक सीमित नहीं था, बल्कि उनका उद्देश्य मूल बंगालियों को, जिनकी संख्या 1.70 करोड़ थी, बंगाल में अल्पसंख्यक बनाना था। साथ ही ब्रिटिश सरकार यहां भी अपने अमोघ अस्त्र ‘फूट डालो और शासन करो’ के सहारे हिन्दू एवं मुसलमानों को आपस में बांटकर भारत के सामाजिक ढांचे को विभाजित कर देना चाहती थी।
भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस और बंगाल के राष्ट्रवादियों ने इस विभाजन का तीव्र विरोध किया। बंगाल विभाजन से पूरे बंगाल में क्रांतिकारी आन्दोलन को प्रोत्साहन मिला। बंगाल विभाजन ने सभी संगठनों, समुदायों तथा समाचार-पत्रों को एकजुट होने का उपयुक्त अवसर प्रदान किया। राष्ट्रवासियों ने इसके विरोध में स्वदेशी व बहिष्कार आन्दोलन का श्रीगणेश किया। इस आन्दोलन के दौरान विरोध के नए-नए तरीके प्रयोग किए गए। लोगों ने सामूहिक रूप से विदेशी वस्तुओं का बहिष्कार करना प्रारंभ कर दिया। गणमान्य लोगों ने विदेशी पदवी तथा छात्रें ने अंग्रेजी स्कूल और कॉलेजों को त्याग दिया। बहिष्कार के फलस्वरूप, मांग की पूर्ति करने के लिए स्वदेशी वस्तुओं को अपनाने पर जोर दिया गया। राष्ट्रीय शिक्षा पर अमल करना आरंभ किया गया, जिसके तहत अगस्त 1906 में राष्ट्रीय शिक्षा परिषद का गठन किया गया। बंगाल नेशनल कॉलेज तथा बंगाल टेक्निकल इंस्टीच्यूट की स्थापना की गई। गरमपंथियों के नेता अरविन्द घोष, लाला लाजपत राय, लोकमान्य तिलक व विपिन चन्द्र पाल ने इस आन्दोलन को राष्ट्रव्यापी आन्दोलन बना दिया। अंग्रेजों के दमन चक्र के बावजूद कांग्रेस और आन्दोलनकारियों की लोकप्रियता में वृद्धि हुई। 16 अक्टूबर, 1905 को जिस दिन विभाजन लागू हुआ था, वह दिन शोक दिवस के रूप में मनाया गया।
बंगाल विभाजन से उपजे असंतोष ने क्रांतिकारी आन्दोलन की गतिविधियों में सक्रियता लाया। क्रांतिकारियों ने 1907 में भारत सचिव लॉर्ड हार्डिंग पर दिल्ली में बम फेंका। बंग-भंग के बाद उत्तर प्रदेश और बंगाल में अनुशीलन समिति, लंदन में होम रूल सोसाइटी, हिन्दुस्तान एसोसिएशन आदि की क्रांतिकारियों ने स्थापना की। 1907 में कांग्रेस में विभाजन के बावजूद राष्ट्रवादियों ने एक स्वर से इसे रद्द करने की मांग की और वे स्वराज के लिए आवाज बुलंद करते रहे।
बंगाल विभाजन के विरोध में हो रहे आन्दोलन को दबाने के लिए अंग्रेजों ने घोर दमन चक्र चलाया। कई राष्ट्रवादी नेताओं को गिरफ्रतार कर लिया गया तथा प्रेस पर प्रतिबंध लगा दिया गया। परंतु, भारतीयों के कड़े विरोध के कारण ब्रिटिश सरकार को 1911 में बंग-भंग का आदेश वापस लेना पड़ा। यह निर्णय जॉर्ज पंचम के दिल्ली दरबार (1911) में लिया गया, जो 1912 से लागू भी हो गया। विभाजन वापस लेने के कारण राष्ट्रवादियों की उत्तेजना कुछ कम हुई और ब्रिटिश सरकार को 1914 के प्रथम विश्व युद्ध में भारतीयों का सहयोग मिला।
Question : ‘‘अगस्त प्रस्ताव से माउण्टबेटन योजना तक तर्कसंगत क्रम विकास था’’ विवेचना कीजिए।
(1993)
Answer : अंग्रेजों ने भारतीय राष्ट्रीय आन्दोलन को सदैव कुचलने का ही प्रयास किया। अपने इस उद्देश्य की पूर्ति के लिए उन्होंने दमन तथा ‘फूट डालो और शासन करो’ की नीति का सहारा लिया। पृथक सांप्रदायिक प्रतिनिधित्व तथा मैकडोनाल्ड एवॉर्ड का यही उद्देश्य था। 1939 के द्वितीय विश्व युद्ध में कांग्रेस की सहमति के बगैर ब्रिटिश सरकार ने भारत को युद्ध में शामिल कर लिया, जिसका कांग्रेस कार्यसमिति ने विरोध किया और घोषणा की कि साम्राज्यवादी ढंग पर चलाए जाने वाले युद्ध में वह सहयोग नहीं देगी। अंग्रेजी हुकूमत भारतीयों की मांगों को अनदेखा करती रही, जिसके परिणामस्वरूप कांग्रेस मंत्रिमंडल ने 1939 में त्यागपत्र दे दिया। परिस्थिति से विवश होकर ब्रिटिश सरकार ने भारतीयों का सहयोग प्राप्त करने के लिए 8 अगस्त, 1940 को अगस्त प्रस्ताव की घोषणा की। अगस्त प्रस्ताव के अंतर्गत निम्नलिखित उपबंध शामिल थे-
1. युद्ध के बाद एक प्रतिनिधि संस्था की स्थापना, जो कि भारत के लिए नवीन संविधान बनाएगी, 2. अतिरिक्त भारतीय सदस्यों को मनोनीत कर वायसराय की कार्यकारिणी में भारतीयों की अधिक सहभागिता तथा 3. एक युद्ध सलाहकार परिषद की नियुक्ति, जिसमें ब्रिटिश भारत एवं भारतीय रियासतों के प्रतिनिधि होंगे। परंतु, इस प्रस्ताव में भी राष्ट्रीय सरकार के गठन की मांग को अस्वीकृत कर दिया गया। साथ ही यह भी स्पष्ट किया गया कि ब्रिटिश सरकार शांति और भारत के कल्याण के लिए अपना उत्तरदायित्व किसी ऐसे दल को हस्तांतरित नहीं करेगी, जिसका प्रमुख किसी अन्य दल को स्वीकार न हो। स्पष्टतः इस प्रस्ताव में मुस्लिम लीग को पृथक राज्य के लिए प्रोत्साहित किया गया था।
अगस्त प्रस्ताव की असफलता के बाद तथा विश्व युद्ध में जापान के हाथों मिल रही पराजय से भयभीत होकर 1942 ई. में स्टेफोर्ड क्रिप्स को एक प्रस्ताव के साथ भारत भेजा गया। क्रिप्स प्रस्ताव में कुछ सुधार तो अवश्य किया गया, परंतु मूल रूप से उस प्रस्ताव में अगस्त प्रस्ताव को ही दोहराया गया था। इस प्रस्ताव में भी ब्रिटिश सरकार द्वारा भारत विभाजन की योजना को निरंतर आगे बढ़ाये जाने की बात निहित थी। प्रस्ताव में देशी राज्यों को संघ में सम्मिलित होने अथवा न होने की स्वतंत्रता तथा मुस्लिम बहुल प्रांतों को पृथक होने की बात कही गई थी।
14 जुलाई, 1945 को तत्कालीन वायसराय लॉर्ड वेवेल ने भारतीय समस्याओं के समाधान हेतु एक योजना प्रस्तुत की, जिसे ‘वेवेल योजना’ के नाम से जाना जाता है। इस योजना में अन्य प्रावधानों के अलावा वायसराय की कार्यकारिणी में मुसलमानों तथा हिन्दुओं को बराबर स्थान देने की बात थी। कांग्रेस यद्यपि इस बात से सहमत थी, परंतु उसने यह बात मानने से इनकार कर दिया कि मुसलमानों को मनोनीत करने का अधिकार सिर्फ मुस्लिम लीग को ही है। वेवेल योजना का यह प्रावधान भी भारत विभाजन की एक कड़ी थी।
भारतीयों को सत्ता हस्तांतरित करने का उपाय खोजने के लिए 24 मार्च, 1946 को कैबिनेट मिशन भारत आया। मिशन द्वारा सांप्रदायिक समस्या पर उस समुदाय के बहुमत प्राप्त सदस्यों की सहमति की अनिवार्यता और प्रान्तों को अपनी इच्छानुसार समूह बनाने का अधिकार तथा संविधान सभा में विभिन्न संप्रदायों को आनुपातिक प्रतिनिधित्व देना आदि कार्य अप्रत्यक्ष रूप से भारत विभाजन की परिकल्पना को सच करना ही था।
अगस्त प्रस्ताव से लेकर कैबिनेट मिशन योजना ने जो काम परोक्ष रूप से किया, 1947 की माउंटबैठन योजना ने प्रत्यख रूप से पूरा करते हुए भारत तथा पाकिस्तान को स्वतंत्र राष्ट्रों में विभाजित कर ‘फूल डालो और शासन करो’ की नीति को अक्षरशः सच साबित कर दिया। विभाजन की इस प्रक्रिया ने ब्रिटिश शासकों की दुर्भावना को उजागर कर दिया। अखंड भारत और सांप्रदायिकता से रहित स्वतंत्र भारत का निर्माण संभव नहीं हो सका। अगस्त प्रस्ताव, वेवेल योजना, कैबिनेट मिशन योजना एवं माउंबेटन योजना के गहन अध्ययन से यह स्पष्ट परिलक्षित होता है कि 1940 के अगस्त प्रस्ताव से लेकर 1947 की माउंटबेटन योजना विभाजन के तर्कसंगत विकास का क्रम था।
Question : मैकडोनाल्ड निर्णय क्या था? यह किस प्रकार संशोधित किया गया और इसके क्या परिणाम हुए?
(1993)
Answer : दूसरे गोलमेज सम्मेलन के अंत में रैम्से मैकडोनाल्ड ने कहा था कि यदि भारत में विभिन्न जातियों की सांप्रदायिक समस्या हल नहीं हुई, तो ब्रिटिश सरकार इस विषय पर अवश्य ही कोई कदम उठाएगी। लंदन में आयोजित सम्मेलन में विभिन्न जातियों के प्रतिनिधियों के बीच कोई समझौता नहीं हो सका। इसलिए 16 अगस्त, 1932 को रैम्से मैकडोनाल्ड ने एक घोषणा की, जिसको सांप्रदायिक पंचाट (Communal Award) नाम दिया गया। रैम्से मैकडोनाल्ड की यह घोषणा पूर्णतः सांप्रदायिकता को बढ़ावा देने वाली थी।
मैकडोनाल्ड निर्णय के मुख्य उपबंध थे-
मैकडोनाल्ड निर्णय के उपरोक्त उपबधों के आलोक में सवर्ण हिन्दुओं, हरिजनों एवं मुसलमानों के लिए सभी विधानमंडलों में पृथकप्रत्यक्ष निर्वाचक मण्डल की व्यवस्था तथा सवर्ण हिन्दू और हरिजन को पृथक राजनीतिक मान्यता देकर अंग्रेजों ने फूट डालो और शासन करो की नीति जारी रखी। मैकडोनाल्ड निर्णय का मुख्य उद्देश्य ब्रिटिश हुकूमत को स्थायित्व प्रदान करना था।
मैकडोनाल्ड निर्णय में निहित सांप्रदायिकता की बात ने महात्मा गांधी को इसका विरोध करने के लिए विवश कर दिया। गांधीजी ने 20 सितंबर, 1932 को यरवदा जेल में आमरण अनशन शुरू कर दिया। यद्यपि प्रारंभ में डॉ. भीमराव अम्बेडकर ने गांधीजी के इस विरोध को राजनीतिक धूर्ततपा (Political Stunt) कहा, परंतु बाद में मदनमोहन मालवीय, राजेन्द्र प्रसाद तथा एम.एस. राजा के प्रयत्नों से 26 सितंबर, 1932 को गांधीजी और अम्बेडकर के बीच एक समझौता हुआ, जिसे पूना समझौता (Poona Pact) के नाम से जाना जाता है।
पूना पैक्ट के अंतर्गत दलितों के लिए पृथक निर्वाचक मंडल की व्यवस्था समाप्त कर दी गई, परंतु प्रान्तीय विधानमंडलों में हरिजनों के लिए आरक्षित सीटों की संख्या 71 से बढ़ाकर 147 कर दी गई तथा केंद्रीय विधानमंडलों में हरिजनों के लिए 18 प्रतिशत सीटों का आरक्षण तथा उनकी शिक्षा के लिए आर्थिक सहायता की व्यवस्था की बात कही गई। स्थानीय संस्थाओं एवं सार्वजनिक सेवा में भी उनके लिए उचित प्रतिनिधित्व की व्यवस्था की गई।
मैकडोनाल्ड निर्णय ने भारत में दलितों को एक नयी राजनीतिक शक्ति प्रदान की तथा उनको विकास का अवसर प्राप्त हुआ। महात्मा गांधी दलितों के उत्थान के लिए जीवनपर्यन्त लगे रहे।
Question : सामाजिक और राजनीतिक विषयों पर तिलक और गोखले के दृष्टिकोण में मुख्य मतभेदों का विश्लेषण कीजिए।
(1993)
Answer : भारत भारत को स्वतंत्र कराने तथा आर्थिक एवं सामाजिक रूप से उसका उत्थान करने में जिन सपूतों ने अपना योगदान दिया, उनमें बाल गंगाधर तिलक एवं गोपाल कृष्ण गोखले का नाम महत्वपूर्ण है। ‘लोकमान्य’ तिलक गरम दल के नेता थे। उनका यह दृढ़विश्वास था कि विदेशी शासन चाहे जितना भी अच्छा क्यों न हो, परन्तु वह स्वशासन का स्थान कभी नहीं ले सकता। वे उदारवादियों के इस दृष्टिकोण से बिल्कुल सहमत नहीं थे कि अंगेजों को जब विश्वास हो जाएगा कि भारतीय स्वशासन के योग्य हो गए हैं, तो वे स्वयं ही भारत को छोड़ कर चले जाएंगे। तिलक स्वतंत्रता की प्राप्ति को अपना प्रिय लक्ष्य समझते थे और इसके लिए सभी प्रकार के साधनों को उचित समझते थे। अपने विचारों को जन-जन तक पहुंचाने के लिए लोकमान्य तिलक ने ‘मराठा’ और ‘केसरी’ नामक दो समाचार-पत्रों का प्रकाशन शुरू किया। इन समाचार-पत्रों ने जनता में जागृति फैलाने का महत्वपूर्ण कार्य किया। राष्ट्रीय जागृति और वीरता उत्पन्न करने के लिए उन्होंने महाराष्ट्र में शिवाजी उत्सव और गणपति उत्सव मनाने की प्रथा जारी की। उन्होंने कांग्रेस आंदोलन को विद्रोह में तब्दील कर दिया और ‘स्वतंत्रता मेरा जन्म सिद्ध अधिकार है और इसे मैं लेकर रहूंगा’, का नारा दिया। वे स्वदेशी के पक्षधर थे और ब्रिटिश निर्मित वस्तुओं के बहिष्कार की वकालत करते थे। अपनी गरमपंथी विचारधारा के कारण ही लोकमान्य तिलक भारतीय ‘असंतोष के जन्मदाता’ (Father of Indian unrest) कहलाते थे। लोकमान्य तिलक ने उस समय स्वराज्य की मांग की और आंदोलन किया, जब लोग ब्रिटिश सरकार से अत्यंत ही भयभीत थे। अतः अमेरिकी अनुसंधानकर्त्ता डॉ. थियोडर एलिसे का यह कथन ‘जब भारत में वास्तविक राजनीतिक जागृति शुरू हुई, तो सबसे पहले तिलक ने ही स्वराज्य की आवश्यकता और उसके लाभों की ओर जनता का ध्यान आकृष्ट किया था अक्षरशः सत्य है। हम यदि यह कहें कि स्वतंत्रता आंदोलन की आधारशिला रखने का श्रेय लोकमान्य तिलक को ही है, तो शायद कोई अतिश्योक्ति नहीं होगी।
जहां तक गोपाल कृष्ण गोखले की विचारधाराओं का सवाल है, तो वे उदारवादी विचारधारा के थे। उनका मानना था कि कांग्रेस को भारतीय प्रशासन में सुधार के लिए धीरे-धीरे संवैधानिक आंदोलन करना चाहिए। उनका यह दृढ़विश्वास था कि देश का पुनर्निर्माण राजनीतिक उत्तेजना की आंधी में नहीं, बल्कि धीरे-धीरे ही हो सकता है। उन्हें अपने देश के लक्ष्य और चेतना में पूरा विश्वास था और वे इसकी असीमित क्षमताओं में विश्वास करते थे, परंतु वे भारत का शानदार भविष्य अंग्रेजी राज्य की अबाध सर्वोच्चता में ही देखते थे। गोखले केवल याचिकाओं एवं संवैधानिक आंदोलनों द्वारा भारत में ब्रिटिश नौकरशाही की बुराइयों को दूर करना और भारतीयों के लिए अधिकार प्राप्त करना चाहते थे। यद्यपि गोखले उदारवादी तथा ब्रिटिश उपनिवेश की मुखालफत करने वाले थे, फिर भी वह स्वशासन के महान देवदूत थे। तुलनात्मक अध्ययन के लिए हम यह कह सकते हैं कि गोखले नरम थे और तिलक गरम। गोखले तत्कालीन विधान में केवल सुधार चाहते थे, जबकि तिलक उसे नए सिरे से बनाना चाहते थे। गोखले उसके शासन और सुधार की ओर मुख्य ध्यान देते थे, तिलक राष्ट्र और उसके निर्णय को मुख्य समझते थे। निष्कर्षतः गोखले की कार्यप्रणाली का उद्देश्य विदेशियों को हृदय से जीतना था, जबकि तिलक उन्हें देश से बाहर निकालना चाहते थे।
Question : 19वीं सदी के उत्तरार्द्ध में रूढि़वादी और उदारवादी विचारधारा के प्रशासकों में मौलिक मतभेद क्या थे?
