(A) भूमि धारिता (लैंड होल्डिंग) के साईज में हो रही कमी
वर्ष 2012-13 के अनुसार भारत में 140 मिलियन हेक्टेयर कृषि भूमि है। यह कई वर्षों में भूमि के छोटे-छोटे टुकड़ों में विभाजित हो गई है।
देश के सभी राज्यों में पट्टे की भूमि
देश में कुल कृषि भूमि का 10% कृषि पट्टे/लीज में है। राज्यों में इस प्रतिशत को देखा जाए तो आंध्र प्रदेश में यह 34%, पंजाब में 25%, बिहार में 21% एवं सिक्किम में 18% है। कुछ समय पहले कर्नाटक एवं पश्चिम बंगाल जैसे राज्यों में बटाईदार किसानों को कुछ विधिक अधिकार देने के प्रयास किए गए हैं।
राज्यों में टेनेंसी (बटाई भूमि) से संबंधित कानून
कृषि भूमि के बटाई में देने से संबंधित कानून विभिन्न राज्यों में अलग-अलग है। केरल, जम्मू-कश्मीर, मणिपुर, जैसे राज्यों ने कृषि भूमि को बटाई पर देने से पूर्णतः रोक दिया है। अन्य राज्य जैसे बिहार, कर्नाटक, उत्तर प्रदेश, तेलंगाना, ओडिशा विशेष वर्ग के भू- स्वामियों को भूमि को कृषि के लिए पट्टे पर देने की अनुमति देते है।
वहीं अन्य राज्य जैसे गुजरात, महाराष्ट्र एवं असम लीजिंग को पूर्णतः प्रतिबंधित नहीं करते एवं बटाईदारों को अधिकार देते हैं कि एक निश्चित अवधि के बाद (बटाईदार की खेती) बटाईदार भूस्वामी से जमीन खरीद सकते हैं। आंध्र प्रदेश, तमिलनाडु, पश्चिम बंगाल में कोई कानूनी प्रतिबंध नहीं है। कुछ राज्यों में कृषि भूमि की लीजिंग की ऊपरी सीमा निर्धारित है।
(B) सिंचाई तक अपर्याप्त पहुंच
वर्तमान में खाद्यान्नों का लगभग 51% कृषि क्षेत्र ही सिंचित है। कृषि क्षेत्र का अधिकांश हिस्सा वर्षा पर निर्भर है। सिंचाई के स्रोत भूमिगत जल में (वेल एवं ट्यूब वेल्स) हैं एवं धरातलीय जल में नहर, तालाब एवं बांध है। जल के प्रयोग की दक्षता में सुधार की जरूरत है।
कृषि सिंचाई के लिए देश के उपलब्ध जल का 84% प्रयोग किया जा रहा है। देश के कृषि सिंचित क्षेत्र का 65% जल भूमिगत जल से आता है।
पिछले कुछ दशकों में राज्यों में सिंचाई के लिए मुख्यतः धान जैसी जल सघन फसलों के लिए भूमिगत जल का अतिदोहन हुआ है। उदाहरण के तौर पर हरियाणा एवं राजस्थान में क्रमशः 40% एवं 75% भूमिगत जल का अतिदोहन हो रहा है। पंजाब में स्थिति और भी गंभीर है।
सिंचाई की अपर्याप्त सुविधा का नतीजा निम्न उत्पादकता होता है। साथ ही अचानक वर्षा से फसल को अत्यधिक नुकसान होने का खतरा रहता है। इस समय पूरे देश में सिंचाई के लिए जल दक्षता में देखा गया कि भारत एक टन खाद्यान्न उत्पादन करने के लिए चीन, अमेरिका, ब्राजील की तुलना में 2 से 3 गुना अधिक जल का उपयोग करता है इससे स्पष्ट हुआ कि यदि भारत इन देशों की तरह सिंचाई में जल के उपयोग में दक्षता हासिल कर ले तो वर्तमान में सिंचाई जल का 50% बचत कर सकता है।
(c) मानसून पर निर्भरता
स्वतंत्रता से लेकर अब तक सिंचाई अवसंरचना का तेजी से विस्तार हुआ है। फिर भी इस समय देश का 1/3 फसल क्षेत्र ही सिंचित है जिसके कारण अभी भी 2/3 फसल क्षेत्र मानसून पर निर्भर है। जैसा कि हम जानते हैं कि भारत में मानसून की बेहद अनिश्चितता रहती है जो जलवायु परिवर्तन के कारण और अनिश्चित हो गया है।
(D) गुणवत्तापूर्ण बीजों तक पहुंच
गुणवत्तापूर्ण बीज एक अन्य महत्वपूर्ण आगत है। कृषि उत्पादकता के लिए फसल उत्पादन की वृद्धि में बीजों का 20% से 25% योगदान होता है। बीजों का विनियमन बीज अधिनियम 1966 के तहत हो रहा है। यह अधिनियम बीजों की गुणवत्ता, उत्पादन एवं बिक्री को नियंत्रित करता है। सीड्स कंट्रोल आर्डर 1983 बीजों की बिक्री, आयात निर्यात को नियंत्रित करता है।
सामान्यतः उपयोग किए जाने वाले बीजों की विविधता इस तरह है-
कृषि बीज विभिन्न एजेन्सियों जैसे ‘इण्डियन काउंसिल ऑफ एग्रीकल्चरल रिसर्च एवं इसकी अन्य शोध संस्थाओं द्वारा राज्य कृषि विश्वविद्यालयों एवं राष्ट्रीय तथा राज्य बीज निगमों द्वारा उत्पादित किए जाते हैं। निजी क्षेत्र भी अब कुछ बीजों की आपूर्ति में भूमिका निभा रहा है जैसे हाइब्रिड मक्का, बाजरा, कपास, सूर्यमुखी।
गुणवत्तापूर्ण बीजों के विकास एवं वितरण में कुछ चुनौतियां हैं जो इस तरह है-
देश में उपलब्ध बीज का 30-35% निजी एवं सरकारी कंपनियों द्वारा उत्पादित किया जाता है। शेष किसानों द्वारा देशी बीजों का प्रयोग किया जाता है। जबकि किसान कुछ फसलों के बीज खुद की खेती से तैयार कर लेते हैं। लेकिन उच्च उत्पादकता वाले बीजों को उन्हें बाजार से खरीदना पड़ता है।
इन उच्च उत्पादक बीजों की कीमत बेहद ज्यादा होती है। जिससे छोटे मध्यम किसानों को इन्हें खरीदने में मुश्किल होती है।
(E) मृदा पोषक तत्वों का असंतुलित प्रयोग
कृषि की उत्पादकता में मृदा एक महत्वपूर्ण कारक है। भारतीय मृदाओं में प्राथमिक रूप से नाइट्रोजन, फास्फोरस एवं पोटैशियम जैसे पोषक तत्व पाए जाते हैं। द्वितीयक पोषक जैसे सल्फर, कैल्शियम, मैग्नीशियम तथा सूक्ष्म पोषक जैसे जिंक एवं लोहा आदि पाए जाते हैं।
वहीं पिछले कुछ दशकों से खाद्यान्नों के उत्पादन में वृद्धि हुई है तो इसने मृदा में पोष्ाक तत्वों में असंतुलन, जल के स्तर एवं गुणवत्ता में कमी एवं मृदा की ओवर ऑल स्वास्थ में क्षरण की स्थिति भी उत्पन्न हुई है।