सिंधु घाटी सभ्यता में डेयरी उत्पादन के साक्ष्य

अक्टूबर, 2020 में, 2500 ईसा पूर्व सिंधु घाटी सभ्यता में डेयरी उत्पादन प्रचलित होने संबंधी साक्ष्यों की पहली बार वैज्ञानिक रूप से पुष्टि हुई है और यह अब तक, डेयरी उत्पादन के प्राचीनतम ज्ञात प्रमाण है।

  • गुजरात स्थित एक ग्रामीण बस्ती कोटड़ा भादली के पुरातात्विक स्थल पर पाए जाने वाले मिट्टी के बर्तनों में अवशेषों के आणविक रासायनिक विश्लेषण करने पर इन परिणामों का पाता चला है। अध्ययन किए गए 59 नमूनों में से 22 में डेयरी वसा (dairy lipids) की उपस्थिति प्राप्त की गई।

प्रमुख निष्कर्षः निष्कर्षों के आधार पर पता चला है कि भारत में डेयरी उत्पादन करीब 3000 साल ईसा पूर्व में शुरू हुआ, जो कि सिंधु घाटी सभ्यता को जीवित रखने के पीछे एक कारक हो सकता है।

  • स्टेबल आइसोटोप एनालिसिस (Stable Isotope Analysis) प्रक्रिया के माध्यम से शोधकर्ता डेयरी उत्पादन में इस्तेमाल किए जाने वाले पशुओं की पहचान करने में भी सक्षम थे, और इनके निष्कर्षों के अनुसार यह पशु बकरियों और भेड़ों के बजाय गाय और भैंस की तरह होते थे।

डेयरी उत्पादन का औद्योगिक स्तरः हड़प्पावासी डेयरी-पदार्थों को केवल अपनी घरेलू जरूरतों के लिए उपयोग नहीं करते थे। पशुओं के बड़े झुंडों संबंधी साक्ष्यों से पता चलता है कि विभिन्न बस्तियों के बीच विनियम करने के उद्देश्य से दूध का निजी आवश्यकता से अधिक उत्पादन किया जाता था।

  • इससे सिंधु घाटी सभ्यता में डेयरी उत्पादन, औद्योगिक स्तर पर विकसित होने की संभावना प्रतीत होती है।

चोल काल के शिलालेख की प्राप्ति

सितम्बर, 2020 आंध्र प्रदेश के कुडप्पा (Kadapa) जिले में खुदाई के दौरान रेनाटी चोल युग (Renati Chola Era) के शिलालेख (Rare Inscription) की प्राप्ति हुई है।

  • यह शिलालेख डोलोमाइट चट्टान का एक टुकड़ा है, जिस पर तेलुगू भाषा में उत्कीर्ण किया गया है। 25 पंक्तियों में उत्कीर्ण इस शिलालेख को पुरातन तेलुगू भाषा में लिखा गया था, चट्टान के एक तरफ 11 पंक्तियों को तथा 14 पंक्तियों को दूसरी तरफ उत्कीर्ण किया गया था।
  • इतिहासविदों के अनुसार यह शिलालेख सिद्यामायु (Sidyamayu) नामक एक व्यक्ति को उपहार में दी गई छह मार्टटस (Marttus- एक प्रकार की भूमि मापने की इकाई) भूमि के रिकॉर्ड से संबंधित है।
  • सिद्यामायु (Sidyamayu), पिडुकुला गांव में मंदिर की सेवा करने वाले ब्राह्मणों में से एक ब्राह्मण था।
  • शिलालेख की अंतिम पंक्तियां उस समय काल में ‘नैतिकता’ को दी जाने वाली प्राथमिकता का संकेत करती हैं।
  • इसमें कहा गया है कि ‘जो लोग इस शिलालेख को भविष्य की पीढ़ियों के लिए सुरक्षित रखेंगे, उन्हें ‘अश्वमेध यज्ञ’ करने के सामान पुण्य की प्राप्ति होगी तथा जो इसे नष्ट करेंगे वह वाराणसी में हत्या का कारण बनने के बराबर पाप के भागी होंगे।

रेनाति चोल

  • रेनाडु (Renadu) के तेलुगू चोल (जिन्हें रेनाति चोल भी कहा जाता है) रेनाडू क्षेत्र पर शासन करते थे, वर्तमान में यह क्षेत्र कुडप्पा जिले के अंतर्गत आता है।
  • प्रारंभ में ये स्वतंत्र शासक थे, किंतु बाद में इन्हें पूर्वी चालुक्यों की अधीनता स्वीकार करनी पड़ी। उन्हें सातवीं और आठवीं शताब्दी से संबंधित शिलालेखों में तेलुगू भाषा उपयोग करने का अद्वितीय गौरव प्राप्त है।
  • इस वंश का प्रथम शासक नंदिवर्मन (500 ईस्वी) था, जिसे करिकेल वंश तथा कश्यप गोत्र का बताया जाता है।