(1993)
Answer : 19वीं शताब्दी के रूढि़वादी और उदारवादी ब्रिटिश प्रशासकों में मौलिक अंतर यह था कि जहां उदारवादी शासक भारतीयों की दशा में सुधार करके उनके मुखर विरोध को कम करना चाहते थे, वहीं रूढि़वादी शासक दमन का सहारा लेकर भारत में ब्रिटिश सत्ताको बनाए रखना चाहते थे। एक ओर जहां 19वीं शताब्दी में लॉर्ड वेलेजली, लॉर्ड हेस्टिंग्स, लॉर्ड एलेनबरो, लॉर्ड डलहौजी, लॉर्ड लिटन, लॉर्ड कर्जन जैसे रूढि़वादी शासकों ने दमन और उत्पीड़न के सहारे भारत में अंग्रेजी साम्राज्य की जड़ को मजबूत किया, वहीं दूसरी ओर विलियम बेंटिक, लॉर्ड कैनिंग, लॉर्ड रिपन आदि उदारवादी शासक भारतीयों की दशा में सुधार लाकर भारतीयों के मन में ब्रिटिश साम्राज्य के प्रति उत्पन्न आक्रोश को कम करने में सफल रहे। रूढि़वादी प्रशासकों ने दमन के सहारे साम्राज्यवाद फैलाना चाहा, जबकि उदारवादी प्रशासकों ने भारत में कानून के शासन की स्थापना की।
Question : ‘‘मॉर्ले-मिंटो सुधारों ने भारतीय समस्याओं को न हल किया और न कर सकते थे।’’ व्याख्या कीजिए।
(1993)
Answer : 1909 के मॉर्ले-मिन्टो सुधार अधिनियम पूर्णतः भारतीय जनता के आशानुरूप नहीं थे, हालांकि इस सुधार अधिनियम से लेजिस्लेटिव काउंसिलों के निर्माण और कृत्यों में महत्वपूर्ण परिवर्तन आए। प्रान्तीय कार्यकारिणी में अतिरिक्त सदस्यों की संख्या बढ़ाकर 50 कर दी गई और विधानमंडलों को बजट पर बहस करने और प्रस्ताव लाने का अधिकार दिया गया। परंतु इसमें स्वशासन की मांग को नकार दिया गया तथा प्रान्तीय सरकारों पर केंद्रीय सरकार के नियंत्रण पहले जैसे ही रहे। साथ ही, इस सुधार अधिनियम द्वारा भारत के विभाजन का बीज भी बो दिया गया, जिसके तहत मुसलमानों के लिए पृथक निर्वाचक मंडल की स्थापना की गई। उपरोक्त विवेचन से यह स्पष्ट है कि 1909 ई. के सुधारों ने भारतीय राजनीतिक समस्या का कोई समाधान नहीं किया और न समाधान करना इस अधिनियम के बस की बात थी।
Question : ‘1916 के लखनऊ समझौते पर बिना उसके परिणामों पर विचार किए हस्ताक्षर कर दिए गए।’ व्याख्या कीजिए।
(1993)
Answer : तुर्की और ब्रिटेन के बीच युद्ध ने मुसलमानों के सशक्त वर्गों में ब्रिटेन विरोधी प्रबल भावनाएं जगायीं। परिणामस्वरूप 1916 में कांग्रेस और लीग के बीच लखनऊ समझौते पर हस्ताक्षर किए गए। यद्यपि इस समझौते को हिन्दू और मुसलमानों के बीच ऐतिहासिक समझौते का दर्जा दिया गया, परन्तु मुसलमानों के लिए पृथक निर्वाचन को स्वीकार करके अन्ततः यह स्वीकार कर लिया कि एक ही देश में रह रहे हिन्दुओं और मुसलमानों के हित अलग-अलग हैं। सांप्रदायिकता के इसी कटु फल का स्वाद बाद में भारत को विभाजन के रूप में चखना पडत्र। लखनऊ समझौते ने धर्मनिरपेक्षता और राष्ट्रीय एकता को ठेस पहुंचायी।
Question : रवीन्द्रनाथ टैगोर के ग्रामीण पुनर्निर्माण की योजना की व्याख्या कीजिए।
(1993)
Answer : रवीन्द्रनाथ टैगोर भारत की विकास एवं समृद्धि के लिए ग्रामीण पुनर्निर्माण को आवश्यक मानते थे। उनका कहना था कि जब तक शिक्षित बेरोजगार रोजगार पाने के लिए शहरों की ओर पलायन करते रहेंगे तब तक गांवों का विकास असंभव है। इसलिए टैगोर ने ग्रामीण पुनर्निर्माण की एक विस्तृत योजना प्रस्तुत की। इस योजना के अंतर्गत ग्रामीण उद्योगों को प्रारंभ करने तथा ग्रामीणों की समस्याओं को हल करने पर विशेष जोर दिया गया। टैगोर का यह भी कहना था कि ग्रामीण युवकों को अपनी शिक्षा समाप्त करने पर गांव में ही रोजगार की सुविधा उपलब्ध कराने की व्यवस्था की जाए।
Question : निम्नलिखित के विषय में आप क्या जानते हैं?
(i)होम रूल आंदोलन
(ii)मंदिर प्रवेश योजना
(iii) नेहरू का जनसंपर्क कार्यक्रम
(iv) सिकन्दर-जिन्ना समझौता
(1993)
Answer : (i) होम रूल आंदोलनः सर्वप्रथम आयरलैंड में आयरिश नेता रेडमाण्ड के नेतृत्व में होम रूल लीग की स्थापना हुई। भारत में श्रीमती एनी बेसेंट के प्रयासों से इसी नमूने पर वैधानिक उपायों द्वारा स्वशासन प्राप्त करने के लिए होम रूल लीग की स्थापना की गई। भारत में इसका नेतृत्व लोकमान्य तिलक और एनी बेसेंट ने किया और क्रमशः मार्च 1916 और दिसंबर 1916 में महाराष्ट्र तथा मद्रास में इस संस्था की स्थापना की। तिलक ने ‘केसरी’ तथा ‘मराठा’ और ऐनी बेसेंट ने ‘न्यू इंडिया’ समाचार-पत्रों के माध्यम से इस आंदोलन का प्रचार किया।
(ii) मंदिर प्रवेश योजनाः के.पी. सेन के नेतृत्व में कांग्रेसियों ने केरल राज्य के वायकोम गांव में 30 मार्च, 1924 को एक मंदिर में दलित वर्गों के लोगों को प्रवेश दिलाने के लिए सत्याग्रह किया, जो मंदिर प्रवेश योजना के नाम से जाना जाता है।
(iii) नेहरू का जन-संपर्क कार्यक्रमः भारतीय राष्ट्रीय आंदोलन को जन आंदोलन बनाने के लिए जवाहरलाल नेहरू ने इसे जन-जन का आंदोलन बनाना आवश्यक समझा। इसी के तहत नेहरूजी ने 1935 में देश के कौने-कोने का दौरा किया। पांच माह से भी कम समय में उन्होंने लगभग 80 हजार कि.मी. की यात्रा की तथा एक करोड़ लोगों को संबोधित किया।
(iv) सिकन्दर-जिन्ना समझौताः सिकन्दर-जिन्ना समझौते का मुख्य उद्देश्य पाकिस्तान के निर्माण हेतु मुस्लिम लीग का समर्थन जुटाना था। यह समझौता पंजाब की यूनियनिस्ट पार्टी और मुस्लिम लीग के बीच हुआ, जिसमें यूनियनिस्ट पार्टी ने मुस्लिम लीग को समर्थन देने का वादा किया।
Question : स्वतंत्रता संघर्ष में निम्नलिखित स्थान किस प्रसंग में विख्यात हुए?
(i)दांडी
(ii)हरिपुरा
(iii) सूरत
(iv) बारदोली
(1993)
Answer : (i) डांडीः नमक कानून के विरोध में महात्मा गांधी ने मार्च 1930 में साबरमती आश्रम से दांडी तक की यात्रा शुरू की। उन्होंने 240 मील की पैदल यात्रा कर समुद्र तट के पास स्थित दांडी नामक स्थान पर नमक कानून को भंग कर नमक बनाया। इसके बाद लोगों ने जगह-जगह नमक कानून को तोड़ा।
(ii) हरिपुराः 1938 में यहां पर भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के अधिवेशन का आयोजन किया गया था। इस अधिवेशन में सुभाष चन्द्र बोस को कांग्रेस का अध्यक्ष चुना गया था।
(iii) सूरतः सूरत कांग्रेस, कांग्रेस को गरम दल और नरम दल के रूप में बांटने के लिए प्रसिद्ध है। 1907 में यहां आयोजित कांग्रेस अधिवेशन में कांग्रेस स्पष्टतः दो दलों में विभक्त हो गई।
(iv) बारदोलीः चोरी-चौरा में हिंसक वारदातों के बाद गांधीजी ने असहयोग आंदोलन के स्थगन की घोषणा बरदोली में की थी। बरदोली में 1928 ई. में सरदार बल्लभ भाई पटेल के नेतृत्व में किसानों ने एक आंदोलन किया, जिसे बारदोली सत्याग्रह के नाम से जाना जाता है।
Question : निम्नलिखित किस लिए प्रसिद्ध हुए?
(i) सी. इल्बर्ट
(ii) जॉन साइमन
(iii) रैम्से मैकडोनाल्ड
(iv) वेवेल
(1993)
Answer : (i) सी. इल्बर्टः सी. इल्बर्ट, इल्बर्ट बिल की घोषणा के साथ चर्चित हुए। 1883 ई. में उन्होंने एक अध्यादेश जारी किया, जिसमें यह उपबंध था कि ब्रिटिश नागरिकों के मामलों की सुनवाई भारतीय न्यायाधीश कर सकते हैं। परन्तु, अंग्रेजों ने इसका प्रबल विरोध किया।
(ii) जॉन साइमनः भारत में प्रशासनिक सुधार की जांच के लिए और उस पर रिपोर्ट देने के लिए जॉन साइमन की अध्यक्षता में 1928 ई. में साइमन कमीशन की नियुक्ति की गई थी। कांग्रेस ने इस कमीशन का बहिष्कार किया था। साइमन कमीशन का विरोध करते हुए लाठी की चोट लगने से लाला लाजपत राय की मृत्यु हो गई।
(iii) रैम्से मैकडोनाल्डः रैम्से मैकडोनाल्ड ब्रिटेन के प्रधानमंत्री थे। 1932 ई. में उन्होंने सांप्रदायिक घोषणा (Communal Award) द्वारा हरिजनों के लिए पृथक निर्वाचन की व्यवस्था की। इस घोषणा के विरोध में गांधीजी ने आमरण अनशन शुरू किया।
(iv) वेवेलः 1944 ई. में लॉर्ड वेवेल भारत के गवर्नर जनरल बनकर आए। उन्होंने ब्रिटिश सरकार से परामर्श के पश्चात भारतीय नेताओं के सामने भारतीय समस्या का नवीन हल 14 जुलाई, 1945 को प्रस्तुत किया, जिसे वेवेल योजना के नाम से जाना जाता है। वेवेल योजना के अन्तर्गत कई प्रावधान थे।Question : भारतीय राजनीतिक परिदृश्य में सांप्रदायिकता किस प्रकार प्रकट हुई? महत्वपूर्ण पाकिस्तान प्रस्ताव के पारित होने की पृष्ठभूमि को स्पष्ट कीजिए।
(1999)
Answer : भारत में सांप्रदायिकता का उद्भव एवं विकास वस्तुतः ब्रिटिश शासन की नीतियों एवं कार्यक्रमों का ही परिणाम था। सांप्रदायिकता का उदय आधुनिक राजनीति के उदय से जुड़ा हुआ है। राष्ट्रीयतावाद तथा समाजवाद जैसी विचारधारा की तरह ही राजनीतिक विचारधारा के रूप में सांप्रदायिकता का विकास उस समय हुआ, जब जनता की भागीदारी, जनजागरण तथा जनमत के आधार पर चलने वाली राजनीति अपने पांव जमा चुकी थी। निश्चय ही भारत में सांप्रदायिकता का उदय उपनिवेशवाद के दबाव तथा उसके खिलाफ संघर्ष करने की जरूरत से उत्पन्न परिवर्तनों के कारण हुआ। दरअसल इसकी जड़ें सामाजिक, आर्थिक एवं राजनीतिक परिस्थितियों में निहित थीं। भारतीय उपनिवेशवादी अर्थव्यवस्था तथा इसके कारण उत्पन्न पिछड़ेपन ने भी सांप्रदायिकता के विकास में मदद पहुंचा। औपनिवेशिक शोषण के फलस्वरूप भारतीय अर्थव्यवस्था में जो ठहराव आया तथा भारतीय जनता, खासकर मध्यम वर्ग के जीवन पर इसका जो असर पड़ा, उसके कारण ऐसी परिस्थितियां बनीं, जो भारतीय समाज के विभाजन तथा कलह का कारण बन गईं। अपने निजी संघर्ष को एक विस्तृत आधार देने के लिए तथा प्रतिद्वन्द्विता के बीच से अपनी सफलता की संभावनाएं बढ़ाने के लिए मध्यम वर्ग जाति, धर्म एवं प्रांत जैसी सामूहिक पहचानों का सहारा लेने लगा था। इस तरह सांप्रदायिकता ने मध्यम वर्ग के कुछ लोगों को तात्कालिक लाभ जरूर पहुंचाया। इससे सांप्रदायिक राजनीति को एक तरह से वैधता भी मिली।
आधुनिक भारत में सांप्रदायिकता के विकास के लिए ब्रिटिश शासन तथा ‘फूट डालो और राज करो’ की उसकी नीति विशेष रूप से जिम्मेदार मानी जा सकती है। यद्यपि ऐसा देश में मौजूद सामाजिक एवं राजनीतिक परिस्थितियों के कारण ही संभव हो सका। ब्रिटिश हुकूमत ने ऐसे कई हथकंडे अपनाए जिनसे वह भारत में सांप्रदायिकता के जुनून को परवान चढ़ाने में सफल रही, मसलनः (i) 1906 में मुस्लिम लीग की स्थापना के बाद से उसके प्रति नरम दृष्टि रखना; (ii) 1909 में मुसलमानों के लिए पृथक निर्वाचन क्षेत्र की व्यवस्था करना; (iii) सांप्रदायिकतावादियों को ब्रिटिश संरक्षण एवं रियायतें प्रदान करना; (iv) 1932 में ‘सांप्रदायिक निर्णय’ की घोषणा करना आदि।
1937 में होने वाले प्रांतीय चुनाव, सांप्रदायिकता के लिहाज से एक विभाजनकारी रेखा साबित हुए। इससे पूर्व तक मुस्लिम सांप्रदायिकता इस विचार पर आधारित थी कि मुस्लिम हितों की रक्षा की जाए, खासकर उच्च एवं मध्यमवर्गीय मुसलमानों की। लेकिन 1937 के चुनावों में मिली करारी हार से मुस्लिम सांप्रदायिकता इस रूप में परिणत हो गई कि उसने इस बात का प्रचार-प्रसार करके कि ‘मुस्लिम कौम एवं इस्लाम खतरे में है’, अपना सामाजिक, आर्थिक विकास करना शुरू कर दिया, ताकि भविष्य में राजनीतिक लाभ प्राप्त किया जा सके। 1933 में ही कैम्ब्रिज विश्वविद्यालय में अध्ययन कर रहे छात्र नेता रहमत अली ने ‘पाकिस्तान’ नामक देश की परिकल्पना की थी। प्रसिद्ध शायर इकबाल ने भी पृथकतावाद तथा मुस्लिम सांप्रदायिकतावाद को बढ़ाने में मदद पहुंचाई। मुस्लिम लीग ने 1937 में भारत के लिए स्वाधीनता तथा जनतांत्रिक संघ की मांग रखी थी, परंतु 1940 में उसका नजरिया बदल गया। 1940 में मुस्लिम लीग के लाहौर अधिवेशन में एक प्रस्ताव पारित किया गया, जो ‘पाकिस्तान प्रस्ताव’ के नाम से जाना गया। 3 जून, 1947 को पाकिस्तान के रूप में एक नए देश का उदय हुआ, जो भारत में सांप्रदायिकतावाद की पराकाष्ठा मानी जा सकती है।
Question : स्वराज पार्टी के निर्माण की रूपरेखा प्रस्तुत कीजिए। उसकी मांगें क्या थीं?
(1999)
Answer : गांधी द्वारा अचानक असहयोग आंदोलन स्थगित किए जाने के बाद कांग्रेस के एक वर्ग में घोर निराशा एवं असंतोष फैल गया। इसने कांग्रेस के भावी कार्यक्रमों को गंभीर रूप से प्रभावित कर दिया। देशबंधु चितरंजन दास तथा मोतीलाल नेहरू कांग्रेस द्वारा सशक्त नीति के अपनाए जाने पर बल देने लगे। दोनों वर्गों का विरोध स्पष्ट रूप से उभर कर गया अधिवेशन (1922), में प्रकट हुआ। इस अधिवेशन में काउंसिल में प्रवेश के मुद्दे पर मतदान भी हुआ, जिसमें परिवर्तनवादी गुट की हार हो गई। फलतः जनवरी 1923 में दास एवं नेहरू ने ‘कांग्रेस खिलाफत स्वराज पार्टी’ की स्थापना कर डाली। इसके अध्यक्ष देशबंधु चितरंजन दास तथा सचिव मोतीलाल नेहरू बने। इस दल ने कांग्रेस के अंदर रह कर ही अपनी अलग नीतियां कार्यान्वित करने का निश्चय किया। स्वराजियों का मुख्य उद्देश्य भी स्वराज्य की प्राप्ति ही था, किंतु इसे प्राप्त करने के उनके तरीके अलग थे। इनकी प्रमुख मांगें निम्नलिखित थीं-
Question : ‘‘जिसकी शुरूआत धर्म के लिए लड़ाई के रूप में हुई, उसका अंत स्वतंत्रता संग्राम के रूप में हुआ, क्योंकि इस बात में तनिक भी संदेह नहीं है कि विद्रोही, विदेशी सरकार से छुटकारा पाने तथा पूर्व व्यवस्था को पुनःस्थापित करने के इच्छुक थे, जिसका सही प्रतिनिधि दिल्ली नरेश था।’’ क्या आप इस दृष्टिकोण का समर्थन करते हैं?
(1999)
Answer : इस बात में कोई संदेह नहीं है कि 1857 की क्रांति की शुरूआत में धार्मिक भावनाओं ने एक महत्वपूर्ण भूमिका निभायी थी। एक बार जब यह आंदोलन अपना रुख अख्तियार करने लगा, तो इसने स्वतंत्रता संग्राम के रूप में अपने को प्रतिष्ठित करा लिया। लेकिन यहां हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि इस स्वतंत्रता संग्राम की भी अपनी सीमाएं थीं। निश्चित रूप से विद्रोही अंग्रेजी सरकार से तंग आ चुके थे और वे किसी भी तरह अपने को उससे बचाना चाह रहे थे। इसके लिए उन्होंने मुगल सम्राट को अपना ‘प्रतिनिधि’ मानकर उसकी सत्ता को प्रतिष्ठित करने का प्रयास किया। यह प्रयास निश्चय ही पूर्व व्यवस्था को पुनर्स्थापित करने जैसा ही था और यह किसी भी रूप में प्रगतिवादी कदम नहीं माना जा सकता था। दिल्ली नरेश (मुगल सम्राट) को अपना समर्थन देकर ये विद्रोही; स्वयं की आकांक्षाओं को पल्लवित करना चाह रहे थे। मसलन झांसी की रानी इस संग्राम में सिर्फ इसलिए कूद सकीं, क्योंकि उनके राज्य को हड़प लिया गया था। इसी तरह नाना साहब इसलिए सक्रिय हुए, क्योंकि उनके साम्राज्य को कानपुर में खतरा पैदा हो गया था। इस तरह यह बात स्वीकारने योग्य है कि कुछ निश्चित सीमाओं के अधीन 1857 के विद्रोही, पूर्व व्यवस्था को कायम करना चाह रहे थे।
Question : तिब्बत के प्रति कर्जन की नीति किस सीमा तक रणनीतिक विचार से प्रभावित थी?
(1999)
Answer : जिस समय लॉर्ड कर्जन भारत आया (1899), उस समय तिब्बत में रूसी प्रभाव बढ़ रहा था। ऐसी स्थिति में अंग्रेजों का आशंकित होना स्वाभाविक ही था। इसी बीच 1902 में कर्जन को चीन तथा रूस के बीच एक गुप्त समझौते की जानकारी मिली, जिसके अनुसार चीन की सरकार ने तिब्बत पर रूस का नियंत्रण स्वीकार कर लिया था। इस बात की जानकारी मिलने पर कर्जन ने एक शिष्टमंडल तिब्बत भेजने का निर्णय लिया। मार्च 1904 में लॉर्ड कर्जन ने फ्रांसिस यंग हस्बैंड के नेतृत्व में एक सैनिक अभियान दल तिब्बत की राजधानी ल्हासा के लिए भेजा। इसका मुख्य उद्देश्य तिब्बतियों को समझौता करने के लिए बाध्य करना था। अंग्रेजी सेना तिब्बतियों को परास्त करती हुई अगस्त 1904 में ल्हासा पहुंच गई। 7 सितंबर, 1904 को दलाई लामा ने यंग हस्बैंड के साथ ‘ल्हासा की संधि’ की। इसके अनुसार, तिब्बत पर युद्ध के हर्जाने के रूप में 75 लाख रुपए की राशि थोप दी गई। यह राशि तिब्बत को प्रति वर्ष एक लाख रुपए की दर से अदा करना था। हर्जाना चुकाए जाने की अवधि तक चुम्बी घाटी पर अंग्रेजों का अधिकार स्वीकार कर लिया गया। व्यापारिक सुविधा के लिए यांतुंग, ज्ञानत्से तथा गरटॉक में ब्रिटिश व्यापारिक केंद्र खोलने की बात तय हुई। यह भी तय हुआ कि तिब्बत, इंग्लैंड के अलावा अन्य किसी भी विदेशी शक्ति को तिब्बत में रेल, सड़क, तार आदि बनाने की सुविधा प्रदान नहीं करेगा। इस तरह तिब्बत की विदेश नीति पर अंग्रेजों का नियंत्रण कायम हो गया। इस नीति से तिब्बत पर रूसी प्रभाव तो कम अवश्य हो गया, परंतु चीन की सार्वभौमिकता तिब्बत पर स्पष्ट रूप से स्थापित हो गई। फिर भी कर्जन की नीति के फलस्वरूप तिब्बत पर रूस का प्रभाव कायम नहीं होना, उसकी एक सफल रणनीतिक विजय ही मानी जा सकती है।
Question : आधुनिक भारत के निर्माण में ईश्वरचंद्र विद्यासागर के अंशदान का आकलन कीजिए।
(1999)
Answer : 19वीं शताब्दी में बंगालियों की सामाजिक दशा सुधारने तथा उन्हें शिक्षित करने के लिए ईश्वर चंद्र विद्यासागर ने अथक प्रयास किए। संस्कृत भाषा तथा बंगला साहित्य के विकास में उनका महत्वपूर्ण योगदान है। शिक्षा के प्रसार के लिए उन्होंने महत्वपूर्ण कदम उठाए। इस उद्देश्य के लिए उन्होंने एक कॉलेज की भी स्थापना की। उनका सबसे महत्वपूर्ण कार्य स्त्रियों की दशा में सुधार लाना था। उन्होंने विधवा पुनर्विवाह के समर्थन में जोरदार आंदोलन चलाया। उनके प्रयासों के फलस्वरूप ही 1856 में विधवा पुनर्विवाह अधिनियम पास हुआ और बंगाल में अनेक विधवा विवाह संपन्न हुए। बाल विवाह तथा बहु विवाह को रोकने का भी उन्होंने सफल प्रयास किया। स्त्रियों की शिक्षा के लिए उन्होंने अनेक बालिका विद्यालयों की स्थापना करवायी। बंगाल में उच्च नारी शिक्षा के वे अग्रदूत माने जाते हैं।
Question : रामकृष्ण ने हिंदुत्व में किस प्रकार नयी ओजस्विता और गत्यात्मकता का संचार किया?
(1999)
Answer : बंगाल में नजागरण लाने में रामकृष्ण के विचारों ने एक महत्वपूर्ण भूमिका निभायी थी। रामकृष्ण परमहंस, जो कलकत्ता के दक्षिणेश्वर मंदिर के पुजारी थे, का बंगाल के प्रबुद्ध समाज पर गहरा प्रभाव था। वे सादा जीवन व्यतीत करने तथा भारतीय धर्म एवं संस्कृति में पूर्ण आस्था रखने पर जोर देते थे। मूर्ति पूजा तथा हिंदू धर्म में गहरा अनुराग रखते हुए भी वे सभी धर्मों को एक समान मानते थे। ईश्वर को प्राप्त करने का मार्ग, उनके अनुसार एकमात्र निःस्वार्थ भक्ति ही थी। रामकृष्ण ने अपने विचारों को सरलता प्रदान कर हिंदू समाज को पुनर्जीवित करने तथा उसे गति प्रदान करने की सफल कोशिश की। उनके प्रयासों से ही हिन्दू धर्म एवं संस्कृति में एक नवजीवन आया तथा उसकी समृद्धि में बढ़ोत्तरी हो सकी। इसके लिए उन्होंने ज्ञान के साथ-साथ सत्कर्म पर विशेष जोर दिया।
Question : ‘टैगोर की कविता उनके धार्मिक अनुभव का लिखित रिकॉर्ड है।’ प्रकाश डालिए।
(1999)
Answer : टैगोर में कला संबंधी नैसर्गिक गुण थे। उनकी कविताओं तथा चित्रें में हमें इसी नैसर्गिकता का पुट देखने को मिलता है। साथ ही उनमें उनकी धार्मिक मनोभावनाओं के दर्शन भी होते हैं। एक धर्मनिष्ठ व्यक्ति होने के कारण टैगोर का ईश्वर की सत्ता में अगाध विश्वास था। लेकिन वे आडंबरयुक्त धर्म के सख्त विरोधी थे। वे नैतिकता पर आधारित उचित मार्ग को ही धर्म की कोटि में रखते थे। गीता के उपदेशों के अनुरूप वे कर्म में आस्था रखते थे तथा त्याग को सर्वाधिक महत्व देते थे। उनके धार्मिक चिंतन में मुक्ति (मोक्ष) के लिए कोई स्थान नहीं था। उनकी कविताओं में उनके इन धार्मिक अनुभवों एवं विचारों की झलक मिलती है।
Question : नेहरू की आधुनिकीकरण की योजना 1951-61 के दशक के दौरान किस प्रकार तेजी से आगे बढ़ी?
(1999)
Answer : स्वतंत्रता के पश्चात नवजात भारत को आधुनिक स्वरूप प्रदान करने का वास्तविक श्रेय पंडित नेहरू को ही जाता है। उन्होंने भारत की बागडोर संभालने के साथ ही इस दिशा में त्वरित प्रयास आरंभ कर दिए। इसके लिए उन्होंने सर्वप्रथम, भारतीय अर्थव्यवस्था तथा आर्थिक नियोजन पर ध्यान दिया। वे एक समाजवादी समाज की स्थापना करना चाहते थे, जिसके लिए यह जरूरी था कि समाजवाद के आर्थिक पहलुओं की ओर ध्यान दिया जाए। उन्होंने अपने लोकतंत्रत्मक समाजवाद की स्थापना के लिए एक मिश्रित अर्थव्यवस्था के सिद्धांत का प्रतिपादन किया। फलतः भारत में कुटीर उद्योगों के साथ ही लघु एवं वृहद उद्योगों को प्रश्रय दिया जाने लगा। मशीनीकरण द्वारा उत्पादन को बढ़ाने तथा देश की आर्थिक दशा सुधारने के लिए उन्होंने भारी उद्योगों की स्थापना की पुरजोर वकालत की। साथ ही नियोजित अर्थव्यवस्था के लिए पंचवर्षीय योजनाओं का भी विकास किया गया। भारत को आधुनिकता के रंग में रंगने के लिए उन्होंने वैज्ञानिक उपलब्धियों तथा वैज्ञानिक सोच पर भी पूरा ध्यान दिया।
Question : निम्नलिखित के बारे में आप क्या जानते हैं?
(i) मुंडा आंदोलन
(ii)विज्ञान संवर्द्धन की भारतीय संस्था
(iii) इल्बर्ट बिल
(iv) शारदा अधिनियम
(v)1854 का शिक्षा प्रेषण
(1999)
Answer : (i) अंग्रेजी शासन के विरूद्ध उनकी शोषणपरक नीतियों से तंग आकर बिरसा मुंडा के नेतृत्व में दक्षिण बिहार में 1895-1900 तक चलाया जाने वाला जनजातीय आंदोलन।
(ii) 20वीं शताब्दी के पूर्वार्द्ध में वैज्ञानिक प्रविधियों के संवर्द्धन हेतु अखिल भारतीय संस्थान के रूप में स्थापित संस्था, जिसने वैज्ञानिक पृष्ठभूमि को आधार प्रदान किया।
(iii) विधि सदस्य सी.पी. इल्बर्ट द्वारा 2 फरवरी, 1883 को विधान परिषद में प्रस्तुत विधेयक (इल्बर्ट बिल), जिसका उद्देश्य जाति-भेद पर आधारित सभी न्यायिक अयोग्यताओं को समाप्त कर, भारतीय तथा यूरोपीय न्यायाधीशों की शक्तियां समान करना था।
(iv) श्री हरविलास शारदा के प्रयासों से बाल विवाह को रोकने के लिए 1928 में शारदा एक्ट बना, जिसके द्वारा विवाह की न्यूनतम आयु सीमा बढ़ा कर बाल विवाह पर रोक लगाने की कोशिश की गई।
(v) बोर्ड ऑफ कंट्रोल के अध्यक्ष सर चार्ल्स वुड की अध्यक्षता में गठित कमिटी द्वारा 1854 में भारत में शिक्षा की वृहत् योजना का नाम, जिसे भारतीय शिक्षा का ‘मैग्नाकार्टा’ भी कहा जाता है।
Question : क्या जवाहरलाल नेहरू वास्तव में गांधी की ‘भाषा बोलते’ थे? उनके मध्य सहमति एवं असहमति के बिन्दुओं को स्पष्ट कीजिए।
(1998)
Answer : जवाहरलाल नेहरू को गांधी के प्रति काफी श्रद्धा थी। वे गांधीजी को भारतीय प्रणाली पर आधारित भारतीय नेतृत्व देने वाला व्यक्ति मानते थे। गांधी का स्वराज्य का वादा, जिसे नेहरू ने सुनहरी कल्पना बताया था, अविश्वसनीय था। गांधीजी इसे नेहरू के पूर्ण स्वतंत्रता के लक्ष्य के मार्ग में नहीं आने देना चाहते थे। परंतु, दोनों में लक्ष्य तथा कार्य के प्रति निष्ठा की भावना के आधार पर पर्याप्त समानता थी। उन्होंने निःस्वार्थ रूप से कार्य किया। कई बिन्दुओं पर असहमति होने के बावजूद दोनों एक-दूसरे का पूर्ण सम्मान करते थे। नेहरू, गांधी से अत्यधिक प्रभावित थे तथा उन्हें गांधी के नेतृत्व में अटूट विश्वास था। गांधी भी यह मानते थे कि नेहरू उनकी ही ‘भाषा’ बोलते हैं। जलियांवाला बाग की घटना (1919) के बाद गांधी के संपर्क में आए नेहरू का भारतीय राजनीति में प्रवेश गांधी द्वारा शुरू किए जाने वाले सत्याग्रह की घोषणा पर हस्ताक्षर करने वाले पहले व्यक्ति के रूप में हुआ था। नेहरू भी गांधी की तरह मानवतावादी विचार, ग्रामीण विकास को प्राथमिकता, जन-आंदोलन के महत्व एवं देश के प्रति अगाध प्रेम का विचार रखते थे। गांधी द्वारा आरंभ किए गए सभी आंदोलनों जैसे असहयोग आंदोलन, सविनय अवज्ञा आंदोलन एवं रचनात्मक कार्यों को नेहरू का पूर्ण समर्थन प्राप्त था। लेकिन नेहरू पूर्ण अहिंसात्मक आंदोलन, ट्रस्टीशिप के विचार, किसी भी जन आंदोलन को बीच में ही बंद कर देने, राजनीति में धर्म के महत्व, विशाल उद्योगों का विरोध, वैज्ञानिक सोच की अवहेलना एवं सिर्फ व्यावहारिक शिक्षा की धारणा से असहमति रखते थे। नेहरू ने गांधी के विचारों के विरूद्ध समाजवादी विचार को अधिक समर्थन दिया एवं गांधीजी के लाख मना करने पर भी भारत के विभाजन को स्वीकार कर लिया।
Question : प्रारंभिक भारतीय राष्ट्रीय नेतृत्व के कार्य आर्थिक राष्ट्रीयता में किस प्रकार प्रदर्शित करते हैं?
(1998)
Answer : प्रारंभिक भारतीय राष्ट्रीय नेतृत्व में अंग्रेजी शासन द्वारा किए जा रहे भारत के आर्थिक शोषण से जनता को अवगत करा कर आर्थिक राष्ट्रीयता की भावना जगाने का प्रयत्न किया था। उन्होंने अपने कार्यों से, जब संपूर्ण भारत के लोग आपस में राष्ट्रीयता के सूत्र में नहीं बंध पाए थे, तब यह बात बता कर कि अंग्रेजी शासन के आर्थिक शोषण से न सिर्फ एक या कोई विशेष प्रदेश ही प्रभावित हो रहा है, बल्कि संपूर्ण देश ही दरिद्रता के गर्त में डूबता जा रहा है, राष्ट्रीयता के एक सूत्र में संपूर्ण देशवासियों को पिरोने का प्रयास किया था और बहुत हद तक इसमें सफल भी रहे थे।
दादाभाई नौरोजी ने अपने निबंध पावर्टी एण्ड अनब्रिटिश रूल इन इंडिया में स्पष्ट रूप से ब्रिटिश शासन के दौरान भारत की आर्थिक दुर्व्यवस्था पर प्रकाश डाला तथा धन के बहिर्गमन के सिद्धान्त (Drain of Wealth Theory) का सर्वप्रथम प्रतिपादन किया। इस निबंध में नौरोजी ने यह बताया था कि किस तरह अंग्रेजी शासन भारत से धन निकाल कर इंग्लैण्ड पहुंचा रही है और ऐसी नीतियां बना रखी हैं, जिससे भारत का कृषि, हस्तशिल्प, उद्योग-व्यापार एवंग्रामीण समाज तहस-नहस हो रहा है। उन्होंने बताया था कि अंग्रेजों की नीति के कारण भारतीय उद्योग इस कदर खत्म हो रहे हैं कि भारत में उद्योगों पर आश्रितों का प्रतिशत 18 से घट कर 8 हो गया है।
रमेश चन्द्र दत्त ने अपनी पुस्तक ‘ब्रिटिश भारत का आर्थिक इतिहास’ में नौरोजी के विचारों का समर्थन करते हुए भारत में अंग्रेजी उपनिवेशवाद के काल को तीन आर्थिक काल खण्डों में बांट कर यह दिखाया कि किस तरह भारत का शोषण कर अंग्रेजों ने अपने देश का औद्योगीकरण किया।
अंग्रेजी शासन द्वारा भारत का आर्थिक शोषण किए जाने के उपर्युक्त विचारों को नौरोजी एवं दत्त के अलावा फिरोजशाह मेहता, गोखले, तिलक, सुरेन्द्र नाथ बनर्जी एवं रानाडे जैसे राष्ट्रीय नेताओं ने जनमानस में पहुंचाया और देश की जनता में अंग्रेजी शासन के विरूद्ध जनमत बनाने का प्रारंभिक कार्य किया।
Question : भारतीयों पर नरम दल वालों का प्रभाव क्यों समाप्त हो गया और वे अंग्रेजों से इच्छित प्रत्युत्तर प्राप्त करने में क्यों असफल रहे?
(1998)
Answer : नरम दल वालों द्वारा भारतीयों को अधिक राजनीतिक अधिकार दिए जाने, प्रशासन को और अधिक उत्तरदायी बनाने, भारत का आर्थिक शोषण कम किए जाने आदि से संबंधित मांगों को अंग्रेजी शासन द्वारा नहीं माने जाने के कारण इनका प्रभाव भारतीयों पर से समाप्त होता गया, क्योंकि जनता यह समझ चुकी थी कि ये लोग जनता के लिए भी कुछ कर सकने में असमर्थ हैं। साथ ही, जनता नरम दल की कार्यपद्धति ‘क्रमिक विकास तथा संविधानवाद’ एवं प्रार्थना, ज्ञापन तथा विरोध की अभिव्यक्ति को असम्मानजनक और अंग्रेजी शिक्षित भारतीय कुलीनों की भिक्षावृत्ति के रूप में देखती थी। ये ऐसे कुलीन थे, जो सामान्य जनता से एकदम पृथक थे। दूसरी तरफ अरविन्द घोष, तिलक, पाल, लाला लाजपत राय एवं रवीन्द्र नाथ टैगोर जैसे लोगों ने नरम दल वालों की प्रार्थनाओं और दरख्वास्तों के बदले ‘आत्मनिर्भरता’, ‘रचनात्मक कार्यों और ‘स्वदेशी’ के नए नारे को प्रचारित कर नरम दलों के भिखमंगेपन पर कड़ा आघात किया था।
साथ ही नरम दल वाले अपनी कम संख्या, जनता का पूर्ण समर्थन नहीं मिलने और अंग्रेजों की न्यायप्रियता पर अधिक विश्वास रखने के कारण अंग्रेजों से इच्छित प्रत्युत्तर प्राप्त करने में भी असफल रहे।
Question : 19वीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध में मुक्त व्यापार की नीति ने किस प्रकार भारतीय कपड़ा और कुटीर उद्योगों को हानि पहुंचायी?
(1998)
Answer : भारत में ब्रिटिश शासन की स्थापना के 50 वर्षों के भीतर ही ब्रिटिश सरकार द्वारा अपने उद्योगों की आवश्यकताओं के अनुकूल अनेक उपाय किए जाने के कारण भारतीय कपड़ा और कुटीर उद्योगों का पतन होने लगा। 19वीं शताब्दी औद्योगिक पूंजी का काल था अर्थात इस युग में उभरते हुए अंग्रेज उद्योगपतियों तथा व्यापारियों ने आक्रामक रुख अपनाया, जिसका आधार था- मुक्त व्यापार। उनके लगातार प्रचार तथा संसद सदस्यों के प्रभाव के कारण 1813 के चार्टर एक्ट द्वारा भारतीय व्यापार पर एकाधिकार समाप्त कर दिया गया। अब भारतीय व्यापार का स्वरूप बदल गया। अब तक भारत मुख्य रूप से निर्यात करने वाला देश था, परंतु अब वह आयात करने वाला देश बन गया। बढि़यां एवं सस्ते अंग्रेजी सूती माल एवं वस्तुओं की भारतीय मण्डियों में बाढ़ सी आ गई और देश का बुनकर एवं कुटीर उद्योग ठप्प हो गया। उन्नीसवीं शताब्दी के मध्य तक भारतीय दस्तकारी उद्योग लगभग पूर्णतः विनष्ट हो गया। उन्नीसवीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध में भारत में रेलवे व्यवस्था के विकास के परिणामस्वरूप ब्रिटिश उत्पादित माल देश के कोने-कोने में पहुंचने लगा, जिसके द्वारा भारतीय बाजारों में ब्रिटिश माल का स्थायी अधिपत्य स्थापित हो गया।
Question : नाविक विद्रोह (RIN) की उत्पत्ति का वर्णन कीजिए। स्पष्ट कीजिए कि इसने भारतीय राजनीति को किस प्रकार प्रभावित किया?
(1998)
Answer : 18 फरवरी, 1946 को रॉयल इण्डियन नेवी (भारतीय शाही नौसेना) के गैर-कमीशंड अधिकारियों एवं नौ-सैनिकों, जिन्हें रेटिंग्ज कहा जाता था, ने बंबई में सैनिक विद्रोह कर दिया। इस नौ-सैनिक विद्रोह के मुख्य कारण भोजन एवं वेतन के संबंध में प्रचलित विषमता और रंगभेद के आधार पर अत्यधिक अपमानजनक व्यवहार ही थे। इसमें भारतीय लोगों के राष्ट्रीय चरित्र पर छींटाकशी करना भी शामिल था। इस नौ-सैनिक विद्रोह का प्रारंभ नौ-सैनिक प्रशिक्षण पोत ‘तलवार’ के नौ-सैनिकों द्वारा खराब खाने के बारे में शिकायत के साथ हुआ। 19 फरवरी को बंबई के 20 नौ-सैनिक जहाजों में इस नौ-सैनिक विद्रोह का असर हुआ। इस विद्रोह ने भारतीय राजनीति को निम्न रूप से प्रभावित किया-
Question : प्रजातंत्र पर रवीन्द्रनाथ टैगोर के विचारों का परीक्षण कीजिए।
(1998)
Answer : रवीन्द्रनाथ टैगोर के अनुसार, ऐसे समाज में जहां लोलुपता विकसित, अनियंत्रित एवं प्रोत्साहित हो तथा उसकी जनसामान्य द्वारा प्रशंसा की जाती हो, वहां प्रजातांत्रिक शासन प्रणाली कभी भी सफल नहीं हो सकती है। उनकी यह आकांक्षा थी कि जनसामान्य आत्मज्ञानी तथा क्षमतावान बनने के लिए धर्म का पालन करे एवं शिक्षा ग्रहण करे तथा पारस्परिक संबंधों में पूर्ण मधुरता लाए। उनके अनुसार, सच्चा प्रजातंत्र केवल उसी स्थिति में हो सकता है, जबकि राजनीति नैतिकता पर आधारित हो तथा सरकार पर थोड़े से स्वार्थी नेताओं का कब्जा नहीं हो। टैगोर के अनुसार, वास्तविक प्रजातंत्र की स्थापना के लिए सेवा भावना पर जोर दिया जाना चाहिए तथा आत्मकेंद्रित होने की प्रवृत्ति का परित्याग किया जाना चाहिए। उनके अनुसार, केवल राजनीतिक अधिकारों का प्राप्त होना तथा उन्हें निर्वाचन में प्रयुक्त करना मात्र ही प्रजातंत्र के वास्तविक प्रयोजन की पूर्ति के लिए पर्याप्त नहीं है।
Question : बंगाल में स्वदेशी आन्दोलन ने किस प्रकार राष्ट्रीय राजनीति को प्रभावित किया।
(1998)
Answer : बंगाल में 1905 में चला स्वदेशी आंदोलन केवल आंदोलन था, जो इस दृष्टि से अपने उद्देश्यों को प्राप्त करने में सफल रहा कि 1911 में बंगाल के विभाजन को रद्द कर दिया गया। इस आंदोलन की सफलता ने जहां भारतीय जनमानस में आंदोलन के महत्व को फैलाया, वहीं इस आंदोलन ने संपूर्ण भारत को राष्ट्रीयता के एक सूत्र में बांधने में, जनआंदोलन के महत्व को समझाने में और उद्योग, शिक्षा, संस्कृति, साहित्य तथा फैशन के क्षेत्र में स्वदेशी की भावना का संचार किया। इस आंदोलन से फैली उग्र राष्ट्रीयता की भावना ने कांग्रेस पर नरम दल के प्रभाव को कम करने में और राष्ट्रीय आंदोलन में उग्र विचारधारा का वर्चस्व स्थापित करने में तथा आगे बढ़ने वाली क्रांतिकारी विचारधारा को बढ़ाने में भी महत्वपूर्ण भूमिका अदा की थी।
Question : भारत की स्वतंत्रता पूर्व के दशक में देशी रियासतों के प्रजामंडल आन्दोलनों का क्या महत्व था?
(1998)
Answer : 1930 के दशक में सविनय अवज्ञा आन्दोलन से उत्साहित होकर कई देशी रियासतों की जनता ने निर्वाचन द्वारा जनप्रतिनिधित्व और स्वशासन के सिद्धान्तों की स्वीकृति के लिए प्रजामंडल के झण्डे तले आन्दोलन चलाए। विभिन्न रजवाड़ों के इन आन्दोलनों में बहुत से कांग्रेसियों ने भी व्यक्तिगत रूप से भाग लिया। स्वयं गांधीजी ने भी राजकोट राज्य के इस आन्दोलन के समर्थन में अनशन किया। शीघ्र ही प्रजामण्डल आंदोलन शेष भारत के आन्दोलनों का अभिनन अंग बन गया और स्वतंत्रता के बाद शेष भारत में रजवाड़ों के विलय के लिए राह बनाने में उल्लेखनीय भूमिका अदा की।
Question : विभाजन पूर्व के वर्षों में भारत के सार्वजनिक जीवन में सी. राजगोपालाचारी की भूमिका का मूल्यांकन कीजिए।
(1998)
Answer : विभाजन पूर्व के वर्षों में भारत के सार्वजनिक जीवन में सी- राजगोपालाचारी की भूमिका मद्रास के मुख्यमंत्री (1937-39) और 1947 में केंद्र सरकार के मंत्री के रूप में काफी महत्वपूर्ण थी। इन्होंने 1945 में दिए गए एक फार्मूले द्वारा हिन्दू-मुस्लिम विवाद एवं भारत के विभाजन की समस्या को हल करने का प्रयास किया था। इनका सुझाव था कि भारत के भारत एवं पाकिस्तान के रूप में विभाजन के बाद भी दोनों की प्रतिरक्षा और जनसंचार प्रणाली एक ही हो। इनके इस फार्मूले को गांधीजी का समर्थन प्राप्त था। सी. राजगोपालाचारी ने दक्षिण में हिन्दी लागू करने का विरोध कर हिन्दी-दक्षिण भारतीय भाषाओं के विवाद को एक राजनीतिक रूप देने में भी प्रारंभिक भूमिका निभायी थी। इन्होंने दशमलव प्रणाली पर आधारित सिक्कों के चलन का भी विरोध किया था।
Question : निम्नलिखित के विषय में आप क्या जानते हैं?
(1998)
Question : निम्नलिखित किसलिए प्रसिद्ध हुए?
(1998)
Question : निम्नलिखित की प्रमुख विशेषताएं बताइएः
(1998)
Question : परमोच्च शक्तिमत्ता की राज्य-अपहरण नीति के दुष्परिणाम को अपवारित कर भारत की रियासतों का समाकलन करने में सरदार वल्लभभाई पटेल किस प्रकार सफल हुए?
(1997)
Answer : 2 फरवरी, 1947 की एटली की घोषणा और 3 जून, 1947 की माउन्टबेटन योजना ने यह स्पष्ट कर दिया कि अंग्रेजों की सर्वश्रेष्ठता समाप्त हो जाएगी और रियासतों को अधिकार होगा कि वे पाकिस्तान अथवा भारत में सम्मिलित हो सकती हैं। लॉर्ड माउंटबेटन ने किसी एक रियासत अथवा अनेक रियासतों के संघ को एक तीसरी इकाई के रूप में मान्यता देने से इनकार कर दिया। 27 जून, 1947 को देशी राज्यों की समस्या को सुझलाने के लिए राष्ट्रीय अंतरिम सरकार के अन्तर्गत एक राज्य विभाग (State Department) खोला गया, जिसके प्रधान वल्लभभाई पटेल बनाए गए। सरदार पटेल ने बड़े धैर्य एवं साहस से काम लिया। 15 जुलाई, 1947 को उन्होंने एक बड़ा ही महत्वपूर्ण वक्तव्य निकाला, जिसमें देशी नरेशों से अपील की गई थी कि वे वैदेशिक मामले, यातायात एवं सुरक्षा संबंधी विषयों को भारत सरकार को सौंप दें। शेष विषय में वे स्वतंत्र रहेंगे। ऐसा न होने पर देश में भयानक अराजकता फैल जाएगी, जिससे सभी को हानि होगी।
हैदराबाद, जूनागढ़ एवं कश्मीर को छोड़कर अन्य सभी देशी राज्य प्रवेश-पत्र (Instrument of Accession) पर हस्ताक्षर करके भारतीय संघ में सम्मिलित होने को तैयार हो गए। देशी राज्यों का विलयन चार प्रकार से किया गया-
जूनागढ़ का शासक पाकिस्तान से मिलना चाहता था, लेकिन जनमत के दबाव में आकर वह दिसंबर 1948 में भारत से मिल गया। हैदराबाद के निजाम ने स्वतंत्र राज्य घोषित करने की कोशिश की, मगर तेलंगाना क्षेत्र में हुए एक आन्तरिक विद्रोह तथा भारतीय सेनाओं के पहुंचने के बाद उसे भी 1948 में भारत में शामिल कर लिया गया। कश्मीर के महाराजा नेशनल कांफ्रेंस के शेख अब्दुल्ला की स्वीकृति से भारत में शामिल हो गए। इस प्रकार वल्लभभाई पटेल भारत की रियासतों का समाकलन करने में सफल हुए।
Question : वर्तमान शताब्दी के प्रारंभिक चरण में भारतीय राजनीति में उग्रवाद के कारण और उसके स्वरूप का परीक्षण कीजिए।
(1997)
Answer : बीसवीं शताब्दी के प्रारंभिक चरण में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस में एक नए और तरुण दल का प्रादुर्भाव हुआ, जो पुराने नेताओं के आदर्श तथा ढंगों का कड़ा आलोचक था। वे चाहते थे कि कांग्रेस का लक्ष्य स्वराज्य होना चाहिए, जिसे वे आत्मविश्वास और आत्मनिर्भरता से प्राप्त करें। यही दल उग्रवादी दल कहलाया। भारतीय राजनीति में उग्रवाद के कारणों में सरकार द्वारा कांग्रेस की मांगों की उपेक्षा एक प्रमुख कारण रही है। 1892 ई. के भारतीय परिषद अधिनियम द्वारा जो भी सुधार किए गए थे, वे अपर्याप्त एवं निराशाजनक ही थे। उदारवादी प्रतिवर्ष सुधार संबंधी मांगों का प्रस्ताव रखते रहे और वे सरकार से प्रार्थना करते रहे कि परिषदों की सदस्यता तथा अधिकारों को वृहत बनाया जाए। लेकिन सरकार ने कांग्रेस के अनुरोध की ओर कोई ध्यान नहीं दिया। फलस्वरूप नवयुवकों का एक ऐसा दल उठ खड़ा हुआ, जिसने वैधानिक एवं क्रांतिकारी मांगों को अपनाना श्रेष्ठकर समझा। ब्रिटिश सरकार की दमनकारी नीति ने भी उग्रवाद के उदय में प्रमुख भूमिका निभायी।
भारत की बिगड़ती हुई आर्थिक स्थिति ने भारतीय राष्ट्रीय प्रक्रिया में उग्रवाद के उदय में विशेष योगदान किया। 1896-97 और 1899-1900 के भीषण अकाल और महाराष्ट्र में प्लेग से लाखों लोग मारे गए। सरकारी सहायता कार्य अत्यधिक अपर्याप्त, धीमा और असहानुभूतिपूर्ण था। शासन की इस हृदयहीनता ने उग्रवाद को पनपने का मौका दिया।
विदेशों में हुई घटनाओं का तरुण लोगों पर अत्यधिक प्रभाव पड़ा। भारतीयों के साथ अंग्रेजी उपनिवेशों में विशेषकर दक्षिण अफ्रीका में हुए दुर्व्यवहार से अंग्रेज विरोधी भावनाएं जाग उठीं। इसके अतिरिक्त इस पर आयरलैंड, ईरान, मिस्र, तुर्की और रूस के राष्ट्रवादी आन्दोलन का भी प्रभाव पड़ा।
भारतीय राजनीति में उग्रवाद के कारणों में कर्जन की प्रतिक्रियावादी नीतियां भी प्रमुख रहीं। संभवतः कर्जन का सबसे निन्दीय कार्य बंगाल को दो भागों में विभाजित करना था (1905)। अतः इसके विरोध में भारत के राष्ट्रीय आन्दोलन में उग्रवादी आन्दोलन का मार्ग प्रशस्त हो गया।
उग्रवादी राष्ट्रवादियों ने ‘स्वराज्य’ की प्रतिष्ठा स्थापित की, जिसका अर्थ विदेशी नियंत्रण से पूर्ण स्वतंत्रता था, ताकि अपने राष्ट्र की नीतियों तथा प्रबंध में पूर्णतया स्वतंत्रता हो। उग्रवादी दल अहिंसात्मक प्रतिरोध, सामूहिक आन्दोलन, आत्मबलिदान दृढ़निश्चय आदि में विश्वास करते थे। ये स्वदेशी तत्वों को महत्ता देते थे। उग्रवादियों ने विदेशी माल का बहिष्कार कर राष्ट्रीय शिक्षा पर बल दिया।
Question : गांधी-इरविन समझौते की प्रमुख विशेषताएं क्या थीं?
(1997)
Answer : सर तेज बहादुर सप्रू. श्री जयकर एवं बी.एस. शास्त्री के प्रयत्नों के फलस्वरूप गांधीजी एवं वायसराय इरविन के बीच 5 मार्च, 1931 को एक समझौता हुआ, जिसे गांधी-इरविन समझौता या ‘दिल्ली पैक्ट’ कहते हैं। समझौते की प्रमुख विशेषताएं निम्न हैं-
Question : महात्मा गांधी की ‘बेसिक शिक्षा’ की अवधारणा की विवेचना कीजिए। रूढि़गत शिक्षा पद्धति से यह कहां तक भिन्न थी?
(1997)
Answer : गांधीजी ने बेसिक (बुनियादी) शिक्षा की विचारधारा को विकसित किया था, जिससे सामाजिक और व्यक्तिगत रचनात्मक गुणों को विकसित करने का अवसर मिलता है। उनके अनुसार, शिक्षा को आत्मनिर्भर होना चाहिए तथा शिक्षा राष्ट्रीय आवश्यकताओं के अनुसार होनी चाहिए। इसके तहत शारीरिक प्रशिक्षण, स्वच्छता तथा स्वावलम्बन पर जोर दिया जाना चाहिए। शिक्षा किसी न किसी हस्तकला से अवश्य संबंधित होनी चाहिए। शिक्षा की यह प्रणाली मैट्रिकुलेशन स्तर तक अंग्रेजी के बिना अपनायी जानी चाहिए। शिक्षा समस्त स्त्री एवं पुरुषों के लिए आवश्यक है। उनके अनुसार शिक्षा का प्रमुख उद्देश्य व्यक्ति को उसके उच्चतम लक्ष्य की अनुभूति कराना तथा उसे स्वयं में सर्वोत्तम बनने की प्रेरणा देना होना चाहिए। यह शिक्षाविधि बेरोजगारी और वर्ग संघर्ष को समाप्त करने में सहायता करेगी। अक्षर ज्ञान या पढ़ने-लिखने की क्षमता मात्र ही शिक्षा नहीं है। गांधीजी वर्तमान शिक्षा पद्धति से सन्तुष्ट नहीं थे, क्योंकि यह शिक्षा विदेशी भाषा के माध्यमसे दी जाती थी और पूर्ण रूप से विदेशी संस्कृति पर आधारित थी। शिक्षा का यह माध्यम भारतीय संस्कृति के विरूद्ध तथा केवल सैद्धान्तिक मात्र ही था।
Question : 1947 में भारत का विभाजन किन परिस्थितियों में हुआ?
(1997)
Answer : ब्रिटिश ब्रिटिश शासन द्वारा भारत में अपने साम्राज्य को बनाए रखने के लिए ‘फूट डालो और राज्य करो’ की नीति का पालन किया गया था, जिसके परिणामस्वरूप सदियों से एक-दूसरे के साथ रहने वाली हिन्दू और मुसलमान जातियों के पारस्परिक संबंध बिगड़ने लगे। इसी नीति के तहत ब्रिटिश सरकार ने 1909 के एक्ट द्वारा मुसलमानों को ‘सांप्रदायिक प्रतिनिधित्व’ प्रदान किया। इस पद्धति ने भारत के राष्ट्रीय जीवन में जिस विष का संचार किया, उसकी चरम परिणति ही पाकिस्तान था। साथ ही, पाकिस्तान की मांग तथा मुस्लिम पृथकतावाद की पराकाष्ठा के लिए कुछ अंशों में हिन्दू संप्रदायवाद और हिन्दू महासभा जैसे कतिपय संगठन भी दोषी कहे जा सकते हैं।
1946-47 के सांप्रदायिक दंगे एवं उपद्रव ने भी भारत के विभाजन की रूपरेखा तैयार कर दी। जब संवैधानिक साधनों से लीग को अपने लक्ष्य की प्राप्ति में सफलता नहीं मिली, तो लीग ने मुसलमानों को सांप्रदायिक उपद्रवों के लिए उत्तेजित किया। 16 अगस्त, 1946 को ‘प्रत्यक्ष कार्यवाही दिवस’ के अवसर पर कलकत्ता में 7000 व्यक्ति मारे गए। इसी प्रकार की घटनाएं नोआखाली और त्रिपुरा में भी हुई, जिसकी प्रतिक्रिया बिहार, गढ़मुक्तेश्वर एवं पंजाब में हुई। इसके अलावा अंतरिम सरकार की असफलता, जिन्ना की हठधर्मिता, लीग के प्रति व्यवहार में कांग्रेस की भूलें, लॉर्ड माउण्टबेटन का प्रभाव एवं सत्ता के प्रति आकर्षण आदि तत्वों ने भी भारत के विभाजन में प्रमुख भूमिका निभायी।
Question : ब्रिटिश शासन काल में धन निर्गम से आप क्या समझते हैं? भारत की अर्थव्यवस्था पर इसके क्या प्रभाव पड़े?
(1997)
Answer : भारत की संपत्ति और संसाधनों का एक हिस्सा अंग्रेजों द्वारा ब्रिटेन को भेज दिया जाता था और इसके बदले भारत को पर्याप्त आर्थिक, व्यापारिक अथवा भौतिक लाभ नहीं मिल रहा था। ऐसे धन को भारतीय राष्ट्रीय नेताओं तथा अर्थशास्त्रियों ने ‘धन निर्गम’ की संज्ञा दी है। इस धन के निकास के कारण देश में पूंजी एकत्रित नहीं हो सकी, जिससे देश के औद्योगिक विकास की गति बहुत धीमी हो गई। इससे भारत के रोजगार तथा आय की संभावनाओं पर अत्यधिक प्रतिकूल प्रभाव पड़ा। इस कारण भारत एक निर्धन देश के रूप में परिणत हो गया।
Question : ‘धार्मिक एवं सामाजिक सुधारों के क्षेत्र में राजा राममोहन राय का नाम सर्वोपरि है।’ स्पष्ट कीजिए।
(1997)
Answer : राजा राममोहन राय एक महान धर्मसुधारक थे। बहुभाषाविद होने के कारण उन्होंने अनेक धर्मों का अध्ययन किया और बताया कि सभी धर्मों में एकेश्वरवादी सिद्धान्त का प्रचलन है। उनका कहना था कि हमें सभी धर्मों के सार को ग्रहण करना चाहिए एवं जो कृत्रिम तथा ढोंग है, उसे त्याग देना चाहिए। इसी विचार के तहत उन्होंने 1828 में ब्रह्म समाज नामक संस्था की स्थापना की। वे धार्मिक स्वतंत्रता और सहिष्णुता के पुजारी थे। उन्होंने अंधविश्वास, मूर्तिपूजा, धार्मिक कर्मकाण्ड आदि की निन्दा की।
सामाजिक सुधारों के क्षेत्र में उन्होंने स्त्रियों की दशा सुधारने की ओर पर्याप्त ध्यान दिया। उनके प्रयत्नों के फलस्वरूप ही 1829 में बेंटिक ने कानून बनाकर सती प्रथा को अवैध घोषित कर दिया। वे औरतों को पैतृक संपत्ति में अधिकार दिलाना चाहते थे। वे विधवा विवाह के समर्थक एवं बहु विवाह के विरोधी थे। वे स्त्री शिक्षा के घोर समर्थक थे। उन्होंने जातिवाद पर भी प्रत्यक्ष प्रहार किया।निःसन्देह धार्मिक एवं सामाजिक सुधारों के क्षेत्र में राजा राममोहन राय का नाम सर्वोपरि है।
Question : निम्नलिखित के विषय में आप क्या जानते हैं।
(i)ललित कला अकादमी
(ii) पूना सार्वजनिक सभा
(iii) रॉलेट एक्ट
(iv) अगस्त 1917 की घोषणा
(1997)
Answer : (i) ललित कला अकादमीः 1954 ई. में भारत और विदेशों में भारतीय कला की उन्नति के लिए इसकी स्थापना की गई। अकादमी शोध प्रबंध, प्रदर्शनियां, पत्रिकाएं एवं जनरल का प्रकाशन करती है।
(ii) पूना सार्वजनिक सभाः इसकी स्थापना 1867 ई. में पूना में हुई थी। इसका उद्देश्य जनसाधारण और सरकार के बीच मध्यस्थता करना था। महादेव गोविन्द रानाडे, आत्माराम पांडुरंग आदि इसके प्रमुख नेतागण थे।
(iii) रॉलेट एक्टः इस एक्ट में सरकार को यह अधिकार प्राप्त था कि वह किसी भी भारतीय को बिना मुकदमा चलाए और दंड दिए जेल में बन्द करे। इस एक्ट के विरोध में गांधीजी ने 6 अप्रैल, 1919 को हड़ताल का आह्नान किया था।
(iv) अगस्त 1917 की घोषणाः मांटेग्यू ने 20 अगस्त, 1917 को घोषणा की कि ब्रिटिश साम्राज्य के एक अभिन्न अंग के रूप में भारत में एक उत्तरदायी सरकार की अधिकाधिक स्थापना की दृष्टि से स्वशासी संस्थाओं का क्रमिक विकास करना उसकी नीति है।Question : निम्नलिखित कहां स्थित हैं और किन घटनाओं से संबंधित हैं?
(i) सूरत
(ii)वैकोम
(iii) मिदनापुर
(1997)
Answer : (i) सूरतः यह गुजरात में स्थित है। 1907 के सूरत अधिवेशन में उग्रवादी कांग्रेस से अलग हो गए।
(ii) वैकोमः यह केरल राज्य में स्थित है। यहीं के.पी. केशवमेनन के नेतृत्व में मंदिर प्रवेश हेतु आन्दोलन चलाए गए।
(iii) मिदनापुरः यह पश्चिम बंगाल में स्थित है। 1760 में मीर कासिम ने ईस्ट इण्डिया कंपनी को मिदनापुर जिले की जमींदारी सौंपी थी। 1942 के भारत छोड़ो आन्दोलन के समय यहां जातीय सरकार की स्थापना हुई थी।
Question : निम्नलिखित किसलिए प्रसिद्ध हुए?
(i) श्यामजी कृष्ण वर्मा
(ii)रानी गैंडिनल्यू
(iii)सैफुद्दीन किचलू
(iv) डॉ. निवेदिता भसीन
(1997)
Answer : (i) श्यामजी कृष्ण वर्माः ये पश्चिम भारत के काठियावाड़ प्रदेश के निवासी थे। इन्होंने लंदन में 1905 ई. में भारत स्वशासन समिति (India Home Rule Society) का गठन किया था, जिसे ‘इण्डिया हाउस’ कहा जाता था। इन्होंने एक मासिक पत्रिका ‘इण्डियन सोशियोलॉजिस्ट’ (Indian Sociologist) भी आरंभ की थी।
(ii) रानी गैंडिनल्यूः नागालैण्ड में जन्मी और 13 वर्ष की आयु में ही गांधीजी के आह्नान पर राष्ट्रीय आन्दोलन में सम्मिलित हुई। 1932 में ब्रिटिश सरकार द्वारा आजीवन कारावास का दण्ड मिला। 1947 ई. में स्वतंत्र भारत सरकार ने इनको स्वतंत्र किया।
(iii) सैफुद्दीन किचलूः प्रमुख स्वतंत्रता सेनानी। 1919 ई. के सत्याग्रह के आन्दोलन में एक प्रभावशाली भूमिका अदा की। इन्होंने विश्व शांति परिषद की स्थापना की। 1954 में उन्हें स्टालिन शांति पुरस्कार मिला था।
(iv) डॉ. निवेदिता भसीनः आयरलैण्ड की निवेदिता स्वामी विवेकानन्द की शिष्या थीं। ये प्रथम पश्चिमी देश की महिला थीं, जिन्हें भारतीय मठवासीन जीवन क्रम में प्रवेश मिला। इन्होंने धर्म की राष्ट्रीय दर्शन के रूप में व्याख्या की।
Question : किन कारणों से 1920 में गांधीजी का संवेदनापूर्ण सहयोग का दृष्टिकोण असहयोग में बदल गया? इसके क्या परिणाम हुए?
(1996)
Answer : महात्मा गांधी, जिन्होंने दक्षिण अफ्रीका में जातीय भेदभाव तथा नागरिक अधिकारों के समर्थन में सफल सत्याग्रह किया था, जनवरी, 1915 में भारत पहुंचे। गांधीजी ने जिस समय भारतीय राजनीति में प्रवेश किया, उस समय ब्रिटिश सरकार प्रथम विश्व युद्ध में संलग्न थी। गांधीजी ने युद्ध प्रयासों का इस आशा से समर्थन किया कि युद्ध समाप्ति के बाद सरकार भारतीयों को स्वराज सौंप देगी। युद्ध के दिनों में गांधीजी ने युवाओं को सेना में भर्ती होने के लिए प्रोत्साहित भी किया। इस सेवा से खुश होकर ब्रिटिश सरकार ने उन्हें ‘कैंसर-ए-हिंद’ की उपाधि प्रदान की। इस दौरान गांधीजी का सरकार के प्रति संवेदनापूर्ण दृष्टिकोण रहा, परंतु शीघ्र ही गांधीजी का दृष्टिकोण असहयोग में बदल गया।
रॉलेट एक्ट को 18 मार्च, 1919 को तमाम गैर-सरकारी भारतीय सदस्यों के विरोध के बावजूद स्वीकार कर लिया गया। इस विधेयक को जनता ने ‘काला कानून’कहा। भारतीय जनमानस में रॉलेट एक्ट को लेकर काफी आक्रोश था। इसी समय गांधीजी ने विरोध का एक अनोखा तरीका प्रस्तुत किया। गांधीजी के सत्याग्रह के समर्थन में अमृतसर में सभाएं आयोजित की गयीं। 13 अप्रैल, 1919 को वैशाखी के दिन जलियांवाला बाग हत्याकांड हो गया। इस हत्याकांड की जांच के लिए बनाए गए इंटर आयोग की रिपोर्ट को गांधीजी ने निर्लज्ज सरकारी लीपापोती कहा। प्रथम विश्व युद्ध में तुर्की के परास्त होने पर सरकार इसके विखंडन पर विचार करने लगी। परिणामस्वरूप, मुसलमान नेताओं ने खिलाफत आंदोलन प्रारंभ किया। इसी समय गांधीजी को खिलाफत कमिटी का अध्यक्ष बनाया गया। गांधीजी इस आंदोलन को हिन्दू-मुस्लिम एकता का सुनहरा अवसर मानते थे। इन्हीं परिस्थितियों में गांधीजी का संवेदनापूर्ण सहयोग का दृष्टिकोण असहयोग में बदल गया।
Question : अंग्रेजी भारतीय सरकार की 1858-1905 के मध्य की नीतियों का उद्देश्य जनता के अन्य विद्रोहों को रोकना था। व्याख्या कीजिए।
(1996)
Answer : साम्राज्य के बनाए रखने के प्रयत्नों में अंग्रेजी सरकार ने जो आर्थिक एवं प्रशासनिक नीतियां अपनायीं, उसके परिणामस्वरूप भारत का पारंपरिक सामाजिक व आर्थिक ढांचा अस्त-व्यस्त हो गया और जनता ने असंतुष्ट होकर 1857 की महान क्रांति का मार्ग अपनाया। यद्यपि इस विद्रोह को कुचल दिया गया, परंतु ब्रिटिश सरकार को महसूस हो गया कि यदि भविष्य में उन्हें भारत पर शासन करना है, तो उन्हें ऐसी नीतियां अपनानी होंगी, जो इस प्रकार के विद्रोह को पुनः पैदा ही न होने दे। आगे की नीति उपरोक्त विचारों को ध्यान में रख कर ही बनायी जाने लगी।
इस विद्रोह के बाद अंग्रेजों ने सामाजिक नीति में सतर्कता का दृष्टिकोण अपनाया। उन्होंने यह सोचा कि यहां के लोगों की परम्पराओं तथा पूर्वाग्रहों का ध्यान रखना श्रेयस्कर है तथा उनका उद्देश्य शांति बनाए रखना होना चाहिए। ईसाई धर्म से संबंधित स्कूलों को भी सहायता देना बंद कर दिया गया। समाज सुधार संबंधी कानूनों को हाथ में न लेना, देशी राजाओं को बनाए रखना, विधान-परिषद में सुधार करना, तालुकदारों को बनाए रखना, ये सब इसी के कपरिणाम थे। विद्रोह के बाद कुछ प्रशासनिक परिवर्तन भी लागू किए गए। अंग्रेज अधिकारियों ने यह तर्क दिया कि विद्रोह का एक कारण भारतीयों की इच्छाओं को जानने के उचित तरीके का अभाव है। इस कमी को दूर करने के लिए तीन भारतीयों को भी विधान परिषद में स्थान दिया गया। इस विद्रोह के बाद सरकार ने देशी राज्यों को साम्राज्य में मिलाने की नीति का परित्याग कर दिया। अंग्रेजों ने यह स्पष्ट समझ लिया था कि अंधाधुंध विस्तार की नीति घातक सिद्ध हो सकती है। साथ ही, उन्हें इसका भी अहसास हुआ कि देशी राज्यों से मित्रतापूर्ण संबंध स्थापित करके वे अपने साम्राज्य को जनता के विद्रोह से उत्पन्न होने वाले खतरों से बचा सकते हैं। अब अंग्रेजों ने भारत की पारंपरिक संस्थाओं तथा उच्च वर्गों को बनाए रखने की नीति अपनायी। इसके साथ-साथ जमींदारों को भी बनाए रखने की नीति अपनायी गई। इस स्वामीभक्त वर्ग की स्थापना के दीर्घकालीन परिणाम अंग्रेजों के लिए बहुत लाभदायक रहे। जब राष्ट्रीय आंदोलन प्रारंभ हुआ, तो इस वर्ग ने मुख्यतः अंग्रेजों का ही साथ दिया।
Question : 1905 में बंगाल को प्रशासकीय कारणों की अपेक्षा राजनीतिक उद्देश्यों से विभाजित किया गया। व्याख्या करें।
(1996)
Answer : राष्ट्रीय आंदोलन में उग्र धारा उस समय और जोर पकड़ गई, जब 1905 में लॉर्ड कर्जन ने बंगाल का विभाजन किया। तथाकथित प्रशासनिक सुविधा के विचार से किया गया यह विभाजन राजनीतिक उद्देश्य से प्रेरित था, क्योंकि बंगालियों में एकता बढ़ती जा रही थी और अंग्रेज इसे खत्म करना चाहते थे। स्वयं एक अंग्रेज अधिकारी गिसले ने कहा कि ‘‘संयुक्त बंगाल एक शक्ति है और हमारा उद्देश्य इसे अलग करना है, ताकि हमारे शासन के विरोधी लोगों के संगठन को कमजोर किया जा सके।’’ बंगाल विभाजन के समय बंगाल की कुल जनसंख्या 7 करोड़ 85 लाख थी। उड़ीसा और बिहार भी इसी राज्य के हिस्से थे। पूर्वी बंगाल और असम को मिलाकर एक नया प्रांत बनाया गया, जिसकी कुल जनसंख्या 3 करोड़ 10 लाख (एक करोड़ अस्सी लाख मुसलमान तथा 1 करोड़ 20 लाख हिन्दू) थी। दूसरे भाग में पश्चिम बंगाल, बिहार तथा उड़ीसा के हिस्से सम्मिलित थे, जिसकी कुल जनसंख्या 5 करोड़ 40 लाख थी (4 करोड़ 20 लाख हिन्दू तथा 90 लाख मुसलमान)। बंगाल को सिर्फ बंगालवासियों के प्रभाव को कम करने के लिए नहीं बांटा गया, बल्कि बंगाल में बंगालियों की आबादी कम कर उन्हें अल्पसंख्यक बनाना ही मुख्य उद्देश्य था। इस विभाजन में एक और विभाजन ‘धार्मिक आधार पर किया गया विभाजन’ भी अंतर्निहित था।
Question : दक्ष निष्क्रिय नीति क्या थी? इसका त्याग क्यों कर दिया गया?
(1996)
Answer : प्रथम अफगान युद्ध का अनुभव अंग्रेजों के लिए बड़ा कटु रहा था। 1863 में अफगानिस्तान का अमीर दोस्त मुहम्मद मर गया। मरने से पहले उसने अपने एक पुत्र शेर अली को उत्तराधिकारी नियुक्त किया। परंतु, उसकी मृत्यु के तुरंत बाद उसके 16 पुत्रों में गृह युद्ध आरंभ हो गया। सभी प्रतिद्वंदी अंग्रेजों की सहायता के इच्छुक थे, किन्तु लॉर्ड लॉरेंस ने कुशल अकर्मण्यता का अनुसरण करते हुए संघर्षशील भाइयों को सहायता देने से इंकार कर दिया। 1868 में शेरअली ने जब अपनी सत्ता सुदृढ़ कर ली, तो लॉरेंस ने उसे धन व शस्त्र भेजे। लॉर्ड लॉरेंस इससे अधिक हस्तक्षेप करने को तैयार नहीं था। इसी नीति को ‘दक्ष निष्क्रियता की नीति’ कहा जाता है। लॉर्ड मेयो (1868-1872) तथा लॉर्ड नॉर्थब्रुक (1872-1876) ने इस नीति में परिवर्तन नहीं किया, अपितु इसे बनाए ही रखा। 1876 में लॉर्ड लिटन के वायसराय बनकर आने पर अफगानिस्तान के प्रति अपनायी गई नीति में परिवर्तन आया। वह बेंजामिन डिजरैली (1874-80) की रूढि़वादी सरकार का मनोनीत व्यक्ति था। उदारवादी दल के अधीन अनिश्चित और संदिग्ध नीति की स्थापना कर उसने एक उत्साहपूर्ण विदेश नीति अपनायी। डिजरैली अफगानिस्तान के समस्त संबंधों को अनिश्चित स्थिति में नहीं रखना चाहता था। लिटन को भारत में निश्चित आदेश देकर भेजा गया था कि वह अफगानिसतान के अमीर के साथ एकअधिक कारगर, निश्चित और व्यवहारिक संधि करे। ऐसी ही परिस्थितियों में दक्ष निष्क्रियता की नीति त्याग दी गई।
Question : मैकडोनाल्ड निर्णय क्या था? इसे किस प्रकार संशोधित किया गया?
(1996)
Answer : द्वितीय गोलमेज सम्मेलन की समाप्ति पर रैम्से मैकडोनाल्ड ने अगस्त 1932 में ‘सांप्रदायिक निर्णय’ की घोषणा की। इस नवीनतम घोषणा में दलित वर्ग को भी मुसलमान, सिख, ईसाई के साथ अल्पसंख्यक वर्ग में रख दिया गया, जिसके सदस्यों का चुनाव ‘पृथक निर्वाचक मंडल’ द्वारा होना था।
गांधीजी ने दलितों को अल्पसंख्यक वर्ग में शामिल करने तथा उन्हें पृथक निर्वाचन का अधिकार देने की सरकार के निर्णय की आलोचना की। उन्होंने दलित वर्ग के प्रतिनिधियों का चुनाव वयस्क मताधिकार द्वारा आम निर्वाचक मंडल के माध्यम से कराने की बात कही तथा उसके लिए विधानसभाओं में अधिक मात्र में सुरक्षित सीटों का समर्थन किया। अपनी मांग के समर्थन में गांधीजी ने रैम्से मैकडोनाल्ड को एक पत्र लिखा तथा 20 सितंबर, 1932 से वे आमरण अनशन पर बैठ गए। 5 दिन तक लगातार विचार-विमर्श के बाद 26 सितंबर, 1932 को गांधी और अम्बेडकर के मध्य ‘पूना पैक्ट’ हुआ। समझौते के अनुसार दलित वर्गों के लिए पृथक निर्वाचन व्यवस्था समाप्त कर दी गई लेकिन विधानमंडलों में दलितों के लिए आरक्षित सीटों की संख्या 71 से बढ़ा कर 147 कर दी गई। केंद्रीय विधानमंडल में इनके लिए सुरक्षित सीटों की संख्या 18 प्रतिशत कर दी गई।
Question : भारत में राष्ट्रीय आंदोलन के प्रवाह को प्रभावित करने में तिलक का क्या योगदान रहा?
(1996)
Answer : एक राजनीतिक नेता के रूप में तिलक ने ‘केसरी’ तथा ‘मराठा’ नामक समाचार-पत्रों द्वारा अपने विचार एवं संदेशों का प्रचार किया। 1896 के दुर्भिक्ष के समय से ही उन्होंने जनता को राजनीति का रहस्य समझाया और भारतीय राजनीति में एक प्रचंड तत्व को सक्रिय कर दिया। तिलक प्रथम कांग्रेसी नेता थे, जो देश के लिए अनेक बार जेल गए। वही पहले व्यक्ति थे, जिन्होंने स्वराज्य की मांग स्पष्ट रूप से की और नारा दिया कि, ‘स्वतंत्रता हमारा जन्मसिद्ध अधिकार है।’
यह इन्हीं के और इनके सहयोगियों के प्रयत्नों का फल था कि 1906 में कलकत्ता कांग्रेस अधिवेशन में स्वशासन, बहिष्कार और राष्ट्रीय शिक्षा की मांग का प्रस्ताव पारित किया गया। 1916 में होम रूल आंदोलन चला कर उन्होंने राष्ट्रवादी आंदोलन में सामाजिक आधार को विस्तृत बनाया।
Question : अपनी आत्मकथा में नेहरू ने ‘लिबरल वर्ग’ की इतनी अधिक आलोचना क्यों की थी।
(1996)
Answer : असहयोग आंदोलन (1920) के आरंभ होने से पूर्व कांग्रेस के कुछ नेताओं ने उदारवादी राजनीति अपनाने की वकालत की और वैसा संभव न होने पर उन लोगों ने एक लिबरल फेडरेशन बना ली, जिसके नेता, एस.एन. बनर्जी एवं श्रीनिवास शस्त्री जैसे लोग थे। उनकी नीतियों की पंडित नेहरू ने जमकर आलोचना की। नेहरू के अनुसार लिबरल नेताओं ने ब्रिटिश शासन को एक वरदान के रूप में माना और इसी कारण उन लोगों ने अपने को राष्ट्रीय आंदोलन के उग्र तरीकों से अलग रखा। असहयोग आन्दोलन के दौरान उन्होंने सरकार का न सिर्फ समर्थन किया, अपितु सरकार का साथ भी दिया। जब देश में असहयोग आन्दोलन अपनी चरमसीमा पर था, तब उदारवादियों ने विधानपरिषदों का बहिष्कार नहीं किया तथा मंत्री व अन्य सरकारी पदों को भी स्वीकार किया।
Question : अंतरराष्ट्रीयवाद और मानवतावाद पर बल देने में टैगोर अपने समय से बहुत आगे थे? व्याख्या कीजिए।
(1996)
Answer : टैगोर के अंतरराष्ट्रयतावाद को आध्यात्मिक मानवतावाद कहा जाता है। वे प्रत्येक मनुष्य को विश्व नागरिक मानते थे। उनके विशाल एवं कवि हृदय ने देश-काल की संकीर्णता को स्वीकार नहीं किया। उनके अनुसार समस्त मानवों की सहज मनोवैज्ञानिक भावनाएं एवं संवेदनाएं देश-काल की परिधि से मुक्त हैं और संवेदनाओं तथा अनुभूतियों के धरातल पर समस्त मानव समुदाय एक ही है। भारत अथवा भारतीयों की चर्चा करते समय उनके समक्ष समस्त मानवता का विशाल संदर्भ होता था। वे मानव की भावनाओं के पूर्ण सम्मान पर बल देते थे। ‘वसुधैव कुटुंबकम’ की भावना के प्रतिकूल राष्ट्रीयता उन्हें स्वीकार नहीं थी।
Question : आप निम्नलिखित के विषय में क्या जानते हैं?
(i)बटलर कमिटी रिपोर्ट
(ii) अगस्त प्रस्ताव, 1940
(iii) भारत की थियोसोफिकल सोसाइटी
(1996)
Answer : (i) बटलर कमिटी रिपोर्ट देशी रियासतों से संबद्ध है। यह कमिटी ‘सर्वोच्चता’ को परिभाषित करने के लिए बनायी गई थी, परंतु इस रिपोर्ट ने सर्वोच्चता को अपरिभाषित ही रखा और अत्यधिक आलोचनाओं का शिकार हुआ।
(ii) वायसराय लॉर्ड लिनलिथगो ने 8 अगस्त, 1940 को एक घोषणा की, जिसके अंतर्गत डोमिनियन स्टेटस, युद्ध पश्चात संविधान बनाने के लिए एक निकाय के गठन, वायसराय की कार्यकारिणी का विस्तार तथा एक युद्ध समिति के गठन का प्रस्ताव था।
(iii) 1882 में मद्रास के निकट अड्यार में थियोसोफिकल सोसाइटी का मुख्यालय बनाने के बाद भारत में थियोसोफिकल आन्दोलन का विकास हुआ, जिसे बाद में एनी बेसेंट ने आगे बढ़ाया।
Question : निम्नलिखित स्थान किन घटनाओं से संबंधित हैं?
(i)हरिपुरा
(ii) चौरी-चौरा
(iii)बारदोली
(iv) दांडी
(1996)
Answer : (i) हरिपुरा में 1938 में कांग्रेस अधिवेशन हुआ था, जिसमें सुभाष चन्द्र बोस को अध्यक्ष बनाया गया था। यह पहला अवसर था, जब किसी गांव में कांग्रेस का अधिवेशन हुआ था।
(ii) चौरी-चौरा उत्तर प्रदेश में गोरखपुर के निकट स्थित है। यहां 5 फरवरी, 1922 को ग्रामीणों द्वारा कुछ पुलिसकर्मियों को जिन्दा जला दिया गया। इसे चौरी-चौरा हत्याकांड कहा जाता है। इसी कारण गांधीजी ने असहयोग आन्दोलन को वापस ले लिया।
(iii) बारदोली नामक स्थान गुजरात में स्थित है। यहीं के आन्दोलन ने सरदार वल्लभभाई पटेल को चर्चित नेता बना दिया। बारदोली प्रस्ताव द्वारा ही असहयोग आन्दोलन को वापस लिया गया था।
(iv) दांडी, गुजरात में स्थित है। सविनय अवज्ञा आन्दोलन की शुरूआत यहीं से हुई थी। दांडी मार्च के बाद गांधीजी ने यहीं पर नमक बनाकर सत्याग्रह की शुरूआत की थी।
Question : निम्नलिखित क्यों प्रसिद्ध हुए?
(i) भारतेन्दु हरिशचन्द्र
(ii)सी. राजगोपालाचारी
(iii) ए.ओ. ह्यूम
(iv) बिरसा मुंडा
(1996)
Answer : (i) भारतेन्दु हरिशचन्द्र हिन्दी के राष्ट्रवादी कवि थे, जिन्होंने अपनी रचनाओं से राष्ट्रवाद को आगे बढ़ाया। इनकी रचनाओं में ‘भारत दुर्दशा’ सर्वाधिक चर्चित पुस्तक है।
(ii) सी. राजगोपालाचारी भारत के अंतिम गवर्नर जनरल थे। भारतीय राष्ट्रीय आन्दोलन में इन्होंने महत्वपूर्ण कार्य किए। 1944 में इनके द्वारा प्रस्तावित ‘सी.आर. फार्मूले’ से इन्हें काफी प्रसिद्धि मिली।
(iii) ए.ओ. ह्यूम इंडियन सिविल सेवा के अधिकारी थे, जिन्होंने अवकाश ग्रहण करने के बाद कांग्रेस का गठन किया। कुछ वर्षों तक वे कांग्रेस के सचिव के रूप में भी कार्यरत रहे।
(iv) बिरसा मुंडा, मुंडा आंदोलन (1895-1900) के प्रवर्तक थे। जमींदारों तथा साहूकारों के शाषण के खिलाफ तथा अंग्रेजी आर्थिक नीति के विरूद्ध छोटानागपुर के मुंडा आदिवासियों ने विद्रोह किया और इसी दौरान बिरसा ने आन्दोलन को ऊर्जा प्रदान की।
Question : निम्नलिखित की प्रसिद्धि का क्या कारण है?
(i) भाई परमानन्द
(ii) डॉ. सत्यपाल
(iii) वासुदेव बलवंत फड़के
(iv) जॉर्ज यूल
(v)एन.सी. केलकर
(vi) सी.एफ. एंड्रूज
(1995)
Answer : (i) भाई परमानन्दः 1874 ई. में पंजाब में जालंधर में जन्मे भाई परमानन्द एक समाज सुधारक थे। इन्हें त्यागमूर्ति के नाम से जाना जाता था। हिन्दू राष्ट्रवाद के समर्थक तथा गदर पार्टी के सदस्य भाई परमानन्द ने नेहरू रिपोर्ट (1928) का विरोध किया था। वे 1933 में हिन्दू महासभा के अध्यक्ष तथा 1931 व 1934 में केंद्रीय लेजिस्लेटिव एसेम्बली के सदस्य चुने गए। भाई परमानन्द ने ‘हिन्द आउटलुक’ नामक पत्र भी निकाला था।
(ii) डॉ. सत्यपालः यह भारत विभाजन से पूर्व प्रमुख कांग्रेसी राजनेता थे, जो पंजाब विधानसभा के अध्यक्ष भी रहे। लाहौर से एक उर्दू पत्र ‘कांग्रेस’ प्रकाशित किया तथा स्वतंत्रता संग्राम के समय कांग्रेस के महत्वपूर्ण पदों पर कार्य भी किया।
(iii) वासुदेव बलवन्त फड़केः महाराष्ट्र निवासी फड़के ने 1879 में अंग्रेजों के खिलाफ सशक्त विद्रोह का नेतृत्व किया था, जिसके लिए उन्हें आजीवन कारावास की सजा दी गई थी।
(iv) जॉर्ज यूलः जॉर्ज यूल, एण्ड्रयू यूल एण्ड कं. कलकत्ता के प्रमुख तथा कुछ समय तक कलकत्ता के शेरिफ भी रहे थे। उन्होंने सन् 1888 में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के इलाहाबाद अधिवेशन की अध्यक्षता (प्रथम विदेशी मूल के अध्यक्ष) की थी।
(v) एन.सी. केलकरः श्री केलकर मराठी के साहित्यकार और राजनीतिज्ञ थे। वे 1927 तथा 1929 में हिन्दू महासभा के अध्यक्ष चुने गए। उन्होंने बालगंगाधर तिलक को ‘केसरी’ तथा ‘मराठा’ समाचार-पत्र निकालने में सहायता दी। हिन्दू महासभा के शुद्धि और संगठन कार्यों में भी उन्होंने बढ़-चढ़कर भाग लिया था।
(vi) सी.एफ. एन्ड्रूजः दीनबन्धु के नाम से प्रसिद्ध एन्ड्रूज एक अंग्रेज थे, जो भारत में आकर बस गए थे। उन्होंने गांधी के साथ कार्य किया था तथा भारतीयों के सहायतार्थ दक्षिण अफ्रीका भी गए थे।
Question : क्या आपके विचार से भारत का विभाजन अपरिहार्य था? विभाजन के नाजुक प्रश्न पर महात्मा गांधी, पंडित नेहरू और मौलाना आजाद के दृष्टिकोण का विवेचन कीजिए।
(1995)
Answer : वर्ष 1935 के उपरांत अंग्रेजों की भारतीय सत्ता पर पकड़ धीरे-धीरे कमजोर होती जा रही थी। प्रान्तीय स्वशासन के दौरान कांग्रेस मंत्रियों की आज्ञा का पालन करने के कारण अंग्रेज आई.सी.एस. अधिकारियों का मनोबल गिरने से, द्वितीय महायुद्ध में विजय प्राप्त करने के बावजूद ब्रिटिश आर्थिक परिस्थितियों में बढ़ती विषमता, 1946 में भारतीय नौ सेना के संगठित विद्रोह तथा शक्ति व शोषण द्वारा भारत पर शासन करने से विश्व जनमानस, विशेषकर अमेरिकी जनमानस पर विपरीत प्रभाव पड़ने की आशंका से ब्रिटिश सरकार को यह विश्वास हो गया था कि अब भारत पर वह अधिक दिनों तक शासन नहीं कर सकती है। लेकिन वर्ष 1947 में जब अनौपचारिक रूप से यह निश्चय किया गया, तो प्रश्न यह उठा कि वे भारत की सत्ता का हस्तान्तरण किसे करें?
उस समय ब्रिटिश सरकार भारत का विभाजन नहीं चाहती थी, क्योंकि विभाजित भारत उसके हितों की पूर्ति नहीं कर सकता था। साथ ही, भारत को वह राष्ट्रमण्डल का सदस्य भी बनाना चाहती थी। इसी कारण ‘कैबिनेट मिशन’ ने अपने प्रस्ताव में भारत के विभाजन को स्वीकार नहीं किया था। परंतु विविध प्रान्त समूहों को पृथक संविधान बनाने के अधिकार की व्यवस्था की गई, जो किसी भी तरह भारत के विभाजन के सवाल से संबंधित नहीं था। ब्रिटिश सरकार द्वारा भारत को एक रखने के प्रयास के मार्ग में सबसे बड़ी बाधा उसी के द्वारा पोषित और पैदा की गई मुस्लिम सांप्रदायिकता थी, जो किसी भी तरह से हिन्दू बहुसंख्यक के साथ रहने को तैयार नहीं थी।
मुस्लिम लीग ने 1940 में ही मुस्लिमों के लिए पृथक राज्य की मांग की थी। लोगों को जब यह आभास हो गया कि अंग्रेज भारत छोड़ कर जा सकते हैं, तो उन्होंने अपनी शक्ति प्रदर्शित करने का निश्चय किया और वे इस दिशा में सारी शक्ति के साथ लग गए। ब्रिटिश अधिकारियों के आग्रह को ठुकराते हुए उन्होंने क्रिप्स मिशन, शिमला सम्मेलन व कैबिनेट मिशन के प्रस्तावों को ठुकरा दिया। ‘वीटो’ की यह शक्ति उन्हें ब्रिटिश सरकार द्वारा ही प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष ढंग से प्राप्त हुई थी। मुसलमानों द्वारा अगस्त 1946 में आरंभ किए गए ‘सीधी कार्यवाही’ के कारण भारत में सांप्रदायिक दंगों एवं नरसंहार का एक ऐसा दौर आरंभ हुआ, जिसका कोई हल नजर नहीं आ रहा था। केंद्र में जब जवाहरलाल नेहरू के नेतृत्व में अन्तरिम सरकार बनी, तो पहले मुस्लिम लीग इसमें सम्मिलित नहीं हुई। बाद में लीग इसमें सम्मिलित तो अवश्य हुई, मगर शासन को चलाने के लिए नहीं, बल्कि शासन के मार्ग में रोड़े अटकाने के लिए। इस तरह से वह यह सिद्ध करना चाहती थी कि लीग और कांग्रेस मिलकर एक साथ कार्य नहीं कर सकते हैं अर्थात हिन्दू व मुस्लिमों का एक साथ रह पाना कठिन है और पृथक राज्य के बगैर इस समस्या का कोई हल नहीं है।
‘सीधी कार्यवाही’ के कार्यक्रम को मुस्लिम लीग द्वारा इस उद्देश्य से आरंभ किया गया था, ताकि ब्रिटिश सरकार अपने दृष्टिकोण में परिवर्तन लाए और पाकिस्तान की मांग को स्वीकार कर ले। मुस्लिम लीग के इस अडि़यल रवैये के कारण ही कांग्रेस व ब्रिटिश सरकार को अपने-अपने दृष्टिकोण बदलने के लिए बाध्य होना पड़ा। जहां कांग्रेस ने मजबूरी में भारत का विभाजन स्वीकार कर लिया, वहीं ब्रिटिश सरकार भी दो उपनिवेशों को स्थापित करने का निश्चय किया और भारत स्वतंत्रता अधिनियम जुलाई 1947 में पारित किया, जिसके अंतर्गत 15 अगस्त, 1947 को भारत का विभाजन हो गया। भारत के विभाजन की जिम्मेदारी जहां तत्कालीन राजनीतिक परिस्थिति और लीग के अडि़यल रवैये पर जाती है, वहीं कांग्रेसी नेताओं के अदूरदर्शितापूर्ण रवैये भी इसके लिए जिम्मेवार थे। ऐसी परिस्थिति में विभाजन अपरिहार्य बन गया था। कांग्रेस ने लीग के समक्ष लगभग समर्पण कर दिया था। कांग्रेस यदि लीग के षड्यंत्र का सही तरीके से जवाब दे पाती, तो शायद विभाजन टल जाता।
गांधीजी मात्र शांति के लिए ही विभाजन को स्वीकार करने को तैयार नहीं थे। उन्होंने यहां तक कहा था कि भारत का विभाजन मेरी लाश पर ही होगा। देश के विभाजन को टालने के लिए वे जिन्ना को भारत का प्रधानमंत्री स्वीकार करने को तैयार थे, जो अपनी इच्छानुसार अपना मंत्रिमण्डल बना सकता था। लेकिन गांधीजी के इस सोच को मानने के लिए अन्य कांग्रेसी नेता ही नहीं, बल्कि जिन्ना भी तैयार नहीं हुए और अन्ततः गांधीजी ने कठोर हृदय से भारत के विभाजन को स्वीकृति दे दी।
पंडित जवाहरलाल नेहरू आरंभ में देश विभाजन के एकदम विरोधी थे, परंतु पाकिस्तान निर्माण की मांग को लेकर मुस्लिम लीग द्वारा देश के विभिन्न हिस्सों में कराए गए सांप्रदायिक दंगों तथा अन्तरिम सरकार में लीग के असहयोगवादी रवैये और अंग्रेजों की षड्यंत्रकारी नीतियों को देखते हुए उन्होंने भी देश भाजन को स्वीकार करना ही हितकर समझा। लेकिन पंडित नेहरू संप्रदाय के आधार पर देश का विभाजन नहीं चाहते थे और उन्होंने कभी भी यह नहीं माना कि भारत का विभाजन हिन्दू और मुस्लिमों के दो पृथक राज्यों के रूप में हुआ है।
मौलाना आजाद जो एक महान राष्ट्रवादी नेता थे, अंत तक भारत के विभाजन का विरोध करते रहे। परंतु परिस्थितियों के आगे वे भी अन्य कांग्रेसी नेताओं की तरह विवश होकर विभाजन को स्वीकार करने के लिए मजबूर हुए थे। उन्होंने विभाजन के लिए मुस्लिम लीग को ही जिम्मेदार माना था।
Question : सविनय अवज्ञा आन्दोलन का भारत के विविध प्रान्तों पर क्या प्रभाव पड़ा? उसने भारत में कृषक आन्दोलन का किस प्रकार पोषण किया?
(1995)
Answer : महात्मा गांधी के नेतृत्व में वर्ष 1930 में सविनय अवज्ञा आनदोलन प्रारंभ हुआ था। 6 अप्रैल, 1930 को गुजरात के दांडी नामक जगह पर समुद्र तट पर पड़े नमक को उठा कर तथा नमक कानून को तोड़ कर गांधीजी ने इस आन्दोलन की शुरूआत की थी। गंधीजी ने 6 अप्रैल से 13 अप्रैल तक राष्ट्रीय स्प्ताह मनाने की अपील की। इसके साथ ही सारे देश में सरकार के प्रबल विरोध व दमन के बावजूद नमक लाने तथा बनाने, मदिरालयों तथा अफीम की दुकानों को बन्द करवाने, विदेशी कपड़ा बेचने वाली दुकानों का बहिष्कार करने तथा उन पर धरना देने, विदेशी वस्त्र जलाने, सरकारी स्कूल-कॉलेजों का बहिष्कार करने, सरकारी नौकरियों का परित्याग करने और सरकार को लगान तथा करों का भुगतान न करने का आह्नान किए जाने के साथ ही आन्दोलन प्रारंभ हो गया। इस आन्दोलन ने सारे राष्ट्र को आन्दोलित कर दिया था।
गांधीजी के निर्देशों का पालन संपूर्ण देश की जनता दे किया। कलकत्ता, मद्रास, पूना, पटना, शोलापुर, करांची, पेशावर, दिल्ली आदि नगरों में सभाओं, धरनों, बहिष्कारों आदि का आयोजन किया गया। बंगाल बिहार व उड़ीसा में विदेशी वस्तुओं का सर्वाधिक बहिष्कार हुआ। संयुक्त प्रांत, बंगाल, पंजाब, मद्रास, बिहार, बंबई आदि प्रांतों के विधानमण्डलों के अनेक सदस्यों ने त्यागपत्र दे दिए तथा अदालतों का बहिष्कार किया गया। मध्य प्रान्त में वन कर के विरोध में जनआन्दोलन हुआ और कर्नाटक में कर देने के विरोध में तीव्र आन्दोलन हुआ। कृषकों ने सरकारी कर्जों तथा लगान देने से मना कर दिया।
सरकार ने आन्दोलन को दबाने के लिए कठोर कदम उठाए और बेहिसाब दमन चक्र का सहारा लिया। हजारों लोगों को जेल में डाल दिया गया और कई लोगों को मारा भी गया। गांधीजी भी गिरफ्रतार कर लिए गए। गांधीजी के गिरफ्रतार होने के पश्चात अब्बास तैयबजी तथा सरोजिनी नायडू ने आन्दोलन का नेतृत्व किया। पुलिस ने कई जगह आन्दोलनकारियों पर फायरिंग भी किया तथा व्यापक स्तर पर लाठी चार्ज किया।
इतिहासकारों का मानना है कि सविनय अवज्ञा आन्दोलन ने भारत में कृषक आन्दोलन को एक नया जीवन एवं स्फूर्ति प्रदान किया। आन्दोलन के दौरान कृषकों से कहा गया था कि वे सरकारी कर्जों तथा लगान का भुगतान सरकार को न करें और यदि कर्जों तथा लगान को वसूल करने के क्रम में सरकारी कर्मचारी किसी कृषक को तंग करें, तो सभी कृषक संगठित होकर उसका विरोध करें। इस कारण से कृषकों में संगठित होने की भावना प्रबल हुई और देश के लगभग हर भाग में कृषक आन्दोलन उग्र हुए तथा वे स्वतंत्रता संग्राम आन्दोलन का एक महत्वपूर्ण एवं अभिन्न हिस्सा बन गए। सबसे महत्वपूर्ण बात तो यह हुई कि सविनय अवज्ञा आन्दोलन के प्रभाव ने कृषकों में भय की भावना का लोप कर दिया तथा कृषकों में एक नया विश्वास एवं त्याग की भावना भी पैदा कर दी।
सरकारी दमन के बावजूद इस आन्दोलन के दौरान कृषकों सहित तमाम भारतीय जनमानस पूरे जोशो-खरोश के साथ आन्दोलन से जुड़ा रहा और पीछे नहीं हटा। भारतीय जनमानस के इसी बहादुरी को देखते हुए लुई फिशर ने कहा था कि ‘इंग्लैंड शक्तिरहित हो गया और भारत अजेय हो गया।’ भारतीय स्वतंत्रता संग्राम में सविनय अवज्ञा आन्दोलन का एक महत्वपूर्ण स्थान इन्हीं कारणों से माना जाता है।
Question : भारतीय सिविल सेवा (इंडियन सिविल सर्विस) में मुक्त प्रतियोगिता परीक्षाओं की पद्धति कब आरंभ की गई? भारतीय शासन अधिनियम, 1919 के पारित होने तक के भारतीय सिविल सेवा के विकास का विश्लेषण कीजिए।
(1995)
Answer : चार्टर अधिनियम 1853 द्वारा सिविल सेवाओं में नियुक्ति हेतु प्रतियोगिता परीक्षा प्रणाली लागू की गई थी। अधिनियम द्वारा यह व्यवस्था की गई थी कि इस परीक्षा में भारतीय भी भाग ले सकते थे। लेकिन यह परीक्षा इंग्लैण्ड में आयोजित की जाती थी, इसलिए उस समय की परिस्थिति के अनुसार काफी कम भारतीय इसमें भाग ले पाते थे। भारतीय सिविल सेवा अधिनियम, 1861 में कुछ पदों को प्रसंविदा सिविल सर्वेन्ट्स के लिए आरक्षित कर दिया गया था। 1860, 1866 तथा 1878 में सिविल सेवा के लिए अधिकतम आयु घटा कर क्रमशः 22 वर्ष, 21 वर्ष तथा 19 वर्ष कर दी गई। परोक्ष रूप से इस व्यवस्था का उद्देश्य कम से कम भारतीयों को सिविल सेवा में आने देना था। साथ ही 1870 में एक अधिनियम पारित करके यह व्यवस्था की गई कि जो भारतीय सिविल सेवा परीक्षा पास नहीं कर पाते, उन्हें प्रसंविदा सेवाओं में आरक्षित पदों पर नियुक्त किया जा सकता था।1878-79 में लॉर्ड लिटन की सरकार ने सांविधिक सिविल सेवा (Statutory Civil Services) की शुरूआत की। लॉर्ड डफरिन ने 1886 में भारतीय सिविल सेवा परीक्षा को एक ही साथ इंग्लैण्ड तथा भारत में आयोजित करने के प्रश्न पर विचार करने के लिए पंजाब के लेफ्रिटनेंट गवर्नर सर चार्ल्स एचीसन की अध्यक्षता में एक आयोग का गठन किया। इस आयोग ने प्रसंविदा तथा गैर-प्रसंविदा वर्गीकरण को समाप्त करने तथा सेवाओं के तीन वर्ग-इम्पीरियल इण्डियन सिविल सेवा, प्रान्तीय सिविल सेवा तथा सबोर्डीनेट सिविल सेवा बनाने तथा आयु सीमा बढ़ा कर 23 वर्ष करने का सुझाव दिया। हाउस ऑफ कॉमन्स में 2 जून, 1893 को एक संकल्प पारित करके इण्डियन सिविल सेवा की परीक्षा भारत तथा इंग्लैण्ड में एक साथ आयोजित करने का निर्णय लिया गया, लेकिन भारत सरकार ने अपने लिए इस व्यवस्था को उचित नहीं समझा और इस प्रस्ताव को लागू नहीं किया जा सका
वर्ष 1912 में सिविल सेवा पर विचार करने के लिए इसलिंग्टन आयोग नियुक्त किया गया। इसलिंग्टन आयोग की रिपोर्ट 1917 में प्रस्तुत की गई। वर्ष 1918 में इस रिपोर्ट पर विचार किया गया तथा भारत व इंग्लैण्ड में मुक्त प्रतियोगिता परीक्षा, भारतीयों के लिए आरक्षित प्रतिशत पद तथा प्रतिवर्ष उस प्रतिशत में वृद्धि की सिफारिश की गई। वैसे इस सिफारिश को वास्तविक तौर पर भारतीय शासन अधिनियम, 1919 को पारित होने के बाद ही लागू किया जा सका।
Question : उन्नीसवीं सदी के पूर्वार्द्ध में ईस्ट इण्डिया कंपनी द्वारा लागू किए गए सामाजिक विधानों के विविध पक्षों का विवेचन कीजिए।
(1995)
Answer : ईस्ट इंडिया कंपनी की सरकार ने सन् 1813 तक भारत के धार्मिक, समाजिक तथा सांस्कृतिक जीवन में अहस्तक्षेप की नीति अपनायी, लेकिन 1813 के उपरान्त उन्होंने भारतीय समाज और संस्कृति को परिवर्तित करने के लिए सक्रिय कदम उठाए। जेम्स मिन तथा विलियम बेंटिक जैसे उग्र-सुधारवादी अंग्रेजों ने भारतीय समाज की बुराइयों को दूर करने के लिए सक्रिय रूप से कार्य किया। भारतीय समाज को पुरातनपंथी जकड़न से मुक्त करने और समाज के आधुनिकीकरण में ईसाई धर्म प्रचारकों व मिशनों तथा राजा राममोहन राय, ईश्वरचन्द्र विद्यासागर और ऐसे ही अन्य भारतीयों की भी सक्रिय भूमिका रही। 1813 के उपरांत ईस्ट इंडिया कंपनी द्वारा लागू किए गए प्रमुख सामाजिक विधान निम्नलिखित थे-
वैसे ईस्ट इण्डिया कंपनी द्वारा उन्नीसवीं सदी के पूर्वार्द्ध में सरकारी तौर पर प्रारंभ किए गए इन सामाजिक सुधारों का भारतीय सामाजिक प्रणाली के बहुत छोटे से भाग पर ही प्रभाव पड़ा तथा अधिसंख्य जनता इन कानूनों से अछूती ही रही। इसका प्रमुख कारण एक तो यह रहा कि इन कुप्रथाओं की जड़ें भारतीय समाज में अत्यधिक गहराई तक जमी हुई थीं और दूसरा कारण यह था कि एक विदेशी सरकार के लिए इस दिशा में इससे ज्यादा कुछ कर पाना संभव भी नहीं था।
Question : भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की स्थापना तक हुए भारतीय राष्ट्रीयता के उद्भव की रूपरेखा दीजिए।
(1995)
Answer : भारतीय राष्ट्रीयता की भावना की शुरूआत राजा राममोहन राय और उनके जागरूक भारतीय सहयोगियों के प्रयास से ही हुई थी। इसलिए राजा राममोहन राय को ‘भारतीय राष्ट्रीयता का जनक’ भी कहा जाता है। भारतीय राष्ट्रीयता के जनक और उनके अन्य सहयोगियों ने लोकतांत्रिक अधिकारों जैसे प्रेस की आजादी तथा देश के प्रशासन में राष्ट्रीय आवाज होने के अधिकार को प्राप्त करने के लिए सतत संघर्ष करते रहे। वैसे यह भी सत्य है कि भारतीय राष्ट्रीयता के प्रारंभिक दौर में भारतीय नेताओं ने अंग्रेजों की दमनकारी नीतियों का विरोध करने की बजाय भारतीय समाज में व्याप्त धार्मिक तथा सामाजिक बुराइयों को दूर करने पर अधिक जोर दिया। राजा राममोहन राय ने वैसे तो कोई राजनीतिक संगठन खड़ा नहीं किया था और न ही इस दिशा में प्रयास ही किया था, तथापि उन्होंने ईस्ट इण्डिया कंपनी द्वारा प्रेस की स्वतंत्रता पर लगाए प्रत्येक प्रतिबंध का विरोध किया तथा देश की प्रशासनिक व्यवस्था में अधिकाधिक भारतीयों की भागीदारी की मांग की।
बंगाल ब्रिटिश इण्डिया सोसाइटी पहला राजनीतिक संगठन था, जिसने संवैधानिक तरीकों से अपने अधिकारों को प्राप्त करने के लिए भारतीयों को संगठित किया। इस सोसाइटी की स्थापना ब्रिटिश इण्डियन सोसाइटी के सचिव जॉर्ज थॉमस की सलाह पर राधाकान्त दुबे, देवेन्द्रनाथ ठाकुर तथा प्रसन्न कुमार ठाकुर ने अक्टूबर 1851 में की थी। इसी तरह का संगठन मद्रास में मद्रास नेटिव एसोसिएशन तथा बम्बई एसोसिएशन, बंबई में तथा दक्षिण में दक्षिण एसोसिएशन स्थापित की गई। इन सभी संगठनों ने प्रशासन, न्यायपालिका, राजस्व, संचार आदि में सुधार लागू किए जाने की मांग प्रस्तुत की थी।
भारत के मध्यम वर्ग के लोगों ने अपने-अपने राजनीतिक तथा आर्थिक हितों की सुरक्षा के लिए ईस्ट इण्डिया एसोसिएशन ऑफ लंदन की एक शाखा भारत में भी स्थापित की थी। इसी तर्ज पर पूना में सार्वजनिक सभा तथा कलकत्ता में इण्डियन एसोसिएशन की स्थापना की गई थी। दादाभाई नौरोजी ने सन् 1866 में लंदन में ईस्ट इण्डिया एसोसिएशन की स्थापना की तथा इसकी शाखा 1868 में मद्रास में और 1869 में बंबई में खोली गई। पूना के सार्वजनिक सभा के एक नेता गणेश वासुदेव जोशी ने पश्चिमी भारत में स्वदेशी आन्दोलन आरंभ किया था। जोशी तथा रानाडे जैसे नेताओं के प्रयासों से यह सभा उस समय का सबसे प्रभावी संगठन बन गया था। सन् 1876 में सुरेन्द्रनाथ बनर्जी तथा आनन्द मोहन बोस ने सन् 1876 में कलकत्ता में इण्डियन एसोसिएशन की स्थापना की थी। यह संगठन अखिल भारतीय स्तर का ऐसा पहला राजनीतिक संगठन था, जिसने प्रेस की आजादी काउंसिलों में सुधार, भारतीयों द्वारा हथियारों को रखने की स्वतंत्रता, पुलिस प्रशासन में सुधार आदि के लिए संगठित तौर पर प्रयास किए। इस तरह अखिल भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की स्थापना से पूर्व धीरे-धीरे ही सही, मगर मजबूती के साथ भारतीयों में राजनीतिक चेतना का विकास होने लगा था।
Question : भारतीय रजवाड़ों को ‘तूफान में तरंग रोध’ मानने की लॉर्ड केनिंग की नीति को अंग्रेजों ने किस प्रकार चित्रित किया?
(1995)
Answer : सन् 1857 के स्वतंत्रता आन्दोलन के उपरान्त अंग्रेजों ने भारतीय राजवाड़ों के प्रति अपनी नीति में बदलाव लाते हुए इन्हें हथियाने की नीति का परित्याग कर दिया। 1857 के उपरांत अंग्रेजों ने राजवाड़ों को उनके राज्य क्षेत्र में राजनीतिक और आर्थिक स्वायत्तता प्रदान करने की नीति अपनायी, क्योंकि 1857 के विद्रोह के समय भारत के अधिकांश रजवाड़ों ने ब्रिटिश सरकार तथा कंपनी के प्रति निष्ठा रखते हुए विद्रोह के विरूद्ध उनका साथ दिया था। लॉर्ड कैनिंग के अनुसार इन राजवाड़ों ने ‘तूफान में तरंग रोध’ का कार्य किया था। अंग्रेजों ने इस अवधारणा को स्वीकार करते हुए भारतीय रजवाड़ों को सन्तानहीन होने पर गोद लेने के उनके अधिकार को मान लिया और उन्हें आश्वस्त किया कि भविष्य में उन्हें इस आधार पर सत्ताच्युत नहीं किया जाएगा। 1857 के विद्रोह ने अंग्रेजों की यह भावना दृढ़ कर दी कि जनविद्रोह तथा जनविरोध होने पर राजवाड़े अंग्रेजों के प्रमुख सहायक तथा सहयोगी की भूमिका निभा सकते हैं। इसलिए यह निर्णय लिया गया कि भारत पर अंग्रेजों की सत्ता को बनाए रखने के लिए भारतीय रजवाड़ों को एक प्रमुख आधार के रूप में इस्तेमाल किया जाए। अंग्रेजों की इस नीति को स्पष्ट करते हुए ब्रिटिश इतिहासकार पी.ई. रॉबर्ट्स ने कहा है कि साम्राज्य के बचाव के लिए रजवाड़ों को संरक्षित करने की ब्रिटिश नीति एक प्रमुख सिद्धान्त के रूप में अपनायी गई। इससे वह जनअसंतोष को बहुत दिनों तक रोकने में सफल हुए।
Question : अंग्रेजों के शासनकाल में तकनीकी शिक्षा के वर्द्धन और विकास का मूल्यांकन कीजिए।
(1995)
Answer : अपने शासनकाल में अंग्रेजों ने भारत में तकनीकी शिक्षा के वर्द्धन तथा विकास हेतु मात्र उतना ही ध्यान दिया या प्रयास किया, जितना कि उन्हें अपनी सेनाओं तथा उनके अपने हित के लिए आवश्यक लगा। इसी क्रम में उत्तर-पश्चिमी प्रान्त में सन् 1847 में रुड़की में तथा सन् 1856 में कलकत्ता में इंजीनियरिंग कॉलेज की स्थापना की गई और पूना के ओवरसियर कॉलेज का दर्जा बढ़ा कर पूना कॉलेज ऑफ इंजीनियरिंग कर दिया गया। लेकिन तकनीकी शिक्षा के विकास के लिए ये प्रयास पर्याप्त सिद्ध नहीं हुए। सन् 1835 में कलकत्ता में मेडिकल कॉलेज की स्थापना की गई। यद्यपि लॉर्ड कर्जन ने भी चिकित्सा, कृषि, इंजीनियरिंग, पशु चिकित्सा, विज्ञान एवं अन्य क्षेत्रों में तकनीकी शिक्षा के विकास के लिए विशेष प्रयास किया और बिहार में पूसा कृषि महाविद्यालय की स्थापना की, लेकिन उसका उद्देश्य मात्र ब्रिटिश हितों तक ही सीमित था। अतः तकनीकी शिक्षा का विकास संतोषजनक नहीं रहा और भारत को इस क्षेत्र में पिछड़ा ही रखा गया।
Question : ‘‘स्वामी विवेकानन्द को सहज ही भारतीय राष्ट्रीयता का जनक कहा जा सकता है।’’ स्पष्ट कीजिए?
(1995)
Answer : स्वामी रामकृष्ण परमहंस के शिष्य स्वामी विवेकानंद ने धर्म द्वारा भारत और भारतीयों में नयी स्फूर्ति फूंकने के अपने प्रयास के तहत सन् 1883 में सारे भारत का भ्रमण किया था। सन् 1893 में शिकागो धर्म संसद में भाग लेकर उन्होंने हिन्दुत्व का सही अर्थ बताते हुए यह स्पष्ट किया कि वेदान्त विश्व का सबसे महान एवं सार्वभौमिक धर्म है। विश्व के समक्ष हिन्दुत्व की व्याख्या करते हुए स्वामी विवेकानंद ने पूर्व और पश्चिम तात्त्विक तथा भौतिक, आध्यात्मिक तथा पदार्थिक आदि के बीच सुखद संतुलन स्थापित किया। उनके द्वारा दिया गया आध्यात्मिक आशा का सन्देश आगे चल कर भारतीय राष्ट्रीयता का मजबूत सम्बल बना। साथ ही, भारत को एक राष्ट्र के रूप में मानने की उनकी सोच ने भी भारतीय राष्ट्रीयता को मजबूती प्रदान की। इसी आधार पर स्वामी विवेकानंद को भारतीय राष्ट्रीयता का जनक कहा जा सकता है।
Question : गुरुदेव रवीन्द्रनाथ टैगोर का धर्म का स्वरूप कहां तक उनके प्रकृति प्रेम से प्रतिबद्ध था?
(1995)
Answer : गुरुदेव रवीन्द्रनाथ टैगोर प्रकृति के बहुत बड़े प्रेमी थे और हमेशा प्रकृति के समीप रहने की कोशिश करते थे। उन्होंने हमेशा प्रकृति से कुछ सीखने की वकालत की। बचपन से ही उन्हें प्रकृति से प्रेम हो गया था और वे प्रकृति में ही ईश्वर के दर्शन करते थे। वे रोज प्रातःकाल उठकर अपने घर के बगीचे में बैठकर उगते हुए सूर्य की अनुपम छटा को देख कर आनंदित और प्रफुल्लित हो उठते थे। गुरुदेव प्रकृति के सौंदर्य में ही ईश्वर के दर्शन करते थे। उनका मानना था कि प्रकृति से सच्चा प्रेम ही ईश्वर से सच्चा प्रेम है और यही सत्य धर्म का सार है। उनके लिए प्रकृति का सौन्दर्य ही ईश्वर था और प्रकृति से सच्चा प्रेम ही उनका धर्म था।
Question : निम्नलिखित के विषय में आप क्या जानते हैं?
(i) अलीगढ़ आन्दोलन
(ii)शुद्धि आन्दोलन
(iii) ब्रह्म आन्दोलन
(1995)
Answer : (i) अलीगढ़ आन्दोलनः इस आन्दोलन के प्रणेता अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय के संस्थापक सर सैयद अहमद खां थे। इस आन्दोलन के अन्य प्रमुख नेता चिराग अली, अलताफ हुसैन अली, नजीर मुहम्मद, मौलाना शिवली नुमानी आदि थे। इस आन्दोलन का मुख्य ध्येय भारत के मुसलमानों को आधुनिक वैज्ञानिक शिक्षा की सुविधाएं उपलब्ध कराना था।
(ii) शुद्धि आन्दोलनः यह आन्दोलन आर्य समाज के प्रणेता स्वामी दयानन्द सरस्वती ने परिवर्तित मुसलमानों को पुनः हिन्दू धर्म में लाने के लिए चलाया था। इस आन्दोलन के परिणामस्वरूप अनेक मुसलमानों ने पुनः हिन्दू धर्म स्वीकार कर लिया था।
(iii) ब्रह्म आन्दोलनः वैष्णव धर्म के पुनररुथान के लिए 1889 ई. में विजय कृष्ण गोस्वामी ने ब्रह्म आन्दोलन चलाया था। इस आन्दोलन के प्रचारक विजय कृष्ण ने मथुरा, वृन्दावन आदि जगहों की यात्रा की थी।